कंजूस मक्खीचूस : बांग्लादेश की लोक-कथा
Kanjoos Makkhichoos : Lok-Katha (Bangladesh)
एक नगर में शमशाद नाम का एक व्यापारी रहता था । उसका कारोबार दूर-दूर तक फैला था । वह बहुत अमीर था । लेकिन वह पहले दर्जे का कंजूस था । एक-एक पैसा वह देखभाल कर खर्च करता था ।
शमशाद इतना कंजूस था कि भोजन में सूखी रोटी एक सब्जी के साथ खाता था । घर के बने सीधे-सादे कपड़े पहनता था । घर में कोई नौकर-चाकर नहीं रखता था । सारा काम उसकी पत्नी स्वयं करती थी । उसकी कोई संतान नहीं थी ।
उसे जहां कहीं जाना होता, पैदल जाता । सभी लोग जानते थे कि वह बहुत धनी परंतु कंजूस है । लोगों ने उसका नाम मक्खीचूस रख छोड़ा था । वह जैसे-तैसे जो भी कमाता, उससे सोने के सिक्के बनवा लेता ।
शमशाद के घर के पीछे एक बड़ा बगीचा था । वहां वह रोज सुबह-शाम सैर करने जाता था । उसी बगीचे में एक पेड़ के नीचे उसने एक बड़ा-सा घड़ा मिट्टी में दबा कर रखा हुआ था । जो भी दौलत वह इकट्ठी करता, सोने के सिक्कों के रूप में उस मटके में डाल देता ।
शाम हो जाने पर वह घर में केवल एक दीया ही जलाता था । यदि उसे या उसकी पत्नी को घर के किसी दूसरे कोने में काम हो तो उसे वही दीया उठाकर ले जाना पड़ता था ।
शमशाद अपनी जोड़ी हुई दौलत के बारे में किसी को नहीं बताता था । यहां तक कि उसकी पत्नी को भी इस बात का आभास न था कि उसका पति इतनी दौलत इकट्ठी कर रहा है । वह समझती थी कि उसके पति का कारोबार मंदा है । इस कारण वे रूखा-सूखा भोजन खाकर रहते हैं ।
शमशाद की पत्नी शहनाज बेचारी बहुत सीधी-सादी थी । वह घर से बाहर नहीं निकलती थी । इस कारण वह यह भी नहीं जानती थी कि लोग उसके पति को कंजूस-मक्खीचूस नाम से पुकारते हैं । उसकी इच्छा होती कि वह नए-नए कपड़े पहने, आभूषण बनवाए । लेकिन पति की आमदनी बहुत कम जानकर वह किसी भी चीज की फरमाइश अपने पति से नहीं करती थी ।
यदि किसी वक्त भोजन में सब्जी या रोटी बच जाती थी तो शमशाद उसे फेंकने न देता था । वह उसी बचे भोजन से दूसरे वक्त पेट भर लिया करता था । कंजूसी का आलम यह था कि वह घर में जूते या चप्पल पहनना पसंद नहीं करता था । वह कहता था - "जूते जितना कम पहनूंगा उतने ज्यादा समय साथ देंगे । घर में जूते-चप्पल की क्या जरूरत है ? बिना बात घर में पहनने से वे घिसेंगे ही ।"
बाजार में नाई से बाल कटवाने जाता तो सारे बाल सफाचट करा आता ताकि कम से कम 6 महीने तक नाई के पास जाने का झंझट ही न रहे । घर के दरवाजों या खिड़कियों को तब तक बंद न करता, जब तक बहुत ज्यादा जरूरत न होती, उसका विचार था कि बार-बार दरवाजा खोलने बंद करने से दरवाजों के जोड़ घिस जाते हैं । भीतर पहनने के कपड़े रोज नहीं धुलवाता था । उन्हें एक दिन एक तरफ से पहनता था, दूसरे दिन पलट कर दूसरी तरफ से ताकि साबुन का खर्च बचे ।
शमशाद हर रोज पैसा बचाकर कंजूसी करने की नई-नई तरकीब सोचा करता था । वह सुबह-शाम बगिया में टहलने जरूर जाता था । शहनाज सोचती थी कि शमशाद अपनी सेहत बनाने की खातिर बगीचे में जाता है, परंतु शमशाद का कुछ अलग ही मकसद होता था । वह लगभग हर रोज धन रखने या उसे देखने के लिए जाता था । यदि संभव होता तो उन सिक्कों को गिन कर भी आता था । यदि कभी जल्दी में होता तो जमीन से मिट्टी हटा कर मटके में रखी अशर्फियों को निहारता, फिर बंद करके चला आता ।
यह सिलसिला काफी समय से चला आ रहा था । परंतु एक दिन एक चोर ने बगीचे की दीवार से शमशाद सेठ को पेड़ के नीचे धन छिपाते देख लिया । उसकी निगाह उस धन पर अटक गई और रात होने का इंतजार करने लगा । रात होते ही चोर पूरे मटके की सारी अशर्फियां निकालकर नौ दो ग्यारह हो गया ।
सुबह को शमशाद चोरी की वारदात से बेखबर बगीचे में सैर करने पहुंचा । जब वह उस पेड़ के पास पहुंचा तो उसका कलेजा धक् से रह गया । जहां उसका मटका था, वहां मिट्टी खुदी हुई थी और खाली मटका दिखाई दे रहा था ।
शमशाद ने सोचा कि जल्दी से घर जाकर पहले पत्नी, फिर पुलिस को इसकी खबर दूं, परंतु पैर थे कि दुख और घबराहट के मारे आगे बढ़ने का नाम ही नहीं ले रहे थे । वह दो-चार कदम ही चला था कि बेहोश होकर गिर गया । जब बहुत देर तक वह घर नहीं पहुंचा तो उसकी पत्नी बगीचे में पहुंची ।
जैसे-तैसे पड़ोसियों की सहायता से शमशाद को घर लाया गया । सदमे के कारण वह बीमार पड़ गया । हर रोज वैद्य उसे देखने आता, परंतु दवा का कोई लाभ नहीं हो पा रहा था । उसने पत्नी को चोरी के बारे में बताया तो वह सुन कर सन्न रह गई । वह कभी धन की चोरी की बात सुन कर दुखी रहने लगी ।
शमशाद की बीमारी का हाल सुनकर उसका परम मित्र घनश्याम उससे मिलने आया । जब उसने मित्र की आपबीती सुनी तो वह समझ गया कि शमशाद की बीमारी का कारण धन की चोरी का सदमा है । उसने तुरंत वैद्य का इलाज बंद करा दिया ।
घनश्याम शमशाद से बोला - "तुम जानते थे कि तुमने धन कहां रखा है । यह बताओ कि तुम उस धन को क्यों इकट्ठा कर रहे थे ।"
शमशाद बोला - "अपने लिए ।"
घनश्याम बोला - "अपने लिए ? अपने लिए कैसे, तुम अपने लिए तो धन खर्च करते ही नहीं थे ।"
शमशाद बोला - "अपने भविष्य के लिए धन जोड़ रहा था, ताकि जब मैं बूढ़ा हो जाऊं तो वह धन मेरे काम आए और यदि इस बीच मुझे कोई संतान हो जाए तो संतान को मेरी सम्पत्ति और खजाना मिल जाए ।"
घनश्याम बोला - "जब तुम इस उम्र में उस धन का उपयोग नहीं कर रहे थे तो बुढ़ापे के लिए उसका मोह कैसा ? अच्छा, अब मेरा कहना मानो और भूल जाओ कि तुम्हारा धन चोरी हुआ है । जैसे रूखा-सूखा खाते थे, वैसा ही खाते रहो । जैसे सादे कपड़े पहनते थे, वैसे पहनते रहो ।"
शमशाद जल्दी से बात काटते हुए बोला - "यह कैसे हो सकता है ? मेरा धन तो चला ही गया, मैं कैसे शांत रह सकता हूं ?"
घनश्याम ने एक बार फिर अपने मित्र को समझाने का प्रयास किया - "मित्र, जस धन का तुम्हारे लिए उपयोग नहीं था, वह बेकार ही था । अब वह धन तुम्हारे पास रहे या किसी और के, इससे क्या फर्क पड़ता है । हो सकता है कि वह चोर उस धन का गाड़ कर रखने के बजाय अपने परिवार के लिए खर्च करे ।"
अब तुम यह सोचो कि धन वहीं मटके में रखा है और यदि पहली जैसी जिंदगी बसर करना चाहो तो वैसी जिंदगी बसर करो और यदि तुम्हें इस चोरी से कुछ शिक्षा मिली हो तो आगे से जितनी कमाई करो, अपने व भाभी के सुख के लिए उस धन का उपयोग करो । कल का क्या भरोसा ? पहली बात तो तुम्हारी संतान ही नहीं है, यदि हो भी तो तुम क्यों उसके लिए जोड़-जोड़ कर स्वयं को दुख देते हो । संतान लायक होगी तो खुद ही कमा कर खा लेगी । मुफ्त में मिली दौलत से तो संतान बिगड़ जाती है और उस धन को अय्याशी में बरबाद कर देती है ।"
शमशाद को मित्र की बात समझ में आने लगी । धीरे-धीरे वह चुस्त और स्वस्थ हो गया । उसे समझ में आ गया कि जो मजा स्वयं कम कर खर्च में है, वह जोड़ कर रखने में नहीं । इसके बाद वह अपनी कमाई से उचित खर्च करके पत्नी के साथ सुख और आराम से दिन गुजारने लगा ।