कमरुज्जमाँ और बदौरा की कहानी : अलिफ़ लैला
Kamarujjman Aur Badaura Ki Kahani : Alif Laila
फारस देश में बीस दिन की राह पर एक देश खलदान है। उस देश में कई टापू भी शामिल हैं। बहुत दिन पहले वहाँ का बादशाह शाहजमाँ था। उसके चार पत्नियाँ थीं और सात विशेष दासियाँ। वह बड़ा प्रतापी राजा था, उसके देश में समृद्धि और शांति का राज्य था। कोई शत्रु उसके देश पर निगाह नहीं लगाए था किंतु उसे एक बड़ा दुख था कि उसके कोई संतान नहीं थी। एक दिन उसने अपने मंत्री से कहा कि मेरी अवस्था व्यर्थ ही बीती जाती है और मेरे बाद इतने बड़े राज्य का क्या होगा, क्योंकि मेरे कोई संतान नहीं है, मालूम होता है भगवान भी मुझे भूल गया है।
मंत्री ने कहा, पृथ्वीपाल, आप इस प्रकार की निराशा की बातें न करें। भगवान के घर देर है अंधेर नहीं। वह किसी को भूलता नहीं है। आप दीनतापूर्वक रात-दिन भगवान से संतान की भीख माँगें। इसके अतिरिक्त फकीरों, दरवेशों के आशीर्वाद लें तो मनोकामना पूर्ण होगी।
मंत्री के परामर्श के अनुसार बादशाह ने पूरे जोर से धार्मिक कृत्य शुरू किए और फकीरों को खूब दान दिया और उनसे संतान का आशीर्वाद चाहा। कुछ काल के उपरांत उसकी रानी को गर्भ ठहर गया। नौ महीनों के बाद उससे एक पुत्र का जन्म हुआ। बादशाह की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसने लाखों रुपया फकीरों के दान और अपने अधीनस्थ कार्यकर्ताओं के इनाम पर खर्च किए, यहाँ तक कि उसके देश में कोई भी व्यक्ति भूखा-नंगा नहीं रहा और महीनों तक राजमहल में उत्सव होता रहा।
राजकुमार अत्यंत रूपवान था। उसका नाम रखा था कमरुज्जमाँ। बादशाह ने उसके कुछ बड़े होने पर उसकी शिक्षा के लिए कई विशेषज्ञ नियुक्त किए जो हर प्रकार के कला-कौशल और विद्याओं में उसे शिक्षा देते थे। और तो सब ठीक रहा किंतु शिक्षा के दौरान उस पर न जाने क्या प्रभाव पड़ा कि उसे स्त्रियों से घृणा हो गई। जब वह जवान होने लगा तो बादशाह ने उसे एक दिन अपने पास बुला कर कहा, मैं चाहता हूँ कि अब तुम्हारा विवाह करवा दूँ। तुम क्या कहते हो?
शहजादे को इस बात से बुरा लगा। उसने पिता की बात का कोई उत्तर न दिया और बहुत देर तक चुपचाप खड़ा रहा। जब बादशाह ने जोर दे कर अपनी बात का उत्तर चाहा तो उसने हाथ जोड़ कर कहा, पिताजी, आपका आदेश न मानना निश्चय ही बड़ी अशोभनीय बात है किंतु इस मामले में मैं विवश हूँ। मैं विवाह बिल्कुल नहीं करना चाहता। सभी स्त्रियाँ झूठी और कुटिल होती है। बादशाह को यह सुन कर बड़ा क्रोध आया। उसने कहा, मेरा जी तो चाहता है कि तुम्हें अभी इस अशिष्टता का दंड दूँ किंतु मैं तुम्हें एक वर्ष का अवसर देता हूँ।
किंतु एक वर्ष के बाद भी शहजादा इस बात पर अड़ा रहा कि मुझे विवाह नहीं करना है। उसने कहा कि मैंने सारी पुस्तकों में स्त्रियों की बुराइयाँ ही पढ़ी हैं, मैं कैसे उनका विश्वास करूँ। बादशाह बहुत ही नाराज हुआ और इस बात के लिए तैयार हो गया कि शहजादे को कोई कठोर दंड दे। किंतु मंत्री के कहने पर उसने शहजादे को अपना निश्चय बदलने के लिए एक वर्ष का और समय दिया।
यह समय भी बेकार गया क्योंकि शहजादा अब भी इस पर अड़ा हुआ था कि मैं विवाह नहीं करूँगा। बादशाह ने एक बार फिर अपने क्रोध पर संयम किया और शहजादे की माँ, रानी फातिमा से कहा कि तुम अपने बेटे को समझाओ नहीं तो मैं उसे बड़ा कठोर दंड दूँगा। फातिमा ने शहजादे को समझाया कि तुम्हारे वंश में सदा से यह विवाह की रीति चली आती है, तुम्हारे लिए इसका उल्लंघन करना किसी प्रकार भी उचित नहीं है। कमरुज्जमाँ ने वही दलील दी कि स्त्रियाँ भ्रष्ट और धोखेबाज होती हैं। माँ ने समझाया, बेटे, तुम सभी स्त्रियों के लिए यह बात कैसे कह सकते हो। कुछ स्त्रियाँ दुष्ट होती हैं तो कई पवित्र भी होती हैं। मैंने भी कई दुष्ट पुरुषों की कथाएँ पढ़ी हैं किंतु इसका मतलब यह तो नहीं हुआ कि सारे पुरुष दुराचारी होते हैं।
किंतु माँ के लाख समझाने-बुझाने पर भी शहजादा टस से मस न हुआ। कुछ और समय बीता। अंत में बादशाह स्वयं पर संयम न रख सका। उसने आदेश दिया कि शहजादे को एक पुराने और छोटे-से मकान में, जिसमें हवा-रोशनी भी ठीक से नहीं आती थी, बंद कर दिया जाए। उसने कहा कि उसके लिए दो-चार कपड़े वहाँ रखवा दो और एक बूढ़ी दासी उसकी सेवा में रख दो और दो-चार पुस्तकें पढ़ने के लिए रखवा दो, किंतु उसे मकान से बाहर न निकलने दिया जाए।
लेकिन कमरुज्जमाँ को कोई परवाह नहीं थी। वह आनंदपूर्वक उस मकान में गया, दिन में पुस्तकें पढ़ता रहा और रात को अपने पलंग पर लेट कर सो गया। उस मकान में एक कुआँ था जिसमें जिन्नों के बादशाह दिउमर्स की परी बेटी मैमून रहती थी। रात को मैमून संसार भ्रमण के लिए रोज की तरह कुएँ से निकली। उसे मकान में प्रकाश देख कर आश्चर्य हुआ कि यहाँ रहने के लिए कौन आ गया। यद्यपि शहजादे का शयनकक्ष बाहर से बंद किया हुआ था तथापि परी को इससे क्या बाधा होती। वह कमरे के अंदर जा कर सोने के पलंग पर रेशमी चादर ओढ़ कर सोते हुए शहजादे को एकटक देखने लगी।
कमरुज्जमाँ का अनुपम सौंदर्य देख कर वह ठगी-सी रह गई। उसने धीरे से चादर खिसका कर उसे सिर से पाँव तक देखा। कुछ देर उसे देखने के बाद उसने शहजादे के मुँह और माथे का चुंबन किया और पहले की भाँति उसे चादर उढ़ा दी। इसके बाद वह उड़ कर आकाश में गई और संसार भ्रमण करने लगी। तभी उसे अपने पीछे पंखों की सरसराहट सुनाई दी। उसने आवाज दी, कौन जा रहा है, इधर आ। उड़नेवाला भी एक जिन्न था। वह जिन्नों के एक सरदार शहमर का बेटा नहस था। जिन्नों की शहजादी की आवाज सुन कर वह उसके पास आया। मैमून ने पूछा कि तुम कहाँ जा रहे हो। उसने कहा, मैं इस समय चीन देश से आ रहा हूँ। चीन बहुत बड़ा देश है और उसके अंतर्गत कई द्वीप हैं। वहाँ के बादशाह का नाम गोर है। उसकी बेटी बदौरा है। वह इतनी सुंदर है कि मालूम होता है विधाता ने उससे अधिक सुंदर किसी को नहीं पैदा किया है। न मनुष्यों में और न हमारी जाति में उससे बढ़ कर कोई रूपवान है।
नहस ने आगे कहा, शहजादी बदौरा के होंठ मूँगे की तरह हैं, आँखें तिरछी और मदभरी हैं, उसकी केशराशि श्यामल घटा की भाँति है जिसमें लगे चाँदी के सितारे बिजली की तरह चमकते हैं, उसकी नाक बड़ी ही सुडौल है और माथा बड़ा उज्ज्वल है। उसकी दंत-पंक्ति जैसे मोती की लड़ी हो। उसकी चाल हंसिन की भाँति है और उसकी आवाज में चाँदी की घंटियों की खनक है। वह हँसती है तो नैर फूल झड़ते हैं। उसका यौवन उन्नत और पुष्ट हैं। संक्षेप में वह हर मामले में अद्वितीय है।
बादशाह गौर ने करोड़ों अशर्फियों की लागत से अपनी प्यारी बेटी के लिए एक सतखंडा महल बनवाया है। उसका पहला खंड बिल्लौर पत्थर का है, दूसरा खंड ताँबे का, तीसरा फौलाद का, चौथा पीतल का, पाँचवाँ कसौटी के पत्थर का है, छठा खंड चाँदी का है और सातवाँ खंड सोने का। इस महल के चारों ओर मनोहर वाटिका है। इसमें हर प्रकार के फलों और हर प्रकार के फूलों के वृक्ष हैं। उस वाटिका में हर समय पके फलों और सुगंधित फूलों की खुशबू गमगमाती रहती है। जगह-जगह फव्वारे चलते हैं और स्वच्छ जल की नहरें और तालाब जगह-जगह बने हैं। कुछ पेड़ ऐसे घने हैं जिनके नीचे धूप नहीं आती और वहाँ आराम करने में सारी थकन मिट जाती है।
उस बादशाह का ऐश्वर्य और शहजादी के रूप की प्रशंसा सुन कर दूर-दूर के देशों के राजकुमारों ने उससे विवाह का प्रस्ताव किया है। बादशाह ने अपनी बेटी को अनुमति दे रखी है कि जिससे चाहे विवाह करे किंतु शहजादी को विवाह से चिढ़ है। उसके माँ-बाप ने बहुत समझाया किंतु वह राजी नहीं होती और कहती है कि अगर आप लोगों ने विवाह के लिए जोर दिया तो आत्महत्या कर लूँगी। बादशाह ने उसे एक मकान में बंदी बना रखा है। उसकी सेवा के लिए दस बूढ़ी स्त्रियाँ नियत की गई हैं जिनकी प्रमुख वह स्त्री है जिसका दूध राजकुमारी ने बचपन में पिया है। अब न शहजादी स्वयं कहीं जा सकती है न उसके पास कोई जा सकता है। बादशाह ने अपनी पुत्री को पागल समझ कर यह विज्ञापित कर दिया है कि जो हकीम या ज्योतिषी या तांत्रिक उसे अच्छा कर देगा उसी के साथ राजकुमारी का विवाह हो जाएगा। मुझे इस बात का बड़ा दुख है कि वह परम सुंदरी राजकुमारी इस प्रकार से बंदीगृह के दुख भोग रही है।
मैमून ने हँस कर नहस से कहा, मालूम होता है तुम्हारी अकल ठिकाने नहीं है। एक बेकार-सी लड़की के रूप की इतनी प्रशंसा कर रहे हो। अगर तुम उस शहजादे को देखो जिसे मैंने देखा है और जिसने मेरा मन मोह लिया है तो तुम्हें मालूम होगा कि सौंदर्य किसे कहते हैं। बल्कि मुझे विश्वास है कि शहजादे को देख कर तुम चीन की राजकुमारी का सौंदर्य भूल ही जाओगे।
नहस ने कहा, शहजादी, वह रूपवान शहजादा कहाँ है? मैमून ने कहा, वह तो अति निकट है। वह भी बंदी हो कर एक मकान में पड़ा है क्योंकि उसने भी विवाह करने से इनकार कर दिया है। वह उसी मकान में बंद है जिसके कुएँ में मैं रहती हूँ। नहस ने कहा, मैं उस शहजादे को देखने के बाद ही कह सकता हूँ कि वह कितना सुंदर है। फिर भी मैं कहता हूँ कि चीन की शहजादी अधिक सुंदर है। परी बोली कि तुम झख मारते हो, शहजादी उसके मुकाबले में क्या होगी। इसी तरह वे दोनों बड़ी देर तक बहस करते रहे। अंत में जिन्न बोला, परी रानी, तुम्हें इस प्रकार मेरी बात का विश्वास नहीं होगा। मैं उसे उसके मकान से उड़ा कर लाता हूँ फिर तुम खुद ही देख लेना। मैमून बोली, अच्छी बात है, तुम उसे ला कर शहजादे के पास लिटा दो ताकि दोनों की तुलना हो सके।
जिन्न ने उड़ान भरी और कुछ ही क्षणों में चीन की राजकुमारी को ला कर उसने शहजादे के बगल में लिटा दिया। लेकिन इससे भी बात न बनी। परी जिद करती रही कि कमरुज्जमाँ अधिक सुंदर है और नहस राजकुमारी बदौरा की प्रशंसा करता रहा। अंत में दोनों ने तय किया कि किसी तीसरे व्यक्ति को ला कर फैसला करवाएँ कि कौन अधिक सुंदर है। परी ने जमीन पर पाँव पटका तो जमीन फट गई और उसमें से एक लँगड़ा, काना और कुबड़ा जिन्न निकला जिसके सिर पर छह सींग थे और हाथ-पाँव बहुत ही लंबे थे। उसने आ कर परी मैमून को दंडवत प्रणाम किया और पूछा कि मुझे किस सेवा के लिए बुलाया गया है। परी ने कसकस नामी इस भयानक जिन्न से कहा कि मेरे और नहस के बीच बहस पड़ गई है कि इन दोनों में कौन अधिक सुंदर है, तू इस बात का फैसला कर दे।
कसकस बहुत देर देर तक दोनों को देखता रहा किंतु कुछ निर्णय न कर सका। उसने कहा, अभी तो कुछ नहीं कह सकता। कोई एक बात में बढ़ कर है कोई दूसरी बात में। अगर यह बारी-बारी से जाग कर एक दूसरे को प्रेमदृष्टि से देखें तो संभव है कि उनका वास्तविक सौंदर्य प्रकट हो। मैमून और नहस ने कसकस का यह सुझाव पसंद किया। पहले मैमून खटमल बन गई और उसने शहजादे की गर्दन में जोर से काट लिया। शहजादे ने खटमल पकड़ने के लिए हाथ मारा किंतु मैमून फुर्ती से अपनी असली सूरत में आ गई और फिर तीनों अदृश्य हो कर देखने लगे कि शहजादा क्या करता है। कमरुज्जमाँ ने आँखें खोलीं और शहजादी को अपने बगल में लेटा देख कर उस पर तुरंत मोहित हो गया। कहाँ तो उसे स्त्रियों के नाम से चिढ़ थी कहाँ वह इतना प्रेम-विवश हो गया कि बेतहाशा उसका मुख और कपोल चूमने लगा। इस बीच नहस के जादू से शहजादी बेखबर हो कर सोती रही, उसे कुछ पता न चला।
शहजादे ने सोचा कि कदाचित यह वही सुंदरी है जिसके साथ मेरे माँ-बाप मेरा विवाह करना चाहते थे, अगर मैं इसे पहले देख लेता तो शादी करने से क्यों इनकार करता। उसे अपनी इस मूर्खता पर बड़ी लज्जा आई कि बेकार ही माता-पिता की आज्ञा का उल्लंघन किया। उसने शहजादी को जगाना चाहा किंतु वह तो जिन्न नहस के जादू के प्रभाव से बेखबर सो रही थी। कमरुज्जमाँ ने शहजादी की नीलम की अँगूठी उतारी और उसकी जगह अपनी हीरे की अँगूठी पहना दी और स्वयं शहजादी की नीलम की अँगूठी पहन कर अपनी जगह पहले की तरह लेटा रहा और कुछ ही क्षणों में मैमून के जादू से अचेत हो कर सो गया।
अब जिन्न नहस ने मच्छर बन कर शहजादी के होंठ पर डंक मारा जिसके दर्द से वह जाग उठी। उसे यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि उसके बगल में यह सुंदर युवक कैसे आ कर सो गया। वह भी विवाह से बहुत चिढ़ती थी किंतु कमरुज्जमाँ पर तुरंत मोहित हो गई। उसने सोचा कि मेरे पिता शायद मेरा विवाह इसी युवक से करना चाहते थे और मैं अपनी मूर्खता और हठवादिता के कारण इनकार करती रही। किंतु उसे यह बड़ा अजीब लगा कि मेरा प्रियतम मेरे पास आ कर भी केवल सो रहा है और न प्रेम-दृष्टि डालता है न बातचीत करता है। कुछ देर बाद वह स्वयं को न रोक सकी। उसने शहजादे की बाँह पकड़ कर कई झटके दिए किंतु वह तो मैमून के जादू से अचेत हो कर सोया था। फिर शहजादी उसका हाथ चूमने लगी। उसने देखा कि मेरी अँगूठी इसकी उँगली में है। अपना हाथ देखा तो उसने दूसरी अँगूठी पाई। उसने सोचा कि शायद मुझे याद नहीं रहा है किंतु मेरा विवाह इस युवक के साथ हुआ है वरना यह अँगूठियाँ कैसे बदली जातीं। उसने शहजादे को गले से लिपटा कर बहुत प्यार किया और फिर सो रही। मैमून ने नहस से कहा, तुमने देख लिया कि शहजादा अधिक सुंदर है तभी शहजादी पागल की तरह उसे प्यार कर रही थी। अब तुम शहजादी को उसके महल में पहुँचा दो। यह कह कर उसने कसकस को भी विदा दी और स्वयं अपने कुएँ में वापस आ गई।
कमरुज्जमाँ सुबह जागा और उसने शहजादी को अपने पास न देखा। उसने सोचा कि शायद मेरे पिता ने उसे बुला भेजा है। उसने अपनी सेवा के लिए नियत दास को पुकारा। वह शहजादे के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। शहजादे ने हाथ-मुँह धो कर पूछा कि जो सुंदरी रात को मेरे पास सो रही थी वह कहाँ गई। दास ने कहा, सरकार, मैंने तो किसी सुंदरी को नहीं देखा। फिर यहाँ कोई सुंदरी आ कैसे सकती है, इस कमरे पर तो बाहर की ओर से ताला लगा रहता है। आपने निश्चय ही कोई स्वप्न देखा होगा।
कमरुज्जमाँ को यह सुन कर बड़ा क्रोध आया। उसने दास को बहुत मारा और बराबर पूछता रहा कि वह सुंदरी कहाँ गई। दास बेचारा क्या बताता। कमरुज्जमाँ ने कहा कि तू बहुत दुष्ट है। साधारण दंड से नहीं मानेगा। यह कह कर उसने अन्य दासों को बुला कर इस दास को रस्सी से बँधवाया और कुएँ में लटकवा दिया। दास ने सोचा कि मैं अपनी सच बात पर अड़ता हूँ तो इसी तरह मर जाऊँगा क्योंकि शहजादा निश्चय ही पागल हो गया है। उसने पुकार कर कहा, सरकार, मुझे प्राणों की भिक्षा दें तो मैं सही बात बता दूँ। शहजादे ने उसे निकलवाया और कहा कि अब मेरी बात का जवाब दे। उसने हाँफते हुए कहा कि मुझे जरा दम तो लेने दीजिए।
कुछ क्षणों में वह दास लघुशंका के बहाने उठा। उसने बाहर आ कर फिर कमरे में ताला डाल दिया और दौड़ कर बादशाह के पास गया। उसने शहजादे की सारी बातें बताईं कि किसी कल्पित सुंदरी के पीछे उसने मुझे बहुत मारा और कुएँ में लटकवा दिया और मैं बहाना बना कर यहाँ आया हूँ। उसने कहा, पृथ्वीपाल, आप स्वयं ही विचार कर देखें कि जब बाहर से ताला बंद है तो कोई स्त्री कैसे अंदर जा सकती है और बाहर आ सकती है। बादशाह को भी यह सब सुन कर आश्चर्य हुआ। उसने मंत्री को आदेश दिया कि वह शहजादे के पास जा कर पूरा हाल मालूम करे।
मंत्री ने शहजादे के मकान में जा कर उसे प्रणाम किया और कहा कि आप के पिता आपकी बातें सुन कर चिंतित हैं। उन्होंने मुझसे कहा है कि मैं आप से उस स्त्री के बारे में पूछूँ जिसे आपने स्वप्न में देखा है। शहजादे ने कहा, इस दुष्ट दास के कहने से आपने भी समझ लिया कि मैंने स्वप्न देखा है? मेरा वास्तव में उसके साथ विवाह हो चुका है और मैं उसके विरह में आतुर हूँ। बादशाह मुझे पहले ही उसे दिखा देते तो मैं विवाह से क्यों इनकार करता?
मंत्री ने कहा, यह आप क्या कर रहे है? बंद कमरे में कोई स्त्री कैसे आ सकती है। आपने स्वप्न ही देखा होगा। शहजादा उन्मत्त हो ही रहा था, उसने मंत्री की दाढ़ी पकड़ कर झटके दिए और उसे थप्पड़ मारे। मंत्री ने यह कह कर जान बचाई कि संभव है महाराज ने कोई स्त्री भेजी हो, मैं जा कर पूछता हूँ। हो सकता है वह सारा हाल सुनने पर उसे फिर आपके पास भेजें। शहजादे ने कहा, बुढ़ऊ, अब तुम राह पर आए हो। जल्दी से जाओ और मेरी प्राणप्रिया को मेरे पास पहुँचाने का प्रबंध करो।
मंत्री भाग कर बादशाह के पास आया और कहा, मालिक, उस गुलाम की बात बिल्कुल ठीक है। शहजादे ने मुझे भी मारा है और अपनी कोमलांगी प्रेयसी को भिजवाने के लिए मुझसे कहा है। बादशाह की चिंता यह सुन कर और बढ़ी। उसने स्वयं शहजादे के पास जा कर बात करने का निश्चय किया। उसके पास जा कर कहा, बेटे, यह सब क्या मामला है? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है। तुम किस स्त्री की बात कर रहे हो कि वह तुम्हारे बगल में आ कर सोई थी। यह भी समझ में नहीं आता है जब कमरा बाहर से बंद था तो वह स्त्री यहाँ पर आई कैसे।
शहजादे ने कहा, अब्बा हुजूर, मैंने उस स्त्री को स्वप्न में नहीं बल्कि सचमुच अपने पास लेटे देखा है। इस बात का प्रमाण यह अँगूठी है जो मैंने उससे बदली है। अगर मैंने स्वप्न में देखा होता तो यह अँगूठी मेरे पास कैसे आती। आप विश्वास मानिए कि मैं पूर्ण मानसिक स्वास्थ्य में हूँ। न मैं मूर्ख हूँ न पागल। आप कृपा कर के उस सुंदरी को मेरे पास भेजें। यदि आप पहले ही उस कोमलांगी को दिखा देते तो मैं क्यों शादी से इनकार करता और क्यों आपकी आज्ञा का उल्लंघन करता।
बादशाह अँगूठी देख कर सोचने लगा कि वास्तव में यह अँगूठी शहजादे की नहीं है बल्कि उसके देश भर में ऐसी गढ़त की अँगूठियाँ नहीं बनती हैं और इसका नीलमणि भी अत्यंत मूल्यवान है। मालूम होता है कि शहजादे की बात गलत नहीं है, फिर भी यह समझ में नहीं आता कि ताला-बंद कमरे में कोई स्त्री कैसे आई गई, विशेषकर जब वह अति सुंदर तरुणी हो।
उसने सोच-विचार कर कमरुज्जमाँ को कैद से निकाल कर अपने महल में रखा और उसे बहुत दिलासा दिया कि तुम चिंता न करो, हम उस तरुणी को तुम्हारे लिए जरूर ढूँढ़ निकालेंगे और उसका विवाह तुम्हारे साथ करेंगे। वह स्वयं भी अधिकतर शहजादे के समीप रहने लगा। इससे राज्य प्रबंध को यथोचित समय न दे पाता था। अतएव एक दिन उसके मंत्री ने कहा, आप पूर्ववत राजकाज में संलग्न हो जाएँ ताकि देश को किसी प्रकार की हानि न हो। और जहाँ तक शहजादे का प्रश्न है उसे समुद्र के बीच में बसे खिरद नामी द्वीप के किले में भेज दीजिए। वहाँ हर देश के जहाज और हर देश के लोग आते ही रहते हैं, उनसे बात कर के शहजादे का जी बहला रहेगा। फिर वह स्थान यहाँ से दूर भी नहीं है, आप जब चाहे उसके पास जा सकते हैं। बादशाह को मंत्री की राय पसंद आई। उसने शहजादे को खिरद टापू के किले में भेज दिया। वह स्वयं भी कभी-कभी उसे देखने जाया करता था।
अब इधर का हाल सुनिए। नहस जिन्न ने जब शहजादी को ले जा कर उसके आवास में छोड़ दिया तो दूसरे दिन सवेरे वह अपने साधारण नियमानुसार जागी। उसने अपने आसपास शहजादा कमरुज्जमाँ की खोज की। उसे न पा कर अपनी रक्षिका वृद्धा दासी को पुकारा और घबरा कर पूछने लगी कि वह सुंदर युवक जो रात को मेरे साथ सो रहा था कहाँ चला गया है, उसे तुरंत ही मेरे पास ला। बुढ़िया को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने कहा, प्यारी बेटी, तुम्हें क्या हो गया है? यह क्या कह रही हो? तुम्हारे शयनगृह में चिड़िया तक का प्रवेश तो संभव नहीं है, सुंदर युवक कहाँ से आ जाएगा। तुमने अवश्य कोई सपना देखा है। भगवान के लिए ऐसी बातें न करो। तुम्हारी बातों का तुम्हारे माता-पिता को पता चलेगा तो मेरी गर्दन उड़ा दी जाएगी।
शहजादी बदौरा को दासी की बात पर बड़ा गुस्सा आया। उसने बुढ़िया के केश पकड़ लिए और उसे बेतहाशा मारना शुरू किया। बुढिया तड़प कर उसकी पकड़ से निकल गई और भागी-भागी राजमहल में पहुँची। वहाँ जा कर उसने बादशाह और बेगम को बताया कि बदौरा कैसी पागलपन की बातें करती है। वे दोनों परेशान हो कर शहजादी के पास पहुँचे और बोले - बेटी, तुमने रात को क्या स्वप्न देखा जिससे तुम इतनी परेशान हो गई हो कि बेकार बकवास करने लगी?
शहजादी बदौरा ने लज्जावश सिर झुका कर कहा, मुझे बड़ा खेद है कि आप लोग मेरा विवाह करना चाहते थे और मैं नादानी से जिद कर के आपकी आज्ञा का उल्लंघन करती रही किंतु जिस युवक को आपने मेरे लिए चुना है वह रात को मेरे साथ आ कर सोया था। मैं सच कहती हूँ कि अगर आप पहले से उसे दिखा देते तो मैं विवाह से इनकार ही क्यों करती। अब कृपया उसे तलाश कराइए, न जाने वह कहाँ चला गया है। मुझे उसके प्रेम ने ऐसा जकड़ लिया है कि मैं उसके बगैर एक क्षण नहीं रह सकती। वह न मिला तो मैं आत्महत्या कर लूँगी। अगर आप को विश्वास न हो तो यह देखिए, वह अपनी अँगूठी मुझे दे गया है।
उसके माता-पिता को यह देख कर वास्तव में आश्चर्य हुआ कि अँगूठी किसी और की है, शहजादी की नहीं। वे बहुत सोचते रहे किंतु उनकी समझ में कुछ नहीं आया कि इतनी कड़ी कैद के बाद भी कोई आदमी कैसे यहाँ तक आया और अँगूठी बदल गया। बहुत सिर मारने पर भी उनकी समझ में बेटी की बात नहीं आई और उन्होंने समझ लिया कि वह बिल्कुल पागल हो गई है, उन्होंने सोने की जंजीरे मँगा कर उनसे बेटी के हाथ-पाँव जकड़ दिए और अति दुखित हो कर अपने महल को वापस आए। उन्होंने आदेश दिया कि एक विश्वस्त बूढ़ी दासी के अलावा इसके पास कोई नहीं जा सकेगा। उन्होंने बंदीगृह के चारों ओर का पहरा भी बड़ा सख्त कर दिया। इसके अतिरिक्त बादशाह ने दरबार में सारे अमीरों और सामंतों के समक्ष घोषणा की कि मेरी बेटी पर उन्माद का प्रकोप हुआ है। कोई भी व्यक्ति जो उसे अच्छा कर देगा उसके साथ कुमारी का विवाह कर दिया जायगा और युवराज बना दिया जायगा। किंतु जो व्यक्ति इस प्रयत्न में असफल होगा उसे प्राणदंड दिया जाएगा।
इस घोषणा के बाद बहुत-से हकीम, वैद्य, तांत्रिक, योगी आदि शहजादी के इलाज के लिए आए और विफल हो कर प्राण गँवा बैठे। दो-तीन वर्षों में लगभग डेढ़ सौ व्यक्तियों को इस सिलसिले में मृत्युदंड मिला। बादशाह ने शहर की रक्षाभित्ति के साथ उन सभी के सिरों को लटकवा दिया। अब किसी का साहस शहजादी के इलाज के लिए आगे आने का नहीं होता था। जो दासी उस शहजादी की सेवा के लिए नियुक्त थी उसके पुत्र के साथ शहजादी बचपन में खेली थी। उस युवक का नाम मर्जुबन था। वह चीन के बाहर विद्याध्ययन करने गया था। कई वर्ष बाद वह वापस लौटा तो उसे रक्षाभित्ति के साथ इतने सारे सिर लटके देख कर आश्चर्य हुआ। फिर वह अपने घर गया तो अपने घरवालों से बातों-बातों में अपनी बचपन की सहेली शहजादी बदौरा का हाल पूछा।
उसके संबंधियों ने बताया कि शहजादी पागल हो गई है, बादशाह ने उसे जंजीरों में जकड़ कर कैदखाने में डाल दिया है। बादशाह ने घोषणा की है कि जो भी उसे अच्छा कर देगा उसके साथ शहजादी ब्याह दूँगा और उसे युवराज बना दूँगा किंतु जो उससे अच्छा नहीं कर सका तो उसे मृत्युदंड दिया जाएगा। यह घोषणा सुन कर बहुत-से गुणीजन - वैद्य, ज्योतिषी, रमलकर्ता, तांत्रिक आदि आए और इस प्रयत्न में असफल हो कर प्राण गँवा बैठे, उन्हीं के सिरों को रक्षाभित्ति के सहारे लटकाया गया है। बाकी बातें तुम्हें अपनी माँ से मालूम होंगी। इस समय शहजादी के पास तुम्हारी माँ के अतिरिक्त किसी को जाने की अनुमति नहीं दी जाती। अपने सेवाकार्य से अवकाश पा कर मर्जबान की माँ घर आई तो उसे बेटे के वापस आने से बड़ी प्रसन्नता हुई । मर्जबान के पूछने पर उसने राजकुमारी का हाल ब्योरेवार बताया। मर्जबान ने पूछा कि क्या यह संभव है कि मैं गुप्त रूप से शहजादी से भेंट करूँ और देखूँ कि उसे क्या बीमारी है। उसकी माँ ने कहा कि यह काम बड़ी जोखिम का है। किंतु जब मर्जवान ने बहुत जिद की तो उसने कहा कि मैं देखभाल कर बताऊँगी कि कुछ प्रबंध हो सकता है या नहीं।
दूसरे दिन बुढ़िया जब शहजादी की सेवा के लिए गई तो उसने पहरे के सिपाहियों के प्रधान से कहा, भैया, मैं तुम्हारी थोड़ी-सी कृपा चाहती हूँ। उसने कहा, बोलो क्या चाहती हो। बुढ़िया बोली, तुम्हें शायद मालूम हो कि मेरी एक बेटी शहजादी ही की उम्र की है। दोनों ने एक साथ ही मेरा दूध पिया था। कई वर्ष पूर्व मैंने उसका विवाह कर दिया था। अब वह पहली बार ससुराल से आई है। उसने अपनी बचपन की सहेली का हाल सुना तो उसे बड़ी चिंता हुई है। वह उसे देखना चाहती थी किंतु वह बड़ा सख्त पर्दा करती है और किसी को यह भी नहीं बताना चाहती कि वह कहाँ आती-जाती है। तुम्हारी अनुमति हो तो मैं अपनी बेटी को शहजादी से मिलवा दूँ। प्रधान रक्षक ने इसमें कोई हर्ज नहीं समझा। उसने कहा, एक पहर रात गए बादशाह शयन के लिए जाते हैं। तुम अपनी बेटी को उसी समय लाना। मैं इस मकान का दरवाजा खुला रखूँगा। शहजादी का मन बहलाने के लिए उसकी सहेली उससे मिले तो अच्छी ही बात होगी।
अतएव बुढ़िया ने मर्जबान को जनाने कपड़े पहना कर नकाब से उसका मुँह ढका और नियत समय पर शहजादी के आवास में ले गई। उसे बाहरी कमरे में छोड़ कर शहजादी के पास जा कर बोली कि मेरा बेटा छद्म वेश में तुम्हारा हाल-चाल पूछने आया है। शहजादी को अपने बचपन के साथी के आने पर प्रसन्नता हुई। उसने मर्जबान को बुलाया और जब वह प्रणाम कर के दूर खड़ा हुआ तो बोली, मर्जबान भाई, पास आओ। भाई-बहन में क्या तकल्लुफ? मेरा जी बहुत घबरा रहा था। तुम्हारे साथ दो घड़ी बात कर के मेरी तबीयत बहलेगी।
मर्जबान ने अपनी ज्योतिष, रमल आदि की पुस्तकें निकालीं और शहजादी के रोग के निदान का प्रयत्न करने लगा। शहजादी बदौरा बोली, मर्जबान, बड़े दुख की बात है कि तुम भी मुझे औरों की तरह पागल समझे हुए हो। मैं तुम से जोर दे कर कहती हूँ कि मैं मानसिक रूप से बिल्कुल स्वस्थ हूँ। जो लोग मेरे इलाज को आते हैं वे मेरी कहानी तो जानते नहीं इसलिए मुझे पागल समझते हैं।
यह कहने के बाद शहजादी बदौरा ने उसे सविस्तार बताया कि उसकी कैसे एक युवक से भेंट हुई जिसने उसके सोते में उसकी अँगूठी बदल ली। मैं पागल नहीं हूँ। जिस समय मुझे मेरा प्रियतम मिल जाएगा मैं बिल्कुल ठीक हो जाऊँगी।
मर्जबान यह सुन कर बहुत देर तो चुपचाप खड़ा रहा फिर बोला, राजकुमारी, औरों ने चाहे आपकी बात का विश्वास न किया हो किंतु मुझे विश्वास है। आप निश्चिंत रहें। मैं आपके मनोवांछित पुरुष की खोज में जाता हूँ। ईश्वर की इच्छा हुई तो उसे खोज ही लाऊँगा। अगर ऐसा न हो सका तो मैं यहाँ मुँह न दिखाऊँगा। अब जब आप सुनें कि मर्जबान नगर में है तो समझ लें कि आपका प्रियतम भी उसके साथ आया है। यह कह कर वह विदा हो गया। अपने नगर से निकल कर वह देश-देश की, नगर-नगर की यात्रा करता रहा और पूछताछ करता रहा। किंतु उसकी यह भी समझ में नहीं आया था कि क्या पूछे।
संयोग से वह एक दिन वह सुंदर नगर में ठहरा हुआ था जो एक नदी के तट पर बसा हुआ था। यह उसके चीन से जाने के लगभग चार महीने की बात है। कुछ सैलानियों ने उसे बताया कि फारस का शहजादा कमरुज्जमाँ अजीब तरह से उन्माद से ग्रस्त है। वह सख्त पहरे के अंदर था, फिर भी कहता है कि उसके साथ एक सुंदरी लेटी जिससे उसने अँगूठी बदली है। मर्जबान को आशा हुई कि शायद यह वही पुरुष है जिसका उल्लेख बदौरा ने किया है। उसने उस द्वीप का मार्ग पूछा जहाँ कमरुज्जमाँ किले में कैद था। मालूम हुआ कि दो रास्ते हैं। एक थल मार्ग है जो निरापद है किंतु लंबा है, दूसरा समुद्री माग है किंतु वह खतरनाक है। मर्जबान ने खतरनाक समुद्री मार्ग ही से जाना निश्चित किया।
कुछ दिनों तक तो यात्रा ठीक रही किंतु बाद में एक तेज तूफान आया जिसने जहाज को एक पहाड़ के जल मार्ग पर पटक दिया। जहाज टुकड़े-टुकड़े हो कर गहरे समुद्र में आ गिरा। जहाज के सारे लोग डूब गए किंतु मर्जबान कुशल तैराक भी था। वह एक तख्ते का सहारा ले कर तैरता रहा और धीरे-धीरे उसी द्वीप के तट पर आ लगा जहाँ कमरुज्जमाँ को कैद कर रखा गया था। संयोग की बात थी कि उसी समय बादशाह वहाँ समुद्र को देख कर मन बहला रहा था। मर्जबान को तख्ते के सहारे तैरते देख कर उसने मंत्री को आज्ञा दी कि इस आदमी को तुरंत डूबने से बचाया जाय। माँझी लोग आज्ञा पा कर समुद्र में गए और मर्जबान को निकाल कर उसे बादशाह के समक्ष ले गए। बादशाह ने उससे बात करने के बाद आदेश दिया कि यह व्यक्ति शिक्षित और बुद्धिमान है और शहजादे का समवयस्क भी अतएव इसे उसके साथी के रूप में शहजादे के पास रखा जाए। उसने शहजादे की बीमारी का हाल उससे कहा।
मर्जबान अँगूठी बदलने की बात सुन कर समझ गया कि बदौरा इसी शहजादे की बातें करती है। उसने बादशाह से प्रार्थना की कि अगर उसे एकांत में शहजादे से बात करने दिया जाए तो संभव है कि शहजादे का रोग दूर हो जाए। बादशाह ने इसकी अनुमति दे दी। अकेले में कमरुज्जमाँ ने मर्जबान से पूछा कि तुम कौन हो और कहाँ से आए हो। उसने धीरे से कहा, सरकार, मैं चीन से आया हूँ। जो सुंदरी आपके समीप आ कर लेटी थी और जिससे आपने अपनी अँगूठी बदली है उसे मैं अच्छी तरह जानता हूँ। वह चीन के महापराक्रमी सम्राट की पुत्री है। उसका नाम बदौरा है। जिस प्रकार आप उसके वियोग में उन्मत हो गए हैं वैसे ही वह भी आपके विछोह में जलविहीन मछली की तरह तड़पती रहती है।
मर्जबान ने आगे बताया, मैं उसका दूध भाई हूँ और उसे मुझ पर पूरा विश्वास है, इसलिए उसने मुझे अपना और आपका हाल ब्योरेवार बताया है। आप ही की भाँति वह भी अपने पिता के आदेशानुसार कैद में है बल्कि आप से अधिक दुर्दशा में है क्योंकि उसे सोने की जंजीरों से बाँध दिया गया है। उसके पिता ने मुनादी करवा दी है कि जो कोई मेरी बेटी को ठीक कर देगा उसे मैं अपना दामाद और युवराज बना दूँगा। किंतु जो इस प्रयत्न में असफल हुआ उसे मरवा डालूँगा। इसी चक्कर में लगभग डेढ़ सौ ज्योतिषियों, रमल के जानकारों, तांत्रिकों, हकीमों ने अपनी जान गँवा दी है और नगर की रक्षाभित्ति के सहारे उनके सिर लटके हैं। अगर आप वहाँ जाएँगे तो निश्चय ही शहजादी ठीक हो जाएगी और सम्राट अपने वचन के अनुसार उससे आप का विवाह करा देंगे और आप को सम्राट के मरणोरपरांत वहाँ का राज्य भी मिलेगा। इसीलिए अब सबसे पहले तो जरूरी है कि आप ठीक तरह से स्वास्थ्यवर्धक भोजन कर के अपने शरीर में शक्ति पैदा करें और फिर मेरे साथ चीन चलें।
कमरुज्जमाँ को यह सुन कर इतनी प्रसन्नता हुई कि वह उत्साह के मारे खड़ा हो गया। उसे अपनी प्रियतमा से मिलने की आशा हो गई थी। उसने स्नान कर के अच्छे वस्त्र धारण किए और सब से साधारण रूप में हँसने-बोलने लगा। उसने अपने पिता के साथ डट कर भोजन किया। बादशाह यह देख कर फूला न समाया। उसने अपने पुत्र को गले लगाया और खिरद द्वीप के किले से निकाल कर अपने महल में ले गया। उसने राज्य भर में शहजादे के स्वास्थ्यलाभ पर बड़ा भारी उत्सव कराया और महल में सामंतों और प्रमुख नागरिकों की बड़ी शानदार दावत की। उसने दीन, अनाथ और भिखारियों को मुँह माँगा दान भी दिया। राज्य के सभी लोग अपने शहजादे के स्वास्थ्य लाभ से बहुत प्रसन्न हुए और कई दिनों तक उत्सव चलता रहा।
कमरुज्जमाँ ने अब स्वास्थ्यकारी भोजन करना आरंभ कर दिया था। इसलिए कुछ ही दिनों में उसके शरीर में पूर्ववत शक्ति आ गई। फिर उसने मर्जबान से कहा कि अब मुझमें वियोग सहने की और शक्ति नहीं है, मैं तुम्हारे साथ चीन के लिए तुरंत ही रवाना होना चाहता हूँ किंतु मेरे पिताजी मुझे इतना चाहते हैं कि इतनी दूर की यात्रा की अनुमति न देंगे। यह कह कर वह रोने लगा।
मर्जबान ने कहा, आपकी बात ठीक है किंतु एक तरकीब है जिससे आप यहाँ से निकल सकते हैं। आप अपने पिता से दो-तीन दिन के लिए आखेट पर जाने की अनुमति लीजिए और अपने साथ मुझे और कुछ सेवकों को रखिए। साथ में दो असील तीव्रगामी घोड़े भी ले चलें। वहाँ से हम दोनों चीन को चल देंगे।
शहजादे को उसकी राय पसंद आई। उसने बादशाह से आखेट की अनुमति माँगी जो उसने प्रसन्नतापूर्वक दे दी। यह लोग पूर्व दिशा की ओर चल दिए। सायं होने पर यह लोग एक सराय में रुके। खाने-पीने के बाद और लोग सो गए किंतु आधी रात को यह दोनों अपने तेज घोड़े पर निकल पड़े। उन्होंने एक तीसरा मामूली घोड़ा भी लिया और राजसेवकों जैसी एक पोशाक भी। पाँच-छह घंटे चलने के बाद वे उस चौराहे पर पहुँचे जहाँ से जंगल शुरू होता था। मर्जबान ने शहजादे से कहा कि आप अपने कपड़े उतार कर मुझे दे दें और यह नौकरों जैसे कपड़े पहन लें। शहजादे ने ऐसा ही किया। मर्जबान ने तीसरे घोड़े को मार डाला और उसके खून में कमरुज्जमाँ की शाही पोशाक फाड़ कर लिथेड़ दी और घोड़े की लाश को खींच कर छुपा दिया और चौराहे के पास खून से सनी और तार-तार शाही पोशाक डाल दी। शहजादे ने आश्चर्य से पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया।
मर्जबान ने कहा, आप के सेवकगण आप को ढूँढ़ते हुए यहाँ आएँगे और इन कपड़ों को देख कर समझेंगे कि कोई वन्य पशु आपको खा गया। फिर आपकी तलाश छोड़ दी जाएगी और हम आराम से चलेंगे।
तत्पश्चात वे दोनों बहुत-सी अशर्फियाँ और जवाहिरात ले कर कभी समुद्री और कभी थल मार्ग से यात्रा करते हुए चीन पहुँचे। उन्होंने एक सराय में ठहर कर तीन दिन तक विश्राम किया। इस बीच मर्जबान ने शहजादे के लिए हकीमों जैसे कपड़े बनवा लिए। फिर हम्माम में दोनों ने स्नान किया और शहजादे ने हकीमी लिबास पहना। मर्जबान ने कहा कि अब तुम बादशाह के पास हकीम बन कर जाओ और बदौरा की चिकित्सा की बात करो और मैं बदौरा के पास जा कर तुम्हारे आगमन का समाचार देता हूँ। यह कह कर वह अपने घर गया और अपनी माँ से कहा कि तुम तुरंत शहजादी को मेरे आने की खबर करो।
इधर कमरुज्जमाँ महल में नीचे पहुँचा और पुकार कर कहने लगा, मैं दूर देश से आया हुआ हकीम हूँ। मैं शहजादी का इलाज करना चाहता हूँ। यदि शहजादी मेरे इलाज से अच्छी हो जाएगी तो बादशाह अपने वचनानुसार उससे मेरा विवाह कर दें वरना मुझे मृत्युदंड दे दें। बादशाह के सेवकों ने उसकी सौंदर्य और यौवनावस्था को देख कर दुख किया कि यह कहाँ मरने के लिए आ गया है। उन्होंने उसे बहुत समझाया कि क्यों अपनी जान का दुश्मन हुआ है, तेरे जेसे न मालूम कितने आदमी मर गए हैं। किंतु कमरुज्जमाँ अपनी बात पर दृढ़ रहा। सेवक उसे सम्राट के पास ले गए।
कमरुज्जमाँ दरबार में जा कर धड़धड़ाता हुआ सम्राट के बगल में बैठ गया। सम्राट को इस बात पर क्रोध आना चाहिए था किंतु वह इस जवान हकीम की हालत पर तरस खाने लगा। उसके समझाने पर भी जब कमरुज्जमाँ न माना तो सम्राट ने उससे प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर कराए और बदौरा के आवास में उसे भेज दिया। वहाँ का प्रधान रक्षक शहजादे को बाहर बिठा कर बदौरा को बताने गया कि तुम्हारा इलाज करने के लिए एक हकीम आया है। शहजादी ने कहा, उसे भी लाओ।
प्रधान रक्षक ने आ कर कहा कि शहजादी तुम्हें बुलाती हैं। कमरुज्जमाँ ने कहा कि मेरे वहाँ जाने की जरूरत नहीं है। यहीं से उसे ठीक कर दूँगा। शहजादे ने कलम- दवात निकाल कर एक पत्र लिखा जिसमें उनकी मिलन-रात्रि का वर्णन था और उस पत्र को बदौरा की अँगूठी के साथ बदौरा के पास भेज दिया। बदौरा ने पत्र पढ़ा और अपनी अँगूठी पहचान ली और समझ गई कि यह मेरा प्रिय पुरुष है। उसने झटके से जंजीरें तोड़ डालीं और दौड़ती हुई वहाँ आई जहाँ शहजादा बैठा था। दोनों ने एक-दूसरे को पहचान आलिंगनबद्ध हो गए।
शहजादी की परिचारिका बुढ़िया ने दोनों को अंदर बैठाया। दोनों प्रेम की बातें करने लगे। बदौरा ने अपनी अँगूठी शहजादे को दे कर कहा, तुम इसे अपने पास ही रखो और मैं भी तुम्हारी अँगूठी अपनी जान से भी प्यारी समझ कर अपने पास रखूँगी।
बदौरा के प्रधान रक्षक ने दौड़ कर सम्राट को सूचना दी कि हकीम ने तो दूर ही से शहजादी को स्वस्थ कर दिया और अब वह बिल्कुल सामान्य रूप से बातचीत कर रही है। सम्राट तुरंत ही बदौरा के आवास में आया और बेटी को पूर्ण स्वस्थ देख कर अपने सीने से लगा लिया। फिर उसने बदौरा का हाथ कमरुज्जमाँ के हाथ में दे कर कहा कि मैं अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अपनी बेटी तुम्हें दे रहा हूँ। अब तुम बताओ कि तुम कौन हो और कहाँ से आए हो। कमरुज्जमाँ ने कहा कि मैं न हकीम हूँ न तांत्रिक। मैं फारस देश के खलदान नामक भाग के बादशाह का पुत्र हूँ। फिर उसने अपने प्रेम का सविस्तार वर्णन सम्राट के सन्मुख किया। सम्राट को यह सब सुन कर बड़ा आश्चर्य हुआ और उसने आदेश दिया कि इस वृत्तांत को स्वर्णाक्षरों में लिखवा कर शाही ग्रंथागार में रखवा दिया जाए। फिर उसने अपने कर्मचारियों को आदेश दिया कि विवाह की तैयारियाँ की जाएँ। कुछ दिनों में तैयारियाँ पूरी हो गईं और बदौरा का करुज्जमाँ के साथ विवाह हो गया। दोनों प्रेमियों की बड़े दिनों की मनोकामना पूरी हुई और वे आनंदपूर्वक रहने लगे। सम्राट ने कमरुज्जमाँ को अपना मंत्री नियुक्त कर दिया और उससे राज्य प्रबंध में सहयोग लेने लगा।
किंतु यह आनंद-उल्लास कुछ दिनों बाद ठंडा पड़ गया। हुआ यह कि कमरुज्जमाँ ने एक रात यह स्वप्न देखा कि उसका पिता मरणासन्न है और रो-रो कर कह रहा है कि हाय मेरा इकलौता बेटा मुझसे बिछुड़ गया और उसके वियोग में मेरे प्राण निकल रहे हैं। कमरुज्जमाँ यह स्वप्न देख कर चौंक उठा और दुख के मारे रोने लगा। उसके रोदन से उसकी पत्नी जाग गई और परेशान हो कर पूछने लगी कि तुम्हें क्या हो गया है, रो क्यों रहे हो। कमरुज्जमाँ ने उसे बताया कि मैंने क्या सपना देखा है।
शहजादी बदौरा समझ गई कि उसे अपने पिता की बहुत याद आएगी और उसका जी इस देश में नहीं लगेगा। उसने शहजादे को दिलासा दिया कि मैं तुम्हें तुम्हारे पिता से मिलवाने का प्रबंध करूँगी। इससे दूसरे दिन उसने अपने पिता से कहा कि हम लोग एक वर्ष के लिए देशाटन को जाना चाहते हैं। उसने खेदपूर्वक यह बात स्वीकार कर ली और बहुत-से सेवक, घोड़े, हाथी, अशर्फियाँ और रत्नादि दे कर कहा कि तुम लोग एक वर्ष में वापस जरूर आ जाना। वह स्वयं भी कुछ दूर तक उनके साथ गया।
अब यहाँ से कमरुज्जमाँ पर नई विपत्तियाँ पड़नी शुरू हो गईं। एक महीने की यात्रा के बाद वे लोग एक विशाल वन के किनारे पहुँचे। कमरुज्जमाँ थक गया, उसने बदौरा से कहा कि कहो तो यहाँ डेरा डाल कर कुछ समय तक आराम कर लें। बदौरा भी यही चाहती थी। उसने कहा कि मैं तुमसे भी अधिक थक गई हूँ, यहाँ तक की यात्रा में हमारे बहुत-से सेवक पीछे छूट गए हैं, वे भी हम लोगों के साथ आ कर मिल जाएँगे।
कमरुज्जमाँ की आज्ञा पा कर उसके सेवक फर्राशों ने सघन पेड़ों की छाया में तंबू लगा लिया। उनके अन्य साथी और सैनिक भी अपने तंबू तान बैठे, बदौरा गर्मी और थकन से बड़ी व्यथित थी। वह डेरे के सज जाने पर उसमें जा कर उसमें बिछे पलंग पर लेट गई और लेटते ही सो गई। कुछ समय के बाद बाहरी प्रबंध की देख-भाल कर के कमरुज्जमाँ भी वहाँ आया और पत्नी के बगल में लेट रहा।
बदौरा ने लेटने से पहले अपनी कमर का पटका खोल कर वहीं पास में डाल दिया था। यह पटका रत्नजड़ित था और इसमें जरदोजी के काम का एक बटुआ भी बँधा था। कौतूहलवश शहजादे ने वह बटुआ उठाया तो मालूम हुआ कि उसके अंदर कोई ठोस और कठोर-सी वस्तु है। कमरुज्जमाँ ने बटुआ खोल कर उसे निकाला तो देखा कि वह एक बड़ा-सा लाल था जिस पर कुछ यंत्र जैसा बना था। शहजादे को ताज्जुब हुआ कि बदौरा ने उसे सुरक्षापूर्वक किसी पेटिका में न रख कर ऐसी बेपरवाही से क्यों फेंक दिया। वास्तव में यह यंत्र बदौरा की माँ ने उसकी रक्षा के लिए दिया था। शहजादा उसे डेरे से बाहर लाया ताकि प्रकाश में उसके अक्षर पढ सके किंतु तभी एक पक्षी उसे उसके हाथ से ले कर उड़ गया।
शहजादे को बड़ी परेशानी हुई कि उसकी प्रिया की यह अमूल्य वस्तु उसके हाथ से ही निकली। उसने पक्षी का पीछा किया। पक्षी कुछ दूर जा बैठा। जब शहजादा उसके पास गया तो वह उड़ कर फिर कुछ दूर जा बैठा। शहजादा फिर उसके पास पहुँचा तो पक्षी ने वह लाल निगल लिया और फिर कुछ दूर तक उड़ कर बैठ गया। कमरुज्जमाँ इसी प्रकार उसका पीछा करता रहा। शाम तक वह पक्षी इसी प्रकार कमरुज्जमाँ को भटकाता रहा। कमरुज्जमाँ अपने लश्कर से दूर निकल गया था और उसे दिशा ज्ञान भी नहीं रहा। उसने पेड़ों के कुछ फल खाए और एक पेड़ की छाँह में सो रहा।
सवेरे उसने देखा कि वह पक्षी उसी पेड़ पर बैठा है। कमरुज्जमाँ ने उसे पकड़ना चाहा तो वह फिर उड़ कर दूर जा बैठा। इसी प्रकार दूसरे दिन भी उस पक्षी ने कमरुज्जमाँ को दिन भर अपने पीछे दौड़ाया। वह बेचारा दिन भर पक्षी का पीछा करता और रात को किसी पेड़ के नीचे सो रहता।
वह सोचता कि वापस जाऊँ भी तो लश्कर का पता कहाँ मिलेगा। इससे अच्छा है कि इस पक्षी को पकड़ कर इसके अंदर से माणिक निकाल लूँ।
ग्यारहवें दिन वह पक्षी एक नगर के समीप पहुँचा। कमरुज्जमाँ भी उसके पीछे-पीछे चला। अब वह पक्षी तेजी से उड़ा और एक विशाल भवन के पीछे जा कर ऐसा लोप हुआ कि कमरुज्जमाँ के लाख ढूँढ़ने पर भी वह दिखाई नहीं दिया। कमरुज्जमाँ की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। वह नगर समुद्र के तट पर बसा था। कमरुज्जमाँ बहुत देर तक उस नगर की सड़कों और गलियों में भटकता रहा ताकि किसी नागरिक से सहायता माँगे किंतु वहाँ के किसी आदमी ने उससे बात ही नहीं की।
अब वह बेचारा शहर से निकल कर समुद्र तट पर घूमने लगा। उसे एक बाग दिखाई दिया और उसके अंदर जाने को उद्यत हुआ किंतु बाग के माली ने उसे देख कर बाग का फाटक बंद कर लिया। कमरुज्जमाँ को इस से आश्चर्य हुआ और उसने माली से पूछा कि तुमने मुझे देख कर फाटक क्यों बंद कर लिया। माली ने उत्तर दिया, यह मैंने इसलिए किया कि तुम मुसलमान हो। तुम परदेसी हो इसलिए यहाँ की बातें नहीं जानते। यह देश प्रस्तर पूजकों का है। यहाँ के लोग मुसलमानों को उत्पीड़ित करना अपने धर्म का एक भाग समझते हैं। मुझे इस बात का आश्चर्य है कि तुम इतनी देर से यहाँ घूम रहे हो और किसी ने तुम्हें अब तक कोई यातना नहीं दी। इसे भगवान की तुम पर अति कृपा कहनी चाहिए।
कमरुज्जमाँ की समझ में बिल्कुल न आया कि क्या करूँ। उसकी परेशानी को देख कर बूढ़े माली को दया आई। उसने कहा, खैर तुम भूखे-प्यासे और परेशान मालूम होते हो। चुपके से बाग के अंदर आ जाओ और मेरे झोपड़े में छुप कर बैठो और खा-पी कर कुछ देर आराम करो। कमरुज्जमाँ ने उसके प्रति आभार प्रकट किया और झोपड़े में जा कर कुछ खाया-पिया और फिर माली के पूछने पर अपना सारा हाल बयान किया कि किस प्रकार वह दुष्ट पक्षी मुझे भटकता हुआ यहाँ ले आया है। अपना हाल सुनाते-सुनाते वह रोने लगा कि न जाने अब मेरे प्यारी पत्नी से मेरी भेंट होगी भी या नहीं और उसे ले कर अपने पिता से भी मिल पाऊँगा या नहीं। उसने कहा कि यह भी तो ठीक नहीं है कि मेरी पत्नी अब भी उसी वन में हो जिसमें मैं उन्हें छोड़ आया था।
माली ने उसे बताया, मुसलमानों के देश यहाँ से बहुत दूर हैं। कम से कम एक वर्ष की यात्रा करनी होती है उनमें जाने के लिए। उनमें से सब से निकट का देश अवौनी है। अवौनी भी समुद्र तट पर है और वहाँ से लोग समुद्र के रास्ते आसानी से तुम्हारे पिता के खलदानी द्वीपों में पहुँच जाते हैं। साल में एक बार अवौनी का एक व्यापारी यहाँ आता है और अपने यहाँ की वस्तुएँ यहाँ ला कर बेचता है और यहाँ की पैदावार खरीद कर वापस अपने देश को चला जाता है। वह कुछ दिन पहले ही आया था। तुम उस समय यहाँ होते तो मैं उससे तुम्हारा परिचय करा देता और वह अपने जहाज पर तुम्हें अवौनी ले जाता। किंतु अब वह एक वर्ष के बाद आएगा, तब तक तुम मेरे झोपड़े में आराम से रहो। हाँ, किसी से अपने मुसलमान होने का जिक्र न करना नहीं तो मेरी भी मुसीबत आ जाएगी।
कमरुज्जमाँ ने माली के प्रस्ताव को भी भगवान की दया समझा और वह उसके सहायक के रूप में जीवन यापन करने लगा। दिन भर वह बाग की साज-सँवार करता और रात को बिस्तर पर लेट कर बदौरा की याद में आँसू बहाया करता। उसे एक वर्ष बाद वहाँ से छुटकारे की तो आशा थी किंतु बदौरा से मिलने की कोई उम्मीद कम ही रह गई थी।
उधर बदौरा उस दिन नींद से उठी तो कमरुज्जमाँ को न देख कर बड़े आश्चर्य में पड़ी। फिर उसने अपने पटके को देखा तो मालूम हुआ कि उसमें से बटुआ खोल लिया गया है। वह समझ गई कि शहजादा ही उसे देखने को ले गया होगा। रात होने पर भी शहजादा न लौटा तो वह बड़ी निराश हुई और रोने लगी। उसने क्रोध में यंत्र के निर्माता को खूब गालियाँ दीं जिसके कारण उसके प्रियतम पर यह विपत्ति पड़ी थी। लेकिन वह बुद्धिमती थी, उसने साहस नहीं खोया और तय कर लिया कि आगे क्या करना चाहिए।
शहजादे के जाने का हाल दो-एक दासियों के अलावा किसी को नहीं मालूम था। बदौरा ने उन्हें कड़ी चेतावनी दी कि वे किसी भी दशा में शहजादे के जाने का समाचार किसी को न दें। वह सोचती थी कि लश्करवाले इस समाचार को सुन कर बगावत न कर दें और उसे कोई हानि न पहुँचाएँ। उसने खुद शहजादे के कपड़े पहने और उसी की तरह साज-सज्जा की। फिर उसने लश्कर के लोगों के लिए आदेश पहुँचवाया कि कल सुबह अँधेरा रहते ही यहाँ से कूच कर दिया जाए। उसने अपनी पालकी में अपनी जगह एक दासी को बिठा दिया और स्वयं एक तीव्रगामी घोड़े पर सवार हो गई। शाही लश्कर के कूच करते ही मौका पा कर उसने एक अन्य दिशा में अपना घोड़ा दौड़ा दिया।
वह कई मास तक कभी जल मार्ग और कभी थल मार्ग से यात्रा करती हुई, जिसके दौरान हर जगह अपने पति का पता लगाती जाती थी, अवौनी में पहुँची। उसने अपना नाम खलदान द्वीप का शहजादा कमरुज्जमाँ बताया था। अवौनी के बादशाह अश्शम्स को उसके आगमन का समाचार मिला तो वह उससे भेंट करने के लिए स्वयं ही सागर तट पर गया जहाँ बदौरा के जहाज ने लंगर डाला था। अवौनी और खलदान देशों के बादशाहों में मैत्री के संबंध थे। बादशाह ने बदौरा को कमरुज्जमाँ समझ कर उसका बड़ा सम्मान किया और आदरपूर्वक उसे अपने महल में ले आया और तीन दिन तक उसके सम्मान में कई भोज और समारोह किए। इसके बाद कमरुज्जमाँ रूपी बदौरा ने विदा की अनुमति चाही।
अवौनी का बादशाह उसके रूप और चातुर्य पर मुग्ध था और चाहता था कि उसे अपने पास रखूँ। लेकिन इस बात को सीधी तरह न कह कर उसने कहा, मेरे युवा मित्र, तुम जानते हो कि मैं अब वृद्ध और अशक्त हो गया हूँ और राज्य संचालन में मुझे कठिनाई होती है। मेरा कोई पुत्र नहीं है जो मेरी सहायता करे। मेरे केवल एक बेटी है जो अत्यंत सुंदर और बुद्धिमान है। मैं चाहता हूँ कि उसका विवाह उसी के अनुरूप किसी सुंदर और चतुर व्यक्ति के साथ कर के निश्चिंत हो जाऊँ। तुम हर तरह से उसके योग्य हो, इसलिए मैं चाहता हूँ कि तुम उससे विवाह कर लो और मेरे राज्य के उत्तराधिकारी बन जाओ। तुम्हें इस बारे में क्या कहना है?
बदौरा बड़ी उलझन में पड़ी। सोचने लगी यदि मैं वास्तव में पुरुष होती तो इससे अच्छा अवसर मेरे जीवन में आना नहीं था। लेकिन मैंने तो मजबूरी में यह वेश धारण किया है, मैं राजकुमारी के साथ विवाह कैसे कर सकती हूँ? सुहागरात ही में मेरा भेद खुल जाएगा और फिर सभी अपने-परायों में मेरा न जाने कितना अपमान होगा। और अगर मैं विवाह से इनकार करती हूँ तो बादशाह नाराज हो जाएगा और नाराज हो कर न जाने मुझ पर क्या-क्या अत्याचार करे, संभव है आजीवन कारावास दे दे। अभी तक मेरे पति का भी पता नहीं चला है और मुझे उसका पता लगाना है। यह सब सोच कर उसने विवाह के लिए स्वीकृति इस शर्त पर दे दी कि एक दिन का अवकाश दिया जाए जिसमें साथ के लोगों की सलाह भी ले ली जाए। बादशाह ने इसकी अनुमति दे दी और अपने सामंतों और दरबारियों को बुला कर कहा कि मैंने इस नवागंतुक से अपनी बेटी का विवाह करने का निश्चय किया है, आप लोग इस बारे में क्या कहते हैं? उन लोगों ने कहा कि आपका निर्णय अत्युत्तम है।
अतएव बड़ी धूमधाम से कमरुज्जमाँ बनी हुई बदौरा का विवाह अवौनी की शहजादी के साथ हो गया। इसके बाद बादशाह ने उतनी ही धूमधाम से अपने तथाकथित दामाद को युवराज बनाने की रस्म पूरी की और राज्य का प्रबंध उसके सुपुर्द कर दिया। सभी सामंतों ने उसे भेंटें दीं। रात को बदौरा को शहजादी के शयनकक्ष में पहुँचा दिया गया। बदौरा आधी रात तक ईश्वर की वंदना में लगी रही और जब शहजादी सो गई तो पलंग के किनारे खुद भी सो गई। अवौनी की रस्म थी कि बेटी का उसके पति से प्रथम संभोग होने पर बड़ी धूमधाम से समारोह किया जाता था। इसलिए दूसरे दिन बादशाह ने इशारे से अपनी बेटी से रात का हाल पूछा।
शहजादी सिर झुका कर बैठी रही। उसकी उदासी देख कर बादशाह समझ गया कि इसकी इच्छापूर्ति नहीं हुई। उसने कहा, शायद तुम्हारा पति दिन के कामकाज के कारण कल रात को बहुत थक गया था इसीलिए तुम से बोला-चाला नहीं। आज की रात देखो क्या होता है। लेकिन होना क्या था, उस रात भी बदौरा अलग-थलग हो कर लेटी रही। दूसरे दिन बादशाह को मालूम हुआ तो वह क्रोध से भर गया। वह कहने लगा, इस युवक में इतनी धृष्टता आ गई कि मेरी बेटी का अपमान कर रहा है। अगर आज रात भी वह इसी तरह अलग-थलग रहा तो मैं कल उसे मृत्युदंड दूँगा, उससे छुटकारा पाने पर मेरी बेटी का दूसरा विवाह तो हो सकेगा।
तीसरी रात को भी आधी रात तक ईशवंदना करने के उपरांत जब बदौरा शहजादी को सोता जान कर पलंग पर एक ओर लेटी तो शहजादी उठ बैठी और बोली, प्यारे, आखिर बात क्या है। दो रातें हो गईं और तुमने मुझे स्पर्श करना तो क्या मुझसे बात तक नहीं की। मैं तो तुम पर जी-जान से मुग्ध हूँ और तुम बात भी नहीं करते। मुझसे क्या अपराध हुआ है जो तुम क्रुद्ध हो? मुझमें कोई कमी है जिससे तुम असंतुष्ट हो? मेरे पिताजी कहते थे कि अगर बेटी आज रात को भी कुँवारी रही तो दामाद को मरवा डालूँगा।
बदौरा यह सुन कर अत्यंत व्याकुल हुई किंतु चुप रही। वह सोच रही थी कि अपना असली भेद बताती हूँ तो बादशाह धोखेबाजी पर जरूर मुझे मरवा देगा और अगर चुप रहती हूँ तो भी उसकी कोपाग्नि में मुझे जल मरना ही होगा। उसे चुप देख कर शहजादी उससे लिपट गई और कहने लगी, प्राणप्रिय, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा। तुम्हारे चेहरे का रंग क्यों उड़ गया। तुम अपनी चिंता मुझे क्यों नहीं बताते? मैं तुम्हारी पत्नी हूँ, हर प्रकार तुम्हें सुखी ही देखना चाहती हूँ।
यह सुन कर बदौरा की अश्रुधारा बह निकली और उसे अशक्तता के कारण गशी आने लगी। किंतु उसने स्वयं को स्थिर किया और बोली, मेरी प्यारी, मैंने तुम्हारा बड़ा अपकार किया है। मैं अपना सारा वृत्तांत तुम से ब्योरेवार कहती हूँ, इसके बाद तुम्हें अधिकार होगा कि चाहे मेरी मजबूरी देख कर मुझे क्षमा कर दो या अपराधी समझ कर मरवा डालो।
उसने शहजादी को अपनी छाती खोल कर दिखाई और बोली, बहन, मैं भी तुम्हारी तरह औरत हूँ। मैं चीन के सम्राट की बेटी हूँ। अब अपना पूरा हाल कहती हूँ। यह कह कर बदौरा ने आरंभ से ले कर उस दिन तक की सारी आपबीती विस्तारपूर्वक शहजादी को सुनाई। फिर वह हाथ जोड़ कर बोली, मेरी तुम से प्रार्थना है कि जब तक मेरे पति का पता न चले तुम मेरा यह भेद छुपाए रखो। मुझे पूरी आशा है कि उससे भेंट अवश्य होगी। जब वह आ जाए तो तुम भी उससे विवाह कर के मेरे साथ सपत्नी बन कर रहना। हम दोनों मिल कर उसकी सेवा करेंगे और बहनों की तरह आपस में प्रीतिपूर्वक रहेंगे।
अवौनी की शहजादी बदौरा के साहस से बड़ी प्रभावित हुई और बोली, तुमने मुझे सब कुछ बता कर बहुत अच्छा किया। अब तुम पुरुष के रूप में निश्चिंत हो कर राजकाज करो, तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। सब मुझ पर छोड़ दो।
दूसरे दिन शहजादी ने अपनी दासियों को ऐसे इशारे दिए जिनसे स्पष्ट हो गया कि उसके साथ उसके पति ने संभोग कर लिया है। पहले भी रात में उसने ऐसी ध्वनियाँ कीं जिससे बाहर बैठी हुई दासियाँ समझें कि रात-कार्य हो रहा है। अतएव दूसरे दिन खूब धूमधाम हुई। बदौरा दिन भर राजकाज करती और रात को दोनों सहेलियाँ एक-दूसरे का आलिंगन कर के सो जातीं।
उधर कमरुज्जमाँ प्रस्तर पूजकों के देश में माली के साथ रहता हुआ मालीगीरी में दिन बिता रहा था। एक दिन माली ने कहा, आज यहाँ प्रस्तर पूजकों का महोत्सव है। आज के दिन यहाँ के लोग न खुद काम करते हैं न किसी को करने देते हैं। आज वे मुसलमानों या किन्हीं अन्य धर्मावलंबियों को दुख भी नहीं देते। तुम आराम से नगर में घूमो और वहाँ के खेल-तमाशे देखो। मैं भी अपने मित्रों के पास जा रहा हूँ। मैं उनसे पूछूँगा कि अवौनीवाला जहाज कब छूटेगा ताकि मैं तुम्हारे लिए यथेष्ट खाद्य सामग्री उस पर रख दूँ।
यह कह कर माली समुद्र की ओर चल दिया। कमरुज्जमाँ का जी न चाहा कि नगर में जा कर वहाँ के खेल-तमाशों में मन बहलाए। वह खाली समय पा कर अपनी पत्नी की याद में रोने लगा। कुछ देर में उसने स्वयं को सँभाला और निरुद्देश्य इधर-उधर देखने लगा। इतने में उसने देखा कि समीप के वृक्ष पर दो पक्षी आ कर लड़ने लगे। काफी देर की लड़ाई के बाद उनमें से एक पक्षी मर कर नीचे गिर पड़ा और दूसरा उड़ गया। कुछ ही देर में उसी प्रकार के किंतु बड़े डील-डौलवाले दो पक्षी आए और मृत पक्षी के सिर और दुम की ओर बैठ कर सिर हिलाने लगे जैसे उसकी मृत्यु पर शोक कर रहे हों। फिर उन्होंने चोंचों और पंजों से एक गढ़ा खोद कर मृत पक्षी को उसमें गाड़ा और उड़ गए। कुछ देर में वे उस पक्षी को, जिसने पहले पक्षी को मारा था, अपने पंजों में दबा लाए और उसे भूमि पर रख कर उन्होंने उसके पंख नोच डाले और शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। इसके बाद वे उड़ गए।
कमरुज्जमाँ ने कौतूहलवश मृत पक्षी के पास जा कर देखा तो उसे उसकी आँतों में कुछ चमकदार-सी चीज दिखाई दी। उसने वह चीज निकाल कर पानी से धो कर देखी तो वह वही यंत्रवाली मणि निकली जो उसके हाथ से निकल गई थी। उसे विश्वास हो गया कि अब उसका पत्नी से मिलन अवश्य हो जाएगा। दूसरे दिन माली ने उससे कहा कि फलाँ पेड़ सूख गया हे, उसे जड़ से खोद डालो। शहजादा कुल्हाड़ी ले कर उसे खोदने लगा। इसी काम में उसकी कुल्हाड़ी एक शिला से टकराई। उसने शिला हटा कर देखा तो एक सुंदर आवास पाया। उसमें ताँबे के पचास पात्र रखे थे जो स्वर्ण के चूरे से भरे थे। कमरुज्जमाँ ने माली से जा कर कहा तो वह बोला, वह धन तुम्हारे भाग्य का है, तुम्हीं ले लो। तीन दिन बाद तुम्हारा अवौनीवाला जहाज छूटेगा। तुम इस स्वर्ण चूर्ण को भी ले जाओ किंतु पात्रों को थोड़ा-थोड़ा खाली कर के जैतून का तेल भर देना जिससे यह सुरक्षित रहे। जैतून का तेल मेरे पास बहुत है। अब कमरुज्जमाँ ने उससे कहा, वैसे तो यह धन तुम्हारा ही है किंतु तुम अगर पूरा नहीं लेते तो आधा ही ले लो। माली ने यह बात स्वीकार कर ली।
कमरुज्जमाँ ने प्रत्येक पात्र का आधा स्वर्ण चूर्ण निकाल लिया और उसे माली के घर के एक कोने में ढेर बना कर रख दिया। उसने सोचा ऐसा न हो कि यह यंत्र फिर हाथ से जाता रहे अतएव एक पात्र को पूरा खाली कर के उसकी तह में यंत्र रख दिया और ऊपर से स्वर्ण चूर्ण बिछा दिया और उस बरतन पर निशान लगा दिया कि मणि निकालने में सुविधा रहे। यह प्रबंध कर के वह निश्चिंत हुआ ही था कि माली की दशा खराब हो गई। सवेरे उस जहाज का कप्तान आया और पूछने लगा कि हमारे जहाज पर यहाँ से कौन जानेवाला है। कमरुज्जमाँ ने कहा कि मैं ही जानेवाला हूँ, आप मेरी पचास हाँडियाँ जैतून के तेल की (जिसके नीचे स्वर्ण चूर्ण भरा था) जहाज पर पहुँचवा दीजिए। जहाज के मल्लाह वे हाँडियाँ ले गए। कमरुज्जमाँ ने कहा कि मैं भी दो दिन बाद आऊँगा। कप्तान ने जाने से पहले कहा कि जल्दी आना क्योंकि वायु अनुकूल होते ही हम चल देंगे।
कमरुज्जमाँ उतनी जल्दी न जा सका क्योंकि माली का रोग बढ़ता गया और दूसरे दिन वह मर गया। कमरुज्जमाँ उसकी लाश को वैसे छोड़ कर नहीं जा सकता था। उसने वहाँ के नागरिकों को इकट्ठा किया और उसे नहला-धुला कर उसका अंतिम संस्कार करवाने में कमरुज्जमाँ को कुछ अधिक समय लग गया। इससे निश्चिंत हो कर उसने बाग को ताला लगा कर उसकी चाबी अपनी जेब में रखी और फिर समुद्र तट पर देखने गया कि जहाज है या चला गया। जहाज वास्तव में उसके स्वर्ण चूर्ण से भरे पात्र ले कर जा चुका था। कमरुज्जमाँ को बहुत खेद हुआ किंतु हो ही क्या सकता था। उसने कुछ और हाँडियाँ खरीदीं और माली के हिस्से का स्वर्ण चूर्ण उनमें भर कर उनमें ऊपर से जैतून का तेल रख दिया। इन्हें सुरक्षित स्थान में रख कर उसने बाग के मालिक को चाबी देने के बजाय खुद बाग में रहने लगा और माली की जगह स्वयं उसकी देखभाल करने लगा क्योंकि अब तो उसे एक साल और काटना ही था।
उधर वह जहाज अनुकूल वायु पा कर शीघ्र ही अवौनी देश में पहुँचा। बदौरा हर नए जहाज को देखती थी कि शायद उसका पति उसमें आया हो। इस जहाज को भी देखने पहुँची। उसने बहाना बनाया कि मुझे जहाज से कुछ व्यापार की वस्तुएँ खरीदनी हैं। उसने जा कर जहाज के कप्तान से पूछा कि तुम कहाँ से आ रहे हो और जहाज में क्या- क्या माल है। कप्तान ने कहा कि जहाज पर हमेशा यात्रा करनेवाले व्यापारी ही हैं और माल भी वही है जिसे यह जहाज साधारण तौर पर लाता है। अर्थात सादा और छपाईदार कपड़ा, जवाहिरात, सुगंधियाँ, कपूर, केसर, जैतून आदि। बदौरा को जैतून बहुत पसंद था। उसने कहा कि मुझे तुम्हारा सारा जैतून और उसका तेल चाहिए और उसका मुँह माँगा दाम दे दिया जाएगा, सारा जैतून अभी उतरवाओ।
कप्तान ने सारा जैतून उतरवाया। और माल के दाम तो व्यापारियों को वहीं दे दिए किंतु कप्तान ने कहा कि एक व्यापारी पीछे छूट गया है, उसकी जैतून के तेल से भरी पचास हाँडियाँ भी मेरे पास हैं। बदौरा ने कहा, मुझे वह भी खरीदना है, तुम इसका दाम अगली बार जाने पर उस व्यापारी को दे देना। उसने उस माल का दाम भी पूछा। कप्तान ने कहा कि वह बहुत छोटा व्यापारी था, आप इस माल के साढ़े चार हजार रुपए दे दें। बदौरा ने कहा, नहीं, जैतून के तेल के भाव ऊँचे हैं। तुम्हें इसके लिए नौ हजार रुपए मिलेंगे जो तुम इसके मालिक को अपना किराया काट कर दे देना। किसी निर्धन व्यापारी की अनुपस्थिति का अनुचित लाभ उठाना ठीक नहीं है।
बदौरा के सुपुर्द वे हाँडियाँ कर के जहाज के कप्तान ने अन्य व्यापारियों का माल उतरवाया। बदौरा हाँडियों को महल में ले गई और उन्हें खोल कर देखने लगी। उसे यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि आधी-आधी हाँडियाँ स्वर्ण-चूर्ण से भरी थीं। एक हाँडी की तह में उसे वही यंत्र मिला जिसके साथ उसका पति गायब हो गया था। वह उसे देख कर अचेत हो गई। दासियों ने बेदमुश्क का अरक और अन्य दवाएँ छिड़क कर उसे प्रकृतस्थ किया। होश में आने पर वह बहुत देर तक उस यंत्र को चूमती और आँखों से लगाती रही। उसने दासियों के सामने तो कुछ न कहा किंतु अपनी सहेली यानी अवौनी की शहजादी को एकांत में जैतून के तेल की हाँडियों, स्वर्ण चूर्ण और मणि पर अंकित यंत्र का हाल बताया और कहा कि अब मुझे आशा हो गई है कि जिस प्रकार मेरे हाथ यह यंत्र वापस आया है उसी प्रकार मेरा पति भी वापस आएगा।
दूसरे दिन बदौरा फिर समुद्र तट पर गई और उसने उस जहाज के कप्तान को बुला भेजा और उसे उस व्यापारी का विस्तृत हाल पूछा जिसकी जैतून के तेल की हाँडियाँ थीं। कप्तान ने उसे बताया वह है तो मुसलमान किंतु प्रस्तर पूजकों के देश में रहता है। वह एक बूढ़े माली के साथ रहता है और उसी के साथ बाग में काम करता है। मैंने स्वयं बाग में उससे भेंट की थी। उसने कहा था कि मेरा माल जहाज पर ले चलो और कुछ समय के पीछे मैं भी आता हूँ। मैंने दो-तीन दिन तक उसकी प्रतीक्षा की किंतु न मालूम क्या कारण हो गया कि वह नहीं आया। मैंने मजबूरी में जहाज का लंगर उठा दिया क्योंकि बाद में अनुकूल वायु न रहती।
अब बदौरा ने अपने युवराज और मंत्री होने के अधिकार का प्रयोग किया। उसने सारे व्यापारियों और कप्तान का माल जहाज से उतरवा कर जब्त कर लिया और कप्तान से बोली, तुम्हें नहीं मालूम कि उस आदमी को न ला कर तुमने कितना बड़ा अपराध किया है। मुझे खजांची से मालूम हुआ कि वह आदमी हमारा लाखों का देनदार है और भगा हुआ है। तुम तुरंत ही जहाज को वापस ले जाओ और उस व्यक्ति को ले कर मेरे सुपुर्द करो। जब तक तुम यह न करोगे तुम्हारा और अन्य व्यापारियों का माल नहीं छोड़ा जाएगा। यह भी समझ लो कि अगर तुम उसे यहाँ न लाए तो तुम्हें कठोर दंड दिया जाएगा। अब देर न करो, तुरंत प्रस्तर पूजकों के देश की ओर रवाना हो जाओ क्योंकि उधर जाने के लिए वायु अनुकूल है।
कप्तान बेचारा जहाज ले कर तुरंत ही प्रस्तर पूजकों के देश की ओर चल दिया। कुछ ही दिनों में वह वहाँ पहुँच गया। उसने जहाज का लंगर डाला और एक नाव पर कुछ खलासियों को ले कर बैठा तो तट पर उतरा। बाग बस्ती के किनारे था। वहाँ जा कर उसने आवाज दी कि दरवाजा खोलो। कमरुज्जमाँ कई रातों से बदौरा की याद और माली की मृत्यु से दुखी हो कर ठीक से सोया नहीं था। वह इस समय सो रहा था। लगातार आवाजों और दरवाजा भड़भड़ाए जाने से वह उठा और द्वार खोल कर उसने पूछा कि क्या बात है, तुम लोग क्यों शोर कर रहे हो। कप्तान और उसके साथ के खलासियों ने इसकी बात का कोई उत्तर न दिया। वे एक साथ उस पर टूट पड़े और उसके लाख चीख-पुकार करने पर भी वे लोग उसे अपने जहाज पर ले गए और यह काम पूरा होते ही उन्होंने जहाज का लंगर उठा दिया।
जब जहाज चल पड़ा तो कमरुज्जमाँ से पूछा कि अब तो मुझे बताओ कि मेरा कसूर क्या है, तुमने मुझे पकड़ कर क्यों जहाज पर चढ़ाया है और अब मुझे कहाँ लिए जा रहे हो। कप्तान ने कहा कि तुम पर अवौनी के बादशाह का लाखों का कर्ज है और हमें आदेश है कि तुम्हें पकड़ कर शीघ्रातिशीघ्र अवौनी के बादशाह के सामने पेश करें। कमरुज्जमाँ ने कहा, भाई, जरूर उसे कोई भ्रम हुआ है। मैंने कभी उस बादशाह की सूरत भी नहीं देखी है। यह कैसे संभव है कि मैंने उसका लाखों का ॠण लिया हो? कप्तान ने कहा, हम तो उस बादशाह के आदेश का पालन मात्र कर रहे हैं। हम तुम्हारे साथ होनेवाले न्याय-अन्याय का फैसला नहीं कर सकते। किंतु मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि वह बादशाह बहुत ही न्यायप्रिय है और यदि उसने वास्तव में भ्रमवश ही तुम्हें गिरफ्तार करने का आदेश दिया है और तुम वास्तव में निरपराध हो तो विश्वास रखो कि तुम्हारे साथ पूरा न्याय किया जाएगा और तुम्हें कोई दुख नहीं पहुँचेगा। कम से कम यात्रा के दौरान तुम्हारी सुख-सुविधा का पूरा ध्यान रखा जाएगा क्योंकि इसके लिए मुझे आदेश मिला है।
जहाज कुछ ही दिनों में अवौनी द्वीप में पहुँच गया। कप्तान ने तट पर पहुँचते ही युवराज बनी हुई बदौरा को समाचार भिजवाया कि आपका देनदार कैदी आ गया है। कुछ देर में वह खलासियों के बीच घिरे हुए कमरुज्जमाँ को ले कर युवराज के पास पहुँचा। बदौरा उसे मैले-कुचैले और फटे-पुराने कपड़ों में देख कर दुखी हुई। उसका जी चाहा कि दौड़ कर पति से लिपट जाए किंतु यह सोच कर रुक गई कि सब लोगों के सामने रहस्योद्घाटन ठीक न होगा।
उसने कमरुज्जमाँ को एक सरदार को सौंपा और कहा कि इसे नहला-धुला कर ठीक तरह के कपड़े पहनाओ और कल सुबह मेरे पास लाओ। दूसरे दिन जब कमरुज्जमाँ को उसके पास भेजा गया तो बदौरा ने कप्तान और व्यापारियों का सारा माल वापस कर दिया और साथ ही कप्तान को खिलअत (सम्मान वस्त्र) और ढाई हजार रुपए का पारितोषिक भी दिया। उसने कमरुज्जमाँ को भी एक उच्च राजपद दिया और हमेशा उसे अपने साथ रखने लगी। कमरुज्जमाँ बिल्कुल न पहचान सका कि यही उसकी पत्नी हैं और उसे अपने कृपालु स्वामी की तरह मानता रहा।
एक रात को बदौरा ने उसे यंत्रयुक्त मणि दिखा कर कहा, तुम तो बहुत-सी विद्याएँ जानते हो, इसे देख कर बताओ कि यह क्या चीज है और इसे अपने पास रखने का फल श्रेष्ठ होगा या नेष्ट। कमरुज्जमाँ को वह यंत्र देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि वह इस जगह कैसे आ गया। उसने कहा, मेरे मालिक, यह चीज बहुत ही अशुभ है। यह पहले मेरे हाथ आई और इसके कारण मुझ पर बड़ी-बड़ी मुसीबतें आईं और इसने लगभग अधमुआ कर दिया। इसी के कारण मेरी पत्नी मुझसे छूट गई जिसके वियोग में मैं रात-दिन तड़पता रहता हूँ। अगर मैं आप को पूरी कहानी सुनाऊँ तो आप को भी मुझ पर दया आएगी।
बदौरा ने कहा, तुम्हारी कहानी को विस्तारपूर्वक बाद में सुना जाएगा। अभी तुम कुछ देर यहीं पर मेरी प्रतीक्षा करो। मुझे कुछ देर के लिए विशेष काम है। यह कह कर वह अंदरवाले कमरे में चली गई। वहाँ जा कर उसने रानियों जैसे वस्त्र पहने और कमर में वही पटका बाँधा जिस में से खोल कर कमरुज्जमाँ उसका बटुआ ले गया था और फिर से बटुए में से यंत्रखचित मणि को निकाल कर देखने लगा था जिसके बाद पक्षी उसे ले भाग था।
कमरुज्जमाँ ने इस वेश में अपनी पत्नी को पहचान लिया और दौड़ कर उसे अपनी बाँहों में भर लिया। वह कहने लगा, यहाँ के युवराज की सेवा मुझे कितनी फली कि इतने समय बाद मैं अपनी प्राणप्रिया से मिल सका हूँ। बदौरा हँस कर कहने लगी, युवराज को भूल जाओ। वह तुम्हें अब दिखाई न देगा क्योंकि मैं ही युवराज बनी हुई थी। यह कहने के बाद उसने कमरुज्जमाँ से बिछुड़ने के दिन से लेर उस दिन तक का पूरा हाल कहा। कमरुज्जमाँ ने भी विस्तार से बताया कि उस दिन से ले कर यहाँ आने तक मुझ पर क्या बीती। इसके बाद वे दोनों पलंग पर जा कर आराम से एक-दूसरे की बाँहों में निद्रामग्न हो गए। सुबह बदौरा ने नहा-धो कर जनानी पोशाक पहनी और अवौनी के बादशाह को अपने महल में बुला भेजा।
बादशाह को अपने दामाद के बजाय एक सुंदरी को देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने कहा, बेटी, तुम कौन हो? और मेरा दामाद कहाँ गया है? बदौरा मुस्करा कर बोली, पृथ्वीनाथ, मैं कल तक आपका दामाद और इस राज्य का युवराज थी। आज मैं चीन के बादशाह की बेटी और खलदान देश के राजकुमार की पत्नी हूँ। आप कृपया धैर्यपूर्वक मेरा वृत्तांत सुनें जो बड़ा ही विचित्र है। फिर उसने अपनी कहानी आद्योपांत कही और अंत में कहा, हम सब मुसलमान हैं। हमारे धर्म में कोई भी पुरुष दूसरा विवाह करता है तो उसकी पहली पत्नी के मन में ईर्ष्या जागती है। मैं शहजादे की पहली पत्नी हूँ। मैं स्वयं आप से प्रार्थना कर रही हूँ कि अपनी बेटी को मेरे पति से ब्याह दें। उसका मेरे साथ जो विवाह हुआ था वह झूठा था।
बादशाह को यह सुन कर आश्चर्य हुआ। उसने कमरुज्जमाँ को देखने की इच्छा की। बदौरा ने उसे ला कर उपस्थित किया। बादशाह उसे देख कर खुश हुआ और बोला, बेटे, अभी तक हम इसे अपना दामाद मानते थे। हमें नहीं मालूम था कि यह तुम्हारी पत्नी और चीन देश की राजकुमारी है। अब मैं तुम्हें दामाद बनाना चाहता हूँ। तुम्हारी पत्नी की भी यही इच्छा है। तुम्हें आपत्ति न हो तो मैं अपनी बेटी ह्यातुन्नफ्स का विवाह तुम्हारे साथ कर दूँ। तुम उससे शादी कर के इस राज्य का शासन सँभालो।
कमरुज्जमाँ ने कहा, चाहता तो मैं यह था कि अपने देश को जाऊँ किंतु आपकी और बदौरा की जो इच्छा होगी उसे मैं अवश्य पूरा करूँगा। अतएव उसका विवाह धूमधाम के साथ अबौनी की शहजादी के साथ हो गया और दोनों स्त्रियाँ आपस में मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने लगीं। कमरुज्जमाँ बारी-बारी से दोनों के पास जाता और विहार करता और किसी पत्नी को दूसरी पत्नी के विरुद्ध शिकायत का मौका नहीं देता था।
भगवान की दया से एक ही वर्ष में उन दोनों को एक-एक पुत्र की प्राप्ति हुई। कमरुज्जमाँ ने उनके जन्मोत्सव पर लाखों रुपया खर्च किया। बदौरा के पुत्र का नाम रखा गया अमजद और अबौनी की शहजादी के बेटे का नाम असद हुआ। दोनों भाई बड़े हुए तो उन्हें कई योग्य शिक्षकों से प्रत्येक विषय की शिक्षा दिलवाई गई। बचपन में तो वे एक साथ खेले-कूदे ही थे, बड़े होने पर भी उनकी परस्पर प्रीति और बढ़ी। उन्होंने इच्छा प्रकट की कि हमें अपनी माताओं के पृथक-पृथक महलों में न रखा जाए बल्कि एक अलग महल में दोनों को एक साथ रखा जाए। कमरुज्जमाँ ने यह बात मान ली।
जब वे उन्नीस वर्ष के हुए और राज्य प्रबंध सँभालने योग्य हुए तो कमरुज्जमाँ ने तय किया कि जब वह खुद शिकार के लिए जाया करें तो बारी-बारी से दोनों शहजादों के सुपुर्द राज्य प्रबंध कर जाया करे। एक खास बात यह थी कि दोनों रानियाँ अपने सगे बेटों से सौतेले बेटों को अधिक चाहती थीं यानी बदौरा को असद अधिक प्रिय था और ह्यातुन्नफ्स को अमजद। वे दोनों भी अपनी माताओं से अधिक विमाताओं को मानते थे। किंतु यही बात आगे जा कर स्त्रियों के वैमनस्य का कारण बन गई। दोनों यह चाहने लगीं कि अपने पुत्रों का मन उनकी विमाताओं यानी अपनी सौतों की ओर से फेर दें। एक दिन बदौरा का पुत्र अमदज राजसभा से उठ कर अपने महल को जा रहा था कि एक गुलाम ने उसे एक पत्र दिया जो उसकी विमाता ने लिखा था। यह पत्र पढ़ कर उसे ऐसा क्रोध चढ़ा कि उसने तलवार निकाल कर गुलाम के दो टुकड़े कर दिए। उसने पत्र अपनी माँ बदौरा को दिखाया। वह भी उसे पढ़ कर बहुत बिगड़ी और कहने लगी कि ह्यातुन्नफ्स ने मेरे बारे में जो लिखा है बिल्कुल बकवास है, और तुम भी अब मेरे सामने न आओ।
अमजद ने अपने महल में जा कर सारा हाल अपने भाई असद से कहा। उसे भी यह सुन कर बड़ा गुस्सा आया। दूसरे दिन असद राजसभा से महल को जा रहा था कि एक बुढ़िया को मार डाला और अपनी माँ के महल में जा कर उसे बदौरा के पत्र की बात बताई। वह यह सुन कर बहुत बिगड़ी और बोली, बदौरा ने तो बकवास की ही है, तेरा भी दिमाग फिर गया है। बेचारी बुढ़िया को बेकसूर ही मार डाला। अब तू मेरे सामने मत आना।
वास्तव में इन स्त्रियों ही ने एक-दूसरे के नाम से पत्र लिख कर अपने बारे में निराधार आरोप लगाए थे ताकि विमाताओं की ओर से पुत्रों का मन फिर जाए किंतु जब ऐसा न हुआ तो दोनों को भय हुआ कि बेटों ने अगर बादशाह कमरुज्जमाँ के शिकार से लौटने पर यह बात कह दी तो स्वयं उन दोनों यानी बदौरा और ह्यातुन्नफ्स की जान खतरे में पड़ जाएगी। अब दोनों ने मिल कर सलाह की कि इन नालायक बेटों को किस तरह ठिकाने लगाया जाए कि स्वयं उनके प्राण बचें।
कमरुज्जमाँ के शिकार से लौटने पर दोनों ने एक साथ ही बड़ी रोनी सूरत बना कर भेंट की। उसके पूछने पर दोनों ने बताया कि तुम्हारे दोनों बेटों ने हम दोनों पर निराधार आरोप लगाए हैं जिससे लज्जावश हमारा डूब मरने को जी करता है। कमरुज्जमाँ भी क्रोध में अंधा हो गया और उसने कहा कि ऐसे नालायकों को जो अपनी माँओं ही को लांछित करें जीने का कोई अधिकार नहीं है। उसने अपने एक विश्वस्त सरदार जिंदर से कहा कि तुम इन दोनों को रात ही रात किसी जंगल में जा कर मार डालो, और कल सुबह मुझे कोई चिह्न दिखाओ जिससे यह सिद्ध हो जाय कि यह दोनों मार डाले गए हैं।
जिंदर शाम को कोई बहाना बना कर दोनों को जंगल में ले गया और वहाँ उन्हें बताया कि बादशाह का आदेश है कि आप दोनों का मैं वध करूँ। दोनों ने कहा कि अगर उनकी यह इच्छा है तो तुम जरूर हमें मारो। लेकिन दोनों ही कहने लगे कि मुझे पहले मारो। जिंदर ने यह समस्या इस तरह हल की कि दोनों को एक चादर में बाँध दिया ताकि एक ही वार से दोनों खत्म हो जाएँ। फिर उसने तलवार निकाली।
तलवार की चमक देख कर जिंदर का घोड़ा बिदक कर भागा। जिंदर ने सोचा कि यह तो बँधे ही हैं, कहा जाएँगे, पहले अपना घोड़ा पकड़ लाऊँ। वह घोड़े के पीछे दौड़ा। इसी भाग-दौड़ और चीख-पुकार में एक झाड़ी में सोता हुआ एक शेर जाग कर बाहर निकल आया और जिंदर के पीछे पड़ गया। उधर जब जिंदर को लौटने में देर हुई तो उन दोनों ने कहा कि न जाने उस पर क्या मुसीबत पड़ी है, हमें जा कर उसकी मदद करनी चाहिए। ऐसे कब तक बँधे रहेंगे। यह सोच कर दोनों ने जोर लगा कर चादर खोली और अमजद ने जिंदर की तलवार उठाई और दोनों उधर दौड़े जिधर जिंदर और उसका घोड़ा गया था। कुछ दूर जा कर देखा कि एक शेर जिंदर पर सवार है और मारना ही चाहता है। अमजद ने शेर को ललकारा और वह अमजद पर झपटा। अमजद ने एक ही वार में शेर के दो टुकड़े कर दिए। उधर असद दौड़ कर गया और जिंदर का घोड़ा ले आया।
जिंदर को उठा कर और उसके कपड़ों की धूल झाड़ कर दोनों शहजादों ने उससे कहा कि अब तुम पिताजी के आदेश का पालन करो। जिंदर ने दोनों की ओर देखा, शेर की लाश को देखा और दोनों के पैरों पर गिर पड़ा और बोला, मेरे मालिको, आपने मेरे प्राण बचाए और मैं आपके प्राण लूँ? यह तो हरगिज नहीं हो सकता। किंतु आप लोग एक दया करें कि अपना एक ऊपरी वस्त्र दें जिसे इस शेर के लहू में डुबो कर मैं बादशाह को आपके मरने का प्रमाण दूँ। अगर ऐसा नहीं हुआ तो बादशाह मुझे और सारे कुटुंबियों को मार डालेगा। आप लोग यहाँ से किसी अन्य देश को चले जाएँ। उन दोनों ने ऐसा ही किया जैसा जिंदर ने कहा था।
जिंदर उनके खून से सने कपड़े ले कर कमरुज्जमाँ के पास गया। इन वस्त्रों को देख कर बादशाह को कोप की जगह पश्चात्ताप का बोध होने लगा कि इतने सुंदर और बुद्धिमान शहजादों को मैंने खुद ही मरवा दिया। उनके वस्त्रों की जेबों में वे पत्र भी मिले जो उन्हें भिजवाए गए थे। कमरुज्जमाँ अपनी दोनों पत्नियों की हस्तलिपि पहचानता था और समझ गया कि दोनों स्त्रियों ने शहजादों को छला है। उसे अब और भी दुख हुआ कि निर्दोष राजकुमारों को मरवा डाला। वह रंज के मारे पछाड़ें खाने लगा और कहने लगा कि मुझ जैसा अत्याचारी पिता भी इस संसार में कहाँ होगा क्योंकि मैंने अपनी दुष्ट पत्नियों के बहकावे में आ कर अपने बेटों को मरवा दिया। उसने प्रतिज्ञा की कि इन स्त्रियों का मुँह कभी न देखूँगा। उसने अपनी दोनों रानियों को गिरफ्तार कर के बंदी गृह में डलवा दिया। इस पर भी उसके चित्त को शांति न थी और वह रात-दिन अपने बेटों के वियोग में रोया करता।
इधर वे दोनों भाई जंगल में भटकते रहे और फल-फूल खा कर जीवन यापन करते रहे। रात को आधे समय एक भाई सोता और दूसरा पहरा देता ताकि कोई वन्य प्राणी हमला न कर दे। शेष रात को दूसरा भाई पहरा देता और पहला सोता। एक मास तक इसी तरह चलते-चलते वे एक पहाड़ की तलहटी में पहुँचे। फिर वे उस पहाड़ पर चढ़ने लगे। पहाड़ की खड़ी चढ़ाई थी। असद अत्यधिक थक गया और वहीं गिर गया। अमजद साहस कर के पहाड़ की चोटी पर चढ़ गया। वहाँ पर फलों से लदा हुआ एक अनार का पेड़ था और एक मीठे पानी का स्रोत था। वह असद को सहारा दे कर पहाड़ की चोटी पर ले गया। वहाँ दोनों ने पानी पिया, अनार खाए और तीन-दिन वहाँ आराम किया। फिर वे पहाड़ की चोटी पर बने समतल मार्ग पर चलने लगे और इसी प्रकार चलते रहे। फिर रास्ता नीचे जाता दिखाई दिया। वे उस पर से उतरने लगे। कुछ दिनों बाद उन्हें दूर पर एक नगर बसा हुआ दिखाई दिया। अमजद ने कहा कि हम दोनों ही चलें। असद बोला, यह ठीक नहीं है। संभव है वहाँ कोई खतरा हो, जाना पहले एक ही को जाना चाहिए। कम से कम एक तो सुरक्षित रहेगा। तुम यहीं ठहरो, मैं जाता हूँ और हम दोनों के लिए भोजन ले कर आता हूँ। यह कह कर वह नगरी की ओर चल पड़ा।
नगर में पहुँचा तो सब से पहले उसे एक बूढ़ा मिला। उसने पूछा, बाबा, यहाँ का बाजार कहाँ है। मुझे अपने और अपने भाई के लिए भोजन खरीदना है। बूढ़े ने पूछा कि क्या तुम परदेसी हो। उसने कहा कि हाँ। बूढ़े ने उसे ऊपर से नीचे तक देख कर कहा, बेटा, तुम बाजार की चिंता छोड़ दो, मेरे घर चलो। वहाँ प्रचुर खाद्य सामग्री है, तुम खुद भी पेट भर खाना और अपने भाई के लिए भी जितनी चाहना ले जाना। यह कह कर वह छली बूढ़ा उसे अपने विशाल मकान में ले गया। असद ने देखा कि चालीस बूढ़े अग्नि के चारों ओर बैठे उपासना कर रहे हैं। असद घबराया कि यह अग्निपूजक धोखे से मुझे यहाँ ले आया है और मेरा न जाने क्या करेगा।
उस बूढ़े ने अपने साथियों से कहा कि अग्निदेव हम पर प्रसन्न हैं, उन्होंने अपनी भेंट के लिए हमारे हाथ में इस मुसलमान को पहुँचाया है। फिर उसने गजवान, गजवान पुकार कर कई आवाजें दीं। इस पर एक लंबा-चौड़ा हब्शी आया। बूढ़े के इशारे पर उसने असद को जमीन पर पटक दिया और बाँध दिया। बूढ़े ने कहा, इसे ले जा कर तहखाने में रखो और मेरी बेटियों बोस्तान और कैवाना के सुपुर्द कर दो। उन्हें मेरा यह आदेश भी देना कि वे दिन में कई बार इसकी पिटाई किया करें और चौबीस घंटे में एक बार दो छोटी रोटियाँ और एक लोटा पानी दे दिया करें ताकि यह मरे नहीं। साल भर बाद अग्निदेवता के बलिदान का दिन आएगा। तब हम इसे जहाज पर चढ़ा कर ज्वालामुखी पर्वत को ले जाएँगे और अग्निदेवता के सामने इसकी बलि देंगे।
गजवान के आदेशानुसार असद को तहखाने में डाल दिया। वहाँ बोस्तान और कैवान अक्सर आतीं और असद को खूब पीटतीं जिससे वह बेहोश हो कर गिर जाता। वे दोनों उसे रोटी के कुछ टुकड़े और एक लोटा पानी भी रोज दे देतीं जिससे उसके प्राण बच रहते। असद को अपनी इस दुर्दशा पर बहुत दुख था किंतु साथ ही उसे यह संतोष भी था कि अकेले मुझी पर मुसीबत है, मेरा भाई अमजद तो इस से बचा हुआ है।
उधर अमजद ने शाम तक असद के आने की राह देखी। रात को उसे बड़ा दुख हुआ और उसने समझ लिया कि असद किसी मुसीबत में फँस गया है। किसी तरह उसने रात काटी और सुबह उठ कर शहर को चला कि भाई का पता लगाए। उसे देख कर ताज्जुब हुआ कि शहर में मुसलमान इक्का-दुक्का ही दिखाई देते हैं। एक मुसलमान को रोक कर उसने पूछा कि यह कौन-सा नगर है। उसने कहा, तुम परदेसी हो यहाँ कहा आ फँसे। यह अग्निपूजा नगर है क्योंकि यहाँ सब अग्निपूजक रहते है। अमजद ने पूछा कि अवौनी नगर यहाँ से कितनी दूर है। उसने कहा, जलमार्ग सरल है, इससे वहाँ चार महीने में पहुँच जाते हैं। थल मार्ग में कठिनाइयाँ हैं लेकिन उसमें दो महीने ही में पहुँच जाते हैं। अमजद आश्चर्य से सोचने लगा कि मैं तो सवा महीने ही में यहाँ पहुँच गया। फिर उसने सोचा कि मेरी तरह इस बीहड़ रास्ते से कौन जाता होगा। सूचना देनेवाले को जल्दी थी, वह अपने काम में चला गया।
अमजद घूमता-फिरता एक दरजी की दुकान पर पहुँचा। वह भी मुसलमान था। अमजद ने उसे अपनी कठिन यात्रा और अपने भाई के गुम होने की बात कही। दरजी ने कहा, अगर तुम्हारा भाई किसी अग्निपूजक के हाथ में पड़ गया तो उसकी जान बचना मुश्किल है। तुम खुद अपनी जान की फिक्र करो। वह उसके साथ रहने लगा। एक महीना इसी प्रकार बीता। अमजद दरजी का थोड़ा-बहुत काम कर दिया करता था।
एक दिन वह बाजार में घूम रहा था कि उसे एक अत्यंत रूपवती स्त्री मिली। उस स्त्री ने उसे एक ओर ले जा कर और अपने मुँह से नकाब उठा कर कहा, मेरे प्यारे, तुम किस देश के वासी हो? कब से यहाँ पर हो? इस समय कहाँ जा रहे हो? अमजद उसके सौंदर्य पर मुग्ध हो गया और बोला, जा तो मैं अपने महल को रहा था। किंतु अब तुम जहाँ ले जाओगी वहीं चला चलूँगा। स्त्री ने कहा, मैं प्रतिष्ठित परिवार की स्त्री हूँ। हम लोग अपने प्रेमियों को अपने घर नहीं ले जाते। प्रेमी ही हम लोगों को अपने घर ले जाते हैं।
अमजद सोचने लगा कि मैं इसे कहाँ ले जा सकता हूँ, मेरा तो कोई घर ही नहीं है। अगर मैं दरजी के यहाँ इसे ले जाता हूँ तो वह क्या करेगा। इसलिए उसने स्त्री को कोई उत्तर न दिया और दरजी के घर की ओर चल पड़ा। किंतु वह निर्लज्ज स्त्री भी उसके पीछे हो ली। अमजद ने सोचा कि इसे भटकाना चाहिए इसलिए वह गलियों में चक्कर लगाने लगा। किंतु उस स्त्री ने पीछा न छोड़ा। अंततः वह थक कर एक गली में ऐसे मकान पर पहुँचा जहाँ सामने चबूतरे पर चौकियाँ बिछी थीं। वह थक कर एक चौकी पर बैठ गया। स्त्री भी वहीं बैठ गई।
स्त्री ने पूछा कि क्या तुम्हारा महल यही है। अमजद फिर चुप रहा। स्त्री बोली, प्रियतम, बाहर क्यों बैठे हो? ताला खोल कर अंदर क्यों नहीं चलते? अमजद ने बहाना बनाया कि महल की ताली मेरे दास के पास है जो बाजार चला गया है ताकि मेरे लिए भोजन लाए। वह सोचता था कि स्त्री उससे ऊब कर चली जाएगी किंतु वह वहीं डटी रही। कुछ देर बार वह कहने लगी, तुम्हारा गुलाम बड़ा लापरवाह आदमी है, इतनी देर तक बाजार से नहीं आया। जब आए तो उसे खूब सजा देना। अमजद ने उससे पीछा छुड़ाने के उद्देश्य से हाँ कर दी। कुछ देर बार स्त्री दरवाजे पर लगा हुआ ताला तोड़ने लगी। अमजद ने कहा, ताला क्यों तोड़ रही हो। उसने कहा कि आखिर घर तो तुम्हारा ही है, एक ताला खराब हो जाएगा तो कौन बड़ा नुकसान हो जाएगा।
अमजद सोचने लगा कि कुछ गड़बड़ी हुई तो यह तो औरत है, इससे कोई कुछ नहीं कहेगा, मुझी को सब लोग पकड़ेंगे। उसने सोचा कि चुपके से चल दे। किंतु वह स्त्री अंदर जा कर फिर बाहर आई और कहने लगी कि तुम अंदर क्यों नहीं चलते। अमजद ने कहा कि मैं अपने गुलाम की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। उस औरत ने कहा, प्रतीक्षा तो अंदर बैठ कर भी हो सकती है, बाहर बैठ कर प्रतीक्षा करना क्या जरूरी है? विवश हो कर अमजद को अंदर जाना पड़ा। उसने देखा कि मकान बहुत ही साफ-सुथरा और लंबा-चौड़ा है। दोनों कुछ सीढ़ियाँ चढ़ कर बैठकवाली दालान में गए। वह दालान बहुत साफ-सुथरी और सुरम्य वस्तुओं से सजी हुई थी। एक ओर कई सुंदर पात्रों में नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन रखे थे और दूसरी तरफ फलों और मेवों के पात्र थे। एक ओर शीशे की सुराहियों में सुवासित मदिरा भरी थी और मदिरा पान के लिए कई सुंदर प्याले थे। अमजद सोचने लगा कि यह किसी रईस का मकान है और किसी समय भी उसके नौकर-चाकर आ कर मेरी पिटाई करेंगे।
वह तो इस चिंता में था और स्त्री उससे कहने लगी, प्यारे, तुम तो कहते थे कि तुमने गुलाम को खाद्य वस्तुएँ खरीदने के लिए बाजार भेजा है, यहाँ तो इतना उत्तमोत्तम सामान रखा हुआ है। मालूम होता है तुम्हारा गुलाम यह भोजन, फल आदि रख कर कहीं ओर चला गया है। और तुम कहीं इसलिए तो उदास नहीं बैठे हो कि यह सब किसी और सुंदरी के लिए था और मैं बीच में आ गई। तुम चिंता न करो। मैं उसके आने पर आपत्ति भी न करूँगी और उसे मना भी लूँगी जिससे तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी। हम तीनों मिल कर आनंद मनाएँगे। अमजद ने हँस कर कहा, कोई और स्त्री नहीं आएगी। लेकिन यह भोजन मेरे खाने योग्य नहीं है, मेरे विश्वासों के अनुसार यह अपवित्र है। मेरा गुलाम मेरे लिए पवित्र भोजन लाता होगा। मैं इसीलिए कुछ खा नहीं रहा हूँ।
किंतु वह स्त्री लंबी प्रतीक्षा के लिए तैयार न थी। उसने भोजन करना आरंभ कर दिया। दो-चार ग्रास खा कर उसने शराब का प्याला भर कर पिया और एक प्याला अमजद को दिया। उसने विवश हो कर उसे पी लिया। वह यह भी सोचने लगा कि अच्छा हो कि गृह स्वामी के सेवकों के आने के पहले हम लोग खा-पी कर चल दें वरना बड़ी बदनामी होगी। इसलिए वह थोड़ा-बहुत जल्दी-जल्दी खाने लगा किंतु वह स्त्री आराम से खा-पी रही थी।
इतने में घर का मालिक आता दिखाई दिया। स्त्री उसे न देख सकी क्योंकि उसकी पीठ दरवाजे की तरफ थी। अमजद ने उसे देख लिया और उसे चिंता बढ़ी कि अब क्या होगा। किंतु गृहस्वामी ने उसको संकेत दिया कि चिंता न करो और आराम से खाओ- पियो। वास्तव में घर का स्वामी शाही घुड़साल का प्रधान अधिकारी था। उसका नाम बहादुर था। उसके निवास का मकान दूसरा था। इस घर में वह आमोद-प्रमोद के लिए आया करता था। उस दिन उसके अपने कुछ मित्रों को भोज पर बुलाया था और इसीलिए सारा सामान ला रखा था। किंतु बाहर से आने पर ताला टूटा देखा और अंदर एक आदमी और एक औरत को मौज-मस्ती करते देखा तो छुप कर देखने लगा कि आगे क्या होता है।
अमजद लघुशंका के बहाने उठा और बहादुर से आ कर धीमे-धीमे बात करने लगा। उसने सारा हाल उसे बताया। बहादुर ने कहा, शहजादे, आप चिंता न करें। मुझे विश्वास हो गया कि आप निर्दोष हैं। मेरा तो इसके अलावा दूसरा घर है जहाँ मैं निवास करता हूँ और इस घर में कभी-कभी आमोद प्रमोद के लिए आता हूँ। मैं तो वैसे भी आप का सेवक हूँ। मैं कुछ देर में गुलामों के-से कपड़े पहन कर आता हूँ। आप मुझ पर नाराज हों बल्कि मुझे मारें भी कि मैंने इतनी देर क्यों लगाई। आप रात भर उस स्त्री के साथ सहवास करें और सबेरे इसे कुछ दे-दिला कर विदा करें। मैं अपने को बड़ा भाग्यशाली मानता हूँ कि किसी शहजादे ने मेरे घर पर पधार कर उसे पवित्र किया। आप जा कर रुचिपूर्वक भोजन करें। शहजादा यह सुन कर अंदर आ गया और खाने-पीने लगा।
बहादुर घर के बाहर गया क्योंकि आमंत्रित मित्र आ पहुँचे थे। उसने उनसे बहाना बनाया कि एक अपरिहार्य कारण से दावत स्थगित करनी पड़ी है। मैं आप लोगों को फिर बुलाऊँगा। आज के लिए आप लोग मुझे क्षमा करें। मित्रगण बाहर ही से वापस लौट गए। इधर बहादुर गुलामों जैसे कपड़े पहन कर आया और शहजादे के पैरों पर गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगा। अमजद ने बनावटी क्रोध में कहा कि तुम सुबह के गए थे, अभी तक कहाँ मर रहे थे। बहादुर फिर क्षमा याचना करने लगा। अमजद ने कहा कि मैं आज तेरी पिटाई किए बगैर नहीं मानूँगा। यह कह कर वह उठा और एक छड़ी उठा कर दो-चार बार बहादुर को हल्की चोटें दीं। स्त्री ने कहा, इस तरह मारने से इसकी समझ में कुछ आएगा? देखो, सजा ऐसी दी जाती है। यह कह कर उसने चार-छह छड़ियाँ पूरे जोर से मारीं और बहादुर बिलबिला उठा और चिल्ला कर रोने लगा। अमजद ने उस स्त्री के हाथ से छड़ी छीन ली और बोला, रहने दो, आखिर वह भी आदमी है, जानवर तो नहीं जो इतनी बेदर्दी से मार रही हो।
बहादुर आँसू पोंछता हुआ उठ खड़ा हुआ और गुलामों की तरह दोनों को मदिरा पात्र भर-भर कर देने लगा। जब वह दोनों अच्छी प्रकार खा-पी चुके तो उसने एक कमरे में दोनों की शय्या तैयार की ताकि रात को उस पर सोएँ। शाम होने पर उसने सारे घर में दिए जलाए। काफी रात होने पर जब शहजादा और स्त्री अपने कमरे में गए तो वह खुद बाहर दालान में अपने बिस्तर पर लेट गया ताकि जरूरत होने पर शहजादा उसे बुला सके। दुर्भाग्यवश बहादुर सोते समय बड़े जोर से खर्राटे भरता था। स्त्री को असुविधा हुई तो उसने कहा कि तुम अभी जा कर उस बदतमीज गुलाम का सिर काटो, वह तो रात भर सोने नहीं देगा।
अमजद ने समझा कि वह नशे में बहक कर ऐसा कह रही है। वह बोला, खर्राटे भरना तो ऐसा अपराध नहीं है जिस पर किसी की गर्दन मारी जाए। मुझे तो पहले ही उस पर तरस आ रहा है कि तुमने उसे ऐसी क्रूरता से मारा। वह बोली, तुम्हें मेरा ज्यादा ख्याल है या एक तुच्छ गुलाम का? मैं दिल से चाहती हूँ कि उसे मार डाला जाए। आखिर एक गुलाम ही तो है। अगर तुम नहीं मारते तो मैं खुद जा कर उसकी गर्दन अलग करती हूँ।
अमजद ने सोचा कि किसी तरह बहादुर की जान तो बचानी ही चाहिए। उसने कहा कि तुम्हारी यही जिद है तो यही सही लेकिन वह मेरा गुलाम है, उसे मैं ही मारूँगा, तुम नहीं। यह कह कर उसने स्त्री के हाथ से तलवार ले ली। स्त्री उसके आगे-आगे यह देखने को चली कि अमजद वास्तव में उसे मारता है या यूँ ही छोड़ देता है। सोते हुए बहादुर के पास पहुँच कर अमजद ने तलवार निकाली और दो कदम पीछे हट कर बहादुर के बजाय उस स्त्री की गर्दन पर ऐसा शक्तिशाली प्रहार किया कि उसकी लाश दो टुकड़े हो कर जमीन पर गिर पड़ी।
बहादुर इस शब्द से चौंक कर जागा तो देखा कि शहजादे के हाथ में खून से सनी तलवार है और स्त्री के शरीर के दोनों टुकड़े तड़प रहे हैं। उसने आश्चर्य से पूछा कि आपने इसे क्यों ऐसी सजा दी। अमजद ने कहा, अगर मैं इसे ना मारता तो तुम्हारी जान किसी तरह नहीं बच सकती थी। इसके बाद उसने बताया कि वह क्या जिद कर रही थी। बहादुर ने शहजादे के पाँव पर सिर रख दिया और कहा, आप बड़े कृपालु हैं, आप ही के कारण मैं इस निर्लज्ज कुलटा के हाथ से मरते-मरते बचा। अब मैं इसकी लाश ले जा कर अँधेरे में कहीं फेंक आता हूँ। दिन निकलने पर यह लाश यहाँ पाई गई तो बड़ा झंझट होगा।
उसने यह भी कहा, खतरा अब भी है। इसलिए मैं अपनी सारी संपत्ति का उत्तराधिकार आपको लिखे देता हूँ। इस स्त्री के गहने आदि तो आप ले ही लीजिए। अगर मैं सूर्योदय तक इस लाश को ठिकाने लगा कर आ गया तो ठीक है वरना समझ लेना कि मैं पकड़ा गया। यह कह कर वह एक चादर में लाश बाँध कर ले चला। रास्ते में उसे दुर्भाग्यवश पुलिस की गश्त मिल गई। सिपाहियों ने गठरी खुलवा कर देखा तो लाश पाई। वह बहादुर को लाश की गठरी समेत थाने में ले गए और प्रमुख अधिकारी से बोले कि यह गुलाम इस स्त्री को मार कर फेंकने के लिए ले जा रहा था।
प्रमुख अधिकारी गुलामों के वेश में भी अश्वशाला के प्रमुख को पहचान गया। उसने तय किया कि मुझे खुद इसे सजा देने के बजाय बादशाह के सामने पेश करना ठीक रहेगा। उसने रात भर बहादुर को मय लाश के अपने घर में बंद रखा और सुबह दोनों को बादशाह के सामने पेश कर दिया। बादशाह को यह देख कर बड़ा क्रोध आया। उसने बहादुर से कहा, तू कितना बेशर्म है। इतना बड़ा अधिकारी हो कर भी इस प्रकार निरपराधों की हत्या करता है। तुझे तो जीने का बिल्कुल अधिकार नहीं है। यह कह कर उसने पुलिस अधिकारी से कहा कि इसे चौराहे पर फाँसी की टिकटी लगा कर आज ही फाँसी दी जाए।
प्रमुख पुलिस अधिकारी ने सारे शहर में मुनादी करवा दी कि एक अपरिचित स्त्री को मारने के अपराध में शाही घुड़साल के मुख्याधिकारी को फलाँ चौराहे पर फाँसी दी जाएगी। अमजद ने यह मुनादी सुनी तो समझ गया कि बहादुर पकड़ा गया है और फाँसी चढ़ाया जानेवाला है। वह फौरन फाँसीवाले चौराहे पर चला गया। उसने पुलिस अधिकारी से कहा, अपराधी यह आदमी नहीं है, मैं हूँ। मैंने उस स्त्री को मारा है क्योंकि वह इसे मारना चाहती थी। यह कह कर उसने पिछले दिन का सारा किस्सा पुलिस अधिकारी को सुनाया। उसने दुबारा बहादुर और अमजद को मय लाश के बादशाह के सामने पेश कर दिया।
बादशाह ने अमजद से सारा किस्सा सुन कर पूछा कि तुम कौन हो और कहाँ से आए हो। उसने अपनी सारी कहानी - पिता द्वारा मृत्यु-दंड मिलने, भटकते हुए यहाँ आने और दो दिन पहले छोटे भाई के लापता होने की बात सुनाई। बादशाह ने कहा, इस स्त्री को मार कर तुमने अच्छा किया, मैं तुम्हें इसके लिए दंड नहीं दूँगा। बहादुर का तो कोई कसूर ही नहीं है इसलिए इसे इनाम दे कर इसके पद पर प्रतिष्ठापूर्वक भेजूँगा। तुम्हें मैं अपना मंत्री बनाऊँगा ताकि तुम्हारे पिता ने जो ज्यादती तुम्हारे साथ की है उसका कुछ तो प्रतिकार हो जाए।
मंत्री बनने के बाद अमजद ने सार्वजनिक घोषणा करवाई कि जो भी असद का समाचार ला कर देगा उसे बहुत इनाम दिया जाएगा। उसने सैकड़ों जासूस भी इस काम के लिए नियुक्त किए किंतु असद का कहीं पता नहीं चला। वह बेचारा उसी तहखाने में बंद रहता और रोजाना बूढ़े की बेटियों बोस्तान और कैवाना के हाथ से खूब मार खाने के बाद रोटी का टुकड़ा पाता। धीरे-धीरे उसके भेंट चढ़ जाने का दिन आया। बूढ़े ने उसे एक जहाज के कप्तान बहराम को सौंपा जो उसे एक संदूक में बंद कर के अपने जहाज में ले चला।
जहाज छूटने के पहले अमजद को मालूम हो गया था कि अग्निदेवता की बलि के लिए साल में एक जहाज इस नगर में आया करता है और किसी न किसी मुसलमान को बलि चढ़ाने के लिए ले जाता है। उसने सोचा कि इस बार कहीं असद ही को तो इस हेतु नहीं भेजा जा रहा है। उसे इस जहाज पर शक था इसलिए वह स्वयं भी जहाज पर चढ़ गया और सारे खलासियों और व्यापारियों को अलग खड़ा कर के अपने सेवकों को जहाज की तलाशी लेने की आज्ञा दी। सेवकों ने अच्छी तरह हर जगह देखा किंतु असद को संदूक में बंद किया गया था इसलिए वह न मिला। इसके बाद जहाज को यात्रा करने की अनुमति दे दी गई।
रास्ते में बहराम कप्तान ने असद को संदूक से निकाला लेकिन उसके पाँवों में बेड़ियाँ डाल दीं ताकि वह अपनी बलि की बात सुन कर समुद्र में न कूद पड़े। किंतु जहाज इच्छित ज्वालामुखी के द्वीप में न पहुँचा। प्रतिकूल वायु और समुद्री धाराओं ने उसे दूसरी ओर मोड़ दिया। कुछ दिनों बाद भूमि दिखाई दी किंतु जब कप्तान बहराम ने पहचाना कि यह कौन-सा देश है तो वह बहुत घबराया। यह भूमि एक मुसलमान रानी मरजीना का राज्य था। वह अग्निपूजकों की घोर शत्रु थी।
वह अपने देश में किसी अग्निपूजक को नहीं रहने देती थी बल्कि उनका कोई जहाज भी अपने बंदरगाहों में नहीं आने देती थी। जहाज वहाँ के तट पर पहुँचा तो बहराम ने अपने साथियों से कहा, यदि मरजीना के सिपाही जहाज पर इस कैदी को बेड़ियों में देखेंगे तो मरजीना जहाज को लुटवा देगी और हम सब लोगों को मरवा डालेगी। इसलिए इस आदमी की बेड़ियाँ काट दो और इसे नौकरों जैसे कपड़े पहना दो। मैं इसी के हाथ से रानी को रत्नादि की भेंट दिलाऊँगा ताकि रानी भी प्रसन्न हो और यह भी समझे कि मुझे बलि नहीं चढ़ाया जाएगा।
जहाज के लोगों को कप्तान का यह उपाय पसंद आया क्योंकि इसके अलावा और किसी प्रकार रानी के कोप से बचा ही नहीं जा सकता था। असद की बेड़ियाँ काट दी गईं और उसे दासों जैसे सफेद कपड़े पहनाए गए। उन लोगों ने उसे बढ़िया खाना खिलाया और झूठा आश्वासन दिया कि यहाँ से निकल कर हम तुम्हें तुम्हारे देश में पहुँचा देंगे। लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि उस बुड्ढे के घर पर तुम से जो दुर्व्यवहार हुआ है वह किसी को न बताना वरना हम लोग तुम्हें जीता न छोड़ेंगे।
उन्होंने हर तरह की खुशामद और धमकी से काम लिया।
असद ने भी देखा कि उनकी बात को अस्वीकार करने में कोई लाभ नहीं है, उसने मान लिया कि मैं किसी से कुछ नहीं कहूँगा। अब जहाज ने मरजीना के बंदरगाह में लंगर डाला। मरजीना का बाग समुद्र तट पर था और वह उस समय अपने बाग की सैर कर रही थी। उसने अग्निपूजकों का जहाज देखा तो अपने सिपाही भेजे और कुछ देर में स्वयं समुद्र तट पर आ गई। कप्तान बहराम असद के हाथ भेंट वस्तुएँ ले कर उसके पास गया और झुक कर सलाम करने के बाद कहा कि हम प्रतिकूल वायु और समुद्र धाराओं से विवश हो कर आपके बंदरगाह पर टिके हैं। हम लोग व्यापारी हैं और दासों का व्यापार करते हैं। हमारे और दास तो बिक गए और सिर्फ यह बचा है। यह पढ़ा-लिखा है इसलिए हमने इसे हिसाब-किताब लिखने के लिए रख लिया है।
मरजीना असद के रूप पर मुग्ध हो गई। उसने कहा, तुम अपनी सभी भेंट वस्तुएँ अपने पास रखो, केवल इस दास को मुझे दे दो। तुम इसका जो भी मूल्य माँगोगे वह मैं दे दूँगी। यह कह कर वह बहराम के उत्तर की प्रतीक्षा किए बगैर ही असद के हाथ में हाथ डाल कर बाग में घूमने लगी। कुछ देर बाद उसने असद से पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है? असद ने आँसू भर कर कहा, मलिका, मैं अपना कौन-सा नाम बताऊँ। कुछ महीने पहले तक मेरा नाम असद था और मैं अवौनी का शहजादा था। अब मेरा नाम कुरबानिए-आतिश रखा गया है क्योंकि यह अग्निपूजक मुझे अपने देवता के सामने बलि देने के लिए लिए जा रहे हैं।
मरजीना यह वृत्तांत सुन कर आग बबूला हो गई। उसने बहराम को बुला कर बहुत गालियाँ सुनाईं और कहा, नीच कमीने, तूने मुझसे इतना बड़ा झूठ बोला? तू इस व्यक्ति को आग की कुरबानी के लिए ले जा रहा है और मुझे बता रहा है कि यह दास है? अब खैरियत चाहता है तो फौरन जहाज को खोल दे नहीं तो मैं सारा माल लुटवा दूँगी, जहाज जला दूँगी। बहराम घबराया हुआ जहाज पर आया। तेज उलटी हवा होने पर भी जहाज का लंगर उठवाने लगा। उधर मरजीना असद को बाग में बने हुए राजकीय आवास में ले गई। उसने स्वादिष्ट भोजन मँगवाया। असद ने पेट भर भोजन किया और जी भर शराब पी। शराब वह जरूरत से ज्यादा पी गया था। उसने मलिका से बाग में घूम-फिर कर नशा उतारने की अनुमति ली और बाग में घूमने लगा। कुछ देर बाद उसने एक कुंड के निकट बैठ कर अपना मुँह धोया और कुछ चैतन्य हो कर वहीं घास पर लेट गया। दो क्षणों ही में उसे गहरी नींद आ गई।
उधर बहराम ने अपने खलासियों से कहा, अब शाम हो गई है, रात भर तो बेखटके यहाँ भी रह सकते हैं। आशा है कि सुबह तक अनुकूल वायु भी मिल जाएगी। जहाज पर मीठा पानी भी कम है। हम लोग जमीन पर उतर कर देखें तो कोई न कोई कुआँ या कुंड मिल ही जाएगा। पानी ला कर हम सुबह होने के पहले ही जहाज खोल देंगे।
खलासी लोग जल की खोज में निकले तो उन्हें याद आया कि रानी मरजीना के बाग में मीठे पानी का एक बड़ा कुंड देखा था। वे वहाँ आए। सोते हुए असद को उन्होंने पहचान लिया और उसे अकेला पा कर बहुत खुश हुए। उन्होंने अपने सारे बरतनों में पानी भरा और धीरे से असद को उठा कर जहाज पर पहुँचा दिया। बहराम पानी के साथ असद को पा कर बहुत प्रसन्न हुआ। हवा भी अनुकूल चलने लगी थी इसलिए उसने दो घड़ी रात रहे ही लंगर उठा दिया। जहाज तेजी से ज्वालामुखी पर्वत की ओर जिसे वे आतशी कोह कहते थे चल पड़ा।
सुबह मलिका ने असद को अपने पास न पाया तो पहले सोचा कि वह शौचादि के लिए गया होगा किंतु जब वह देर तक न आया तो अपनी दासियों और सेविकाओं को आदेश दिया कि उसे ढूँढ़ें। उन्होंने बहुत ढूँढ़ा किंतु उसका पता नहीं पाया। काफी देर के बाद दासियों ने बताया कि बाग का फाटक खुला मिला है और कुंड के पास एक आदमी के जूते रखे हें। मलिका उठ कर स्वयं कुंड के पास आई और जूतों को देख कर पहचान गई कि यह असद ही के हैं। कुछ दासियों ने यह भी कहा कि कल शाम को कुंड में जितना पानी था इस समय उससे काफी कम दिखाई दे रहा है।
रानी मरजीना समझ गई कि रात को बहराम के खलासी बाग में पानी लेने आए होंगे और पानी के साथ निद्रामग्न असद को भी उठा ले गए होंगे। उसने एक आदमी समुद्र तट पर यह पता करने के लिए भेजा कि बहराम का जहाज है या नहीं। वहाँ उसे मालूम हुआ कि जहाज सुबह से पहले ही रवाना हो गया है। अन्य जहाजों के लोगों ने यह भी बताया कि पहर रात गए उस जहाज से एक नाव आई थी जिसके लोग शाही बाग की ओर गए थे।
अब तो कोई संदेह ही न रहा कि बहराम ने असद को उठवा लिया है। तब तक शाम होने लगी थी। उसने अपनी नौसेना के सारे जहाजों को तैयार रहने की आज्ञा दी और कहा दस जहाज बंदरगाह पहुँच जाएँ, मैं स्वयं इस जंगी बेड़े के साथ चलूँगी। दूसरी सुबह दस युद्धपोत रानी को ले कर बहराम के जहाज के पीछे चले। दो दिन बाद उन्होंने बहराम का जहाज आगे जाता हुआ देखा ओर कुछ ही देर में उसे चारों ओर से घेर लिया।
बहराम समझ गया कि असद के लिए ही मलिका ने पीछा किया है। उसने सोचा कि असद के साथ पकड़ा गया तो रानी मुझे मरवा ही देगी इसलिए उसे जहाज से हटा देना चाहिए। प्रकटतः वह बलि को इस प्रकार हाथ से भी जाने नहीं दे सकता था। इसलिए उसने क्रोध में चिल्ला कर कहा, इस मनहूस की वजह से हम पर मुसीबत आ रही है और हम सभी की जान खतरे में है। उसे खूब मारो और फिर समुद्र में फेंक दो ताकि यह यहीं खत्म हो जाए। उसके आधीनस्थ लोगों ने ऐसा ही किया। उसे खूब मारा और फिर उठा कर समुद्र में फेंक दिया। उन्हें विश्वास था कि इस गहरे पानी में से वह किसी तरह बच कर नहीं निकल सकता।
किंतु असद बहुत अच्छा तैराक था। वह तैरते-तैरते कुछ घंटों में एक भूमि पर जा लगा। उसने तट पर पहुँच कर भगवान को धन्यवाद दिया कि उसने दूसरी बार प्राण बचाए। उसने अपने कपड़े सुखाए और सोचा कि तट से कुछ दूर दिखाई देनेवाले नगर में चलूँ। पास पहुँच कर देखा तो वह वही अग्निपूजकों की बस्ती थी जहाँ से वह जहाज पर लादा गया था। उसने सोचा कि दिन में वहाँ जाना ठीक नहीं है, रात में चलूँगा। यह सोच कर वह मुसलमानों के कब्रिस्तान में जा कर सो गया।
उधर मरजीना के जहाजों ने बहराम के जहाज को दबा लिया। मरजीना ने स्वयं उस जहाज पर चढ़ कर पूछा कि असद कहाँ है जिसे तुम मेरे बाग से उड़ा लाए थे। बहराम ने असद को लाने की बात से इनकार किया। मरजीना ने असद को ढुँढ़वाया। उसे न पा कर वह और भी क्रुद्ध हुई। उसने जहाज को लूटने और सब लोगों को निकटस्थ भूमि पर ले चलने की आज्ञा दी और कहा कि मैं इन सब को मौत के घाट उतरवाऊँगी। उसके सिपाहियों ने बहराम और उसके साथियों को तट पर पहुँचाया।
तट पर जा कर बहराम भी पहचान गया कि यह उसी का नगर है। वह पहरेदारों की आँख बचा कर भाग निकला। नगर तक उसे पहुँचते-पहुँचते काफी रात हो गई। उसने भी सोचा कि रात यहीं कब्रिस्तान में बिता कर सुबह शहर में जाऊँगा। वहाँ असद को सोता देख कर उसे आश्चर्य हुआ कि इस जगह सोनेवाला कौन है। उसने उसे अच्छी तरह देखना शुरू किया। असद की भी आँख खुल गई और वह उठ बैठा। बहराम ने कहा, अच्छा तुम यहाँ सोए हो? तुम्हारी वजह से मुझ पर ऐसी विपदा पड़ी। इस वर्ष तो बलि से बच गए, अब देखता हूँ कि अगले वर्ष कैसे बचते हो।
बहराम असद से कहीं तगड़ा था। उसने असद को एक चादर में बाँधा और रात ही रात उसे उस बूढ़े अग्निपूजक के घर पहुँचा दिया जहाँ से असद को लाया था। बूढ़े ने फिर असद के पाँव में बेड़ियाँ डाल कर उसे तहखाने में पहुँचाया और बोस्तान और कैवाना को पहले की तरह उसे रोज खूब मारने और रोटी-पानी देने की आज्ञा दी। बोस्तान उसे तहखाने में ले गई। असद ने विलाप आरंभ किया कि इस सारे साल की मार से तो अच्छा था कि मुझे बलि ही दे दिया जाता। बोस्तान को पहले ही अपनी क्रूरता पर खेद था। इस समय उसे असद पर बड़ी दया आई। उसने कहा, तुम चिंता न करो। मैं तुम्हें न मारूँगी। मैं तुम्हें यह भी बता दूँ कि मैं मुसलमान हो गई हूँ।
बोस्तान की बातों से असद को बहुत तसल्ली हुई किंतु उसे अब भी कैवाना की ओर से डर लग रहा था। उसने कहा, भगवान ने तुम्हारे हृदय में मेरी ओर से दया उपजा दी है किंतु कैवाना तो मुझे पूर्ववत ही मारेगी। बोस्तान ने कहा, तुम डरो नहीं। अब तुम्हारे पास कैवाना नहीं, मैं ही आऊँगी। उस दिन से बोस्तान ही उसके पास आने लगी। वह उसे भरपेट स्वादिष्ट भोजन खिलाती और उससे मित्रतापूर्वक बातें करती।
एक दिन बोस्तान अपने दरवाजे पर खड़ी थी कि उसने मुनादी होते सुनी। मुनादी करनेवाला उच्च स्वर में कह रहा था, इस देश का मंत्री अमजद अपने छोटे भाई असद को ढूँढ़ने स्वयं ही नगर में निकला है। जो भी उसके भाई को उसके पास लाएगा उसे इतना धन दिया जाएगा कि कई पीढ़ियों के लिए काफी होगा। और अगर कोई असद को जान-बूझ कर छुपा कर रखेगा तो वह अपने परिवारवालों के सहित मार डाला जाएगा और उसका घर खुदवा कर उस जमीन पर हल चलवा दिया जाएगा। यह मुनादी सुन कर बोस्तान दौड़ी हुई असद के पास गई। उसने उसकी बेड़ियाँ काट दीं और उसे ले कर गली में निकल आई। यहाँ आ कर उसने पुकार कर कहा, यह है मंत्री अमजद का भाई असद, इसे मंत्री के पास पहुँचा दो।
मंत्री के सेवकों ने मंत्री को तुरंत इस बात की सूचना दी। वह असद को बुलाने के बजाय स्वयं ही वहाँ पर आ गया। असद को पहचान कर उसने उसे आलिंगनबद्ध किया। फिर वह असद और बोस्तान को ले कर बादशाह के पास पहुँचा। वहाँ पहुँच कर असद ने अपने ऊपर पड़नेवाली सारी विपत्तियों का वर्णन किया। बादशाह के क्रोध का ठिकाना न रहा। उसने आज्ञा दी कि बुड्ढे अग्निपूजक का घर खुदवा डाला जाए तथा उसे और बहराम आदि रिश्तेदारों को मृत्युदंड की आज्ञा दी। उन सबने उसके पैरों पर गिर कर प्राणों की भिक्षा माँगी। बादशाह ने कहा कि तुम्हारा अपराध बहुत बड़ा है, तुम्हें इसी शर्त पर प्राण-दान मिल सकता है कि तुम अपना यह झूठा धर्म छोड़ कर मुसलमान हो जाओ। उन्होंने यह स्वीकार कर के जान बचाई।
मंत्री अमजद ने इसके बाद उन लोगों को गुजारे के लिए यथेष्ट धन दिया। बहराम इससे प्रभावित हुआ। उसने कहा कि सरकार, पिछले साल मैं अवौनी देश गया था। वहाँ बादशाह कमरुज्जमाँ आप लोगों के वियोग में बड़े व्याकुल हैं। आश्चर्य न होगा यदि इस दुख में उनके प्राण निकल जाएँ। आप दोनों यदि वहाँ चलने को तैयार हों तो मैं आपको सुविधापूर्वक पहुँचा दूँ।
अमजद और असद ने यह स्वीकार किया और बादशाह से जाने की अनुमति माँगी जो उसने दे दी। उसने उन्हें गले लगा कर विदा किया और बहुत साधन यात्रा के लिए दिया।
इतने में एक हरकारे ने आ कर कहा कि एक ओर से एक बड़ी सेना आ रही है। बादशाह सोचने लगा कि मेरा ऐसा कौन दुश्मन है जो चढ़ाई करे। उसने अमजद से जा कर सेनाध्यक्ष से मिलने को कहा। अमजद गया तो उसे मालूम हुआ कि सेना की नायक एक स्त्री है। उसने उससे भेंट कर उससे पूछा कि आप युद्ध का इरादा ले कर आई हैं या मैत्री का? उसने कहा, मैं युद्ध करने नहीं आई हूँ। यहाँ का बहराम नामी कप्तान मेरे दास असद को चुरा लाया है। मैं उसी को लेने आई हूँ। मेरा नाम मरजीना है। यदि आप असद को मुझे वापस दिलाने में सहायक हों तो आपकी आभारी हूँगी।
अमजद ने कहा, आपका दास असद मेरा छोटा भाई है। मैं यहाँ का मंत्री हूँ। आप कृपया चल कर हमारे बादशाह से भेंट करें। वे असद को आपकी सेवा में दे देंगे। मरजीना यह सुन कर बहुत प्रसन्न हुई और सारी सेना वहीं छोड़ कर कुछ अंगरक्षकों को साथ ले कर अमजद के साथ बादशाह के पास आने लगी।
इसी बीच एक और हरकारे ने आ कर कहा कि दूसरी दिशा से एक और सेना आ रही है। बादशाह फिर चिंतित हुआ। उसने अमजद को इस सेना का हाल जानने के लिए भेजा। अमजद कुछ सिपाहियों के साथ गया और फौज के एक सरदार से कहा कि मैं यहाँ का मंत्री हूँ, मुझे अपने बादशाह के पास ले चलो। बादशाह के पास जा कर उसने पूछा कि आप अगर युद्ध के लिए आए हैं तो यह भी बताए कि हमसे क्यों युद्ध करना चाहते हैं। बादशाह ने कहा, मैं युद्ध करने नहीं आया। मैं चीन का बादशाह गौर हूँ। मेरी बेटी बदौरा और दामाद कमरुज्जमाँ बहुत दिनों से लापता हैं। मैं उन्हें ढूँढ़ने निकला हूँ।
अमजद ने उसके पाँव चूम कर कहा, आप मेरे नाना हैं। मेरे पिता कमरुज्जमाँ अवौनी के बादशाह हैं। वे और मेरी माता बदौरा आनंदूपर्वक हैं। बादशाह गौर ने उसे सीने से लगाया और उसे देर तक प्यार करता रहा। वह अमजद की सारी पिछली आपदाओं को सुन कर बहुत दुखी हुआ।
उसने अमजद को तसल्ली दी और कहा कि मैं स्वयं वहाँ तुम्हें ले जा कर तुम दोनों का मेल करवा दूँगा। अमजद ने विदा हो कर अपने स्वामी को उसका हाल बताया। उसे आश्चर्य हुआ कि चीन के सम्राट जैसा प्रतापी आदमी बेटी-दामाद की तलाश में भटक रहा है। उसने अपने कर्मचारियों को आज्ञा दी कि चीन के सम्राट की पूरी तरह अभ्यर्थना की जाए। वह स्वयं भी इस बात की तैयारी करने लगा कि चीन के सम्राट के शिविर में जा कर उससे भेंट करे।
इसी बीच एक और हरकारे ने सूचना दी कि एक फौज तीसरी तरफ से भी आई है। बादशाह ने सोचा यह अच्छी मुसीबत है, चारों ओर से सेनाएँ चली आ रही हैं। उसने इस बार भी अमजद को इस सेना के आगमन का उद्देश्य जानने को भेजा। अमजद ने जा कर पता किया तो मालूम हुआ कि यह उसका पिता कमरुज्जमाँ है जो अपने दोनों पुत्रों की तलाश में देश-विदेश भटकता हुआ यहाँ आ पहुँचा है। उसे मालूम हुआ कि पहले तो अपनी रानियों के षड्यंत्र में फँस कर उसने बेटों के वध की आज्ञा दे दी थी किंतु बाद में उसे इतना पछतावा हुआ कि वह प्राण त्याग करने के लिए तैयार हो गया। जब जिंदर ने उसे बताया कि शहजादों को मारा नहीं गया है तो उसकी हालत सँभली किंतु इसके बाद वह चैन से न बैठ सका और बड़ी फौज ले कर बेटों को ढूँढ़ने निकल पड़ा। अमजद वापस आ कर असद को साथ ले गया और दोनों बेटों ने बाप से भेंट की। वह इन दोनों को गले लगा कर बहुत देर तक हर्ष के आँसू बहाता रहा।
इतने ही में वहाँ के बादशाह को एक और हरकारे ने बताया कि राज्य की चौथी ओर से भी एक बड़ी सेना चली आ रही है। बादशाह ने फिर अमजद के पास खबर भिजवाई। कमरुज्जमाँ ने कहा, और बातें बाद में होंगी, पहले यह देखना चाहिए कि यह नई फौज किसलिए आई है। मैं खुद तुम्हारे साथ चल कर उस फौज लानेवाले बादशाह से मिलूँगा। अमजद ने पिता को यह भी बताया कि एक ओर से चीन का सम्राट भी ससैन्य आया हुआ है। कमरुज्जमाँ यह सुन कर खुश हुआ और बोला कि चलो रास्ते में हम लोग तुम्हारे नाना से भी मिलते चलेंगे।
चीन के सम्राट से संक्षिप्त रूप से भेंट करने के बाद कमरुज्जमाँ और उसके दोनों बेटे उस तरफ गए जहाँ चौथी फौज ने पड़ाव डाला था। पास पहुँचने पर अमजद आगे बढ़ कर गया। संयोग से उसकी पहली ही भेंट इस फौज के बादशाह के मंत्री के साथ हुई। उसने पूछा, आप लोग तो मुसलमान हैं, इस देश में जहाँ मुख्यतः अग्निपूजक रहते हैं क्या करने आए हैं? उस मंत्री ने कहा, हम लोग खलदान देश से आए हैं। हमारे बादशाह का बेटा कमरुज्जमाँ बीस वर्ष से अधिक समय से लापता है। हमारे बादशाह उसी की खोज में भटक रहे हैं। अगर आप लोगों ने कमरुज्जमाँ का कुछ हाल सुना हो तो बताइए, आपकी बड़ी कृपा होगी।
अमजद ने हँस कर कहा, आप कमरुज्जमाँ का समाचार पूछ रहे हैं। मैं स्वयं कमरुज्जमाँ को यहाँ लिए आता हूँ। आप बादशाह से हम लोगों की भेंट का प्रबंध कराइए। इधर मंत्री अपने बादशाह को यह समाचार देने गया उधर अमजद ने जा कर अपने बाप से कहा कि आपके पिता आप की खोज में यहाँ तक आए हैं और यह फौज उन्हीं की है। कमरुज्जमाँ ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि पिता से भेंट होगी और वह भी इतने आकस्मिक ढंग से। वह भावातिरेक से मूर्छित हो गया। जब वह सचेत हुआ तो बेटे को साथ ले कर पिता से मिलने चल पड़ा और उसके पास जा कर उसके पैरों पर गिर पड़ा। वह उसे छाती से लगा कर बहुत देर तक रोता रहा।
उसने कमरुज्जमाँ से पूछा, बेटे, मुझ से ऐसी क्या भूल हो गई थी कि तुम बगैर कुछ कहे-सुने चले आए। तुम इस अरसे में कहाँ-कहाँ और किस तरह रहे? कमरुज्जमाँ ने लज्जित हो कर चुपचाप देश छोड़ने पर पिता से क्षमा याचना की और फिर उसे अपना, बदौरा का और बेटों का पूरा हाल बताया। उसने अपने दोनों बेटों को पिता से मिलवाया। वह दोनों पौत्रों को गले लगा कर बहुत देर तक प्यार करता रहा।
फिर सारे बादशाहों और रानी मरजीना ने अग्निपूजक देश के मुसलमान बादशाह के महल में एक-दूसरे से भेंट की और तीन दिन तक राग-रंग होता रहा। सभी की सलाह से मंत्री अमजद के साथ भूतपूर्व अग्निपूजक की बेटी बोस्तान का विवाह कर दिया गया क्योंकि वह सब से पहले स्वयं ही मुसलमान हुई थी और उसी ने असद को पिता की कैद से निकाला था। इसी तरह सब की सलाह से असद का विवाह रानी मरजीना से कर दिया गया क्योंकि वह इतनी शक्तिशालिनी हो कर भी असद पर इतनी मुग्ध थी कि उसकी तलाश में भटक रही थी। असद अपनी पत्नी के साथ चला गया। अमजद को वहाँ के बादशाह ने अपना राजपाट सौंप दिया। इस सारे वृत्तांत का यह प्रभाव पड़ा कि उस देश के अधिकतर अग्निपूजक अपना पुराना धर्म छोड़ कर मुसलमान हो गए। चीन का सम्राट, खलदान का बादशाह और कमरुज्जमाँ उस देश के बादशाह की दी हुई बहुमूल्य भेंटें स्वीकार करने के बाद अपने-अपने देशों की ओर रवाना हो गए।
शहरजाद ने यह कहानी खत्म की तो दुनियाजाद ने कहा, दीदी, तुमने बहुत ही अच्छी कहानी सुनाई। मैं चाहती हूँ कि और भी ऐसी कहानियाँ सुनूँ। शहरजाद बोली, यदि मुझे आज प्राणदंड न दिया गया तो कल नूरुद्दीन और फारस देश की दासी की सुंदर कथा सुनाऊँगी। बादशाह शहरयार ने इस कहानी के लालच में उस दिन भी शहरजाद का प्राणदंड स्थगित कर दिया।