कहत कबीर (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई
Kahat Kabir (Hindi Satire) : Harishankar Parsai
संयोग कुछ ऐसा घटा। सन् 1961 में 'नई दुनिया' जबलपुर के (तत्कालीन ) संपादक और मेरे (दीर्घकालीन) मित्र (आगे की कौन जानता है ?) मायाराम सुरजन ने हम दोनों के मित्र श्रीबाल पांडे के साथ तय किया कि मैं उनके पत्र में प्रति सप्ताह व्यंग्य-स्तंभ लिखूँ ।
नाम का सवाल उठा, तो मेरे सिर पर चढ़कर कबीरदास बोला। (पाप ही नहीं, पुण्य भी सिर पर चढ़कर बोलता है)। कबीर के सीधे, बेलौस, बखिया उधेड़, चरबा-उतार, मस्ती और फक्कड़पन से भरे व्यंग्यों का मैं भक्त रहा हूँ। इतना ताकतवर कोई और हुआ नहीं क्योंकि और किसी ने न 'सीस काटकै भुँई धरा' न 'अपना घर फूँकिया', न 'बाजार में लिये लुकाठी' खड़ा हुआ - 'सब ही भुलाने पेट का धंधा !'
तो स्तंभ का रूप यों निश्चित हुआ कि 'कबीर' हर सप्ताह साधुओं से बात करे । सप्ताह की कोई घटना का छोर पकड़कर उसमें निहित प्रवृत्ति को व्यापक आयाम देकर उस पर व्यंग्य किया जाय । स्थिति की पूरी 'एब्सडिटी' को उभारकर, उसे तर्कपूर्ण और न्यायसंगत बनाकर प्रस्तुत किया जाय, तो स्थिति पर पुरअसर व्यंग्य हो जाता है। इसी तरह छिपाकर किए जानेवाले मिथ्याचार को करनेवाले से प्रगट अधिकारपूर्वक और न्यायोचित ढंग से कराया जाय, तो भी प्रवृत्ति पर करारी चोट होती है । विकृति इतनी व्यापक हो जाय और उसे इतनी मान्यता मिल जाय कि उसका गोपन एक उपचार मात्र रह जाय, तो उसके विद्रूप को ऊपर ले आना चाहिए। ऐसी ही कुछ शैली मैंने इन स्तंभों में अपनाई। नाम हुआ 'सुनो भई साधो' और वक्ता हुआ 'कबीर'। हर सप्ताह साधु इकट्ठे होते हैं और कबीर सप्ताह की किसी घटना को लेकर उनसे बात करता है - 'साधो, तुमने सुना-'
यों ही जो स्तंभ शुरू कर दिया, उसने आगे मुझे बाँध लिया। इसकी प्रभावकारी 'अपील' और विकट लोकप्रियता ने मुझे बाध्य किया कि इसे जिम्मेदारी से लिखूँ । मैं इसे | लेखन के माध्यम से अपने सामाजिक दायित्व की आंशिक पूर्ति के रूप में ग्रहण करने लगा । 'ऊँचे' लेखकों को यह दायित्व की बात गलत लगती है। उन्हें मुनाफाखोर सस्ता अनाज दे देता होगा, मुझे तो नहीं देता। लंबी कतार में खाली थैले लिये मैं भी कहीं खड़ा हूँ ।
'कबीर' के ये प्रवचन इंदौर और रायपुर की 'नई दुनिया' में भी उद्धृत होने लगे और बहुत पढ़े जाने लगे। यह स्तंभ बहुत लोकप्रिय है और जितने प्रशंसक तथा दुश्मन इस बनाए, उतने मेरे किसी और लेखन ने नहीं। इसकी चोट से बहुत लोग तिलमिलाते हैं और उनकी गालियाँ तथा धमकियाँ भी मुझे मिलती हैं। मगर जन समर्थन मुझे हमेशा आश्वस्त कर देता है।
सामाजिक-राजनैतिक व्यंग्य-स्तंभ के लेखन की पहली शर्त लेखक की स्वतंत्रता है । इस संबंध में 'नई दुनिया' के तीनों संस्करणों में मुझे पूरी छूट है। जबलपुर 'नई दुनिया', से मायाराम सुरजन के अलग होने के बाद भी श्री परमानंद पटेल ने तथा उनके नए संपादक श्री सुंदर शर्मा ने लेखकीय स्वतंत्रता की कद्र की है और इस स्तंभ के लिए आवश्यक सुविधा दी है।
इन व्यंग्य - चर्चाओं की रचना अनायास हो जाती है। मित्रों से सामाजिक-राजनैतिक विषयों और सामयिक घटनाओं पर चर्चा रोज ही होती है, मुख्यतः मेरे एक खुशमिजाज और मेधावान मित्र हनुमान वर्मा से। लोगों से बात करते-करते किसी स्थिति का विद्रूप मन में चमक उठता है और व्यंग्य की रेखाएँ खिंच जाती हैं । तब व्यंग्य के फ़िकरे निकलने लगते हैं। सुननेवाले अंदाज लगाकर कह भी देते हैं कि अगले इतवार यही आ रहा होगा।
अब तक लगभग 150 किस्तें लिख चुका हूँ। हर हफ्ते अभी भी लिख रहा हूँ । मुझे सलाह मिली कि इनका संग्रह छपा दिया जाय। मेरे मित्र ( आगे प्रकाशक) शेष नारायण राय ने यह दायित्व ले लिया। ये 36 किस्तें इस संग्रह में जा रही हैं। आगे और संग्रह भी होंगे।
पहले मेरे मन में आया था कि इन स्तंभों को अखबार के पन्नों में पड़ा रहने दूँ और इन विषयों को निबंधों का रूप दे दूँ। फिर मैंने यह रूप परिवर्तन का इरादा त्याग दिया । जब इसी रूप में संग्रह में जाने का तय हुआ, तब पहले सोचा कि इन्हें फिर से लिख दूँ, ताकि ये सुव्यवस्थित हो जाएँ। लेकिन यह इरादा भी त्याग दिया। मेरे आलस्य ने इन निर्णयों में कितना योगदान किया, मैं जानता हूँ। अब ये उसी मौलिक रूप में छप रहे हैं, जिसमें मैंने इन्हें लिखा था। इनकी अव्यवस्था और ऊबड़-खाबड़पन भी पढ़नेवालों को आकर्षक लगा है। जैसा कि स्वाभाविक है, इनमें अव्यवस्था है, बिखराव है, भाषा का ऊबड़-खाबड़पन है, पुनरुक्ति भी है। एक बात विभिन्न प्रसंगों में, विभिन्न अर्थ समर्थन के लिए कई बार आ गई है। कुछ प्रसंग, जैसे एकलव्य का अँगूठा और नारद का बंदर का चेहरा, मेरी चेतना पर जमे रहे हैं और वे बार-बार आ गए हैं। कुछ उक्तियाँ मेरी दूसरी रचनाओं की भी अनायास आ गई है। मैंने इन्हें रहने दिया है।
सवाल है-इस लेखन का मूल्य क्या होगा? पढ़नेवाले के लिए फिलहाल सवा तीन रुपया । आलोचना करनेवाले के लिए, जो वह चाहे सो । साहित्यिक मूल्य में कुछ निश्चित नहीं होता । आज की गाली कल शायद सद्-साहित्य मान ली जाय। अधिकांश साहित्यालोचक जड़ और संकीर्ण दृष्टि तथा भोथरे संवेदन के होते हैं । वे एक परंपरा के गुलाम बन जाते हैं। मैं तो छोटा आदमी हूँ, पर उस मेरे पूज्य महाप्राण कबीरदास के व्यंग्यों की सैकड़ों साल तक क्या कद्र की गई ! उच्चवर्गियों और पंडितों ने उसे गँवार ही माना । होली पर उत्तर भारत में जो गाली बकी जाती है उसे अभी भी 'कबीर' कहते हैं- 'अरे रे रे सुनो हो कबीर' - याने कबीर की बात गाली-गलौज ही हुई ! हमारे जमाने में एक उच्चवर्गीय महान् कवि रवींद्रनाथ ने उसके सामने सबको दिखाकर माथा झुकाया और उसके पदों का अंगरेजी में अनुवाद किया । ब्राह्मणों द्वारा निंदित कबीर पर एक ऊँचे ब्राह्मण पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने पुस्तक लिखकर उसकी महत्ता का प्रतिपादन करके, पहले के ब्राह्मणों के पाप को धोया ।
साहित्य-समीक्षा के प्रति मैं आत्म-रक्षा के खयाल से ही लापरवाह हूँ । पाठक को अलबत्ता मैं यह संग्रह बेझिझक और निःसंकोच दे रहा हूँ। उसने मेरा विश्वास किया है और मैंने उसका — और दोनों को अभी तक तो धोखा नहीं हुआ ।
सुनो भई साधो 1964