कचरा बाबा (कहानी) : कृष्ण चन्दर
Kachra Baba (Story in Hindi) : Krishen Chander
जब वो हस्पताल से बाहर निकला तो उसकी टांगें काँप रही थीं और उसका सारा जिस्म भीगी हुई रुई का बना मालूम होता था और उसका जी चलने को नहीं चाहता था, वहीं फ़ुटपाथ पर बैठ जाने को चाहता था। क़ाएदे से उसे अभी तक एक माह और हस्पताल में रहना चाहिए था मगर हस्पताल वालों ने उसकी छुट्टी कर दी थी, साढे़ चार माह तक वो हस्पताल के प्राइवेट वार्ड में रहा था और डेढ़ माह तक जनरल वार्ड में, इस असनाए में उसका गुर्दा निकाल दिया गया था और उसकी आंतों का एक हिस्सा काट के आंतों के फे़अल को दुरुस्त किया गया था। अभी तक उसके कलेजे का फे़अल रास्त नहीं हुआ था उसे हस्पताल से निकल जाना पड़ा क्योंकि दूसरे लोग इंतिज़ार कर रहे थे, जिनकी हालत उस से भी बदतर थी। डाक्टर ने उसके हाथ में एक लंबा सा नुस्ख़ा दे दिया और कहा ये टॉनिक पियो और मुक़व्वी ग़िज़ा खाओ, बिल्कुल तंदुरुस्त हो जाओगे, अब हस्पताल में रहने की कोई ज़रूरत नहीं है। मगर मुझसे चला नहीं जाता, डाक्टर साहिब? उसने कमज़ोर आवाज़ में एहतिजाज किया, घर जाऐ, चंद दिन बीवी ख़िदमत करेगी बिल्कुल ठीक हो जाओगे, बहुत ही धीरे-धीरे लड़खड़ाते हुए क़दमों से फुटपाथ पर चलते उसने सोचा, घर? मेरा घर कहाँ है? चंद माह पहले एक घर ज़रूर था, एक बीवी भी थी, जिसके एक बच्चा होने वाला था, वो दोनों उस आने वाले बच्चे के तसव्वुर से किस क़दर ख़ुश थे, होगी दुनिया में ज़्यादा आबादी, मगर वो तो उन दोनों का पहला बचा था।
दुलारी ने अपने बच्चे के लिए बड़े ख़ूबसूरत कपड़े सिए थे और हस्पताल में लाकर उसे दिखाए थे और उन कपड़ों की नर्म सतह पर हाथ फेरते हुए उसको ऐसा महसूस हुआ जैसे वो अपने बच्चे को बाँहों में लेकर उसे प्यार कर रहा हो, मगर फिर अगले चंद महीनों में बहुत कुछ लुट गया, जब उसके गुर्दे का पहला ऑप्रेशन हुआ तो दुलारी ने अपने ज़ेवर बेच दीए कि ऐसे ही मौक़ों के लिए होते हैं, लोग ये समझते हैं कि ज़ेवर औरत के हुस्न की अफ़्ज़ाइश के लिए होते हैं, वो तो किसी दूसरे दर्द का मुदावा होते हैं, शौहर का ऑप्रेशन, बच्चे की तालीम, लड़की की शादी, ये बैंक ऐसे ही मौक़ों के लिए खुलता है और ख़ाली कर दिया जाता है, औरत तो उस ज़ेवर की तहवीलदार होती है और ज़िंदगी में मुश्किल से पाँच छः बार उसे इस ज़ेवर को पहनने की तौफ़ीक़ हासिल होती है। गुर्दे के दूसरे ऑप्रेशन से पहले दुलारी का बच्चा ज़ाए हो गया, वो तो हो तोभी दुलारी को दिन रात जो कड़ी मशक़्क़त करना पड़ रही थी, उसमें ये ख़तरा सबसे पहले मौजूद था, ऐसे लगता जैसे दुलारी का ये छरेरा सुनहरा बदन इस क़दर कड़ी मशक़्क़त के लिए नहीं बनाया गया, इसलिए वो दाना फ़र्ज़ाना बच्चा ही में से कहीं लटक गया था, नासाज़गार माहोल देखकर और माँ-बाप की पतली हालत भाँप कर उसने ख़ुद ही पैदा होने से इनकार कर दिया, बाज़ बच्चे ऐसे ही अक़लमंद होते हैं, दुलारी कई दिनों तक हस्पताल नहीं आ सकी, और जब उसने आके ख़बर दी तो वो किस क़दर रोया था, अगर उसे मालूम होता कि आगे चल कर उसे इससे कहीं ज़्यादा रोना पड़ेगा, तो वो इस हादिसे पर रोने के बजाय ख़ुशी का इज़हार करता। गुर्दे के दूसरे ऑप्रेशन के बाद उसकी नौकरी जाती रही, तवील अलालत में यही होता है, कोई कहाँ तक इंतिज़ार कर सकता है, बीमारी इन्सान का अपना ज़ाती मुआमला है, इसलिए अगर वो चाहता कि उसकी नौकरी क़ायम रहे तो उसे ज़्यादा देर तक बीमार न पड़ना चाहिए, इन्सान मशीन की तरह है, अगर एक मशीन तवील अर्से के लिए बिगड़ी रहती है तो उसे उठा के एक तरफ़ रख दिया जाता है और उसकी जगह नई मशीन आजाती है क्योंकि काम रुक नहीं सकता, बिज़नेस बंद नहीं हो सकता और वक़्त थम नहीं सकता, इसलिए जिसे मालूम हो कि उसकी नौकरी भी जाती रही है तो उसे शदीद धचका सा लगा, जिसे उसका दूसरा गुर्दा भी निकाल लिया गया, इस धचके से उसके आँसू भी ख़ुश्क हो गए, असली और बड़ी मुसीबत में आँसू नहीं आते, उसने महसूस किया, सिर्फ़ दिल के अंद एक खला महसूस होता है, ज़मीन क़दमों के नीचे से खिसकती मालूम होती और रगों में ख़ून के बजाय ख़ौफ़ दौड़ता हुआ मालूम होता है।
कई दिनों तक वो आने वाली ज़िंदगी के ख़ौफ़ और दहश्त से सो नहीं सका था, तवील अलालत के खर्चे भी तवील होते हैं, और ज़ेर-ए-बार करने वाले हौले-हौले घर की सब क़ीमती चीज़ें चली गईं, मगर दुलारी ने हिम्मत नहीं हारी, उसने साढे़ चार माह तक एक एक चीज़ बेच दी और आख़िर में नौकरी भी करली, वो एक फ़र्म में मुलाज़िम हो गई थी, और रोज़ अपनी फ़र्म के मालिक को लेकर हस्पताल भी आती थी, वो एक दुबला पुतला, कोताह क़द, अधेड़ उम्र का शर्मीला आदमी दिखाई देता था, कम गो और मीठी मुस्कुराहट वाला, सूरत शक्ल से वो किसी बड़ी फ़र्म का मालिक होने के बजाय किताबों की किसी दुकान का मालिक मालूम होता था, दुलारी उसकी फ़र्म में सौ रुपये महीने पर नौकर हो गई थी, चूँकि वो ज़्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी, इसलिए उसका काम लिफ़ाफ़ों पर टैक्टिस लगाना था। ये तो बहुत आसान काम है? दुलारी के शौहर ने कहा। फ़र्म का बॉस बोला काम तो आसान है, मगर जब दिन में पाँच छः सौ ख़तों पर टिकट्स लगानी पड़ें तो इसी तरह का काम बहुत आसान काम के बजाय बहुत मुश्किल काम होजाता है। और वो इस मंज़िल से गुज़र चुका था जिसका वो किसी को क़सूरवार नहीं ठहरा सकता था, इतनी चोटें पै दर पै उस पर पड़ी थीं कि वो बिल्कुल बौखला गया, बिल्कुल सन्नाटे में आगया, वो बातिल दम बखू़र था, अब उसकी मुसीबत और तकालीफ़ में किसी तरह का कोई जज़्बा या आँसू नहीं रह गया था, बार-बार हथौड़े की ज़रबें खा खा कर उसका दिल धात के एक पतरे की तरह बेहिस हो गया, इसलिए आज जब उसे हस्पताल से निकाला गया तो उसने डाक्टर को किसी ज़हनी तकलीफ़ को दूर करने की शिकायात नहीं की थी, उसने उससे ये नहीं कहा था कि अब वो इस हस्पताल से निकल कर कहाँ जाएगा? अब उसका कोई घर नहीं था, कोई बीवी नहीं थी, कोई बच्चा नहीं, कोई नौकरी नहीं, उसका दिल ख़ाली था, उसकी जेब ख़ाली थी, और उसके सामने एक ख़ाली और स्पाट मुस्तक़बिल था। मगर उसने ये सब कुछ नहीं कहा था, उसने सिर्फ़ ये कहा था, डाक्टर साहिब मुझसे चला नहीं जा रहा है, बस यही एक हक़ीक़त थी जो उसे उस वक़्त याद थी, बाक़ी हर बात उसके दिल से मह्व हो सकती है, उस वक़्त चलते चलते वो सिर्फ़ ये महसूस कर सकता था कि उसका जिस्म गीली रुई का बना हुआ है, उसकी रीढ़ की हड्डी किसी पुरानी शिकस्ता चारपाई की तरह चटख़ रही है, धूप बहुत तेज़ है, रोशनी नशतर की तरह चुभती है, आसमान पर एक मैले और पीले रंग का वार्निश फिरा हुआ और फ़िज़ा में तारीक तर करते और चुसतीयाँ सी ग़लीज़ मक्खीयों की तरह भिनभिनार रही हैं और लोगों की निगाहें भी गंदे लहू और पीप की तरह उसके जिस्म से चस्पा हो कर रह जातीं, उसे भाग जाना चाहिए, कहीं उन लंबे उलझे बिजली के तारों वाले खंबों और उनके दरमियान गडमड होने वाले रास्तों से कहीं दूर था, अपना भाई भी याद आया जो अफ़्रीक़ा में था, सन सन सन एक ट्राम उसके क़रीब से अंदर घुसती चली जार रही थी और पूरी ट्राम को अपने जिस्म के अंदर चलता हुआ महसूस कर सकता था, उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे वो कोई इन्सान नहीं है एक घिसा-पिटा रास्ता है। देर तक वो चलता रहा, हाँफ्ता रहा और चलता रहा, अंदाज़े से एक मौहूम सिम्त की तरफ़ चलता रहा, जिधर कभी उसका घर था, हालाँकि उसे मालूम था कि अब उसका कोई घर नहीं है, मगर वो जानते हुए भी उधर ही चलता रहा, घर जाने की आदत से मजबूर हो कर, मगर धूप बहुत तेज़ थी, उसके सारे जिस्म में च्यूंटीयां सी रेंग रही थीं, और वो किसी मुसाफ़िर से रास्ता ही पूछ के, मालूम करले ये शहर का कौनसा हिस्सा है, हौले हौले उसके कानों में ट्रामों और बसों का शोर बढ़ने लगा, निगाहों में दीवारें टेढ़ी होने लगीं, इमारतें गिरने लगीं, बिजली के खम्बे गडमड करने लगे, फिर उसकी आँखों तले अंधेरा और क़दमों तले भूंचाल सा आया और वो यका-य़क ज़मीन पर गिर पड़ा।
जब होश में आया तो रात हो चुकी थी, एक नीम ख़ुनक सा अंधेरा चारों तरफ़ छाया हुआ था, उसने आँखें खोल कर देखा कि जिस जगह पर गिरा था अब तक वहीं पड़ा है, ये फ़ुटपाथ एक ऐसा था जिसके अक़ब में दो तरफ़ा दो दीवारें थी, दूसरी शुमाल से मग़रिब को, और वो दोनों दीवारों के इत्तिसाल पर लेटा हुआ था, ये दोनों दीवारें कोई चार फुट के क़रीब बुलंद थीं, यहां पर अमरूद और जामुन के पेड़ थे और उन पेड़ों के पीछे क्या था वो उसे उस वक़्त तक कहीं नज़र नहीं आया था, दूसरी तरफ़ मग़रिबी दीवार के सामने पच्चीस तीस फुट का फ़ासिला छोड़कर एक पुरानी इमारत का अक़ब था, सह मंज़िला इमारत थी और मंज़िल में पीछे की तरफ़ सिर्फ़ एक खिड़की थी और छः बड़े उक़बी पाइप थे, उक़बी पाइप और मग़रिबी दीवार के बीच में पच्चीस-तीस फुट चौड़ी एक अंधी गली बन गई थी, जिसके तीन तरफ़ दीवार थी और चौथी तरफ़ सड़क थी, कोहनियों पर ज़ोर देकर ज़रा सा ऊपर उठा कर और इधर उधर देखने लगा, सड़क बिल्कुल ख़ाली थी, सामने की दुकानें बंद थीं और फुटपाथ के अंधे सालों में कहीं कहीं बिजली के कमज़ोर बल्ब झिलमिला रहे थी, चंद लम्हों के लिए उसे ये ठंडी तारीकी बहुत भली मालूम हुई, चंद लम्हों के लिए उसने अपनी आँखें बंद करके सोचा, शायद वो किसी मेहरबान समुंदर के पानियों में डूब रहा है। मगर इस एहसास से वो अपने आपको सिर्फ़ चंद लम्हों तक धोका दे सके क्योंकि अब उसने महसूस कर लिया कि उस पर शदीद भूक तारी हो चुकी है, चंद लम्हों की ख़ुशगवार ख़ुनकी के बाद उसने महसूस कर लिया कि वो शदीद तौर पर भूका है, जिससे उसकी आंतों के फे़अल को बेदार करके उसके साथ किसी तरह की भलाई नहीं की, उसके मेंदे के अंदर अजीब एँठन सी हो रही थी और आँतें अंदर ही अंदर तड़प-तड़प कर रोटी का सवाल कर रही थीं और इस वक़्त उसके नथुने किसी शहरी इन्सान के नथनों की तरह नहीं, किसी जंगली जानवर के नथनों की तरह काम कर रहे थे, अजीब-अजीब सी बूएँ उसकी नाक में आरही थीं, बूओं की एक सिम्फनी थी जो उसके एहसास पर फैली हुई थी और हैरत की बात ये थी कि वो इस सिम्फनी के एक एक सिरे का अलग अलग वजूद पहचान सकता था, ये जामुन की ख़ुशबू है, ये अमरूद की, ये रात की रानी के फूलों की, ये तेल में तली हुई पूरियों की, ये प्याज़ और लहसुन में भगारे हुए आलुओं की, ये मूली की, ये टमाटर की, ये किसी सडे-गले फल की, ये पेशाब की, ये पानी में भीगी हुई मिट्टी की जो ग़ालिबन बाँसों के झुण्ड से आरही है। वो हर बू की नौईयत, शिद्दत, सिम्त और फ़ासले तक का अंदाज़ा करसकता है, यकायक उसे ये एहसास भी हुआ और वो इस बात पर चौंका भी कि किस तरह से भूक ने उस मख़फ़ी कुव्वतों को बेदार कर दिया। मगर इस अमर पर ज़्यादा ग़ौर किए बग़ैर उसने इस तरफ़ घिसटना शुरू कर दिया, जिधर से उसे तेल में तली हुई पूरियों और लहसुन से भगारे हुए आलुओं की बू आई थी, वो धीरे धीरे अंधी गली के अंदर घिसटने लगा, क्योंकि वो अपने जिस्म में चलने की सकत बिल्कुल नहीं पाता था, फिर उसे ऐसा महसूस होता जैसे कोई धोबी उसकी आंतों को पकड़ कर मरोड़ रहा है, फिर उसके नथुने में पूरियों और आलू की इशतहा बू आई और वो बेक़रार हो कर अध मुंधी आँखों से अपने तक़रीबन बेजान से जिस्म को उधर घसीटने की कोशिश करता, जिधर से आलू , पूरी की बू आरही थी, कुछ अर्से के बाद जब वो उस जगह पर पहुंचा तो उसने देखा कि मग़रिबी दीवार और उसके सामने की पिछवाड़े के पाइयों के दरमियान पच्चीस तीस फुट के फ़ासले में मुस्ततील नुमा कचरे का एक बहुत बड़ा खुला आहनी टब रखा है। ये टब कोई पंद्रह फुट चौड़ा होगा और तीस फुट लंबा और उसमें तरह तरह का कूड़ा करकट भरा है. गले-सड़े फलों के छिलकों और डबल रोटियों के ग़लीज़ टुकड़े और चाय की पत्तियाँ और एक पुरानी जैकेट और बच्चों के गंदे पोतड़े और अंडे के छिलके और अख़बार के टुकड़े और रिसालों के फटे औराक़ और रोटी के टुकड़े और लोहे की लोईयाँ और प्लास्टिक के टूटे हुए खिलौने और मटर के छिलके और पोदीने के पत्ते और केले की छिलकों पर चंद अध खाई पूरियां...और आलू की भाजी, पूरियों और आलू की भाजी को देख कर गोया उसकी आँतें उबल पड़ीं, उसने चंद लम्हों के लिए अपने बेक़रार हाथ रोक लिए, मगर दूसरी बदबुओं के मुक़ाबले में उसके नथनों में अगले चंद सानियों तक पूरी और भाजी को देख की इश्तिहा आमेज़ ख़ुशबू इसी तरह तेज़तर हो गई जैसे किसी सिम्फनी में यकायक कोई ख़ास सुर एक दम ऊंचे होजाते हैं और यका य़क तहज़ीब की आख़िरी दीवारें ढय् गईं और उसके काँपते हुए बेक़रार हाथों ने केले के उस पत्ते को दबोच लिया और वो इक वहशयाना गुरस्नगी से मुतास्सिर हो कर उन पूरियों पर टूट पड़ा। पूरी भाजी ख़ाके उसने केले के पत्ते को बार-बार चाटा और ऐसे शफ़्फ़ाफ़ कर के छोड़ दिया, जैसे क़ुदरत ने उसे बनाया था, पत्ते चाटने के बाद उसने अपनी उंगलियां चाटी और लंबे लंबे नाख़ुनों में भरी हुई आलू की भाजी ज़बान की नोक से निकाल के खाई और जब इससे भी उसकी तसल्ली न हुई तो उसने हाथ बढ़ा कर कूड़े के ढेर को घंघोलते हुए उसमें से पोदीने के पत्ते निकाल कर खाए और मूली के दो टुकड़े और एक आधा टमाटर अपने मुँह में डाल कर मज़े से उसका रस पिया और वो सब कुछ खा चुका तो उस के सारे जिस्म में नीम गर्म ग़नूदगी की इक लहर उठी और वो वहीं टब के किनारे गिर कर सो गया।
आठ दस रोज़ इसी नीम ग़नूदगी और नीम बेहोशी के आलम में गुज़रे, वो घिसट घिसट कर टब के क़रीब जाता और जो खाने को मिलता खा लेता और जब इशतिहा आमेज़ बुओं की तस्कीन होजाती और वो दूसरी गंदी बूएँ उभरने लगतीं तो वो घिसट घिसट कर टब से फुटपाथ के नुक्कड़ पर चला जाता, और उक़बी दीवार से टेक लगा कर बैठ जाता या सो जाता। पंद्रह-बीस रोज़ के बाद हौले हौले उसके जिस्म में ताक़त उभरने लगी, हौले हौले वो अपने माहौल से मानूस होने लगा, ये जगह कितनी अच्छी है, यहां धूप नहीं थी, यहां दरख़्तों का साया था, अंधी गली सुनसान और वीरान थी यहां कोई नहीं आता था, कभी कभी उक़बी इमारत से कोई खिड़की खुलती थी और कोई हाथ फैला कर नीचे के टब में रोज़मर्रा का कूड़ा फेंक देता था, ये कूड़ा जो उसका रोज़ी रसां था, उसके शब-ओ-रोज़ का राज़िक़ था, उसकी ज़िंदगी का मुहाफ़िज़ था, दिन में सड़क चलती थी, दुकानें खुलती थीं, लोग घूमते थे, बच्चे अबाबीलों की तरह चहकते हुए सड़क से गुज़र जाते थे, औरतें रंगीन पतंगों की तरह डोलती हुई गुज़र जाती थीं, लेकिन ये एक दूसरी दुनिया थी, इस दुनिया में उस का कोई इलाक़ा न था, इस दुनिया में अब उसका कोई न था, और वो उसके लिए मौहूम साये बन गए और उससे बाहर मैदान और खेत और खुला आसमान एक बेमानी तसव्वुर, घर, काम-काज,ज़िंदगी-समाज,जद्द-ओ-जहद बेमानी अलफ़ाज़ जो गल-सड़ कर इस कूड़े कचरे के ढेर में मिलकर ग़तर बूद हो गए, इस दुनिया से उसने मुँह मोड़ लिया था और अब यही उसकी दुनिया थी, पंद्रह फुट लंबी और तीस फूट चौड़ी। माह-ओ-साल गुज़रते गए और इस नुक्कड़ पर बैठा बैठा एक पुराने ठूंठ की तरह और किसी पुरानी यादगार की तरह सबकी नज़रों में मानूस होता चला गया, वो किसी से बात नहीं करता था किसी को फ़ैज़ नहीं पहुँचाता था, किसी से भीक नहीं मांगता था, लेकिन अगर वो किसी दिन वहां से उठकर चला जाता तो इस इलाक़े के हर फ़र्द को इस अमर पर हैरत होती और शायद किसी क़दर तकलीफ़ भी होती। सब लोग उसे कचरा बाबा कहते थे, क्योंकि ये सबको मालूम था कि वो सिर्फ़ कचरे के टब में से अपनी ख़ुराक निकाल कर खाता है और जिस दिन उसे वहां से कुछ न मिलता वो भूका ही सो जाता, बरसों से राहगीर और ईरानी रेस्तोरां वाले उसकी आदत को पहचान गए थे, और अक्सर इमारत की उक़बी खिड़कियों से अब कूड़े के इलावा ख़ूर्दा नोश की दूसरी चीज़ें भी फेंकी जातीं, सही-ओ-सालिम पूरियां और बहुत सी भाजी और गोश्त के टुकड़े और अध चूसे आम और चटनी और कबाब के टुकड़े और खीर मैं लिथड़े हुए पत्तल, नावनोश की हर नेअमत कचरा बाबा को इस टब में से मिल जाती हैं, कभी कभी कोई फटा हुआ पाजामा, कोई उधड़ी हुई नेकर, कोई तार-तार शिकस्ता क़मीज़ प्लास्टिक का गिलास, ये कचरे का टब क्या था, उसके लिए एक खुला बाज़ार था, जहां वो दिन-दहाड़े सबकी आँखों के सामने मटर गश्त किया करता था, जिस दुकान से जो सौदा चाहता मुफ़्त लेता था, वो इस बाज़ार का इस नेअमत ग़ैर मुतरक़्क़बा का वाहिद मालिक था, शुरू शुरू में चंद बिल्लियों और ख़ारिशज़दा कुत्तों ने शदीद मुज़ाहमत की थी, मगर उसने मार मार कर सबको बाहर निकाल दिया, और अब इस कचरे के टब का वाहिद मालिक था और उसके हक़ को सबने तस्लीम कर लिया था, महीने में एक-बार म्यूंसिपल्टी वाले आते हैं, और उस टब को ख़ाली करके चले जाते थे और कचरा बाबा उनसे किसी तरह की मुज़ाहमत नहीं करता था, क्योंकि उसे मालूम था कि दूसरे दिन टब फिर उसी तरह भरना शुरू हो जाएगा और उसको एतिक़ाद था कि इस दुनिया से नेकी ख़त्म हो सकती है लेकिन ग़लाज़त ख़त्म नहीं हो सकती रिफ़ाक़त ख़त्म हो सकती है, लेकिन ग़लाज़त और गंदगी कभी ख़त्म नहीं हो सकती, सारी दुनिया से मुंहतोड़ कर उसने जीने का आख़िरी तरीक़ा सीख लिया था। मगर ये बात नहीं है कि उसे बाहर की दुनिया की ख़बर न थी, जब शहर में चीनी महंगी हो जाती तो महीनों कचरे के टब में मिठाई के टुकड़े की सूरत नज़र नहीं आती, जब गंदुम महंगी हो जाती तो डबल रोटी का एक टुकड़ा तक न मिलता, जब सिगरेट महंगे होते तो सिगरेट के जले हुए टुकड़े इतने छोटे मिलते कि उन्हें सुलगा कर पिया भी नहीं जा सकता।
जब भंगियों ने हड़ताल की थी तो महीने तक उसके टब की किसी ने सफ़ाई नहीं की थी, और किसी रोज़ उसको टब में इतना गोश्त नहीं मिलता था, जितना बक़रईद के रोज़ और दीवाली के दिन तो टब के मुख़्तलिफ़ कोनों से मिठाई के बहुत से टुकड़े मिल जाते थे। बाहर की दुनिया का कोई हादिसा या वाक़िया ऐसा न था जिसका सुराग़ वो कचरे के टब से दरयाफ्त न कर सकता था, दूसरी जंग-ए-अज़ीम से लेकर औरतों के खु़फ़ीया अमराज़ तक, मगर बाहर की दुनिया से अब उसे किसी तरह की कोई दिलचस्पी न रही थी, पच्चीस साल तक वो इस कचरे के टब के किनारे बैठा बैठा अपनी उम्र गुज़ार रहा था, शब-ओ-रोज़, माह-ओ-साल, उसके सर से हवा की लहरों की तरह गुज़रते गए, और उसके सर के बाल सूख-सूख कर रबड की शाख़ों की तरह लटकने लगे, उसकी काली दाढ़ी खिचड़ी हो गई, उसके जिस्म का रंग मलगजा मट मैला और सब्ज़ी माइल होता गया, वो अपने मज़बूत बालों, फटे चीथडों और बदबूदार जिस्म से राह चलते लोगों को ख़ुद भी कचरे का एक ढेर दिखाई देता था जो कभी-कभी हरकत करता था और बोलता था, किसी दूसरे से नहीं सिर्फ़ अपने आपसे ज़्यादा से ज़्यादा कचरे के टब से। कचरा बाबा उन लोगों से कुछ कहता नहीं था, मगर उनकी हैरत को देखकर दिल में ज़रूर सोचता होगा कि इस दुनिया में कौन है जो किसी दूसरे से गुफ़्तगु करता है, इस दुनिया में जितनी गुफ़्तगु होती है इन्सानों के दरमियान नहीं होती बल्कि सिर्फ़ अपनी ज़ाती और उसकी किसी ग़रज़ के दरमियान होती है, दूसरों के दरमियान जो भी गुफ़्तगु होती है वो दरअसल एक तरह की ख़ुद-कलामी होती है, ये दुनिया एक बहुत बड़ा कचरे का ढेर है जिसमें से हर शख़्स अपनी ग़रज़ का कोई टुकड़ा, फ़ायदे का कोई टुकड़ा, फ़ायदे का कोई छिलका या मुनाफ़ा का कोई चीथड़ा दबोचने के लिए हर वक़्त तैयार रहता है और कहता होगा ये लोग जो मुझे हक़ीर, फ़क़ीर या ज़लील समझते हैं, ज़रा अपनी रूह के पिछवाड़े में तो झांक कर देखें, वहां इतनी ग़लाज़त भरी है कि जिसे सिर्फ़ मौत का फ़रिश्ता ही उठा कर ले जाएगा।
इसी तरह दिन पर दिन गुज़रते गए, मुल्क आज़ाद हुए, मुल्क ग़ुलाम हुए हुकूमतें आईं, हुकूमतें चली गईं, मगर ये कचरे का टब वहीं रहा और उसके किनारे बैठने वाला कचरा बाबा उसी तरह नीम ग़नूदगी में बेहोशी के आलम में दुनिया से मुँह मोड़े हुए ज़ेर-ए-लब कुछ बुदबुदाता रहा, कचरे के टब को घंघोलता रहा। तब एक रात अंधी गली में जब वो टब से चंद फुट के फ़ासले पर दीवार से पीठ लगाए अपने फटे चीथडों में दुबका सो रहा था, उसने रात के सन्नाटे में एक ख़ौफ़नाक चीख़ सुनी और वो हड़बड़ा कर नींद से जागा, फिर उसने एक ज़ोर की तेज़ चीख़ सुनी और घबराकर कचरे के टब की तरफ़ भागा, जिधर से ये चीख़ें सुनाई दे रही थीं। कचरे के टब के पास जाकर उसने टटोला, तो उसका हाथ किसी नर्म नर्म लोथड़े से जा टकराया और फिर एक ज़ोर की चीख़ बुलंद हुई, कचरा बाबा ने देखा कि टब के अंदर डबलरोटी के टुकड़ों, चचोड़ी हुई हड्डीयों, पुराने जूतों, कांच के टुकड़ों, आम के छिलकों, बासी दीनियों और ठर्रे की टूटी हुई बोतलों के दरमियान एक नौज़ाईदा बच्चा नंगा पड़ा है और अपने हाथ-पावं हिला-हिला कर ज़ोर ज़ोर से चीख़ रहा है। चंद लम्हों तक कचरा बाबा हैरत में डूबा हुआ जामिद-ओ-साकित उस नन्हे इन्सान को देखता रहा जो अपने छोटे से सीने की पूरी क़ुव्वत से अपनी आमद का ऐलान कर रहा था, चंद लम्हों तक वो चुपचाप, परेशान, फटी-फटी आँखों से इस मंज़र को देखता रहा फिर उसने तेज़ी से आगे झुक कर कचरे के टब से उस बच्चे को उठा कर अपने सीने से लगा लिया। मगर बच्चा उसकी गोद में जाकर भी किसी तरह चुप न रहा, वो इस ज़िंदगी में नया नया आया था और बिलक-बिलक कर अपनी भूक का ऐलान कर रहा था, अभी उसे मालूम न था कि ग़रीबी क्या होती है, मामता किस तरह बुज़दिल होजाती है, ज़िंदगी कैसे हराम बन जाती है, वो किस तरह मलबे पैकेट और ग़लीज़ बना कर कचरे के टब में डाल दी जाती है, अभी उसे ये सब कुछ मालूम न था, अभी वो सिर्फ़ भूका था और रो-रो कर अपने पेट पर हाथ मार रहा था।
कचरा बाबा की समझ में कुछ न आया कि वो कैसे इस बच्चे को चुप कराए, उसके पास कुछ न था, न दूध न चुसनी, उसे तो कोई लोरी भी याद नहीं थी, वो बेक़रार हो कर बच्चे को गोद में लेकर देखने लगा और थपथपाने लगा और गहरी नींद से रात के अंधेरे में चारों तरफ़ देखने लगा कि इस वक़्त बच्चे के लिए दूध कहाँ से मिल सकता है, लेकिन जब उसकी समझ में कुछ नहीं आया तो उसने जल्दी से कचरे के टब से आम की एक गुठली निकाली और इस का दूसरा सिरा बच्चे के मुँह में दे दिया। अध खाए हुए आम का मीठा मीठा रस जब बच्चे के मुँह में जाने लगा तो वो रोता रोता चुप हो गया और चुप होते होते कचरा बाबा की बाँहों में सो गया, आम की गुठली खिसक कर ज़मीन पर जा गिरी और अब बच्चा उसकी बाँहों में बेख़बर सो रहा था, आम का पीला पीला रस अभी तक उसके नाज़ुक लबों पर था और उसके नन्हे से हाथ ने कचरा बाबा का अँगूठा बड़े ज़ोर से पकड़ रखा था। एक लम्हे के लिए कचरा बाबा के दिल में ख़्याल आया कि वो बच्चे को यहीं फेंक कर कहीं भाग जाये, धीरे से कचरा बाबा ने उस बच्चे के हाथ से अपने अंगूठे को छुड़ाने की कोशिश की, मगर बच्चे की गिरिफ्त बड़ी मज़बूत थी और कचरा बाबा को ऐसे महसूस हुआ जैसे ज़िंदगी ने उसे फिर से पकड़ लिया है, और धीरे धीरे झटकों से उसे अपने पास बुला रही है, यकायक उसे दुलारी की याद आजाती है, और वो बच्चा जो उसकी कोख में कहीं ज़ाए हो गया था और यका-य़क कचरा बाबा फूट फूटकर रोने लगा, आज समुंदर के पानियों में इतने क़तरे न थे जितने आँसू उसकी आँखों में थे, गुज़श्ता पच्चीस बरसों में जितनी मैल और ग़लाज़त उसकी रूह पर जम चुकी है वो इस तूफ़ान के एक ही रेले में साफ़ हो गई। रात-भर कचरा बाबा उस नौज़ाईदा बच्चे को अपनी गोद में लिए बेचैन और बेक़रार हो कर फुटपाथ पर टहलता रहा और जब सुबह हुई और सूरज निकला तो लोगों ने देखा कि कचरा बाबा आज कचरे के टब के पास नहीं है, बल्कि सड़क पार नई तामीर होने वाली ईमारत के नीचे खड़ा हो कर ईंटें ढो रहा है और उस इमारत के क़रीब गुल मोहर के एक पेड़ की छावं में एक फूलदार कपड़े में लिपटा इक नन्हा बच्चा मुँह में दूध की चुसनी लिए मुस्कुरा रहा है।