कला-सरिता (निबन्ध) : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल

Kala-Sarita (Nibandh) : Acharya Ramchandra Shukla

सरिता जल की वह धारा है, जो पहाड़ों की चोटियों पर संचित जल का संबल ले, कल-कल करती, पत्थरों को काटती, जंगलों में घूमती, मैदानों में रेंगती उतरती है, और निरन्तर अपना टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता बनाती चलती चली जाती है, जबतक कि सागर का विशाल दामन उसे अपने में छिपा नहीं लेता। सरिता विशाल हिमगिरियों के शिखरों पर जन्म लेकर अनन्त गहराई की ओर चल पड़ती है, जैसे उसको जन्म-जन्मान्तर से इसी गहराई की खोज हो। एक बार ऊँचाई से निकलकर दुबारा ऊँचाई पर चढ़ना उसके लिए नामुमकिन है। वह पग-पग पर गहराई खोजती चलती है और जहाँ पा जाती है, झपट पड़ती है उसी ओर, जैसे यही गहराई उसके जीवन का लक्ष्य हो। इसी की खोज में वह बहती चली जाती है।

कौन कहता है सरिता में जीवन नहीं? मनुष्य अपनी सम्पूर्ण शक्तियों के सहारे सुख की खोज में सरिता की भाँति बढ़ता जाता है, जिसे वह जीवन तथा अपनी संस्कृति की प्रगति कहता है। सरिता गहराई खोजती है और शायद उसे ही वह सुख समझती है। मनुष्य और सरिता इसी तरह प्रगति करते जाते हैं; एक खोज, वही जीवन है–दोनों में है। सरिता सागर में पहुँचकर विलीन हो जाती है——अपने लक्ष्य को पा जाती है——अथाह गहराई को। मनुष्य की जीवन-यात्रा का भी अन्त है——गहराई, गहन अन्धकार। वह भी महान् अन्धकार में लीन हो जाता है। इसकी गहराई का कोई अन्त नहीं, सागर तो फिर भी नापा जा सकता है।

सरिता की प्रत्येक गति गहराई खोजती है। यही सत्य है। जीव भी यही खोजता है। सरिता को क्या अपना अस्तित्व मिटा देने में दुःख नहीं होता? यह तो वही कह सकती है। मनुष्य भी अन्धकार में विलीन होने से भयभीत होता है। पर सत्य है कि वह फिर भी निरन्तर उसी ओर बढ़ता जाता है, उसी की खोज में। जीवन एक खोज है।

मनुष्य जो कुछ भी करता है, इसी खोज के लिए। इसी खोज में सरिता पाषाणों को काटकर, पृथ्वी में दरार बनाती तब तक चली जाती है, जब तक अन्तिम गहराई नहीं पा जाती। मनुष्य भी अपनी कलाओं के आधार पर इसी खोज में रत होता है। मनुष्य की कला इसी खोज का एक माध्यम है। कला अन्त नहीं है—अन्त तो है गहराई—कला एक सहारा है, एक तरीका है वहाँ तक पहुँचने का। कला कला के लिए नहीं है। कला लक्ष्य नहीं है। कला साधन है, उस खोज का।

कला की महानता इसमें नहीं कि वह क्या-क्या बनाती है—उसे तो खोज करनी है—अपने लक्ष्य की। नये रास्ते बनाने हैं, वहाँ तक पहुँचने के—वैसे ही जैसे सरिता बनाती है रास्ते, सागर तक पहुँचने के।

सरिता कभी मुड़कर नहीं देखती कि उसने पीछे क्या क्या बनाया है। वह तो बहती जाती है अपने लक्ष्य की खोज में। मनुष्य की कला का रूप क्या है, इससे कलाकार को सरोकार नहीं—वह तो अपनी कला के द्वारा कुछ खोजता है—वही जो सरिता खोजती है। किसने कितनी गहराई प्राप्त कर ली, यही उसकी प्रगति की सफलता का प्रमाण है।

कला भाव-प्रकाशन है, इससे कलाकारों को कोई सरोकार नहीं। कला भले ही भाव-प्रकाशन करे, परन्तु कलाकार के लिए इसका क्या महत्त्व? महत्त्व तो है खोज के परिणामों का—गहराई का—अन्तिम लक्ष्य का।

कला भाव-प्रकाशन नहीं—खोज का रूप है। कला लक्ष्य नहीं, लक्ष्य की प्राप्ति का तरीका है।

कला मनुष्य की जीवन-यात्रा की सरिता है, जो उसके सम्मुख प्रगति के रास्ते खोजती चलती है।

कला एक खोज है।

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