कैदी : आचार्य चतुरसेन शास्त्री
Kaidi : Acharya Chatursen Shastri
‘आप मेरे मुरब्बी और श्रद्धास्पद हैं. आप इतना आग्रह करते हैं, तो मैं सब कहूंगा. निस्सन्देह आपकी कृपा और प्यार को मैं नहीं भूल सकता. कल मैं इस जेल से छोड़ दिया जाऊंगा, फिर मैं आपका यह प्यार, यह दयापूर्ण व्यवहार, यह पिता के समान पीठ पर थपकियां कहां पाऊंगा, जो गत पांच वर्षों से मेरे जीवन का सहारा रही हैं. यहां आपने मुझे इस प्रिय कोठरी में बंद सुरक्षित रखा; अब जब उन्मुक्त संसार में-जहां अनगिनत आदमी, अनन्त भूमि, नगर, गांव, सड़क, सवारी, धन-संपदा, सुख-दुःख, मोह-वेदना, जीवन और मरण है-मैं कल फेंक दिया जाऊंगा और जेल की ये सुरक्षित प्यारी दीवारें जब मेरे लिए निर्दयतापूर्वक बन्द कर दी जाएंगी, तो फिर मैं अवश्य ही कहीं न कहीं खो जाऊंगा. मेरा कहीं पता भी न लगेगा. मेरी उदासी का यही कारण है. महोदय, नैतिकता मेरे बीच में बाधा डालती है, वरना मेरे एक साथी ने मुझे ऐसा रास्ता सुझा दिया है कि आपके किए कुछ न हो सकेगा और मैं जेल में कम से कम चिरकाल तक और सफल हुआ तो मृत्यु तक, बना रह सकता हूं.’
नवयुवक कैदी ने उद्वेगपूर्ण स्वर में और आकुल आंखों से वृद्ध जेलर की ओर ताकते हुए उसके चरणों में घुटनों के बल बैठकर हांफते-हांफते ये शब्द कहे.
वृद्ध जेलर के मुख पर कोई विकार नहीं आया. उसने धीर-गम्भीर स्वर से कहा ‘तुम्हारे साथी ने कौन-सा रास्ता सुझा दिया है? क्या तुम वह मुझे बता सकते हो?’ वह करुण किन्तु मर्म-भेदिनी दृष्टि से युवक को ताकता रहा.
युवक ने और भी अधिक विषाद-भरे स्वर में कहा ‘आपसे मैं कैसे छिपा सकता हूं? मेरे साथी ने कहा है कि मैं कोई ऐसा अपराध कर डालूं, जिससे मुझे फिर जेल में रहना पड़े. जैसे मैं किसी को पीटकर घायल कर दूं, या दीवार काटकर भागने की चेष्टा करूं या...?’
वृद्ध ने हाथ के संकेत से उसे बीच में ही रोककर कहा ‘परन्तु तुम क्या यह सब कर सकते हो?’
‘नहीं-नहीं महोदय, मैं नहीं कर सकता. मैं कैसे किसी को पीट सकता हूं? और दीवारों में सेंध...’ वह दोनों हाथों से मुंह ढांपकर रोने लगा.
बूढ़ा जेलर चुपचाप उसकी पीठ पर हाथ फेरता रहा. फिर वह वहीं चटाई पर उसके सामने बैठ गया. उसका मुंह ऊपर को उठाया, उसके आंसू पोंछे.
चांदनी चटख रही थी और कोई पक्षी कभी कोई-एक अस्फुट शब्द बोल देता था. जेल की सब बैरकें बन्द थी, सर्वत्र सन्नाटा था. बीच में कभी-कभी वार्डर की तालियों का झब्बा झनझना उठता था और कभी पहरेदार के पैरों की आहट सन्नाटा भंग कर देती थी.
बूढ़े जेलर ने कहा ‘कैसी सुन्दर उज्ज्वल चांदनी है और कैसी सुहावनी रात है. जेल की इन काली दीवारों के बाहर इसका सौंदर्य और भी बढ़ा-चढ़ा है, मसलन मेरे बंगले के बरांडे से-जहां रजनीगन्धा का वह पेड़ है, चांदनी कैसी प्यारी लगती है...
बूढ़ा एकाएक चुप होकर कुछ सोचने लगा. और युवक जैसे बूढ़े के जादू-भरे शब्दों से विभोर होकर उन्मत्त हो गया. उसने जरा उठकर जेलर को कसकर पकड़ लिया. उसने जेलर का बंगला देखा था, वहां वह अरसे से माली का काम करने जाता रहा है. वहां के सौन्दर्य का मूल्य वह जानता है. वहां मृदुला भी तो है, बूढ़े जेलर की मातृ-हीना लड़की. जिसने जेल के इस कैदी को अपनी मृदु-मन्द मुस्कान, अपना कोमल स्पर्श, अपनी स्नेहमयी चितवन और न जाने क्या-क्या दिया है. पिछले तीन वर्षों में ऐसी ही चांदनी रातों में वह उस कोमलांगी किशोरी के पैरों के पास बंगले की सीढ़ियों पर बैठकर कितनी बार उसके कुर्सी पर बैठने के अनुरोध को अस्वीकार कर चुका है, उसे रुला तक चुका है. भला वह कैदी, खूनी डाकू कैदी, जेलर की कन्या के साथ कुर्सी पर बैठ सकता है? नहीं-नहीं, वह ऐसा कर ही नहीं सकता.
और अब, जब कि उसकी जेल में यह अन्तिम रात है, कल वह यहां से चला जाएगा. कहां? इसका कोई ठिकाना नहीं. दुनिया में कहीं उसके लिए कुछ नहीं है. वह जाएगा कहां? कहीं रहेगा कैसे? इसी से तो जेल से जाते हुए उसका हृदय फटता है, वह जेल से बाहर जाना नहीं चाहता, किसी भी तरह नहीं. परन्तु बूढ़े जेलर ने जेल के बाहर के उसी सौन्दर्य का उसे इस समय स्मरण दिला दिया, जिसे वह याद रखना नहीं चाहता. अरे, रजनीगन्धा के वृक्ष के पास ही तो बरांडे में वह कुर्सी पड़ी है-जिस पर मृदुला अपने कोमल, नवीन अंग को बिखेरकर उस अभागे कैदी पर प्यार और हास्य की वर्षा करती है.
जैसे मृदुला ने उसे अकस्मात् ही अपने सुरभित आलिंगन में भर लिया हो, जैसे वह फूलों के ढेर में सो गया हो, उसे ऐसा मालूम हुआ. उसने चेतनाहीन बच्चे की भांति चीखकर कहा ‘पापा’ और दूसरे ही क्षण वह उसके पैरों में लुढ़क गया.
बूढ़े ने उसकी पीठ थपथपाई. फिर कहा ‘अब सुनाओ. मुझे सब सुना दो. कुछ भी मत छिपाओ.’
युवक ने हिचकियां लेते हुए कहा ‘कुछ भी नहीं छिपाऊंगा पापा, मैं सब कुछ कहता हूं.’
‘बीस साल की आयु में मैंने यूनिवर्सिटी की परीक्षाएं समाप्त करके रिसर्च करना प्रारम्भ किया. माता-पिता मेरे बचपन ही में मर चुके थे. और मेरा अधिकांश समय बोर्डिंग में ही व्यतीत हुआ. मैंने सदैव प्रथम उत्तीर्ण होकर प्रमोशन और वजीफे पाए. भाई साहब मेरे लिए खर्च की मदद करते रहे, कुछ मैं ट्यूशनें करता रहा. और इस प्रकार मेरा उस समय तक का जीवन इस प्रकार का एकान्त जीवन रहा. होस्टल और कॉलेज में सर्वत्र मैं किताब का कीड़ा, अरसिक और बौड़म के नाम से मशहूर रहा. अच्छे कपड़े-लत्ते न मुझे नसीब हुए, न मुझे उनका शौक हुआ. इसी से कॉलेज के फैशन से परिपूर्ण जीवन में मैं थोड़ा लज्जित-सा रहकर भी अलग रहता था. तमाशा, थियेटर, नुमाइश आदि बहुत कम देख पाता था. मित्र कोई था ही नहीं, सगे थे सिर्फ भाई साहब, जो बर्मा में सुपरवाइजर थे. उनसे इतना ही सम्बन्ध था कि दूसरे-तीसरे मास कुछ खर्च भेज देते. कभी-कभी खत लिखकर राजी-खुशी पूछ लेते थे. मेरा हृदय बीस साल की आयु तक जड़वत् निश्चेष्ट पड़ा रहा. जीवन का कोई सरल पहलू मैं जान ही न पाया. इन्हीं दिनों दुर्भाग्य मुझे अपने मार्ग पर ले गया.’
नवयुवक यहां रुका. पर फिर वह बोला ‘गर्मी का आरम्भ था. दिन गर्म और रातें ठंडी होती थीं. परीक्षाएं समाप्त हो गई थीं, लड़के छुट्टियों में घर चले गए थे. यूनिवर्सिटी के आसपास सुनसान हो गया था. उस दिन न जाने क्या उमंग आई, उसी दिन ट्यूशन की तनख्वाह मिली थी, मैं टहलता हुआ शहर की ओर चल दिया. एक खाली तांगा जा रहा था, उसे रोका और बैठ गया. मन में आया, कोई फिल्म देखूं. और मैं ‘नावेल्टी सिनेमा’ आ गया. फिल्म कोई अच्छी ही थी. पर मैं वहां फिल्म देखने थोड़े ही आया था; मुझे तो होनी खींच लाई थी. मैं टिकट लेकर हाल में घूम रहा था; खेल शुरू होने में देर थी. मैंने देखा, दो औरतें एक तांगे से उतरकर अन्दर आई हैं. एक स्त्री अधेड़ और मोटी थी, उसका रंग खूब गोरा, आंखें बड़ी-बड़ी, नाक मोटी और माथे पर चांदी के समान उज्ज्वल बाल थे. उसके साथ वाली कोई पन्द्रह-सोलह साल की किशोरी थी. उसकी नाक में नथ पड़ी थी, कानों में हीरे के बुन्दे झूल रहे थे. होंठों पर स्वाभाविक लाली थी, गालों का रंग पक्के अंगूर की भांति था, आंखों में चन्द्रमा की उज्ज्वलता कूट-कूटकर भरी थी. वह यौवन की लहरों पर तैर रही थी. उसके अंगों की सुषमा, उसके सौन्दर्य का बखान, उसकी शोभा का वर्णन मैं न तब कर सकता था, न अब कर सकता हूं. उसको देखकर मुझे ऐसा मालूम हुआ कि जैसे मुझे ज्वर चढ़ रहा है, और मैं बीमार हो गया हूं. मेरा सिर घूमने लगा और मैं वहीं एक सोडावाटर वाले की दुकान पर बैठ गया. खेल में कहां क्या हो रहा था, मुझे कुछ नहीं दिखा. काले-सफेद धब्बे चीखते-चिल्लाते से नजर आ रहे थे. बीच में शायद सो भी गया. एकाएक मैंने देखा-खेल खत्म हो गया है, रोशनी हो गई है और सब लोग जा रहे हैं. मैं भी हड़बड़ाकर उठा. बाहर आया. पागल की तरह
इधर-उधर दौड़-दौड़कर देखने लगा. तब देखा, पास ही वे दोनों किसी सवारी की प्रतीक्षा में भीड़ से जरा बचकर खड़ी हैं.
वहां खूब रोशनी थी. उस रोशनी में उस बाला का रूप-यौवन जैसे मचला जा रहा था. मेरा साहस और निकट जाने का नहीं होता था. फिर भी बाला ने मुझे देख लिया. उन मद-भरे नयनों से उसने एक विह्वलता बिखेरी, वह तनिक हंसी. उसी हास्य की एक कोर मेरी ओर छोड़कर वह अपनी संगिनी से कान में कुछ कहने लगी. संगिनी ने मेरी ओर मुड़कर देखा. अब मुझे कुछ साहस हुआ. आगे बढ़कर मैंने कहा ‘क्या मैं आपकी कुछ सेवा कर सकता हूं?’’
एक बार दोनों ने परस्पर आंख मिलाई. बाला ने एक बार और मुझ पर दृष्टिबाण फेंका. उसकी संगिनी ने कहा ‘शुक्रिया, अगर तकलीफ न हो तो एक तांगा ठीक कर दीजिए.’
मेरा साहस बढ़ता ही जा रहा था. और मेरे खून की एक-एक बूंद उछल रही थी. मैंने बड़ी ही कठिनाई से कहा, ‘भीड़ बहुत है, यदि आप कुछ मिनट ठहरें तो तांगा मिल जाएगा. तब तक अगर हर्ज न हो तो आइए, इस रेस्तरां में जरा सुस्ता लीजिए.’
मैं सोच ही न सका कि ये औरतें जब मेरे साथ रेस्तरां में जाएंगी, तो लोग क्या कहेंगे. मैं जैसे अपने किसी कॉलेज के साथी से कह रहा होऊं, वैसे ही उनसे भी कह उठा. उन दोनों ने फिर दृष्टि-विनिमय किया. बाला ने फिर मेरे ऊपर एक दृष्टि-बाण फेंका, वह मुस्कराई और उसकी साथिन ने कहा, ‘आइए फिर, यहां खड़े-खड़े तो अच्छा नहीं लगता.’ और मैं जुनून में भरा उनके साथ हो लिया.
काफी देर तक हम वहां खाते-पीते रहे. मैं चाहता था कि यह खाना-पीना कभी समाप्त न हो, पर समाप्त तो उसको होना ही था. जब हम चलने लगे, तो बाला ने वीणाविनिन्दित स्वर में कहा ‘अब यों आपको नहीं छोड़ा जाएगा, घर चलिए.’
जैसे चुम्बक लोहे से बेबस चिपक जाता है, उसी भांति मैं भी उनके पीछे-पीछे चला गया. वह घर न था, एक इन्द्रभवन था. वैसा श्रृंगार, वैसा ऐश्वर्य मैंने कभी देखा नहीं था. वह वयस्का संगिनी मुझे उस बाला के पास अकेला छोड़कर न जाने कहां चली गई थी. और वह बाला जैसे अपने में समाती ही न थी. फटी पड़ती थी. उसके शरीर से सुगन्ध का अटूट झरना झर रहा था. वह मुझे हाथ पकड़कर पहले घर में घुमाती फिरी, और इसके बाद अपने शयन-कक्ष में ले गई. मैंने जब स्त्री को ही नहीं देखा, नहीं समझा था तो उसके शयन कक्ष को क्या समझ सकता था? मुझे तो अन्त में अपने आपको खो ही देना पड़ा. वह सुख, वह आनन्द, वह प्रेम, वह तृप्ति मैं बयान नहीं कर सकता. किसी भी तरह नहीं. और जब मैं ऊषा के पूर्व के अन्धकार में यूनिवर्सिटी रोड पर चारों ओर के सन्नाटे को पार करता हुआ होस्टल की ओर जा रहा था, तब ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे हवा में उड़ रहा हूं. उसके प्रिय, मधुर शब्द हवा में गूंज रहे थे, उसका सुरभित कोमल सुखद आलिंगन जैसे देह से दूर ही नहीं हो रहा था. वह जैसे जाने नहीं देती थी ‘मत जाओ, मत जाओ! आ छलिया, ओ प्यारे!’
परन्तु पापा, मैं क्या कहूं! वह तो वेश्या थी. उसने यह उसी दिन स्वीकार किया था. पर मैं-वेश्या क्या होती है, यह जानता ही न था. उस स्त्री को छूकर ही मेरे अन्दर यौवन का विकास हो गया था. सारे संसार में मुझे उसी की स्मृति दीख पड़ती थी, सिर्फ उसी की. अपनी भी नहीं.
दूसरे दिन जब मैं वहां पहुंचा तो मैंने देखा, संगीत की स्वर-लहरी, मेरे स्वागत के लिए उस घर में धूम मचाती फिर रही है. अब इसके सिवा मैं सोच ही क्या सकता था? पर आगे बढ़कर देखा तो द्वार बन्द था, और जब मैंने द्वार खुलवाकर भीतर प्रवेश किया तो देखा-और एक आदमी वहां गद्दी पर बैठा है. उसी गद्दी पर, जिस पर कल मैं बैठा था और मेरी वह बाला उससे सटकर बैठी पूर्ण हाव-भाव से गा रही है.
मुझे देखते ही वह अप्रतिभ हो गई. उसने फिर जरा घबराकर कहा ‘आप थोड़ा वहां, मेरा मतलब यह कि...अरी...’ उसने दासी को बुलाकर कहा कि वह मुझे दूसरे कमरे में ले जाकर बैठा दे. परन्तु जो आदमी वहां बैठा था उसने एक हास्यरेखा होंठों पर फैलाकर दासी को संकेत से मना किया. मुंह का पान उगालदान में थूक दिया, हाथ की सिगरेट भी उसी में डाल दी और बड़े से हीरे की अंगूठी से दमकती हुई उंगली जेब में डाल एक सौ रुपये का नोट निकाल बाला को देकर कहा ‘मैं अब जाऊंगा, बाबू को बैठाओ.’
और वह बिना ही उत्तर की प्रतिक्षा किए सोने की मूठ की गेंडे की खाल की अपनी छड़ी उठाकर चल दिया. बाला क्षण-भर द्विविधा में पड़ी और फिर वह मेरा मोह छोड़ द्वार तक उस पुरुष के साथ गई. वहां उसने कुछ संकेत किया-अब मैं क्या कहूं?
परंतु मैं तुरन्त ही समझ गया. वेश्या का घर है. वहां क्या करना चाहिए, क्या सहन करना चाहिए, यह भी मैं समझ गया. उस समय मुझे यह भी याद आया कि वेश्या को रुपये भी दिए जाते हैं और मैंने उसे कल कुछ दिया नहीं था. इसी से मुझे अपने ऊपर अत्यंत लज्जा बोध होने लगी. खासकर इसलिए कि जेब में पूरे सौ रुपये नहीं थे, सत्तर रुपये थे. तनख्वाह के जो अस्सी रुपये मिले थे, उनमें कुछ खर्च हो गए थे. मैंने सौ रुपये का नोट देते देखा था. मैं कम कैसे दे सकता था?
परन्तु जब उसने पीछे से आकर दोनों कन्धों को पकड़कर कहा ‘चलो, भीतर बैठें, तो मेरा संकोच जरा कम हुआ. वही प्रेम, कोमलता, वही स्वर-माधुरी. फिर भी वह हीरे की अंगूठीवाला आदमी तो, जितना मैं उसे भूलने की चेष्टा करता था, उतना ही आंखों में आ घुसता था.
मैंने कहा ‘कौन था वह?’
वह कुछ अनमनी हो उठी. उसने कहा ‘जाने दो उसे.’ और उसने मेरे गले में अपनी कोमल भुजवल्लरी डाल दी और कहा ‘तुम बड़े निर्मोही हो. कल तुम मुझे छोड़कर जा कैसे सके? कहो, अब फिर जाओगे?’
मैं कुछ कैसे कहूं? वह हीरे की अंगूठीवाला आदमी और उस नोट के बड़े-बड़े अक्षर ‘सौ रुपये’ मेरी आंखों में जैसे रेत के कण की तरह खटक रहे थे. मैंने जैसे उसकी बात सुनी ही नहीं. छटपटाकर अलग हुआ और जेब से सत्तर रुपये के नोट निकालकर उसके हाथपर रखकर कहा ‘कल देना भूल गया था मैं.
रुपये देखकर वह मेरी ओर देखने लगी. फिर मुस्कराकर कहा ‘कहां से पाए?’
‘तनख्वाह के हैं.’
‘ऐसा! कितनी तनख्वाह पाते हो?
‘अस्सी रुपये.’
‘पर ये तो सत्तर ही हैं, और दस कहां है?’
‘कुछ खर्च हो गए. कुछ रुपये जेब में हैं.’ मैंने जेब में हाथ डाला.
उसने हाथ पकड़कर कहा ‘उन्हें रहने दो. कब मिली थी तनख्वाह?’
‘कल.’
वह कुछ देर तक चुप रही. मैंने नोट उसकी मुट्ठी में थमा दिए, उसी प्रकार जैसे उस हीरे की अंगूठीवाले आदमी ने. पर वह उन्हें हाथ में लेकर मुस्कराई नहीं, कटाक्ष भी मुझ पर नहीं फेंका-जैसा अभी-अभी मेरी आंखों के सामने उस आदमी पर फेंका था.
मैंने कहा ‘बाकी मैं अगली बार दे जाऊंगा.’ और फिर मैं एकाएक वहां से उठने लगा. मुझे स्मरण हो आया कि यहां तो प्रत्येक मुलाकात के रुपये देने पड़ते हैं.
उसने मुझे पकड़कर खींच लिया. कहा ‘जाते कहां हो? और कितने रुपये तुम्हारे पास हैं?’
‘बस और तो अब नहीं हैं?’
‘फिर कल कहां से दोगे?’
मैं जरा सटपटाया. फिर कहां ‘किसी दोस्त से मांग लूंगा.
‘उसे फिर कहां से दोगे?’
‘तनख्वाह मिलने पर दे दूंगा.’
‘मगर खाओगे क्या?’
मेरा सब प्रेम और आनन्द इन रुपयों के झमेले में हवा हो गया. सच ही तो! अब मैं खाऊंगा क्या? मुझे चुप देख उसने मेरी जेब में डाल दिए. फिर और पास खिसककर मेरे गले में बांहें डालकर कहा ‘रुपये-पैसे की बातें अब न करना! समझे?’
पर मैं समझूं कैसे? और समझाऊं कैसे? विवाद बहुत हुआ, पर रुपये उसने लिए नहीं.
लज्जा और ग्लानि के मारे कई दिन फिर नहीं गया. परन्तु एक दिन जब मन बहुत उद्विग्न हुआ, तो न रहा गया. जाकर देखता हूं कि सब भीतर के द्वार-खिड़कियां बन्द हैं. पूछने पर मालूम हुआ-तबीयत खराब है. आवाज सुनकर दरवाजे तक आ गई. बाल सूखे और बिखरे हुए थे, कपड़े मैले और अस्त-व्यस्त, चेहरा जैसे मिट्टी से पोत दिया है. मैंने कहा ‘क्या हुआ? कुछ बीमार रही क्या?’
वह बोली नहीं. हाथ पकड़कर शयन-कक्ष में ले गई, पलंग पर पड़कर खींच कर आलिंगन में कस लिया, और उसके आंसुओं से मेरा वक्षस्थल भीग गया.
उसकी करुण मूर्ति देख हृदय विचलित हो गया. उसकी आंखों में एक वेदना, एक याचना थी. उसे देख मैं संयत नहीं रहा. मैंने जितना और निकट उसे लाना सम्भव था, लाकर कहा ‘तुम्हें क्या तकलीफ है, मुझसे कहा. मैं प्राण देकर भी उसे दूर करूंगा.’
उसने कम्पित कंठ से कहा ‘मैं तुम्हें प्यार करती हूं; यही मुझे तकलीफ है. तुम जानते हो, हमें प्यार न करना और प्यार का अभिनय करना ही सिखाया जाता है, पर मुझे तो तुमसे प्यार करना ही पड़ा. अब मैं कैसे जिऊंगी? यह प्यार मेरा नाश कर देगा.’
मैंने व्याकुल होकर कहा ‘यह तुम कहती क्या हो? प्यार तुम्हें नाश कर देगा? प्यार तो मनुष्य को अमर कर देता है. प्रेम की बड़ी महिमा है! मैं तुमसे कहता हूं कि जब से प्यार मेरे हृदय में उदय हुआ है, मेरा जीवन पल्लवित हो गया है.’
‘आह! कदाचित् मैं भी तुम्हारी ही तरह किसी सद्गृहस्थ की कन्या होती, तो ऐसा ही समझती. परन्तु अब तुम देख ही रहे हो. मैंने गाना-बजाना सब बन्द कर दिया है. सारी आमदनी बन्द है. सोच रही हूं कि जब तक एक भी जेवर है, बेचकर खाऊंगी. इसके बाद फिर देखा जाएगा.
मैंने उत्साह से कहा ‘इतना क्यों? मैं मानता हूं कि मेरी तनख्वाह बहुत कम है, पर इतनी कम भी नहीं कि हम लोगों का गुजारा न हो सके. हां, यह शान नहीं निभ सकेगी.’
‘शान की न कहो, मैं झोंपड़ी में रह सकती हूं परन्तु मां को जानते हो? वह खाए जाती है, उसके खर्च शाही हैं, उसकी आदतें बिगड़ी हुई हैं. हम लोगों का यह सप्ताह जैसे संघर्ष में बीता है, उसकी बात तुमसे कैसे कहूं. पर मैंने प्रतिज्ञा की है कि जान दे दूंगी पर मैं अब सिर्फ तुम्हारी ही होकर रहूंगी, सिर्फ तुम्हारी. तुम अपनी पत्नी का पवित्र दर्जा भले ही मुझे न दो, मुझे उसकी परवाह नहीं. मैं प्रत्येक स्थिति में तुम्हारे साथ रहने को तैयार हूं. मेरे प्यारे स्वामी!’
ओह, उसके ये शब्द न थे, तीर थे! उन शब्दों ने मेरी आत्मा तक को मूर्च्छित कर दिया. मैंने अपने भाग्य को सराहा. उसको बाहुपाश में कसकर अगणित चुम्बन लिये. मैंने कहा ‘चिन्ता न करो, मेरा तन-मन तुम्हारे अर्पण हैं! मेरा भविष्य उज्ज्वल है और मैं अपने को तुम्हारे योग्य प्रमाणित करूंगा.’
मुझे ऐसा मालूम हुआ जैसे हम लोगे धीरे-धीरे एक हो गए हैं. और जब मैं वहां से लौटा, तो जैसे मैं पृथ्वी भर का अधिपति हूं, विश्व की सम्पदा का स्वामी हूं. स्वप्न देखता लौटा. आनन्द, प्रेम, आलोक मेरे नेत्रों, मेरे हृदय और मेरी आत्मा में रम रहे थे.
दूसरे ही दिन अचानक मैं बीमार पड़ गया. मैं कोई एक सप्ताह तक वहां न जा सका. यह भी सोच रहा था, वेतन मिले तो लेकर जाऊं. वहां खर्च की दिक्कत है, यह साफ दिख रहा था. उसके लिए मेरे मन में विकलता उत्पन्न हो गई थी. जाकर देखा तो सन्नाटा था. मन में हर्ष की रेखा उदय हुई, परन्तु पूछने पर नौकर ने कहा, ‘प्रदर्शनी देखने गई हैं.’
मन कुछ छोटा सा हो गया. बिना कुछ जवाब दिए मैं प्रदर्शनी की ओर चला. बहुत भीड़ थी; रंग-बिरंगी पोशाकें पहनकर सुन्दरियां तितली की भांति घूमती-फिरती थीं. बिजली के प्रकाश में उनका रूप और यौवन जैसे मुखरित हो उठा था. परन्तु मुझे यह सब देखने का अवकाश ही न था. मैं अपनी पूजा की, प्रेम की मूर्ति को आंखें फैलाए देख रहा था.
मुझे ज्यादा प्रयास नहीं करना पड़ा. देखा, सामने एक बनारसी साड़ीवाले की दुकान पर वह खड़ी है. धानी साड़ी और उस पर मैच करता हुआ जम्पर और चप्पल उसकी शरीर-शोभा का विस्तार कर रही है. वह बिजली के प्रकाश में उससे भी उज्ज्वल अपना हास्य बिखेर रही है. उसके साथ में वही हीरे की अंगूठीवाला आदमी है. उसने एक कीमती साड़ी खरीद ली है, जिसका रुपया उसी आदमी ने लापरवाही से फेंक दिया है. और वह उसके कन्धे और वक्ष से सटा हुआ धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है.
मैं कुछ दूर ही ठिठक गया. मुझे मालूम हुआ जैसे मेरे हृदय की गति भी रुक गई है. परन्तु उसने मुझे देख ही लिया. मुझे ेदेखते ही जैसे उसके प्राण निकल गए. उसका हास्य रुक गया, हाथ की साड़ी छूट पड़ी और वह भौंचक-सी मेरी ओर देखने लगी. मेरी आंखों से आग निकल रही थी, और वह मेरी ओर अब न देखकर धरती की ओर देख रही थी.
उसके साथी ने एकाएक सब बातें नहीं समझी. उसने कहा ‘अरे, साड़ी गिरा दी तुमने?’
उसने झुककर साड़ी उठाई और उस हीरे की अंगूठीवाले की ओर देखकर मुस्करा दी, परन्तु फिर उसने आंखें नीची कर लीं.
मैं उस बदमाश की अशिष्टता पर जल उठा था. इच्छा होती थी कि आगे बढ़कर गर्दन नाप दूं. उसने भी मुझे देखा और मतलब कुछ-कुछ समझ गया. उसने भौंहों में बल डालकर उससे आज्ञा के ढंग पर कहा ‘चलो-चलो, यहां नुमाइश में गुंडों के मारे नाक में दम रहता है. ऐसा घूरते हैं साले कि जैसे खा ही जाएंगे.’ उसने मेरी ओर एक बार भयानक दृष्टि से देखा और फिर एक प्रकार से उसे घसीटता हुआ आगे ले चला.
बड़ी ही कठिनाई से मैंने अपने को वश में रखा. उनके चले जाने पर मुझे कुछ होश आया. मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मेरे शरीर का सारा रक्त मस्तिष्क में जमा हो गया है. एक भयानक विचार मेरे मस्तिष्क में आया और मैं बाहर आ एक तांगे में बैठ यूनिवर्सिटी लौटा. तांगे को तेज चलने का हुक्म दिया. ठंडी हवा के झोंके मेरे बालों को बिखेर रहे थे और विचारों की आग मुझे जला रही थी. मैंने अपना इरादा पक्का कर लिया था.
होस्टल के निकट मैंने तांगे को छोड़ दिया. एक रुपया तांगेवाले के ऊपर फेंककर मैं एक ओर चल दिया. मैं जानता था कि यूनिवर्सिटी का रुपया कहां रखा रहता है. चौकीदार वहां बैठा था. उसने हंसकर मुझे सलाम किया. चाबी मेरे पास थी. मैंने
धड़कते हुए कलेजे से ताला खोल डाला. चौकीदार को सन्देह नहीं हुआ. उसने कहा ‘बाबूजी, आजकल रात को भी आपको काम करना पड़ता है?’ मैंने न जाने क्या जवाब दिया. हां, इतना याद है. उसे कुछ पैसे दे कुछ खाने की चीजें लाने को भेज दिया और मैंने सफलतापूर्वक अपना काम कर लिया. जितने नोट जेब में समा सके. जेबों में भरकर मैं बाहर निकला. कमरे का ताला लगाया. चौकीदार अभी भी नहीं आया था. मैंने उसकी प्रतीक्षा नहीं की, सीधा सड़क पर आया. एक बस उधर से जा रही थी. उस पर कूदकर चढ़ गया. और मैं कुछ ही देर में फिर वहीं कोलाहल में मिल गया.
उन्हें मैंने तुरन्त ही पा लिया. वे दोनों एक रेस्तरां में बैठे चाय पी रहे थे. बहुत लोग वहां बैठे थे. स्त्रियां भी, और पुरुष भी. उसने मुझे देखा-इस बार उसने साहस किया. उस पुरुष से कुछ कहकर वह मेरी ओर बढ़ी. मैं पत्थर की मूर्ति की भांति खड़ा घूर-घूरकर उस हीरे की अंगूठीवाले को देख रहा था, उसके वे शब्द मेरे कानों में गूंज रहे थे. उसे मेरे पास आते देख वह क्रुद्ध हो उठा. वह अग्निमय नेत्रों से मेरी ओर ताक रहा था.
उसने पास आकर कोमलतापूर्वक मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर कहा ‘चलो, घर चलें.’
मैं एक विद्रूप हंसी हंस उठा. ज्वालाएं मेरे हास्य में सुलग उठीं. मैंने कसकर उसका हाथ पकड़ लिया. फिर मैंने खूब चीख मारकर कहा ‘भद्रजनों और महिलाओं! यह देखिए! आपके बीच में एक रंडी आ बैठी है, जो अपने रूप और अस्मत का सौदा करने का पेशा करने में खूब कुशल है. जिसने प्रेम नहीं प्रेम का अभिनय करना सीखा है, जो विश्वासघात करती और पैसे के लिए अपनी ही आत्मा का खून पीती है. भद्र महिलाओं, ऐसी औरतों को अपने साथ बैठने देना आपका अपमान है. आप सब मिलकर इसे धिक्कारिए और मैं, मैं इसके लिए एक चीज लाया हूं. वह इस औरत की दुनिया में सबसे प्यारी चीज है. वह देखिए, यह है, मैं यह इसे देता हूं. अब आप इससे कह दीजिए कि इसके लिए यह काफी से भी ज्यादा है. अब यह स्त्रियों की जाति को कलंकित करने-वाले इस अस्मत-फरोशी के सौदे को छोड़ दे.’
मैंने जेब से नोटों के बंडल के बंडल उस पर फेंक दिए. वह बेंत की तरह कांप रही थी. नोट छितराकर इधर-उधर बिखर रहे थे. और लोगों के ठठ के ठठ जमा हो गए थे. मुझे ऐसा मालूम हुआ कि जैसे वह झुक रही है और अब गिर जाएगी. मैं कुछ उसकी ओर बढ़-सा रहा था कि फिर वही हीरे की अंगूठीवाला आदमी आगे बढ़ा. उसने अपनी सोने की मूठ का पतला बेंत उठाकर सपाक से मेरे मुंह पर दे मारा और कहा ‘जानवर!’
मुझे कुछ जरा-सा दर्द मालूम हुआ. फिर कोई खारी-सी गर्म-गर्म चीज बहकर मेरे होंठों को छू गई. मैं एकाएक चीते की भांति उस पर टूट पड़ा. वह मेरे आक्रमण के वेग को न सम्हाल सका. उसका सिर सामने के एक लकड़ी के कुन्दे से जा टकराया. एक तीव्र चीख के साथ वह घूमकर धरती में जा गिरा. लोग ‘खून-खून! पुलिस-पुलिस! चिल्लाने लगे. मेरी आंखों में अंधेरा छा गया था. पर मैं तुरन्त ही वहां से भाग चला. टीन की दीवार को फांदकर मैं अन्धकार में विलीन हो गया. नुमाइश का शोर धीरे-
धीरे गायब हो गया. और मैं बचकर साफ निकल गया.
यूनिवर्सिटी की चोरी और नुमाइश का ख्ूान दोनों ही दूसरे दिन दैनिक पत्रों में बड़ी-बड़ी सुर्खी देकर छपे. मेरा नाम और तस्वीर भी छपी, मेरे फरार होने की खबर भी. पढ़कर मैं कांप गया. उस अभागिनी का क्या हुआ, सिर्फ यही नहीं छपा. उसके समाचार प्राप्त करने के लिए मैं छटपटा उठा.
पांच महीने मैं फरार रहा. इन पांच महीनों की मनोव्यथा कैसे कहूं? प्राणों के मोह और कायरता की भावना की इतनी गहराई का कभी अनुभव नहीं किया था. ऐसा मालूम होता था कि प्रतिदिन मैं कई बार मर जाता था और कई बार जी जाता था. फांसी के, अदालत के, जेल के दृश्य देखता. मेरे नाम का वारंट निकल चुका था, उस पर भारी इनाम भी था, पर परिस्थिति ने मुझे धूर्त बना दिया था और मैं पांच महीने तक सुरक्षित रहा. अन्त में एक दिन मुझसे न रहा गया और मैं साहस करके उसको देखने को नगर में गया. दीये जल चुके थे, सड़कों पर अन्धकार था. मैं मन में शंकित-सा धीरे-धीरे जा रहा था.
उसी भांति सन्नाटा था. द्वार बन्द थे. मैंने धीरे से द्वार खटखटाया. स्वयं उसकी मां ने दरवाजा खोला. मुझे देखकर वह चमक पड़ी. फिर उसने उंगली के संकेत से मुझे चुपचाप भीतर आने को कहां. वहां जाने पर उसने सतर्क होकर द्वार बन्द कर लिया. फिर कहा ‘यहां प्रतिक्षण पुलिस के आने का भय है, मकान पर पहरा लगा हुआ है. तुम कैसे आ गए?’
मैंने कहा ‘है कहां वह, यह बताइए.’
‘धीरे बोलिए!’ उसने संकेत से कहा ‘वह सो रही है. बहुत बीमार है. डॉक्टर जवाब दे चुके हैं. मैं आपसे क्या कहूं? आपने उसे बर्बाद कर दिया बाबू!’
वह मुझे वहीं ठहरने का संकेत करके भीतर गई. मैं देर तक बैठा हुआ अतीत की बातें याद करता रहा. यदि वह बीमार है, तो अवश्य मेरे ही कारण. आह! वह अवश्य ही मुझ भाग्यहीन से प्रेम करती है.
धीरे-धीरे वृद्धा बाहर आई. वेदना और निराशा उसके मुंह पर छा रही थी और उसकी आंखों में आंसू भरे थे. मैंने कहा ‘ईश्वर के लिए हुआ क्या है, कहिए तो?’
‘कुछ नहीं,’ उसने आंखें पोंछकर कहा ‘आप आइए, वह बहुत उत्तेजित हो गई है.’
मैं कदम बढ़ाता हुआ कमरे में गया. देखा, वह पलंग पर नहीं, आरामकुर्सी पर बैठी मेरी ओर देखकर हंस रही थी. उसके बाल जल्दी-जल्दी में तभी गूंथ दिए गए थे. फिर जल्दी में एक कीमती साड़ी उसके बदन से लपेट दी गई थी, उसने कागज के गुलदस्ते के कुछ फूल उठाकर हाथों में ले लिये थे.
मुझे देखते ही एक बार वह हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई. पर तुरन्त ही लड़खड़ा कर गिरने लगी. मैंने लपककर संभाला और पलंग पर लेट जाने को कहा, तो हंसकर बोली ‘अब मैं पलंग पर नहीं जाऊंगी. अब तो मैं बिल्कुल अच्छी हो गई. तुम आ गए? यही तो बीमारी थी.’ उसने अपनी भुजाएं मेरे गले में डाल दीं. एक बार फिर उठने की चेष्टा की, पर न उठ सकी. मेरी गोद में झुक गई और मैं उन्मत्त होकर चुम्बन लेने लगा. उसने मेरे रूखे बालों पर हाथ फेरा, मेरा मुरझाया मुंह देखा. हंसती रही. फिर कहा ‘बड़े निर्मोही हो. मगर आए तो. मैंने कहा था, जरूर आवेंगे. कहो, अब तुम मुझे छोड़कर न जाओगे न?’
मैंने कहा ‘कैसे कहूं? जानती हो, जान पर खेलकर आया हूं; और तुम्हारे बिना ये दिन कैसे गए हैं!’ उसने मेरे मुंह पर हाथ रख दिया. बोली नहीं; हंसती ही रही. मैंने एक बार उसे कसकर छाती से लगा लिया. एक कंपकंपी उसके शरीर में पैदा हुई और फिर निस्पन्द.
पहले मैं कुछ समझा ही नहीं, हास्य की रेखा उसके होंठों पर थी, बांहें उसकी शिथिल होकर लटक गईं. आंखें पथरा गईं. ओह पापा, वह मर गई, हंसती-हंसती मेरी ही गोद में!
युवक इस बार खूब रोया. फिर उसने कहा ‘अब पापा, कहानी तो खत्म हो गई और आपको अटकाऊंगा नहीं. उसके सब कामों से निबटकर मैं सीधा थाने चला गया और वहां के विधि-
विधान समाप्त कर इस जेल में. जहां मेरे सात साल बीत गए; पूरे सात साल. अब आप कहते हैं, मुझे जाना होगा; इन कोठरियों की दीवारों को छोड़कर. आप ही कहिए, मैं जाऊंगा कहां?’
वह कातर होकर फिर बूढ़े जेलर की ओर देखने लगा.
जेलर उठा खड़ा हुआ. उसने उसकी पीठ पर हाथ फेरकर कहा ‘चिन्ता न करो मेरे बच्चे. कल होने दो. अब तुम निश्चिन्त होकर सोओ.’
बूढ़े जेलर के पीछे-पीछे कैदी आकर जेलर के बंगले के बाहर बरांडे में उसी कुर्सी के पास जा खड़ा हुआ. मृदुला उस पर बैठी एक रेशम पर फूल निकाल रही थी. उसे मृदुला के पास पहुंचाकर जेलर भीतर चला गया. मृदुला ने हंसकर कहा ‘तुम छूट गए?’
‘हां मृदुला, पर इसका मुझे दुःख है?
‘क्यों?’
कैदी बोला नहीं. उसने एक बार मृदुला की ओर देखा और टप से एक आंसू गिरा दिया.
‘यदि तुम फिर कैद कर लिए जाओ तो?’
‘तो मैं अपना अहोभाग्य समझूं.’
‘अच्छी बात है, भीतर जाओ.’ वह उसे बंगले में ले गई. एक कमरा दिखाकर कहा ‘यहां बैठो. ये कपड़े हैं, वह गुसलखाना. नहा-धोकर कपड़े पहन लो. मैं चाय लाती हूं, पापा को भी बुला लाती हूं. घबराओ मत. मैं तुम्हारा विश्वास करती हूं कि भागोगे नहीं, इसी से ताला बन्द नहीं करती.’
वह खिलखिलाकर हंसी. फिर बाहर भाग गई.
क्षण-भर युवक कुछ सेाचता रहा. फिर वह स्नान-घर में घुस गया.
और सात वर्ष बाद सभ्य पुरुषों जैसे वस्त्र पहनकर वह जेलर और उसकी कन्या मृदुला के साथ चाय पी रहा था.
उसी दिन सन्ध्या को बूढ़े जेलर ने मित्रों को बुलाकर मृदुला का विवाह युवक से कर दिया. ज्यादा धूम-धाम नहीं हुई.
और फिर उसी स्निग्ध चांदनी में मृदुला ने मृदुल भुजवल्लरी उसकी गर्दन में डालकर कहा ‘कहो कैदी, अबकी बार तो उम्रकैद पाई. अब तो छूटने की कोई आशा नहीं है’ और युवक ने कुछ उत्तर न देकर मृदुला को अंकपाश में जकड़ लिया.