कचहरी के वरांडे में (कहानी) : गुरुदत्त
Kachehri Ke Varande Mein (Hindi Story) : Gurudutt
किसी फौजदारी के मुकदमे में गवाही देने के लिए मैं कचहरी गया हुआ था और जैसा कि साधारणतया होता है ,
मुझे अपनी बारी की प्रतीक्षा करनी पड़ी ।
मुझे ग्यारह बजे पहुँचने की आज्ञा हुई थी और जब मैं निश्चित समय पर वहाँ पहुँचा, तो मैंने देखा कि मजिस्ट्रेट
महाशय अभी पधारे ही नहीं थे । इससे तो मैं थोड़ा ही खीजा, किंतु जब मैंने अभियोग - सूची में अपनेवाले अभियोग
को सबसे अंत में पाया, तो मैं उद्विग्न हो उठा । मैं इसका कारण जानने में भी असमर्थ था कि मुझे ऐसे समय
उपस्थित होने के लिए क्यों कहा गया है, जिस समय कि मजिस्ट्रेट स्वयं ही उपस्थित नहीं हो सकता । मैं न तो
अभियुक्त था और न ही उसका गवाह । मैं तो पुलिस का गवाह था । इसलिए मुझे इस पर विस्मय हो रहा था कि
अधिकारियों की अनिपुणता का दंड मुझे दिया जा रहा है । कम - से - कम कोर्ट क्लर्क को चाहिए था कि वह
अभियोगों को दो भागों में विभक्त कर एक भाग से संबंधित व्यक्तियों को अपराह्न भोजन के पूर्व और दूसरे भाग के
व्यक्तियों को उसके उपरांत बुलाता ।
मजिस्ट्रेट महाशय 12. 30 पर पधारे, 1 बजे उन्होंने काम आरंभ किया और 1.30 पर वे मध्याह्न भोजन के लिए
चल दिए । जो कोर्ट इंस्पेक्टर हमारे अभियोग का कार्य कर रहा था , उसने बताया कि हमारी बारी लगभग 4 बजे
तक आएगी । मैं तो क्रोध से काँप रहा था । मैं पहली बार कचहरी आया था और यह समझने में सर्वथा असमर्थ था
कि इस प्रकार समय की निर्मम हत्या क्यों ? इंस्पेक्टर मेरी भावना समझ गया, इससे पूछने लगा, " पहली बार ही
कचहरी आए हैं ? "
" जी , किंतु क्या यहाँ सदा ऐसा ही होता है ? "
" जी , अधिकतर ऐसा ही होता है । बात यह है कि आदमी होते हैं और उन्हें अनेक कार्य भी करने पड़ते हैं । "
मैंने केवल इतना ही कहा , " मुझे एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य करना था । "
उस समय एक वृद्ध सज्जन वहाँ से जा रहे थे। उन्हें देखकर कोर्ट इंस्पेक्टर की आँखें चमकीं और वह मुझसे
पूछने लगा, “ मिस्टर नाथ, क्या आप इस व्यक्ति को जानते हैं ? फिर वह स्वयं ही कहने लगा, " आप किस
प्रकार जान सकते हैं ? आप तो पहली बार ही कचहरी आए हैं । मैं आपका इनसे परिचय कराऊँगा और मुझे
विश्वास है कि आप इन्हें बहत पसंद करेंगे । "
तब तक उसने उस व्यक्ति को पुकारा , ‘ लालाजी!
वह व्यक्ति घूमा और देखकर हमारे समीप आ गया । कोर्ट इंस्पेक्टर ने मेरा परिचय कराते हुए कहा , " लालाजी,
यह हैं चिरंजीलालजी के पुत्र अमरनाथजी । यह आपसे परिचय उत्पन्न करने के लिए उत्सुक हैं । " फिर मेरी ओर
घूमकर कहने लगा, “ आप देखेंगे कि लालाजी बहुत ही दिलचस्प और उपयोगी व्यक्ति हैं । "
यह कहकर मुझे लालाजी के सुपुर्द कर कोर्ट इंस्पेक्टर चला गया । लालाजी ने एक क्षण मुझे सिर से पैर तक
देखकर कहा , " मेरा खयाल है कि मैं तुम्हें जानता हूँ । आपके पिताजी मेरे परम मित्र थे। तुम्हारे चाचा के साथवाले
केस में मैंने उनकी सहायता की थी । उस समय तुम तो बहुत छोटे ही थे। "
मैंने उस बड़े अभियोग के विषय में सुन रखा था , जिसे संपत्ति का तिगुना धन व्यय करने पर मेरे पिताजी ने जीता
था । मुझे पिताजी ने रामरक्खामल के विषय में भी बताया था, जिसने अभियोग जीतने के लिए उनके पक्ष में झूठी
गवाहियों का प्रबंध कर दिया था । इसलिए मैंने उनसे पूछा, " क्या आप श्री रामरक्खामल हैं ? "
" हाँ , " उसने मेरी पहचान पर संतोष व्यक्त करते हुए उत्तर दिया, “ ऐसा प्रतीत होता है, तुम्हारे पिता ने मेरे विषय
में तुम्हें बता रखा है । "
“ जी हाँ , वे आपकी सहायता के लिए तो आभारी थे, परंतु मैं समझता हूँ कि उस अभियोग ने उन्हें समाप्त कर
दिया । अपनी आयु के सर्वोत्तम दस वर्ष उन्होंने कचहरियों में नष्ट कर दिए और जीतने पर जो लाभ उन्हें हुआ ,
उसका तिगुना धन वे उस केस पर व्यय कर चुके थे। "
" यह सत्य है, किंतु सभी अभियोगों में लगभग ऐसा ही होता है । यहाँ कचहरियों में साधारण सी चीज के लिए
आपको बहुत अधिक व्यय करना पड़ता है । न्याय यहाँ उस मूल्य पर बिकता है, जो प्रायः अन्याय सिद्ध हो जाता
है । "
" लेकिन इसके लिए उत्तरदायी कौन है ? क्या अभियोक्ताओं को इसके लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता ? वे
क्यों मुकदमेबाजी में रुचि लेते हैं ? "
" सर्वदा ऐसा नहीं होता । अपने विगत बीस वर्षों के अनुभव से मेरी यह धारणा दृढ़ हो गई है कि इस सभी विपत्ति
की जड़ वकील लोग हैं । इन लोगों ने सारी स्थिति ऐसी उलझा दी है कि कोई साधारण व्यक्ति बिना वकील की
सहायता के कचहरी में अपना अभियोग प्रस्तुत ही नहीं कर सकता । कचहरी अब देश के सर्वसाधारण व्यक्ति के
लिए सार्वजनिक संस्थान नहीं रही । साधारण व्यक्ति और न्याय के मध्य वकील एक ऐसी दीवार की भाँति खड़ा हो
गया है, जिसे लाँघने में बहुत साधन और समय का अपव्यय करना पड़ता है । "
" लालाजी , तो क्या आप वकील - वर्ग को सर्वथा समाप्त करना चाहते हैं ? "
"बिलकुल , वकील तो बहुत ही भयानक जीव है । अपने मुवक्किल की जीत के लिए उसको सब प्रकार के
प्रयत्न करने पड़ते हैं । यह तभी संभव है कि जब विपक्षी के केस में से झूठे अथवा सच्चे दोष ढूँढ़े जाएँ और अपने
मुवक्किल के दोष छिपाए जाएँ । "
" उचित तो यही है कि मजिस्ट्रेट और जज को कानून का पूरा ज्ञान चाहिए, जिससे कि उनके निर्णय पूर्णतया
कानून पर आधारित हों । व्यक्ति को कठिनाई हो , वह कचहरी में जाकर सरल एवं स्पष्ट में अपनी बात रखे और
मजिस्ट्रेट के अथवा जज के सम्मुख ही उसके वक्तव्य को कोई क्लर्क अंकित कर ले । तब न्यायकर्ता उस व्यक्ति
को बुलाए, जिसके विरुद्ध शिकायत की गई हो और उसका वक्तव्य भी सुने । तदनंतर विषय से संबंधित साक्षियों
को बुलाकर फिर अपना निर्णय दे । इसमें वकील के लिए कोई स्थान नहीं है । मजिस्ट्रेट अथवा जज स्वयं अभियोग
का निर्णय कर सकता है । "
" लेकिन लालाजी, " मैंने कहा, " केवल एक व्यक्ति का ही निर्णायक होना तो अधिक संदेहास्पद हो सकता है ।
वकील के होने से कम- से - कम दो व्यक्ति और ऐसे हो जाते हैं , जो कानूनी दृष्टिकोण से विचार करने में न्यायकर्ता
की सहायता कर सकते हैं । "
एक अभियोग में एकाधिक न्यायकर्ताओं द्वारा विचार करने के विषय में तो मैं कुछ नहीं कह रहा । मेरा कहना
तो यह है कि किसी पक्ष विशेष द्वारा किराए पर किया गया वकील न्यायकर्ता के निर्णय में कदापि सहायक नहीं हो
सकता । विपरीत इसके अधिकांशतया वकील न्याय के मार्ग में बाधक ही होता है । "
" मैं आपको अपने उस केस के बारे में बताता हूँ , जिसमें मेरा आधा जीवन और पूरी शक्ति नष्ट हो गई है । "
बातें करते- करते हम एक हलवाई की दुकान के समीप पहुँच गए थे। मैंने लालाजी को कुछ पीने के लिए कहा,
तो उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया और फिर अपनी बात बताने लगे , " मेरी आयु उस समय बीस वर्ष की थी, जब
मैं एक दीवानी मुकदमे में फँस गया । मेरा बड़ा भाई , जिसे पिताजी ने दस वर्ष पूर्व अलग कर दिया था और जो
बंगाल के किसी नगर में व्यापार करता था , पिताजी की मृत्यु पर आया । मैं शोक में था और वह दस वर्ष बाद आया
था । स्वाभाविकतया मैंने उसे अपने साथ रहने दिया । मैंने सोचा, कुछ दिनों में ही वह चला जाएगा , किंतु पिताजी की
मृत्यु से संबंधित सारे रीति- रिवाज पूर्ण हो जाने पर भी मेरे भाई ने जाने का नाम नहीं लिया । एक दिन रात के समय
उसने मकान के सभी कमरों और दुकान को ताला लगा दिया । जिस कमरे में मैं सो रहा था , प्रात : काल केवल वही
मेरे प्रयोग के लिए छूटा हुआ था । दूसरे दिन उसने संपत्ति के विभाजन के लिए न्यायालय में अरजी दे दी ।
" मैंने प्रयत्न किया कि उससे स्वयं बातचीत कर अथवा किसी मध्यस्थ द्वारा मामले को सुलझाया जाए , किंतु
उसके वकील ने उसको समझा दिया था कि मध्यस्थ व्यक्ति तो तथ्य से परिचित होने के कारण उसके पक्ष में
निर्णय नहीं दे सकता, जबकि कचहरी में होने के कारण उसके पक्ष भी सभी कुछ गवाहियों की बात और वकील के
जज को समझाने के ढंग एवं निपुणता पर निर्भर करता है ।
" न्यायाधीश को यह प्रारंभिक बात समझने में दो वर्ष लग गए कि अभियोक्ता कौन है और उसकी स्थिति क्या
है । मेरा भाई , उसकी पत्नी और पुत्र अभियोक्ता थे, जिनका प्रतिनिधित्व पृथक्- पृथक् वकीलों द्वारा होता था ।
अल्पवयस्क होने के कारण मेरे भतीजे का प्रतिनिधित्व एक संरक्षक भी करता था, जो कि मेरा भाई नहीं था ।
“ अभियोग की प्रारंभिक स्थिति में तो मैं स्वयं ही उसकी देखभाल करता रहा । एक अवसर पर जबकि किसी-न
किसी बहाने अभियोग की तिथि बार - बार टलती रही , तो मैंने क्रोध में यह लिखकर देदिया , एक वर्ष से अधिक हो
गया है, किंतु कोर्ट अभी तक यह नहीं समझ सका कि कौन - कौन अभियोक्ता हैं और कौन - कौन उनका प्रतिनिधित्व
करते हैं । यदि इस प्रकार कार्य होता रहा , तब तो मैं समझता हूँ कि मेरी मृत्यु के बाद ही संभवतया निर्णय हो सके ।
" न्यायालय ने मेरे वक्तव्य पर आपत्ति उठाई और मुझे धमकी दी गई कि मेरे विरुद्ध न्यायालय में मानहानि का
अभियोग दायर किया जाएगा । यद्यपि मेरे वक्तव्य में ऐसी कोई बात नहीं थी, किंतु मेरे भाई के वकील ने आपत्ति
उठाई और मुझे अपने उस तथाकथित दोष के लिए क्षमा याचना करनी पड़ी । तब मुझे भी वकील रखना ही पड़ा ।
“ अभियोग टलता रहा और अंत में हाईकोर्ट के यह निर्णय करने तक कि पिताजी की मृत्यु के समय मेरे बड़े भाई
का उसकी संपत्ति में किंचित् भी अधिकार नहीं था , सात वर्ष लग गए , किंतु यहीं इसका अंत नहीं हो गया । जिस
संपत्ति पर मेरे भाई ने अपना अधिकार कर लिया था , उसे छुड़ाने में एक वर्ष और नष्ट हुआ ।
" इस सबका परिणाम यह हुआ कि मेरा भाई भिखारी बन गया और मेरा मकान खाली करने के कुछ ही समय
बाद उसका देहांत हो गया । उसके लड़के की शिक्षा इस कारण ठीक प्रकार से नहीं हो सकी , क्योंकि उसकी संपत्ति
के और भी लेनदार थे। इस समय वह बेचारा एक साधारण सी दुकान पर तीस रुपए की नौकरी कर रहा है, मेरे
भाई की पत्नी अपने पड़ोसियों के घरों में काम करके अपना गुजारा कर रही है ।
" मैंने भी मुकदमा लड़ने के लिए इतना कर्ज लिया कि उसको चुकाने के लिए मुझे वह सब संपत्ति बेचनी पड़ी ।
" इससे भी अधिक बुरा यह हुआ कि मुझे कचहरी में आकर वकीलों की बहस सुनने का चस्का लग गया है
और मैं किसी भी व्यक्ति के केस में रुचि लेने लगता हूँ । ईमानदारी के प्रति मेरा विश्वास मिट गया है । कभी - कभी
मुझे झूठी गवाही देने पर कुछ रुपए मिल जाया करते हैं । " अब तक हम ठंडाई पी चुके थे। वह अपने रास्ते चला
गया और मैं वापस कचहरी के वरांडे में आकर उसकी बात पर विचार करता हुआ अपने केस की बारी की प्रतीक्षा
करने लगा ।