जंगल में मंगल : बुंदेली लोक-कथा

Jungle Mein Mangal : Bundeli Lok-Katha

किसी समय एक गाँव में एक गरीब लकड़हारा परिवार रहता था। कोई और काम न आने के कारण लकड़हारा लकड़ी काट-बेचकर अपना पेट भरता था। लोग लकड़ी खरीदकर खाना पकाने के काम में लाते थे। इसलिए वह सूख गए झाड़ खोजकर काटता था, हरे झाड़ छोड़ देता था। एक झाड़ पर बरमदेव रहते थे। बरमदेव ने एक ग्रामीण का भेस बनाकर लकड़हारे से कहा कि वह बरगद का विशाल झाड़ काटे तो बहुत-सी लकड़ियाँ मिलेंगी जिन्हें बेचकर वह मालामाल हो सकेगा। लकड़हारा बोला कि वह ऐसा नहीं करेगा। हरे-भरे बरगद के झाड़ को काटने से अनेक पक्षियों के नीड़ नष्ट हो जाएंगे। इससे अच्छा है कि वह कम खाकर गुजारा कर ले। बरमदेव ने उससे खुश होकर वरदान दिया कि तुम्हारी काटी लकड़ियों में पसीने की खुशबू रहेगी।

उस दिन के बाद से जब लकड़हारा किसी टूटे-गिरे या सूखे वृक्ष को काटता तो उसकी लकड़ी में सुगंध होती। उसने घरवाली को यह बताया तो घरवाली ने बरमदेवता की कृपा से मिला प्रसाद कहकर वे लकड़ियाँ अलग रख लीं और पुरानी लकड़ियाँ बेचकर घर का खर्च चलाती। वह रोज नहाने के बाद पीपल और आँवले के पौधों मे जल सींचती थी। उसके बाद ही खाना बनाती। फिर बरमदेव को भोग लगाने के बाद लकड़ी बेचने जाती थी।

मौसम बदला और बरसात आ गई। बाजार में सूखी लकड़ियाँ मिलना बंद हो गई। एक दिन राजभवन में पर्व मनाया जाना था। लकड़हारिन को जैसे ही यह बात पता चली, उसने बचाकर रखी सुगंधवाली लकड़ियाँ निकाली और राजभवन के निकट लकड़ी बेचने गई। रानी को खबर मिली तो उसने लकड़हारिन को महल में बुलवाकर उसकी लकड़ियों में सुगंध होने का कारण पूछा। लकड़हारिन ने बता दिया कि यह मेहनत और ईमानदारी की सुगंध है। पूरी बात जानकर रानी प्रसन्न हुई और उसने लकड़ियों का मूल्य पूछा। लकड़हारिन बोली –

भोग लगे कुछ ईश को, भूख नहीं हो शेष।
ज्यादा कछू न चाहिए, मो खों रानी लेश।।
हरे-भरे सब छोड़ के, सूखे काटे बीन।
बेच मिला जो रख लिया, बजा चौन की बीन।।
कर संतोष हुए सुखी।।

वह लकड़ी का गट्ठा महल में छोड़कर, बिना मोल लिए अपने घर आ गई।

रानी ने अब तक लकड़ी के दाम अधिक बताकर मोल-भाव करने वाली लकड़हारिनें देखी थीं जो किसी भी तरह कम से कम लकड़ी देकर अधिक से अधिक धन पाने की कोशिश करते। इस लकड़हारिन ने अधिक और सुखी लकड़ियाँ दीं। सुगन्धित लकड़ियाँ होने पर भी मोल-भाव नहीं किया और तो और पैसे मिलने की राह देखे बिना चली भी गई।

रानी ने राजा को पूरी बात बताई। राजा ने लकड़हारे और लकड़हारिन का जंगल और पेड़ों के प्रति प्रेम और समझदारी से खुश होकर दीवान से कहकर उसका पता लगवाया और लकड़ी के दाम के अलावा मुट्ठी भर मुहरें भिजवाई। लकड़हारे ने मुहरों का उपयोग कर एक तालाब खुदवाया। तालाब के चारों ओर सुगंधित लकड़ी वाले पौधे लगाकर बगीचा बना दिया। तालाब में मछलियाँ पाल लीं। लकड़हारा दंपत्ति राजा की समझदारी और उदारता के गुण गाते हुए खुशी-खुशी जीवन बिताने लगे।

एक दिन राजा का मन राज-काज से उचाट हुआ तो वह रानी को लेकर सैर करने निकला। उसने वह बगीचा और तालाब देखा तो आश्चर्य में पड़ गया कि यह किसने और कब बना लिया? उसने अपने सैनिकों से तुरंत बागबान को हाजिर करने की आज्ञा दी। सैनिक आज्ञा का पालन करने दौड़े। थोड़े देर में लकड़हारे के साथ सैनिक लौट कर आए। लकड़हारे ने राजा को प्रणाम कर कहा कि हे राजन! यह आपका ही बाग है। मैं तो इसका रखवाला मात्र हूँ। आप द्वारा दी गयी मुहरों से ही यह कार्य हो सका है। आप पधारे हम धन्य हुए। अभी कुछ कार्य शेष है इसलिए आपको सूचना नहीं दे सका।

राजा असमंजस में पड़ा कि उसने तो मुहरें दीं नहीं फिर इस काम के लिए इसे मुहरें कैसे मिलीं? रानी ने राजा को संकेत किया और वे दोनों लकड़हारे के साथ बाग में गए। तालाब के समीप एक छोटा किंतु सुंदर मंदिर निर्माणाधीन था। उसके प्रवेश द्वार पर राजचिन्ह शोभायमान था। राजा यह तो समझ गए कि यह किसी राजभक्त का कार्य है। मंदिर में उनकी इष्ट देवी की मनोहर प्रतिमा स्थापित थी और एक पत्तल में सुगंधित पुष्पहार और पूजन सामग्री रखी थी। एक स्त्री राजा-रानी की प्रतीक्षा कर रही थी। दोनों के पहुँचते ही उसने उन्हें हाथ-पैर धोने के लिए पानी दिया। राजा-रानी ने देवी पूजन किया। प्रसन्न मन होकर मंदिर से निकलते समय राजा ने मुट्ठी भर मुहरें मंदिर में चढ़ाई।

सुगंधित लकड़ी के वृक्ष और लकड़हारिन को देखकर रानी को सब प्रसंग याद हो आया। उसने राजा को बताया तो राजा आश्चर्य में पड़ गया। अब तक उसे राजा से प्राप्त धन का उपयोग खुद अपने लिए करने वाले देखे थे, राज्य कोष चुराने वाले भी देखे थे पर अपनी मेहनत से काट कर बेची गयी लकड़ी के मूल्य में प्राप्त मुहरों का उपयोग राज्य और जनता के हित में करने वाला कभी नहीं देखा था। राजा ने लकड़हारे और लकड़हारिन को बुलाकर प्रसन्नता व्यक्त की और अपने दरबार में दरबारी बनने के लिए कहा।

लकड़हारे ने हाथ जोडकर सविनय कहा, महाराज! मैं अनपढ़, मोरी मेहरारू सौई अनपढ़। हम राज-काज का जानें। हमाई जगै इतै जंगल में आय।

राजा ने कहा आज से पूरे राज्य में सुगन्धित जंगल के झाड़ लगाने का काम तुम्हारी देख-रेख में होगा। लकड़हारिन तालाब में मछलियाँ पालने के काम की देखभाल करेगी। तम दोनों हमारे खास मंत्री होंगे। तुम्हें रोज दरबार में आने की जरूरत नहीं है। इस काम के लिए नई नई योजना बनाओ और काम कराओ, तुम्हारी जरूरत के मुताबिक धन मिलता रहेगा।

लकड़हारे और लकड़हारिन ने राजा का आदेश सर झुकाकर स्वीकार कर लिया। तब से उस राज्य में जंगल, तालाब और समृद्धि बढ़ने लगी। लोग कहने लगे जंगल में मंगल है।

(साभार : आचार्य संजीव वर्मा)

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