कंजूस : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा
Kanjoos : Lok-Katha (Oriya/Odisha)
कहावत है कि धन जितना बढ़ता है, लोभ उतना बढ़ता जाता है। जिसके पीछे कोई नहीं है, न लड़का - न लड़की, उसके लोभ का तो कहना ही क्या। उस महाजन की बात भी ठीक ऐसी ही थी। सभी पीठ पीछे बात करते। देव पूजन नहीं, ब्राह्मण या दीन-हीन को दान न दक्षिणा—मधुमक्खी की तरह अपना पेट न भरकर जाने किसके लिए धन संचय कर रहा है? मर जाएगा तो श्राद्ध का खाना दूसरे ही खाएँगे! महाजन के कानों में ऐसी बातें पड़तीं तो वह सोचता अरे, धन तो मेरा है पर दूसरों का सिर क्यों दुख रहा है?
एक दिन की बात है कि महाजन नहाने गया था। तालाब के किनारे एक खजूर का पेड़ दिखा। पके हुए खजूर से लदा वह पेड़ सुबह की धूप से सोने के हार की तरह चमक रहा था। खजूर खाने को उसका मन हुआ। पर पास में कोई अंकुड़ी नहीं थी। क्या करे? चारों तरफ़ नज़र फिराई, कहीं कोई नहीं था। खजूर के पेड़ पर चढ़ गया। चढ़ तो गया, पर बड़ा डर लगा। ख़ून पानी होने लगा, शरीर थरथराने लगा। लगा कि जैसे फिसल ही जाएगा! सोचने लगा कि अच्छा ऐसा खजूर खाने का मन किया। इसके लिए कहीं जान न चली जाए? तब महाजन ने मन-ही-मन भगवान को याद करते हुए कहा, “हे प्रभु! इस आपदा से ऊबर जाऊँ तो एक सौ ब्राह्मणों को भोजन कराऊँगा।” फिर मन में साहस बाँधकर नीचे उतरा। आधा उतरा था कि मन में सोचा, “इतने सारे ब्राह्मणों को कहाँ से खिलाऊँगा? पचास ब्राह्मणों को खिला दूँगा।” फिर कुछ नीचे उतरा तो सोचा, “पंच परमेश्वर इतना झंझट कौन करे? पाँच ब्राह्मणों को खिलाऊँगा।” नीचे उतरकर लंबी साँस भरी और सोचा, “आफ़त में फँस गया था, इसलिए उतने ब्राह्मणों को खिलाने की बात कर गया। एक ही ब्राह्मण को खिलाऊँगा। झूठे इतना ख़र्च क्यों करूँगा?
जब कह दिया है तो अपनी ज़बान पर क़ायम रहूँगा, ऐसा सोचकर महाजन ने एक ब्राह्मण को निमंत्रित करने के लिए सोचा। फिर सोचा, “ब्राह्मण तो खाने वाले होते हैं, खाते रहेंगे तो खाते ही रहेंगे। उनका पेट भरता है भला? जितना खिलाओ और माँगेंगे।” ऐसा सोचकर एक मरियल से ब्राह्मण को बुलाया।
उस दिन महाजन को एक ज़रूरी काम आन पड़ा। इसलिए उसने पत्नी से पूछा, “सुन! मैं किसी काम से जा रहा हूँ। ब्राह्मण आएँ तो उन्हें अच्छे से खाना खिलाना। कुछ पैसा-दक्षिणा में भी दे देना। उन्हें असंतुष्ट मत होने देना।”
उसके दूसरे दिन तिलक-विलक लगाकर ब्राह्मण महाजन के द्वार पर हाज़िर हुए। महाजन की पत्नी ने पानी-पीढ़ा सजाकर ब्राह्मण को खाने के लिए कहा तो ब्राह्मण बोला, “बेटी मैं बीमार आदमी हूँ। खाना-पीना कर नहीं पाऊँगा। मुझे रुपया दे दो। महाजन तो बोला था कि जो माँगेगा दे देना। ब्राह्मण बोला, “सौ रुपया दे दो। नहीं तो तुम्हारे द्वार से नहीं उठूँगा।” महाजन की पत्नी ने मजबूरन उसे सौ रुपए का नोट दिया।
महाजन ने लौटकर सारी बातें सुनीं। सिर पर हाथ धरकर बैठ गया। पत्नी को ख़ूब गाली दी, फिर छाता लेकर ब्राह्मण के घर की तरफ़ गया।
ब्राह्मण था बहुत चालाक। महाजन को देखकर चद्दर ओढ़कर लेट गया और ब्राह्मणी के कान में फुसफुसाकर कुछ बातें समझा दीं।
ब्राह्मणी महाजन के पास आते ही ब्राह्मण के पैर के पास बैठकर ज़ोर-ज़ोर से रोते हुए बोलने लगी, “अब मैं क्या करूँ? उस महाजन के घर क्यों गए, हे स्वामी? वह तो लालची है। जाने क्या खाने को दिया कि अब छटपटा रहे हो। जाने प्राण ही ना निकल जाए। मैं क्या करूँ? जाती हूँ राजदरबार में, वहीं गुहार लगाऊँगी।”
ब्राह्मणी का रोना-बिलखना देखकर महाजन द्वार पर एक पल को खड़ा रहा। तब तक आस-पड़ोस के लोग इकट्ठा होने लगे। लोगों को देखकर ब्राह्मणी और ज़ोर-ज़ोर से बिलखने लगी। सभी महाजन की निंदा करने लगे। महाजन लोक-लाज के भय से ब्राह्मणी के हाथ पर सोने की एक मुहर देते हुए बोला, “देख तू और चीख़-चिल्ला मत। मैं जा रहा हूँ।” महाजन के चले जाने के बाद ब्राह्मण झाड़-बुहारकर उठ खड़ा हुआ। ब्राह्मण-ब्राह्मणी दोनों फिर ख़ूब हँसे। एक मक्कार को ठग लिया, इसलिए ख़ूब ख़ुश हुए।
(साभार : ओड़िशा की लोककथाएँ, संपादक : महेंद्र कुमार मिश्र)