काले नाग के पुजारी (कहानी) : सलाम बिन रज़्जाक़

Kaale Naag Ke Pujari (Story in Hindi) : Salam Bin Razzaq

शहर के सारे फाटक बन्द हो चुके थे। सिक्योरिटी टावर्स पर स्याह वर्दी वाले सिपाही पहरा दे रहे थे। उनके लम्बे-लम्बे नैजों की नोकें आसमान की तरफ़ उठी हुई थीं। कुछ सिपाही अपने-अपने चिल्लों पर तीर चढ़ाये चौकस निगाहों से चारों तरफ़ का जायजा ले रहे थे, अगर उन्हें कोई भी जानदार शय चहारदीवारी या दरवाज़े की तरफ़ भागती दिखायी देती तो फ़ौरन दो-चार तीर एक तेज़ सनसनाहट के साथ चिल्लों से निकलते और भागने वाले व्यक्ति के जिस्म में पैबस्त हो जाते। अगर कोई शख़्स सख़्त जान होता और तीरों की चपेट से बच जाता तो शहर के फाटकों पर खड़े सिपाही अपने बड़े-बड़े जाल उस पर फेंकते और उसे फ़ौरन गिरफ़्तार करके एक ख़ास क़िस्म के बोरे में बन्द कर देते और वह बोरा किसी गोपन स्थान की तरफ़ रवाना कर दिया जाता। शहर की सड़कें सुबह से शाम तक स्याह पोश सिपाहियों के बूटों की खट-पट से गूँजती रहतीं और अजीब रहस्यमयी तरह की फुँकारे फ़िज़ाँ में सरसराती रहतीं। जैसे हवाएँ किसी भीतरी तकलीफ़ से सिसकियाँ भरती गुज़र रही हों। एक अजीब मातमी क़ैफ़ियत शहर के विस्तार पर छायी हुई थी। फरार होने के सारे रास्ते बन्द थे।

दास्तान गो बूढ़ा एक क्षण को रुका। ट्रेन अपनी पूरी रफ़्तार से आगे बढ़ रही थी। डिब्बे में सिर्फ़ सात मुसाफ़िर बाक़ी रह गये थे और बूढ़ा दास्तान गो अपने रहस्यमय वजूद की बिना पर प्राचीन समय की कहानियों का पात्रा लग रहा था। मुसाफ़िरों की ख़ौफ़ व हैरत से फैली हुई आँखें बूढ़े के झुर्रियों भरे चेहरे पर टिकी थीं। बूढ़ा चन्द लम्हों तक उसी तरह ख़ामोशी से खिड़की के बाहर अँधेरे में घूरता रहा, फिर खँखारकर बोला। "शहर में सिर्फ़ दो क़िस्म के लोग रहते थे। एक वो जो काले नाग के पुजारी थे और दूसरे वो जो सिर्फ़ काले नाग के लिए चारे के तौर पर इस्तेमाल होते थे। काले नाग के पुजारी मज़बूत फ़ौलादी दीवारों के पीछे बड़ी सुरक्षित और सुकूनभरी ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे जबकि बाहर लोगों की ज़िन्दगी अजाब बनी हुई थी।"

सड़कें, फ़ुटपाथ और गलियाँ हर जगह सड़े-गले इन्सानी जिस्मों के ढेर पड़े हुए थे, जो महज इसलिए ज़िन्दा मालूम होते थे कि अभी उनकी साँस चल रही थी। लोग हर वक़्त जनाजे और अर्थियाँ उठाये जुलूस की शक्ल में सड़कों पर से गुज़रते हुए नज़र आते। झुकी हुई गरदनें और लटके हुए चेहरे लिये लोग धीरे-धीरे इस तरह क़दम उठाते, जैसे उन्हें मौत की सज़ा सुनायी गयी हो। यह सिलसिला दिन रात जारी रहता। शहर की सारी सड़कें क़ब्रिस्तान और श्मशानों पर जाकर ख़त्म हो जाती थीं, जिनके फाटकों पर बड़े अक्षरों में "स्वागतम्" लिखा होता था। बाज़ारों और दुकानों में कटे-फटे इन्सानी अंग सजाये जाते थे। चायख़ानों में ख़ून से भरी प्यालियाँ छलछलाती और खनकती रहती थीं। दवाई और इंजेक्शनों की हर शीशी पर लाल रंग में लिखा होता "मौत"।

सबकुछ इस तरह उलट-पलट गया था कि लोग हमेशा यह महसूस करते रहते जैसे वो सड़कों पर सिर के बल चल रहे हों। लोग जब ज़िन्दगी के अजाब को झेलते-झेलते थक जाते तो सुकून की ख़ातिर ऐसी इबादतगाहों में पनाह लेते जहाँ सारे उसूल खण्डहर बन चुके थे और मेहराबों पर मकड़ियों ने जाले तान दिये थे। क़रीब-क़रीब सभी इन्सानों के मुँह पर स्याह पट्टियाँ बँधी हुई थीं। अगर दो-चार लोग कोशिश करके आपस में बातें भी करते तो उनकी गुफ़्तगू कुछ इस तरह की होती -

"शब्दों के मलबे में अर्थ की तलाश बेमतलब है।"

"अर्थहीनता का ज़हर ज़िन्दगी के रग-रग में फैल चुका है।"

"सारे मूल्य सिर के बल खड़े हैं।"

"मनुष्य ने हमेशा नफ़रत बोई है, नफ़रत ही काटेगा।" इत्यादि।

दास्तान गो बूढ़ा यकबयक ख़ामोश हो गया।

डिब्बे में बैठे हुए लोग अपनी ही ख़ामोशी के बोझ तले दबे बूढ़े की तरफ़ उत्सुकता से देख रहे थे। जब थोड़ी देर तक बूढ़ा कुछ न बोला तो एक शख़्स ने भर्रायी हुई आवाज़ में पूछा।

"बाबा क्या ये सब आपने अपनी आँखों से देखा था?"

बूढ़े ने धीरे-धीरे गरदन उठायी। चन्द लम्हों तक उस शख़्स को ख़ाली-ख़ाली नज़रों से घूरता रहा, फिर बोला,

"हाँ, मैंने सबकुछ अपनी नज़रों से देखा था।"

बूढ़ा खिड़की से बाहर अँधेरे में नज़रें गड़ाये अपने-आप से बड़बड़ा रहा था। "आज भी वो सारे दृश्य मेरी आँखों के सामने घूम जाते हैं। मैं देख रहा हूँ कि ट्रेन की पटरी पर यहाँ से वहाँ तक अनगिनत इन्सानों को लिटा दिया गया है। उनके हाथ पीठ पर बँधे हैं। आँखों पर पट्टियाँ कसी हुई हैं। इतने में स्याह रंग की एक ट्रेन जिसके इंजन पर काले रंग की तस्वीर बनी है, दनदनाती हुई आती है और इन्सानी जिस्मों पर से इस तरह गुज़र जाती है कि तमाम इन्सान दो हिस्सों में तक़सीम हो जाते हैं और फिर यह होता है कि उनके कटे-फटे अंगों से ख़ून के फव्वारे फूट पड़ते हैं और ख़ून के एक-एक क़तरे से एक नया आदमी जन्म लेता है। इन्तेहाई लागर और मरा-मरा सा। देखते ही देखते एक तरफ़ से भीमकाय ट्रक ध्ड़ध्ड़ाते आ धमकते हैं, जिनमें वैसे ही स्याहपोश सिपाही तीर कमान और थैले लिये बैठे हैं जैसे क़िले की चहारदीवारी पर पहरा देने वाले थे। फिर वो लोग ट्रक में बैठे-बैठे ही एक अजीबोग़रीब छड़ी निकालते हैं जो मछली पकड़ने की बंसी से मिलती-जुलती है। उसके एक सिरे पर धागा लटक रहा है, जिसमें एक पुर्जा फँसा हुआ है। पुर्जे पर लिखा है, "ज़रूरत है"। पुर्जे की तहरीर अँधेरे में रौशनी की तरह चमकती है। लोग इस तहरीर को पढ़ते ही पुर्जे की तरफ़ लपकते हैं और जो भी उस पुर्जे को छूता है, उससे चिपक जाता है। फिर स्याहपोश सिपाही उन्हें पकड़कर अपने ख़ास क़िस्म के थैलों में बन्द कर देते हैं और थैला ट्रक में एक तरफ़ को लुढ़का देते हैं। जब ट्रक भर जाता है तो ड्राइवर उसे एकदम से स्टार्ट करके लोगों की भीड़ को रौंदता-कुचलता आगे बढ़ जाता है। दर्दनाक चीख़ों से चारों दिशाएँ काँपने लगती हैं।"

बूढ़ा एकबारगी चुप हो गया। पर लोगों से ज़्यादा देर तक चुप नहीं रहा गया। एक शख़्स ने विचलित होते हुए पूछा,

"वो ट्रक किसके होते थे?"

बूढ़े की सफ़ेद घनी पलकें आहिस्ता-आहिस्ता ऊपर को उठी और उसके होंठ हिले।

"उन ट्रकों पर इन्सानी खोपड़ी का निशान बना होता था और खोपड़ी के ऊपर काला नाग कुण्डली मारे बैठा रहता।"

"उन मरियल आदमियों को कहाँ ले जाया जाता था?"

"उन्हें लौह दीवारों के उस पार ले जाया जाता जहाँ काले नाग के पुजारियों का डेरा था। काले नाग के पुजारी सीलबन्द थैलियों को देखकर बहुत ख़ुश होते और ट्रक वालों को उनकी खि़दमत के बदले क़ीमती तोहफ़े पेश करते। तोहफ़े लेकर ट्रक वाले तो लौट जाते। फिर काले नाग के पुजारियों के इशारे पर सीलबन्द थैले खोले जाते जिनमें से वही मरियल आदमी बाहर निकलते, जिन्हें देखकर काले नाग के पुजारी आनन्द से भर उठते। फिर उनके इशारों पर उनमें से एक-एक आदमी को सामने ¯पजरे में ढकेल दिया जाता जिसमें एक भयानक काला नाग फुँकारता रहता। ज्यों ही मरियल आदमी को पिंजरे में फेंका जाता काला नाग उस आदमी पर टूट पड़ता और दिल दहला देने वाली चीख़ों से फ़िज़ाँ थर्राने लगती और काले नाग के पुजारी अपनी मोटी तोंदों पर हाथ फेरते बड़े सुकून से गरदन हिलाते रहते। गोया जो कुछ हो रहा है वह उनकी इच्छा के एकदम अनुरूप था।"

काले नाग की फुँकारें तेज़तर होती जातीं। वह उछल-उछलकर उस मरियल आदमी की तरफ़ लपकता और अपनी तेज़ ज़हरीली ज़बान से उसके जिस्म के किसी न किसी हिस्से को चाटकर पलट जाता। रफ़्ता-रफ़्ता मरियल आदमी की चीख़ें मद्धिम पड़ जातीं। उसका मचलना-तड़पना भी बन्द हो जाता और उसके होंठों से कराहें निकलती रहतीं। काला नाग उसके जिस्म से बराबर ख़ून चूसे जाता फिर उसकी रफ़्तार भी सुस्त पड़ जाती। गालिबन उसका पेट भर चुका होता। फिर यों होता कि काला नाग कुण्डली मारकर एक तरफ़ बैठ जाता। अति सन्तुष्टि के नशे में उसकी आँखें बन्द हो जातीं। दूसरी तरफ़ उसका शिकार अब सिर्फ़ गहरी-गहरी साँसें लेता रहता। फिर काले नाग के पुजारी अपने ग़ुलामों को इशारा करते। ग़ुलाम मरियल आदमी के अद्धमुर्दा जिस्म को घसीटकर पिंजरे से बाहर निकालते और सड़क पर फेंक आते - जहाँ वह अपने ही जैसे हज़ारों लोगों की भीड़ में शामिल हो जाता।

इस खेल के बाद काले नाग के पुजारियों के चर्बीले चेहरे यातना देने की अपार ख़ुशी से तमतमाने लगते - उनकी आँखें उस शरीर बच्चे की तरह चमकने लगतीं, जिसने अभी-अभी अपनी गुलेल से किसी नन्ही-सी फाख़्ता को निशाना बनाया हो।"

इतना कहकर बूढ़ा फिर ख़ामोश हो गया। उसका चेहरा किसी पत्थर की सिल की तरह सख़्त और सपाट था। डिब्बे में बैठे लोगों का ख़ौफ़ कुछ और गहरा हो गया। एक शख़्स ने लरजती हुई आवाज़ में पूछा -

"बाबा, क्या उस शहर में कोई क़ानून नहीं था?"

"क़ानून?" बूढ़ा धीरे से बोला, "क़ानून हमेशा ज़बरदस्त की लाठी की तरह होता है। जिससे बलवान अपने से कमज़ोर लोगों को भेड़-बकरी की तरह हाँकता रहता है। उस शहर में भी सिर्फ़ काले नाग के पुजारियों का क़ानून चलता था, जिसकी हिफ़ाज़त स्याह पोशाक वाले सिपाही करते थे।"

"तो क्या वो करोड़ों लोग सड़कों और फ़ुटपाथों पर इसी तरह सिसक-सिसककर मरते रहे?"

"हाँ - मौत उनका मुक़द्दर बन चुकी थीं और ज़िन्दगी उनके लिए अजाब से कम नहीं थी। कभी-कभी वो मरियल और जर्जर हड्डियों के ढाँचे जत्था बनाकर काले नाग के पुजारियों के अड्डों पर धावा बोल देते थे मगर लौह दीवारों के पास ड्यूटी दे रहे स्याहपोश सिपाही उन्हें बल्लम और बर्छियों पर रख लेते और खन्दकों को लाशों से पाट देते। फिर एक अर्से तक कोई उन फ़ौलादी दीवारों का रुख़ न करता।" बूढ़े ने ख़ामोश होकर अपने गिर्द बैठे हुए लोगों पर नज़र डाली। नीम उजाले-नीम अँधेरे में सभी के चेहरे ख़ौफ़ व दहशत से पीले पड़ गये थे। बूढ़ा थोड़ी देर तक ग़ौर से एक-एक चेहरे को देखता रहा, फिर धीरे से बोला, "मगर काले नाग के पुजारियों का कारोबार ज़्यादा अर्से तक नहीं चल सका और वो एक दिन ख़ुद भी काले नाग का शिकार हो गये।"

"क्या?" डिब्बे में बैठे लगभग सभी लोग ख़ुशी से चीख़ पड़े? "काले नाग के पुजारी मारे गये!"

"हाँ" - बूढ़े दास्तानगो की रहस्य भरी भारी आवाज़ किसी अन्धे कुएँ की प्रतिध्वनि की तरह सुनायी दी। "काला नाग शहर के सारे लोगों का ख़ून पी चुका था और उसकी प्यास दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी, फिर यह हुआ कि एक दिन स्याह वर्दी वाले सिपाही काले नाग के लिए ताजे मनुष्यों का शिकार न जुटा सके। तब काले नाग ने अपनी राक्षसी प्यास से परेशान होकर अपने पुजारियों पर हमला कर दिया और अपने ज़हरीले दाँत उनकी गरदनों में गाड़ दिये। पुजारी हाथ-पैर पटककर छटपटाते रहे। काला नाग उनका लहू पीता रहा। फिर एक अजीब बात यह हुई कि पुजारियों की मौत के बाद काला नाग भी फ़ौलादी दीवारों से अपना सिर पटक-पटककर ख़त्म हो गया। इस तरह उस शहर के करोड़ों लोगों को इस भयानक खेल से निजात मिल गयी।"

बूढ़ा इतना कह पाया था कि ट्रेन की तेज़ सीटी सुनायी दी और सन्नाटे का कलेजा दूर तक छिदता चला गया। गाड़ी किसी स्टेशन पर रुक रही थी। बूढ़ा चौंककर खड़ा हो गया।

"ओहो मुझे इसी स्टेशन पर उतरना है।"

उसने जल्दी से अपना मैला झोला बग़ल में दबाया और डिब्बे में बैठे हुए लोगों से रुख़सत लेकर प्लेटफार्म पर उतर गया। मुसाफ़िरों के चेहरों पर दोबारा ख़ुशी और सन्तोष की लहर दौड़ गयी। वो लोग आपस में बूढ़े की दास्तान पर विचार-विमर्श करने लगे।

मैं चुपके से उठा और उस बूढ़े के पीछे ही गाड़ी से नीचे उतर गया।

बाहर चारों तरफ़ सन्नाटा था। स्टेशन की इमारत और प्लेटफार्म, यहाँ से वहाँ तक अँधेरे में डूबे हुए थे। बूढ़ा सिर झुकाये एक तरफ़ को चला जा रहा था। मैंने झिझकते हुए बूढ़े को आवाज़ दी, "बाबा..."

बूढ़ा ठिठका - ठिठककर मुड़ा - मैं लम्बे-लम्बे डग भरता उसके क़रीब पहुँचकर रुक गया। फिर उसकी चुभती हुई निगाहों से बचने के लिए उसके मैले झोले पर नज़रें गड़ाये हुए पूछा -

"दरअसल बात यह है बाबा, क्या काले नाग के पुजारी सचमुच मारे गये?"

बूढ़े ने चौंककर गरदन उठायी। चन्द लम्हों तक मुझे घूरता रहा फिर थोड़े अन्तराल के बाद मुझसे पूछा -

"तुम्हारा क्या ख़याल है?"

"मुझे आपके आखि़री बयान पर सन्देह है?"

अचानक बूढ़े का चेहरा सफ़ेद पड़ गया। उसकी आँखों से बेपनाह पीड़ा झलकने लगी। उसने गहरी निराशा से जवाब दिया।

"तुम्हारा सन्देह सही है, मैंने सिर्फ़ डिब्बे में बैठे लोगों का डर दूर करने के मक़सद से झूठ बोला था। वरना हकीकत में काले नाग के पुजारी आज भी ज़िन्दा हैं और उनका ख़ूनी कारोबार उसी तरह जारी है।"

इतना कहकर वह बूढ़ा मुड़ा और धीरे-धीरे क़दम उठाता एक तरफ़ को चलने लगा।

मैं अँधेरे में ग़ायब होती उसकी रहस्य भरी छाया को घूरता रहा।

मैंने ग़ौर किया - फ़िज़ाँ में भयावह फुँकारें अब भी सरसरा रही थीं।

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