Kalakar Ki Saphalta (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar
कलाकार की सफलता : रामधारी सिंह 'दिनकर'
सारे संसार के लोग सफलता चाहते हैं। किन्तु सफलता तो गोल–मटोल शब्द है जिसके प्रसंगानुसार, अनेक अर्थ हो सकते हैं। परीक्षा में पास करने और अदालत में मुकदमा जीतने से लेकर अच्छी शादी, अच्छा व्यापार, अच्छी खेती और नौकरी में तरक्की तथा देश का प्रधानमन्त्री या राष्ट्रपति हो जाना–ये सब सफलता की बातें हैं। तो जो लोग सफलता चाहते हैं, वे असल में चाहते क्या हैं?
चीन का एक राजा एक दिन अपने राज्य के उस भाग को देखने गया जो समुद्र के तट पर पड़ता था। वहाँ उसने एक पहाड़ी पर स्थित अपने बँगले से देखा कि समुद्र में सैकड़ों जहाज उधर–से–इधर और इधर–से–उधर जा रहे हैं। यह सब देखकर राजा ने अपने मन्त्री से पूछा, ‘इन सैकड़ों जहाजों में जो लोग हैं, वे क्या कर रहे हैं?’ मन्त्री ने उत्तर दिया, ‘महाराज! मुझे तो केवल दो ही जहाज दिखाई देते हैं जिनमें से एक का नाम रुपया और दूसरे का नाम कीर्ति है।’
मन्त्री का कहना बिलकुल ठीक था। संसार में जो भी व्यक्ति सफलता की खोज में है, वस्तुत: वह या तो रुपया खोज रहा है अथवा कीर्ति। और जिसे ये दोनों अथवा उनमें से एक भी वस्तु मिल जाती है, वह सबकी आँखों में सफल समझा जाने लगता है।
फिर भी, रुपया सफलता की पूरी निशानी नहीं है और अगर है भी तो उसे सफलता का स्थूल, प्रत्युत्, कुरूप लक्षण ही मानना चाहिए। सफल व्यक्ति का एक लक्षण यह है कि वह सुखी और सुप्रसन्न होता है। किन्तु समाज के जिस वर्ग में धन का आधिक्य है, उसमें सुखी व्यक्तियों की संख्या अत्यन्त थोड़ी मिलेगी। और समाज का जो वर्ग बिलकुल धनहीन है, उसमें सुखी व्यक्ति और भी कम मिलते हैं। सुखियों की तादाद उस वर्ग में सबसे अधिक है जो इन दोनों वर्गों के बीच में पड़ता हैय अर्थात् धनियों और निर्धनों की अपेक्षा उन लोगों के सुखी होने की सम्भावना अधिक है जिनके पास धन की न तो अधिकता है, न उसका आत्यन्तिक अभाव, यानी जिनके पास जरूरत भर है और उससे अधिक नहीं है।
यही कुछ देखकर सुसंस्कृत व्यक्ति सदा से धन को एक हद तक आवश्यक और उसके बाद अनावश्यक मानते आए हैं। समाज के अनेक क्षेत्रों में जो अग्रणी लोग हैं, उनमें से अधिक ऐसे ही हैं जिन्हें खुद पानी पीने या परिवार को पानी पिलाने के लिए रोज नया कुआँ खोदना पड़ता है। इनमें से कितने ही ऐसे लोग हैं जो धनी बनना चाहें तो बन सकते हैं, किन्तु धन की ओर उनकी प्रवृत्ति नहीं जाती। एक तरह के लोग वे हैं जो व्यक्तित्व का नाश करके धन की वृद्धि करते हैं, तो दूसरी तरह के लोग वे हैं जो आए हुए धन से भी अपने व्यक्तित्व का विकास करते हैं। ये दूसरे प्रकार के लोग ही समाज के सेवक और मनुष्यता के असली भूषण होते हैं।
किन्तु धन के मोह से जो व्यक्ति मुक्त या लगभग मुक्त है, वह भी सुयश के बारे में संयम नहीं बरतता। कवि, कलाकार, नेता और गृहस्थ का तो कहना ही क्या, बड़े–बड़े योगी और महात्मा सुयश के पीछे दौड़ते फिरते हैं। और उनमें केवल सुयश की ही कामना नहीं होती, अपने प्रतिद्वन्द्वियों से ईर्ष्या और डाह भी होती है। साधु दूसरे साधु की निन्दा सुनना चाहता है और जो मुनि माया से भागकर एकान्त में जा बैठा है, उसे भी अपनी प्रशंसा सुनकर प्रसन्नता होती है। एक वृद्ध विद्वान मुनिवृत्ति लेकर एकान्त में रहते थे और वहीं एक नवयुवक छात्र को पढ़ाया करते थे। एक दिन उन्होंने अपने शिष्य से कहा, ‘धन की तृष्णा पर विजय पाना आसान हैय किन्तु कीर्ति की वासना को जीतना आसान नहीं है। चिन्तक और विद्वान मुनियों को देखो। वे संसार से अवकाश ग्रहण करने पर भी चाहते हैं कि लोग उन्हें घेरे रहें। उनसे यह नहीं होता कि कहीं एकान्त में बैठकर किसी एक छात्र को पढ़ाकर सन्तोष करें, जैसे मैं अभी तुम्हें पढ़ा रहा हूँ।’ शिष्य हाथ जोड़कर बोला, ‘आप सत्य कहते हैं महाराज! ऐसे निर्लिप्त मुनि तो देश में केवल आप हैं।’ और यह सुनकर मुनि जी के मुख पर हलकी मुसकान दौड़ गई।
और मुनि के मुख पर मुसकान दौड़ती कैसे नहीं? काम, क्रोध और लोभ के छूट जाने पर भी यशैषणा पीछा करती रहती है। मिल्टन ने कहा है, यशैषणा श्रेष्ठ मनुष्य की आखिरी कमजोरी है। फिर भी, प्रशंसा कोई बहुत बड़ी चीज नहीं है। सुयश से मिलनेवाला सुख श्रुति–चर्म पर उठनेवाली गुदगुदी का सुख नहीं तो और क्या है? जैसे हम स्पर्श, घ्राण, जिह्वा और नेत्र से अनेक प्रकार के नश्वर सुखों का स्वाद लेते हैं, वैसे ही अपनी प्रशंसा सुनने का सुख श्रवणेन्द्रिय से मिलनेवाला नश्वर सुख है। किन्तु इस सुख का मोह छूटता नहीं और छूटता भी है तो अन्य सभी विकारों के शमित हो जाने के बाद। यूनानी दार्शनिक सिसरो ने लिखा है कि जिन ग्रन्थों में दर्शनाचार्य यशैषणा से बचने का उपदेश देते हैं, उन्हीं ग्रन्थों में वे अपना नाम छोड़ जाते हैंय जिन पृष्ठों पर वे यह बताते हैं कि यशैषणा बुरी चीज है, उन्हीं पृष्ठों में उनकी कीर्ति–वैजयन्ती फहराने लगती है।
धन और कीर्ति के समान ही एक और सुख है जो अधिकारारूढ़ होने से मिलता है और जिसे अधिकार प्राप्त हो जाता है, समाज में उसे भी लोग सफल व्यक्ति मानने लगते हैं। अधिकारारूढ़ व्यक्ति को जो सुख मिलता है, वह धन–संचय का सुख नहीं है। इस वर्ग के व्यक्तियों में जो सर्वश्रेष्ठ हैं, सच पूछिए तो, उनमें अर्थ–संचय की प्रवृत्ति नहीं होती। फिर भी वे बहुत सुखी होते हैं क्योंकि समाज उनका सत्कार करता है, जैसा सत्कार वह धनियों का तो क्या, विद्वानों और महाचिन्तकों का भी नहीं करता। धन का मूल्य अब समाज में क्षीण होने लगा है, इसलिए अब धनी व्यक्ति भी सुयश चाहने लगा है और सुयश के द्वारा वह, कदाचित्, अधिकार में आना चाहता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि धन, कीर्ति और अधिकार–सफलता के जो ये तीन प्रतीक हैं, उनके प्रति कलाकार का क्या भाव होता है? तीनों में से प्रत्येक वस्तु बड़ी लुभावनी है और मिल जाने से उसका उपभोग करने में कलाकार को भी सुख ही मिलता होगा। यह बहुत कुछ वैसी ही बात है, जैसे किसी संयमी के मुख में आप जबर्दस्ती रसगुल्ला ठूँस दें तो वह उसे मीठा ही लगेगा। किन्तु किसी वस्तु का अनायास प्राप्त हो जाना एक बात है और उसके पीछे दौड़ते चलना बिलकुल दूसरी बात है। नई संसद की स्थापना के बाद अपने देश के भी कुछ कवि, लेखक, चिन्तक और कलाकार संसद अथवा विधान सभाओं के सदस्य बनाए गए हैं जो एक प्रकार से सत्ता के समीप पहुँचने का ही दृष्टान्त है। किन्तु इनमें से कितने लोग हैं जो संसद में बने रहने के लिए विकराल चुनावों का हाहाकार झेलने को तैयार होंगे? औरों की बात मैं नहीं जानता, किन्तु मेरे सामने यदि चुनाव लड़ने और दिल्ली से टिकट कटाने के केवल दो विकल्प रखे जाएँ तो मैं बड़ी ही आसानी से पिछला विकल्प कबूल कर लूँगा। कारण यह है कि राजनीति की गहराई में जाने के लिए जिन गुणों की आवश्यकता होती है, उनमें से अनेक ऐसे हैं जिनका कलाकार के मौलिक गुणों से प्रत्यक्ष विरोध है। इन गुणों को अंगीकार करने से मेरे अपने गुणों के आहत हो जाने का भय है और मैं कभी भी यह बात नहीं भूल सकता कि देश ने मुझे संसद में राजनीति करने की नहीं, प्रत्युत कला, साहित्य और संस्कृति की ही सेवा के निमित्त भेजा है। इन मूल्यों की अधिक सेवा तो संसद से बाहर ही की जा सकती है, किन्तु वर्ष में दो-एक बार उनकी सीमित सेवा का अवसर संसद में भी आ जाते हैं। बस, साहित्यिकों के राजनीति में जाने का मैं इतना ही महत्त्व मानता हूँ। और इसीलिए मेरा निश्चित मत है कि साहित्यिकों का संसद-सदस्य या राजमन्त्री हो जाना बिलकुल आनुषंगिक बात है और उसके आधार पर साहित्यिकों की वास्तविक सफलता का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। यह बहुत कुछ वैसी ही बात है जैसे कोई व्यक्ति कवि होने के साथ थोड़ा-सा पहलवान भी हो जाए। किन्तु कविता को आगे रखकर वह यदि कसकर दंड-बैठक करने लगे तो इससे उसके काव्य का मूल्य नहीं बढ़ सकता।
फिर भी इतिहास में बहत-से ऐसे कवि हए जो राजपन्त्री भी थे अथवा राजाओं के यहाँ जिनका बड़ा मान था। किन्तु बहुत-से कवि ऐसे भी हुए हैं जो राज्याश्रय को तुच्छ दृष्टि से देखते थे। कदाचित् कुम्भनदास ने कहा था, "सन्त को सिकरी सों का काम?" और तुलसीदास जी के पास अकबर या जहाँगीर ने मनसबदारी का प्रस्ताव भेजा था या नहीं, इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता, फिर भी कवि और मनसबदार की पारस्परिक तुलना करते हुए गोसाई जी ने उमंग में आकर यह दोहा कह दिया कि :
हम चाकर रघुवीर के, पटौ लिख्यौ दरबार;
तुलसी अब का होहिंगे नर के मनसबदार।
और केवल सन्त कवियों का ही नहीं, बहुत-से गृहस्थ कवियों का भी राज्याश्रय के प्रति यही दृष्टिकोण था। अकबर के समकालीन श्रीधर नामक एक कवि ने लिखा है :
अब के सुल्तान भय फुहियान-से बाँधत पाग अटब्बर की।
नरकी नरकी कविता जो करै तेहि काटहु जीभ सुलब्बर की।
इक श्रीधर आस है श्रीधर की नहिं त्रास अहै कोउ बब्बर की।
जिन्हें कोउ न आस अहै जग में सो करौ मिलि आस अकब्बर की।
धन-संचय की प्रवृत्ति असाहित्यिकों में भी अब उतनी शोभनीय न रही, जितनी वह मध्यकालीन युगों में थी। इसलिए धन की कसौटी पर कलाकार की सफलता का अंकन नहीं किया जा सकता। उन्नत देशों में साहित्यिक और कलाकार अब सुखी होने लगे हैं। किन्तु प्राचीन विश्व में तो वे सर्वत्र आर्थिक संकटों में ही रहे। लेकिन अर्थाभाव के चलते उनमें सफलता का अभाव नहीं हुआ। अतएव कलाकार की सफलता की कसौटी धन नहीं हो सकता और आगे तो यह कसौटी और भी अप्रासंगिक हो जाएगी क्योंकि संसार धीरे-धीरे समाजवाद की ओर जा रहा है और समाजवाद धन के वैयक्तिक संचय का विरोधी है। इसलिए आचार्य मम्मट की 'काव्यं अर्थकृते' वाली कसौटी को अब खंडित समझना चाहिए।
रह गई सुयश की बात। सो इस गुत्थी को सुलझाना आसान नहीं है। अपनी प्रशंसा सुनने का सुख भी ऐन्द्रिय सुख ही है, इसलिए कोई भी कवि या कलाकार यह स्वीकार नहीं करेगा कि रचना वह अपनी सुयश-वृद्धि के लिए करता है। और एक कवि की सुयश-वृद्धि से दस कवि जिस प्रकार जलने लगते हैं तथा साहित्य में जो भयानक जहरीला धुआँ फैलने लगता है, उससे सुयश भी कभी-कभी यशस्वी कवि के क्लेश का ही कारण बन जाता है। रवि बाबू को जब नोबुल पुरस्कार मिला तब बंगाल के साहित्यिक दल बाँधकर उनका सत्कार करने गए। उस अवसर पर उन्होंने कहा था कि “कवि के काव्य से कहीं धूप और कहीं छाया उत्पन्न होती है और जिनके हृदय में छाया उत्पन्न होती है वे कवि पर भाँति-भाँति से प्रहार करते हैं। मेरी कविताओं के सम्बन्ध में भी इस नियम का तनिक भी अपवाद नहीं हुआ।" इन पंक्तियों में जो व्यथा है वह असफल कवि की व्यथा नहीं है, प्रत्युत् उसे तो हम कीर्ति की ही वेदना कह सकते हैं। इसी प्रकार इकबाल के सुयश से जले हुए लोगों ने जब उन पर निमर्म प्रहार करना आरम्भ किया तब उन्होंने क्षुब्ध होकर कह दिया :
जीना वो क्या जो हो नफसे-गैर पर मदार?
शुहरत की जिन्दगी का भरोसा भी छोड़ दे।
किन्तु कवि क्या दूसरों की साँस के भरोसे जीता है? और रचनाएँ क्या केवल सुयश बटोरने को करता है? आचार्य मम्मट ने काव्य की प्रेरणाओं में सुयश को पहला स्थान दिया है। 'काव्यं यशसे' अर्थात् कविता प्रसिद्धि के लिए रची जाती है। किन्तु, कवियों से पूछकर देख लीजिए। उनमें से प्रत्येक यही कहेगा कि कविता वह प्रसिद्धि के लिए नहीं, आत्मसुख के लिए लिखता है। तुलसीदास जी की स्वान्तः सुखाय वाली उक्ति कवियों को जितनी पसन्द है उतनी पाठकों को तो क्या आती होगी। किन्तु यह भी सत्य है कि प्रत्येक कवि सुयश चाहता है क्योंकि प्रशंसा कलाकारों की प्रतिभा का मुख्य आहार है। और प्रशंसा भी कलाकार उनके मुख से चाहते हैं जो समाज के शिष्ट एवं सुसंस्कृत सदस्य हैं :
सरस कबिन के चित्त को बेधत द्वै वे कौन?
असमझवार सराहिबो समझवार को मौन।
और इसमें कलाकारों के लज्जित होने की कोई बात भी नहीं दीखती क्योंकि सुयश की कामना कलाकृतियों की रचना की प्रक्रिया में ही समाहित होती है। यह ठीक है कि प्रत्येक कवि रचना अपने आनन्द के लिए करता है, किन्तु साथ-साथ वह यह भी सोचता जाता है कि इस रचना से पाठकों को आनन्द मिलेगा या नहीं। कला और साहित्य की रचना कवि या कलाकार का केवल आत्मनिष्ठ कार्य नहीं होता, प्रत्युत् उस पर उन लोगों की रुचि का भी प्रभाव पड़ता है जो कवि के मुख्य श्रोता या पाठक होते हैं। जिस कवि को श्रोता या पाठक नहीं मिलते वह असमय मौन हो जाता है। इसके प्रतिकूल, जिसे अच्छे पाठक मिल जाते हैं उसका उत्साह दूना हो जाता है और इस उमंग में उसके भीतर की दबी-से-दबी अनुभूतियाँ भी उभरकर बाहर आ जाती हैं। बहरे लोगों के बीच बैठकर साहित्य की रचना करने से बढ़कर और अप्रिय कार्य की मैं कल्पना नहीं कर सकता।
अपनी रचना से कवि को जो आनन्द मिलना होता है वह उसे अभिव्यक्ति के समय मिल जाता है। उसके बाद कवि अपनी रचनाएँ अपने आनन्द के लिए नहीं पढ़ता। वह उन्हें दूसरों को आनन्द देने को पढ़ता है। और जब दूसरे लोग उसकी रचनाओं से आनन्द पाने लगते हैं तब कवि को जो प्रसन्नता होती है, वह असल में सुयक्ष से ही मिलनेवाली प्रसन्नता है।
किन्तु इस सुयश को क्या हम दूषित कहेंगे? यदि हाँ, तो इसका दूषण कहाँ पर है और वह कैसे दूर हो सकता है? जिस वस्तु की रचना ही दूसरों को जाग्रत, उत्तेजित अथवा प्रसन्न करने को की गई हो, उसकी सफलता तो तभी समझी जाएगी जब उसके सम्पर्क में आनेवाले लोग जाग्रत, उत्तेजित अथवा प्रसन्न हो जाएँ और यही जागृति, उत्तेजना और प्रसन्नता कीर्ति बनकर कवि को घेर लेती है। रचना की इस प्रक्रिया को न तो कवि रोक सकता है, न पाठक-समुदाय। कविता की प्रक्रिया उसकी रचना के साथ पूरी नहीं होती। पूरी वह तब होती है जब पाठक उससे आन्दोलित होने लगते हैं।
इसलिए कलाकार की सफलता की कसौटी केवल यह हो सकती है कि उसकी कृतियों से समाज आन्दोलित हुआ है या नहीं और यदि हुआ है तो उसकी रचनाओं से प्रभावित होनेवालों का सांस्कृतिक धरातल क्या है।
(1956 ई.)
('वेणुवन' पुस्तक से)