कमल (कोंकणी कहानी) : गोकुलदास प्रभू

Kamal (Konkani Story) : Gokuldas Prabhu

घुटना और एड़ी दुःखने लगी, तब जाकर समय का भान हुआ। ग्यारह बजे आया था, अब बज गए सवा दो तीन घंटे किताबें ढूँढ़ता, देखता रहा। किताबों की दुकान में एक बार घुस जाऊँ तो मेरा यही हाल होता है। मन-ही-मन मुसकरा पड़ा। बस, अब चलें।

चुनी हुई पुस्तकें लेकर कैश काउंटर की ओर चल पड़ा। पुस्तकें काउंटर पर रखते समय कैशियर के ध्यान में आया-

"अरे, तू!"

“हाँ, मैं ही हूँ।"

कैशियर स्कूल में मेरी ही क्लास में पढ़ता था। वह कब यहाँ कैशियर हो गया ?

"तुम यहाँ काम कब से कर रहे हो ?"

"हो गए, दो-ढाई वर्ष । तुम कब आए ?"

"चार-पाँच दिन हो गए।"

फिर उसके अगले प्रश्न से पहले ही मैंने जवाब दिया- “ परसों जाऊँगा।"

जान-पहचान के लोग कुछ सालों बाद मिलते हैं तो जो प्रश्न बिना भूले पूछते हैं, वही प्रश्न उसने मुझसे पूछा, “तुम्हारी शादी हो गई ?"

"नहीं, तुम्हारी ?"

“हाँ, पिछले साल ।”

“बच्चे कितने?” आदत से यह प्रश्न मुँह से निकलने के बाद उसकी विसंगति और मूर्खता का एहसास हुआ। वह भी हँस पड़ा। एक साल में क्या बारह बच्चे होंगे? फिर थोड़ा सा शरमाकर उसने कहा-

"अभी बच्चे नहीं हुए। जल्दबाजी करना अच्छा नहीं लगा। क्या कहते हो ?"

“हाँ।"

"तुम्हें क्या गैर मुल्क ही अच्छा लगता है ? तुम्हारी माँ कहती है कि गाँव आने पर तुम दो दिन भी नहीं टिकते हो"भाग जाते हो।" पुस्तकों का बिल आगे बढ़ाते हुए उसने कहा ।

"ओह ! वैसा कुछ नहीं। सारे गाँव एक जैसे।" बिल पर एक नजर डाली - 1,875 रुपए। पुराने दिन होते तो माँ चिल्लाती - 1-8-7-5 रुपए । दिमाग ठिकाने है न तुम्हारा ? हाथ में पैसे हैं, इसलिए ऐसे ही उड़ाओगे ?' पर अब किसी को कोई शिकायत नहीं है। पुस्तकों के मेरे इस पागलपन से सब लोग वाकिफ हो गए हैं। बिल के पैसे भरकर मैं बाहर आया और बस स्टॉप पर आकर खड़ा रहा।

चिलचिलाती धूप। पचास-साठ लोग बस के इंतजार में खड़े थे। बस- शेल्टर में सिर्फ दस-पंद्रह व्यक्तिओं के खड़े रहने की जगह थी। शेल्टर में रहनेवालों के मुँह पर भी एकदम धूप लग रही थी। कुछ लड़कियाँ धूप से बचने के लिए छातों की आड़ में हो गई थीं।

पिंडलियाँ और एड़ियाँ दुःखने लगी थीं मानो पाँव मरोड़ दिए गए हों। बस जल्दी आ जाए तो बस एक बार घर पहुँच जाऊँ। बसें आती-जाती रहीं। हलके से वही प्रश्न जो पहले से हजार बार मन में उठता था, फिर उभर आया- ये सारी बसें लाल क्यों ? सभी बसें लाल रंग की हों, यह किसने तय किया ? और क्यों ? इसी राज्य में ऐसा क्यों ?

बचपन में सुनी हुई और फिर समय के बोझ तले दबी पड़ी टीचर की आवाज सुनी - लाल रंग दूसरे रंग की अपेक्षा जल्दी ध्यान आकर्षित करता है, पर लाल बसें खून की दुर्घटनाओं की और मौतों की याद दिलाती हैं- मैं तुम लोगों की मौत! रास्ता छोड़ो...रास्ता छोड़ो...

मेरे घर की ओर जानेवाली मौत आ गई। मौत किसी के लिए भी नहीं रुकती। इसीलिए मैं जल्दी से अंदर घुस गया, खिड़की के पास बैठने के लिए जगह मिली "शत जन्म के पुण्य से पुस्तकें सीट पर रखीं पाँव खोलकर बैठा और आँखें मूँदकर बाहरी दुनियादारी को बाहर ही छोड़ दिया। अच्छी हवा आ रही थी और बीच में धूप की उमस भी, पर थके हुए हाथ-पाँव, गरदन और आँखों को अच्छा विश्राम मिल रहा था।

सुबह-सुबह जगानेवाले टाइमपीस के अलार्म की तरह कान में आवाज घनघना उठी- '...बाबू...कुमकुम के यहाँ हो आओ, हाँ...और आँखें खुल गईं।

सुबह घर से निकलते वक्त माँ ने कहा था- “कुमकुम के यहाँ हो आओ। वह नाराज हो गई है। कहती है, तुम उनके यहाँ जाते नहीं हो। ऐसे ही हो आओ। पिछले तीन-चार वर्षों से उसने तुम्हें देखा भी नहीं है। "

सुबह बाहर निकला था पुस्तकालय में जाने के लिए। माँ की बात सुनकर कुमकुम के यहाँ जाने का निर्णय लिया और बस में चढ़ बैठा, पर कंडक्टर को पैसे देते वक्त मन फिर से बदल गया और पुस्तकालय के स्टॉप का ही नाम बताया। सोचा, वापस आते वक्त कुकू के यहाँ जाएँगे ...फिर पुस्तकों के चक्कर में वह बात ही भूल गया...उसे पता चले तो वह जरूर गुस्सा होगी।

पर, नहीं । उसे वैसे गुस्सा नहीं आता। उसे आता है रोना "उसके सिर्फ दो विकल्प हैं - खुशी या गम। चेहरे पर ज्यादातर हँसी हँसना नहीं आया तो आँखों में आँसू । याद आया, एक बार बताए हुए समय पर घर नहीं पहुँचा । देर से पहुँचने पर सबकी बातों में गुस्सा और चिंता दिखाई दी, पर वह चुपचाप रोने लगी थी।

हवा उसकी उँगलियाँ बनकर बालों को सहला गई। चलो आज तो उसकी आँखों में अपने भाई की परछाईं पड़ने दे।

उसके घर की ओर जानेवाला रास्ता निकट आते ही मैं बस से उतर गया और उसके घर जानेवाली बस के लिए रुका गया मुझे देखते ही उसकी आँखें आश्चर्य से फैल जाएँगी। वैसे भी उसकी आँखें हैं विशाल । अब खुशी से और कितनी फैल जाएँगी, बताना कठिन है।

मैं उन आँखों का तारा हूँ। फिर पता नहीं कब धीरे-धीरे यह संबंध शिथिल होने लगे ? शायद आठवीं नौवीं में पढ़ते समय या उससे भी पहले। पुस्तकें, मित्र और खेल में ही मैं ज्यादा रमने लगा और उस नियोजित जीवनक्रम में उसका महत्त्व कम होता गया...

उसके घर की दिशा में जानेवाली बस आते ही मैं बस में घुस गया। ऊपर डंडे को पकड़कर बाहर देखता रहा ...अचानक याद आया कि उसे बस में चलने से उल्टी होती थी। बस में बैठकर कहीं जाना उसे अच्छा नहीं लगता था। घर जाते ही निचोड़ दिए कपड़े की तरह गिर पड़ती थी, पर उससे भी बुरा तब लगता था, जब महीने में एक-दो दिन पेट दबा के, दबी आवाज में वह कराहती रहती थी। मुझसे उसका यह हाल देखा नहीं जाता था । इसीलिए मैं उसके करीब नहीं जाता था। गया तो भी उसके भीगे गाल, काँपते होंठ और तड़पना देखकर दूर ही रहता था। बस सिर्फ, वे ही दो दिन ...तीसरे दिन वह फिर खुश नजर आती थी।

बस से उतरते वक्त मन में अनायास ही यह बात उठी कि बचपन का यह रिश्ता आगे कैसे इतना ठंडा पड़ गया ? उम्र में पाँच साल बड़ी है, वह मुझसे दूसरी माँ के समान रही। आज भी उसकी भावनाएँ वैसी ही हैं ...फिर भी वह दूर हो गई।

जब वह पेट दबा के सोई रहती थी, तब मैं चौथी कक्षा में था और वह आठवीं में मैं पाँचवीं में गया और वह आठवीं में ही रह गई। मैं सातवीं से आठवीं में गया, तब वह दसवीं में पढ़ रही थी। फिर आगे उसकी पढ़ाई ही छूट गई। पढ़ने का शौक, खेल, दोस्त, इन सबमें मैं रमता चला गया और उसका संसार संकुचित होता गया...

उसके घर का रास्ता यहाँ से दाहिनी ओर मुड़ता है और फिर बाईं ओर घूम के सीधे आगे जाता है। वहाँ की दो-तीन दुकानों से होकर एक पगडंडी निकलती है, जो सीधे जलती कड़ाही पर पड़े पानी के छींटों की तरह उसके बाग में जाकर लापता होती है। बाग में ही एक कोने में उसका छोटा सा घर है सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचते ही एक छोटा सा बरामदा है। वहीं दोनों ओर बैठने के लिए सोफे बनाए हैं। बीच में ही दरवाजा है। अंदर जाते ही दाहिनी ओर एक कमरा और बाईं ओर रसोई घर । लाल सीमेंट की जमीन और ऊपर खपरैली छत, बिना किसी आवरण के उस छोटे से घर में उसकी भरी-पूरी गृहस्थी समाई हुई थी।

पर वे दुकान, वह पगंडडी सब कहाँ हैं ? दो मालों का घर दिखाई दे रहा है। यही उसका घर होगा। दो-तीन बार आया हूँ। एक बार उसकी शादी के दिन जीजाजी को वेदी पर ले जाने के लिए। और फिर कभी एक बार और अब पाँच सालों के बाद आया हूँ तो कुछ विशेष बदलाव नहीं है। हाँ, आगे एक...

अंदर पहुँचते ही देखा, वह घर उसका नहीं था। फिर भी आगे बढ़ा। आगे का रास्ता परिचित नहीं लग रहा था, इसलिए पीछे मुड़कर दोनों तरफ देखते हुए चलता रहा।

किसी ने पीछे से पूछा, "कौन?" मुड़कर देखा तो औरत बाहर आकर खड़ी रही मेरे प्रश्न की अपेक्षा में। मन में दुविधा उत्पन्न हो गई। जीजाजी का नाम क्या है ? रघोत्तम ? रघुनाथ या रामचंद्र ? फिर तुरंत मैंने पूछा, “कामत का घर कहाँ है ?" उसने बारीकी से देखा और पूछा, “किसका ? रवींद्र कामत का घर ?" अँधेरे कमरे में मानो एकदम प्रकाश की किरण आ गई। जीजाजी का नाम सच में रवींद्र कामत है। एकदम भूल बैठा था।

दो माले के घर के पीछे इशारा करते हुए उसने कहा, "वह रहा। वहाँ ! इसी रास्ते से जाओ।" उसको धन्यवाद देकर उस रास्ते जाते हुए एक अव्यक्त और विचित्र - सा भाव मन में मँडराने लगा ।

बाग भी बदल गया है। दुतरफा पेड़ों के बीच से चलते हुए उनका घर दिखाई नहीं देता और बगलवाले घरवालों ने बाग के भीतर से ही दीवारें खड़ी की हैं, इसलिए उसके घर तक जाने के लिए एक सँकरा-सा रास्ता मात्र बचा है। अब बिल्कुल नजदीक पहुँचे बगैर उसका घर दिखाई नहीं देता है। पास पहुँचते ही पता चला कि उसका घर भी बदल गया है। पहले की वह ड्योढ़ी और वह बैठक नहीं हैं। थोड़ा सीढ़ियाँ चढ़कर दरवाजा खटखटाया। अब कमल सी आँखें लेकर वह...

दरवाजा खुला और मुझे बचपन याद आया। अंदर नौ साल की गोरी- चिट्टी लड़की खड़ी थी। पहली कक्षा में था, तब उँगली पकड़कर साथ ले जानेवाली कुकू का मुँह लेकर। वही रंग, वही आँखें, वैसी ही नाक... और थोड़ी ऊपर उठी गालों की हड्डियाँ और बाँहों तक कटे बाल। मेरे मन पर से मानो उम्र फिसलती चली गई। मैंने हलके से हँसने का प्रयास किया, पर उसके चेहरे पर था संदेह, अजनबीपन और अनिश्चितता । उसने माँ को आवाज लगाकर कहा, "कोई आया है।"

उतना ही संदेह और परायापन चेहरे पर लेकर उसकी माँ बाहर आई। देखते ही उसके चेहरे का भाव बदल गया। आँखें विस्तृत हो गई, हँसते मुख पर होंठ आऽ कहकर खुल गए।

"आ, बाबू। आओ, आओ।"

फिर उसने बेटी से कहा, "यह तो तुम्हारे मामा हैं। "

"पहचाना नहीं ?" इस पर बेटी हँस दी। मन-ही-मन 'परफेक्ट स्माइल, परफेक्ट स्माइल' कहते हुए मैंने हाथों की उँगलियों से उसके गाल को छुआ।

“बैठो न,” कुकू ने कहा। तब भान हुआ कि वहाँ पहले एक तख्त रहा करता था। अब वहाँ तीन कुरसियाँ रखी हैं, वे भी पुरानी । एक पुराना टेबल थाहाँ, उसके ऊपर एक ब्लैक एंड व्हाइट टी.वी. रखा है। ऊपर की छत सीलिंग से ढक दी गई है।

"यहाँ सब बदल गया है।"

"नहीं तो तुम जैसे युगपुरुष घर में नहीं आएँगे।" उसने चिढ़ाते हुए जवाब दिया और आगे कहा, “आज आओगे, कल आओगे, सोचकर इतने दिन इंतजार किया...रहने दो, आज तो पहुँच गए न ? यहाँ का रास्ता भूल गए थे क्या?"

सच में रास्ता भूल गया था, पर कैसे बताऊँ ? हलके से छोटी का हाथ पकड़कर उसे पास खींच लिया और गोद में बिठा लिया। गाल को गाल छुवाया। दाढ़ी लगने से शायद उसे गुदगुदी हो उठी। हँसकर उसने मुँह फेर लिया।

"बैठ जाओ। मैं अभी आई, " कहकर कुकू अंदर चली गई। मैंने लड़की से उसका नाम पूछा। 'जलजा' उसने कहा। फिर याद आया, बड़ी भानजी का नाम विमला ।

"कुकू, यह जलजा नाम किसने रखा ? तुमने या जीजाजी ने ?"

"मैंने ही क्यों ? अच्छा नहीं है ?"

थोड़ा ओल्ड फैशंड है, पर कुछ कहकर क्यों उसका मन दुखाऊँ ?

"ऐसा कुछ नहीं है।" याद आया कि ...बड़ी भानजी ?

"वह कहाँ है, विमला ?"

"उसका स्कूल चार तक। फिर ट्यूशन पौने छह बजे तक आ जाएगी। उसे तुम्हारी याद है । " बोलते-बोलते कुकू दो गिलासों में शरबत लेकर आई। मुझे और जलजा को दिया। फिर कहने लगी, “एक-दो बार वह तुम्हें पत्र लिखना चाहती थी, पर मैंने ही मना कर दिया। "

"क्यों?"

"व्यर्थ में तुम्हें परेशानी क्यों ?"

झट से मन में आया कि यूनिफॉर्म, स्कूल फी, पुस्तकों के लिए पैसे, जीजाजी की भी खास कमाई नहीं है। इस सबकी मैंने कभी कोई चिंता ही नहीं की। मन में कहीं भीतर गहरी चोट लग गई।

"नहीं-नहीं, पत्रों से कहाँ परेशानी होती है ? विमला कौन सी क्लास में पढ़ रही है। पाँचवीं में ?"

वह जोर से हँस पड़ी... "तुम किस दुनिया में हो ? वह अब आठवीं में पहुँच गई है। और बस दो साल ! वह कॉलेज पहुँच जाएगी।"

मैं मूर्ख सा बैठा रहा ...जलजा के हाथों को छूते हुए ...वह भी हँस रही होगी। उसके मुँह की ओर देख नहीं पा रहा था पर उसे देखकर कुकू ने कहा, " तुम्हारा मामा मूर्ख ही है ...अब भी वह सोचता है कि मैं तुम लोगों को गोद में लिये ही घूमती हूँ "मूर्ख।"

उस अंतिम शब्दों में छिपी प्यार की भावना को दरशाने के लिए उसने मेरे सिर पर हाथ रखा और एकदम आश्चर्य से बोल उठी-

"अरे! तुम्हारे तो सारे बाल झड़ गए! "

“ तो तुमने क्या सोचा, मैं अभी तक दूध पीता बच्चा हूँ ? "

“नहीं, तुम बालों में तेल नहीं लगाते शायद तेल लगाकर नहाने से तुम नाक-भौं सिकोड़ते थे।"

“ तेल लगाता हूँ और तेल लगाकर नहाता भी हूँ, पर समस्या यह नहीं है। समस्या है लंबी यात्राओं की, ट्रैफिक सिग्नल और ट्रैफिक जाम हुआ तो भिखारियों की यों लाइन लगती है कि सबको देने के लिए पैसे नहीं होते। इसीलिए मैं तो अपने मुट्ठी मुट्ठी भर बाल निकालकर ही उन्हें देता हूँ । बाल झड़ते नहीं, मैं ही निकाल के देता रहता हूँ।"

“ यह कहानी तुम जलजा को सुनाओ। बस, दस मिनट में मैं तुम्हारे खाने की व्यवस्था करती हूँ ।"

वह अंदर गई। वहीं से वह बातें करती, प्रश्न पूछती रही। बीच में कुछ काटने की, पकने की, तड़के की आवाजें आती रही। गोद में से जलजा भी उठकर रसोई में चली गई।

मैंने बैठे-बैठे घर के चारों ओर नजरें फिरा दीं।

दीवारें पहले से अधिक मैली लग रही थीं। खिड़की के तारों में जंग लग चुकी थी। टेबल और कुरसियाँ भी धूल खाकर काली पड़ गई थीं। टूटी खपरैल से पानी चूकर दीवारों पर दाग पड़े थे। लगता है - गृहप्रवेश के बाद दीवारों पर कभी रंग चढ़ा ही नहीं। लाल सीमेंट के फर्श पर जगह-जगह गड्ढे पड़े थे, जिन्हें फिर सीमेंट से भर दिया गया था। बालों का तेल लगकर काले पड़े तकियों का ढेर दीवार पर एक आईना और एक कैलेंडर लटक रहा था, जिनके बीच एक कंघी घुसेड़कर रख दी थी। इस कमरे की छत के नीचे कोई आवरण नहीं था।

दृष्टि फेर ली तो देखा कि सिर के ऊपर सस्ती लकड़ियों की छतगीरी बनी थी। ट्रक पर पैकिंग में आए किसी सामान की लकड़ी से ही छत को ढक दिया था।

मुझे बुरा लगा, जी भर आया उसे और अच्छी जिंदगी प्राप्त होनी चाहिए थी। वह अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थी माँ-बाप के पास भी पैसों का अभाव था। इसीलिए उन्होंने जल्दबाजी की। वह विरोध न कर सकी। मैं भी अपनी ओर से कुछ न कर पाया। दसवीं में पढ़ते हुए क्या करता ? शादी रचाकर मानो सब मुक्त हुए।

झट से मन में और एक विचार कौंध गया कि वह फिर भी खुश है। किसी से कोई गिला शिकायत नहीं और न ही कोई अपेक्षा ।

अंदर से उसने बुलाया - "बाबू, आओ।" मोढ़े पर बैठते हुए उसने कहा कि ज्यादा कुछ नहीं बनाया है। "तुम सुबह आते तो कुछ अच्छा बना लेती, पर अब चार बजे हैं। अब कौन सा महाभोजन ? पर तुम खाना खाए बगैर आए हो, इस बात का मुझे देखते ही पता चल गया था। थोड़ी और दाल दूँ?"

“जीजाजी ने खाना खाया ?"

"तुम्हारे जीजाजी क्या चार बजे तक रुकेंगे ? उनका हर विषय में अनुशासन है। सबकुछ उनको सही समय पर चाहिए। तुम्हारे आने से पहले ही वे खाना खाकर चले गए। अब वापस लौटेंगे रात के साढ़े आठ बजे वो बात रहने दो तुम्हें पता है, कनक दीदी की लड़की चल बसी मंदिरवाले तालाब में डूबकर पता नहीं वह वहाँ क्यों गई थी ? गाँव के लोगों का कहना था कि उसके पाँव भारी थे पर मुझे इन बातों पर विश्वास नहीं। वह ऐसे बुरे कर्म नहीं करेगी। उसकी माँ परसों के दिन आई थी बहुत रो रही थी बेचारी।"

वह बोलती ही रही। मैंने कुछ बातें सुनीं, तो कुछ हवा हो गईं। 'हूँ- 'हाँ' करता रहा। कई बार यांत्रिकता से सिर्फ गरदन हिलाता रहा। बहती हवा में उड़ आए पंखों की तरह 'जलजा' नाम मेरे मन में फिर तैर उठा। उसी नाम से जुड़ा 'पंकजा' नाम याद आया, स्कूल में मास्टरजी जिसका अर्थ बताते थे- 'पंक अर्थात् कीचड़' 'कीचड़ में उपजा' इसलिए 'कमल' को 'पंकज' कहते हैं।

मेरे सामने बैठे उस कमल की ओर मैं देखता रहा। कुकू बोल रही थी। उसके एक शब्द में भी पीड़ा नहीं थी। सारी खबरें गाँव की । किसके यहाँ बच्चा हुआ, कौन मरा, किसकी शादी हुई, किसे नौकरी मिली, कौन बाहर गाँव से आया, ये सारी बातें..

साढ़े पाँच बजे विदा लेने का संकेत देकर उठा और उससे कहा, "कल तुम और जीजाजी बच्चों को लेकर हमारे यहाँ आ जाओ। वहाँ बैठकर ज्यादा बातें करेंगे।"

"अच्छा, देखेंगे," उसने मुसकराते पर अनिश्चितता से सिर हिलाया । किसी वजह से अगर न आ पाई तो बुरा न मानना, इसी अर्थ से उसने कहा, “तुमसे ही दो बातें करने का मन था। तुम आए न ? बस, अब वहाँ कभी भी आ सकती हूँ।"

झुककर जूतों के फीते बाँधते हुए वह मुझे देखती रही। पुस्तकों की गठरी लेकर मैं बाहर निकल रहा था। उसने जलजा से कहा, "मामा के लिए वह तेल की बोतल ले आओ।" भानजी भागकर ले आई। गाँव में मिलनेवाली औषधियाँ डालकर बनाया हुआ तेल बोतल में भरा था। 'लूँ या न लूँ' मैं सोच ही रहा था कि भानजी एक प्लास्टिक थैला लेकर आई, और उसमें बोतल डालकर मुझे सौंप दी।

मैं सीढ़ियाँ उतरकर आगे आया। बाग के बाहरवाले रास्ते तक वे मुझे छोड़ने आईं। रास्ते पर एक जगह पर थोड़ा रुककर, 'आता हूँ' कहते हुए मैं चल पड़ा। दस-बारह कदम चलते ही फिर एक बार भानजी को टा-टा करने के लिए घूमकर देखा वह माँ की साड़ी को पकड़कर उसकी ओर देखते हुए कुछ तो बता रही थी और एक हाथ से मेरी ओर इशारा कर रही थी। उसका निशाना मेरे हाथ की गठरी की ओर था।

झट से मेरे शरीर में बिजली-सी कौंध पड़ी। बच्चों के लिए मैंने पचास पैसों की चॉकलेट भी नहीं ली थी।

पाँव की उँगलियाँ मानो जड़ें बन गई रास्ते का काला तारकोल कीचड़ बन गया और मैं कदम उठा नहीं पाया...

(अनुवाद : आशा गहलोत)

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