Kalidas Ki Kavita (Hindi Nibandh) : Munshi Premchand

कालिदास की कविता (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद

यों तो संस्कृत साहित्य की आज तक थाह नहीं मिली। एक सागर है कि जितना डूबो उतना ही गहरा मालूम होता है। मगर तीन कवि बहुत प्रसिद्ध हैं – वाल्मीकि, व्यास और कालिदास। इनकी कृतियाँ एक-एक युग का संपूर्ण इतिहास हैं और यही उनकी ख्याति का आधार है। वाल्मीकि सबसे पुराने थे। उनकी कविता में कर्त्तव्य और सच्चाई का रंग प्रधान है। व्यास, जो उनके बाद हुए, अध्यात्म और भक्ति की ओर झुके और कालिदास ने सौंदर्य और प्रेम को अपना क्षेत्र बनाया। रामायण वाल्मीकि की और महाभारत व्यास की लोकप्रिय पुस्तकें है और ये दोनों हिन्दू धर्म का अंग बन गई हैं। मगर कालिदास को हम कुछ भूल-सा गए थे और अगर अंग्रेजी विद्वानों और लेखकों ने हमारा मार्ग-दर्शन न किया होता तो हम शायद अब तक इस अमर कृति को गुमनामी के कोने में पड़ा रहने देते। कालिदास की इस वक्त जो कुछ चर्चा है वह अंग्रेजी शिक्षा की देन है। कई शताब्दियों के बाद कालिदास का सितारा चमका है और आज उसके जीवन, युग और कृतियों पर अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं में बहुत खोज और विद्वत्तापूर्ण लेख लिखे जा रहे हैं। हिन्दुस्तान और यूरोप में एक से उत्साह के साथ उसके संबंध में खोजबीन की जा रही है, यद्यपि अभी तक प्रामाणिक रूप से उसके जीवन के संबंध में सामग्री प्राप्त नहीं हुई।

कालिदास की कविता संक्षेप में कोमल भावनाओं और अलंकृत कल्पनाओं की कविता है। पुराने कवियों की कविता में सादगी और सहजता का रंग विशेष होता है, उपमाएँ और रूपक सर्वसुलभ, भावनाएँ सच्ची मगर सादा, वर्णन शैली सरल। और यही कारण है कि साधारण लोगों में पुराने कवियों को जो लोकप्रियता प्राप्त होती है उस पर बाद के कवि सदा ईर्ष्या किया करते हैं क्योंकि उनकी कविता, जिसे काव्य-रुचि की आवश्यकताएँ और युग की परिस्थितियाँ रंगीन, सूक्ष्म और उलझा हुआ बना देती हैं, साधारण लोगों की समझ से बाहर होती है। मगर बाद के कवियों में अनुकरण, कृत्रिमता और विषयों की दरिद्रता की जो सर्वसामान्य दुर्बलता पाई जाती है कालिदास की कविता उससे बिल्कुल अछूती है। रंगीनी और सूक्ष्मता के साथ उनकी कविता में वही सरलता, वही विषयों की नवीनता और वही कल्पनाओं की बाढ़ मौजूद है जो प्राचीन कवियों की कविता में पाई जा सकती है। उसकी प्रतिभा कविता की हर शैली का रंग में एक-सी समर्थ है। उसकी नाच-गाने की महफिलें निजामी को शर्मिन्दा कर देती हैं और लड़ाई के मैदान में फिरदौसी को कल्पना का घोड़ा भी ऐसी उड़ानें नहीं भरता। सिर्फ ‘मेघदूत’ में सौंदर्य और प्रेम, संयोग और वियोग की भावनाएं इतनी अधिक मात्रा में मिलती हैं कि उन पर किसी भाषा की कविता को गर्व हो सकता है। उसकी एक एक कल्पना पर काव्यमर्मज्ञ चकित रह जाते हैं। पहले दिल पर एक नर्म असर होता है और फिर फौरन भावों की सूक्ष्मता, विचारों की विविधता और वर्णन के सौंदर्य को देखकर आश्चर्य होने लगता है। हमारे उर्दू के प्रेमियों ने प्रातः समीर को दूत बनाया। मीर ने सबसे पहले ये सेवा प्रातः समीर को सौंपी और दाग को भी इससे अधिक गतिशील और वाणी-निरपेक्ष कोई दूत दिखाई न पड़ा। दो शताब्दियों तक प्रातः समीर ने यह सेवा की और अब भी उसका गला न छूटा। मगर कालिदास ने एक नया दूत ढूँढ़ निकाला। वह मेघ को अपनी व्यथा की कहानी सुनाता है। ऐसी ही अछूती बातों से उसकी कविता भरपूर है। संस्कृत कवियों का यह एक विशेष गुण है कि वे अपने काव्य में प्राकृतिक दृश्यों की खूब चाशनी देते हैं। उनकी कवि-कल्पनाएँ सदाबहार फूलों और पत्तियों से सजी हुई नजर आती हैं। कालिदास में यह गुण अपने चरम उत्कर्ष पर पहुँच गया है। फूल-पत्तियों का जिस खूबसूरती और अछूतेपन से उसने प्रयोग किया है वह संस्कृत में भी किसी दूसरे कवि को सुलभ नहीं हुआ। उसकी उपमाएँ नई-नई कोंपलें हैं और रूपक महकते हुए रंग-बिरंगे फूल। यह ठीक है कि उर्दू और फारसी के क वियों ने बेल-बूटों का इस्तेमाल किया है मगर उनके फूल-पत्ते मुरझाए हुए, बेरंग और बेमजा हैं। उनकी कल्पना की उड़ानें उन्हें आसमान पर उड़ा ले गईं और वहाँ जोहल व अतारिद, जोहरा व मुश्तरी जैसे नक्षत्रों से उनका परिचय करा दिया, यहाँ तक कि अब किसी फारसी कसीदे को समझने के लिए ज्योतिष और अंतरिक्ष-विज्ञान का जानना जरूरी है। संस्कृत कविता इतने ऊँचे न उड़ सकी मगर उसने इसी दुनिया की हर चीज को खूब गौर से देखा-भाला और उसका अध्ययन किया। वह किसी मीनार की तरह ऊँची नहीं बल्कि एक हरे-भरे मैदान की तरह फैली हुई है जिसमे हिरन किलोलें करते हैं, रंग-बिरगे पंछी चहचहाते हैं, हरियाली लहलहाती है और दर्पन-जैसे पानी के सोते बहते हैं। मतलब यह कि संस्कृत कविता को तीनों लोकों से समान रुचि है। वह जिस दुनिया में पैदा हुई है उसी दुनिया की हर चीज से परिचित है और यह सिर्फ शकुन्तला नाटक का पहला पार्ट पढ़ने से इस खूबी के साथ प्रकट हो जाता है जिसे बयान नहीं किया जा सकता। हिरन और भौंरा, माधवी,और केतकी, कदंब और नीम, ये सब हमारे सामने आते हैं, बेजान चीजों की तरह नहीं, कवि ने उनमें एक जान डाल दी है, उन सब में प्रकृति की संवेदना का समान अंश है। इसी सीन को पढ़कर प्रसिद्ध कवि गेटे विभोर हो गया था, और वह भी केवल अंग्रेजी अनुवाद के अध्ययन से। और अब इस बात को सिद्ध करने के लिए ज्यादा दलीलों की जरूरत नहीं है कि वह नशे का सा असर जो संस्कृत कविता हमारे दिलों पर पैदा करती है, किसी दूसरी भाषा की कविता के सामर्थ्य से परे है, विशेषतया उर्दू कविता के जिसकी उपमा उन पौधों से दी जा सकती है जो अक्सर बागों में बनावटी जिंदगी बसर करते नजर आते हैं, मुरझाए हुए पत्ते, निर्जीव पीले रंग, सिमटी हुई शाखें, न फल न फूल। फारस का पौधा हिन्दुस्तान में लगाया गया, न वह जमीन न वह आब-हवा, न देखने से आँखों को ताजगी होती है न दिल को खुशी। जहाँ तक उपमाओं और दृश्य-चित्रण का संबंध है उर्दू कविता बड़े हद तक कृत्रिमता और अवास्तविकता की एक पिटारी है। संस्कृत कवियों के दृश्य और भावनाएं सब इसी धरती की हवा-पानी से बनी हैं और यही उनकी प्रभावोत्पादकता का रहस्य है। देखिए कालिदास वर्षा ऋतु में शहद की मक्खियों का शहद जमा करना किस नर्मी और खूबसूरती से दिखाता है –

तलाशे शहद में हैं मक्खियाँ सुबुक परवाज
मगर मिज़ाज में ये सादगी के हैं अंदाज
कि नाचते कहीं आते हैं जब नज़र ताऊस
फिजाये दश्त में फैलाये बाल-ओ-पर ताऊस
तराने गाती हुई जब करीब आती है
कंवल के फूलों के धोखे में बैठ जाती है।
महक रही है हवा केतकी के फूलों से
बसी हुई है सबा केतकी के फूलों से
हर एक रविश पे है जमघट परीजमालों का
अजब बनाव है फूलों के गहने वालों का
चमन में करती हुई सुब्हदम गुलअफशानी
लचक लचक के है पौदों को दे रही पानी
कहीं कदम के दरख्तों पर छा रही है बहार
हरे हरे किसी जानिब हैं नीम के अशजार

सरो, शमशाद और सनोबर के मुकाबले में कदम्ब और नीम और केतकी कैसे अपने जान पड़ते हैं।

कविता की इन खूबियों के अलावा कालिदास ने मानव चरित्र को भी बड़ी गहरी आँखों से देखा था। मानव-स्वभाव के उलट-फेर का उसे पूरा ज्ञान था। किन बातों से आदमी के दिल में कैसी भावनाएँ और विचार पैदा होते हैं वे उसने आश्चर्यजनक वास्तविकता के साथ दिखलाए हैं। उसके नाटक मानव चरित्र के चित्र हैं जिनके अंग-प्रत्यंग के संतुलन, रंगों की उपयुक्तता और चेहरे-मोहरे की सुघरता की तारीफ पूरी तरह नहीं की जा सकती। और इश्क की घातें और मुहब्बत के इशारे तो उसने ऐसी नजाकत के दिखाए हैं जो काव्य-रसिकों को मुग्ध कर देते हैं। इस रंग में कोई उसका प्रतिद्वंदी है न उसकी बराबरी का दावा करने वाला वह इस रंग का उस्ताद है, गोकि यह सच है कि कभी कभी उसका कलम अपनी शोखी में हद से आगे बढ़ गया है। क्योंकि वह स्वच्छंद स्वभाव का आदमी था। मगर इसमें कोई संदेह नही कि उसने दाम्पत्य ही को प्रेम की सबसे ऊँची कसौटी माना है। ‘मेघदूत’ में विरही यक्ष जिस प्रेमिका की याद में तड़पा है वह उसकी पत्नी थी। ‘ऋतुसंहार’ में भी जहाँ-तहाँ इसके संकेत हैं –

वो महवशें जो बदलती हैं करवटें शाब भर
रुला रही है लहू जिनको दूरिये शौहर
बरस रही है उदासी अब उनकी सूरत पर
जिगर की आग कयामत है इक कयामत पर

कालिदास आमतौर पर हिन्दुस्तान का शेक्सपियर कहा जाता है और इसमें तनिक भी अत्युक्ति नहीं। दुनिया में सिर्फ शेक्सपियर ही ऐसा कवि है जिसकी उससे तुलना को जा सकती है। दोनों नाटककार हैं, दोनों मानवहृदय के मर्मज्ञ। उनकी कल्पनाएँ उनकी बंदिशे बहुत जगहों पर लड़ गई हैं। एक ही कवि-मन प्रकृति को ओर से दोनों को मिला था। किसी चीज को जिस निगाह से शेक्सपियर देखता है उसी निगाह से कालिदास भी उसे देखता है। व्यथा और शोक, निराशा और प्रतिशोध, प्रेम और वियोग में आदमी के दिल में कैसी भावनाएँ लहरें मारती हैं, इसको जिस खूबी से शेक्सपियर ने दिखाया है, उसी रंगीनी के साथ कालिदास ने भी दिखाया है। शेक्सपियर के जितने कैरेक्टर हैं वह सब एक दूसरे से भिन्न हैं। हर एक में कोई न कोई अपनी विशेषता है। कालिदास के कैरेक्टरों की भी यही स्थिति है। शेक्सपियर के मैकबेथ, ओथेलो, रोमियो, जूलियट की तस्वीरों को कालिदास के दुष्यंत, शकुन्तला, प्रियंवदा की तस्वीरों के मुकाबले में रखने से साफ मालूम हो जाता है कि इन दोनों कवियों को मनुष्य की प्रकृति का कैसा ज्ञान था। शेक्सपियर और कालिदास में अगर कुछ अंतर है तो यह है कि शेक्सपियर को मानव-चरित्र के चमत्कार दिखाने में अधिक कौशल है और कालिदास को प्रकृति के चित्रण में। शेक्सपियर को मानव स्वभाव के भीतर जो पहुँच थी वही कालिदास को प्रकृति के चमत्कारों में थी। इसीलिए शेक्सपियर का साहित्य गंभीर है और कालिदास का रंगीन। शेक्सपियर जिस तरह अपने पहले और बाद के कवियों से बड़ा है उसी तरह कालिदास के साहित्य की रंगीनी और नर्मी संस्कृत में बेजोड़ है। कालिदास की कविताओं और नाटकों से प्रकट होता है कि वह काव्यशिल्प और पिंगल आदि के ज्ञान के अलावा विभिन्न शास्त्रों और कलाओं में भी सिद्ध थे। उनके साहित्य में जगह-जगह दार्शनिक विचार बिखरे पड़े हैं जिनसे सिद्ध होता है कि वह सांख्यदर्शन और योग पर अधिकार रखते थे। वह शिव के उपासक थे मगर उनका विचार वेदांत की ओर झुका हुआ था। आत्मा और परमात्मा, शरीर और प्राण, माया और संसार आदि पेचीदा आध्यात्मिक प्रश्नों पर उन्होंने अपने साहित्य में बड़ी स्वतंत्रता के साथ विचार किया है। ज्योतिष की इस युग में बड़ी चर्चा थी। उज्जैन इस विद्या का उन दिनों केन्द्र था। वराहमिहिर, जो बड़ा प्रसिद्ध ज्योतिषी हुआ है, कालिदास के मित्रों में था और इसमें अब कोई संदेह नहीं हो सकता कि कालिदास को इस विद्या का प्रकांड ज्ञान था। उन्होंने खुद ज्योतिषी पर एक मार्के की किताब लिखी है जो आज तक चलती है। उनका भौगोलिक ज्ञान भी बहुत विस्तृत था। उन्होंने हिन्दुस्तान के हर कोने में सफर किया था। मेघदूत में उनके भौगोलिक ज्ञान का काफी प्रमाण मिलता है। जहाँ कहीं समुद्री दृश्य चित्रित किए हैं उनसे यह सिद्ध होता है कि वह किसी आँखों-देखे दृश्य की तस्वीर खींच रहे हैं। प्रकृति-विज्ञान में भी उनकी दृष्टि गहरी और ठीक थी। ज्वार-भारा, तूफान, चन्द्र, और सूर्य-ग्रहण आदि प्रकृति के चमत्कारों के संबंध में उन्होंने जो चर्चा को है, उनसे मालूम होता है कि उनके बारे में उन्हें वही ज्ञान था जिस पर आज के वैज्ञानिक एकमत हैं। और राजनीति के तो वे जैसे एक सागर थे। ‘रघुवंश’ में शुरू से आखिर तक राजाओं ही का जिक्र है। इसमें सैंकडों ऐसे प्रसंग हैं जिनसे पता चलता है कि उन्हें राजनीति का पूरा ज्ञान था। राजा किसे कहते हैं? उसका क्या धर्म है? प्रजा के साथ उसका कैसा बर्ताव होना चाहिए? प्रजा के उस पर क्या अधिकार हैं? इन बातों को जैसा कुछ कालिदास समझते थे शायद आज बड़े-बड़े बादशाहों को भी वह ज्ञान न होगा। कहने का मतलब यह कि कालिदास एक अत्यंत गुणी व्यक्ति, सिद्धहस्त कवि और ज्ञान का सागर था। उसकी बुद्धि के विस्तार पर हमको आश्चर्य होता है। उपमाओं में दुनिया का कोई कवि उससे आँखें नहीं मिला सकता। उसकी उपमाएँ ऐसी उपयुक्त , ऐसी सटीक, ऐसी सजीव हैं कि अगर उन्हें श्लोक में से निकाल दीजिए तो श्लोक बिल्कुल नीरस और फीका हो जाता है। प्रकृति का कोई ऐसा चमत्कार नहीं जिससे उसने उपमा न ली हो। यह ठीक है कि हिन्दुस्तान को उसकी जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त है मगर सच तो यह है कि वह हिन्दुस्तान का नहीं बल्कि सारी दुनिया का कवि है। हिन्दुस्तानियों को उसके काव्य से जो आनंद प्राप्त हो सकता है वही किसी दूसरे देश के आदमी को हासिल हो सकता है। उसके लिए दुनिया कविता की एक पिटारी थी। जिस चीज पर निगाह डाली है उसे अपनी कविता का आभूषण बना लिया है। वेद, पुराण, इतिहास, दर्शन आदि विधायें जिन्हें कवि रूखा- सूखा समझते थे और जिनका कविता से कोई संबंध नहीं बतलाया जाता वह कालिदास की कविता के अहाते में आकर कुछ और ही रंग-रूप अख्तियार कर लेती है। पदार्थ जगत् को कविता के आभूषण से सजाने वाला, ठूँठ पेड़ों और वीरान खंडहरों में वह मजा पैदा करने बाला जो हरे- भरे पेड़ों और सजे हुए महलों से न मिल सके, ऐसा समर्थ कवि दुनिया में दूसरा नहीं पैदा हुआ और जब तक कविता के मर्मज्ञ और सौंदर्य-रसिक बाकी रहेंगे तब तक कालिदास का नाम कायम रहेगा। वह संस्कृत कविता का पूरनम का चाँद है और जिस व्यक्ति में कविता की जितनी ही रुचि और सच्ची परख है वह कालिदास की कविता से उतना ही आनंद उठा सकता है।

कालिदास की कृतियाँ, जिनका अब तक पता चला है, संख्या में सोलह हैं मगर उनकी ख्याति और लोकप्रियता जिन पुस्तकों पर आधारित है वे सात से ज्यादा नहीं, और इन सातों में कोई एक पुस्तक भी उसकी अमरता के लिए काफी है। इन सात तारों के चार अंग चार काव्य हैं – 1. रघुवंश, 2. कुमारसंभव, 3. मेघदूत, 4. ऋतुसंहार। और बाकी तीन वे नाटक हैं जिन्होंने कलाविदों को आश्चर्य में डाल दिया है – 1.शकुन्तला, 2. विक्रमोर्वशी, 3. मालविकाग्निमित्र। सभ्य संसार में इन पुस्तकों को जो कीर्ति मिली है वह शायद ही किसी दूसरे कवि को नसीब हुई हो। यरोप की अधिकांश भाषाओं में उनका अनुवाद हो जाना, उनकी लोकप्रियता का सशक्त प्रमाण है। हिन्दुस्तान की लगभग सब भाषाओं में भी उनके अनुवाद हो गए हैं। नाटकों की लोकप्रियता का हाल यह है कि वह यूरोप और अमरीका के थियेटरों में खेले जा चुके हैं और कालिदास की रचनाओं की थोड़ी-बहुत जानकारी रखना सभ्य कहलाने के लिए जरूरी हो गया है। आज हिन्दुस्तान के चित्रकार कालिदास के कैरेक्टरों और दृश्यों को खींचना अपनी कला का उत्कर्ष समझते हैं। राजा रवि वर्मा का चित्र ‘शकुन्तला-पत्र लेखन’ स्वयं सौंदर्य और प्रेम की एक दुनिया है, जहाँ प्रकृति ने वेदना के मधुर और मोहक साधन एकत्र कर दिए हैं। ऐसी ही कल्पनाओं और दृश्यों से कालिदास को कविता भरी हुई है। नाटकों में प्रथम दो का अनुवाद उर्दू भाषा में भी हो गया हैं। ‘शकुन्तला’ का अनुवाद स्वर्गीय राजा शिवप्रसाद ने किया था और ‘विक्रमोर्वशी’ का कुछ साल पहले मौलवी मोहम्मद अज़ीज़ मिर्जा साहब ने। ‘शकुन्तला’ का अनुवाद मूल संस्कृत से किया गया है और इसलिए मूल का रस कुछ बाकी है। ‘विक्रमोर्वशी’ शायद अंग्रेजी से उर्दू में आई है इस लिए मूल का आनंद उसमें न पैदा हो सका। तब भी काफी गनीमत है। मगर चारों काव्यों में से एक का अनुवाद भी उर्दू में अब तक नहीं हुआ। इस कमी की शिकायत मुसलमान साहित्यकारों से नहीं, मगर हिन्दू सज्जनों के लिए यह बड़ी लज्जा की बात है। कितने ही हिन्दू लोग हैं जिनमे कविता की रुचि है, जो गजलें और कसीदे लिखते हैं और गुल-ओ-बुलबुल के झगड़ों में सर खपाते हैं मगर इतना न हुआ कि संस्कृत कवियों की कविता से जाति और भाषा को लाभ पहुँचाएँ। उर्दू शेरोसुख़न का चर्चा ज्यादातर कायस्थों और कश्मीरियों में है और ये दोनों सम्प्रदाय अब तक आमतौर पर संस्कृत के अध्ययन से अलग-थलग हैं। मगर अब चूंकि संस्कृत की ओर रुझान होने लगा है इससे उम्मीद की जाती है कि शायद कुछ दिनों में हम रघुवंश, मेघदूत और कुमारसंभव को उर्दू भाषा में पढ़ सकें । रहा ‘ऋतुसंहार’ उसका अनुवाद उर्दू मिस्टर शाकिर की मदद से स्वर्गीय सुरूर साहब ने किया है और अधिकांश ऋतुओं की कविताएं ‘जमाना’ के पाठकों के सामने पेश हो चुकी हैं। हम लिख चुके हैं कि ‘ऋतुसंहार’ कालिदास के चार सर्वश्रेष्ठ काव्यों में से एक है। इसमें कवि ने हिन्दुस्तान की छ: ऋतुओं के दृश्य और उनके परिवर्तनों और उनसे पैदा होने वाली भावनाओं और विचारों को बहुत ही सुंदर ढंग से बयान किया है। चूंकि उर्दू-फारसी में तीन ही मौसम माने गए हैं इसलिए मुनासिब मालूम होता है कि इन छहों ऋतुओं को यहाँ स्पष्ट कर दिया जाएँ –

क्रमांक ऋतु का नाम हिन्दी महीने अंग्रेजी महीने

1. ग्रीष्म जेठ-असाढ़ जून-जुलाई
2. वर्षा सावन-भादों अगस्त-सितंबर
3. शरद कुआर-कातिक अक्टूबर-नवंबर
4. हेमन्त अगहन-पूस दिसंबर-जनवरी
5. शिशिर माघ-फागुन फरवरी-मार्च
6. बसंत चैत-वैशाख अप्रैल-मई

उर्दू-फारसी कवियों ने मौसमी भावनाओं को सिर्फ उसी हद तक अपने शेरों में दखल दिया है जहाँ तक कि बसंत और पतझड़ का संबंध है, यहाँ तक कि पतझड़ और बसंत भी केवल रूपक हैं। खुशी के दिनों और गम के दिनों के लिए। हाँ, काले बादलों को देखकर कभी कभी साकी की याद आ जाती है –

तुंद ओ पुरशोर सियह मस्त जे कोहसार आमद
साकिया मुज़दा के अब्र आमद ओ बिसियार आमद

हिन्दुस्तान में मौसमी भावनाएँ हमारे सामाजिक जीवन में दाखिल हो गई हैं। हमेशा से उनकी अभिव्यक्ति होती आई है। वर्षा ऋतु आई और घरों में झूले पड़ गए, सावन और मल्हार की तानें गूंजने लीं, लड़कियों ने हाथ-पाँव में मेहंदी रचाई, प्यार के दर्द भरे भाव ने दिलों को बेचैन करना शुरू किया, यहाँ तक कि गलियों और बाजारों में जहाँ-तहाँ इसकी आवाजें सुनाई देने लगीं। संस्कृत कवियों ने बसंत को ऋतुराज या मौसमों का राजा माना है। पेडों में नई नई कोंपलें निकलीं, आम की बौर की महक से हवा सुगंधित हो गई, खलिहानों में सुनहरी बालों के ढेर लग गए, कोयल आम की डाली पर बैठकर कूकने लगी, प्रेमीजनों को रोने की सूझी, उत्सुकता ने दिलों को गुदगुदाया, प्रेमिकाएँ अपना रूठना भूल गईं, बसंत की सुहानी पुकार कानों में आई –

आयी बंसत बहार बलम घर न आये सखी

कालिदास ने ऋतुओं के इन्हीं दृश्यों को अपनी चमत्कारिक लेखनी से अंकित किया है और इस खूबी से अंकित किया है कि हर एक मौसम का समां आँखों में फिर जाता है। खासतौर पर बसंत ऋतु का वर्णन ऐसा सरस, ऐसा यथार्थ और सुकुमार भावनाओं से ऐसा अलंकृत है कि उसकी तारीफ नहीं की जा सकती –

फूल खिलते हैं जो टेसू के बियाबानों में
जान पड़ जाती है उश्शाक के अरमानों में
आते हैं – पे आमों के इसी रुत में शजर
कोयल आती है इसी रुत में दरख्तों पे नजर
छेड़ती है लबे जू आके तराना अपना
सारे आलम को सुनाती है फसाना अपना
भौरे फूलों पे हैं सरमस्त मये जोशे बहार
झूमते हैं असरे बादे सबा में अशजार
चुटकियां लेती हैं रह रहके उमंगे दिल में
नशए शौक की उठती हैं तरंगें दिल में

कालिदास की अन्य कृतियों की तरह ‘ऋतुसंहार’ का अनुवाद भी योरप की अधिकांश भाषाओं में हो गया है। हिन्दी भाषा में लाला सीताराम साहब और राजकुमार बाबू देवकीनन्दन साहब ने उनका पद्यबद्ध अनुवाद किया है। कुछ समय हुआ बंगाल के प्रसिद्ध चित्रकार बाबू अवनीन्द्रनाथ ठाकुर ने ‘ऋतुसंहार’ के मौसमी दृश्यों की तस्वीरें खींची थीं जो बहुत पसंद की गईं। इनके अलावा बंबई के प्रसिद्ध चित्रकार मिस्टर धुरंधर ने भी ‘ऋतुसंहार’ से संबद्ध छः तस्वीरें खींची हैं जो देखने योग्य हैं। योरोपियन कलामर्मज्ञ इस छोटे से कितु मार्मिक काव्य को बड़ी प्रशंसा की आँखों से देखते हैं। जाना-माना इतिहासकार एलफिन्सटन कहता है –

‘भावनाओं को अंकित करने के साथ-साथ यह कवि उन तमाम स्थितियों का चित्र खींच देता है जो उन भावनाओं के प्रेरक हुए और दृश्यों की खूबियाँ और उनके आकर्षण ऐसे जादू-भरे शब्दों में बयान करता है कि वह आदमी भी जो इन पौधों और जानवरों से अपरिचित हो हिन्दुस्तानी दृश्य का खाका अपने दिल में कायम कर सकता है।’

प्राच्यविदों का शिरोमणि मोनियर विलियम्स लिखता है –

‘इस काव्य का एक-एक श्लोक किसी-न-किसी भारतीय दृश्य का एक संपूर्ण चित्र है।’

काव्य-मर्मज्ञों का विचार है कि ‘ऋतुसंहार’ कालिदास के यौवन-काल की कृति है और कई कारणों से इस विचार की पुष्टि होती है। यौवन-काल सौंदर्य और प्रेम और भोग-विलास का समय होता है। इस वक्त तक गम के कांटे पहलू में नहीं खटकते और दुनिया की कठोरताओं का अनुभव नहीं होता। नौजवान कवि की कविता निराशा और वेदना और शोक और विपत्ति के भावों से मुक्त होती है। कवि को मुहब्बत की दास्तान, मिलन की खुशिु यों और प्रेमिका की गुपचुप बातों से इतनी फुर्सत ही नहीं मिलती कि वह वेदना का राग गाए। जब दिल हँसता हो तो आँखें क्योंकर रोएं। ‘ऋतुसंहार’ शुरू से लेकर आखिर तक प्रेम के रस में डूबा हुआ है। अरमानों के दिन हैं, मुरादों की रातें। वह तेजी, वह जोश, वह बेतकल्लुफी , वह रंगीनी, वह ताजगी, वह चहल-पहल जो जवानी की खासियतें हैं इस कविता में शुरू से आखिर तक भरी हुई हैं। सुंदरियों की चर्चा से कवि का जी नहीं भरता। कहीं उनके गलों के गजरों का बयान है, कहीं उनकी मेहंदी- रची हथेलियों का। कवि ने हर एक मौसम को सुंदरियों की आँखों से देखा है। हर एक कल्पना, हर एक भाव यहाँ तक कि रूपक और अन्वय सुंदरियों के रूप से सजे हुए हैं। यह भी नौजवान कवि की एक ख़ासियत है कि उसे हर जगह औरत ही सूझती है। नौजवान कवि के दिल पर कोई जादू इतना असर नहीं करता जितना कि रूप का जादू। सुंदर स्त्री ही उसकी भावनाओं को उभारती है, सुंदर स्त्री उसकी आशाओं का आरंभ और उसकी उमंगों की सीमा और उसके आकर्षणों का स्रोत होती है। कहने का आशय यह कि ऋतुसंहार एक जवान कविता है, जवानी की खुशियों से चमकती हुई, जवानी की मुहब्बत से महकती हुई और जवानी की उम्मीदों से भरी हुई। हजरत ‘सुरूर’ के अलावा मौलवी अब्दुल हलीम साहब ‘शरर’ ने अपने रिसाले ‘दिलगुदाज’ में ‘ऋतुसंहार’ की तीन ऋतुओं का अनुवाद गद्य में किया है। जून, सन् 1914 के ‘दिलगुदाज’ में उन्होंने इस काव्य के बारे में इन शब्दों में अपना विचार व्यक्त किया है –

‘हिन्दुस्तान के शेक्सपियर कालिदास ने ऋतुसंहार के नाम से छः कविताएँ छः ऋतुओं के संबंध में लिखी हैं जिनमे खास हिन्दुस्तान की ये ऋतुएँ इस खूबी और मजे के साथ दिखाई हैं कि पढ़ने से मौसमी कैफियत की तस्वीरें आँखों में फिर जाती हैं... इन कविताओं में नई उपमाएँ, नई कल्पनाएँ और नई बंदिशें हैं जो इस लिटरेचर के लिए, जिसका जन्म हिन्दुस्तान में हुआ, अंग्रेजी और फारसी लिटरेचर की लेखन-शैली से ज्यादा उपयुक्त और प्रभावशाली हैं।’

मूल-काव्य में कालिदास की रंगीन-बयानी कहीं-कहीं हद से आगे बढ़ गई है। फल जब ज्यादा मीठा हो जाता है तो उसमे कीड़े पड़ जाते हैं। मगर अनुवादक ने इन स्थलों को, जैसा कि उसका नैतिक कर्त्तव्य था, नजर से ओझल कर दिया है। काश उर्दू के कवि मौलाना शरर की तरह समझते कि इन कविताओं की नई उपमाएँ, नई कल्पनाएँ, और नई बंदिशें उर्दू लिटरेचर के लिए अंग्रेजी और फारसी लिटरेचर की लेखन-शैली से अधिक उपयुक्त हैं तो आज उर्दू शायरी को इतने ताने न मिलते और उसे इतना बुरा-भला न कहा जाता। मगर मौलाना शरर ने इस काव्य का अनुवाद गद्य ही में लिखने पर संतोष किया, हालांकि यह जाहिर है कि कवि की कल्पनाएँ कविता में ही मजा देती हैं। गद्य की काया में आकर उनकी वही हालत हो जाती है जो मजेदार शराब की रूखे-सूखे वैरागियों के गिरोह में या किसी सुंदरी की नग्नता के परिधान में। बहरहाल कालिदास के विचारों को उर्दू पद्य में रूपांतरित करने का काम जवानी में ही सिधार जाने वाले सुरूर साहब के जिम्मे रहा और इसको उन्होंने जिस शानदार कामयाबी के साथ पूरा किया है उसकी तमाम उर्दू पब्लिक को कद्र करनी चाहिए। दरअसल शायर ने अनुवाद में मूल का रस पैदा कर दिया है। सरलता इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता है। संस्कृत में पेचीदा और जटिल भावों को पद्य में रूपांतरित करते समय सरलता का ध्यान रखना और उसमें कामयाब हो जाना कवि के कौशल और काव्य-शक्ति का प्रमाण है।

थे बरंगे दीदये उश्शाक जो चश्मे पुरआब
उड़ रही है खाक उनमें सूरते मौजे सराब
सत्हे गर्दू को समझ कर चश्मये आबे रवां
तक रहे हैं दीदये हसरत से होकर नीमजां

कितना सच्चा और नेचुरल खयाल है और कितनी खूबसूरती से कविता में बाँधा गया है –

धूप से हैं ऐसे घबराये हुए मारे सियाह
बाजुये ताऊस के साये में लेते हैं पनाह

मोर सांप का दुश्मन है मगर सख्त गर्मी ने उनके होश-हवास इस तरह उड़ा दिए हैं कि न सांप को डर रहा और न मोर को शिकार करने की ताब। उर्दू में ऐसे विचार देखने को नहीं मिलते और अनुवादक ने प्रशंसनीय सामर्थ्य से उन्हें पद्यबद्ध किया है –

धूप की शिद्दत से यूं आतश बजां ताऊस हैं
बाजुए ज़र्री नहीं हैं शोल-ए-फानूस हैं

कैसा अछूता और अनूठा खयाल हैं और जितने संक्षेप में इस भाव को व्यक्त किया गया है वह सोने में सुहागा है ।

ठुण्ड कुछ सूखे हुए आते हैं सहरा में नज़र
चोंच खोले जिसपे दम लेतीं हैं चिड़ियां बैठकर

कैसी तस्वीर खींच दी है। इसी का नाम शायरी है। शायर की निगाह किस कदर पैनी है। जंगली झरबेरियाँ और करोंदे के पेड़ भी उससे नहीं बचे जिनकी तरफ उर्दू शायर कभी भूलकर भी आँख नहीं उठाता –

अजब अंदाज से बेलों को हिलाती है नसीम
और करौंदे के दरख्तों को नचाती है नसीम
यूं हर एक फूल पर टेसू की बरसती है बहार
सुर्ख जैसे किसी तोते की नुकीली मिनकार
फूल शाखों पे हैं खोले हुए आगोश निशात
भौरे कुँजों में हैं सरमस्त मये जोशे निशात

इन उदाहरणों से पाठकों के सामने स्पष्ट हो गया होगा कि अनुवाद में कितने संक्षेप से काम लिया गया है और प्रवाह जो किसी मौलिक कविता में पाया जाता है यहाँ शुरू से आखिर तक मौजूद है। इस बात को अधिक स्पष्ट रूप से दिखाने के लिए कि कवि को किस हद तक अनुवाद में सफलता मिली है, उचित तो यह था कि संस्कृत के श्लोक और उनके अनुवाद आमने-सामने लिखे जाते मगर उर्दू में संस्कृत के समझने वाले बहुत कम हैं और इस बाल की खाल निकालने से कुछ हासिल नहीं। ग्रीष्म ऋतु की कविता को अनुवादक ने कुछ छोटा कर दिया है क्योंकि इसमें अधिकतर ऐसे जानवरों का जिक्र था जिनके नाम से भी उर्दू पाठक परिचित न होंगे। कालिदास की काव्य-सामर्थ्य का एक प्रमाण यह भी है कि वह एक ही विचार को बार-बार अलग-अलग ढंग से व्यक्त करता है और विचार की ताजगी में फर्क नहीं आता। उर्दू जैसी दरिद्र भाषा में शब्दों की यह बहुतायत कहाँ! ऐसे विचार चूंकि खूबसूरती से कविता में नहीं आ सकते थे इसलिए शायद पुनरावृत्ति के भय से अनुवादक ने नजर से ओझल कर दिया है और हमारे खयाल में यह विवशता उनकी नहीं बल्कि उर्दू भाषा की है।

[ ‘कालिदास की शायरी’ शीर्षक से उर्दू मासिक पत्रिका ‘जमाना’, अगस्त 1914 ]

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