Kala Dharm Aur Vigyan (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar

कला, धर्म और विज्ञान : रामधारी सिंह 'दिनकर'

हिन्दी-प्रान्तों में आजकल साहित्य-सभाओं की धूम है। यह अच्छी बात है, क्योंकि इससे मालूम होता है कि देश की जनता राजनीति से ऊब रही है अथवा राजनीति को वह अब काफी नहीं समझती। हम छिलके से बीज की ओर, कर्म से भावना की ओर और देह से मन की ओर चलने लगे हैं, यह हमारे सांस्कृतिक उत्थान का सूचक है। किन्तु एकाध बिन्दु है जहाँ पर हमें सावधानी बरतने की आवश्यकता है और वह बिन्दु यह है कि हिन्दुस्तान में कविता केवल कवि ही नहीं करते हैं, कुछ दूसरे लोग भी हैं जो इस रोग से ग्रस्त हैं। कविता का एक अच्छा अर्थ है और एक बुरा अर्थ भी; ठीक वैसे ही, जैसे विज्ञान के भी अच्छे और बुरे अर्थ होते हैं। और हमारा देश कविता के इस बुरे अर्थ को जीवन में उतारने लगा तो यह कितना बुरा होगा, यह सोचने की बात है। और यह शंका निर्मूल नहीं है, क्योंकि अपने देश के कुछ ऐसे लोग भी कविसुलभ अतिरंजना और आवेश से काम लेते हैं, जिन्हें बकवास में नहीं फँसकर अपने ठोस कार्यों का सम्पादन करना चाहिए। ये लोग उस बुरे अर्थ में कवि हैं जिसका उल्लेख ऊपर हुआ है। विश्वविद्यालयों में भी ऐसे बहुत से छात्र मिलेंगे जो वैज्ञानिक चिन्तन को महत्त्व नहीं देते, जो थोड़े में बहुत कहने का अभ्यास नहीं डालते और जो भाषा में सुस्पष्टता की जगह सजावट को ज्यादा पसन्द करते हैं। लिखने की समस्या यह होनी चाहिए कि हमने जो लिखना चाहा, वह लिखा गया या नहीं; किन्तु लड़के यह सोचते हैं कि हमने जो लिखा, वह सुन्दर हुआ या नहीं। मुझे भय है कि यह रोग कॉलेजों और स्कूलों में कविता और कवि-सम्मेलनों में प्रचार से बढ़ा है। कविता को लोग कविता तक ही सीमित नहीं रखते, बल्कि उसकी भाषा का प्रयोग वहाँ भी किया जाने लगा है जहाँ सौन्दर्य और संकेत से अधिक सुस्पष्टता की आवश्यकता है। शुक्ल जी ने जिस भाषा को घिनघिनाती, पिचपिचाती और प्रस्वेदयुक्त भाषा कहा है, वह यही बुरी काव्यात्मकता से लदी हुई कृत्रिम भाषा है। जो भी इस भाषा-शैली को पसन्द करता है, उसके विचारों को हम सुस्पष्ट नहीं मान सकते और न हम यही मानते हैं कि उसने उतनी वैज्ञानिकता भी अपनाई है जितनी वैज्ञानिकता केवल वैज्ञानिकों के लिए ही नहीं, कवियों और कलाकारों के लिए भी जरूरी है।

कविता का प्रतिलोम गद्य नहीं, विज्ञान है और यह दुनिया के लिए बुरी घटना है कि विज्ञानवालों ने कविता से आँख फेर ली है। अगर बदले में कवितावाले भी विज्ञान से सम्बन्ध तोड़ लें तो दुनिया का दोहरा नुकसान होगा। अपने अच्छे अर्थ में विज्ञान बहत अच्छी चीज है, क्योंकि उससे हम सत्य के शोध में तटस्थता बरतना सीखते हैं और हमारी चिन्तन की पद्धति सुस्पष्ट, साफ और अधिक विश्वसनीय होती है। इसलिए जरूरी है कि हम अपनी कल्पना में थोड़ी-सी वैज्ञानिकता लाएँ और अपनी शैली को सुन्दर बनाने के पहले सरल और सुबोध करें। बर्फ और भाप-ये उस तत्त्व के दो छोर हैं जिसे हम पानी कहते हैं। जैसे अवैज्ञानिक कल्पना निरा भाप होती है, वैसे ही अकाव्यात्मक तथा अधार्मिक विज्ञान भी बर्फ की चट्टान है। इसलिए उचित है कि हम किसी सरोवर के पास निवास करें जहाँ भाप और बर्फ-दोनों ही पानी में बदलकर मनुष्य के सुखों में वृद्धि करते हैं।

यह प्रश्न का एक पहलू है। मगर इसका एक दूसरा पहलू भी है जो इसी की तरह महत्त्वपूर्ण है और जिसे देखते हुए यह अच्छा मालूम होता है कि हिन्दुस्तान में साहित्य-सभाएँ खूब हो रही हैं और लोग, चाहे मजाक में ही सुनें, मगर वे ऐसी बातें सुनने को तैयार हो रहे हैं जिन बातों से मोटर नहीं बनती, महल नहीं बनते, न व्यापार और व्यवसाय की ही तरक्की होती है, मगर फिर भी जो बातें सुनने लायक हैं; क्योंकि उनसे आदमी के भीतर बसनेवाले आदमी को भोजन मिलता है। असल बात यह है कि हिन्दुस्तान को जब मैं केवल हिन्दुस्तान के रूप में देखता हूँ, तब मुझे यह बात अच्छी नहीं लगती कि कल्पना और आमुष्मिकता का प्रचार करने के लिए इस देश में बहुत अधिक साहित्य-सभाएँ की जाएँ; क्योंकि अनेक गुणों के साथ कल्पना और आमुष्मिकता के बहुत से दुर्गुण भी हम लोगों में पहले से ही विद्यमान हैं, बल्कि इन्हीं दुर्गुणों के प्राचुर्य के कारण हमारा पतन हुआ है और जब तक तराजू के दूसरे पलड़े पर हम वैज्ञानिकता और बुद्धिवाद की काफी मात्रा नहीं जमा कर देते, तब तक हमारा सम्यक् उत्थान नहीं होगा। मगर जब मेरी दृष्टि इस बात पर पड़ती है कि हिन्दुस्तान केवल एक देश ही नहीं, महाविश्व का एक प्रमुख अंग भी है, तब मुझे लगता है कि यह अच्छा है कि संसार का कमसे-कम एक भाग तो ऐसा है जो दैहिक नहीं, मानसिक मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए भी प्रयास कर रहा है और जो इस गए-बीते जमाने में भी यह मानकर चल रहा है कि मनुष्य को केवल वायुयान ही नहीं, मन की भी उड़ान चाहिए। उसे केवल बाहरी तन्दुरुस्ती ही नहीं, भीतर का भी स्वास्थ्य चाहिए।

हिन्दुस्तान की मुसीबत का एक कारण अन्धविश्वास की अधिकता है, परलोक के सामने लोक को तुच्छ मानने का भाव है। हम कल्पना को अधिक और सत्य को कम माननेवाली जाति हैं। हमारा पतन ही इस कारण हुआ कि हम आधिभौतिकता को त्याज्य एवं परलोक को वरेण्य समझते रहे। इसके विपरीत, उन्नत देशों में अशान्ति इस कारण है कि वहाँ के लोग परलोक की चिन्ता छोड़कर सारी शक्ति लगाकर लोक की साधना में लगे हुए हैं। किसी ने ठीक ही कहा है कि जब पश्चिम के लोग उद्दामता से जी रहे हैं, तब पूरबवाले माया के अन्धकार में जीवन का अर्थ टटोल रहे हैं। इसलिए जो जीवन को निस्सार समझ रहे हैं, उन्हें यह उपदेश चाहिए कि जीवन सारपूर्ण और सत्य है एवं इसकी उपेक्षा से हमारा लोक ही नहीं, परलोक भी नष्ट होता है। किन्तु जो लोग परलोक को छोड़कर केवल लोक को पकड़े हए हैं, उन्हें यह ज्ञान चाहिए कि लोक यथेष्ठ नहीं है। हमें कुछ इस बात की भी चिन्ता करनी चाहिए कि वास्तविक भूख मन की शान्ति में है, त्याग और परोपकार में है। मनुष्य केवल मोटर और महल पाकर ही सुखी नहीं होता। उसकी आत्मा को वह संतोष भी चाहिए जो संत और आध्यात्मिक साधकों का संतोष है, जो कवियों और कलाकारों का संतोष है। विज्ञान शारीरिक सुखों की वृद्धि के लिए है; किन्तु मन के आनन्द और मानसिक पुरुष के विकास के लिए कला, साहित्य और धर्म का विकास चाहिए।

जैसे हिन्दुस्तान को देखते हुए हम यह समझते हैं कि आमुष्मिकता यथेष्ठ नहीं है, वैसे ही संसार को देखते हए हम टेक्नोलॉजी को भी काफी नहीं मानते। असल में मनुष्य उतना ही नहीं है जितना कि स्टेथेस्कोप, माइक्रोस्कोप और एक्स-रे यन्त्र उसे देख पाते हैं। आदमी टीसू है, आदमी आरगेन है, आदमी फ्लुइड है और आदमी चेतना है। मगर आदमी के सभी रूप इतने से ही खत्म नहीं हो जाते; वह कवि भी होता है, वह दूसरों के लिए मरनेवाला बलिदानी वीर भी होता है और वह संत तथा रहस्यवादी भी होता है जो इहलौकिक सुखों की ज्यादा परवाह नहीं करते। और हममें से हरेक आदमी अपने अनुभव से यह भी बतला सकता है कि आदमी का एक और रूप है जो उसके दिल की गहराइयों में बसता है और जिसका दर्शन हम तभी कर पाते हैं जब हम अन्तर्मुख होते हैं। टीसुओं के समवाय को मनुष्य कहना बहुत ठीक है, मगर अभी तो विज्ञान को यही पता नहीं चला है कि मन की क्रियाओं का टीसुओं पर क्या प्रभाव पड़ता है और मन की क्रियाशीलता के कारण क्या हैं। मुख्य बात यह है कि मनुष्य जीवन के सारे रूप जैसे धर्म और कविता को दिखलाई नहीं पड़ते, वैसे ही वे विज्ञान को भी दिखाई नहीं देते हैं। शायद दोनों के अपने-अपने क्षेत्र हैं और धर्म तथा काव्य एवं टेक्नोलॉजी और विज्ञान अगर अपनी-अपनी सीमाओं के अन्दर काम करें तो मनुष्य का अधिक कल्याण हो सकता है। इस युग के सबसे बड़े वैज्ञानिक आइंस्टीन का यह विचार है कि जीवन को हम दो भागों में बाँट सकते हैं। पहला भाग वह है जो स्कूल है, जहाँ बुद्धि काम कर सकती है, जहाँ गणित के नियम चल सकते हैं तथा जो भाग विज्ञान के औजारों से छुआ जा सकता है। किन्तु जीवन का एक भाग और हो सकता है, जो आदर्श का भाग है तथा जो इस चिन्ता को प्रधान मानता है कि जीवन को कैसा होना चाहिए एवं उसे किस दिशा में जाना चाहिए। विज्ञान हमें जीवन के स्थूल रूप का विश्लेषण देता है, नए-नए आविष्कारों के द्वारा हमारे हाथ में नई शक्ति रखता है। किन्तु इस शक्ति का उपयोग किन उद्देश्यों के लिए किया जाए, यह बताना विज्ञान का काम नहीं है। इसका जिम्मा सदा से धर्म पर रहा है और आज भी इस सम्बन्ध में धर्म ही हमारा पथ-प्रदर्शक होगा। देखा गया है कि जब-जब धर्म और विज्ञान अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं, तब-तब मानव समाज का अकल्याण होता है। गैलिलियो और डारविन के खिलाफ जब चर्च ने तलवार उठाई थी, तब यह इस बात का उदाहरण था कि धर्म कैसे विज्ञान की भूमि पर दखल देता है और आज भी लोग टेक्नोलॉजी से जीवन की सभी समस्याओं का समाधान खोजते हैं, ये इस बात के उदाहरण हैं कि विज्ञान कैसे धर्म और साहित्य को अपदस्थ करना चाहता है।

जब से संसार में टेक्नोलॉजी का प्रचार बढ़ा, धर्म और कविता-दोनों के लिए कठिनाई उत्पन्न हो गई, क्योंकि दोनों के उत्स पर से मनुष्य की आँख हट गई है। धर्म और काव्य का उत्स एक प्रकार के विस्मय का भाव है, सामने जो अनन्तता खुली हुई है और जिसका कोई भी छोर पकड़ाई नहीं देता, उस पर चमत्कृत होने की योग्यता है, और यह योग्यता केवल कवि और साधक के लिए ही नहीं, वैज्ञानिक के लिए भी आवश्यक है, क्योंकि विस्मय के बिना जिज्ञासा नहीं जगती और जिज्ञासा के बिना अनुसंधान की प्रेरणा नहीं आती है। विज्ञान ने अपने लिए तो विस्मय की यह भावना कायम रखी, मगर उसकी मशालों से संसार में रोशनी का एक हाहाकार मच गया और दुनिया में जितनी भी गोधूलियाँ थीं, सब प्रकाश में गायब हो गईं और वे लोग उपेक्षा के पात्र बन गए जो गोधूलि में खड़े होकर अपना काम करते थे। असल में गोधूलि गायब हुई नहीं, वह अब भी मौजूद है, क्योंकि धर्म और काव्य जिन जिज्ञासाओं का समाधान इतने दिनों से खोज रहे थे, उन जिज्ञासाओं का समाधान विज्ञान को भी नहीं मिला है। किन्तु विज्ञान के अभ्युत्थान के साथ उपयोगितावाद और बुद्धि का जोर बेतरह बढ़ गया और लोगों ने सोचा कि धर्म और कविता उपयोगी नहीं हैं, इसलिए उन्हें छोड़ देना चाहिए। इस विश्वास के प्रचार के कारण सारे उपयोगी विषय विज्ञान के हवाले हो गए। बच गया लटे हुए हृदयों का रोदन और असफल जीवन का शाप, जिसे लेकर कविता अपने दिन गुजारने लगी। पिछले डेढ़ सौ वर्षों से संसार का हाल यह है कि जीवन का जल खल-खल करता हुआ विज्ञान की घाटी में वेग से बहता जा रहा है और कविता उस पर इन्द्रधनुष बनकर मेहराब ताने खड़ी है।

शायद इसी दुरवस्था से घबराकर नए युग के कुछ कवियों ने यह मान लिया है कि कविता के उपयोगी पक्ष पर जोर देना जरूरी है और कविता के द्वारा उद्देश्यों का खेत जोतना कोई गुनाह नहीं माना जाना चाहिए। एक दृष्टि से मैं भी यह मानता हूँ कि सोद्देश्यता कविता का दोष नहीं है। बल्कि जैसे क्लासिक और रोमांटिक का भेद कविता की राजनीति है, वैसे ही सोद्देश्यता और निरुद्देश्यता भी साहित्यिक राजनीति के ही सवाल हैं, क्योंकि साहित्यकार जितना भी तटस्थ होकर लिखें, किन्तु जभी वह अपनी रचना को जनता के समक्ष लाता है, तभी वह उन मूल्यों का प्रचारक बन जाता है जिन मूल्यों में उसका विश्वास है और जिन मूल्यों की गन्ध उसकी रचनाओं में, उसके नहीं चाहने और नहीं जानने पर भी, आती ही रहती है। इसलिए इस निष्कर्ष से हम भाग नहीं सकते कि कला की प्रत्येक कृति किसी-न-किसी मूल्य का प्रचार करती है, जैसे गुलाब और कमल के खिलने से उनकी गन्ध का प्रचार आप ही आप होने लगता है। किन्तु प्रचार कला का निश्चित उद्देश्य है, यह मानने में कठिनाइयाँ हैं, और सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि अगर हम कला का वरण सिर्फ इसलिए करते हैं कि उसके जरिए हमें किसी मत का प्रचार करना है तो सेवक हम उस मत के ठहरते हैं, कला या कविता के नहीं। कला में गन्ध चाहे जिन मूल्यों की भी आए, किन्तु मूलतः वह स्वयं जीवन के एक महान मूल्य का प्रतिनिधित्व करती है और अन्य मूल्यों का प्रचारक मात्र बन जाने से कला उस तत्त्व से कुछ-कुछ वियुक्त हो जाती है जिसके कारण वह स्वयं मूल्यवान है। उदाहरण के लिए, अगर हम यह कहें कि भलमनसाहत हमें इसलिए बरतनी चाहिए कि जिन्दगी में उससे फायदा होता है, तो फिर भलमनसाहत अपने-आपमें कोई गुण नहीं रह जाती, बल्कि वह हमारे फायदों की सीढ़ी बन जाती है। इसी प्रकार, सत्कर्म करने में अगर हमारा यह भाव रहे कि इससे सुयश मिलता है, तो फिर हमारा सत्कर्म सत्कर्म नहीं रहकर सुयश का साधन बन जाता है और हम पर यह दोष आसानी से लगाया जा सकता है कि हम सत्कर्म को सुयश से कम मूल्यवान समझते हैं। अंग्रेजी में एक कहावत है कि सच्चाई सबसे बड़ी नीति है, जिससे यह ध्वनि निकलती है कि सच्चाई इसलिए बरतनी चाहिए कि उससे लाभ है। यह ठीक है कि लाभवाले रास्ते पर चलने का लोभ सबमें हो सकता है, किन्तु लाभ तो कभी-कभी सच्चाई छोड़कर भी प्राप्त किया जा सकता है। जब यहाँ सबसे बड़ा खतरा यह है कि अगर हमारी आँख लाभ पर ही लगी रही तो कभी-कभी हम बेईमानी पर भी उतर सकते हैं, खास कर उस समय, जब लाभ का आसान रास्ता बेईमानी ही नजर आए।

और जो बात नैतिकता के सम्बन्ध में है, वही कला पर भी लागू होती है। कलाकार अपनी कला के माध्यम से कोई गन्ध फैलाए, यह बुरी बात नहीं है; क्योंकि हर आदमी के प्रस्वेद में कोई-न-कोई गन्ध होती है। लेकिन अगर कलाकार कला का माध्यम इसलिए पकड़े कि उसके भीतर से उसे किसी मत या वाद का प्रचार करना है, तो खतरा यह रहेगा कि जहाँ प्रचार की बन्दिशें कला में खप नहीं सकतीं, वहाँ वह कला को विकृत करेगा, उसे वह काम करने को लाचार करेगा, जो काम कला स्वेच्छा से नहीं करना चाहती। सच तो यह है कि जैसे केवल लाभ और सुविधा के लिए सत्य को अपनानेवाला व्यक्ति कहीं-न-कहीं बेईमान बन जाता है, उसी प्रकार केवल प्रचार के लिए कला को अपनानेवाला कलाकार हमेशा कलाकार नहीं रहता।

ऊपर जो दलीलें दी गई हैं. उनका मान इस भय से कम नहीं समझना चाहिए कि उनसे 'कला के लिए कला' वाले सिद्धान्त का पक्ष पष्ट होता है। इस सिद्धान्त की निन्दा तो हुई है और वह तिरस्कृत भी कर दिया गया है, किन्तु तब भी प्रत्येक कलाकार के भीतर एक मोह हमेशा मौजूद रहा है कि वह कला की सेवा कला के लिए ही करता है। सत्य के लिए सत्य और कला के लिए कला-ऐसा कहने में कोई दोष नहीं दीखता। दोष तब आता है जब सत्य के नाम पर किसी और वस्तु की पूजा होने लगती है तथा कला के नाम पर वासना का प्रचलन होने लगता है और रुग्ण सुन्दरता के फेरे में पड़कर जिन्दगी की उपेक्षा की जाने लगती है। सत्य, शिव और सुन्दर में से प्रत्येक तत्त्व अपने भीतर बाकी दो तत्त्वों का निचोड़ लिए हुए है। मगर यह अनुभूति तभी आती है जब मनुष्य का जीवन ऊँचा हो जाए, जब बाहरी भेदों को चीरकर वह उस जगह पहुँच जाए जहाँ जीवन और कल्पना, शब्द और विश्वास तथा विश्वास और कर्म में कोई भेद नहीं रह जाता। यही स्थिति महाकलाकार की स्थिति है और ऐसे कलाकार को यह कहना कि तुम कला की उपासना कला के लिए मत करो, सिर्फ अपनी अज्ञता का परिचय देना है। असल में यह उपदेश उनके लिए है जो सामान्य धरातल के कलाकार हैं, जिनमें खूबसूरती के सामने संयम से बैठने की धीरता नहीं है और जो उस योगी के समान छिछले हैं जो चमत्कार दिखाकर लोगों को ठगने से बाज नहीं आता।

कला की खोई हुई प्रतिष्ठा को वापस लाने का सही तरीका यह नहीं है कि हम उसकी प्रचारात्मकता पर जोर दें, बल्कि यह कि हम उन गुणों की कद्र करें जिनका प्रतिनिधित्व करने के कारण कला आज तक आदरणीय रही है, उन मूल्यों पर जोर डालें जिनका दर्शन या विकास वैज्ञानिक तर्कों से नहीं, प्रत्येक कल्पना और सहज-वृत्ति से किया जाता है। कला की स्वीकृति उन शक्तियों की स्वीकृति है जिनके द्वारा मनुष्य सौन्दर्य को देखने और उसमें खो जाने की क्षमता प्राप्त करता है, जिनके द्वारा वह विस्मित और चकित होने की योग्यता हासिल करता है तथा जिनके द्वारा वह अपने उन रूपों को देख पाता है जो माइक्रोस्कोप और स्टेथस्कोप से दिखाई नहीं देते।

उपयोग मनुष्य का सर्वस्व नहीं है। उपयोगवादी युग की दृष्टि में कला को इज्जत दिलाने के लिए उपयोग का सहारा भले लिया जाए, मगर बात रह जाती है कि आदमी हर काम उपयोग के लिए ही नहीं करता; बल्कि वह जिन कामों के जरिए पशुत्व से कुछ दूर निकल सका है, उनमें से शायद ही कोई काम ऐसा हो जिसे मनुष्य की जीवधारी प्रवृत्ति का परिणाम कह सकें, जिसे मनुष्य ने जान-बूझकर अपनी जीवन-रक्षा अथवा अपनी आय बढ़ाने के लिए किया हो। कविता और चित्रकारी मनुष्य की जीवन-रक्षा के लिए तनिक भी आवश्यक नहीं है; किन्तु मनुष्य कविता और चित्र बनाकर भी पशुत्व से अलग हुआ है। ईश्वर है या नहीं, मरने के बाद क्या होता है तथा जन्म के पहले हम कहाँ थे-इन विचारों से हमारे जीवन-संघर्ष का क्या सम्बन्ध हो सकता है? फिर भी जो सबसे बड़े आदमी हुए हैं, वे इन्हीं प्रश्नों में उलझे हुए थे। घर हवादार हो, यह मनुष्य की आवश्यकता है; किन्तु वह सुन्दर हो, यह तो बिलकुल उसका शौक है। फिर भी शौक को आदमी अलग नहीं रख सकता। केवल कला ही नहीं, विज्ञान के भी अधिक आविष्कार आकस्मिक रूप से हुए हैं और कुछ ऐसे भी हुए हैं जिनसे मनुष्य का जीवन संकट में पड़ गया है। फिर भी ये आविष्कार मानवीय बुद्धि की विजय के चिह्न हैं। 'यह काम मनुष्य के लिए जरूरी है, इसलिए इसे करना चाहिए और यह काम जरूरी नहीं है, इसलिए इसे नहीं करना चाहिए'-इतना सोचकर विज्ञान भी काम नहीं करता है। कलाकार को जैसे सौन्दर्य की जिज्ञासा रहती है, वैज्ञानिक में भी उसी प्रकार नए-नए नियमों के जानने की उत्सुकता काम करती है और दोनों ही अपना काम बहुत कुछ निरुद्देश्य भाव से करते हैं। उपयोगिता की ओर उनकी दृष्टि कम जाती है। केवल ज्ञान के लिए ज्ञान की खोज करनेवाले पंडितों ने अणु-भंग किया। केवल सौन्दर्य के लिए सौन्दर्य चाहनेवाले लोग विश्व के सर्वश्रेष्ठ कलाकार हुए।

जहाँ तक उपयोगिता का घेरा है, वहाँ तक पशु और मनुष्य दोनों समान हैं। भैंस का आनन्द अनुपयोगी काम करने में नहीं है। अनुपयोगी ज्ञान के संधान और अनुपयोगी सौन्दर्य के विधान से आनन्द लेने की योग्यता मनुष्य में ही होती है। जो कविता, चित्र, मूर्ति अथवा आविष्कार केवल आनन्द एवं औत्सुक्य के भाव से किए गए हैं, वे भी हमारे किसी उपयोग में आ जाएँ, यह दूसरी बात है। किन्तु उपयोग वैज्ञानिक और कलाकार में से किसी की भी प्रेरणा का मूल स्रोत नहीं रहा है। रंजन पहले आत्मदेव का, तब किसी और का ज्ञान पहले अपनी जिज्ञासा की शान्ति के लिए, तब किसी उपयोग के लिए यह नियम कला और विज्ञान, दोनों पर लागू रहा।

('रेती के फूल' पुस्तक से)

  • कहानियाँ और अन्य गद्य कृतियाँ : रामधारी सिंह दिनकर
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