कलपटुवा की मौत (असमिया कहानी) : जोगेश दास

Kalpatuva Ki Maut (Assamese Story in Hindi) : Jogesh Das

"कृष्ण ! कृष्ण ! थू थूः!” धनीराम गेट पर ही रुक गया।

दिन के उजाले में भी इस विशाल घर का ऐसा सूना, ऐसा गंभीर बना रहना क्या ठीक है ? पुराना दुमंजिला, लकड़ी का बना मकान । मगर पक्की ऊंची छत पर काई जम गयी है, ऊपरजाने की सीढ़ी अब गिरी कि तब गिरी । सारी खिड़कियां-दरवाजे खुले थे। मगर आदमी का कोई नामोनिशान न था । फूलों के पौधे काफी ताजे थे, फूल भी लगे थे, मगर वे भी सहमे-से जान पड़ते थे। हवा का एक झोंका भी नहीं आता, क्यों? बड़े गेट की एक लकड़ी टूटकर निकल आयी थी, जिससे लगता था कि वह दांत निपोरे हुए है। उसे अमंगल की निशानी समझने में डर लगता है, छाती कांप जाती है । “कृष्ण-कृष्ण ! थू थूः!"

फिर भी वह आगे बढ़ गया। जाना ही होगा । आगे-पीछे देखने से काम नहीं चलेगा। मौजादार से मिलना है । मौजादार न मिले तो उनके बड़े लड़के से । मौजादार बड़े दयालु हैं। हिसाबी हैं जरूर, बिना वजह एक फूटी कौड़ी भी खर्च नहीं करते, मगर अब बूढ़े हो गये हैं, इसलिए बड़ा लड़का ही मौजे की देखभाल करता है । बड़ा लड़का बड़ा नुस्सैल है। इस मकान से तो उसी ने उसे खदेड़ दिया था। एक दिन रात को बीड़ी पीते-पीते उसने अपनी मच्छरदानी और तकिया जला लिये थे । बड़े लड़के का वह गुस्सा कौन देखे । एक दिन फुलवारी में गाय घुस गयी, बस, वह धनीराम को ही मारने दौड़ा। एक दिन सुबह उसे न जगाने के कारण वह गाड़ी न पकड़ सका, लौटकर धनीराम पर थप्पड़-घूसे बरसाये । महीने भर का वेतन और नौकरी से जवाब मिला, वह अलग।

वैसे बड़े बाबू की नाराजगी की वजह कुछ और ही थी। वह जानता था, मगर किसी से उसने बताया नहीं । रूपे यानी रूपेश्वरी से शादी करने की बात धनीराम ने सोची थी। बड़े बाबू के घर में बच्चा हुआ था । इसीलिए धनीराम ने घर का काम-काज करने के लिए अपने गांव की एक टूअर लड़की रूपे को खोजकर ला दिया था। दिन बीतने के साथ रूपेश्वरी अप्सरा-सी हो चली । धनीराम की आंखें फटी-फटी-सी रह जातीं। हाथ-पैर कैसे चिकने-चिकने हो रहे हैं । छाती उभरी-सी हिलती जान पड़ती हैं । आंखें बड़ी गहरी-गहरी-सी लगती हैं। होंठों की हंसी ऐसी कि जान न्यौछावर करने को जी मचल उठता। उसका पूरा शरीर कांपने-सा लगता। रूपे युवती हो रही है । युवती । उससे शादी कर लेने की तबीयत हो आती है। मगर बड़े बाबू ने एक दिन उसे अकेले में बुलाकर तर्जनी दिखाते हुए कहा था- “खबरदार, फिर अगर रूपे पर नजर डाली तो तेरी जान नहीं बचेगी।”

धनीराम ने जान बचाकर रूपेश्वरी को छोड़ दिया।

ऊंचे फर्श पर न चढ़कर वह किनारे-किनारे आंगन की ओर डरता हुआ आगे बढ़ गया। बड़ा बाबू क्या दया करेगा? छोटा बाबू होता तो भी कोई बात होती । कहने पर चुपचाप रुपया-पैसा निकालकर दे देता था । मगर वह अभी विलायत गया है। नहीं, नहीं, अमेरिका । फिर भी उसे तो जाना ही है। अगर लगान-माफी न मिले तब तो वह मर ही जायेगा । बेचारी बीमार बहन विधवा होकर उसके यहां रह रही है । दो बच्चे भी हैं। मां तो बिलकुल बूढ़ी हो गयी है, लाठी टेककर चलती है । बहन दो दिन रसोई बनाती है तो चार दिन बिस्तर पर पड़ी होती है। उसकी सहायता किसी भी तरह से कर नहीं पा रही है । पर किया क्या जाये? बहन, तिस पर औरत, भला उसे कहां फेंक दिया जाये? गरीब पति के साथ रहकर दिन गुजार रही थी, मगर वह भी चल बसा । शादी होने के पहले वह नन्हीं बच्ची की भांति कितनी चीजें पाने की आशा रखती थी । सोचती थी, बड़ा भाई शहर में मौजादार के यहां नौकरी करता है । कितनी ही अच्छी-अच्छी चीजें पाता होगा। वह सब लाकर देगा। मगर वह तो कुछ भी नहीं दे सका। थप्पड़ खा, वेतन और नौकरी से जवाब पाकर वह जिस समय अचानक घर पहुंचा, वह अपने पति के साथ थी, मगर तब तक वह उसे कुछ दे नहीं पाया था। छिः छिः छिः ! बड़ी शर्म की बात है।

तिस पर इस बार बाढ़ से शाली धान की खेती बिलकुल चौपट हो गयी। ‘आहू' धान लगाया है । ईश्वर चाहेंगे तो हो जायेगा। मगर धान बेचकर लगान देना तो फिर भी संभव नहीं होगा। इधर बहन के इलाज में डाक्टर लगाकर जमा-पूंजी भी खत्म कर दी । लगान दिये बगैर भी काम नहीं चलने का । बाढ़ से धान-खेती बर्बाद हो जायेगी, वह भला किसे पता था ! अगर कुछ दिनों के लिए लगान-माफी न मिले तो जान नहीं बचने की । बड़ा बाबू चाहे तो माफी दे सकता है। बहन के दोनों बच्चों, मणि और टुनी का स्कूल में नाम लिखा दिया है । वे क्या बिना खाये-पीये जीयेंगे? हाय भगवान ! मणि को क्या अभी से हल जोतने में लगा दिया जा सकता है? और दो-चार रुपये खर्च करने पर उसकी मां भी चंगी हो जायेगी।

रूपे को तो वह बड़े बाबू को सौंप गया था । रूपे को वह पा नहीं सका । बड़े बाबू को रूपे चाहिए। कितने ही दिन नजर में आयी है, एकांत में बड़े बाबू उससे कैसे चुहल कर रहे हैं। उसके पास से मौजादार के लिए अखबार लाते समय भी देखा है, बाजार-खर्च का पैसा बड़े बाबू से मांगते समय भी देखा है, मरम्मत के लिए मोची को देने के लिए मांजी की सैंडिल खोजते समय भी उसकी नजर रूपे पर पड़ी है। उसे देखते ही रूपे लाल हो जाती है और छाती पर से खिसकी चादर को सहेजने लगती, बड़ा बाबू सकुचाया-सा हंसता । और धनीराम की छाती में कहीं हूक-सी उठती।

अंदर के आंगन में भी कोई नहीं था । अचरज की बात है । आठ साल वह जिस घर में नौकर रहा, वह जैसे का तैसा ही है। मगर उसे कुछ-कुछ अनजाना-सा लग रहा है । बाहरी हिस्से की भांति इस ओर के भी बड़े-बड़े लकड़ी के खंभे, और गिरती-सी काठ की सीढ़ियां पहले जैसी ही हैं । धुएं और कालिख लगा रसोईघर पहले ही जैसे आलस्य से खड़ा है । मुख्य मकान और रसोईघर के बीच लगा कपड़ा फैलाने का तार भी पहले ही जैसा है। फिर भी ऐसा लगता है कि कहीं कुछ खो-सा गया है।

वह बरामदे पर चढ़ गया । डरता-सा रेलिंग पर थपकी देकर आवाज दी । पर किसी की आहट नहीं आयी। वह विमूढ़-सा हो गया। सीढ़ी पर से ऊपर की ओर नजर डाली, जहां से ऊपरी मंजिल का बरामदा दिखायी पड़ता है और बड़े बाबू के कमरे का दरवाजा भी। परंतु वहां धनीराम को मोटे केले-पत्ते के रंग का परदा दिखायी पड़ा। और कोई वहां नहीं था।

रेलिंग को पकड़कर वह आंगन की ओर मुंह किये खड़ा रहा। किसी से मिलना होगा जरूर । शाली धान, ..आहू की खेती, ..बीमार बहन... मणि-टुनी, ..लगान...

अरे वह कौन है ? रसोईघर के पीछे की ओर से कोई लड़की आयी थी, उसे देखकर सहम-सी गयी, फिर मुड़कर तेजी से चली गयी । रूपे ही है न? पीछे की ओर वह पक्का किया हुआ जमीन का टुकड़ा है, जहां बर्तन धोये जाते हैं, पास ही राख की ढेरी, एक पानी रखने का पीपा, उसके पास ही फूस की झोंपड़ी, उससे सटी हुई साग-सब्जी की बाड़ी, उधर कमरख का एक पेड़, एक मदार का पेड़, जिस पर पान की लता चढ़ी हुई है, कुछ सुपारी के पेड़, नीचे घास-भरी जमीन, जहां 'बिहलंगनी' और 'लेतेफु' के पेड़ भी हैं, किनारे-किनारे अनन्नास के पौधे । हां, वह तो रूपे ही है। सारा शरीर लाल-सा है । क्यों न हो, मजे में है न आखिर । छाती काफी फैल गयी है, ब्लाउज के दबाव से ही समझ में आ जाता है। पहले से क्या कुछ मोटी हो गयी है ? शायद हां, मोटी-मोटी-सी तो लग रही है।

उसे देखते ही रूपे तुरंत भाग गयी। भागेगी क्यों नहीं? बड़ा बाबू नाराज हो जायेगा न? हालांकि वह उससे हंसी-मजाक किया करता, चिढ़ाता भी । मदार के पेड़ के नीचे पान की पत्तियां बटोरते समय, एक दिन उसने उसका हाथ पकड़ लिया था, धीमे से हाथ छुड़ाकर वह बिलकुल लाल हो गयी थी और कह उठी थी - “जा, मरा कहीं का !” जब धनीराम ने एक दिन और कहा था- "तुझे बग्गी पर चढ़ाकर घर भगा ले जाऊंगा, ठहर!" तो उसने लकड़ी . का एक टुकड़ा उसकी ओर फेंक मारा था । रसोईघर की खिड़की से अचानक देखकर मांजी फिक्क से हंस पड़ी थी। उसे बड़ी शर्म आयी थी। रूपे तुरंत भाग गयी थी।

हालांकि उससे शादी करने की बात वह बता नहीं पाया था। वह कह पाता इसके पहले ही बड़े बाबू ने 'जान नहीं बचेगी' कह दिया और वेतन दे, जवाब देकर निकाल दिया था। जाने दो, किसी लड़की को लेकर किसी से होड़ ठानने की भला जरूरत ही क्या है ? कितनी ही जवान लड़कियां पड़ी हैं । रूपे जैसी, रूपे से भी ज्यादा खूबसूरत, रूपे से कुछ कम । फिर नौकरी से निकाला जाकर जब वह गांव गया तो देखा कि अब किसी लड़की के बारे में सोचने का उसे समय ही नहीं मिलेगा। घर टूट-सा गया है । बूढ़े बाप तो नहीं रहे, बूढ़ी मां ने लाठी पकड़ ली है । अब खेती में जुट जाना होगा। अब वह नौकरी नहीं करेगा। लोगों के पास आधा-भागी में जो जमीन दे दी गयी है, उसे छुड़ाना होगा, क्योंकि लोग अब आनाकानी कर रहे हैं । अब भला लड़की के बारे में क्या सोचे? चलो छोड़ो, विधवा बहन भी आ गयी, बीमारी, भूख, मणि और टुनी को लिये हुए...

फिर भी वह उस ओर देखता रहा, जिधर रूपे गयी थी। यह नारी जाति भी अदभुत होती है। चाहे जितनी विपद-आफत पड़े, नजर डालने का समय निकल ही आता है, नजर डालने की इच्छा हो ही जाती है।

सीढ़ियों से खाली पैर किसी के उतरने की धम्-धम् आवाज आयी। चौंककर उसने उधर देखा । मांजी ! उनकी आंखों से आंखें मिलीं। उन्होंने अपनी ओढ़नी परयों ही हाथ चलाया। न जाने क्यों उसे देखते ही खप्प से सीढ़ी की रेलिंग पकड़े खड़ी हो गयीं। लगा जैसे ऊपर लौट जाना चाहती हैं । मगर गयीं नहीं । मांजी को बुलाना चाहते हुए भी वह बुला नहीं पाया। लगा, उसका गला सूखकर कड़ा हो गया है। एक बार उसकी ओर, और एक बार सीढ़ी पर नजर डाल मांजी धीरे-धीरे उतर आयीं । उनका भरा हुआ चेहरा कुछ पीला-सा पड़ गया है क्या? लेकिन बड़ी गंभीर हैं । न उससे कुछ कहती हैं, न हंसती हैं । नौकरी छोड़ जाने के बाद भी वह कई बार यहां आया था। हर बार मांजी ने काफी हंसी-खुशी से बातें की थीं, चाय-नाश्ता दिया था, और खुद काटकर तामोल दिया था, खैनी भी । एक बार भी पूछा भी था कि क्या वह घर नहीं बसायेगा?

आज जरूर कुछ हुआ है । ओ मां ! मांजी की आंखें तो छलछलायी हुई हैं । पलकों की बरौनियां भीगी हुई हैं। बड़ी-बड़ी आंखों के कोने लाल हैं। जरूर रो रही थीं । हे भगवान! आज बुरा लगने पर ही उसे महसूस हो रहा है कि वह मांजी का कितना आदर करता है।

मांजी के नीचे पहुंचते ही उसने आवाज दी- “मांजी !”

मांजी ने हंसने की कोशिश करते हुए कहा, “क्या है रे, धनी?” नहीं, नहीं, यह मांजी की हंसी हो ही नहीं सकती। आखिर हो क्या गया है? कैसी मुश्किल है, कुछ पूछा भी नहीं जा सकता है न।

मांजी ने कहा, “बैठो ! क्या काफी देर से आये हो?"

बेंच पर धीरे से बैठकर उसने कहा, “नहीं, मांजी, अभी-अभी चला आ रहा हूं । मालिक वगैरह नहीं हैं क्या?”

मांजी रेलिंग पकड़े उसी की तरह आंगन को देख रही थीं, कुछ बोलीं नहीं । उसने फिर पुकारा - "मांजी!”

"ऐं ! हैं - हैं धनी, मालिक हैं ! क्या किसी जरूरत से आये थे?"

उसे बड़ा अचरज हुआ। मांजी कैसी हो रही हैं ! क्या हो गया है इनको? मुश्किल है, कुछ पूछा भी तो नहीं जा सकता। उसने कहा - "हां, कुछ जरूरत तो थी।” अचानक उसे बच्चों की याद आ गयी। अचरज की बात है, अब तक उसे उनकी याद ही नहीं थी । तुरंत उसने पूछा- “मुन्ने लोग कहां हैं, मांजी? कोई दिखायी नहीं पड़ता।"

मांजी ने कहा- “कल मामी आयी थी। उसके साथ ही चले गये। तुम तामोल खाओ, वह बटा में है, काटकर खाओ। मैं जाकर मालिक से कहती हूं।"

वह जिस बेंच पर बैठा था, उसी पर रखे बटा की तरफ एक बार देखकर वह धीरे-धीरे ऊपर चढ़ गयीं। तामोल काटते-काटते वह सोचने लगा- 'मुन्ने आदि भला कल ही से दूसरों के यहां कैसे रह सकते हैं ? रह भी सकते हैं, बड़े हो गये हैं, और फिर मामी का मकान कहीं ज्यादा दूर थोड़ा ही है ? वहीं तो है।'

तामोल चबाकर खाना लगभग खत्म हो गया था, फिर भी ऊपर से कोई नहीं आया। इसके पहले तो मौजादारमालिक खुद उसे ऊपर बुला ले जाते या बड़े बाबू नीचे आकर आवाज देते । आज तो मांजी भी नहीं लौटीं। भला रूपे कहां अंतर्धान हो गयी? इतनी देर तक तो बर्तन मांजती नहीं रह सकती । लकड़ी-घर में भी तो कुछ नहीं है करने को । बाड़ी में तो उसकी कोई जरूरत ही नहीं। या कहीं अनन्नास ढूंढती घूम रही है?

ऊपर लकड़ी के फर्श पर खड़ाऊं की गंभीर आवाज सुनकर धनीराम मानो उछल पड़ा।

मौजादार मालिक हैं । लंबे-चौड़े, काफी खूबसूरत हैं वे । आंखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा । शरीर पर दो जेबों वाली लांग-क्लाथ की कमीज, झकाझक सफेद । हाथ में बड़ी टेढ़ी-सी 'राइड' बेंत की छड़ी। सीढ़ी के चार धाप नीचे उतरकर वे ठहर गये। बिलकुल स्थिर दृष्टि से उसे देखते रहे । नीचे दूर से ही धनीराम ने झुककर उन्हें प्रणाम किया। आज ही उसने पहले-पहल प्रणाम किया है। पहले आने पर घर के पुराने नौकर के रूप में बिना प्रणाम किये भी चल जाता था । मगर आज तो यह मकान मानो कुछ डरावना-डरावना-सा लग रहा है। मांजी न जाने कैसे-कैसे कर रही हैं। बड़े बाबू के डर से रूपे भी नहीं आ रही है । इसके अलावा वह लगान-माफी के लिए आया है।

मौजादार मालिक ने कहा- “ऊपर आ जा।" वे फिरऊपर चले गये । खड़ाऊं की गंभीर आवाज उसके कानों में पड़ी । के अपने बैठक के कमरे में गये हैं। जरूरी बातें वे वहीं किया करते हैं। वह डरता हुआ आगे बढ़ गया। मौजादार मालिक गंभीर आदमी हैं जरूर, मगर आज की तरह कम बातचीत उन्होंने पहले कभी नहीं की है । सीढ़ी पर पैर रखने के साथ ही एक बार उसने मुड़कर देखा । वह बिलकुल पसीने-पसीने हो गया था। नहीं, कोई भी तो देख नहीं रहा है, यहां तक कि रूपे भी नहीं।

सीढ़ी पर कदम रखता वह ऊपर पहुंच गया। बड़े बाबू का कमरा तो बंद है । मांजी भला कहां जाकर छिप गयीं? बड़े बाबू क्या घर पर ही हैं ? मुन्ने आदि के बगैर घर अच्छा नहीं लगता है । उन्हें प्यार कर मन को हल्का कर लिया जा सकता था।

मौजादार मालिक के बैठने के कमरे के दरवाजे के सामने जाकर वह खड़ा हो गया। वे एक बेंत की कुर्सी पर बैठे बाहर की ओर ही देख रहे थे । राइड बेंत की लाठी उनकी गोद में आड़ी पड़ी थी। उसने उधर से आवाज लगायी- “बाबू जी !"

उन्होंने उसकी ओर मुड़कर देखा, फिर बाहर की ओर देखने लगे। मिनट भर कोई बात नहीं हुई। धनीराम बड़े धीरज से रुका रहा।

"तू आयेगा, मैं सोच ही रहा था। किसलिए आया, बता।"

उसे पहले कुछ झिझक-सी लगी। पर धीरे-धीरे सारी बातें कह गया। बड़े हिसाबी हैं मौजादार मालिक । क्या पता क्या कह डालें? उसे डर-सा लगने लगा। उसकी बात खत्म होने पर दोनों फिर मौन हो गये। कुछ क्षण बाद उसकी तरफ बिना देखे ही मालिक बोले“बहन इतने दिन से बीमार है, डाक्टर को दिखाया या नहीं?”

दोनों हाथ मलते हुए उसने कहा- “रुपये कुछ रखे थे, उन्हें खर्च करडाक्टरको दिखाया। कुछ आराम हुआ है। मगर कुछ और दवा खाने को कहा है। अगहनी धान इस बार बाढ़ में बह जायेगा, सोचा ही न था। नहीं तो लगान की रकम रखे रहता।"

उन्होंने कहा- “कागज-पेंसिल ले आ।”

वह तुरंत लपककर कमर के दूसरे सिरे पर पहुंच गया। कोने में रखी मेज पर से कागज-पेंसिल ले आया, कागज के नीचे रखने के लिए एक बड़ी किताब भी लेता आया । वे लिखने लगे। वह जरा हटकर खड़ा हो गया। किसी के लिखते समय झांकते नहीं रहना चाहिए । मगर मालिक ने भला चिट्ठी क्यों लिखी? और समय तो वे बड़े बाबू को जो कहना होता मुंह से ही कह देते थे। उसके मन में आया - वह आने वाला है, ऐसा जानते हुए भी, मौजादार बाबू ने यह किसलिए पूछा कि तू क्यों आया? पता नहीं, विधाता के मन में क्या है ?

लिखे पर्चे को मोड़कर उन्होंने कहा- “यह पर्चा बड़े को दे दे।” उसने पर्चा ले लिया, कागज-पेंसिल यथा स्थान रख दी।

मौजादार ने कहा- “जाते समय फिर मुझसे मिल लेना, धनी !"

"ठीक है, बाबू जी !”

मगर बड़े बाबू से मिले कैसे? दरवाजा बंद किये अंदर घुसे हैं । ओ, दरवाजा तो खुला है, अजीब बात है ! मौजादार बाबू जी का पर्चा जा रहा है, क्या इसी से खुल गया दरवाजा? मोटा केले-पत्ते के रंग का पर्दा हिल रहा है । जरूर दरवाजा अभी-अभी खुला है । पर्दा उठा कर वह चला गया।

राम राम ! राम राम ! उस बड़े से पलंग के सिरे पर बड़े बाबू सिर झुकाये बैठे हैं । धनीराम के घुसते ही सिर उठाकर उसे देखा । बाल बिखरे-बिखरे ! चार-छह दिन से हजामत नहीं बनायी है । दोनों आंखों के चारों ओर काला धब्बा पड़ गया है । झीने बैंगनी खद्दर की पंजाबी कमीज के बटन नहीं लगाये हैं। धोती मैली-सी ! गुस्सैल प्रतापी बड़े बाबू का भला ऐसा चेहरा? राम राम ! राम राम ! जिसे बड़े बाबू से वह हमेशा डरता रहा है, आज उससे बड़ी संवेदना हो आयी ! आह बेचारा !

बड़े बाबू ने कहा - "आ जा, धनी !

ओह, बड़े बाबू की आवाज इतनी कोमल ! भला होगा क्यों नहीं? मांजी तो साक्षात देवी हैं, लक्ष्मी ! पर्चे को आगे बढ़ाकर उसने पूछा - "बड़े बाबू, तबीयत क्या कुछ गड़बड़ है?"

"नहीं, वैसा तो कुछ नहीं है । तू बैठ।”

क्या वह बैठे ? बड़े बाबू उसे अपने कमरे में बैठने को कह रहे हैं? अचरज की बात है। बड़े बाबू ने पेटी के पास पड़े स्टूल की ओर इशारा कर दिया। परंतु वह बैठा नहीं। पहले भी कभी नहीं बैठा है। बड़े बाबू ने पर्चा पढ़ा। कमरा कैसा अंधेरा-अंधेरा-सा लग रहा है ! खिड़कियों के पर्दे बिलकुल बराबर कर फैला दिये गये हैं। सिर्फ एक ही पर्दा सिकोड़ा हुआ है । बड़े बाबू का चेहरा काला पड़ गया है।

पर्चा पढ़कर उन्होंने सिर उठाया। चारों ओर के कालेपन के बीच सिर्फ उनकी आंखें लाल हो रही थीं। वह उनकी आंखों की ओर एकटक देखता रहा। बड़े बाबू ने आंखें हटा ली। बोले- “बैठ जा न, धनी !”

स्टूल को जरा-सा हटाकर आखिर वह बैठ गया। बड़े बाबू ने फिर उसकी आंखों की ओर देखा । फिर पर्चा पढ़ा । क्या मौजादार बाबू जी ने लगान-माफी के बारे में कुछ नहीं लिखा? फिर लिखा क्या है उन्होंने? अंत में उसने अपनी बातें फिर बड़े बाबू के सामने बतायीं । अगहनी धान, बाढ़, आहू धान, बहन, मणि, टुनी सबके बारे में।

आखिर बड़े बाबू ने कहा- “धनी, बहन का इलाज न करवाने पर बुरा होगा । लगता है बीमारी बुरी है । डाक्टर को दिखलाता रह । आजकल बीमारियों का कोई ठिकाना? मजाक नहीं है । लगान के बारे में भी सोचना पड़ेगा।"

धनीराम गंभीर होकर बैठा रहा, मानो सिर पर आसमान टूटा हो । मौजादार बाबू जी ने क्या इतना कुछ लिख दिया है ? नहीं, उन्होंने जरूर इतनी सारी बातें नहीं लिखी हैं । तो भी बड़े बाबू इतनी बातें कैसे कह सके हैं। भगवान जाने, कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। धीरे-धीरे शाम ढलती आ रही है । बाहर धूप काफी तिरछी पड़ रही है, धीरे-धीरे अंधेरा होने वाला है। बड़े बाबू एक खिड़की के पास पहुंचे। वहीं से कहा- “धनी, क्या पिताजी ने तुझसे रूपे के बारे में कुछ कहा था?”

“रूपे के बारे में? नहीं, नहीं, कुछ भी तो नहीं बताया, बड़े बाबू !”

हरि हरि ! रूप के बारे में ? वह सोचने लगा- लगान-माफी के बीच फिर रूपे कहां से आ गयी? वह तो बड़े बाबू के डर के मारे उसके सामने से ही भाग गयी।

बड़े बाबू ने कहा - "सुन धनी, तू हमारा उद्धार कर । तेरे बगैर और कोई चारा नहीं है। लगान के लिए तुझे सोचने की जरूरत नहीं । तुझे कोई डर नहीं । बहन के इलाज के लिए दो सौ रुपये ले जा । तुझे कुछ भी सोचने की जरूरत नहीं।"

बिलकुल नयी बात ! बड़े बाबू की जबान से ऐसी बात पहली बार उसके कानों में पड़ी थी। विश्वास तो होता नहीं, फिर भी विश्वास किये बिना भी तो चारा नहीं है । बड़े लोगों का मन ठहरा । बड़े बाबू ने कहा - "तू रूपे को ले जा। उसे चार महीने चढ़े हैं।"

वह स्टूल पर से उछलकर खड़ा हो गया । रूपे को चारमहीने का पेट है ? ओह ! इसीलिए उस समय वह कुछ मोटी-मोटी-सी दीख पड़ी थी। इसलिए वह नौ-दो ग्यारह हो गयी थी। इसी कारण यह घर दोपहर को ही डरावना लगता है। इसी कारण बच्चे मामी के यहां हैं । इसी कारण मांजी की आंखें इतनी डबडबाती हैं । इसी कारण मौजदार बाबू जी और बड़े बाबू की बातों में इतना मेल है। इसी कारण मौजादार उसके आने की बात सोच रहे थे !

उसकी ओर देखे बगैर बड़े बाबू ने कहा- “अगर तू नहीं मानेगा, तब तो धनी, हमारी मौत ही हो जायेगी। सिर्फ तू ही हमारा बेड़ा पार लगा सकता है । हमारा भी, रूपे का भी।”

बड़े बाबू ने पास आकर दस-दस के नोटों का एक बंडल उसके हाथ में थमा दिया। शायद दो सौ होंगे। उन नोटों के स्पर्श से उसे बड़ा अच्छा लगा। दो सौ रुपयों से बहुत कुछ हो जायेगा। बहन की बीमारी के लिए तो चालीस रुपये ही काफी होंगे। शेष रुपये बचे रहेंगे। मणि-टुनी को कपड़े दे सकेगा। मगररूपे? उसके चार महीने हुए हैं ! भला उसे कैसे रखेगा?

बड़े बाबू ने आवाज दी- “धनी !"

"मैं जरा बाबू जी के साथ बात कर आऊं।" धनीराम ने कहा और बाहर निकल आया।

दरवाजे के पास से बड़े बाबू का चेहरा ठीक से दिखायी नहीं पड़ता । मगर वह ऐसे खड़े हैं कि देखकर दुख होता है।

बाहर मांजी से आमना-सामना हो गया। वह सीढ़ी से ऊपर आ रही थीं। फटी-फटी आंखों से उन्होंने धनीराम को देखते हुए कहा - "तू यहां से चला न जाना, समझा, चाय बना रही हूं। नीचे कुछ देर बैठना ।”

ओह, बेचारी मांजी कितनी अच्छी हैं ! उनकी यह हालत देखकर बहुत बुरा लग रहा है । नहीं, नहीं, रूपे को ले ही जाना अच्छा रहेगा। जो होना है, सो होगा। मेरी अच्छी मांजी जो कहें वही करना है।

उसे बिलकुल पास खड़े देखकर मौजादार बाबूजी ने कहा, “धनी, रूपे को अगर तू ले जाये, तो उससे सिर्फ हमारा ही भला होगा, ऐसी बात नहीं, उसका अपना भी भला होगा। वह अच्छी तरह से रह सकेगी, हालांकि उसे कुछ होशियारी से चलना होगा । और तू अगर चाहे तो तेरे भी कम फायदे की बात न होगी। घर-परिवार का बोझ जब उठाया ही है तो फिर एक औरत के बगैर कैसे चल सकता है ? उसे ले जाने पर उसके साथ तेरा बेड़ा भी पारहो जायेगा।"

वह चुप रहा । रूपे को ले जाने पर मौजादार बाबू जी, बड़े बाबू, विलायत, नहीं, नहीं, अमेरिका में रहने वाला छोटा बाबू, मांजी और रूपे, सबका बेड़ा पार हो जायेगा। मौजादार बाबूजी ने कहा है कि उसका भी बेड़ा पार होगा। और सब तो तुलसी हैं । ठीक, यह काम करने पर सबकी भलाई होगी। उसे भी एक पत्नी मिल जायेगी।

वह जब नीचे की बेंच पर बैठकर मांजी के हाथ से चाय-मिठाई ले रहा था, तब बिलकुल शाम हो चुकी थी। ऊपर एक बत्ती जल रही थी। उसी पहले के पीतल के गिलास में ही आज भी मांजी ने उसे चाय दी है। मिठाई भी कागज में ही दी है। उसे ज्यादा आदर-मान नहीं दिखाया है, पहले जैसा ही बर्ताव किया है । मांजी को वह बड़े सम्मान की नजर से देखता है। वह किसी से कोई लाभ उठाने के लिए प्यार नहीं जतातीं। आज भी मौजादार और बड़े बाबू की तरह नहीं किया। गिलास धोकर उसने बरामदे में रख दिया। मांजी के हाथ से तामोल लेकर वह पूछना ही चाहता था कि रूपे कहां है? मगर अचानक उसकी नजर रूपे पर जा पड़ी। एक गठरी लिये वह आंगन में एक ओर अंधेरे में खड़ी है। उसने मांजी से फिर नहीं पूछा। उसके साथ इस बारे में उन्होंने चर्चा ही नहीं की तो फिर जरूरत ही क्या है? इसके अलावा मांजी तो देवी ठहरी । बिलकुल तुलसी । उसने "मांजी अब चलता हूं” कहकर झट से मांजी के पैरों को छूकर प्रणाम किया और तुरंत तेजी से उतर गया। मांजी चौक-सी पड़ी। पर जबान से कुछ कह तो सकती नहीं थीं।

आंगन के अंधेरे में खडी रूपेश्वरी से उसने कहा- “चल रूपे !" उसके पीछे-पीछे वह उस ऊंचे फर्श के किनारे-किनारे चल पड़ी। धनी ने फिर कुछ न कहा, और न मुड़कर देखा। बाहरी दरवाजे के सामने एक बग्गी खड़ी थी । अंधेरे में खड़ा था बड़ा बाबू । बग्गी का दरवाजा खोलकर रूपे को चढ़ाकर उसने धनी को भी चढ़ने के लिए कहा । धनी ने सवार होकर दरवाजा बंदकर दिया। बड़े बाबू ने कोचवान से कहा- “जा!” कोचवान ने बग्गी चला दी । धनीराम बड़े बाबू को प्रणाम करना भी भूल गया। उस समय वह सोच रहा था- एक दिन मंदार पेड़ के नीचे पान इकट्ठा करते समय उसने मजाक में रूपे को चिढ़ाते हुए कहा था- "तुझे बग्गी पर चढ़ाकर भगा ले जाऊंगा।"

(कलपटुवा=केले के पौधे के छिलके का बना दोना, जिसे काम में लाने के बाद फेंक देते हैं)

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