कामदा (एकांकी) : उपेन्द्रनाथ अश्क

Kamda (Hindi Play) : Upendranath Ashk

नाजो : अरे कम्मो …… वाह! तू अभी बनाव-श्रृंगार कर रही है और उधर सब लोग आ गए हैं।

कामदा : मैं तो तैयार हूँ, यह ब्रोच कम्बख्त लगता ही नहीं।

सहेली पहली : (खिड़की से देखते हुए) वे हैं शायद चन्द्रकान्त जी, तुम्हारे चुनाव को मान गए भई, हमारा तो उन से अभी परिचय करा देना।

तीसरी सहेली : (बाहर से तेज़-तेज़ आते हुए) वाह! आज तो पहचानी ही नहीं जाती कम्मो! यह इतना रूप …… अरे किसे पराजित करने चली हो? दूल्हा भाई तो पहले ही से …… (हंसती है)

नाजो : चारों ख़ाने चित्त गिराना चाहती है कि उठ ही न सकें बेचारे!

कामदा : (क्रोध से) बस भी करो नाजो। यह नहीं कि ज़रा ब्रोच लगाने ही में मदद करो। उल्टे फबतियां कसे जा रही हो।

नाजो : अरे यह रूप न दिखाना उन्हें । नहीं डर जाएंगे। बड़े नाज़ुक मिजाज़ मालूम होते हैं दूल्हा भाई। (हंसती है)

कामदा : (क्रोध से) नाजो!

नाजो : अच्छा भाई गुस्सा क्यों होती हो, लगाये देते हैं ब्रोच! (हंसती है) हमने तो सोचा था कि मिन्नो होगी तुम्हारे संग। नहीं तो हम तुम्हारे ओंठों पर सुर्खी तक लगा देते।

कामदा : मिन्नो को तो हमारी सूरत तक से चिढ़ है।

नाजो : क्यों---क्यों आख़िर?

कामदा : वही मुक्की का झगड़ा।

पहली सहेली : मुक्की में और कान्त में क्या तुलना---- कहाँ यह हृष्ट-पुष्ट हँसमुखता, यह सभ्यता, यह संस्कृति, जीवन का यह विशाल अनुभव, और कवि-सुलभ मधुरता और कहाँ वह श्री मुकन्द बिहारी लाल की बुड्ढ़ों जैसी सौम्यता और वही कोल्हू के बैल का सा जीवन।

नाजो : कोल्हू का बैल .......(ठहाका मार कर हँस पड़ती है।)

पहली सहेली : मैं सच कहती हूँ मैं जब मुक्की को देखती हूँ, मुझे कोल्हू के बैल की याद आ जाती है। घर से कालेज और कालेज से घर, बस! और इधर कान्त जी हैं कि देश-विदेश घूम आए हैं।

नाजो : जीवन नाम ही इसका है कि जहाँ एक कदम रखा वहाँ फिर दूसरा नहीं रखा।

(दम्भो भागी आती है।)

दम्मो : जीजा जी आ गए हैं, कम्मो दीदी, और तुम अभी यहाँ बैठी हो।

[दीवान बिन्दासरन और उनकी पत्नी प्रमदा प्रवेश करते हैं।]

दीवान साहब : कम्मो बेटा, चन्द्रकान्त इधर आ रहे हैं। तुम लोग तनिक उनके पास बैठो।

(मिन्नो झिझकती हुई प्रवेश करती है।)

मिन्नो : कम्मो…अरे मौसा जी, नमस्ते…नमस्ते मौसी जी!

प्रमदा : अरे मिन्नो! जीती रहो बेटी। बड़ी देर कर दी आने में। मुक्की नहीं आया।

मिन्नो : बहुतेरा कहा मौसी जी, पर भैया का जी शायद ठीक नहीं।

पहली सहेली : आओ मिन्नो जीजा जी से परिचय करें।

प्रमदा : मिन्नो बेटी, तुम ज़रा पान बनवा लेती।

मिन्नो ; बेहतर मौसी जी! (सहेलियों से) तुम चलो, मैं अभी आई। ज़रा पान देख आऊँ।

(चली जाती है )

नाजो : मिन्नो को पान देखने दो। चलो हम ज़रा कुछ जीजा जी का परिचय पाएं। चलो कामदा।

प्रमदा : देखो नाजो उन्हें अधिक तंग न करना।

नाजो : (जाते हुए) नहीं चाची जी आप निश्चिन्त रहें। (हंसती हुई चली जाती है।)

प्रमदा : देखो मुक्की आया नहीं। मैं कहती थी न वह न आएगा।

दीवान साहब : (कमरे में चक्कर लगाते हुए) मनुष्य है न आखिर, उसका न आना स्वाभाविक ही था (लम्बी सांस लेते हैं) भला मुक्की में तुम माँ-बेटियों ने क्या दोष देखा? कामदा की तो बात जाने दो, तुम भी तो उसके गुण गाया करती थी। क्या दोष देखा आखिर तुमने उसमें?

प्रमदा : दोष!

(कौच में धँस जाती है।)

दीवान साहब : (बैठते नहीं बराबर घूमते जाते हैं) मुझे तो अब तक उससे अच्छा लड़का नहीं दिखाई दिया।

प्रमदा : किन्तु कान्त……

दीवान साहब : तुम दोनों को पसन्द है तो मुझे भी पसन्द है, लेकिन मुकंद को मैं उससे कहीं अधिक पसन्द करता हूँ। और मैं जानता हूँ, जितना वह कामदा को चाहता है।

प्रमदा : हाँ, किन्तु……

दीवान साहब : फिर उसमें दोष क्या देखा तुम लोगों ने?

प्रमदा : दोष क्या होता है, वह कामदा के योग्य नहीं।

दीवान साहब : यही तो मैं पूछ रहा हूँ कि क्यों कामदा के योग्य नहीं?

प्रमदा : आप इतनी बार पूछ चुके हैं और मैं इतनी बार बता चुकी हूँ ---घर उसका साधारण है, नौकरी उसकी साधारण है और फिर ……

दीवान साहब : किन्तु प्रमदा, वैवाहिक सुख केवल धन-दौलत पर अवलम्बित नहीं। तुम अच्छी तरह जानती हो। लड़का तो बहुत अच्छा था और मैं कहता था कि……

प्रमदा : सोचो, मेरी कामदा किसी ग़रीब के साथ जीवन बिता सकती थी।

दीवान साहब : जब तुम्हारी-हमारी शादी हुई तो घर में क्या था।

गृहणी सुघड़ होनी चाहिए।

प्रमदा : (हँसते हुए )इस प्रशंसा के लिए धन्यवाद। पर सच जानिए कामदा मुक्की के संग चार दिन भी बसर नहीं कर सकती। हमारा आपका ज़माना और था। माँ- बाप ने जहाँ ब्याह दिया बैठ गए। कामदा तो धन-ऐश्वर्य में पली है।

दीवान साहब : किन्तु कामदा उसे नापसंद नहीं करती।

प्रमदा : अब वह घर में आता है, आप का चहेता है। वह उससे कैसे नफ़रत करती और फिर मित्र और पति में तो अन्तर है - हर मित्र पति नहीं हो सकता। मुझ से कामदा ने साफ़-साफ़ कहा है कि उसे मुकन्द से प्रेम नहीं। उसी ने मुझे विज्ञापन देने को विवश किया है। जब बिरादरी संकुचित और अनुदार हो, अच्छे लड़कों की कमी हो तो क्या किया जाए! जितने भी लड़के यहाँ आते हैं उन में से एक भी कामदा को पसंद नहीं।

दीवान साहब : विज्ञापन!(व्यंग से हँसते हुए) मानो यह भी कोई नौकरी है। जगह ख़ाली है आवेदन पत्र भेजिए। उँह, मुकन्द लड़का बुरा नहीं …

प्रमदा : मुक्की को बुरा मैं नहीं समझती। किन्तु आप ही बताइए उससे कामदा का खर्च कैसे उठता? कम्मो दो पार्टियों में भी जाती तो मुक्की का दीवाला पिट जाता। आखिर इतनी शिक्षा पाने के बाद, इतनी ऊँची सोसाइटी में घूमने के बाद, कम्मो दिन-दिन भर चूल्हा तो न झोंकेगी।

दीवान साहब : खैर अब तो जो हो गया हो गया। घड़ी भर में शादी हो जाएगी, और यह क़िस्सा सदा के लिए ख़त्म हो जाएगा। (कुछ क्षण चुपचाप घूमते हैं।) किन्तु मुझे अब भी ऐसा आभास होता है कि कामदा मुकुन्द से नफ़रत नहीं करती। वह अब भी उससे प्रेम करती है। (लम्बी साँस भरते हैं) जाने तुमने उसे क्या पढ़ा दिया? मैं दोनों की मैत्री देख कर एक तरह से निश्चिन्त हो गया था।

प्रमदा : कान्त आपको पसंद नहीं।

दीवान साहब : पसंद को तो ख़ैर कुछ नापसंद भी नहीं। किन्तु मुक्की देखा-भाला लड़का है। यह तो अँधेरे में तीर चलाने सा लगता है।

प्रमदा : कान्त के सम्बन्ध में भी तो आपने पता लगा लिया है।

दीवान साहब : हाँ, कान्त सम्पत्तिशाली है। हैदराबाद दक्खिन में उनके कई मकान हैं। दो एक गाँवों का स्वामी है। वंश भी ऊँचा है। किन्तु घूमा-फिरा आदमी है। फिर इतने दूर के रहने वाले को इतने निकट से देखा भी तो नहीं जा सकता और संपत्ति के वैभव का तो पता चलता है पर चरित्र का नहीं। मुक्की को हम बचपन से जानते हैं।

(पल्टू दरवाज़े से झांकता है )

पल्टू : मालिक जज साहब और दूसरे लोग आइ गवा है।

प्रमदा : (उसकी आवाज़ सुने बिना) क्या आप चाहते हैं आप का दामाद कुएँ का मेंढक हो? आप नाहक मुक्की मुक्की की रट लगा रहे हैं, कामदा को कान्त पसंद है। (खिड़की से देखते हुए) देखिए वे आ रहे हैं वह कितनी खुश है! और मुझ से पूछिए तो मैं भी कान्त को बेहद पसंद करती हूँ। ऐसा हंसमुख स्वभाव, बातचीत करने का कैसा सुन्दर ढंग, बोल-चाल में प्रतिष्ठा का इतना ध्यान ----- मुक्की में यह सब कहाँ? अब मुक्की का जिक्र छोड़िए। यह तो अपशकुन है।

दीवान साहब : अपशकुन (व्यंग्य से हंसते हैं) तुम शकुनादि में अब भी विश्वास रखती हो प्रमदा।

पल्टू : (तनिक अंदर आ कर) मालिक बाहर जज साहब बुलावत हैं।

प्रमदा : चलो, आते हैं। और कामदा से कहो अब तनिक अन्दर आकर बैठे।

पल्टू : कही देत हैं।

(चला जाता है)

प्रमदा : चलिए, बाहर सब लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं।

[चले जाते हैं। कुछ क्षण बाद कामदा और कान्त बातें करते हुए प्रवेश करते हैं। कान्त में वह सब कुछ है जिसका उल्लेख कामदा की सहेलियोें ने किया है। सुंदरता, सभ्यता, संस्कृति, गोरा रंग, चौड़ा मस्तक,मस्त आँखें! बढ़िया सूट पहने है। चाल-ढाल में अजीब-सी लापरवाही है।]

कान्त : (ओंठों में हंसते हुए) आप की ये सहेलियाँ …..... भगवान ही बचाए इनसे, ऐसी वाचालता तो मैंने यूरोप कि तन्वियों में भी नहीं देखी।

कामदा : मैंने इसीलिए उन्हें टाल दिया। पर मिन्नो से तो आप नहीं मिले। वह बड़ी सभ्य है ---- बिल्कुल अपने भाई की तरह।

कान्त : (जैसे मिन्नो से उसे कोई दिलचस्पी न हो।) मैं सच कहता हूँ, मैंने दुनिया भर की सैर की है, ये चन्द दिन चन्द क्षणों की तरह बीत गए हैं।

लगता है जैसे समय का पक्षी पर खोले उड़ा जा रहा है और मैं पलों और घड़ियों की सुध-बुध भुलाए उस पर बैठा हूँ।

कामदा : आप तो कवि हैं।

कान्त : आपकी निकटता ने मुझे कवि बना दिया है। हिंदुस्तान में भी कई लड़कियों को मिलने का मुझे सुयोग मिला है। किन्तु एक साथ इतने गुण मुझे कहीं नहीं मिले। सुंदरता, सुघड़ता, और कला की निपुणता।

कामदा : आप मुझे बना रहे हैं।

(कौच पर बैठ जाती है।)

कान्त : मैं सच कहता हूँ।

(उसके निकट बैठ जाता है।)

कामदा : आप भी तो इस कला में निपुण हैं।

कान्त : पहले तो यह कि मैं वास्तव में आप की बराबरी नहीं कर सकता। फिर मुझे तो इतना घूमने फिरने का अवसर मिला है।

कामदा : मामा और पापा ने मुझे भी अच्छी से अच्छी संगीत संस्थाओं में शिक्षा दिलायी है। और फिर यही नहीं मेरे लिए वे बड़े बड़े संगीताचार्यों को यहाँ निमंत्रित करते रहे हैं। हमारे यहाँ की संगीत सभाएं नगर भर में प्रसिद्ध हैं।

कान्त : और फिर आप का अमृत भरा कंठ.……

कामदा : शुक्र है उसे आपने नापसंद नहीं किया।

[मिन्नो खिड़की के सामने से गुज़रती है। क्षण भर के लिए रुक जाती है। ]

कान्त : नापसन्द ! (ठहाका मार कर हँस पड़ता है। और फिर सहसा मिन्नो को देख कर रुक जाता है।) यह कौन है? (मिन्नो चल पड़ती है)

कामदा : मिन्नो! (आवाज देती है) मिन्नो! मिन्नो! आ जाओ (हंसती है) मेरी सहेली है मुक्की साहब की बहन।

कान्त : मुक्की! कौन मुक्की?

कामदा : मेरे साथ ही पढ़ते थे। इसी साल एम. ए. करके यहाँ कालेज में पढ़ाने लगे हैं। पापा उनसे मेरी शादी करना चाहते थे। किन्तु मामा ……

कान्त : मुक्की (हँसता है) खूब नाम है! मुक्की, लुक्की, दुक्की, बुक्की,--- मुझे बुक्की याद आ गई।

कामदा : बुक्की! कौन बुक्की?

कान्त : यूरोप में सिनेमा या थियेटर हालों में सीटें बुक करने वाली लड़की को कहते हैं। किसी एकाकी युवक की सीट को किसी अकेली युवती की सीट के साथ और किसी अकेली युवती की सीट को किसी एकाकी युवक की सीट के साथ बुक करके वह कुछ शिलिंग या पेंस ज्यादा पा जाती है और यही चन्द सिक्के कई बार विचित्र प्रेम कथाओं की आधारभूमि बन जाते हैं।

कामदा : (मुस्कराकर) आप की किसी प्रेम कथा की आधारभूमि तो नहीं बने।

कान्त : (हँसता है) किसी अँगरेज़ लेखक ने कहा है - मुझे समुद्र की उत्ताल तरंगों में फेंक दो और चाहो कि मैं किसी तख्ते को न पकडूं, यह असम्भव है (लम्बी सांस भरता है) यूरोप के जीवन का उद्दाम सागर और उसमें हिंदुस्तान का एक अशक्त युवक (हँसता है, फिर सहसा गम्भीर हो कर) किन्तु कामदा मैं विश्वासघाती नहीं। जो हो चुका हो चुका। विवाह के बाद तुम मुझ से अटूट वफ़ा पाओगी। तुमने स्वयं इतनी सोसाइटी देखी है। तुम्हें किसी से प्रेम ही नहीं हुआ, मैं इसका विश्वास नहीं कर सकता। किन्तु आज के दिन, जब हम एक नए जीवन का सूत्रपात करने वाले हैं, अपने अतीत के पट हम सदा के लिए बंद कर देंगे और भविष्य के अनूठे, अनदेखे संसार में प्रवेश करेंगे। मैं भरसक प्रयास करूंगा कि वह संसार तुम्हें पसंद आये। उस दुनिया से तुम्हारा दिल न ऊबे। उस में तुम सदा मुझे अपने साथ पाओ। उसकी रंगीन घाटियों और स्वर्णिम चोटियों पर हम साथ-साथ जाएँ और.……और उसकी अँधेरी गुफाओं में भी हमारे हाथ एक दूसरे के हाथ में बंधे रहें।

कामदा : मैं प्रयास करूंगी मैं आप के योग्य बन सकूँ।

(मिन्नो फिर खिड़की के सामने से गुज़रती है पर रुकती नहीं)

कान्त : वह मिन्नो फिर आयी, शायद वह तुम से मिलाना चाहती है।

(पल्टू दरवाज़े से झांकता है)

पल्टू : बड़ी बिट्टी, एक मेहरारू दूल्हा भय्या से मिला चाहती है।

कामदा : क्या?

कान्त : कौन?

पल्टू : एक मेहरारू है, गुजरातिन जान परति है।

कान्त : मेहरारू, यह कौन सी बला है?

पल्टू : औरत, औरत।

कान्त : (चौंक कर) औरत! राधा फूफी न हों। सुना था वे काशी का दर्शन करने को आई हुई हैं।

पल्टू : उधर बइठा आवा हूँ, हवा घरे मा।

कान्त : मुझे ज़रा इजाज़त दीजिए कामदा जी! मिल आऊँ उनसे। बड़ी गुस्सैल हैं हमारी राधा फूफी। (चलते चलते खिड़की में देख कर हँसता है) वह मिन्नो शायद फिर इधर को आ रही थी कि मुझे देख कर मुड़ गयी (हँसता है) अजीब सहेली है यह भी आपकी।

(हँसता हुआ चला जाता है।)

कामदा : पल्टू , देना तनिक मिन्नो को आवाज़। वह तीन बार इधर से गयी है। कुछ कहना चाहती होगी मुझ से?

[पल्टू चला जाता है। कामदा उल्लास से गुनगुनाने लगती है।]

तुम आ गये सुख का सवेरा छा गया।

(मिन्नो प्रवेश करती है।)

मिन्नो : खुश हो कि तुम्हारे स्वप्नों का शहज़ादा मिल गया।

कामदा : मैं खुश हूँ। पर ना जाने क्यों मिन्नो कभी कभी हृदय के अज्ञात कोने में कोई तार जैसे भयभीत हो कर झनझना उठता है। न जाने मेरा उल्लास अपनी सीमा पर पहुँच कर कांप उठता है, अथवा भविष्य के उद्यान की वीथियों का अँधेरा मन को त्रस्त किये देता है। कभी कभी मैं डर जाती हूँ मिन्नो कि उल्लास का यह तार कहीं इतना न तन जाए कि टूट जाए।

मिन्नो : तुम्हारा उल्लास अटूट हो बहन। किन्तु यही प्रार्थना है कि जिसका दिल तुमने तोड़ा है उसे भगवान संतोष और शान्ति दे।

कामदा : मैंने किसी का दिल नहीं तोड़ा।

मिन्नो : काश तुमने एक बार फिर सोच लिया होता।

कामदा : मैंने ख़ूब सोच लिया मिन्नो, मुझे मुकन्द से कोई घृणा नहीं। कदाचित मैं उन्हें पसंद भी करती हूँ। पर मिन्नो सोचो, वे बड़ी कठिनाई से डेढ़ दो सौ रूपया कमा पाते हैं और डेढ़ दो सौ में आज एक साड़ी भी नहीं मिलती।

मिन्नो : स्त्री चाहे तो डेढ़ दो सौ में ……

कामदा : (शब्दों पर ज़ोर देते हुए।) स्त्री चाहे तो..... किन्तु मिन्नो मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर सकती। याद है न कि इंटरमीडियेट में हमने यों ही आवेश में आकर विज्ञान ले लिया था। उस समय हमें रसायन-शास्त्र के चमत्कार बड़े आकर्षक लगते थे ---- किस प्रकार विभिन्न वस्तुएं मिल कर एक सर्वथा नयी चीज़ बन जाती हैं; किस प्रकार दो तार मिला देने से विद्युत् की चिंगारियां फूट निकलती हैं; किस प्रकार पानी के तल में चमचम शीशे के श्वेत टुकड़ों से, नन्हे-नन्हे क्रिस्टल जम जाते हैं। यह सब जादूगरी हमें बेतरह अपनी ओर खींचती थी। किन्तु शीघ्र ही हमें पता चला कि विज्ञान में केवल ये दिलचस्पियां ही नहीं, बल्कि अत्यंत गहन फार्मूले भी हैं। मुक्की से मेरे विवाह का भी यही अंत होता। मुक्की अच्छे हैं, बुद्धिमान हैं, सच्चरित्र हैं, किन्तु उनके साथ मेरा विवाह भी उसी तरह असफल होता, जिस तरह विज्ञान में हमारी दिलचस्पी।

मिन्नो : (आश्चर्य से) किन्तु विवाह से विज्ञानं का क्या सम्बन्ध?

कामदा : बात वही है। विवाह के बाह्य-आकर्षण के पीछे विज्ञान के गहन फार्मूलों सी जीवन की जटिल समस्याएं भी छिपी हैं। मेरे और मुक्की के बीच में वे समस्याएं आर्थिक थीं। मैं नहीं चाहती कि हमारा जीवन उन आर्थिक चिट्टानों से टकराकर चूर चूर हो जाए।

मिन्नो : किन्तु कामदा, यदि नारी चाहे तो निर्धन की कुटिया भी राजमहल हो सकती है।

कामदा : इसके लिए जीवन भर का त्याग चाहिए! और मैं सच कहती हूँ मिन्नो, मैं अपने जीवन को अपनी समाधि बनाने के लिए तैयार नहीं।

मिन्नो : समाधि?

कामदा : समाधि नहीं तो क्या। कुटिया को महल बनाते मिन्नो, जीवन समाप्त हो जाएगा और जब मैं इस योग्य हूँगी कि उस महल की बहार देख सकूं तो दिल मर चुका होगा और जीवन की अंतिम हंसी भी उस विवाह की भेंट हो चुकी होगी। मैं अपने आप से डरती हूँ मिन्नो! मेरा स्वभाव तुम से छिपा नहीं है। मैं उस वातावरण में न रह सकूंगी। ऐसे विवाह की कल्पना से मेरा हृदय काँप जाता है।

मिन्नो : तुमने केवल अपनी कल्पना में विवाह का ऐसा भयानक चित्र खींच रखा है। मैं मानती हूँ कि रूपया बड़ी चीज़ है। मैं यह भी मानती हूँ कि विवाह का एक आर्थिक पक्ष भी है। किन्तु वह आर्थिक पक्ष ही सब कुछ है, यह मैं नहीं मानती। जिन शादियों की नींव आर्थिक आवश्यकताओं पर रखी जाती है, वे बहुत कम सफल होती हैं। शादी जब तक दो दिलों की नहीं होती, असफल रहती है।

कामदा : तो हो सकता है कि मुझे मुकुन्द से उतना प्रेम नहीं कि मैं इस पक्ष को एकदम से भुला दूं। दिन-रात के सोच-विचार के बाद मैं इसी परिणाम पर पहुंची हूँ कि मैं उस तरह के जीवन को सफल नहीं बना सकती।

मिन्नो : (लम्बी सांस लेती है) जाने भगवान को यही स्वीकार है कि भैया घुट-घुट कर मर जाएँ (आर्द्र कंठ से) मैं क्यों तुम्हारे जीवन में आ गई। क्यों भैया मेरे कारण तुम्हारे जीवन में आ गये।

कामदा : पर तुम्हारे कारण कैसे?

मिन्नो : मैं ही कम्बख्त तो इस सारी मुसीबत की जड़ हूँ (लम्बी सांस लेती है।) शायद मैं स्वयं तुम्हें इतना चाहती थी --- इतना कि तुम्हारा कहीं दूर चला जाना मुझे स्वीकार न था। मैं चाहती थी कि मेरी सहेली के दर्जे से उठ कर तुम मेरी भाभी बन जाओ। और मैंने मुकुन्द भैया के दिल में तुम्हारे लिए अनुराग जगा दिया।

कामदा : तुमने!

मिन्नो : मैंने तुम्हारे रूप की, गुण की, कला-कौशल की प्रशंसा करके उनके हृदय में तुम्हारे प्रेम की प्रगाढ़ भावना को जगा दिया। वे यहाँ आने लगे। उनके हृदय में एक अस्पष्ट सी आशा जग उठी। तुमने उनसे नफ़रत भी तो नहीं की।

कामदा : नफ़रत!

मिन्नो : काश, तुम उन से नफ़रत करती। काश आशा के अंकुरित होने से पहले ही उसका गला घोंट देतीं ---वे लम्बी सैरे, वे अकेली मुलाकातें, वे टेबल-टैनिस और बेडमिंटन की बाजियां और……

कामदा : तुम भूलती हो। सभ्य समाज के शिष्टाचार का तगादा ……

मिन्नो : तुम्हें मेरे सिर की कम्मो, सच कहना तुम केवल शिष्टाचार के लिए भैया से मिलती थी, तुम्हारे हृदय में उनके लिए तनिक भी जगह नहीं थी। तुम उनसे तनिक भी…

(पल्टू का प्रवेश)

पल्टू : बड़ी बिट्टी, पुरोहित आइ गवा है, तुमको बुलावत है। लगनवां का समय तो निकट आइ गवा।

[दीवान साहब घबराये हुए से प्रवेश करते हैं सहसा बैंड और शहनाई का स्वर बंद हो जाता है।]

दीवान साहब : ठहरो पल्टू , ज़रा भाग कर बहू को इधर भेजो। और कम्मो, तुम ज़रा मिन्नो के साथ बराबर के कमरे में बैठो।

कामदा : अच्छा पापा, आओ मिन्नो !

[दूसरे कमरे में चली जाती हैं ।]

दीवान साहब : हे मेरे भगवान (बेचैनी से कमरे में घूमते हुए) लाख कहा था, इस झंझट में मत पड़ो, लड़का सामने है, देखा भाला है। शादी कर दो। (लम्बी सांस भरते हैं।) कहाँ हैदराबाद दक्खिन और कहाँ यह प्रयाग। (फिर कमरे में घूमने लगते हैं) और कितना भोला-भाला, सभ्य और संस्कृत दिखाई देता था।

(प्रमदा प्रवेश करती है)

प्रमदा : क्या बात है, आप ने मुझे इस वक्त बुला भेजा, उधर पुरोहित आ गए हैं। कामदा कहाँ है?

दीवान साहब : कामदा को छोडो,अपनी इज्ज़त बचाने की फ़िक्र करो।

प्रमदा : (घबरा कर) क्या हुआ?

दीवान साहब : हे मेरे भगवान! (बेचैनी से घूमते हैं) लाख बार कहा था, लाख समझाया था ……

प्रमदा : कुछ कहो भी, क्या हुआ, बस घूमे जा रहे हो। बताते कुछ नहीं।

दीवान साहब : मालूम है वहाँ क्या हुआ? भरी सभा में कान्त की पहली पत्नी ने……

प्रमदा : पहली पत्नी ने……

दीवान साहब : बल्कि तीसरी पत्नी ने .......

प्रमदा : तीसरी पत्नी .......

दीवान साहब : हाँ! इसके पहले तीन शादियां करके तीन लड़कियों का जीवन वह नष्ट कर चुका है। वह एक परले सिरे का दुराचारी और लम्पट है। उसकी एक पत्नी विलायत में है, एक कलकत्ते में उसकी जान को रो रही है। इस तीसरी को उसने बम्बई में फांसा। अंग्रेजी में लोकोक्ति है कि 'हर चमकदार चीज़ सोना नहीं होती' --- किन्तु तुम तो बस उसकी सभ्यता, सुंदरता, हंसमुखता और न जाने किस किस 'ता' पर मरी जा रही थी।

प्रमदा : हे मेरे भगवान! किन्तु यह बम्बई से यहाँ कैसे आ गयी।

दीवान साहब : (चिढ़ कर) मानो यदि वह यहाँ न आ जाती तो अच्छा होता। मैं तो भगवान को लाखों धन्यवाद देता हूँ कि इस वक्त आ गई। नहीं तो घड़ी बाद आती तो…

(दाँत पीसते हुए घूमते हैं)

प्रमदा : हे मेरे भगवान! अब क्या होगा?

दीवान साहब : अपमान और जगहंसाई …… नगर भर के प्रतिष्ठित लोग आए हुए हैं। तुम लोगों को इसी तरह मेरी नाक कटानी थी।

प्रमदा : हम लोगों ने………

दीवान साहब : यह तर्क-वितर्क का समय नहीं प्रमदा, सोचो,भगवान के लिए सोचो! अपने कुल की मान-मर्यादा के लिए सोचो! इस झंझट से निकलने की तरकीब सोचो!

प्रमदा : हे मेरे भगवान अब क्या होगा?

दीवान साहब : हे मेरे भगवान, हे मेरे भगवान करने से कुछ न होगा विवाह का समय हो, भाँवरों की तैयारी हो, सारा शहर इकट्ठा हो, और उस समय वर की पहली पत्नी कहीं से निकल आये ----तीसरी पत्नी-----और भरी सभा में घोषणा कर दे कि उसका पति अव्वल दर्जे का दुराचारी है, और इससे पहले दो लड़कियों को धोखा दे चुका है। (दाँत पीसते हुए) मैं उसे गोली से उड़ा देता फिर चाहे…… (बेचैनी से घूमने लगते हैं और फिर रुक कर) लोग क्या क्या बातें न बनायेंगे। दीवान बिन्दसारन की लड़की का विवाह और…… (बेबसी की लम्बी सांस भरते हैं) हे मेरे भगवान (फिर घूमते हैं) मैं कहता था मुकन्द बहुत अच्छा लड़का है, शिक्षित है, भला और सच्चरित्र है। लेकिन तुम लोग ……

प्रमदा : (जैसे सहसा कोई तरकीब सूझ गई हो) मैं कहती हूँ, मुक्की को ही क्यों न वर की जगह ला बिठाओ।

दीवान साहब : …… लेकिन मुकन्द।

प्रमदा : मैं तो शुरू से ही उसे पसंद करती हूँ। पर कामदा की हठ ने मेरी पेश न जाने दी।

दीवान साहब : लेकिन कामदा ……

प्रमदा : मैं उसे मना लूंगी। मैं आधी सम्पत्ति उसके नाम लिख दूँगी। वह नहीं चाहती उसका पति उसके पिता के टुकड़ों पर पड़ा रहे।

दीवान साहब : पगली! तुमने मझे पहले क्यों नहीं बताया। बुलाओ उसे!

प्रमदा : मैं कहती हूँ, मैं उसे मना लूंगी। आप कार लेकर जाइये और मिनटों में मुक्की को लेकर आ जाइए….... किन्तु मुक्की मान भी जाएगा, इस बात को जानने के बाद।

(पल्टू दरवाज़े से झांकता है)

पल्टू : बहू जी पुरोहित जी पूछित हैं ……

दीवान साहब : मुकंद भला लड़का है। मुझे सदा पिता तुल्य मानता रहा है। मैं अपनी पगड़ी उसके पैरों पर रख दूंगा। और मुझे विश्वास है वह ज़रूर मान जाएगा। कामदा को……

पल्टू : बहू जी पुरोहित जी पूछित हैं।

प्रमदा : मैं कहती हूँ आप कामदा की चिंता न करें। इतना अपमान कराने के बाद क्या वह चाहेगी कि हम आत्महत्या कर लें। आप कार लेकर जाइए और दो मिनटों में मुकन्द को ले कर आ जाइए।

दीवान साहब : मैं अभी आया।

(तेज़ तेज़ निकल जाते हैं)

पल्टू : बहू जी पुरोहित जी पूछित हैं --- हमका कव हुकुम होत है।

प्रमदा : उनसे कहो, अभी बैठें। विवाह होगा। इसी घड़ी।

पल्टू : लेकिन बहू जी ……

प्रमदा : (लगभग चीख कर) जैसे तुम से कहा जाकर कह दो।

[पल्टू चला जाता है। कामदा दूसरे कमरे से भागी भागी आती है।]

कामदा : (रोने की सीमा को पहुंचे हुए स्वर में) मामा (माँ के गले से लिपट जाती है) मामा (सिसकते हुए) मैंने सब कुछ सुन लिया है। मेरे हठ के कारण आपको इतना अपमान सहना पड़ा।

(फिर लिपट कर रोने लगती है।)

प्रमदा : बस, बस बेटा, यों जी छोटा नहीं किया करते। हम सबकुछ अपने ऊपर झेल लेंगे और किसी बात की हवा तक तुम्हारे पास न फटकने देंगे।

कामदा : (सिसकते हुए) मामा ……

प्रमदा : तेरे पापा कितना चाहते थे कि मुकंद से तेरा विवाह करके तुम दोनों को घर पर ही रखें। मैं जानती थी कि तू मुकन्द को नापसंद नहीं करती, किन्तु बेटी तू नहीं जानती कि धन-संपत्ति की बाहर से रंगीन और दृढ़ दिखाई देने वाली लकड़ी के अंदर से कितने घुन लगे होते हैं।

कामदा : किन्तु मामा……

प्रमदा : अब किन्तु परन्तु नहीं बेटी! तेरे पिता की मोती जैसी आब मिट्टी में मिल जाएगी। मैं किसी को मुँह दिखाने योग्य न रहूंगी। शहर भर को मालूम है कि तेरे पापा मुक्की को पसंद करते हैं। यदि कान्त की जगह मुक्की बैठ जाएगा तो अधिकांश लोग प्रसन्न ही होंगे। कितनी बड़ी पार्टी का प्रबंध कर रखा है तेरे पापा ने? मेहमानों को कैसी निराशा होगी? और तेरे बूढ़े पापा…… क्या यह आघात वे सह सकेंगे। उनका गिरा हुआ स्वास्थ्य .......

प्रमदा : किन्तु मामा मुझे मुक्की से प्रेम नहीं।

प्रमदा : प्रेम एक सापेक्ष सी वस्तु है बेटी! क्या अब तू कान्त से प्रेम करती है। यदि तू अब भी कान्त से प्रेम करती है और शादी करना चाहती है तो साफ़ कह दे। फिर चाहे जो हो मैं ………

कामदा : मैं उससे घृणा करती हूँ, मैं उसकी शक्ल तक देखना पसंद नहीं करती। मुझे अभी नाजो ने बताया, वह अपनी स्त्री को पिस्तौल मारने लगा था।

प्रमदा : तुम मुकुन्द को पसंद करती हो कामदा और इस पसंद को प्रेम का रूप धरते देर नहीं लगती बेटी। मुक्की तेरे लिए बहुत अच्छा पति साबित होगा ।

कामदा : किन्तु मैं उसको सब कुछ बता दूँगी----कि मुझे उससे प्रेम नहीं, किन्तु मैं .......

(बाहर से मुकुन्द और दीवान साहब बातें करते आते हैं।)

मुकुन्द : आप के लिए दीवान साहब मैं जान तक हाज़िर कर सकता हूँ, किन्तु यह कामदा के जीवन का प्रश्न है। मैं उसकी इच्छा के बिना कभी उससे शादी नहीं कर सकता।

प्रमदा : (धीमें स्वर में ) वे आ रहे हैं । उनका दिल न तोड़ना बेटा। अपने पापा का दिल न तोड़ना।

दीवान साहब : (निकट आकर) मुक्की तो गेट पर ही मिल गया । इधर ही आ रहा था। कहो, कामदा से पूछा।

प्रमदा : हमारी इज्ज़त क्या कामदा की इज्ज़त नहीं। किन्तु मुकन्द ……

दीवान साहब : मुकुंद तैयार है।

(मिन्नो दूसरे कमरे से बगूले सी प्रवेश करती है।)

मिन्नो : क्या कहा? मुकंद तैयार है! क्यों भैया तुम कामदा से शादी करने को तैयार हो? क्या स्वाभिमान तुम्हें छू भी नहीं गया? धन-ऐश्वर्य क्या ऐसे ही प्रिय हो गए तुम्हारे लिए कि छोड़ा हुआ ग्रास……

मुकुंद : (क्रोध से लगभग चीख कर) मिन्नो!

मिन्नो : अभी कुछ क्षण मैं तुम्हारी ओर से, अपनी ओर से, कामदा से प्रेम की भीख मांग रही थी। मैं जानती थी कि कम्मो के बिना तुम्हारा जीवन नष्ट हो जाएगा, तुम जीवन को जीना छोड़ दोगे। किन्तु मैंने यह स्वप्न में भी न सोचा था कि यह प्रेम तुम्हें इतना नीचे गिरा देगा।

मुकन्द : मिन्नो, तुम्हें शर्म नहीं आती, अपनी सहेली……

मिन्नो : सहेली!

मुकन्द : (अपनी बात जारी रखते हुए) अपनी सहेली की इज्ज़त, उसके माता-पिता की इज्ज़त का ज़रा भी ख्याल नहीं तुझे! मैं दीवान जी को पिता के समान मानता हूँ और इनकी इज्ज़त की ख़ातिर मैं अपने सारे मान-अपमान को छोड़ सकता हूँ। किन्तु मैं कामदा से हरगिज़ शादी करने को तैयार नहीं। वह मुझ से प्रेम नहीं करती और मैं नहीं चाहता कि इस अवसर का अनुचित लाभ उठाऊं।

प्रमदा : कम्मो को तुम से वास्तव में प्रेम है बेटा। माँ होकर मैं इसे अच्छी तरह जानती हूँ।

मुकन्द : (कामदा से) देखो कामदा, यह दोनों के जीवन का प्रश्न है। अपने दिल को टटोल कर देखो, क्या वहाँ मेरे लिए ज़रा भी जगह है? क्या तुम मुझ से तनिक भी प्रेम करती हो?

कामदा : (चुप रहती है)

प्रमदा : कम्मो!

कामदा : कदाचित मैं केवल अपने आप से प्रेम करती हूँ। मैं न चाहती थी कि मेरा संगी मेरे पिता के रुपये पर मौज मनाये। मैं ऐसा संगी चाहती थी जो मेरे वातावरण के अनुसार मुझे रख सके और इसलिए मैं आप के साथ विवाह के पक्ष में न थी, किन्तु मैंने कभी आप से नफ़रत नहीं की। मैं प्रयास करूंगी कि अपने आप को आपके वातावरण में ढाल सकूं। किन्तु आप को मेरे पिता के रुपये का ध्यान ..........

मुकुन्द : तुम अवसर तो दो कामदा, मैं क्या नहीं कर सकता?

दीवान साहब : (उल्लास से) मुक्की क्या नहीं कर सकता। मुक्की परिश्रमी है, दयानतदार है। मुक्की चाहे तो पहाड़ सर कर सकता है। क्या मैंने यह धन-संपत्ति स्वयं पैदा नहीं की ? क्या मैं अपने ससुर की जायदाद पर पला? (जाते हुए) पल्टू , पुरोहित को कहो विवाह की तैयारी करें …… दूल्हा, दुल्हिन आ रहे हैं (फिर स्वयं उसके पीछे जाते हैं, बाहर से उनकी आवाज़ सुनायी देती है।) ) दूल्हा दुल्हिन आ रहे हैं ! दूल्हा दुल्हिन आ रहे हैं ! [बैंड सहसा फिर बज उठता है। और शहनाई का स्वर भी सुनायी देने लगता है।]

( पर्दा गिरता है )

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