कालजयी कथाकार जयकांतन : ह. बालासुब्रमण्यम

Kalajayi Kathakar Jayakanthan : H. Balasubramaniam

बीसवीं सदी के उतरार्द्ध में तमिल कथा-साहित्य के क्षितिज पर उज्ज्वल तारे के समान उदित दण्डपाणि जयकान्तन तमिल कहानी के पुरातन एवं नव युग को जोड़नेवाली श्रृंखला के रूप में युग-सन्धि पर खड़े हैं- ‘युगसन्धि’ शीर्षक से आपकी एक प्रसिद्ध कहानी भी है। प्रशस्त साहित्यकार प्रपंचन के शब्दों में, ‘‘जयकान्तन की साहित्य-साधना इतिहास में शिलालेख-सदृश स्थायी महत्त्व रखती है। उनकी यह साधना अनन्य-साधारण है, अपने आपमें एक आदर्श है। इसकी पृष्ठभूमि में है पिछले पाँच दशकों का संघर्षपूर्ण इतिहास, जिसके दौरान समूचा भारत आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक परिवर्तनों से गुजरा था और जिसके प्रत्येक चरण में देश का आम आदमी संक्रान्ति-काल से तालमेल बिठाने में असमर्थ होकर अपने को अलग-थलग महसूस करता था। ऐसी संकटपूर्ण हर घड़ी में अपनी लेखनी के माध्यम से आम आदमी को परिस्थितियों से जूझने का मनोबल प्रदान करने वाले गिने-चुने लेखकों में जयकान्तन अग्रणी है।’’
तमिल साहित्य-कोश में जयकान्तन के अवदान का सही मूल्यांकन करने के लिए तथा तमिल कहानीकारों में जयकान्तन के सही स्थान को निर्धारण करने के निमित्त तमिल कथा-साहित्य की विकास-यात्रा के इतिहास का परिचय पाना आवश्यक है।

हिन्दी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की भाँति तमिल साहित्य में सुब्रह्मण्य भारती (1882-1921) ने ‘निजभाषा-उन्नति’ के मूलमन्त्र के साथ नवजागरण का शंखनाद किया था। भारतेन्दु के समान ही भारती कविता, निबन्ध, गद्यकाव्य, पत्रकारिता, अनुवाद आदि साहित्य की प्रत्येक विधा के पुरोधा रहे। उनकी पहली कहानी ‘छठा भाग’ अछूतों के जीवन पर केन्द्रित है। विदेशी सत्ता से देश को स्वाधीन करने के संकल्प के साथ दलितों को उत्पीड़न से मुक्त करने का आह्वान इस कहानी में मुखरित है; फिर भी यह कहानी स्वयं उनके दावे के अनुसार कहानी के अभिलक्षणों पर खरी नहीं उतर पायी। इसके बाद तमिल कहानी की बागडोर भारती के ही साथी व. वे. सु. अय्यर के हाथों आयी। उनकी कहानी ‘अरशभरत्तिन् कदै’ (पीपलदादा की कथा) इस तथ्य का ज्वलन्त प्रमाण है कि अय्यर कहानी की निश्चित एवं विशिष्ट रूप-कल्पना के प्रति सचेत थे।

तीस और चालीस के दशक राष्ट्रीय चेतना और सृजनात्मक प्रतिभा की दृष्टि से तमिल साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में एक लघु नवजागरण कालके रूप में उभरे। इस युग में संगीत, नृत्य और साहित्य के क्षेत्र में सृजनात्मक प्रतिभा की धनी अनेक विभूतियों का प्रादुर्भाव हुआ। साहित्य के क्षेत्र में सिरमौर माने जानेवाले पुदुमैपित्तन (1906-1948) ने एक छोटे-से अरसे में सौ से अधिक कहानियाँ रच डालीं- कथ्य और शिल्प, मुहावरा और प्रवाह, तकनीक और शैली हर लिहाज से उत्कृष्ट कहानियाँ। साथ ही यह भी सच है कि पुदुमैपित्तन के सम्पूर्ण लेखन में कड़ुवाहट और निराशावाद का अन्त:स्वर सुनाई देता है।

इसी युग में कु. प. राजगोपालन ने नारी की वेदना को अपनी कहानियों में अंकित किया। न. पिच्चमूर्त्ति की कहानियों परिवार की चारदीवारियों में चित्रण है। ल. सा. रामामृतम की कहानियाँ परिवार की चारदीवारियों में सिमट जाती हैं। चिदम्बर सुब्रह्मण्यन ने जीवन के उदात्त एवं कोमल पक्षों पर प्रकाश डाला। सि. सु. चेल्लप्पा में किसी भी वातावरण के सूक्ष्म विवरण के साथ पुन: सृजन करने की दक्षता है। ‘मणिक्कोडी’ पत्रिका के माध्यम से अनेक कथाकारों की प्रेरक शक्ति रहे बी.एस. रामय्या स्वयं प्रतिभावान साहित्यकार थे। ति.जानकीरामन की कहानियों में एक सम्मोहक आकर्षण है। कल्कि की कहानियों में जनरंजकता के साथ हास्य का पुट है। कु अलगिरि सामी में घिसी-पिटी और मामूली बातों को सीधी सरल भाषा में वर्णित करने की अद्भुत क्षमता है। जयकान्तन की विशेषता यह है कि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती कथाकारों की खूबियों को आत्मसात् करते हुए उन्हें परिष्कृत ढंग से प्रस्तुत करने में कामयाबी हासिल की है।

जयकान्तन के पचास के दशक में, जब तमिल कहानी के प्रांगण में पदार्पण किया, साहित्य-जगत् संकटपूर्ण घड़ी में गुजर रहा था। विशाल पाठक-वर्ग का दावा करनेवाली भीमकाय पत्रिकाओं का साम्राज्य स्थापित हो गया और सर्जनात्मक प्रतिभाएँ इस कुहरे से आच्छादित हो गयीं। ये व्यवसायिक पत्रिकाएँ तथा कथित जनरुचि की आड़ लेते हुए विज्ञापनबाजी की होड़ में सस्ते मनोरंजन की सामग्री छापने लगीं। फलत: सच्चे साहित्यकारों ने इन पत्रों को छोड़कर लघु-पत्रिकाओं में लिखना पसन्द किया। यह अलग बात है कि उन्हें अपने लेखन के बदले में कुछ भी नहीं मिला। अगले दशक तक आते-आते व्यावसायिक पत्रों ने लघु-पत्रिकाओं को नेस्तनाबूत कर दिया। सृजनात्मक लेखन के क्षेत्र में एक तरह की स्थिरता आ गयी।
ऐसी विषम परिस्थिति में उल्टी धारा में तैरते हुए जिन लेखकों ने कथा-साहित्य में अपनी पहचान बनायी, उनमें अखिलन और जयकान्तन के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। अखिलन के लेखन में रोमांस लिये हुए आदर्शवाद का पलड़ा भारी दिखता है जबकि जयकान्तन की कहानियों में कथानकों की विविधता, समस्याओं का यथार्थ चित्रण और प्रस्तुतीकरण की तकनीक नयी बुलन्दियाँ छू रही हैं। अखिलन और जयकान्तन में एक समानता यह पायी जाती है कि दोनों ने व्यावसायिक पत्रिकाओं में लिखते हुए कभी भी अपने आत्मसम्मान के साथ समझौता नहीं किया। जयकान्तन इस विषय में एक कदम आगे ही रहे। जिन व्यावसायिक पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ छपती थीं, मंच पर खड़े होकर उनके विरुद्ध सात्त्विक रोष से गर्जन करते थे। वामपन्थी विचारधारा की पत्रिका में जिस समस्या पर लिखते, उसी को और अधिक तीखे शब्दों में व्यावसायिक पत्र में लिखने का साहस उनमें है।

तमिल कथा-साहित्य में जयकान्तन के वर्चस्व के नैरन्तर्य को समझने के लिए उनके परवर्ती युग के इतिहास की चर्चा आवश्यक है। सुन्दर रामस्वामी (जन्म 1931) जयकान्तन के समकालीन हैं। समीक्षक वेंकट स्वामिनाथन के शब्दों में, ‘‘दोनों ही कथाकार स्वाध्याय के धनी थे और प्रारम्भिक लेखन में वामपन्थी विचारधारा से प्रभावित थे। अब वामपन्थी सिद्धान्त के साथ उनकी पहचान नहीं की जाती, ऐसे में उनकी समानता यहीं समाप्त हो जाती है। सुन्दर रामस्वामी की कृतियाँ स्पृहणीय हास्य के साथ अधिक परिष्कृत हैं; किन्तु वे कभी-कभार ही लिखते हैं। जयकान्तन मुखर, गम्भीर और आक्रामक तेवर के लेखक हैं जो प्रचुर मात्रा में लिखते हैं। साठ-सत्तर के दशकों में जयकान्तन तमिल लेखकों में सव्यसाची माने जाते थे। उनकी भाषा सशक्त है और चयनित विषय मुखर साहसिकता से ओतप्रोत।’’

तीस के दशक में मुखरित दो सृजनात्मक स्वर पचास के दशक में आलोचक स्वर बनने को बाध्य हुए। ये स्वर क.ना. सुब्रह्मण्यम और सि.सु. चेल्लप्पा थे। चेल्लप्पा प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझते हुए अपनी लघु-पत्रिका ‘एष़ुन्तु’ (1959-1970) के माध्यम से सशक्त पाठक-मण्डल का सृजन करने में सफल रहे। साठ के दशक के अन्त तक ‘एष़ुन्तु’ द्वारा दिखाये मार्ग का अनुसरण करते हुए लघु-पत्रिकाओं का एक आन्दोलन-सा शुरू हो गया। इन पत्रिकाओं के पन्नों से साठोत्तर दशक से लेकर बीसियों कहानी-लेखक उभरे, जो तीस-चालीस के दशकों के लेखकों के उत्तराधिकारी बने। इनमें उल्लेखनीय नाम हैं- प्रपंचन, कि. राजनारायणन, अशोक मित्रन, एन.मुत्तुस्वामी, चार्वाकन, सुजाता, पूमणि, पावण्णन, दिलीप कुमार, सा.कन्दस्वामी, इन्दिरा पार्थसारथी, वण्ण निलवन, तिलकवती, नांजिल नाडन, वण्ण दासन आदि। इन सभी को रूप और तकनीक विरासत में मिल गयी, जिसे अपने ढंग से विकसित करना मात्र इनका काम था।
अस्सी और नब्बे के दशकों में पहुँचते-पहुँचते प्रतिभा-सम्पन्न रचनाकारों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई। इस अवधि में रचित साहित्य में तदनुरूप गुणात्मक श्रेष्ठता परिलक्षित होती है। तमिल साहित्य की पूर्ववर्ती दुनिया ब्राह्मणों और उनके निचले स्तर के उच्च वर्ण के हिन्दुओं की थी। इसके विपरीत साक्षर निचले तबकों में से एक पीढ़ी छोड़कर अगली पीढ़ी से आये लेखकों ने अपने जीवन के अनुभवों और दृष्टिकोण से वर्तमान तमिल लेखन को विशाल अनुभव-विश्व से परिचित कराया है; ऐसे रंग-वैविध्य एवं रोष-आक्रोश के तेवर दिखलाये हैं जो अभूतपूर्व हैं।

इस तरह बदलते युग के साथ युगधर्म बदलता गया और लेखकों की नयी-नयी पीढ़ियाँ अखाड़े में आती रहीं; किन्तु एक व्यक्तित्व जो अपनी निजी इयत्ता के बलबूते पर ध्रुवतारे के समान कथा-साहित्य के आकाश में अडिग रहा-वह है कालजयी कथाकार जयकान्तन का व्यक्तित्व। प्रपंचन कहते हैं-तेरह साल के किशोर वय में ही वामपन्थी शिविर में दीक्षित जयकान्तन ने मानवोत्थान के निमित्त जिस आदर्श पद को चुना था, उसमें इतने दृढ़ रहे कि आँधी-तूफानों के बीच भी उन्होंने कभी अपने लक्ष्यों और आदर्शों को तिलांजलि नहीं दी; कठिन-से-कठिन परिस्थितियों में भी समझौता किये बिना पाँच दशकों से निरन्तर अपना धर्मयुद्ध लड़ते आ रहे हैं। मानवता की विजय पर उनकी अडिग आस्था है। अपनी इस अनवरत लड़ाई के दौरान वे अनेक बार घायल भी हुए। लेकिन इस मुहिम के चलते उन्होंने नकली, मुखौटे हटाकर तथाकथित अनेक महारथियों को बेनकाब किया है।

जयकान्तन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपने को आम आदमी से विशिष्ट नहीं मानते। उनके पैर सदा ही धरती पर जमें होते हैं। धूल-मिट्टी के ऊबड़-खाबड़ कच्चे रास्तों पर चलकर, झोपड़पट्टियों में जीने वाले लोगों के सुख-दु:ख में शरीक होते हुए वे उनकी समस्याओं की तह तक पहुँचते हैं और अपनी रचनाओं में उनका समाधान ढूँढ़ते हैं। अपनी कहानियों और उपन्यासों में जयकान्तन ने हमेशा ‘दलित’ और शोषित जन की वकालत की।
जयकान्तन की एक विशेषता यह है कि उन्होंने अपने साहित्य में सदा ही नारी का सम्मानपूर्वक चित्रण किया है। अपनी कहानियों के विषय में जयकान्तन का कथन है-मेरी कहानियाँ खाली समय बिताने या समय नष्ट करने का साधन नहीं हैं। उनका यह कथन सौ-फीसदी सत्य है। उनकी कहानियाँ मात्र मनोविनोद नहीं करतीं, पाठक के हृदय में उथल-पुथल मचाती हैं और उसे सोचने के लिए मजबूर करती हैं।

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