कच्चा घड़ा (बाल एकांकी) : शकुंतला अग्रवाल शकुन

Kachcha Ghada (Baal Ekanki) : Shakuntala Agrwal Shakun

पात्र परिचय

अमर- तन्मय के पिता,आयु लगभग 50 वर्ष।

शिक्षक-- गणित के ज्ञाता, उम्र लगभग 30 वर्ष।

तन्मय- कक्षा छ: का छात्र, आयु लगभग 11 वर्ष।

सुनार-- जेवर बनाने वाला,35 वर्षिय व्यक्ति

कुम्हार-- घड़े बनाने में माहिर, 40 वर्षिय व्यक्ति।

मूर्तिकार- पत्थर को आकार देने में माहिर, 50 वर्षिय व्यक्ति।

पर्दा उठता है

*परिदृश्य*

संध्या का समय,
डाइनिंग हॉल में सौफ़े पर तन्मय बैठा है, किन्ही विचारों में खोया हुआ। उसकी मम्मी मोबाईल पर नजरें गढ़ाए हुए है। कौन क्या कर रहा है? इससे उसको कोई सरोकार नहीं ।

ऑफिस से अमर जब घर आता है तो , अपने बेटे (तन्मय) को उदास देखकर पूछता है।

बेटा! उदास क्यों हो?

तन्मय: कुछ नी,पापा!

अमर: कुछ तो है, अपने पापा को नहीं बताओगे

तन्मय: मैं कल स्कूल नहीं जाऊँगा, पापा!

अमर: यह तो गलत बात है, बेटा! स्कूल क्यों नहीं जाओगे?

तन्मय: वह गणित वाले सर है ना, उन्होंने आज मुझे थप्पड़ मारा। अब मैं स्कूल नहीं जाऊँगा, आप मेरा दाखिला दूसरी स्कूल में करवा दीजिए।

अमर: तन्मय बेटा! आपने कोई गलती की होगी तभी सर ने आपको थप्पड़ मारा। कोई बेवजह तो मारेंगे नहीं।

तन्मय: पापा! मैंने तो बड़ों को कहते सुना है कि गलती सभी से होती है। सर से भी होती होगी , उनको तो प्रिन्सिपल सर मारते नहीं है। फिर वो बच्चों को क्यों मारते हैं? उनको मालूम नहीं है क्या कि बच्चों को मारना कानूनी अपराध है? आप मेरा दाखिला दूसरी स्कूल में करवा दे। या सर के खिलाफ थाने में शिकायत दर्ज करवा दीजिए।

अमर: सर से गलती होती है, तब उनको भी डाँट पड़ती है, बेटा!
आपको भी सर ने समझाया होगा, आप नहीं समझे होंगे तभी आपको मार पड़ी है।

तन्मय: मैं किसी की मार नहीं खाऊँगा।

(अमर सोचने लगा , इस तरह तो तन्मय के कदम गलत दिशा में पड़ जाएँगे। इसको समझाना अति आवश्यक है।

कुछ विचार कर अमर तन्मय से कहता है-----।)

तुम मेरी एक बात मानोगे?

तन्मय: जी पापा! अवश्य मानूँगा।

अमर: ठीक है बेटा! आज हम दोनों घूमने चलते हैं। आपकी समस्या पर हम वापस आकर विचार करेंगे।

तन्मय: ओके, पापा!

*दूसरा दृश्य*

(अमर अपने बेटे को कुम्हार के यहाँ लेकर आ जाता है जहाँ कुम्हार चाक चला रहा होता है। उस पर काली मिट्टी के लोंदे को अपने हाथों से घड़े का आकार दे रहा है । जब घड़ा बन जाता है तो कुम्हार घड़े को उतार कर एक हाथ अंदर रखता है और दूसरे हाथ से घड़े को बाहर से पीटता है। उसके बाद एक सुंदर व मजबूत घड़ा बनकर तैयार हो जाता है यह सब देख कर तन्मय उत्सुकता से पापा से पूछता है।)

तन्मय: पापा! यह कुम्हार मिट्टी से कितना सुंदर घड़ा बना देता है। लेकिन एक बात समझ नहीं आई कि यह घड़े को क्यों पीट रहा है?

अमर: बेटा! कुम्हार घड़े को मजबूत और दोष-रहित बनाने के लिए उसको ऊपर से पीटता है, लेकिन अंदर अपना हाथ रखे रहता है। जिससे उसमें कोई छिद्र नहीं रहे और एक परफेक्ट घड़ा बनकर तैयार हो।

तन्मय: और वो आग कैसी है? शायद कुछ जल रहा है।

अमर: हाँ, आवां जल रहा है, उसमें घड़े पक रहे हैं। इसके बाद ही घड़े ठण्ड़ा पानी देने लायक बनेंगे।

तन्मय: ओह! इतना सब करना पड़ता है।

अमर: हाँ, बेटा! कुछ हासिल करने हेतु संघर्ष तो करना ही पड़ता है।
आओ चलें।

*तीसरा दृश्य*

(अमर, तन्मय को लेकर एक सुनार की दुकान पर आ जाता है। जहाँ सुनार सोने को तपा रहा है।)

तन्मय: पापा! यहाँ क्यों आए हैं? मम्मी के लिए कुछ खरीदना है क्या?

अमर: नहीं , बेटा! आपको यह दिखाने के लिए कि जेवर कैसे बनाए जाते हैं?

तन्मय: (तनिक झल्लाते हुए) पापा! आप भी ना, मुझे जेवर बनाना थोड़े ही सीखना है, मुझे तो इन्जीनियर बनना है । चलिए, घर चलते हैं।

अमर: बेटा! आपको क्या बनना है, यह अभी सोचने का उचित समय नहीं है।
आपने वादा किया था कि आप मेरी बात मानोगे। अपनी बात पर कायम रहिए और चुपचाप देखिए, सुनार क्या और कैसे कर रहा है? मैं आपसे प्रश्न पुछूँगा, तब जवाब देना है।

तन्मय: जी, पापा!

अमर दुकान से बाहर आकर-----

तन्मय! बताओ तो आपने क्या देखा?

तन्मय: सुनार सोने को तपा रहा था। सोना आग में तपकर ही प्रखर हुआ है, पापा!

अमर: तन्मय! दुकान में जितने भी जेवर रखें है, वह सब सोने के तपने के बाद ही बने हैं।

तन्मय: अच्छा तो! सोना जब तक तपेगा नहीं, जेवर बनेंगे नहीं।

अमर: हाँ, बेटा! कुछ बनने के लिए तपना पड़ता है।
आओ अब चलते हैं।

(अमर, तन्मय को लेकर एक मूर्तिकार के यहाँ पहुँच जाता है, जहाँ मूर्तिकार छैनी से पत्थर को कुछ आकार देने की कोशिश कर रहा होता है।)

*चौथा दृश्य*

(तन्मय उत्सुकता से पूछता है।)

पापा! यह आदमी पत्थर क्यों तोड़ रहा है, इससे इसको क्या मिलेगा?

अमर: यह पत्थर तोड़ नहीं रहा बल्कि छैनी व हथोड़े से पत्थर को तराश कर , मुर्ति का निर्माण कर रहा है। जिसको बेचकर यह अपनी आजीविका चलाता है।

तन्मय आश्चर्य से: ओ,हो!समझा।

(तन्मय मूर्तिकार की ओर मुखातिब होकर कहता है -----)

आप मुझे एक मुर्ति दिखा सकते हो क्या?

मूर्तिकार: आइए अंदर चलते हैं।

(अमर, तन्मय मूर्तिकार के साथ अंदर आ जाते हैं जहाँ मनमोहक मूर्तियाँ रखी हुई हैं।)

तन्मय: वाह! इतनी सुंदर- सुंदर मूर्तियाँ, भगवान जी की भी है, पापा! लड़ड़ू गोपाल की भी है। लेकिन यह एक मुर्ति टूटी हुई क्यों है?

अमर: बेटा! क्योंकि यह पत्थर चोट सह नहीं पाया और टूट गया। जो चोट सह गया वह मुर्ति बन गया।

तन्मय: इस मुर्ति को मंदिर में स्थापित कर दिया जाएगा। इसका मतलब हम पत्थर की पूजा करते हैं।

मूर्तिकार: (समझाता है) बेटा! मुर्ति को स्थापित कर के , उसमें प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है। तब यह पूजा योग्य बनती है।

तन्मय: पापा! प्राण-प्रतिष्ठा क्या होती है, कैसे करते हैं?

अमर: यह फिर कभी बतलाऊँगा। आओ, अब हम घर चलते हैं। काफी देर हो गई घूमते हुए, आप भी थक गए होंगे।

तन्मय: पापा! मेरे एक संशय को दूर कर दीजिए, हम बाद में चलेंगे घर को।

अमर: ठीक है, यहीं बैठते हैं। वो सामने गन्ने के जूस वाला है, उसको 3 गिलास जूस का बोल आता हूँ। फिर हम इत्मीनान से बात करेंगे।

तन्मय: रुकिए पापा! मैं बोल आता हूँ।

(तन्मय जूस की बोलकर आ जाता है।)

अमर: कहिए बेटा! क्या संशय है?

तन्मय: पापा! मुझको न मूर्तिकार बनना है, न ही सुनार की तरह जेवर बनाने हैं । और न ही घड़ा बनाना है। फिर आपने मुझे यह सब दिखाया इसके पीछे कोई तो उद्देश्य है। मुझको वही जानना है।

(तभी जूस वाला, जूस लेकर आ जाता है। सब जूस पीने लगते हैं।तत्पश्चात-----)

अमर: चोटें सहकर ही, एक पत्थर भगवान बन जाता है ,बेटा!
एक कच्चा घड़ा चोट सहकर परफेक्ट घड़ा बन जाता है। सोना तपकर प्रखर हो जाता है ।
यह सम्भव इसलिए हो पाया, इन सब में अपार सहनशक्ति थी।
बेटा! ऐसे ही आप, अभी कच्चा घड़ा हो, जिसको गुरुजन अपने स्नेह व डाँट के द्वारा एक परफेक्ट घड़ा बनाने का प्रयास कर रहे हैं।
और सोने की तरह प्रखर होना है।
और पत्थर की जैसे, समय की चोटें सहकर , दुनिया पर राज करने योग्य बनना है।

तन्मय: जी,पापा! मैं समझ गया , आपने मुझे इसीलिए यह सब दिखलाया कि मुझे सीख मिल सके। बड़े व गुरुजन हमको गलती पर ही मारते हैं क्योंकि वह हमको योग्य व्यक्ति बनाना चाहते है।
मुझे अपने सर से कोई शिकायत नहीं , मैंने गृहकार्य नहीं किया था कई दिनों से, इसी वजह से सर ने, मुझे थप्पड़ मारा था।
मैं आज अपना गृहकार्य पूर्ण कर लूँगा, कल स्कूल जाऊँगा।

अमर: शाबाश बेटा! आओ अब घर चलें।

(पर्दा गिरता है)

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