कला की भारतीय परिभाषा और उसके संबंध में भारतीय दृष्टिकोण (निबंध) : राय कृष्णदास
परम आनंद की उपलब्धि, केवल अनुभूति ही नहीं, वास्तविक उपलब्धि, भारत के सभी धार्मिक संप्रदायों का, सभी दार्शनिक विचारधाराओं का चरम लक्ष्य है। दूसरे शब्दों में, परम तत्त्व, चाहे उसे ब्रह्म कहिए, ईश्वर कहिए, शून्य कहिए वा जो भी—यहाँ नामों का झगड़ा नहीं है, आनंदस्वरूप है—रसो वैसः। गीता में यही बात समझाकर कही गई है—
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं, रसोप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥
निग्रह से, विषयों और इंद्रियों के असंयोग की साधना से विषय तो छूट जाते हैं, किंतु उनसे मिलने वाले रस की लिप्सा दूर नहीं होती, वासना रूप से बनी रहती है। कब तक? जब तक परम रस का साक्षात् नहीं होता। यतः वह परम रस है, अतः सारे रस स्वभावतः उसी में अंतर्भुक्त हो जाते हैं। गीता में ही आगे चलकर इसका स्पष्टीकरण किया है—
सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्ममतीन्द्रियम्।
यस्मिन् स्थितो न दुःखेन गुरुणाऽपि विचाल्यते।
अर्थात्, आत्यंतिक सुख इंद्रिय सुखों के परे, फलतः बुद्धिगम्य है, और वह सुख ऐसा है कि उसमें स्थित हो जाने वाले को भारी-से-भारी दुःख भी विचलित नहीं कर पाता।
इसी बुद्धिग्राह्य, बुद्धिगम्य सुख की अभिव्यक्ति का साधन कला है। कलाकार अपनी कृति द्वारा उस परम रस का, उस आत्यंतिक बुद्धिग्राह्य सुख का एक मूर्त प्रतीक प्रस्तुत कर देता है। और, ऐसे प्रतीक की उपासना द्वारा, आराधना द्वारा, सेवा द्वारा रसिक सहृदय उस परमानंद का स्पर्श पाता है।
भारतीय दृष्टिकोण से कला की यही परिभाषा हो सकती है। हम केवल उसके लक्ष्य से ही यह लक्षण नहीं बना रहे हैं। काव्य की जो परिभाषा अपने यहाँ है, उसे यदि व्यापक रूप से लगाइए तो वह काव्य की ही परिभाषा नहीं रह जाती; चित्र, मूर्ति, कविता, संगीत आदि कलामात्र की परिभाषा हो जाती है। वस्तुतः कलामात्र की परिभाषा को ही काव्य की परिभाषा बनाने के लिए, एक देशीय रूप देकर काव्य की परिभाषा प्रस्तुत की गई है। अर्थात्, काव्य की परिभाषा पूर्ण व्याप्ति तभी होती है जब हम वाक्यं रसात्मकं काव्यम्” के स्थान पर—“कृतिरसात्मिका कला कहें वा रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम्” के बदले रमणीयार्थप्रतिपादिका कृतिः कला”।
हम अपने मन से ऐसा कहते हों, सो बात नहीं। अन्य कलाओं की जो प्रामाणिक मीमांसा अपने प्राचीन ग्रंथों में मिलती है, उनमें वे रस की अभिव्यक्ति का साधन ही मानी गई हैं। कई ग्रंथों से ऐसे प्रमाण उद्धृत न करके हम विष्णुधर्मोत्तर पुराण के ही अवतरण यहाँ देना चाहते हैं, क्योंकि एक तो यह ग्रंथ काफ़ी प्राचीन, आरंभिक मध्यकाल का अर्थात् सातवीं-आठवीं शती का है। दूसरे, इसमें यह विशेषता है कि काव्य (श्रव्य तथा दृश्य) गान, नृत्य अभिनय, चित्र और मूर्ति को कलाओं की एक इकाई मानकर उनके प्रकरण एक ही ठिकाने दिए गए हैं। अन्य ग्रंथों में यह बात नहीं है। या तो वे अपने-अपने विषय के स्वतंत्र शास्त्र हैं वा यदि कहीं उनकी एक संग चर्चा है तो वह विष्णुधर्मोत्तर पर ही अवलंबित है। फिर चित्रकला पर तो अभी तक कोई ग्रंथ भी नहीं मिला है। हाँ, आरंभिक 11वीं शती के ‘अभिलषितार्थ चिन्तामणि’ नामक अन्य ग्रंथ में स्पष्ट करके कहा है कि रस-चित्रों से रसों को अभिव्यक्ति होती है, देखते ही दर्शक का उन रसों से तादात्म्य हो जाता है।
अस्तु, विष्णुधर्मोत्तर के उक्त कलाओं के संबंध वाले कुछ वचन यहाँ उद्धृत किए जाते हैं।
नाट्य नव-रसमय है—
शृङ्गार हास्य करुणा वीर रौद्र भयानकः।
त्रीभत्साद्ध त-शान्ताख्या नव नाट्यरसः स्मृताः।
गान तो रसपरक है ही, उसके स्वर और लय तक रसपरक हैं।
पूर्वोक्ताश्च नव रसाः।
तत्र हास्यशृङ्गारयोर्मध्यम-पंचमौ।
वीररौद्राद्भ तेषु षड्जपंचमौ।
करुणे निषादगान्धारौ।
वीभत्सभयानकयोर्धैवतम्।
शान्ते मध्यमम्।
तथा लयाः-हास्यशृङ्गारयोर्मध्यमाः।
वीभत्स भयानकयोर्विलम्बितम्।
वीररौद्राद्भुतेषुद्रुतः।
नृत्त—
रसेन भावेन समन्वितं च, तालानुगं काव्यरसानुगश्च।
गीतानुगं नृत्तमुशन्तिधन्यं सुखप्रदं धर्मविवर्धनञ्च॥
चित्रों में भी—
शृङ्गार-हास्य-करुणा-वीर-रौद्र-भयानकाः।
वीभत्साद्भुत-शान्ताख्या नव चित्र-रसाः स्मृताः॥
और प्रतिमा तो शिला, लकड़ी वा धातुओं में निर्मित चित्र ही है—
यथा चित्रं तथैवोक्तं खातपूर्वं नराधिप।
सुवर्णरूप्यताम्रादि तश्च लौहेषु कारयेत्।
शिलादारुषुलौहेषु प्रतिमा करणं भवेत्॥
इन वाक्यों से जब यह बात निर्विवाद हो जाती है कि उक्त कलाओं का उद्देश्य भी रसों की अभिव्यक्ति ही है, तब हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि हमारे यहाँ की काव्य वाली उक्त परिभाषाएँ, जो तत्वतः एक ही हैं, कला की ही व्यापक परिभाषा का एकदेशीय रूप हैं।
जब ऐसी बात है तो उस परिभाषा में ही इस प्रश्न का उत्तर भी निहित है कि हमारे प्राचीनों का कला के सिद्धांत (थियरी) और प्रयोग (प्रैक्टिस, एप्लीकेशन) के संबंध में क्या दृष्टिकोण था। जब कला रस की अभिव्यक्ति है, रमणीयता की अभिव्यक्ति है तो उतने में ही उसके उद्देश्य और सिद्धि दोनों की परिभाषा प्रतिपादित हो जाती है। अर्थात्, सिद्धांत की अवस्था में भी कला किसी रसात्मक, रमणीयात्मक अभिव्यक्ति का नाम है और प्रयुक्त होने पर, काव्य, गान, नाट्य, चित्र वा प्रतिमा का रूप पाकर स्फुट होने पर, मूर्त होने पर भी रस की, रमणीयता की ही अभिव्यक्ति है। तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि हम 'कला, कला के लिए' (आर्ट फॉर आर्ट्स सेक) मानने वाले थे। मुझसे पूछा जा सकता है—“और, काव्यं यशसे, अर्थकृते, व्यवहार विदे...?”
अधीर न हूजिए। तनिक इस पर तो विचार होने दीजिए। 'रस अथवा रमणीयता की अभिव्यक्ति' का तात्पर्य क्या है? 'कला, कला के लिए' है क्या बला? ये 'यशसे, अर्थकृते, व्यवहारविदे' आदि तो कला के अवान्तर, बिलकुल निम्न स्तर के, उद्देश्य हैं। कोई कलाकार यश के लिए अपनी कृति तैयार करता है, कोई जीविका अर्जन के लिए, कोई लोक को विचक्षण बनाने के लिए। किंतु यह सब वह तभी न कर सकेगा जब उसमें निर्माण की क्षमता होगी; साथ ही वह निर्माण रसीला होगा। दूकान कितनी ही ऊँची क्यों न हो, मिठाई फीकी हुई तो ग्राहक वहाँ क्यों पहुँचने लगे?
कला से हमें रस क्यों मिलता है? इसलिए कि वह कलाकार की अनुभूति का स्वान्तः सुख है जो उसमें समा नहीं सकता, मूर्त रूप में उमड़ पड़ता है। ममाखी स्वयं रस का अनुभव करती है, उसका संचय करती है और फिर उसका मधुकोष बनाकर वितरित करती है। कलाकार का मधुकोष है उसके हृदय की वेदना, उसके हृदय की तड़प। वह हृदय जो विश्व के कण-कण के लिए उन्मन हो रहा है, द्रवित हो रहा है, जो अपनी उदार बाहें पसारकर निखिल ब्रह्माण्ड को परिवेष्टित करने में समर्थ है, समर्थ ही नहीं है, सचमुच उसका आश्लेष करके आनंद में विभोर है।
वाल्मीकि के ऐसे ही विगलित हृदय ने—
मा निषाद, प्रतिष्ठान्त्वमगमः शाश्वती समाः
यत् क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥
के रूप में सहसा अपनी अभिव्यक्ति की थी।
इसी कारण भवभूति का तो यहाँ तक दावा है कि—एको रसः करुण एव निमित्तभेदाद्भिन्नः पृथक् पृथगिवाश्रयते विवर्त्तान्। अर्थात् निमित्त-भेद से एक करुण रस ही, मानों भिन्न-भिन्न स्वरूप ग्रहण करता है। 'मानों' शब्द के बल को तो देखिए। कवि यह मानने के लिए प्रस्तुत नहीं कि वे रूप पृथक-पृथक हैं; वे हैं करुण रस के ही आकार, लगते भर हैं अलग-अलग। वस्तुतः यह दावा है भी एक बहुत बड़ी सीमा तक ठीक। आइए, उदाहरणों से इस तथ्य पर विचार करें।
कल्पना कीजिए कि एक पक्का जुआरी है, जिसने कौड़ी की लत के पीछे घर की कौड़ी-कौड़ी फूक डाली है। पत्नी के तन पर से एक-एक छल्ला तक उतरवा लिया है। छोटे-छोटे बच्चे दाने-दाने को बिलख रहे हैं। सारा परिवार कष्ट और दुर्दशा में निमग्न है। फिर भी वह जुआरी अपने नशे में मस्त है और उसके लिए पैसे का प्रबंध करने के लिए जघन्य-से-जघन्य, भीषण-से-भीषण कर्म कर डालता है। समाज उसे नारकीय कहेगा, जाने किस प्रकार दंडित करना चाहेगा; किंतु कलाकार का दृष्टिकोण सांसारिक दृष्टिकोण से भिन्न है। वह दुष्कर्म से घृणा करता है किंतु दुष्कर्मी के प्रति, उसकी बेबसी के कारण कलाकार की सहानुभूति है, उसका हृदय रो उठता है। इसी प्रकार किसी चोर, हत्यारे, कुलटा, सामान्या, स्वेच्छाचारी, आततायी, अत्याचारी इत्यादि-इत्यादि का पतन कलाकार के लिए दया का विषय है, करुणा का विषय है।
प्रेम की टीस, मुहब्बत का दर्द, जिसके कारण स्त्री पुरुष पर, पुरुष स्त्री पर, माता पुत्र पर, सेवक स्वामी पर और भक्त भगवान पर निछावर हो जाता है, किंवा, वही टीस जब उत्साह के रूप में परिणत होकर युद्धवीर को अपनी जान पर खेल जाने के लिए प्रेरित करती है, दानवीर को अपना सर्वस्व दे डालने के लिए उद्यत करती है वा दयावीर से शरीर उत्सर्ग करा देती है, तो प्रेम की इस अमायिकता से भी, जिसमें आदर्श और सौंदर्य का भेद नहीं रह जाता, कलाकार विगलित हो उठता है और उसकी कृति में एक तड़प कौंध उठती है। अथवा, यों कहिये कि प्रेम की उस टीस से उसके हृदय की एकतानता हो जाती है जिसे वह अपनी कृति के मूर्त रूप में अभिव्यक्त करता है। करुण रस की यह व्यापक परिधि हम इतनी विस्तीर्ण कर सकते हैं कि उसमें सभी रसों का समावेश हो जाए। किंतु, जो उतना मानने के लिए प्रस्तुत न हों उनके लिए इतना ही अलम् होगा कि कलाकार की प्रत्येक कृत एक सहानुभूतिमय अभिव्यक्ति है।
कलाकार को यह तथ्य अवगत है कि अशोभन में भी भगवान की रचना की एक शोभा, है, सुकुमारता है, जिसे शोभन के साथ निरखकर ही लीलामय की इस अनंत लीला का पूरा-पूरा रस मिल सकता है। अथवा यों कहिए कि कलाकार के लिए परमात्मा की रचना कहीं से भी अशोभन नहीं। इस तत्व को वह जानता मानता ही नहीं बल्कि हमें प्रत्यक्ष कर दिखाता है।
ऐसी रचना के लिए किसी दूसरे लक्ष्य की अपेक्षा नहीं रह जाती, वह स्वतःपूर्ति है, निरुद्देश्य निर्माण है, अत: 'कला के लिए कला' है।
कला को रसात्मक अथवा रमणीय कृति बताकर हमारे यहाँ यही सिद्धांत स्वीकृत हुआ है, यह कहने में मुझे तनिक भी आगा-पीछा नहीं। किंतु, शर्त यह है कि वह कृति रसात्मक हो। कलाकार जिस प्रकार एक सरस घनघटा को अंकित करता है, उसी प्रकार एक धूल-भरी आँधी को भी तो प्रत्यक्ष कर दिखाता है। उसकी घटा को निरखकर जिस प्रकार हमारा मनोमयूर नाच उठता है, उसी प्रकार उसकी आँधी का अनुभव करके मानों हम गर्द से नहा उठते हैं, नाक में धूल भर जाने से हमारा दम घुटने लगता है। आँखों में किरकिरी पड़ जाने से वे गड़ने लगती है। जब वह हमें एक हरा-भरा निकुंज दिखाता है तो हमारी आँखें विश्राम पाती हैं एवं हमारा हृदय शीतल हो उठता है, और इसके विपरीत एक सूखे ठूँठे वृक्ष का अंकन (भले ही वह शब्द-चित्र, स्वर-चित्र, वा वीक्ष्य चित्र हो) हमें उदास कर देता है। ये उदाहरण हमने इसलिए लिए हैं कि कलाकार की अनुभूति, सहानुभूति और अभिव्यक्ति का परिमंडल मानव-जगत तक ही सीमित नहीं। सारा चराचर, विश्व ब्रह्माण्ड, सो भी केवल बाहरी नहीं, अपितु उसका करणभूत अंतर्विश्व ब्रह्माण्ड तक, कलाकार के परिमंडल के अंतर्गत है।
परंतु, यदि वह कृति ऐसी है कि हम आँधी के संग स्वयं धूल-धक्कड़ बनकर बिना किसी और ठिकाने के उड़ने-पुड़ने लगते हैं वा एक ठूँठ बन जाना पसंद करते हैं तो वह कलाकृति नही, वह उसके विपरीत है। वह सात्विक आहार नहीं है जो आयु, सत्व बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाता है। स्नेहपूर्ण, सरस, स्थायी और हृद्य है। वह, वह राजस और तामस आहार है जो तीखा है, चरपरा है, नमकीन है (सलोना नहीं), रूखा, उष्ण और विदाहक है। वह सड़ा-गला, घिनौना, दुर्गंधित, जूठा-कुठा और बासी-तिवासी है। वह अमेध्य है। रसौ वै सः का नैवेद्य नहीं हो सकता।
क्या एक विलासी वा विलासिनी का वासनामय चित्रण कला व शृंगार रस है? वह अत्यंत प्रीति (रति) को तो प्रस्फुटित नहीं करता, हमारे भीतर एक आग अवश्य भड़का देता है। प्रीति की पराकाष्ठा तो उस विरही राम में है जो सीता के अभाव में, अपनी यज्ञ-क्रिया तक में जिसमें अर्द्धांगिनी का होना अनिवार्य है, दूसरी पत्नी का वरण नहीं करता, उनकी स्वर्ण-प्रतिमा बनाकर ही कर्मकांड का थोथापन पूरा करता है। वही कहने का अधिकारी है—'अहो विरहजं दुःखं एको जानाति राघवः'। विरह ऐसे को न होगा तो क्या बहुनायक को होगा? रस को रमणीयता की यह पराकाष्ठा है। सौंदर्य की यह परिसीमा है, जहाँ सौंदर्य और आदर्श का अभेद है।
जिस समय गुप्तजी के द्वापर की राधा कहती हैं—
शरण एक तेरे मैं आई
धरे रहें सब धर्म हरे,
बजा तनिक तू अपनी मुरली
नाचें मेरे मर्म हरे!
वा कुब्जा कहती है—
तेरी व्यथा बिना, सुन मेरी
कथा न पूरी होगी;
तू चाहे जिसका योगी हो
मेरा क्षणिक वियोगी।
तेरे जन अगणित परंतु मैं
एक विजनता तेरी,
बस इतनी ही मति है मेरी,
इतनी ही गति मेरी।
उस समय क्या कला और आदर्श की पूर्ण अद्वैतता नहीं हो जाती? ऐसी अभिव्यक्ति हो तो वह निःसन्देह रसीली है, रमणीय है। यही है आत्यंतिक सुख, बुद्धिग्राह्य, अतींद्रिय, ब्रह्मानंद का प्रतीक। यहाँ काका कालेलकर का एक अवतरण दिए बिना मन नहीं मानता:... इस प्रश्न को लेकर काफ़ी चर्चा हुई है कि कला में नग्नता का दर्शन कराया जाए या नहीं। पुराने ज़माने में हमारे तांत्रिकों ने नग्नता की उपासना कुछ कम नहीं की है और हम उसके परिणाम भी देख चुके हैं; हमारी भाषा का निंदित अर्थ में व्यवहृत होने वाला 'छाकटा' 'शाक्त' शब्द से ही बना है, और यही इस प्रश्न का यथेष्ट उत्तर है। लेकिन नग्नता में भी पूर्ण पत्रित्रता का दर्शन कराया जा सकता है। दक्षिण भारत में भद्रबाहु, बाहुबलि गोमतेश्वर की नंगी मूर्तियाँ हैं। ये इतनी बड़ी और विशाल हैं कि कई मील की दूरी से लोग इन्हें देख सकते हैं, पर इन मूर्तियों के चेहरों पर मूर्तिकारों ने ऐसा अद्भुत उपशम भाव दरसाया है कि वह पवित्र नग्नता दर्शक को पवित्रता की ही दीक्षा देती है।
इस प्रकार कला जब तटस्थता से रस के निदर्शन के लिए ही कोई अभिव्यक्ति करती है तभी वह कला कहलाने की अधिकारिणी है। और उस समय उसके उद्देश्य और सिद्धि में अभेद हो जाता है—जानत तुमहिं तुमहिं ह्वैं जाई। इसी दृष्टि से हमारे पूर्वजनों ने कला को देखा है। उनकी उस दृष्टि को यदि हम आजकल के शब्दों में अनूदित करें तो वह 'कला, कला के लिए' के अतिरिक्त और क्या है?
यह समझना भूल होगी कि प्राचीनों की उक्त कला-परिभाषा एवं कला-विषयक दृष्टिकोण एक पुरातन सिद्धांतमात्र है। वह चिर सत्य अतएव नित्य अद्यतन है।