जंगली गुलाब (रूसी कहानी) : कोंस्तांतीन पाउस्तोव्स्की

Jungli Gulab (Russian Story in Hindi) : Konstantin Paustovsky

रात को नदी पर कुहरे की परत बैठ गयी और नदी दीप और दिशा-निर्देशक भी इसमें लोप हो गये।

जलपोत खड़े किनारे से सटा और बिल्कुल रुक गया। केवल नौका-घाट की सँकरी गली से क्रमबद्ध चरमर की आवाज़ आ रही थी। वहाँ खड़े हुए मल्लाह, जोर लगाकर, किनारे पर उगी पुरानी ब्रूम झाड़ी से नाव की रस्सी बाँध चुके थे।

माशा क्लीमोवा आधी रात को जाग गयी। चारों ओर इतनी चुप्पी थी कि वह मार्ग के अन्तिम केबिन में सो रहे एक मुसाफिर के खर्राटों की आवाज़ तक सुन सकती थी।

वह अपनी बर्थ पर उठकर बैठ गयी। खुली खिड़की से भीतर आनेवाली ताज़ा हवा अपने साथ विल्लो के पत्तों की मधुर सुगन्धि ला रही थी।

झाड़ियाँ कुहरे के कारण धुँधली दिखायी दे रही थी। वे अपनी शाखाओं को डेक पर फैलाये हुए थीं। माशा को लगा कि जलपोत किसी प्रकार खुश्क ज़मीन पर पहुँच गया है कि झाड़ियाँ के एक झुरमुट में खड़ा है। तभी उसे पानी की कल-छन सुनायी दी और उसने यह अनुमान लगा लिया कि जलपोत नदी के किनारे पर ठहरा हुआ है।

झाड़ियों की ओर से किसी ने गिटकिरी भरी। कुछ देर बाद फिर वही तान लहरायी। ऐसा लगा जैसे किसी ने नीरवता की गहराई और प्रत्युत्तरता की परीक्षा लेने के लिए एक तान छेड़ी हो। गिटकिरी भरनेवालों को अवश्य ही सन्तोष हुआ होगा, क्योंकि उसकी आवाज़ के फौरन बाद एक लम्बी सी सीटी सुनाई दी और डूब गयी।

इसी समय दर्जनों आवाज़ें एक साथ लहरायी और झुरमुट सहसा ही बुलबुलों के मधुर नगमों से गूँज उठा।

‘‘येगोरोव, सुनते हो?’’ ऊपर की ओर से, सम्भवतः कप्तान के मंच की ओर से आवाज़ आई।

‘‘हाँ, यह तो शेक्सना तट की बुलबुलों के नगमों को भी मात कर रहा है,’’ नीचे से किसी ने खरखरी आवाज़ में जवाब दिया।

माशा मुस्करायी, उसने सामने की ओर अपने हाथ फैलाये। मन्द रोशनी में वे साँवले-से लगे। हाँ, उँगलियों के नाखून अवश्य सफ़ेद दिख रहे थे।

‘‘क्यों मेरा दिल उदास है, कुछ समझ में नहीं आता?’’ माशा अपने आप फुसफुसायी।

‘‘मुझे लगता है कि जरूर कुछ होने वाला है, लेकिन क्या? मैं स्वयं नहीं जानती।’’

उसे अपनी दादी के शब्द कि ‘‘लड़कियों की अनबूझ उदासी नाम की कोई चीज़ दुनिया में है,’’ याद आ गये। ‘‘बेकार की चीज़ है! लड़कियों की अनबूझ उदासी! बात केवल इतनी है कि मैं स्वयं अपनी ज़िन्दगी शुरू करने जा रही हूँ और इसलिए कुछ-कुछ डरी हुई हूँ।’’

माशा कुछ समय पूर्व ही वन-संस्थान की स्नातक हुई थी। वह लेनिनग्राद से अपने काम के स्थान लोअर वोल्गा की ओर जा रही थी जहाँ उसे सामूहिक फार्मों के लिए जंगल उगाने थे।

निस्सन्देह यह कहकर कि वह ‘‘कुछ कुछ’’ डरी हुई है, माशा ने खुद अपने को धोखा देने की कोशिश की थी। वह वास्तव में काफ़ी और ठीक ही डरी हुई थी। उसने कल्पना की कि वह अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच गयी है। वह देखती है कि उसका मुखिया धूल से लथपथ धीर-गम्भीर व्यक्ति है। वह काले रंग की जैकेट पहने हैं जिसकी जेबें फूली हुई हैं और उसके लम्बे बूट कीचड़ में सने हुए होने के कारण भारी हैं। वह उसको ऊपर से नीचे तक देखता है और उसकी भूरी आँखों की ओर (जोकि स्वयं माशा को सदा ही टीन की तश्तरी जैसी लगी है) और चोटियों की ओर उसका विशेष रूप से ध्यान जाता है। वह सोचता है, ‘‘बस, इसी चोटियों वाली छोकरी की ही कसर बाकी थी, जो अपनी पाठ्य-पुस्तकों के उद्धरण देने के अतिरिक्त न किसी काम की है, न काज की। पर, मेेरी जान, चल लेने दो जरा मध्य पूर्वी खुश्क हवाओं को तब तुम्हारी पाठ्य-पुस्तकें ज्यों की त्यों पड़ी रह जायेंगी...’’

माशा के लम्बे सफर ने उसे गम्भीर तथा काली जैकेट वाले अपने मुखिया की कल्पना से अभ्यस्त होने का और उसके भय से मुक्त होने का अवसर दिया। पर उसके मन की उदासी तो बनी ही रही।

वह यह न समझ पाई कि वास्तव में वह उदासी न थी। वह कुछ इस ढंग से एहसास था जिसका विश्लेषण कठिन था। वह धरती के साधारण सौन्दर्य, उसकी नदियों, कोहरे, काली रातों और तटवर्ती विल्लो वृक्षों की सरसराहट से भरपूर, आकर्षक, मगर रहस्यपूर्ण भविष्य से पहले, हृदय का डूबना था।

माशा को नींद नहीं आयी। उसने कपड़े पहने और डेक पर चली गयी। हर चीज़ ओस में भीगी हुई थी-जंगले की लकड़ी, उसके नीचे लोहे की जाली तथा खपची की बनी बाजूदार कुर्सियाँ।

”‘एक-दो कश मेरे लिए भी छोड़ देना,’ मैंने बूढ़े से कहा।’’ ये शब्द डेक के अगले भाग में खड़े हुए एक तरुण मल्लाह ने कहे जो किसी को धीमी आवाज़ में कुछ बता रहा था। ‘‘बूढ़े ने मुझे सिगरेट का टुकड़ा पकड़ा दिया। मैंने एक बार कश लगाया और उसके बाद उससे पूछा: ‘दादा, आधी रात के समय तुम यहाँ चरागाहों में क्या कर रहे हो?’ ‘उषा की रखवाली,’ यह कहकर वह हँस दिया। ‘हो सकता है कि यह मेरे जीवन की अन्तिम उषा हो। पर यह सब कुछ तुम नहीं समझ सकोगे, तुम अभी बिल्कुल जवान हो!’’

मल्लाह चुप हो गये। झाड़ियों में बुलबुलों ने फिर से अपना तराना छेड़ दिया। माशा छज्जे का सहारा लिये खड़ी थी। बहुत दूरी पर बहुत-से मुर्ग़ों की इकट्ठी बाँगें धुन्ध को चीर रही थीं। धुन्ध के पार अवश्य ही कोई गाँव है। यह मुर्ग़ों की पहली बाँग है या दूसरी?

यद्यपि माशा ने इसके बारे में कई बार पढ़ा था तथापि उसे इसकी तनिक भी जानकारी नहीं थी कि मुर्गे कब पहली बाँग देते हैं और कब दूसरी।

माशा की दादी एक जलपोत-चालक की विधवा थी। उसी ने माशा को जलपोत से यात्रा करने की सलाह दी थी और माशा वैसा करके खुश भी थी। जलपोत पहले नीले-काले जल वाली नेवा नदी में से गुजरा और उसके बाद उसने लादोगा झील को पार किया। उसके मटमैले पानी और ढलुवा अन्तरीपों में पत्थर के बने आकाश-दीपों को देखने का उसका वह पहला अवसर था। उसने तेजी से बहने वाली स्विर नदी तथा मरिईनस्की नहर के फाटक देखे। किनारों पर घनी झाड़ियाँ उगी हुई थीं। प्रत्येक तट पर लड़कों की हर समय दिखायी देनेवाली टोलियाँ मछलियाँ पकड़ने में संलग्न थीं।

मुसाफिर बदलते रहे और माशा को वे सभी दिलचस्प लगे। बेलोज्योसर्क के स्थान पर एक तरुण हवाबाज जलपोत में आया जिसकी कनपटियों पर के बाल पके हुए थे। सम्भवतः वह बेलोज्योसर्क में अपनी माँ के साथ छुट्टियाँ बिताने आया था, क्योंकि एक दुबली-पतली बूढ़ी औरत जो भूरी सूती पोशाक पहने थी, घाट पर खड़ी धीरे-धीरे रो रही थी।

‘‘माँ, भूल नहीं जाना,’’ हवाबाज डेक पर से उसे कह रहा था, ‘‘मैंने जो मछलियाँ पकड़ी थीं वे सीढ़ियों के पीछेवाले तहखाने में लटक रही हैं। उनमें से एक पर्च मछली वास्का को दे देना।’’

‘‘पाशा, मैं नहीं भूलूँगी, तुम चिन्ता न करो,’’ बुढ़िया ने कहा और गेंद के समान गोल किये हुए नम रुमाल से उसने अपनी आँखें पोंछी।

हवाबाज मुस्कराता और मजाक करता रहा। किन्तु उसकी आँखें माँ के चेहरे पर ही टिकी रहीं। उसका गाल काँप रहा था। तब जहाज पर कुछ अभिनेता आये। उनकी एक अच्छी-खासी गुलगपाड़ मण्डली थी। वे मजाक करते, और सभी मुसाफिरों से मित्रता गाँठते रहे। सालून में नदी की नमी के कारण बेसुरा हो जानेवाला पियानो निरन्तर बज रहा था।

अभिनेताओं में से एक चुस्त, तीखे नाक-नक्शे और बड़ी उम्रवाले अभिनेता की आवाज़ औरों की अपेक्षा कहीं अधिक सुनाई पड़ रही थी। माशा ठगी-ठगी सी उसके गानों को सुन रही थी। उसने उनमें से एक भी गीत पहले नहीं सुना था। उसे एक प्रेमी चोर के सम्बन्ध में एक पोलिश गीत अत्यधिक पसन्द आया। गीत का भाव यह था कि एक प्रेमी चोर अपनी प्रेमिका के लिए आकाश से एक सितारा चुराकर लाने में असफल रहा और इसलिए प्रेमिका ने उसका तिरस्कार कर दिया।

इस गीत की समाप्ति पर अभिनेता जोर से पियानो को ढप करता और कहता:

‘‘इस गीत का सदुपदेश तो स्पष्ट ही है-प्रेमियों पर तरस खाओ। अब इसका प्रतिवाद नहीं करना-बस ठीक है न!’’

तब वह अपनी काली ‘‘बो टाई’’ को ठीक करता, मेज पर बैठता और सुखाई हुई कुछ मछली और बीयर लाने का आदेश देता।

चेरेपोवेत्स के स्थान पर भवन-निर्माण संस्था के कुछ विद्यार्थी जहाज पर आये। वे किरीलो-बेलोज्योसर्क मठ से, जहाँ वे ग्रीष्म ऋतु में व्यवहारिक अध्ययन के लिए गये थे, वापस मास्को लौट रहे थे। उन्होंने पुरानी इमारतों की पैमाइश लेकर रूपांकन बनाये थे।

विद्यार्थी रास्ते भर संगतराशी, मेहराबों, अन्द्रेई रुबल्योव और मास्को की गगनचुम्बी इमारतों के बारे में वाद-विवाद करते रहे। माशा उनकी बातें सुन-सुनकर अपनी अनभिज्ञता पर शर्माती रही।

जब विद्यार्थी जहाज पर आये तो अधेड़ अभिनेता ने चोर के सम्बन्ध में अपना गाना बन्द कर दिया और मौन साध लिया। उसने अपना शेष समय स्तानिस्लावस्की की किश्ताब ‘कला में मेरा जीवन’ पढ़ने में बिताया। पढ़ते समय उसने चश्मा चढ़ा लिया था और उसका चेहरा कृपालु और बुजुर्गाना लगने लगा था। माशा ने सोचा कि वे सभी रंगमंचीय चेष्टायें केवल दिखावटी थीं और वास्तव में जैसा वह दिखायी देता था उससे कहीं अधिक भला आदमी था।

सब मुसाफिर सो चुके थे-हवाबाज, अभिनेता और विद्यार्थी। माशा डेक पर अकेली खड़ी हुई रात की विभिन्न आवाज़ों को सुन रही थी और उन्हें पहचानने का यत्न कर रही थी।

दूर आकाश में कुछ गड़गड़ाहट-सी हुई और मन्द पड़ गयी। धुन्ध के ऊपर कोई हवाई जहाज उड़ रहा होगा। किनारे के समीप ही कहीं मछली ने छपाक की आवाज़ की। तभी एक चरवाहे की बाँसुरी की ध्वनि सुनाई दी। वह ध्वनि इतनी दूर से आ रही थी कि आरम्भ में तो माशा उसके रेंगते और लुभावने सुरों को ठीक तरह से पहचान ही न पाई।

किसी ने माशा के पीछे दियासलाई जलायी। उसने मुड़कर देखा। उसके पीछे खड़ा हुआ तरुण हवाबाज सिगरेट जला रहा था। हवाबाज ने जलती हुई दियासलाई जहाज से नीचे की ओर फेंकी। दियासलाई की चिंगारी धुन्ध में इन्द्रधनुषी रंगों के धुएँ का चक्र बनाती हुई धीरे-धीरे नीचे जा गिरी।

‘‘ये बुलबुले सोने नहीं देती,’’ उसने कहा, और माशा ने उसे देखे बिना ही अनुभव किया कि वह अँधेरे में मुस्करा रहा है-‘‘जैसे कि उस गीत में कहा गया है: ‘बुलबुलो, ओ बुलबुलो, सैनिकों को तंग मत करो, सैनिकों को कुछ देर आराम करने दो!’’

‘‘बुलबुलों का ऐसा नगमा मैंने पहले कभी नहीं सुना,’’ माशा ने कहा।

‘‘एक बार सोवियत संघ में घूम आइये, आश्चर्यचकित करनेवाली ऐसी बहुत सी अन्य वस्तुएँ भी आपको मिल जायेंगी,’’ हवाबाज ने जवाब दिया। ‘‘आप वह कुछ देखेंगी, जिसकी आपने कभी स्वप्न में भी कल्पना न की होगी।’’

‘‘ऐसा इसलिए है कि आप हवाबाज हैं,’’ माशा ने विचार प्रकट किया, ‘‘और आपके परों के नीचे पृथ्वी निरन्तर ही बदलती रहती है।’’

‘‘ऐसी बात नहीं है,’’ हवाबाज ने उत्तर दिया और चुप हो गया। ‘‘सुबह हो रही है,’’ कुछ क्षण बाद उसने कहा। ‘‘उधर देखिये क्षितिज पीला हुआ जा रहा है।’’

उसने पूरब की ओर संकेत किया। ‘‘आप कहाँ जा रही हैं?’’

‘‘कमीशिन।’’

‘‘हाँ, हाँ, वोल्गा-तट पर इस नाम का एक छोटा-सा नगर है। गर्मी, तरबूज, टमाटर...’’

‘‘और आप कहाँ जा रहे हैं?’’

‘‘और भी आगे।’’

हवाबाज जंगले के सहारे खड़ा हुआ था। वह आकाश को रंगीन होते हुए देख रहा था। चरवाहे की बाँसुरी की आवाज़ अधिकाधिक निकट आती गयी। हवा चलने लगी। वह धुन्ध को नदी के ऊपर से बहाकर ले गयी अब किनारे पर की भीगी झाड़ियाँ और बेंत की शाखाओं की बनी एक झोपड़ी साफ़ तौर पर नज़र आने लगी। झोपड़ी के समीप ही आग सुलग रही थी।

माशा ने भी सूर्योदय का दृश्य देखा। सुनहरे क्षितिज पर, पारे की एक बूँद के समान, अन्तिम सितारा अभी भी चमक रहा था।

‘‘आज से,’’ माशा ने सोचा, ‘‘मैं बिल्कुल दूसरे ढंग का जीवन बिताऊँगी। अब तक मैंने चीज़ों को वास्तव में कभी देखा ही नहीं था-मैं अन्धी थी। अब मैं हर वस्तु की ओर ध्यान दूँगी, हर चीज़ के बारे में सजग रहूँगी तथा प्रत्येक बात को याद रखूँगी, हृदय में सँजोकर रखूँगी।’’

हवाबाज ने माशा की ओर देखा। ‘‘लड़की अपने विचारों की दुनिया में कहीं बहुत दूर पहुँची हुई है,’’ वह धीरे से बुदबुदाया। वह दूसरी ओर देखने लगा। लेकिन घड़ी भर बाद फिर माशा की ओर मुड़ा।

हवाबाज ने बहुत वर्ष पहले एक उपन्यास पढ़ा था, उसे अचानक उसका एक अंश याद हो आया। लेखक ने अपने उपन्यास में यह घोषणा की थी कि प्रातःकाल के समय बच्चों और लड़कियों की आँखों से अधिक सुन्दर कोई वस्तु नहीं होती। उनमें उस समय भी रात का तिमिर बाकी होता है, पर साथ ही उषा की किरण भी झलकने लगती है।

‘‘कुछ बुरा नहीं कहा है,’’ युवक ने सोचा। जलपोत के कप्तान का सहायक, बरसाती पहने पुल से नीचे उतरा। उसके चेहरे पर विभिन्न ऋतुओं की छाप अंकित थी।

‘‘अरे, आप जाग रही हैं?’’ उसने हँसते हुए माशा को सम्बोधित किया। ‘‘घण्टे भर बाद यहाँ से चलेंगे, आप किनारे पर जाकर टहल सकती हैं।’’

‘‘यह नेक ख़्याल है,’’ माशा ने हवाबाज से कहा। ‘‘घूमना भी हो जायेगा और कुछ फूल भी चुन लाऊँगी।’’

‘‘ठीक है, आओ चलें,’’ हवाबाज ने सहमति प्रकट की।

वे जहाज के टेढे़ और सँकरे मार्ग से तट की ओर गये। एक बूढ़ा झोपड़ी से बाहर निकला। सम्भवतः यह वही था जो उषा की रखवाली कर रहा था। सूरज धुन्ध को चीरता हुआ ऊपर उठ रहा था।

गहरे हरे रंग की घास ठहरे हुए काले पानी की भाँति शान्त थी। उससे तन को चीरने वाली रात की ठण्डक अभी तक आ रही थी।

‘‘तुम यहाँ क्या करते हो, दादा?’’ हवाबाज ने बूढ़े से पूछा।

‘‘मैं टोकरियाँ बुनता हूँ,’’ बूढ़े ने जवाब दिया और उसके चेहरे पर एक अपराधी की सी मुस्कान फैल गयी। ‘‘मैं बहुत कुछ नहीं करता हूँ। बस सामूहिक फार्मों के आलुओं के लिए कुछ टोकरियाँ ही बनाता हूँ। तुम्हें चरागाहों में दिलचस्पी है?’’

‘‘हाँ, हाँ, हम चक्कर लगाना चाहते हैं।’’

‘‘इतने थेाड़े से समय में ही?’’ बूढ़ा हँसा। ‘‘मैं यहाँ, इसी चरागाह में पिछले 70 वर्ष से रह रहा हूँ, पर अभी तक यहाँ का सभी कुछ नहीं देख पाया। वहाँ उस मार्ग पर सूखकर काले पड़े हुए चिनार के वृक्ष तक हो आओ। उससे आगे मत जाना। वहाँ मनुष्य के कश्द से भी अधिक लम्बी घास है। तुम ओस से इस तरह तर-ब-तर हो जाओगे कि दिन भर सूख नहीं पाओगे। वहाँ की ओस-उसकी क्या बात है, तुम घड़े भर-भरकर पी सकते हो।’’

‘‘तुमने कभी पी है?’’ युवक ने पूछा।

‘‘क्यों नहीं! वह औषधि से कहीं अधिक गुणकारी है।’’

माशा और हवाबाज धीरे-धीरे उस मार्ग पर चल दिये। माशा सूखे हुए चिनार वृक्ष तक जाकर रुक गयी।

मार्ग के दोनों ओर जंगली गुलाब की झाड़ियाँ ऊँची सीधी दीवार की भाँति खड़ी थी, इनमें लगे सुगन्धित पत्तियों वाले फूल ऐसे ताजे और सिन्दूरी रंग के थे कि उनके आस-पास पत्तों पर चमकनेवाली उषाकालीन किरणें भी पीली और निर्जीव-सी लग रही थीं। ऐसा लगता था मानों वे फूल छोटे-छोटे चमकते हुए शोले हों और झाड़ियों से अलग, हवा में खड़े हों। सुनहरी धारियों वाले काले भौंरे अपने काम में मस्त झाड़ियों में भनभना रहे थे।

‘‘सेंट जार्ज पदक से सुशोभित सूरमा,’’ हवाबाज ने विचार प्रकट किया।

भौंरों का जमघट सेंट जार्ज पदक के छोटे रिब्बन की याद दिलाता था। और वे भी लोगों की परवाह न कर, यहाँ तक कि उनसे कुछ नाराज-से, रणक्षेत्र के आजमाए हुए सिपाहियों की भाँति इधर-उधर घूम रहे थे।

सूरज की किरणें जंगली गुलाब की झाड़ियों के बीच पाई जाने वाली दरारों से गुजरती हुई घनी घास तथा फूलों पर विभिन्न प्रकार के क्षणिक आकार बना रही थीं। वहाँ नीले, लाल और मोमबत्ती जैेसे सीधे लम्बे पौधे थे, लाल तथा सफ़ेद तीनपतिया घास थी, कौए के पंजे की शक्ल के नीले पत्तों वाले पौधे, बर्फ़ जैसे श्वेत गुलदाउदी और जंगली माल्वा के स्वच्छ गुलाबी पत्तियों वाले फूल और सैकड़ों अन्य फूल थे जिनके नाम न तो माशा को आते थे और न ही हवाबाज को।

उनके पैरों के पास ही बटेर शोर मचाते हुए उड़ रहे थे। एक गीले खोखले वृक्ष के ठूँठ में छिपा हुआ लैन्ड्रेल नामक एक पक्षी मानों उनका उपहास करता हुआ चिल्लाया। भरद्वाज पक्षी फड़फड़ाते हुए हवा में ऊँचे उड़ रहे थे। किन्तु किसी कारणवश उनका स्वर आकाश के बजाय नदी की ओर से आता प्रतीत हो रहा था।

नदी की ओर से जलपोत के भोंपू की तेज आवाज़ सुनाई दी। माशा और हवाबाज को लौटने का संकेत किया गया था।

‘‘यह क्या मुसीबत है?’’ माशा ने फूलों की ओर देखते हुए बिगड़कर कहा, ‘‘यह क्या मुसीबत है?’’

उसने जल्दी से दोनों हाथों में फूलों को समेटना शुरू कर दिया। जलपोत के भोंपू की दूसरी आवाज़ सुनाई दी जिसे अन्तिम तथा कुछ हद तक क्रोधपूर्ण कहा जा सकता था।

‘‘यह भी अज़ीब मुसीबत है!’’ माशा ने खेद के साथ कहा। जहाज के चोंगे से निकलता हुआ धुआँ जहाँ झाड़ियों के ऊपर चक्कर काट रहा था उस ओर मुड़ते हुए, उसने चिल्लाकर कहा, ‘‘आ रहे हैं!’’

वे जल्दी से जलपोत की ओर बढ़े। पानी से तर-ब-तर माशा की पोशाक उसकी टाँगों को थपथपा रही थी। माशा ने अपनी चोटियों को गोलाकार रूप में बाँधा हुआ था। वे अब खुलकर नीचे की ओर लटक रही थीं। उसके पीछे आते हुए तरुण हवाबाज ने जैसे-तैसे फूलों से लदी जंगली गुलाब की कुछ शाखाएँ काट ही लीं।

जहाज के तंग मार्ग में खड़े जहाजियों ने बाँहों में समेटे हुए फूलों की ओर देखकर कहा:

‘‘चरागाह को बिल्कुल साफ़ ही कर आये लगते हो! अच्छा, सेम्योन, यह चला जहाज!’’

‘‘इन फूलों को जहाज के सालून में सभी मुसाफिरों के लिए ले जाओ,’’ पुल पर खड़े जहाज के कप्तान के सहायक ने कहा और तब लाउडस्पीकर द्वारा ऊँचे स्वर में घोषणा की: ‘‘धीरे-धीरे आगे बढ़ो।’’

चक्के जोर से घूमे। उनके पंखों के नीचे पानी मथा जाने लगा। मन्द-मन्द सरसराती हुई झाड़ियों वाला किनारा पीछे रह गया।

माशा को किनारा, चरागाह और वह झोंपड़ी जहाँ टोकरियाँ बुननेवाला बूढ़ा रहता था, छोड़ना भला नहीं लगा। वह सभी कुछ सहसा उसको इतना प्रिय हो गया था, मानो वह वहीं उस बूढ़े की देख-देख में जन्मी-पली हों।

‘‘कैसी अज़ीब बात है,’’ सालून की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए माशा ने सोचा, ‘‘मैं इतना भी नहीं जानती कि हम कहाँ हैं या यह कौन सा जिला अथवा प्रदेश है। किसी समीपवर्ती नगर का नाम तक भी मुझे मालूम नहीं।’’

सालून ठण्ड और साफ़-सुथरा था। उसकी पालिश की हुई लकड़ी की दीवारों, मेजों और अखरोट की लकड़ी के बने पियानो पर अभी तक धूप का असर नहीं हुआ था।

माशा ने फूलों को अलग-अलग करके फूलदानों मे सजाना शुरू किया। हवाबाज नीचे के डेक से कुछ ताजा पानी ले आया और फूलों को व्यवस्थित करने में माशा का हाथ बँटाते हुए कहने लगा:

‘‘बेलोज्योसर्क में हमारा बाग बहुत छोटा-सा है, पर उसमें ढेरों फूल हैं, विशेषकर गेंदे के।’’

‘‘बेलोज्योसर्क में आपने अपनी छुट्टियाँ खूब मजे में गुजारीं?’’ माशा ने पूछा।

‘‘कुछ बुरी नहीं गुजरीं, काफ़ी पढ़ता रहा और अपने जीवन की जाँच-पड़ताल की। इसके अतिरिक्त बेलोज्योसर्क में और हो भी क्या सकता था?’’

”‘जाँच-पड़ताल की,’ इससे आपका क्या अभिप्राय है?’’ माशा ने कुछ हैरान होते हुए पूछा।

‘‘मैंने जो कुछ देखा, किया और सोचा, वह सब लिखा। फिर उसका विश्लेषण किया, क्या मैंने अपना जीवन ठीक ढंग से गुजारा है? कहाँ-कहाँ भूलें की हैं? तब हाल ही में गुजरे समय में अपने जीवन में जो कुछ भला-बुरा किया है उसका हिसाब जोड़ा।’’

‘‘परिणाम क्या रहा?’’

‘‘अब हर चीज़ शीशे की भाँति साफ़ है। अब मैं शान्त मन से जी सकता हूँ।’’

‘‘मेरे लिए यह नई और अनूठी बात है,’’ माशा ने कहा और बहुत ध्यान से हवाबाज की ओर देखा।

‘‘आप भी यह ढंग आजमाकर देखें,’’ उसने मुस्कराते हुए सुझाव दिया। ‘‘आप यह जानकर हैरान हो जायेंगी कि आपका जीवन कितना घटनापूर्ण रहा है।’’

‘‘खूब, बहुत खूब,’’ माशा को अपने पीछे से एक परिचित आवाज़ सुनाई दी। वह मुड़ी।

दरवाज़े पर अभिनेता खड़ा था। वह सोने के समय की नीली पोशाक पहने था और उसके कन्धे पर नहाने का तौलिया था।

‘‘खूब, बहुत खूब,’’ उसने दोहराया। ‘‘सुबह-सुबह अगर राज की बातें की जायें तो क्या कहने! इस समय हमारे विचार भी रगड़कर साफ़ किये गये हाथों की तरह ही साफ़ होते हैं।’’

‘‘बस बस, रहने दीजिये,’’ हवाबाज ने नाराजगी प्रकट करते हुए कहा।

‘‘ठीक कहा आपने, यह सब बकवास है,’’ अभिनेता ने सहमति प्रकट की।

‘‘बिगड़िये नहीं। आप दोनों की बातचीत अचानक ही मेरे कान में पड़ गयी। मैं उसमें केवल एक कड़ी और जोड़ना चाहता हूँ, केवल एक अकाट्य सत्य, जिसे मैं कह सकता हूँ, मैं बहुत देर से जान पाया हूँ।’’

‘‘क्या है वह महान सत्य?’’ हवाबाज ने पूछा।

‘‘मुझे आपका यह व्यंग्यात्मक ढंग पसन्द नहीं,’’ अभिनेता ने एक अनुभवहीन पाठक की अतिशयोक्तिपूर्ण अलंकारिक भाषा में कहा। फिर वह हँसा। ‘‘सत्य स्वयं अपने में बहुत सरल है। हर दिन कोई न कोई अच्छी बात अवश्य होती है, बहुधा कुछ कवित्वपूर्ण भी। जब हम अपने जीवन की जाँच-पड़ताल करते हैं, जैसा कि आपने अभी बताया, जाने-अनजाने, हम जीवन के कवित्वपूर्ण और सुलझे हुए अंशों को ही अधिकतर याद करते हैं। यह बहुत बढ़िया बात है और अज़ीब भी! हमारे इर्द-गिर्द की हर वस्तु में कविता भरी हुई है। इसे खोजना चाहिये। यह एक बूढ़े के विदा होते समय के शब्द हैं इन्हें सदा याद रखिये। मेेरा प्रतिवाद मत कीजिये। बस, मामला तय है।’’

अभिनेता दबी हँसी हँसता हुआ चला गया। मगर माशा इस बात में उलझकर रह गयी कि इस संसार में प्रत्येक वस्तु बहुत सरल किन्तु विलक्षण है। जब वह लेनिनग्राद के संस्थान में पढ़ती थी यह तथ्य तब इतना स्पष्ट न था जितना कि अब इस सफर के दौरान में हो गया था। शायद इसका कारण यह था कि जीवन की तह में जो कविता भरी पड़ी है, उसमें उसका अपना भाग अब स्पष्ट हो गया था।

वोल्गा नदी की ढाल की ओर दिन भर लगातार तेज हवा चलती रहती। चमकती हुई नीली लहरों जैसी हवा की नीलिमा जहाज के पास से गुजरती और नदी की ढाल की ओर बहती जाती। माशा को लगता मानो हवा गर्मी के उन सब दिनों को एक-एक करके बड़ी तेजी से उसके सामने से उड़ाये लिए जाती है।

संध्या समय तेज हवा बन्द हो जाती और नदी का जल पुनः अंधकार में विलीन हो जाता। जहाज की बत्तियों के प्रकाश में केवल इस अंधकार का कुछ भाग ही चमकता रह जाता।

माशा खुश थी। फिर भी कभी-कभी यह सोचकर उसकी प्रसन्नता में उदासी का पुट आ जाता था कि उसकी नयी ज़िन्दगी, जिसका आरम्भ इतना अच्छा हुआ था, कहीं बिल्कुल बुरे ढंग की होकर न रह जाये।

कमीशिन में माशा जहाज से उतरी। उस समय हवा, वोल्गा पर पीली धुन्ध की चादर बिछा रही थी।

हवाबाज तथा अभिनेता दोनों माशा को विदा करने के लिए घाट तक गये।

माशा हवाबाज से विदा होते समय विह्नल थी। हवाबाज झेंपता हुआ जहाज पर वापस चला गया। उसने डेक पर खड़े रहकर अभिनेता को माशा से विदाई लेते देखा।

अभिनेता ने अपना टोप उतारा, माशा के हाथ अपने हाथ में लिए और हँसती-चिढ़ाती नज़र से उसकी ओर देखते हुए कहा:

‘‘तुम्हें खुशी नसीब होगी, पर मेरी खुशी तुम्हारी खुशी से अधिक है, क्योंकि मैं बूढ़ा हूँ।’’

‘‘मैं समझी नहीं,’’ माशा ने कहा।

‘‘अरे, यह तो स्पष्ट है। मेरा मतलब उन लोगों को मिलनेवाली खुशी से है जो अब जवान नहीं रहे,’’ अभिनेता ने अपनी शान दिखाते हुए कहा। ‘‘मेरा मतलब उस खुशी से है जो किसी दूसरे को प्रेम करनेवाली डेस्डेमोना¹ जैसी सुन्दरी की आँखों में आँसू देखकर होती है।’’

उसने माशा के हाथ छोड़ दिये और टोप हाथ में लिए जहाज के तंग मार्ग से ऊपर चला गया। जहाज ने तीसरी और अन्तिम बार अपना भोंपू बजाया और चल दिया।

नदी की ओर से तेल की गन्ध से भरी तेज हवा आ रही थी। वह जोर से मुँह से टकरा रही थी। छोटे कश्द और भूरी मूँछों वाला एक बूढ़ा-सा व्यक्ति सामान ले जाने में सहायता देने के लिए माशा के इर्द-गिर्द घूमता रहा। पर माशा ने न तो उसकी कोई बात सुनी और न कोई उत्तर ही दिया। अतः बूढ़ा एक तरफ़ पड़ी हुई बेंच पर सिगरेट जलाकर बैठ गया ताकि माशा को सुध-बुध सम्भालने का समय मिल सके।

एक दिन बाद माशा कमीशिन से बहुत दूर पहुँच चुकी थी। एक पहियेदार डिब्बे का घसीटकर स्तेपी के कच्चे किनारों वाले एक तालाब के समीप लाकर खड़ा कर दिया गया था। इस छोटे-से डिब्बे में वे कार्यकत्तरा रहते थे जो सामूहिक फार्मों के लिए वन-वलय उगाने का काम करते थे। माशा की भी यही घर था।

माशा की कल्पना के विपरीत उसका मुखिया न तो धीर-गम्भीर था और न ही धूल-मिट्टी से लथपथ। वह तो बहुत ही ज़िन्दादिल और हँसमुख व्यक्ति था। पर अन्य सभी लोगों की तरह उसे भी एक ही चिन्ता घेरे रहती थी कि उन्होंने बलूत के पेड़ों के जो बीज बोये हैं वे फूटेंगे कि नहीं और दक्षिणपूर्व की ओर से आनेवाली खुश्क हवाओं से क्या हानि की सम्भावना है। वहाँ वोल्गा से परे क्षितिज पर काँच-सदृश कुहासा-सा छाया था। ‘‘नोनी भूमि’’, ये शब्द सभी के होंठों पर थे। यही ‘‘नौनी भूमि’’ नये जंगल की सबसे बड़ी और परेशान करनेवाली शत्रु थी। स्तेपी में जहाँ-तहाँ ऐसी भूमि के टुकड़े उभर आते थे! पीली मिट्टी में दरारें पड़ जातीं और उनमें से बर्फ़ जैसी नमक की सफ़ेद परतें झाँकने लगतीं।

एक दिन माशा ने हवाबाज की नसीहत पर अमल करते हुए अपने जीवन की छानबीन की। उसने पाया, कि उसका जीवन तीन स्पष्ट भागों में बाँटा जा सकता था। वे तीन भाग थे लेनिनग्राद में विद्यार्थी जीवन, जहाज पर सफ़र तथा वोल्गा की स्तेपी में उसका काय। उसके जीवन के हर भाग में, कुछ श्रेष्ठ और जैसा कि बूढ़े अभिनेता ने सुझाया था, कवित्वपूर्ण अंश था।

लेनिनग्राद में वह अपने कमरे से लाखता नदी के पीछे छिपते हुए सूर्य का आकर्षक दृश्य देखा करती थी। वहाँ उसके बहुत-से मित्र थे, संस्थान था, पुस्तकें थीं, बहुत-से थियेटर और पार्क थे। यहाँ आते हुए मार्ग में माशा को पहली बार अस्थायी किन्तु अत्यधिक मर्मस्पर्शी मित्रता के आकर्षण और रूस की चैड़ी नदियों के सौन्दर्य की अनुभूति हुई। और अब, स्तेपी में उसने काम के महान अर्थ और शक्ति को समझा।

अपने हृदय की गहराई में उसने हवाबाज की छाया कहीं हिलती-डुलती अनुभव की। उसके कल्पना-पट पर हवाबाज का उस क्षण का चित्त उभरा जब बुलबुलों की शिकायत करते हुए उसके चेहरे पर विह्नल मुस्कान खिल उठी थी। फिर कमीशिर में विदाई के समय का दृश्य सामने आया, जब हवाबाज डेक से एकटक उसे निहार रहा था, और बेलाज्योसर्क में अपनी माँ से विदा लेते समय के समान उसका गाल काँप रहा था। यह कैसी दयनीय स्थिति थी कि वे मिले और मिलकर जुदा हो गये।

माशा के हृदय पर अपने सफर की बहुत गहरी छाप अंकित हुई थी। एक बार तो उसने अपनी यात्रा का सपना तक देखा। उसने ओस में नहाई हुई जंगली गुलाब की घनी झाड़ियाँ देखीं। उसने देखा कि संध्या हो चुकी है और रात की अँधेरी दहलीज पर एक प्यारा-सा अर्द्ध-चन्द्र चमक रहा है, मानो कोई फसल काटनेवाला अपना चाँदी का हँसिया भूल गया हो। उसे इतनी खुशी हुई थी यह दृश्य देखकर कि वह नींद में ही जोर से हँस दी थी।

नये उगाए गये वृक्ष, हरे रंग की उस छिछली नदी के समान लगते थे जो पहाड़ियों में से बहती हुई दूर तक ऊसर भूमि में फैल गयी हो जहाँ चैड़े-चैड़े मार्गों में गेरुआ धूल उड़ती फिरती हो।

करने के लिए बहुत काम था। छोटे-छोटे बलूत के वृक्षों के बीच की भूमि को नर्म करना था और वहाँ फूलदार बबूल के वृक्ष लगाने थे। माशा ने जी-जान से अपने को इस काम में लगा दिया। उसे अपने हृदय में छोटे-छोटे वृक्षों के लिए दया की अनुभूति होती थी।

माशा सँवला गयी। चिलचिलाती धूप के प्रभाव से उसकी चोटियों का रंग हल्का हो गया। अब वह ऐसी लगती थी मानो स्तेपी की ही बेटी हो, वहीं जन्मी-पली हो! उसकी पोशाक, हाथ और उसकी हर चीज़ से नागदौने की गन्ध आती। स्तेपी की हर चीज़ में यही गन्ध बसी हुई थी। और तो और नरज़ान नामक काले झबरे कुत्ते से भी इसकी बू आती थी। वह डिब्बे का चैकीदार था।

डिब्बे की चैकीदारी करते थे नरज़ान और मुखिया का सात वर्षीय बेटा सत्योपा।

वे दोनों सारा दिन डिब्बे की छाया में बैठकर धानीमूष की और नाशपाती के झुके हुए जंगली पेड़ में से गुजरती हुई तेज हवा की सीटियाँ सुनते रहते थे। नाशपाती के पेड़ में से कुछ ऐसी गूँज पैदा होती थी, मानों वह काँसे का बना हो।

गर्मी खत्म होते न होते धानीमूषों के वृक्षों पर हल्ला बोल दिया। उन्होंने बलूत के छोटे वृक्षों के आसपास सूराख कर डाले और पिस्सुओं से बचने के लिए वे इन्हीं में लोटपोट होते रहते। धानीमूषों से वृक्षों को बचाने के लिए वोल्गोग्राद में संकट की स्थिति का सन्देश भेजा गया। यह प्रार्थना की गयी कि ‘‘बागबान’’ हवाई जहाज को जल्दी से भेजा जाये ताकि वह जई के जहरीले दाने बरसाये।

एक शाम को सत्योपा डिब्बे की पैड़ियों पर बैठा आलू छील रहा था। तभी नरज़ान ने अपना सिर ऊपर उठाकर भ् ौंकना शुरू कर दिया। हल्की गड़गड़ाहट करता हुआ एक छोटा-सा हवाई जहाज, पश्चिम की ओर से आ रहा था। वह थोड़ी-सी ऊँचाई पर स्तेपी के ऊपर उड़ रहा था।

वह डिब्बे के ऊपर से गुजरा। फिर तेजी से मुड़ा, सूखी घास पर उतरा और कुछ दूर तक दौड़कर रुक गया।

हवाबाज, वायुयान के छोटे-से कक्ष बाहर निकला। लड़के और कुत्ते की ओर बढ़ते हुए उसने अपना चमड़े का टोप उतार लिया। वह जवान था। हाँ, उसकी कनपटियों पर के बाल सफ़ेद होने लगे थे। सत्योपा ने उसकी जैकेट पर अनेक पुरस्कार-चिह्न लगे देखे।

नरज़ान हवाबाज को देखकर भौंकने के बजाय रेंगकर डिब्बे के नीचे जा छिपा तथा वहीं से एक बुजदिल की भाँति गुर्राने लगा।

‘‘हलो, दोस्त,’’ हवाबाज ने सत्योपा के समीप पैड़ियों पर बैठते और सिगरेट जलाते हुए पूछा, ‘‘क्या यही भाग नं. 15 है?’’

‘‘यही है,’’ सत्योपा ने सहमते हुए जवाब दिया। ‘‘क्या आप हमारे यहाँ आये हैं?’’

‘‘हाँ, मैं धानीमूषों को मारने के लिए आया हूँ’’

‘‘आप तो बढ़िया हवाबाज हैं, बहुत-से पुरस्कार चिद्द लगाये हुए हैं,’’ सत्योपा ने कहा। वह कुछ देर के लिए रुका और फिर बोला: ‘‘और फिर आप ही धानीमूषों को मारने के लिए आये हैं! हमारा विचार तो यह था कि वे किसी विद्यार्थी विमान-चालक को हमारे पास भेजेंगे।’’

‘‘मुन्नू, मैंनें खुद यहाँ आने की इच्छा प्रकट की थी,’’ हवाबाज ने उत्तर दिया और चुप हो गया। ‘‘क्या माशा क्लीमोवा यहीं काम करती हैं?’’

‘‘जी हाँ,’’ सत्योपा ने उसकी ओर तिरछी नज़र से देखते हुए जवाब दिया। ‘‘क्यों?’’

‘‘वह कहाँ है?’’

‘‘उधर, वहाँ जंगल में,’’ सत्योपा ने नन्हें पौधों की ओर संकेत किया।

‘‘जंगल, बेशक जंगल ही है!’’ हवाबाज हँसा। वह उठा और उस दिशा में चल दिया।

सत्योपा उसकी ओर देखता रहा। अंधकार गहरा रहा था और स्तेपी साफ़ तौर पर दिखायी न दे रही थी। किन्तु सत्योपा को घर की ओर आती हुई माशा साफ़ नज़र आ रही थी। हवाबाज उससे मिलने के लिए तेजी से बढ़ रहा था। पर माशा उसके नज़दीक पहुँचने से पहल ही रुक गयी। दोनों हाथों में उसने अपना चेहरा छिपा लिया।

रात हो गयी थी। और बहुत ऊँचाई से एक अकेला सितारा स्तेपी के तालाब के काले पानी में झाँक रहा था।

‘‘माशा ने अपने चेहरे को क्यों हाथों से छिपा लिया था?’’ सत्योपा हैरान था। और तब मजाक में उसने माशा के सम्बन्ध में अपने पिता के शब्द दोहराये:

‘‘बहुत ही अज़ीब लड़की है!’’

खुश्क और गर्म भूमि पर हवाई जहाज एकदम शान्त और निश्चल खड़ा था। डिब्बे के नीचे लेटा हुआ नरज़ान रात भर उसे देखकर गुर्राता रहा।

1951

1 डेस्डेमोना शेक्सपीयर के प्रसिद्ध नाटक ‘ओथेलो’ की नायिका का नाम है।-सं

('समय के पंख' में से)

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