कानु और मानु : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा

Kaanu Aur Maanu : Lok-Katha (Oriya/Odisha)

समरपुर के राजा समरेंद्र प्रताप सिंह बूढ़े हो चले थे। राजकुमार का नाम अमरेंद्र प्रताप सिंह था, जिन्हें प्रजा अमर नाम से ही जानती थी। उम्र के चौथे पड़ाव पर पहुँचकर राजा ने युवराज के हाथों राज्य का भार सौंपकर वानप्रस्थ ले लिया। मंत्री के साथ परामर्श करते हुए कुछ बरस राज्य का शासन सुचारु रूप से चला। प्रजा सुख से जीवन-यापन कर रही थी। पर सब दिन समान नहीं होते। समय का पहिया लुढ़कता रहा आड़ा-तिरछा, खाल-खमार, ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर। धीरे-धीरे राजा शासन कार्य के प्रति विमुख होने लगे। बेहद ख़ूबसूरत युवा रानी पद्मावती के प्रेम रस में डूबकर राजकार्य में उनका मन नहीं लगा। सोमरस का पान कर, नृत्य-गीत में डूबे रहकर राजा महत मानव जीवन को नष्ट करने लगे। राज्य में सुंदरी युवा कन्याओं का जीना मुहाल हो गया। प्रजा के पास कोई अच्छी चीज़ देखने पर राजा की लालची नज़र उस पर पड़ जाती। धीरे-धीरे राज्य में अत्याचार बढ़ने लगा।

मंत्री चिंतित हो उठे। राज्य का कैसे बचाव करें? इसी चिंता में मंत्री हमेशा डूबे रहते। अच्छी सलाह देते तो राजा मानते नहीं, उल्टे मंत्री को धमकाते। राज्य में अव्यवस्था रहने लगी।

उसी राज्य में एक ग़रीब परिवार रहता था। उस परिवार में तीन सदस्य थे। सत्तर साल की बूढ़ी, बेटा कानु और बैल मानु। बैल होने पर भी वह परिवार के एक सदस्य की तरह था। था तो वह बैल, पर बूढ़ी के अच्छे-बुरे, हानि-लाभ, सुख-दुःख, बीमारी-हारी सबमें वह समभागी था। बैल मानु की माँ की मौत के बाद से बूढ़ी ने उसे अपने बेटे की तरह पाल-पोसकर बड़ा किया था। कानु उससे बहुत छोटा था। बचपन से ही बूढ़ी ने कानु को सिखाया था कि वह मानु को दादा कहकर पुकारे। इसलिए मानु और कानु दो भाई जैसे थे। मानु के साथ कानु कितना खेला है, कहाँ-कहाँ घूमा है, इसका कोई हिसाब नहीं है। जहाँ भी जाते दोनों दादा-भाई साथ ही जाते। मानु साथ होता तो कानु पर कोई मुसीबत नहीं आ सकती, यह जानकर बूढ़ी निश्चिंत रहती। ऐसे ही समय बीतता रहा। एक दिन बूढ़ी बीमार पड़ गई। मानु-कानु दौड़-धूप करके वैद्य को बुला लाए। मानु पास-पास रहता। कानु माँ के पैर दबा देता, दवा देता।

पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ। बूढ़ी का आख़िरी वक़्त आ गया। मानु बूढ़ी की खाट के पास सोता। बूढ़ी की तकलीफ़ देखकर मानु व्याकुल होकर रोता। मानु उसे धीरज बँधाता। बूढ़ी का अंतिम समय आ गया तो उसने कानु का हाथ मानु के सिर पर रखकर, 'आज से कानु का दायित्व तेरे ऊपर', कहकर सदा के लिए आँखें बंद कर ली। मानु की आँखों से आँसू गिरने लगे। कानु भी रोने लगा। मानु फिर उसे समझाने लगा।

कानु ने बैलगाड़ी में लकड़ी भरी। मानु अकेला गाड़ी को खींचकर ले गया। आस-पड़ोस के लोगों ने बूढ़ी को कंधा दिया। शव श्मशान ले जाया गया। वहाँ चिता सजाई गई। बूढ़ी का मृत शरीर जलकर राख हो गया। मानु-कानु तालाब में नहाए। घर लौटकर कानु बहुत रोया। मानु ने उसे सांत्वना दी। समय किसी का इंतज़ार नहीं करता। दुःख हो चाहे सुख, वह अपने रास्ते चलता रहता है। देखते-देखते दिन, महीने, बरस करते वक़्त गुज़रता गया। मानु-कानु का समय सुख-दुःख में बीतता रहा। दोनों जंगल जाते। मानु घास-पत्ता खाते हुए जंगल में चरता रहता। कानु खेलता-कूदता, घूमता, फूल तोड़ता, मीठे-रसीले फल खाता, मानु को देता। लकड़ी का गट्ठर बाँधकर मानु की पीठ पर लाद कर घर लौटता।

इसी बीच कानु बाँका युवक बन गया। दुश्मन भी होता तो एक पल देखता रह जाता। आस-पड़ोस के लोग कानु से ख़ुश रहते। कानु दूसरों की बात भी मानता था। मानु भी गुणी था। दिखने में जितना सुंदर था, ताक़त भी उसमें उतनी थी ही। आस-पास जितने भी लड़ाकू साँड़ थे, सबके छक्के छुड़ा चुका था वह। एक बार राजमहल के साँड़ को मारकर इतनी चोट पहुँचाई कि राजवैद्य के काफ़ी इलाज करने पर जाकर ठीक हुआ। उसी दिन से युवराज की क्रूर नज़र मानु बैल पर पड़ी।

एक दिन की बात है। मानु और कानु जंगल की ओर जा रहे थे। दुःख-सुख बतियाते जा रहे थे, इसलिए रास्ते की दूरी उन्हें पता नहीं चल रही थी। चलते-चलते दोनों जंगल के काफ़ी अंदर तक चले गए। दोनों को प्यास लगी तो पानी की तलाश करते दोनों एक सुंदर तालाब के पास पहुँचे। दोनों ने जी भरकर पानी पिया। एकांत दुपहर में तालाब के किनारे वाले बरगद के पेड़ के नीचे दोनों थककर सुस्ताने लगे। उसी समय उन्हें एक अजीब-सी घटना देखने को मिली। तालाब के पास सात अप्रतिम और अतुलनीय सुंदरियाँ आईं। ऐसी सुंदरता कानु ने पहले कभी देखी नहीं थी। मानु ने देखा तो बिना पलक झपकाए उन सुंदरियों की तरफ़ देखता ही रह गया।

वे सुंदरियाँ तालाब के किनारे अपने वस्त्र बदलकर पानी में उतर गईं और आपस में हँसी-ठिठोली करती हुई जलक्रीड़ा में मग्न हो गईं। उसी समय उनमें से एक ने कानु को देख लिया और बाक़ियों को भी बता दिया। सब कानु की तरफ़ देखने लगीं। कानु जिस तरह से उनकी तरफ़ मंत्रमुग्ध होकर देख रहा था, वे सब भी कानु के नवयौवन भरे रूप को देखकर विमोहित होकर उसे देख रही थीं। आपस मे कोई किसी से अपने मन की बात प्रकट नहीं कर रही थीं। आख़िर में सब मिलकर कानु को संबोधित करते हुए बोलीं, “हे परदेसी! आओ हम मिलकर जल-विहार करेंगे।” कानु मन-ही-मन डर गया। देवी हैं या दानवी, कौन जानता है! क्या करे, कुछ तय नहीं कर पाया। उन सुंदरियों ने एक बार फिर कानु को अपने साथ खेलने के लिए आमंत्रित किया।

मानु पास ही था। कानु ने उससे पूछा, “दादा क्या करूँ?” मानु बिना डरे बोला, “जा भय करने का कोई कारण नहीं है। इस तालाब की ये जलकन्याएँ हैं, उनके साथ जाकर खेल। अगर कोई विपदा आए तो मुझे आकर बताना।”

डरते-डरते कानु आगे बढ़ा। जलकन्याएँ उसे आदर के साथ पानी के अंदर ले गईं। एक ने पूछा, “परदेसी! तुम्हारा नाम क्या है?” कानु ने जवाब दिया, “मेरा नाम कानु है।” अब थोड़ा-सा साहस करके कानु ने उन सबका नाम और उनका परिचय पूछा। एक-एक करके सबने तिरछी नज़र से देखते हुए अजीब हाव-भाव के साथ अपना-अपना नाम बताया।

पहली बोली, “मेरा नाम पुष्पकेतकी।”
दूसरी बोली, “मेरा नाम पुष्पगंधा।”
तीसरी बोली, “मेरा नाम पुष्परेणु।”
चौथी बोली, “मेरा नाम पुष्पसार।”
पाँचवीं बोली, “मेरा नाम पुष्पवती।”
छठी बोली, “मेरा नाम पुष्पपंखुरी।”
सातवीं बोली, “मेरा नाम पुष्पांजली।”

“तुम सब कौन हो?” कानु ने पूछा। सभी बोलीं, “हम सात बहनें जलकामिनी हैं। हम सभी जलकन्याएँ हैं। चलो अब खेलते हैं।”

कानु बोला, “क्या खेल खेलेंगे, मैं तो कोई खेल नहीं जानता हूँ।” सभी ने विचार किया और बोलीं, “जलक्रीड़ा करेंगे।”

“वह कैसे?” कानु ने पूछा।

उन्होंने उत्तर दिया, “हम पानी के अंदर छुपेंगी, तुम हमें ढूँढ़ना। पर एक शर्त होगी।” जलकन्याएँ बोलीं।

“क्या है वह शर्त?” कानु ने पूछा। अपने अंतर की बात खोलकर वे बोलीं, “हम छुपेंगे, तुम ढूँढ़ना। अगर ढूँढ़ नहीं पाओगे और हार मान लोगे तो तुम हम सभी से विवाह करोगे। फिर तुम छुपना और हम ढूँढेंगे। अगर तुम्हें ढूँढ़ नहीं पाए तो तुम अपनी मर्ज़ी से हममें से किसी एक को चुनकर उसी से शादी करना।”

कानु पशोपेश में पड़ गया। कुछ तय नहीं कर पाया तो बड़े भाई मानु से पूछकर आने की बात सोची और उन कन्याओं से अनुमति लेकर मानु भाई के पास पहुँचा। एक बैल भला क्या बताएगा, ऐसा सोचकर उन्होंने उसे अनुमति दे दी। कानु, मानु के पास गया। जलकन्याएँ मन-ही-मन ख़ुश हो रही थीं कि वे ज़रूर जीतेंगी और सभी कानु को पति के रूप में पाएँगी। उन्हें पानी के अंदर कानु कभी भी ढूँढ़ नहीं पाएगा, ऐसा उन्हें विश्वास था।

कानु ने मानु से सारी बात बताई। मानु मन-ही-मन हँसा। कानु को आश्वासन देते हुए कहा कि जलकन्याएँ हारेंगी और वह जीतेगा। कानु ने पूछा, “कैसे?”

मानु बोला, देख! तालाब के बीचोंबीच जो लाल कमल के पत्तों का गुच्छा दिख रहा है, उसी के नीचे वे छुपेंगी। तू वहाँ जाकर उन्हें छू लेना।”

“मैं कहाँ छुपूँगा?” कानु ने पूछा।

मानु बोला, फ़िक्र मत करो। तुम्हारी छुपने की बारी आएगी तो मैं पानी पीने के बहाने तालाब में उतरूँगा, तुम जोंक बनकर मेरे नथुने में छुप जाना! फिर वे तुम्हें ढूँढ़ नहीं पाएँगी। जब वे 'हार गए' कहेंगी तब मैं फिर से पानी पीने के लिए जाऊँगा, तब तुम अपने रूप में आ जाना। अब कानु आश्वस्त हो गया। जलकन्याओं के पास जाकर उनकी शर्त पर राज़ी होने की बात कही। पहले जलकन्याएँ छुपीं और कानु ने मानु के कहे अनुसार उन्हें जाकर कमल के पत्तों के नीचे से ढूँढ़ निकाला। जलकन्याओं की आशा पानी के बुलबुले की तरह टूट गई।

अब कानु की बारी थी। ढूँढ़-ढूँढ़कर जलकन्याएँ थक गईं। कानु तो जोंक बनकर बैल के नथुने में था, ऐसे में वे कहाँ उसे ढूँढ़ पातीं। आख़िर में हारकर जलकन्याओं ने पुकारा, “हे, परदेशी! हम हार गए। अब बाहर आ जाओ।” मानु पानी पीने का बहाना करके तालाब के पास पहुँचा, कानु तब अपने रूप में आ गया। शर्त के तहत अब कानु को उन सातों में से किसी एक को अपनी पत्नी के रूप में चुनना था। सभी चाह रही थीं कि कानु मुझे चुन ले?

जलकन्याओं ने तालाब से निकलकर अपने सिल्क के कपड़े पहन लिए और समर्पण करते हुए बोलीं, “हे परदेशी! अब जब हम हार गई हैं तो तुम अपनी इच्छा से हममें से किसी एक को अपनी पत्नी चुन लो।”

अब कानु क्या करे? सभी बेहद ख़ूबसूरत थीं। कोई किसी से कम या ज़्यादा, छोटी या बड़ी नहीं लग रही थीं। किसे पत्नी के रूप में स्वीकार करे? कुछ न सूझा तो मानु से जाकर उसने पूछा। मानु बोला, “बड़ी को पत्नी बनाएगा तो बाक़ी सभी जीजा जी कहकर तुझे परेशान करेंगी। इसलिए, सबसे छोटी को पत्नी बनाऊँगा, ऐसा कहना। छोटी से शादी करेगा तो बाक़ी सब बड़ी साली हो जाएँगी, सास के बराबर, तब वे तेरे पास नहीं फटकेंगी।” बात कानु के मन को जँच गई। पर कानु बोला, “वे सब तो एक जैसी दिख रही हैं, छोटी कौन है कैसे जानूँगा? अगर वे कहेंगी छोटी कौन है, ख़ुद चुन लो, तो मैं क्या कहूँगा?” मानु बोला, “तू जा। मैं एक भँवरा बनकर छोटी के सिर पर मंडराता रहूँगा। तब तू उसका हाथ पकड़ लेना।” कानु निश्चिंत हो गया। मानु के पास से लौटकर जलकन्याओं के पास खड़ा हो गया। जलकन्याएँ उत्कंठित होकर कानु की तरफ़ देखने लगीं। कानु किसे अपनी पत्नी बनाएगा?

कानु बोला, “हे सुंदरियो! मैं तुममें से सबसे छोटी को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करना चाहता हूँ।” जलकन्याओं ने कहा, “ठीक है। हममें से कौन छोटी है, तुम पहचान कर लो। अगर तुम जान नहीं पाओगे कि छोटी कौन है तो हम सबसे तुम्हें विवाह करना होगा।” मानु दादा तो सब जान रहा था, फिर कानु परेशान क्यों होता? उसने देखा कि एक भँवरा एक के सिर पर मंडरा रहा है। फिर तो बिना देरी किए कानु ने उस सुंदरी का हाथ थाम लिया। अब बाक़ी सब क्या करतीं। वे अपनी छोटी बहन 'पुष्पांजली' का हाथ कानु को सौंपकर बहन-दामाद को सुख से घर-परिवार बसाकर रहने का आशीर्वाद देते हुए जल के अंदर ग़ायब हो गईं।

रूपवती पुष्पांजली को साथ लेकर कानु मानु दादा के पास पहुँचा। मानु दोनों को देखता रहा। उसकी आँखें छलछला आईं। कानु ने पुष्पांजली का मानु से परिचय कराते हुए बोला कि वह उसके बड़े भाई हैं। दोनों ने मानु को प्रणाम किया। मानु ने दोनों को जीभ से थोड़ा चाट दिया, उनसे अपनी देह को घिसकर अपना प्यार प्रकट किया।

अब तीनों ने घर की तरफ़ रुख़ किया। घर से बहुत दूर थे वे, इसलिए घर पहुँचते शाम घिर आई थी। गोधूलि बेला हो गई थी। मानु और कानु के साथ एक अप्रतिम सुंदरी को देखकर गाँव वाले विस्मयविमूढ़ थे।

“कौन है?” पूछने पर 'मेरी पत्नी है' कहकर गाँव वालों को जवाब देता। पूरे गाँव में हलचल मच गई और ख़बर राजा के पास पहुँची। रात हुई। अब मानु और कानु एक साथ नहीं सोए। मानु घर के बरामदे में सोया। पुष्पांजली को लेकर कानु ने सुख से रात बिताई।

एक दिव्य सुंदरी से कानु का विवाह हुआ है, यह जानकर राजा अमर बेचैन हो गया। दूत भेजकर कानु को राजदरबार में उपस्थित होने का हुक्म दिया। कानु राजदरबार में हाज़िर हुआ। राजा ने कानु से पूछा, “तू ख़ूबसूरत कन्या कहाँ से लेकर आया है?”

कानु ने सारी घटना एक-एक करके युवराज को बता दी। अमर को विश्वास नहीं हुआ। कहा, “नहीं, तू झूठ बोल रहा है। तू ज़रूर उस स्त्री को कहीं से चुराकर ले आया है।”

कानु ने बहुत मिन्नतें कीं। प्रमाणित करने की बात कही। पर राजा समझने को तैयार नहीं। उसने कानु की बात पर कान नहीं दिया। पत्नी को लाकर राजहस्त में समर्पण करने का क़ानूनी फ़रमान ज़ारी किया। कानु ने बहुत विनती की, पर उसकी एक न सुनी, उल्टे उसे ख़ूब पिटवाया। कानु रोते-रोते घर पहुँचा। घर पहुँचकर सारी बातें मानु दादा के आगे बखाना। मानु आश्वासन देते हुए बोला, “तुम फ़िक्र मत करो। जब तक मैं जीवित हूँ तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।”

पुष्पांजली यह सब देखकर डर गई। मानु ने उसे भी आश्वस्त किया और घर से बाहर क़दम न रखने की हिदायत देकर ख़ुद द्वार पर पहरा देने लगा।

कुछ देर बाद राजा के सैनिक पुष्पांजली को ले जाने के लिए आए। कानु से सैनिकों ने कहा कि उन्हें पुष्पांजली सौंप दे। कानु ने अंदर से ही मना कर दिया। सैनिक अब घर के अंदर घुसने के लिए तैयार हुए। अब मानु किसी के रोकने से भला रुकता? मानु उठा और सब को मार भगाया। मानु के आगे उनका क्या वश? सैनिक टुकड़ी भाग खड़ी हुई। जान बचाकर सैनिक राजा के पास पहुँचे और सारी बातें कह सुनाई। मानु का शक्ति-सामर्थ्य कितना है, यह जानना अब किसी के लिए बाक़ी न रहा। मानु के ज़िंदा रहते पुष्पांजली को पाना असंभव है, यह बात राजा को समझ में आ गई। मानु को कैसे मौत के घाट उतारा जाए, इस योजना पर विचार किया जाने लगा। तबेले से सबसे ताक़तवर घोड़े को लाया गया। उसके बाद कानु के पास ख़बर भिजवाई गई कि वह अपने बैल मानु को लेकर आए। अब सारी जनता के आगे राजा के ख़ास घोड़े के साथ मानु का युद्ध होगा और युद्ध में मानु हार जाएगा तो अपनी पत्नी पुष्पांजली को राजा को सौंप देगा।

मानु और कानु में विचार-विमर्श चला। मानु ने हुँकार भरी और निडरता के साथ राजमहल की तरफ़ चला। कानु उसके पीछे चला। कानु के पीछे राज्य की प्रजा भी राजमहल में राजा के प्रधान घोड़े और मानु बैल का युद्ध देखने इकट्ठा हो गई। ठीक समय पर युद्ध शुरू हुआ। प्रधान घोड़े और मानु के पाँव के प्रहार से पूरा परिसर काँप उठा। मानु बैल का पराक्रम देखकर लोग वाह-वाही करने लगे। कुछ समय लड़ाई चलने के बाद मानु ने प्रधान घोड़े को अपने सींग में उठा लिया। घोड़ा लहू-लुहान होकर जान के भय से त्रस्त होकर तबेले में जाकर छुप गया। राजा अपमानित होकर उठकर चले गए। ग़ुस्से से वह फुँफकारने लगे। पूरे राज्य में तहलका मच गया। प्रतिशोध की आग में राजा तड़फड़ाने लगे। प्रधान घोड़ा ही तो हारा, अब राजमहल के प्रधान हाथी के साथ मानु को युद्ध के लिए बुलावा भेजा गया।

सात दिन भी नहीं बीते थे कि फिर से ऐसी एक निर्मम ख़बर पाकर कानु बेचैन हो गया। पुष्पांजली रोने लगी। मानु बैल के पास बैठकर कानु आँसू बहाने लगा। मानु धीरज बँधाते हुए बोला, “रो क्यों रहा है? मैं प्रधान हाथी के साथ लड़ूँगा। देखना मेरा कुछ नहीं होगा।” इतना कहकर मानु राजमहल की तरफ़ चला। कानु भी उसके पीछे-पीछे चला। पुष्पांजली दरवाज़ा बंद करके छुपकर बैठ गई। युद्ध का मैदान लोगों से खचाखच भर गया। लोग मानु और प्रधान हाथी का युद्ध देखेंगे।

युद्ध शुरू हुआ। पहले-पहले मानु पीछे की तरफ़ हटने लगा। यह देखकर कानु डर गया। पर मौक़ा देखकर मानु ने प्रधान हाथी की सूँड़ में अपना नुकीला सींग ऐसे धँसाया कि ख़ून की धारा बहने लगी। हाथी अपने को सँभालता इससे पहले ही मानु ने हाथी के पैरों के बीच में सिर डालकर सींग का वार करके उसे घायल कर दिया। हाथी एक चक्कर लगाता तो मानु सात बार छलाँग लगाकर वार कर देता। हाथी हार गया, मानु इधर-उधर दौड़ता रहा। लोगों ने मानु की जय-जयकार की। राजा ख़ूब अपमानित हुए और ग़ुस्से से उफनने लगे। राजा ने अब मल्ल युद्धा से मानु का युद्ध करवाना चाहा। मल्ल युद्धा तो मानु बैल का पराक्रम जानता था। मन में वह डरा, पर करे क्या? राजा की बात नहीं मानेगा तो आफ़त। इसलिए उसने हामी भरी।

उधर मानु और कानु विजय उल्लास से घर पहुँचे। कानु और पुष्पांजली ने मानु की ख़ूब सेवा की। स्वादिष्ट खाना खिलाया। दुःख-सुख बतियाते दिन बीता। शाम हुई तो राजा का दूत ख़बर लेकर पहुँचा कि कल ही मल्ल योद्धा के साथ मानु का युद्ध होगा। कानु और पुष्पांजली डर गए। पर मानु बिलकुल भी परेशान नहीं हुआ। सुबह हो तो देखेंगे, ऐसा कहकर सभी ने रात बिताई।

राज्य में हलचल मच गई। कल मल्ल योद्धा के साथ मानु का शक्ति परीक्षण होगा। रात बीती, सुबह हुई। लोग युद्ध देखने के लिए इकट्ठा हो गए। मानु को लेकर कानु पहुँचा। पर मल्ल योद्धा का कहीं पता नहीं था। सभी आपस में एक-दूसरे से पूछने लगे मल्ल योद्धा कहाँ है? दूत ने आकर ख़बर दी कि कल रात से ही मल्ल योद्धा ग़ायब हैं।

राजा के अपमान की कोई सीमा ना रही। वह ग़ुस्से से गरजते हुए राजमहल में चले गए। किस उपाय से मानु को मारा जा सकता है, उसका उपाय करने लगे। ताक़त से तो मानु को मारा नहीं जा सकता, इसलिए राजा ने एक उपाय सोचा। अबकी बार राजमहल के प्रधान केले के पेड़ के साथ मानु का युद्ध होगा। राजा ने यह घोषणा करवा दी। लोग सुनकर हँसे। प्रधान घोड़ा, प्रधान हाथी हार गए। युद्ध के नाम पर मल्ल योद्धा घर छोड़कर भाग गया। फिर यह प्रधान केले के साथ युद्ध क्या बला है?

कानु और पुष्पांजली भी जी भर हँसे। पर मानु चुप रहा। कानु ने पूछा, “क्या बात है?” मानु बोला, “अब मेरी ख़ैर नहीं। मेरा अंत समय आ गया।'' ''कैसे?” बेचैन होकर कानु ने पूछा। मानु बोला, “प्रधान केले का पेड़ ही मेरी मृत्यु का कारण होगा। राजा ने जुगत लगाकर प्रधान केले के पेड़ के चारों तरफ़ बारह हाथ लंबी धारदार तलवारें लगा रखी हैं। मैं आघात करूँगा तो मेरे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगे।” यह बात सुनकर कानु और पुष्पांजली ख़ूब रोए। प्रधान केले के पेड़ से युद्ध न करने के लिए उससे अनुरोध किया।

मानु उन्हें सांत्वना देते हुए बोला, “जन्म लिया है तो मरेंगे भी एक दिन। तो फिर डर क्यों? मैं मर जाऊँगा तो भी तुम्हारा कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाएगा।”

“कैसे?” दोनों ने एक साथ पूछा।

“बताता हूँ। सुनो! प्रधान केले के पेड़ के साथ लड़ाई में मेरी मौत होगी। तब मेरे शव को घर लाकर मेरी एक हड्डी और अंतड़ी अपने पास रखना और बाक़ी सब को दफ़ना देना। दूसरा कोई किसी भी तरह मेरे शरीर को न छुए और कोई भी इस बात को न जाने।'' इतना कहकर मानु चुप हो गया। कानु और पुष्पांजली ख़ूब रोए। कल मानु मर जाएगा।

“सुनो!” मानु बोला, “वह हड्डी और अंतड़ी तुम्हारे जीवन का रक्षा कवच होंगे।'' कानु और पुष्पांजली रोते-रोते मानु की बात सुनते रहे। जब तुम पर कोई शत्रु आक्रमण करे, तब कहना बाँध-बाँध रस्सी, पीट-पीट लट्ठ। चाहे जितना बड़ा शत्रु हो, फिर भी वह बच नहीं पाएगा। अंतड़ी रस्सी बनकर उसे बाँध लेगी और हड्डी लट्ठ बन सभी को मारेगी। और जब कहोगे कि रुक जा रस्सी, रुक जा लट्ठ, मानु भाई का यह करोड़ का है आदेश, तब ऐसा कहने पर रस्सी बाँधेगी नहीं, हड्डी मारेगी नहीं।'' दुःख-सुख गपियाते तीनों ने वह रात बिताई। यही रात मानु दादा की आख़िरी रात है। जितना भी समझाओ मन समझ नहीं रहा था। सुबह हुई। लोग प्रधान केले के पास इकट्ठा हो गए। ठीक समय पर राजा ने आदेश दिया, “युद्ध शुरू किया जाए।”

मानु ने सभी की तरफ़ देखा। कानु, मानु को पकड़कर ख़ूब रोया। उधर पुष्पांजली घर के अंदर रोती रही। लोग कानु के इस विकल भाव को देखकर कुछ समझ नहीं पा रहे थे। मानु आगे बढ़ा, प्रधान केले के पेड़ पर सिर से प्रहार किया। और यह क्या उसके सिर के टुकड़े-टुकड़े हो गए। मानु गिर गया। सभी हाहाकार मचाने लगे। कानु मुँह फाड़कर रोने लगा। राजा विजय के गर्व से झूमते हुए राजमहल लौट गए। अब पुष्पांजली को हासिल करना निश्चित है, मन में ऐसा सोचकर राजा ख़ूब ख़ुश हुए।

कानु मानु के शरीर को बैलगाड़ी में लादकर घर ले गया। दोनों मानु के मृत शरीर को सुनसान जगह पर ले गए। वहाँ गड्ढा खोदकर मानु के शव को दफ़नाने से पहले उसकी एक हड्डी और अंतड़ी निकाल ली। कानु और पुष्पांजली का मन धीरज नहीं रख पा रहा था। घर लौटकर बहुत ही दुःखी मन से वह दिन और रात बिताई। मानु दादा के उपकार के बारे में सोचते-सोचते सुबह हुई।

कुछ देर बाद राजा के लोगों ने आकर कानु को ख़बर दी कि वह अपनी पत्नी को ले जाकर राजमहल पहुँचे। पर कानु ने दो-टूक जवाब देते हुए कहा कि जब तक उसके शरीर में जान है, वह अपनी पत्नी को कभी भी राजा को नहीं सौंपेगा।

राजा यह ख़बर पाकर चिहुँक उठे। दल-बल के साथ कानु के दरवाज़े पर पहुँचे। कठोर आदेश सुनाते हुए राजा बोले, कानु तुझे अगर अपनी जान प्यारी है तो अपनी पत्नी को मुझे सौंप दे, नहीं तो तुझे अपने प्राण गँवाने होंगे।” कानु ने अंदर से ही जवाब दिया, “नहीं, मैं कभी भी तुम्हारे हाथों अपनी पत्नी को नहीं सौंपूँगा।” राजा गरज उठे, “तेरी इतनी हिम्मत?” सैनिकों की तरफ़ देखकर राजा ने आदेश दिया, “कानु का घर तोड़ दो।”

सैनिक दरवाज़ा तोड़ने के लिए जैसे ही आगे बढ़े, कानु बोला- बाँध-बाँध रस्सी, पीट-पीट लट्ठ। फिर क्या! देखते-देखते रस्सी बाँधने लगी, हड्डी सबको पीटने लगी। सैनिक सारे घायल होकर गिरने लगे। राजा भी लहूलुहान हो गए। “ओहो! मार की तकलीफ़ और सही नहीं जा रही है।” सभी बस चीख़-चिल्ला रहे थे। “नहीं, अब नहीं, और नहीं। बचाओ-बचाओ” की आवाज़ थी चारों तरफ़। मार जैसे बरस रही थी ताबड़तोड़, हाथ, पैर, पेट, घुटनों पर मार की बरसात होती रही लगातार। लहूलुहान होकर सैनिक एक-एक करके बेहोश होने लगे।

राजा अमर ने आख़िर में हाथ जोड़ लिए। तब कानु ने कहा, “रुक जा रस्सी, रुक जा लट्ठ, मानु भाई का यह करोड़ का आदेश है।” पिटाई थम गई। हाँफते हुए सैनिक उठकर खड़े होने लगे। राजा ने समर्पण किया। मंत्री ने आकर परामर्श दिया कि अब कानु को राज्य का नया सेनापति बना दिया जाए।

कानु के सेनापति होने के बाद से राज्य में शांति क़ायम हुई। कानु और पुष्पांजली के गुण चारों दिशाओं में फैलने लगे। कुछ समय बाद मानु की दफ़नाई गई जगह पर एक सुंदर समाधि निर्मित की गई। उसके चारों तरफ़ फूल का बग़ीचा बनाकर मानु की एक मूर्ति वहाँ स्थापित की गई।

कानु और पुष्पांजली हर रोज़ समाधि में जाकर पूजा करते और पूजा के समय जो भी कामना करते वह सब पूरी हो जाती।

(साभार : ओड़िशा की लोककथाएँ, संपादक : महेंद्र कुमार मिश्र)

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