कहानी तीन अंधों की (उड़िया बाल कहानी) : सुरेश चन्द्र जेना/ସୁରେଶ ଚନ୍ଦ୍ର ଜେନା
Kahani Teen Andhon Ki (Oriya Children Story) : Suresh Chandra Jena
एक गाँव में शंकर नामक एक ब्राह्मण रहता था । उसका दिल साफ था और वह खूब होशियार था । दिन भर अपने यजमानों के यहाँ पूजा-पाठ करता रहता था। हालाँकि उसको स्कूली शिक्षा नहीं मिली थी, पर उसने धार्मिक ग्रन्थों, पुराणों के अनेक छन्द याद कर लिये थे । वह यजमानों के घर पूजा-पाठ कर दक्षिणा के रूप में अच्छी कमाई कर लेता था, ऊपर से उसे उपहार, भेंट आदि भी मिल जाते थे।
शंकर की पत्नी का नाम था धनवंती । वह गृहस्थी के सब प्रकार के काम-काज में बड़ी निपुण थी। शंकर का पाँच प्राणियों का छोटा-सा परिवार धनवंती के परिश्रम और चतुराई से आराम से जीता था। वह अपने पति को रोज काम पर भेज देती थी ।
एक दिन की घटना है, जब शंकर को कुछ रुपयों की जरूरत पड़ी। पर उस दिन उसके पास एक फूटी कौड़ी भी न थी। क्या करे, क्या न करे- वह इसी चिंता में डूब गया। जब और कोई उपाय न सूझा, उसने हाथ जोड़कर, आँखें मूँदकर ईश्वर से प्रार्थना की, 'हे भगवन, यदि तुम मुझे सौ रुपये दिला दो तो मैं दस रुपये गरीबों को दान कर दूँगा।' जब उसने आँखें खोलीं तो उसके सामने सौ रुपये का एक नोट रखा था। उसने बहुत खुश होकर धनवंती को सारी घटना बताई। वह दौड़कर घर से बाहर निकल आया । सड़क पर एक अंधा भिखारी मिला जो जोर-जोर से कह रहा था, 'बाबा, अंधा सूर को पैसा दो, दो पैसा ।'
शंकर को अंधे की करुण पुकार सुनकर बड़ी दया आयी। दस रुपये निकालकर उसके हाथ पर रख दिया, और बोला, 'लो बाबा, यह दस रुपये हैं ।'
अंधे को बड़ा आश्चर्य हुआ। एक दाता से दस रुपये उसे कभी मिले ही न थे । एक साथ दस रुपये उसने कभी छुआ ही न था । शंकर को दुआ देते हुए उसने पूछा, 'महाराज, आप ने इतने रुपये क्यों दिये भीख में?' पहले तो शंकर सकपकाया। पर जाने क्या सोचकर उसने अंधे को सारी बात बता दी । उसकी बातें सुनकर अंधे के मन में लोभ पैदा हुआ। वह शंकर से अनुनय- विनय करने लगा। वह बोला, 'महाराज, मुझ पर एक और दया कीजिए । मेरी एक कामना पूरी कर दीजिए।' मेरे लिए तो सौ रुपये सपना है। जीवन में कभी सौ रुपये पाने की आशा ही नहीं है। मुझे वे सौ रुपये देकर मेरी अधूरी कामना पूरी कर दीजिए। मैं सदा आपका गुणगान करता फिरूँगा ।'
लेकिन शंकर ने अंधे की बातें अनसुनी कर दीं। अंधे ने जोर-जोर से चिल्लाते हुए कहा, 'बचाआ बचाओ, कोई हो तो आ जाओ। यह आदमी मेरे रुपये छीन कर भाग रहा है। चारों ओर से लोग आकर वहाँ इकट्ठे हो गये । शंकर को घेर लिया। उसने असलियत बताने की कोशिश की, परन्तु कोई सुनने को तैयार न था । लोगों ने उल्टा उसे डाँटकर कहा, 'अरे पण्डित. तेरी नीयत इतनी छोटी है। तुझे शर्म नहीं आती कि एक अनाथ अंधे की जीवन भर की कमाई पर हाथ मार रहा है। तेरा सब धरम-करम नष्ट हो गया।' कुछ लोगों ने उत्तेजना में शंकर के गाल पर दो-चार चपत भी लगा दिया । शंकर ने विवश होकर अंधे को सारे रुपये दे दिये। घर लौटकर धनवंती को सारी घटना बतायी।
धनवंती अपने पति को समझाते हुए बोली. 'तुम उसकी परवाह मत करो। उस अंधे से प्रतिशोध लेना ही लेना है। उसे अच्छा सबक पढ़ाऊँगी। धनवंती ने फुसफुसाकर शंकर के कान में कुछ कहा ।
जब रात को सोने के लिए अंधा मसजिद में गया तब शंकर भी उसके पीछे-पीछे गया। अंधे ने उन रुपयों में से कुछ निकाले और झोली में डाल दिये । बाकी रुपयों को एक मिट्टी की छोटी-सी हाँडी में रख मसजिद के बाहर एक कोने में गाड़ दिया, और चुपचाप सो गया। शंकर ने चुपके से वहाँ जाकर हाँडी को खोद निकाला और वापस घर गया। उसमें सिर्फ पचास रुपये मिले।
शंकर ने पत्नी से कहा, 'कुल पचास रुपये ही वापस मिले। बाकी का क्या करेंगे? धनवंती ने एक उपाय और बताया।
सवेरे उठकर अंधे ने सबसे पहले रुपये निकालने की सोचा। मिट्टी खोदकर हाँड़ी टटोली । न वहाँ हाँड़ी थी और न गाड़े गये रुपये । अंधा पैसे न पाकर जोर-जोर से रोने लगा। ठीक उसी वक्त मसजिद के अंधे मुल्ला साहब एक छड़ी लिए रास्ता नापते अंधे के पास पहुँचे। उन्होंने अंधे से रोने का कारण पूछा। अंधे से सब कुछ सुनकर मुल्ला ने कहा, 'यह तो तुम्हारी ही गलती है। रोज हजारों लोग मसजिद आते-जाते हैं। ऐसे स्थान पर क्या रुपये रखना चाहिए ?"
मुल्ला साहब की बात सुनकर अंधे ने पूछा, 'तो मैं क्या करूँ ? आप ही बताइए। उन रुपयों को कहाँ रखूँ?' मुल्ला जी खिल उठे और आग्रह से बोले, 'मेरी इस छड़ी के अंदर पोल है। इसके अंदर डाल दो। मैं इसे हमेशा पकड़े रहता हूँ। इस बीच मेरी इस छड़ी की तरह तुम भी एक छड़ी तैयार करा लो । तब तक तुम्हारे रुपये अमानत के रूप में मेरे पास जमा रहेंगे। रुपये 'सुरक्षित रखने का इसके अलावा दूसरा उपाय नहीं है।'
शंकर छुपकर सारी बातें सुन रहा था। दूसरे ही दिन मुसलमान के वेश में वह मसजिद के एक कोने में जा बैठा । अंधा भिखारी अपने रुपये मुल्ला की छड़ी में डालकर खुश था । मसजिद में नमाज शुरू होते ही अंधा मुल्ला छड़ी नीचे रखकर नमाज अदा करने लगा। शंकर एक दूसरी छड़ी वहाँ रखकर मुल्ला की छड़ी उड़ा लाया।
नमाज समाप्त होते ही मुल्ला साहब ने छड़ी उठाई और अपने घर आ गये। खुश होकर बीवी से बोले, 'देखो, आज तुम्हारे लिए कितने रुपये लाया हूँ । इससे तुम्हारे लिए जेवर आ जाएँगे।' उन्होंने छड़ी के मुँह पर लगी चाँदी का ढक्कन निकाल दिया और पलटकर फर्श पर ठोंकने लगे। लेकिन उसमें से रुपया निकला ही नहीं । मुल्ला साहब अपनी बीवी के सामने खूब शर्मिन्दा हुए। मुँह से बात निकली ही नहीं। जोर-जोर से साँस चलने लगी। धीरे-धीरे उनके मुँह से निकला, 'या खुदा, गजब हो गया। वे रुपये गये कहाँ ?'
मुल्ला साहब का नाटक देखकर उनकी बीवी बोलीं आप मेरे साथ क्या मजाक कर रहे हैं? अरे, आप जैसे मामूली मुल्ला को इतने रुपये कौन देना चाहेगा। अगर किसी के पास पैसे होंगे तो वह 'हज' करने जाएगा, धरम- करम करेगा कि आप जैसे अंधे मुल्ला को दे देता । जी, मैं साफ-साफ कहे देती हूँ, अगर फिर कभी मेरे साथ ऐसा मजाक किया तो अच्छी बात नहीं होगी ।'
अपना सा मुँह लेकर मुल्ला रास्ता खोजते खोजते मसजिद में आ पहुँचे । अंधे भिखारी को पास बुलाकर उसे सारी वारदात सुनाई। दोनों मिलकर खूब रोए । मसजिद में दो पीर रहते थे । वे भी अंधे थे। एक पीर मुल्ला जी की रोने की आवाज सुनकर लाठी टेकते हुए वहाँ पहुँच गया। मुल्ला और भिखारी ने बारी-बारी से सारी घटना सुनाई।
भिखारी ने रुआँसा होकर कहा, 'अब मैं क्या करूँ? मेरे पास कुल बीस रुपये ही बचे हैं। अगर यह रकम भी लुट गयी तो मैं गुजारा कैसे करूँगा ! पीर साहब ने उसको ढाँढस देते हुए कहा, 'अरे, कई उपाय हैं । तुम्हारे पैसे सही सलामत हैं। मैं वायदा करता हूँ। मेरी पतलून के पल्लू काफी मोटे हैं। तुम अपने रुपये मुझे दे दो। अपनी धोती में रुपये बाँध कर मैं इसे पहन लूँगा। रुपये जाने की गुंजाइश ही नहीं रहेगी ।
अंधे भिखमंगे ने तुरंत अपने बीस रुपये अंधे पीर के हवाले कर दिये । पीर ने रुपयों को पतलून में बाँध कर रख दिया। उसके बाद शंकर ने अपना काम शुरू कर दिया। वह एक छोटी-सी बोतल में चींटियाँ भर कर लाया था। धीरे से जाकर पीर साहब के ऊपर बोतल की चींटियाँ झार दिया। जब चींटियाँ काटने लगीं तो पार ने हाय अल्लाह- हाय अल्लाह चिल्लाते हुए सारे कपड़े उतार दिये और बदन खुजलाने लगा। शंकर पीरजादा की पतलून उठाकर फरार हो गया। पति-पत्नी अपनी सारी रकम पाकर खुश हो गये ।
तीन अंधों ने राजा के पास शिकायत की कि मुल्क में चोर उचक्कों का राज हो गया है। यहाँ तक कि साधु-संत, फकीर मुल्ला, अंधे लँगड़ों का जीना भी दूभर हो गया है। राजा ने अंधों को आश्वासन दिया कि जिस चोर ने उन्हें ठगा है, उसे पकड़कर कड़ी से कड़ी सजा जरूर दी जाएगी। राजा ने सोचा- 'यह जरूर किसी अक्लमंद आदमी का काम है। मुल्क में घोषणा कर दी कि यदि चोर आकर खुद अपना अपराध स्वीकार करेगा तो उसे क्षमा कर दिया जायेगा ।
राजा की घोषणा सुनकर शंकर दरबार में जा पहुँचा और राजा को शुरू से अंत तक सारी घटना बता दी। वह बोला, 'इसमें मेरी कोई देन नहीं है। मेरी पत्नी की बुद्धिमानी से हमें अपने पैसे वापस मिले हैं।' राजा धनवंती की बुद्धिमानी से खूब प्रभावित हुए और उसे दरबार में पुरस्कृत किया गया। अंधे भिखारी को जेल की सजा मिली।
(संपादक : बालशौरि रेड्डी)