काला और गोरा : उत्तर प्रदेश की लोक-कथा

Kala Gora : Lok-Katha (Uttar Pradesh)

गेहूं और उड़द की शादी हो गई थी। पर जी, गेहूं अपने को बहुत सुन्दर समझती थी। अपने को गोरा गोरा कह कर आनंद में रहती थी जबकि उड़द को काला-काला कहकर हमेशा उसका अपमान करती रहती थी। उड़द उसे कुछ नहीं कहता था बस हंस कर टाल देता था। महीने बीत गए किन्तु गेहूं ने उसकी बेइज्जती करना न छोड़ी। एक दिन अचानक उड़द को गुस्सा आ गया। उसने गेहूं को इतने जोर का थप्पड़ मारा कि वह धड़ाम से गिर पड़ी और उसे गहरा निशान पड़ गया। सयाने कहते हैं कि गेहूं को वह निशान आज तक

एक गहरा सुस्कार भरकर उड़द ने उसे कहा- अच्छा है, तू गोरी और मैं काला हूं। परन्तु कुदरत ने सभी को सुन्दर-सुन्दर गुण दिए हैं। मैं अपनी प्रशंसा नहीं करता। बेशक मैं काला हूं किन्तु भली मानुष नवें अन्न, संक्राति-उत्सव, सहभोज-नामकरण, ब्याह-शादी, कथा-यज्ञ प्रत्येक शुभ कार्य में मेरा सत्कार होता है। तुमसे तो ज्यादा ही मेरे नए-नए पकवान बनते हैं और तो और मुझे पीस-गूंध कर मसाला बना चिनाई कर पत्थरों के बड़े-बड़े गढ़-किले अभी तक खड़े हैं। वे इतिहास बना रहे हैं। सभी तरह की आकांक्षा वाले लोग मुझे बहुत पसन्द करते हैं। परन्तु तुम तो मनुष्य-मनुष्य के बीच काले और गोरे का भेदभाव करती हो, अभद्रतापूर्वक अपमान करना ठीक नहीं। मैं भले ही काला हूं, काला ही ठीक हूं किन्तु तुम अपने गोरे रूप पर घमण्ड करती हो तो करती रहो।

गेहूं को थप्पड़ से अधिक उड़द की बातें कलेजे में चुभी। उड़द की बातें सुन उसे अक्ल तो आई ही साथ में शर्मीन्दगी भी बहुत हुई। उसका घमण्ड चूर-चूर था। उसने कसम खाई कि वह कभी भी अपने रूप का गर्व नहीं करेगी और न ही किसी को निम्न समझेगी। अब वह उड़द को बहुत प्यार से देखने लगी थी। उसका अन्त:करण स्वच्छ हो गया था। (साभार : प्रियंका वर्मा)

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