कला और कृत्रिमता (कहानी) : राय कृष्णदास
Kala Aur Kritrimta : Rai Krishna Das
सम्राट् ने एक महल बनाने की आशा दी-अपने वैभव के अनुरूप, अपूर्व सुख और सुखमा की सीमा ।
देश-भर के बड़े-बड़े स्थपतियों का दिमाग उसी का नक्शा तैयार करने में भिड़ गया । नक्शा तैयार हुआ । उसे देखकर सम्राट् फड़क उठे; उनके गर्व को बड़ी मधुर गुदगुदी हुई । जिस समय उस महल की तैयारी का चित्र उनके मनोनेत्र के सामने खड़ा हुआ, संसार के बड़े से बडे प्रासाद निर्माता नरेन्द्र-- आर्यावर्त्त, मिस्र, काबुल, चीन, पारस, ग्रीस, रोम आदि के, तुच्छ मालूम हुए, क्योंकि उन्होंने भव्यता और चारुता का जो प्रदर्शन किया था वह इसके आगे कुछ भी न था ।
जिन मदों से सम्राट् मत्त हो रहे थे आज उनमें एक और बढ़ा ।
जिस भाग्यवान स्थपति की कल्पना ने इस भवन की उद्भावना की थी उसके तो पैर ही जमीन पर न पड़ते थे । सातवें आसमान की उड़ान में उसे अपनी इस कृति के सिवा अन्य कोई वस्तु दीख ही नहीं पड़ती थी ।
अस्तु ।
संसार-भर की एक-से-एक मूल्यवान और दुर्लभ सामग्रियाँ एकत्र की गईं और वह प्रासाद बनने लगा । लाखों वास्तुकार, लाखों शिल्पी काम करने लगे ।
नीहार भी उन्हीं में से था । संगतराशों की एक टोली का वह मुखिया था और उसके काम से उसके प्रधान सदैव सन्तुष्ट रहते थे । किन्तु वह अपने काम से सन्तुष्ट न था । उसमें कल्पना थी । जो नक्शे उसे पत्थरों में तराशने को दिये जाते उनमें हेर-फेर और घटाव-बढ़ाव की' जो भी आवश्यकता सुरुचि को अभीष्ट होती,' उसे तुरन्त भास जाती । परन्तु उसका कर्त्तव्य था केवल आज्ञापालन, अत: यह आज्ञापालन वह अपनी उमंग को कुचल-कुचल कर किया करता । पत्थर गढ़ते समय टाँकी से उड़ा हुआ छींटा उसकी आखों में उतना न कसकता जितना उन नक्शों की कुघरता ।
इतना ही नहीं, उस सारे महल की कल्पना ही उसे वास्तु के मूल पुरुष, मय असुर की गठरी सी मालूम होती और उस स्थान पर पहुँचते ही उसे ऊजड् भयाबनेपन, और बदनुमापन की ऐसी प्रतीति होती कि वह सिहर उठता, मन में कहता-अच्छा बड़ा खड़ा किया जा रहा है, क्या ढकोसला है! और, उसकी कल्पना एक दूसरा ही कोमल स्वप्न देखने लगती ।
धीरे-धीरे यह चर्चा महाराज के कानों तक पहुँची कि नीहार अपने घर में एक महल बना रहा है-एक छोटा-सा नमूना । लोग राजप्रासाद के और इसके सौन्दर्य की तुलना करने लगे हैं कि वह इसके आगे कुछ भी नहीं; इसकी चारुता और कौशल अपूर्व है । नगर भर में इसकी चर्चा थी ।
अधीश्वर की भावना को चोट लगी । जिस मूर्ति की वह उपासना कर रहे थे उस पर जैसे किसी ने आघात किया हो । परन्तु वे ज्वलन प्रकृति के न थे, उनके हृदय में उसे देखने की इच्छा जाग उठी ।
उनके हृदय में कला का जो राजस प्रेम था, वह उन्हें प्रेरित करने लगा । क्योंकि उनसे कहा गया था कि जिस समय वह काम करने लगता है, मग्न हो जाता है, कहाँ क्या हो रहा है, इसकी खबर ही नहीं रह जाती । इसके चारों ओर देखने वालों की भीड़ लगी रहती है । किन्तु, इससे क्या! वह ज्यों का त्यों अपने विनोद में लगा रहता है । वे इस तल्लीनता को देखने के लिये उत्सुक हो उठे-अपने को रोक न सके ।
एक दिन वे चुपचाप नीहार के यहां पहुँचे । दर्शक-समूह सम्राट् को देखकर खडबडाया; किन्तु उनके एक इंगित से सब जहाँ के तहाँ शान्त हो गए । चुपचाप सम्मान-पूर्वक उन्हें रास्ता दे दिया ।
कलावंत की उस तन्मयता, उस लगन, उस समाधि के देखने में मनुष्य स्वयं तमाशा बन जाता था । महाराज भी वैसे ही रह गए । जिस प्रकार अचेतन यंत्र, चेतन बनकर काम करने लगता है, उसी प्रकार यह चेतन, अचेतन यंत्र होकर, अपनी धुन: में लगा हुआ था उसकी कामना के प्राबल्य ने चेतन-अचेतन .का भेद मिटा दिया था-तभी न वह पत्थर में जान डाल सकता था ।
सम्राट् का स्वप्न विकीर्ण हो गया, जैसे गुलाब की पंखडियाँ अलग- अलग होकर उड़-पुड़ जाती हैं । जिस प्रकार शुक्ति में रजत का भ्रम उसी समय तक रहता है जब तक वास्तविक सामने नहीं आ जाता, उसी प्रकार प्रासाद के सम्बन्ध में वे जिस कला-आभास से अभिभूत हो उठे थे, यह प्रकृति कला दीख पड़ते ही, वह जाने कहां विलीन हो गया ।
विजृम्भा की मूर्ति बने सम्राट् उसे देख रहे थे कि नीहार क्षण के लिए किसी कारण अपनी उस निद्रा से जागृत हुआ । उसकी दृष्टि उन पर पड़ी--
उस समय उसके हृदय में बड़ा हर्ष हुआ' । उसने अपने इस निरुद्देश्य निर्माण का फल-सा पा लिया और वह सम्राट् के चरणों में भक्ति भाव से नत हुआ ।
सम्राट् ने उसे उठा कर अपने उन्मुक्त हृदय से लगा लिया । कह उठे- वाह! यहाँ तो पत्थर एक स्निग्ध-हृदय से एकतानता करके मोम बन गया है । नीहार! तू धन्य है । निस्सन्देह किसी शाप-वश पृथ्वी पर आया है, तभी तो यह वैजयन्त प्रासाद यहाँ निर्मित हुआ है ।
'नरेन्द्र! आप ही यह, रहस्य जानें'-विनीत शिल्पी ने अपनी लघुता व्यक्त करके कहा ।
'तो अब इसका निर्माण इसके रूप-सरूप के अनुसार होने दो-वह राजभवन न बन कर यही बनेगा ।''
'जो आज्ञा-,कह कर वह पुन: नत हुआ ।
महाराज ने महास्थपति को बुलाने की आज्ञा दी ।
हरकारे दौडे और बात कहते वह महाराज के सामने उपस्थित किया गया । नीहार की कृति पर उसकी निगाह पड़ी, साथ ही मुँह बिचक गया । महाराज ने उस ओर इशारा करके कहां--देखो!
महास्थपति नम्र होकर देखने लगा, किन्तु चेहरे पर की शिकन ज्यों की त्यों कायम रही ।
सम्राट् ने पूछा-क्यों कैसा है?
'कैसे कहूँ ?'
'क्यों, संकोच क्या है
'यह देव को पसन्द आ चुका है । '
'तो उससे क्या हुआ-सम्राट ने साहस बंधाते हुँ कहा -तुम अपनी स्पष्ट राय दो ।
'एक खिलवाड़ है!' नाक सिकोड़ कर उसने कहा-
'तभी तो इतना आकर्षक है । '
'किन्तु निरर्थक तो है, स्वामी!'
'नहीं । रहस्यमय कह सकते हो । निरर्थक तो कोई वस्तु नहीं । जिसे हम नहीं समझ पाते., उसे निरर्थक कह बैठते हैं । '
'हाँ भगवन्! किन्तु यदि वही रहस्य दुरूह हो जाता है तो व्यर्थ अवश्य हो जाता है-चाहै निरर्थक न हो ।'
'किन्तु यहाँ तो उसका गुड़ हो जाना आवश्यक था । वही तो कला है!'
सेवक की समझ में यह न आया!'
'सुनो! केवल सौन्दर्य की अभिव्यक्ति तो इसके निर्माता का उद्देश्य हुई नहीं । उसे तो एक वास्तु निवास-स्थान की रचना करनी थी, किसी सम्राट की पद-मर्यादा के अनुरूप । अतएव ऐसे भवन के लिए जितने अलंकार की अपेक्षा थी उस की इसमें तनिक भी कसर नहीं । किन्तु वहीं तक बस । उससे एक रेखा भी अधिक नहीं, क्योंकि घर तो घर, चाहे कुटी हो वा राज-महल, उसका प्रधान उपयोग तो यही है न कि उसमें-जीवन बसेरा ले-पक्षी अपना नीड़ भी तो इसी सिद्धान्त पर बनाता है, वह मृग-मरीचिका की तड़क-भड़क वाला पिंजरा नहीं बनाता जो जीवन को बंदी करके ग्रस लेता है । तुम्हारे और उसके कौशल में भी यही अन्तर है । केवल बाहरी आकर्षण होना ही कला. नहीं । उसका रूप प्रसंग के अनुकूल होना ही उसकी चारुता है ।'
'नाथ, अपने नन्हेपन के कारण यह ऐसा जान पड़ता है ।' नम्रता दिखाते हुए उसने सीख दी ।
अजी, यह न कहो! विशालता तो ऐसी वस्तु है कि वह बहुतेरे दोषों को दाब लेती है । यही नमूना जब पूरे पैमाने पर बनेगा तो और खिल उठेगा। तो भी - उन्होंने हंसकर कहा-'यदि तुम्हारे जान, यह अपने नन्हेपन के कारण ही इतना रुचिर है तो मंगाओ अपना महल वाला, वह नन्हा नमूना । .दोनों की सामने रखकर तुलना हो जाय ।'
महास्थपति से इसका कोई उत्तर न बना, क्योंकि अब वह जान गया था कि महाराज में जो निगाहदारी ऊंघ रही थी, उसे कला की इस प्रकृत वस्तु ने पूर्णत: जगा दिया है, अत: वे मेरी आलोचना के पोलेपन को भली- भांति समझ रहे हैं । इस कथोपकथन के बीच-बीच में वह महाराज की निगाह बचाकर क्षुब्ध दृष्टि से नीहार को भी देखता जाता था । किन्तु अब उस की वह दृष्टि नीहार पर नहीं पड़ रही थी--अब नत होकर पृथ्वी से करुणा की याचना कर रही थी ।
यह दशा देखकर नीहार से न रहा गया--महाराज से उसने कुछ निवेदन करने की आज्ञा ली ।
उसने बड़ी शिष्टता से कहा--देव वे आचार्य हैं, मैं उनकी चरण-धूलि के समान भी नहीं । उनकी और मेरी कृति की तुलना न्याय नहीं हूँ--मल्लयुद्ध में बराबर के जोड़े छोड़े जाते हैं ।
'परन्तु यह तो प्रतिभा की तुलना है जो अपने विकास से छोटे को भी बड़े के बराबर बैठा देती है ।' महाराज ने गम्भीर होकर कहा, और महास्थपति को देखने लगे ।
किंतु, नीहार दृढ़ता से बोला-इस प्रसंग में तो एक और सूक्ष्म विचार है, तथा वही इसका मूल कारण है । यदि श्रीमान् उसे सुन लेंगे तो यही आदेश देंगे कि इन दोनों रचनाओं की तुलना उचित नहीं ।'
'वह क्या ?' महाराज ने उत्सुकता से पूछा ।
'यही कि,-कलावन्त के मुंह पर मुसकान थी, किन्तु इस प्रसंग से नहीं, वही जो उस पर सहज खेला करती थी-यह कल्पना 'स्वान्तःसुखाय' से उपजी है, और वह 'हुकम पाई' उपजाई गई है । दैव कोई फर्माइश मुझे भी दें तो मेरी कलई आप ही खुल जाय!'
'बस, बस अपने महास्थपति को तो तुमने परास्त किया ही था, अपने महाराज को भी हरा दिया!' प्रसन्नता से गद्गद् सम्राट् ने कहा ।
उसके लिए, उसकी आखों में स्नेह झलक रहा था और महास्थपति की दृष्टि में आसीस-केवल आसीस ही नहीं वन्दना भी उमड़ी पड़ती थी ।