कला और हमारा चित्रमय साहित्य (निबंध) : महादेवी वर्मा
Kala Aur Hamara Chitramay Sahitya (Hindi Nibandh) : Mahadevi Verma
जिस प्रकार मानव शरीर का जितना बाह्य अंश हम अपने चक्षुओं से देख सकते हैं, उतना उसे पूर्ण नहीं बना पाते; उसके हृदय, मस्तिष्क आदि अनेक हमारी दृष्टि से छिपे अंग उसे पूर्णता देकर कार्य के योग्य बनाते हैं, उसी प्रकार देश-काल की सीमा में बँधा हुआ, परिस्थितियों में ढला हुआ मनुष्य का जितना जीवन हमारे सम्मुख रहता है, उतना ही उसकी पूर्णता के लिए पर्याप्त नहीं होता। उसकी पूर्णता के लिए हमें केवल चलने, काम करने या देखनेवाले सीमित जीवन को ही नहीं समझना पड़ेगा, वरन् कल्पना- लोक में विचरते, स्वप्न देखते तथा सत्य को खोजते हुए जीवन को भी जानना होगा।
मनुष्य का जीवन रागात्मक तथा इतिवृत्तात्मक अनुभूतियों का संघात कहा जा सकता है जिनमें एक उसे व्यावहारिक संसार के लिए उपयोगी बनाती है और दूसरी एक अलौकिकता की सृष्टि कर कला को जन्म देती है, जो व्यावहारिक जीवन की रुक्षता को सरस बनाती हुई उसके सम्मुख विकास का सुन्दरतम आदर्श उपस्थित करती रहती है। वास्तव में मनुष्य में सत्य का ऐसा एक क्रियात्मक और रहस्यमय अंश छिपा हुआ है, जो अपनी अभिव्यक्ति के लिए सुन्दरतम साधन खोजता रहता है और इस सत्य का सौन्दर्य में रागात्मक प्रकाशन ही कला के सत्यं शिवं सुन्दरं की परिभाषा हो सकता है।
कलाकार का लक्ष्य जीवन की कुरूपता तथा सौन्दर्य, दुर्बलता तथा शक्ति, पूर्णता और अपूर्णता सबकी सामंजस्यपूर्ण रागात्मक अभिव्यक्ति है और उसकी चरम सफलता जीवन तथा विश्व में छिपे हुए सत्य को सब ओर से स्पर्श कर लेने में निहित है। हम बाह्य विश्व को दो दृष्टिकोणों से देख सकते हैं - प्राकृतिक और मानवीय; एक के द्वारा हम वस्तुओं के भौतिक उपकरणों का ज्ञान प्राप्त कर मनुष्य को भी उन्हीं की श्रेणी में सम्मिलित कर लेते हैं, दूसरे से विश्व के विभिन्न रूपों में व्यक्तित्व का आरोपण कर उन्हें भी मनुष्य के संगी के रूप में स्वीकार कर उनके सौन्दर्य पर मुग्ध और अभव्यता पर खिन्न होने लगते हैं। पहला दृष्टिकोण वैज्ञानिक तथा दार्शनिक से सम्बन्ध रखता है और संसार की सारी सुषमा में कंकाल दिखाकर उसकी व्यर्थता के प्रति हमारे हृदय में विराग उत्पन्न किये बिना नहीं रहता। दूसरा कलाकार का है, जो विश्व की अपूर्णता को अपनी कल्पना से पूर्ण और उसके सौन्दर्य के आवरण में सत्य की झाँकी दिखा हमारे हृदय में आनन्द उत्पन्न कर देने में समर्थ है।
सत्य के अन्वेषक दोनों हैं; परन्तु एक परिचित वस्तु को भी अपरिचित बनाकर उससे दूरी की भावना को जन्म देता है; दूसरा परिचित को परिचिततम बनाकर उसे अपना एक अंश मान लेने पर बाध्य करता है। उदाहरणार्थ - रश्मियों से खेलने के लिए उत्सुक तरंग - शिशुओं से हमारा निकटतम परिचय है; परन्तु जल को बनाने वाले हाइड्रोजन और आक्सीजन से हम अपरिचित हैं। इसी से एक को हम चाहते हैं तथा दूसरे से अपना ज्ञानकोष बढ़ाकर भी दूर रहना चाहते हैं।
इन्हीं कारणों से कलाकार हमारे जीवन में एक विशेष स्थान रखता है। वह अपनी एकत्रीकरण शक्ति से एक वस्तु की अपूर्णता में दूसरी की पूर्णता मिलाकर एक ऐसी नवीन वस्तु का निर्माण कर देता है, जो हमारे लिए सौन्दर्य, शक्ति आदि का अमर आदर्श बन सकती है। इसी से हमारे जीवन के उच्च और सुन्दरतम आदर्श कलाकारों की ही कृतियाँ रहे हैं।
कलाकार यदि सत्य अर्थों में कलाकार हो, तो वह कल्पना और उससे जीवनसंगीत की सुरीली लय की सृष्टि कर लेगा। उसके, कला में साकार आदर्श तलवार की झनझनाहट में नहीं टूटते, बाँसुरी की मादक तान में नहीं बह जाते, मनुष्य की दुर्बलता पर हताश नहीं होते, कुरूपता पर कुण्ठित नहीं होते और क्षणिक सौन्दर्य पर चमत्कृत होना भी नहीं जानते। सभी सुगम-दुर्गम मार्गों में, सारे सुख-दुःखों में, सारी फूल - शूलमयी परिस्थितियों में कला जीवन की संगिनी रही है और भविष्य में भी रहेगी।
कला, कला के लिए है या जीवन के लिए; यह प्रश्न उत्तर को अपने भीतर ही छिपाये हुए है। कला यदि जीवन की, सौन्दर्य में, सत्य में अभिव्यक्ति है तो भी वह जीवन से सम्बद्ध है। वह यदि जीवन की अपूर्णताओं को पूर्ण करने का प्रयास है तो भी उसके निकट है और यदि केवल उससे प्रसूत या उसका प्रतिबिम्ब है तो भी उसी की है। प्रकारान्तर से कहा जा सकता है कि जीवन कलामय है। और कला सजीव, अतः इनका परस्पर अपेक्षित अस्तित्व अनपेक्षित बनकर नहीं जी पाता, चाहे निर्जीव प्रतिमा बनकर रह सके। प्रायः कार्य और कारण या उपकरण और उससे बनी वस्तु में रूप, रंग और आकार की भिन्नता हो सकती है, प्रकृति की नहीं; परन्तु हमारी कला इस कार्य-कारण सम्बन्धी नियम के अनुसार नहीं चलती, कारण वह क्षणिक जीवन से प्रसूत होकर भी अमर है। वह हमारे नीरस जीवन को सरस बनाने में, निराश्रय हृदय को अवलम्ब देने में और हमारे साधारण जीवन के लिए आदर्श स्थापित करने में सदा से समर्थ रही है।
हमारा जीवन अपनी उच्चतम, प्रियतम भावनाओं को, कल्पनाओं को उसमें साकार करता है और फिर उस आकार के अनुसार अपने-आपको बनाने का प्रयत्न करता रहता है।
कलाओं में काव्य जैसी श्रव्य कलाओं की अपेक्षा चित्र जैसी दृश्य कलाओं की ओर मनुष्य स्वभावतः अधिक आकर्षित रहता है। मूर्तिकला, चित्रकला आदि दृश्य कलाएँ एक ही साथ हमारे नेत्र, स्पर्श और मन की तृप्ति कर सकती थीं, इसी से वे हमें अधिक सुगम और तात्कालिक आनन्ददायिनी जान पड़ीं। विशेषकर चित्रकला, मूर्तिकला के काठिन्य से रहित और रंगों से सजीव होने के कारण अधिक आदृत हो सकी। यह बोधगम्य इतनी अधिक है कि शैशव में कठिन से कठिन ज्ञान इसके द्वारा सहज हो जाता है। यह जीवन के निकट इतनी है कि बालक पहले सारे प्रत्यक्ष ज्ञान को टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं में बाँधने का प्रयत्न किये बिना नहीं रहता। प्राचीनकाल में इसने मनुष्य के निकट कितना सम्मान पाया, इसका निदर्शन अजन्ता तथा एलोरा के गहरों में अंकित चित्र हैं। पुरातन काल की सभी पौराणिक कथाएँ चाहे विरही यक्ष से सम्बन्ध रखती हों, चाहे राजा दुष्यन्त से बिना इस कला के मानो पूर्ण ही न होती थीं।
कला मनुष्य से सम्बन्ध रखती है और मनुष्य को किसी विशेष वातावरण में पलकर बड़ा होना पड़ता है जिसके प्रभाव से पूर्णतया मुक्त हो सकना उसके लिए सम्भव नहीं। यह वातावरण सामाजिक परिस्थितियों से और सामाजिक परिस्थितियाँ प्रायः राजनीतिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर विशेष रूपरेखा पाती हैं। परन्तु, यह निर्विवाद है कि प्रत्येक परिस्थिति अपनी समस्याओं से ऊपर उठ सकने वाले कलाकारों को उत्पन्न कर लेती है। एक युग की विशेष परिस्थितियाँ और उनके अनुरूप निर्मित आदर्श दूसरे युग में ठीक उसी रूप में नहीं लौटते और यदि लौटे भी तो विकास की गति में बाधा ही बनकर लौटेंगे। उपयोगी बने रहने के लिए उन्हें पुरानी आत्मा को नये कलेवर में छिपाकर अवतीर्ण होना पड़ता रहा है। जिस समय शत्रु सम्मुख थे, हाथ में असि थी, उस समय कला का आह्वान हृदय की सारी रौद्रता और निष्ठुरता जगाने के लिए ही हुआ था। उसके उपरान्त जब पराजित जाति हताश थी, अपमान के शूल से बिंधा हृदय लिये तड़प रही थी, उस समय कला एक हाथ में भक्ति की सुधा और दूसरे में विलास की मदिरा लेकर अवतीर्ण हुई। कोई तन्मयता में अपने-आपको भूला और किसी ने नशे में वास्तविकता डुबा दी। इसी प्रकार समय के लहरों से परिस्थितियों और परिस्थितियों से कला में परिवर्तन आते रहे, जिन पर उनके युग-विशेष की अमिट छाप थी। हमारे वर्तमान युग की भी विशेष परिस्थितियाँ हैं; परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि कला इस युग में सुधा और मदिरा दोनों लेकर उतरी है या केवल मदिरा ।
अन्य कलाओं के समान चित्रकला ने केवल विशेष उन्नति ही नहीं की, वरन् वह उत्तरोत्तर व्यापक से व्यापकतर होती जा रही है। विशेषकर हमारे प्रौढ़ पत्रसाहित्य ने बालक के समान चित्रकला की उँगली पकड़कर इस प्रकार चलना आरम्भ किया है कि उसे अब चित्र - साहित्य के नाम से पुकारना अधिक उपयुक्त होगा।
साप्ताहिक हो चाहे मासिक, सभी पत्रों को अच्छी से अच्छी पाठ्य सामग्री के रहते हुए भी सस्ते उत्तेजक चित्रों के बिना मृत्यु चित्रित दिखाई देने लगती है । जनता की विषम रुचि, चित्रकारों की दुरवस्था, चित्रों का सस्तापन, छापने की सुविधा, सबने मिलकर इस कला के आदर्श की प्रतिमा को जैसे तिल-तिल करके तोड़ना आरम्भ किया है। उसे देखते हुए यह अनुमान कर लेना असंगत नहीं कि कुछ दिनों में उसे पूर्ण निर्वाण मिले बिना न रहेगा।
इसमें जो न्यूनता शेष रह सकती थी, वह चलचित्रों की अभिनेत्रियों और कलाविद् फोटोग्राफर्स ने पूर्ण कर दी है, यह कहना अतिशयोक्ति न होगी। यदि हम चित्रों की दृष्टि से अपने पत्र - साहित्य के विभाग कर सकें तो वे चार श्रेणियों में रखे जा सकते हैं- एक तो वे पत्र जो अपनी सुरुचि और उच्चादर्श के अनुरूप केवल ऐसे ही चित्रों को स्थान देते हैं, जिनका आरम्भ यथार्थवाद और अन्त आदर्शवाद में होता हो, जिनमें किसी प्रकार की कुरुचि और उत्तेजना के प्रवेश के लिए छोटा सा रन्ध्र भी न मिल सकता हो। ऐसे चित्र अपनी अपेक्षाकृत न्यूनता के कारण महँगे और सबके लिए अप्राप्य तो हैं ही, साथ ही उन्हें समझनेवाले व्यक्तियों की संख्या भी इनी-गिनी ही रहती है। उनके द्वारा चित्रकला का आदर्श उत्पन्न हो सकता है, सुन्दर के साथ शिव का संयोग भी हो सकता है; परन्तु उनके द्वारा स्थापित आदर्श तक सर्वसाधारण को ले जा सकना अभी शताब्दियों का कार्य है। ऐसे चित्रों में प्राचीन आदर्शों के साथ नवीन परिवर्तनों का इतना अनुकूल सम्मिलन हुआ है कि यह अपनी विविधता, सजीवता और सौन्दर्य के लिए कलाविदों को सदा प्रिय रहेंगे, परन्तु जब तक यह सबके या अधिक-से-अधिक संख्या के लिए सुलभ न हो जावें, तब तक इनसे कोई स्थायी उपकार हो सकना कठिन जान पड़ता है।
दूसरे वे हैं जो अपनी संकीर्ण सात्त्विक वृत्ति की रक्षा के लिए एक विशेष अंगभंगी से खड़े श्रीकृष्ण, विशेष प्रकार से धनुष धारण किये हुए राम या किसी और देवता के चित्र के अतिरिक्त कुछ और देना, चाहे वह कला का उत्कृष्टतम निदर्शन क्यों न हो, स्वीकार नहीं करते। इन चित्रों में न सजीवता रहती है न कला, मानो लकड़ी पर एक आकार खोदकर सब स्थानों में छाप दिया हो । मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से प्रख्यात राम और योगिराज कृष्ण के पराक्रम और ज्ञान को रेखाओं में सजीव कर देने में समर्थ चित्रकार न उन्हें मिलता है और न वे उसे खोजने का कष्ट ही उठाना चाहते हैं। ऐसे चित्रों के आधार पत्र, यदि अपकार करते हैं तो केवल इतना कि कला के आदर्श को अपेक्षाकृत अवनत करके जनसाधारण की रुचि को परिष्कृत नहीं होने देते और यदि उपकार करते हैं तो इतना कि कला और पाठक दोनों को निर्बन्ध नहीं बहने देते ।
विषय पर कोई कला निर्भर नहीं रहती। सच्चे चित्रकार की तूलिका भगवान् बुद्ध की चिर शान्त मुद्रा अंकित करके भी धन्य हो सकती है और हल कन्धे पर लेकर घर लौटने वाले कृषक का चित्र बनाकर भी अमर हो सकती है। कलाकार अमरता का विधायक स्वयं हो सकता है; परन्तु तभी, जब उसकी कला उसकी अनवरत साधना में तप-तपकर खरा सोना बनकर निकलती है; ऐसे कलाकारों का अभाव है, यह सत्य नहीं; परन्तु इसमें बहुत कुछ सत्य है कि हम उन्हें न पहचानते हैं और न पहचानने का प्रयत्न करते हैं। फलतः अनधिकारियों के हाथ में पड़कर न तो कला विकसित होती है और जिनके लिए कला अवतीर्ण हुई है, न उनकी रुचि ही विकास पाती है।
तीसरी श्रेणी में वे सचित्र पत्र-पत्रिकाएँ रखी जा सकती हैं, जिन्हें अपने व्यवसाय के अतिरिक्त किसी की चिन्ता नहीं। उन्हें न कला की उन्नति - अवनति से सम्पर्क रखना है, न जनसाधारण की भलाई - बुराई का विचार करना है, अतः प्रायः वे साधारण मनुष्यों की दुर्बलता से लाभ उठाने का प्रयत्न करते हैं, उसे दूर करने का नहीं। वैसे तो सारा चित्रजगत् ही स्त्रीमय हो रहा है; परन्तु जिन्हें केवल व्यवसाय की चिन्ता है उनके पत्रों ने तो स्त्रियों की शोचनीय दुर्दशा कर डाली है। जिस चित्रकार को देखिए अस्त-व्यस्त या विवस्त्रा युवती का चित्र बना रहा है। उसी की माँग है, फिर परिस्थितियों का दास चित्रकार क्या करे !
युवती का चित्र देना कोई दोष नहीं है; परन्तु उसके पीछे जो एक पाशविक मनोवृत्ति छिपी है, उसी को अमंगलमयी कहना चाहिए। यदि एक चित्रकार हिमालय की चोटी को छूकर रंगों के फव्वारे की तरह बिखर जानेवाली किरणों को अंकित करने के लिए विकल हो उठा हो, अशान्त समुद्र की ऊँची-नीची लहरों में झूल-झूलकर अन्त की ओर जाती हुई छोटी तरणी का चित्र बनाने के लिए उसका हृदय उमड़ आया हो, जर्जर वस्त्र में लिपटे क्षीण मलीन बालक का हाथ पकड़कर पेड़ के नीचे आ बैठनेवाली अन्धी भिखारिन का चित्र आँकते आँकते यदि उसकी तूलिका थक गयी हो और सुनहली गोधूली में लौटते हुए श्रान्त कृशकाय कृषक और उसकी रूखे-बिखरे बालोंवाली बालिका का मुख यदि उसके कागज पर उतर आया हो, तो वह युवती का सौन्दर्य भी अंकित करके और अधिक पवित्र हो उठेगा। उसके लिए स्त्री का सौन्दर्य संसार के अखण्ड सौन्दर्य का एक खण्ड मात्र है। जब ऐसा नहीं होता और चित्रकार केवल वासना से सूखे कण्ठवालों के लिए नारी के पूत सौन्दर्य को मदिराधारा बनाकर बहाने चलता है, तब अवश्य ही उसमें न कला का आदर रह जाता है, न स्त्री का प्राचीन चित्रों में चीरहरण लीला को हम अश्लील समझा करते थे, अब स्वयं ही उसे दूसरे रूपों में दिखाने में भी हम कुण्ठित नहीं होते।
चौथी श्रेणी में आनेवाली वाक्पट सम्बन्धी पत्रिकाओं के अद्भुत चित्रों और सुरुचि की छाँह से भी दूर चित्र-परिचयों के विषय में तो 'गिरा अनयन नयन बिनु बानी' कहना चाहिए। यह तो चित्रकार की कल्पना नहीं है सत्य का प्रतिबिम्ब है। कैसे-कैसे नग्न नृत्य वे कला के नाम पर करा लेते हैं और हम सब असीम धैर्य से देख आते हैं, यह सत्य होकर भी कहानी जैसा लगता है। इस समानता के युग में स्त्री माँगने गयी थी अपनी स्वतन्त्रता और दे आयी इस प्रकार स्त्रीत्व के प्रदर्शन का वचन । बाज़ार के पोस्टर, दवा के, तैल के विज्ञापन, पत्र-पत्रिकाओं का अधिकांश, वाक्पट, मंच सब जगह स्त्री का जैसा प्रदर्शन पुरुष करना चाहते हैं, अकुण्ठित भाव से करते हैं। यदि वह बाधा डालती है तो इन्हीं बीभत्स प्रदर्शनों को स्वाधीनता का चिह्न बताकर उसे समझा दिया जाता है। वह स्वयं यह नहीं जानती कि इनसे उसका आदर हो रहा है या अनादर, पहले से अच्छी दशा है या बुरी । वह सोचती है, उसे संसार के उन्मुक्त वातावरण में स्वच्छन्द भाव से आने-जाने का अधिकार मिल गया है, जिसके लिए वह युगों से लालायित थी। जिस जाति ने स्त्रियों की एक बड़ी संख्या को समाज, धर्म आदि के सब बन्धनों से केवल अपनी स्वच्छन्द प्रवृत्तियों की परिचर्या कराने के लिए ही मुक्त कर रखा है, वह स्त्रियों की वास्तविक स्वाधीनता का मर्म कितना जानती होगी, यह कहना कठिन है ।
केवल सिद्धान्त रूप से या स्त्रियों के प्रति निरादर का विचार कर ऐसे चित्र और प्रदर्शन बहिष्कार के योग्य न समझे जावें, तो भी समाज के नवयुवकों की मनोवृत्तियों पर पड़नेवाला उनका प्रभाव उन्हें आपत्तिजनक प्रमाणित किये बिना न रहेगा। अवश्य ही प्राचीन युग के, एकान्त में स्त्री का चित्र भी न देखने देनेवाले सिद्धान्त इस बीसवीं सदी के लिए उपयुक्त नहीं होंगे; परन्तु इसके विपरीत एकान्त और कोलाहल दोनों ही में स्त्रीमय जगत् देखना भी हमारे जीवन के लिए उपयुक्त न होगा। एक ओर हम जिन स्त्रियों को समाज का कलंक कहकर बस्ती के एक कोने में फेंक आने को उत्सुक हैं, दूसरी ओर आकर्षक परिचय देकर उन्हीं के चित्र छापकर उसी रुचि को प्रश्रय देने में भी हमें संकोच का कारण नहीं दिखाई देता, यही विचित्रता है। संजीवनी जड़ी तो आज तक किसी को नहीं ज्ञात हुई; परन्तु मृत्यु को तत्क्षण उपस्थित कर देनेवाली विष-बूटियों को सब जानते - पहचानते हैं । इस मुमूर्षु जाति के आलसी और अकर्मण्य युवकों के रक्त में जीवनशक्ति पहुँचाने का उपाय तो ढूँढ़नेवाले ढूँढ़ते-ढूँढ़ते ही नष्ट हो गये, परन्तु इस तन्द्रा को मृत्यु के समान स्थिर कर देनेवाली ज्वालामुखी मदिरा बिना खोजे ही सबको प्राप्त हो गयी।
आज का बालक क्या देखता, क्या समझता और किस प्रकार अपने आगामी जीवन की रूपरेखा निर्धारित कर लेता है, इसका यदि निरीक्षण किया जावे, तो कदाचित् ही कोई ऐसा कठिन हृदय व्यक्ति होगा, जिसके प्राण न सिहर उठें। जब क्षय के कीटाणुओं के समान विषैली दुर्भावनाओं और अस्वाभाविक वासनाओं के कीटाणु उनके रक्त में, उनके विचारों में और उनकी कल्पनाओं में बस जाते हैं, तब उनका स्वस्थ युवक हो सकना सम्भव नहीं । चित्र जिस प्रकार बालक की मानसिक वृत्तियों का केन्द्र बन सकता है, उसके मस्तिष्क और मन दोनों पर स्थायी संस्कार छोड़ जाता है, उस प्रकार कोई और कला नहीं कर सकती। अतः यदि हम अपनी चित्रों की सृष्टि की रचना में विशेष सतर्क न रह सके, तो सम्भव है, अपना और दूसरों का अत्यधिक अपकार कर डालेंगे। हमारी सस्ती उत्तेजना फैलानेवाले चलचित्र जो अपकार कर सके हैं वही हमारे पतन को दयनीय बनाने के लिए पर्याप्त है। उस दशा को और अधिक शोचनीय बना देने में न कोई विशेष पुरुषार्थ है, न लाभ । अवश्य ही हमारे पाठकों की एक विशेष रुचि बन गयी है। अच्छे चित्रकार भी संख्या में न्यून और सबके लिए अप्राप्य हैं। हमें सबकी रुचि के विपरीत जाने के प्रयत्न में हानि भी सहनी पड़ेगी; परन्तु यह न भूलना चाहिए कि ऊँचे लक्ष्य तक पहुँचने में असफलता उतनी बुरी नहीं, जितना बुरा लक्ष्य को नीचा बनाते रहना है।
('क्षणदा' से)