कलाकार : फणीश्वरनाथ रेणु
Kalakar : Phanishwar Nath Renu
काशी के बंगाली टोले की एक गन्दी गली में वह कुछ दिनों से रहने लगा था।
दुबला पतला, लम्बा-सा युवक, जिसका गोरा रंग अब उतर रहा था, आँखों के नीचे की हड़डियाँ बाहर निकल रही थीं और चप्पल के फीते टूटे जा रहे थे।
गली में कदम रखते ही दुकानदारों की आँखें उस पर बरबस अटक जाती थीं और कविराज अमूल्य भूषण अपनी दुकान में बैठे दोस्तों से, “गुप्त यौन-व्याधियों को राष्ट्रीय प्रश्न बनाने! पर बहस करने लग जाते थे।
यों तो वह किसी से बोलता बहुत कम था, पर उसकी चाल-ढाल, रहन-सहन और वेश-भूषा को देखकर, उसके पड़ोसी किरायेदारों ने अपनी-अपनी बुद्धि और इच्छानुसार उसका नामकरण कर लिया था।
घर की बुढ़िया मालकिन उसे मास्टर समझती थी और “मास्टरजी” कहकर पुकारती भी थी। बुढ़िया की दृष्टि में वह सीधा-सादा और गरीब किरायेदार था।
इसीलिए “अकेला” रहते हुए भी, उसे बुढ़िया ने एक गन्दी कोठरी किराये पर दे दी थी।
दोतल्ले पर रहनेवाले मद्रासी सज्जन उसे 'मिस्टर' कहकर सम्बोधित करते थे। नीचे पाइप” खोलकर पानी बर्बाद करनेवाली औरतें जब मद्रासी सज्जन की बातें नहीं समझ सकती थीं, तब लाचार होकर उन्हें नीचे की कोठरी में रहनेवाले 'मिस्टर' की सहायता लेनी पड़ती थी।
मिस्टर धारा-प्रवाह अंग्रेजी समझकर सबको दुरुस्त कर देते थे।
विधवा युवती बंगालिन की “बंगला-मिश्रित हिन्दी प्रश्न का उत्तर शुद्ध बंगला में देकर वह उसका 'देशेर-लोक' हो गया था। किन्तु जिस दिन उस दुखिया ने उससे, देश में रहनेवाले भाई-भौजाई के पास पत्र लिख देने के लिए कहा था, पत्र का मजमून सुनकर पत्र-लेखक 'देशेर-लोक' की आँखें डबडबा गई थीं। उस दिन से वह बड़े प्यार से “दादा” कहने लगी थी।
हस्त-रेखाविद् वृद्ध पंडित पीताम्बर त्रिवेदी ने-हथेली देखने की कौन कहे-सिर्फ उसकी उम्र और सूरत देखकर जान लिया था कि वह “फटीचरः है। प्रतिदिन, नौ बजे खा-पीकर, चित्र-विचित्र हथेलियों की छाप, मेग्नीफाइंग ग्लास और पंजिका इत्यादि लेकर, दशाश्वमेध रोड के फुटपाथ पर बैठने जाने के पहले घंटों खड़ा होकर वे अपनी पत्नी को उस “फटीचर” की निगाह से बचे रहने की चेतावनी का उपदेश दे जाते थे।
इसी तरह घर-भर के लोग उसके सम्बन्ध में विभिन्न राय रखते थे। बाहर के लोगों में-चायवाला बूढ़ा पुलिन, उसे किसी भद्र परिवार का विपद्-ग्रस्त युवक, घाट होटल का मैनेजर “निराश-प्रेमी' और अब्दुल बीड़ीवाला खुफिया" समझता था। यह तो थी, उससे किसी-न-किसी तरह का सम्पर्क रखनेवालों की धारणाएँ।
उसी गन्दी गली की एक उपगली-कुक॒र गली में-'सुषुमा-निकुंज” के झरोखे पर बैठकर भीड़ की ओर दयनीय मुद्रा बनाकर देखनेवाली बीमार, पीली युवती उसे कवि समझे बैठी थी, और स्कूल की लारी पर से उतरकर, नीची निगाह किए, छाती से पुस्तकें चिपकाकर मन्थर गति से घर लौटनेवाली रूप-गर्विता-सिर्फ एक दिन धक्का खाकर “गुंडा नम्बर एक' की उपाधि दे चुकी थीं और अपनी सहेलियों को उससे सावधान करा चुकी थी।
“वह क्या था, क्यों था, कौन था और किसलिए मशहूर था” इत्यादि यदि पूर्णरूप से जानता था तो स्वयं वही अथवा मदनपुरे की 'सिल्क-कोठी” का बुड़ढा मालिक मुहम्मद हैदर, जो उससे नित्य नई साड़ियों के-बोर्डरों के नमूने लेकर रंगों और फूलों की आधुनिकता, उपयोगिता, दुनिया की बदलती हुई “रुचि-अरुचि” का पूर्ण ज्ञान लाभ कर भी, महीने में उसे सिर्फ चालीस रुपए देने के समय पचास बार दाढ़ी खुजलाता था। मुहम्मद हैदर साहब की नजर में वह एक “शरीफ गधा” था। गधे को दिन-भर बोझ ढोने के बाद कुछ खाने को मिल जाता है और उसको भी महीना-भर खटने के बाद कुछ खाने और रहने-भर को मिल जाता है।
हैदर साहब उसकी बदौलत तिजोरियाँ भर रहे हैं-यह जानते हुए भी उसने चालीस के बदले पचास की माँग नहीं की थी।
माँग की कौन कहे, प्रार्थना भी नहीं की थी कभी।
एक दिन जब वह हठात् अपने डिजाइनों की खपत के आँकड़ों को जानने के लिए व्याकुल हो उठा था, तो हैदर साहब का माथा ठनका था। “गधे को किसी ने बहकाया'-यह सोचकर वे टालमटोल करने लगे थे, किन्तु जब उसने साफ शब्दों में अपनी उत्कंठा का कारण महज यह बतलाया था कि उसका 'स्पेकुलेशन', उसकी स्टडी” कितने आंशों में सफल रही; वह इसी के बल पर वर्तमान संसार का भविष्य जान सकेगा, आदि...तो उन्होंने कुछ छिपाकर भी सच कह दिया था। “मैंने कहा था न, देखा आपने? हाँ, देख लिया!” कहकर वह जब उछलने लगा था तो हैदर साहब बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोक सके थे।
एक बार हैदर साहब के दामाद, जो इस्लामिया-युनिवर्सिटी में इतिहास के रिसर्च स्काउलर थे, तशरीफ लाए थे। उन्होंने तो लुटिया ही डुबानी चाही थी। घंटों न जाने क्या 'डिमडाम-गिटपिट-सिटपिट” भाषा में बहस करने के बाद दामाद साहब ने शुद्ध उर्दू में फरमाया था-“अमाँ आप तो खुदकुशी कर रहे हैं खुदकुशी ।
युनिवर्सिटियाँ तो आपकी कदमबोसी करके आँखों में बिठाएँगी, मगर उन्हें आप-जैसों का पता भी तो हो ।” उस रात को हैदर साहब ख्वाब में भी दामाद को कोसते रहे थे। लेकिन अपने गधे को रोज की तरह ग्यारह बजे हाजिर पाकर उन्होंने मन-ही-मन खुश होकर उसे 'शरीफ गधे' की टायटिल दे दी थी।
काम से या बिना काम वह रोज प्रायः ग्यारह बजे अपनी कोठरी से निकलकर गली की भीड़ में छिप जाता था और चार बजे शाम को लौट आता था। अपनी कोटठरटरी में थोड़ी देर बैठकर फिर निकल पड़ता था। पुलिन के यहाँ चाय पी वह घाटों की ओर चल देता था।
दशाश्वमेध घाट पर उसने कई स्थानों को चुन लिया था, उनमें किसी एक को खाली देखकर वह बैठ जाता और उसकी आँखें, घाट पर बैठी कीर्तन सुननेवालियों में से किसी को खोजने लगतीं। पा जाने पर आँखें जरा चमक उठतीं, नहीं पाने पर किसी दूसरी सूरत की खोज होती ।...“ओ! वहाँ रही... !” छी:-छी:, यह क्या गति बना डाली है उसने अपनी !...कापी...कापी...सिर्फ कापी! इस गहरे रंग की लाल साड़ी पहनने के पहले, वह कान में 'पाशा” झुलाने के पहले उसने जरा यह भी सोचा होता कि कहाँ तक इससे शोभा बढ़ेगी !... हत्या...हत्या... !-वह मन-ही-मन बड़बड़ा उठता- 'सचमुच हत्या है यह !...एकदम सहुआइन मौसी बनी बैठी है आज /-वह मन-ही-मन ठठाकर हँस भी पड़ता, उधर कीर्तन सुननेवालियों की मंडली भी राधा-कृष्ण और गोपियों की रस-भरी ठिठोलियाँ सुनकर खिलखिला पड़तीं।
कीर्तन समाप्त होने के बाद, गंगा के उस पार रामनगर किले का चिराग जल उठता, बालू की सफेदी और खेतों की हरियाली अन्धकार में घुल-मिलकर एक हो जातीं। राजघाट-पुल पर आने-जानेवाली गाड़ियों की रोशनी पंक्ति बाँधकर भागती जाती-और वह देखता ही रहता।
इस पार मणिकर्णिका घाट में चिताएँ कभी जोर से धधक उठती, कभी धुओं का गुब्बारा निकलता। अहिल्या घाट पर शहनाई से “श्याम-कल्याण” की करुण रागिनी फूटकर निकल पड़ती और वह चुटकियों पर ताल देते-देते सुध-बुध खो बैठता था।
गीत समाप्त होते ही-मानो किसी आवश्यक काम की बात याद हो आई हो- वह एकाएक उठकर चल देता और उसकी चाल विश्वनाथ गली में जाकर ही धीमी पड़ती।
पाजामे के दोनों पाकेट में हाथ डालकर, चप्पल घसीटता हुआ, बगल की दुकानों पर सरसरी निगाह फेंकता वह धीरे-धीरे चलता रहता। साड़ियों की दुकानों में शो-केसों को देखता हुआ बढ़ चलता।
बच्चों के खिलौने, सिन्दटूर, आलता, रेशम के डोरों की छोटी-बड़ी दुकानों के पास, अथवा किसी “ब्लाउज-स्टोर' के पास खड़ा होकर नई ब्लाउज की पट्टी को ध्यान से देखने लगता ।.
क्या चाहिए बाबू ? क्या दूँ बाबू ?
आदि प्रश्नों का निराशापूर्ण उत्तर देकर वह चुपचाप चल देता। सबसे अन्त में चूड़ियों की दुकानों पर एक हल्की दृष्टि डालकर, कभी-कभी ठिठककर खड़ा भी हो जाता था।...“हुँह...ये कॉलेज की लड़कियाँ हैं! पतली-पतली मिर्जापुरी चूड़ियों का खब्त सवार है। पहनो भाई! कौन समझाए तुम्हें! किसी सिनेमा अभिनेत्री ने इन चूड़ियों को पहन लिया, उनके हाथों में अच्छी लगीं, बस इन लोगों के सिर पर पागलपन सवार हुआ। जरा भी सोचने-समझने की... ।”
सीढ़ी से टक्कर लेते-लेते वह बच जाता। फिर लायब्रेरी में बुसकर किसी मासिक पत्रिका में छपे भूत, भविष्य अथवा वर्तमानकालीन कला से सम्बन्धित किसी लेख को पढ़ता, लेखक की अनभिज्ञता पर तरस खाकर उठ जाता, फिर उसी गली में, जरा तेज चाल में निकल जाता । घाट-होटल में कच्ची-पक्की रोटियों और बासी तरकारियों से पेट भरकर अपने घोंसले में लौट जाता । बिछौने पर अपने को लुढ़का देता। बिछौने पर पड़े-पड़े दिन-भर का लेखा-जोखा आरम्भ हो जाता। बीड़ियों पर बीड़ियाँ सुलगने और बुझने लगतीं...“लेकिन उस ब्लाउज की कद्र कौन करेगा? किसी मोटी औरत को जँच गई तो सब गुड़-गोबर !...और चूड़ियों के सेट इस बार कुछ आए हैं-नहीं, इस बार मैं जरूर खरीदूँगा। दो सेट चूड़ियों का, तीन ब्लाउज और पतली-प्लेन फीकी कोरवाली साड़ी । जरूर से जरूर !”...आखिर किसके लिए? प्रश्न उठते ही वह तकिये के नीचे माचिस टटोलने लगता, बीड़ी का धुआँ फेंककर वह एक बार हँस देता। निंदिया रानी चुपके से आकर न जाने कब उसकी आँखों में घुल-मिल जाती।
यही उसका दैनिक-कार्यक्रम था। आँधी, तृफान अथवा वर्षा की झड़ी ही उसके दैनिक जीवन-क्रम में बाधा डाल सकती थीं।
एक दिन जब वह चूड़ियों की अन्तिम दुकान पर निगाह फेंककर सीढ़ी पर चढ़ ही रहा था कि दुकान पर किसी परिचित युवक को देखकर रुक गया था ।। दूर से अच्छी तरह देखकर उसने पहचान लिया, पास जाकर बोला-“माधव?”
“अरे! शरदेन्दु?” कहकर उसने छाती से लगा लिया। चूड़ीवाला हाथ में एक सेट लेकर कुछ कहते-कहते रुक गया।
शरद ने माधव की कमीज के एक ओर के कॉलर को कोट के अन्दर घुसाते हुए कहा-“अच्छे तो हो?”
“सब ठीक है, खरीदो, क्या खरीद रहे थे!”
माधव ने पास में ही खड़ी स्वस्थ, सुन्दरी युवती की ओर जो अब तक थर्ड परसन की तरह खड़ी मुस्कुरा रही थी-मुड़कर कहा-“मघु? आओ परिचय करा दूँ।
नाम तो मेरे मुँह से न जाने कितनी बार सुन चुकी हो।
आज साक्षात् देवता का दर्शन कर लो! ...यही हैं मेरे परम मित्र शरदेन्दु बनर्जी, हिन्दू विश्वविद्यालय के अमूल्य रत्न, जिनके चित्र पर चीन के कला-मर्मज्ञों ने प्रसन्न होकर पुरस्कार भेजा था और हजरत ने उस पुरस्कार की रकम को दान कर दिया था-कला-केन्द्र के लिए। देख लिया न... फिर शरद की ओर देखकर जरा मुस्कुराते हुए बोला-“और शरद! यह हैं श्रीमती मधुलिका माधव!”
“नमस्ते!” मधुलिका ने आदरपूर्वक हाथ जोड़कर कहा। शरद ने आश्चर्य प्रकट करते हुए माधव से पूछा-“तुमने शादी कर ली?” “तो कौन पाप कर बैठा?” माधव ने हँसकर कहा। शरद मधुलिका की ओर देखकर बच्चों की तरह बोल उठा-“नहीं नहीं, मैंने कहा...” “बाबू, कौन-सा सेट...?” चूड़ीवाले ने अधीर होकर टोका।
किसी के कुछ कहने के पहले ही, शरद ने आगे बढ़कर उन सेटों को नापसन्द करते हुए कहा-“आज से करीब पन्द्रह दिन पहले जो सेट आए थे, वे सब बिक गए क्या? वह नीली-नीली-मोटी...मोटी...” चूड़ीवाले ने याद करते हुए कहा-“ओ! जी हाँ, हैं तो...मगर वह क्या...”-मधुलिका की ओर इशारा कर बोला-“हुजूर पसन्द करेंगी? युनिवर्सिटी की लड़कियों ने नापसन्द...” “पसन्द करेंगी या नहीं, यह तुमने पहले ही कैसे जान लिया। यदि नहीं भी पसन्द करेंगी तो भी वह सेट खरीदा जाएगा !”-शरद ने जरा मुँह विकृत करते हुए कहा-“युनिवर्सिटी की लड़कियाँ...”
चूड़ीवाला जिज्ञासु दृष्टि से मधु और माधव की ओर देखने लगा। शरद ने जोर से कहा-निकालो!
मधु और माधव ने भी निकालने का इशारा किया। चूड़ीवाले ने निकालकर दिखलाते हुए कहा-“यह देखिए! मैंने पहले ही कह दिया था कि हुजूर को... ?” “चुप रहो !'-सेट से एक चूड़ी निकालकर शरद ने मधुलिका को समझाना शुरू किया-“देखिए! मोटी है, भोंडी है और शायद सस्ती भी। मगर है आपकी ही चीज । एक बार पहन तो लें, चूड़ियाँ आप ही कहेंगी कि वे क्या हैं?” उसने चूड़ीवाले से कहा-“पहनाओ !” गो मधु और माधव ने एक-दूसरे को देखा और मुस्कुरा दिए।
चूड़ियाँ पहनाई गई तो मधु आश्चर्य की पुतली हो गई। उसके मुँह से निकल पड़ा-“सच !” माधव मुस्कुराने लगा।
चूड़ीवाले की आँखें विस्मय से बाहर निकल आईं। शरद की पसन्द के दो-तीन सेट और निकाले गए। सबों पर शरद ने एक छोटा-मोटा भाषण दिया। वह इस तरह बक रहा था कि अन्य खरीदारों ने उसे चूड़ीवाले का दलाल ही समझ लिया।
सभी सेट खरीदे गए। एक सेट को सँभालते हुए शरद ने कहा-“चलो! और चीजें खरीदनी हैं!” वह आगे-आगे चल पड़ा।
माधव ने पूछा-“सुनो शरद! तुम यहीं हो। मैंने सोचा था कि तुम...” “क्या ?”-शरद रुका।
“यही कि तुम किसी युनिवर्सिटी में कला का गला घोंट रहे हो ।” मु शरद 'ही-ही' कर हँस पड़ा। उसकी हँसी को “विचित्र हँसी! कहा जा सकता ।
माधव ने फिर पूछा-“अच्छा! माँ और लता दीदी और तुम्हारे छोटे भाई का नाम भूल रहा हूँ, सब कुशल तो हैं?”
“सब शेष...सब शेष...” शरद ने चलते-चलते ही कहा-“इसी दुर्भिक्ष में अरे!” माधव ने चीख मारकर कहा-“और तुम क्या करते रहे?”
“कलक्त्ते में दुर्भिक्ष पीड़ित सहायता कमेटी के लिए कारुणिक पोस्टर रँगता रहा। पेट भरने को मिल जाता था ।”-शरद ने लापरवाही से उत्तर दिया।
“यहाँ कब आए ?...क्या करते हो?”
“बहुत अच्छा लगता है बनारस! यहीं हूँ।
“क्या करते हो...?”
“अजी! वह लाल पटूटीवाला ब्लाउज निकालना तो !”-दुकानवाले से शरद कह रहा था।
वह अपनी पसन्द की चीजें खरीदता जा रहा था, माधव दाम चुकाता जाता था। उसकी इच्छानुसार सभी चीजें खरीदी गईं। शरद के पाँव-खुशी के मारे-धरती पर नहीं पड़ रहे थे। माधव ने उसमें ऐसी स्फूर्ति पहले कभी नहीं देखी थी।
गली से बाहर होकर तीनों शरबत की दुकान पर बैठे। माधव ने फिर पूछा- “यहाँ क्या करते हो?”
“मेरे शरबत में बूटी डालना महाराज! बूटी !”-शरद ने प्रश्न को फिर टाल दिया। माधव ने समझ लिया, उसे इस प्रसंग में कष्ट हो रहा है। वह चुप ही रहा। शरद ने भंग समाप्त करते हुए कहा-“अच्छा ठहरे हो कहाँ?”
“ब्रह्माघाट पर, मौसी के यहाँ।
“तब तो नाव से जाओगे! चलो, मैं भी घाट तक चलूँ।”
तीनों जने घाट की ओर चल पड़े। घाट पर माधव ने साहस करके फिर पूछा- “शरद! बताओ भाई! यहाँ क्यों हो? कहने की हिम्मत तो नहीं हो रही है, फिर भी कहता हूँ, तुम चलो मेरे यहाँ...कश्मीर! वहाँ रहकर तुम...”
शरद ने लम्बी साँस ली। मधुलिका ने भी आँखों से माधव की बातों का समर्थन किया । शरद ने मधुलिका के प्यारे मुखड़े की ओर देखा, फिर उसकी चूड़ियों पर आँख गड़ाकर चुप रहा।
“बोलो शरद!” माधव का गला भर आया था और मधुलिका की आँखों में आँसू ।
“तुम यह सब क्या कह रहे हो? जाओ, नाव पर बैठो !”-शरद ने उसे एक प्रकार से धकेलते हुए नाव में बैठा दिया।
मधुलिका भी बैठी।
“शरद! सुनो...”
ब्रह्माघाट बाबू ?”'-पूछता हुआ मल्लाह ने डॉड़ चला दी-कर- र्र - र्र -छपा-छप्,
कर्र- र्र - र्र -छपा-छप्!
“पत्र लिखना शरद!”
नाव घाट छोड़ चुकी थी।
पूरब आकाश में पूर्णिमा का चाँद निकलकर हँस रहा था। नाव चली जा रही यी। उस पार बालू और खेत की हरियाली पर चाँदनी नाच रही थी। किले का चिराग जल रहा था। राजघाट-पुल पर गाड़ी की रोशनी पंक्ति बाँधकर भागी जाती थी। मणिकर्णिका में चित्ताएँ धधक रही थीं। अहिल्या घाट पर शहनाई से कोई करुण रागिनी फूटकर निकल रही थी। गंगा की बहती हुई धारा पर चाँद की किरणें, जाती हुई नाव, और नाव पर मन-मारे आमने-सामने चुपचाप बैठीं दो मूर्तियाँ...।
गन्दी कोठरी में बिछोने पर पड़ा-पड़ा वह दिन-भर का लेखा-जोखा कर रहा था। बीड़ियाँ चुक गई थीं। फेंकी हुई बीड़ियों के टुकड़ों को पुनः बटोरकर काम में लाया जा रहा था।
“अब घाट पर कोई आकर्षण नहीं, विश्वनाथ गली तो श्रीहीन हो गई, सब मैंने खरीद लिया। अब किधर (-ओ हो! विक्टोरिया पार्क में छोटे-छोटे बच्चे बहुत सुन्दर खेल खेलते हैं।
कल से वहीं...”
उस दिन मकान के किरायेदारों ने पहले-पहल आश्चर्यित होकर सुना-वह आधी रात को आनन्दविभोर होकर विहाग अलाप रहा था।