जुलूस (उपन्यास) (आंशिक) फणीश्वरनाथ रेणु

Juloos : Phanishwar Nath Renu

फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ एक नाम, जो आंचलिक साहित्य का पर्याय बन चुका है। ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ उनकी ऐसी सशक्त एवं अनुपम कृतियाँ हैं जो आंचलिक साहित्य का मानक मानी जाती हैं। उन्हीं की साधना का सुफल है यह उपन्यास ‘जुलूस’। ‘रेणु’ का यह उपन्यास एक वृत्त-चित्र की भाँति वर्तमान जीवन, उसकी विसंगतियों और उसके सतहीपन को परत-दर-परत उघाड़ता चलता है। उल्लेखनीय है कि ‘जुलूस’ प्रान्तीय भेदभाव के सामने लगाया गया एक ऐसा अमिट प्रश्न-चिन्ह है जो पाठक को विचलित कर राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ने के लिए और अधिक प्रेरित करता है। भूमि....

पिछले कुछ वर्षों से मैं एक अद्भुत भ्रम में पड़ा हुआ हूँ। दिन-रात-सोते-बैठते, खाते-पीते-मुझे लगता है कि एक विशाल जुलूस के साथ चल रहा हूँ अविराम।
यह जुलूस कहाँ जा रहा है, ये लोग कौन हैं, कहाँ जा रहे हैं, क्या चाहते हैं-मैं कुछ नहीं जानता। इस महाकोलाहल में अपने मुँह से निकाला हुआ नारा-मुझे नहीं सुनाई पड़ता। चारों ओर एक बवण्डर मँडरा रहा है, धूल का।...
इस भीड़ से निकलकर, राजपथ के किनारे सुसज्जित ‘बालकॅनी’ में खड़ा होकर जुलूस को देखने की चेष्टा की है। किन्तु इस भीड़ से अलग होने की सामर्थ्य मुझमें नहीं। इस जुलूस में चलनेवाले नर-नारियों से-अपने आस-पास के लोगों से मेरा परिचय नहीं। लेकिन उनकी माया....ममता...मैं छिटककर अलग नहीं हो सकता !
मेरे इस उपन्यास ‘जुलूस’ पर मेरे इस अद्भुत मानसिक विकार का प्रभाव अवश्य पड़ा होगा !

फणीश्वर नाथ ‘रेणु’

जुलूस (उपन्यास) : फणीश्वरनाथ रेणु
1

आज वह ‘हल्दी चिरैया’ फिर आयी है ?
बरसात-भर यह रोज इसी तरह समय-असमय आयेगी और किसी पेड़ की डाली पर भीगती हुई या पंख सुखाती हुई सुरीले स्वर में एक लम्बी पंक्ति दुहरायेगी। संस्कृत श्लोक की कड़ी-‘का कस्य परिवेदना !’ स्पष्ट ! हू-ब-हू।...पता नहीं क्या बोलती है ! पवित्रा को अचरज होता है, यहाँ के लोग इस ‘पाखी’ का नाम नहीं जानते। पूछने पर मुँह बिदकाकर कहेंगे-पता नहीं क्या नाम है ! हल्दी-चिरैया नाम पवित्रा ने ही गढ़ लिया है।

यही एक पखेरु है जो उसके देश में नहीं होता। या होता भी हो तो पवित्रा ने कभी नहीं देखा। सचमुच, इस ‘देश’ में कुछ भी ऐसा नहीं जो पवित्रा के ‘देश’ में नहीं था। पेड़, फल, फूल, फसल, जानवर, पंछी...सिर्फ इस ‘हल्देपाखी’ को छोड़कर। ‘माछराँगा’ को यहाँ के लोग ‘मछलोकनी’ कहते हैं। पवित्रा के गाँव का-अर्थात् ‘पूर्वबंग’ का-पेंचा’ ही यहाँ का उल्लू है, यह उसने यहाँ आकर जाना। उल्लू को ‘भल्लुक’ के जैसा कोई जानवर समझती थी। लोगों के नामों में ‘लाल’, ‘प्रसाद और ‘झा’ तथा ‘नारायण’ लगा देने से क्या होता है, चेहरे तो नहीं बदलते ? लेकिन इस (नबीनगर गाँव) के सैकड़े निन्नानबे लोग ऐसे हैं जो पवित्रा की राय से सहमत नहीं। वे कहेंगे-की मुश्किल दीदी ठाकरुन।....परछाद अपने गाँव के किसी आदमी के नाम में लगा दो, देखोगी फिट ही नहीं करेगा।

-नाम के माफिक चेहरा भी होना होगा।
-‘आपना’ देश फिर ‘आपना’ देश !...पर-भूमि कैसी भी हो, आखिर पर-भूमि ही है।
गाँव बसने के बाद पवित्रा एक दिन गाँव के लोगों को समझा रही थी-हम लोगों का भाग्य अच्छा है कि इस जिले में हमें बसाया गया। यहाँ धान और पाट की खेती होती है, हम भी अपने देश में धान और पाट की खेती करते थे। यहाँ के लोग भी मछली-भात खाते हैं। गाँव-घर, बाग-बगीचे, पोखरे और नदी-सब कुछ अपने देश-जैसा...।
सूखी देहवाले हरलाल साहा ने तीखी आवाज में विरोध किया था-सी हुति पारे ना (ऐसा होना असम्भव है !)...कहाँ अपना देश और अपने देश की मिट्टी और अपने देश का चावल, और कहाँ इस अद्भुत देश का ‘आजगुबी व्यापार’।...पता नहीं तुमने क्या देखा है पोत्रादी ! यहाँ की मछली में क्या वही स्वाद है जो ‘पद्दा के इलिच’ में...?
हरलाल साहा की बात पर सभी इस तरह मुसकराये मानो वह सबके दिल की बात कह रहा हो। पवित्रा बोली थी-पूछती हूँ अपने गाँव में ‘पद्दा का इलिछ’-माछ रोज खाते थे क्या ?

-एक दिन खाये कोई या तीस दिन’। (स्वाद) तो ‘शाद’ ही है ! अपने देश की चीजों का...।
उस दिन गाँव में ट्यूबवेल गाड़ने के लिए सरकारी आदमी अपने मजदूरों को लेकर आया था। बंगाल से आये हुए शरणार्थियों के लिए कई गाँव बसा चुका था, टयूबवेल लगवा चुका था वह सरकारी कर्मचारी। इसलिए ‘पूर्वी बंगाल’ की बोली ‘कुछ-कुछ’ समझने का दावा करता था। उसे देखते ही हरलाल साहा ने आँखें टीपकर अपनी बात बन्द कर दी। सभी चुप हो गये।
किन्तु सरकारी कर्मचारी चुप नहीं रहा। उसने मुसकाकर सीधे पवित्रा से पूछा था-यह आप लोग ‘अपना देश-अपना देश’ क्या बोलते हैं ? देश का क्या मतलब ? क्या माने ?
-देश का माने आर केया होगा-देश का माने देश ! हरिधन मोड़ल को इस ट्यूबवेल गड़वाने वाले ‘खुदे मनिब’ (क्षुद्र-अधिकारी) से न जाने क्यों चिढ़ है...‘माइयाँ छापला’ देखते ही बात करने के लिए ‘खुदे मनिबों’ की जीभ सुड़सुड़ाती रहती है मानो।
-देश का माने देश तो क्या हिन्दुस्तान अपना देश नहीं है ? आप लोगों का देश नहीं है ?
-हिन्दुस्तान कैसे आपना देश होगा ?

कालाचाँद घोष चतुर नौजवान है। उसने अपनी भारी और मोटी हँसी से बात को हलका करने की चेष्टा की-हें-हें-हें-हें ! आरे बाबू ! आप देश का जो माने बूझता है आसल में लोगों का देश का माने वो नेंही है। देश का माने जैसे बाँगला देश, बिहार देश, उड़ीसा देश वैसा माफिक। हें-हें-हें-हें !
-तो प्रदेश बोलिए। प्रान्त कहिए।
छिदामदास सरकारी कर्मचारियों से बातें करने का अवसर ढूँढ़ता रहता है। उसने दाँत निपोरकर कहा-ओवर्सियेर बाबू, देश बोलिए प्रदेश बोलिए कि प्रान्त कहिए-अब तो जो है सो यही नोबीन नगर ग्राम !

सरकारी कर्मचारी भी न जाने क्यों ठठाकर हँस पड़ा था। छिदामदास की बुद्धिमानी देखकर पवित्रा मुसकरायी थी और ट्यूबवेल-फिटर की नजर शुरू से अन्त तक उसी पर गड़ी हुई थी।...जेब से बीड़ी निकालकर सभी को बाँटने के बाद सभी के मुँह के सामने ‘खच्च-खच्च’ लाइटर जलाकर बीड़ी सुलगा दिया फिटर साहब ने।
वह अपने काम पर चला गया। छिदामदास ने कहा-देखा ? फिटर साहेब को ओवर्सियर बाबू कह देने से कितना खुश हुआ ? स्साला..
सभी एक साथ अपने देश की हँसी हँसे थे जी खोलकर। पवित्रा भी हँसी थी। किन्तु बोली थी-जो भी कहो, वह आदमी ठीक ही कहता है। देश माने हिन्दुस्तान !
-दीदी ठाकरुन-देश माने हिन्दुस्तान की करे हम बुझाइया दिन ?...कैसे देश माने हिन्दुस्तान हो ? हम लोगों के गाँव का नाम है नोबीननगर और यहाँ के लोग कहते हैं पाकिस्तानी-टोला ?...आमराकी मोछलमान ?...तो हम पाकिस्तानी कैसे हुए ?
-कालाचाँद घोष की माँ वाजिब बात कहती है।

गोपाल पाइन बहुत कम बोलनेवाला आदमी है। पढ़ा-लिखा आदमी है और गाँव में स्थापित होनेवाली ‘प्रस्तावित-पाठशाला’ का उम्मीदवार मास्टर है। उसने टोका था-काला की माँ, साइनबोर्ड लगाने दो गाँव के बाहर। स्कूल चालू होने दो, तब देखना फिर कैसे लोग पाकिस्तानी टोला कहते हैं हमारे इस नोबीननगर को !

पवित्रा ने कहा था-साइनबोर्ड लगे या स्कूल खुले। गाँव का नाम पाकिस्तानी टोला ही कहेंगे-यहाँ के लोग।
-कैसे कहेंगे ? डाकघर में चिट्टी आयेगी नोबीननगर के नाम से, सरकारी रुपये आवेंगे नोबीननगर के नाम से और बोलेंगे पाकिस्तानी टोला ?
-हाँ, बोलेंगे पाकिस्तानी टोला।–पवित्रा ने कहा था।–चाहे जो कुछ भी करो, नाम पाकिस्तानी टोला ही कहेंगे।
-क्यों ?
-क्योंकि हम लोगों का देश पाकिस्तान में पड़ गया। हम लोग पाकिस्तान से आये हैं...
-इसीलिए हम लोग मोछलमान हो गये ? हम लोगों का देश ही पाकिस्तान में गया। हम लोग तो हिन्दुस्तान में आ गये।
पावित्रा बोली-नाम को लेकर आखिर होगा क्या ?
-दीदी ठाकरुन, तुम ‘पढ़वा-पण्डित’ हो। तुम्हीं ऐसी बात कहती हो ? देश को लेकर आखिर होगा क्या ? नाम को लेकर आखिर होगा क्या ? तब क्या लेकर क्या होगा ?...बोलून ?
पवित्रा कोई जवाब दे इसके पहले ही छिदामदास अपने पेट पर से गंजी हटाकर सटे हुए पेट पर हाथ फेरते हुए बोला था-‘आसल’ चीज है यह बेटा पेट !..ई साला पेट का वास्ते जो कुछ बोलना पड़े-करना पड़े।

हल्दी चिरैया फिर बोली-का कस्य परिवेदना।
सामूहिक देवस्थान (ठाकुरतला) में योगेशदास की कुमारी कन्या सन्ध्या ने शंख फूँक-‘साँझ-बाती’ की घोषणा की। सभी ने ठाकुरतला की ओर मुड़कर भक्ति-भाव से प्रणाम किया। हर मगंलवार को ठाकुरतला में कीर्तन होता है-दस बजे रात तक। ...आज तो शनिवार है।

2

नोबीननगर नहीं-नबीननगर !
न नोबीनगर न नबीननगर, इस गाँव का सही नाम है नबीनगर।
राज्य के पुनर्वास उपमन्त्री मुहम्मद इस्माइल नबी ने इस गाँव के शिलान्यास समारोह के अवसर पर बोलते हुए कहा था-यह सब-कुछ उस बापू की महिमा है कि मेरे-जैसा अदना खिदमतगार, कि जनता के इस छोटे सेवक के नाम पर आज नगर बसाये जा रहे हैं।...

इसके बाद डिप्टी मिनिस्टर नबी साहब ने वीराने को बसाने और बसे को उजाड़नेवाली बात पर एक शेर पढ़ा था। जिसपर तालियाँ बजी थीं। गाँव के अधिकांश लोगों ने उस शेर का कोई अर्थ नहीं समझा। लेकिन मंच पर बैठे हुए लोगों ने तालियाँ बजायीं। यहाँ तक की कलक्टर और एस.पी.साहब ने भी। इसलिए गाँववालों ने जरा देर से ताली बजायीं। ताली बजाने का दूसरा मौका भी आया। तब गाँववालों ने जी खोलकर सबसे पहले तालियाँ बजायीं। अपने भाषण में नबी साहब ने कहा-और दोस्तों ! यह भी बाप के नाम से मशहूर हमारे उन्हीं महात्माजी की महिमा है कि जहाँ जिना साहब के चेले गाँव उजाड़ते हैं, हिन्दुओं को बे-घरबार कर रहे हैं पाकिस्तान में-वहीं हिन्दुस्तान में दूसरा मुसलमान मगर गान्धी का अदना चेला उजड़े हुए हिन्दुओं के लिए नगर बसा रहा है....!
गाँव के बाहर सड़क पर गाँव के नाम की एक तख्ती गाड़ दी गयी-नबीनगर। लेकिन वह तख्ती एक सप्ताह भी नहीं टिक सकी। पास के गाँव के अमीर किसानों के चरवाहों ने किसी रात उसे उखाड़ फेंका।...तख्ती टाँगनेवाले लोहे के हुक-भैंस की डोरी में बाँधकर वे रोज इसी राह से गुजरते हैं। किन्तु गाँव के किसी व्यक्ति में इतना साहस नहीं कि उनसे कुछ पूछे।

गोपाल पाइन का विश्वास है कि गाँव के नाम से चिढ़कर यहाँ के अमीर किसानों ने ही नोबीननगर गाँव की तख्ती उखड़वा दी है। एक ‘पोख्ता साइनबोर्ड’ लगवाने की प्रार्थना करते हुए उसने दो आवेदनपत्र भेजे। फिर उसके बाद से रिमाइण्डर पर रिमाइण्डर भेजता जा रहा है। न कोई जवाब आता है और न कोई उस तख्ती और पोख्ता साइनबोर्ड की चिन्ता ही करता है इस गाँव में। गाँव के नाम के बारे में कोई सोचता भी नहीं कुछ कि यदि एक बार बिगड़ गया तो सदा के लिए उस बिगड़े हुए नामवाले गाँव में ही रहना पड़ेगा।

गोपाल पाइन अपने पेट की बात किसी से नहीं कहेगा। वह पेट काटकर खुद साइनबोर्ड बनवायेगा। सिमेण्ट और कंक्रीट के बोर्ड पर वह नाम खुदवाकर रहेगा। एक बार स्कूल तो खुल जाये !
मंगलवार की साँझ में ठाकुरतला नामक झोंपड़े में सभी स्त्री-पुरुष जमा होते हैं और कीर्तन गाते हैं। कीर्तन के बाद गाँव की समस्याओं पर, व्यक्ति की समस्याओं पर बातें होती हैं। तब औरतें उठकर अपने-अपने घरों में चली जाती हैं। सिर्फ पवित्रा रहती है। रहती है, कहना ठीक नहीं हुआ। पवित्रा ही उस बैठकी का संचालन करती है। जिस दिन पवित्रा नहीं रहती है उस दिन बैठकी में ये लोग, यहाँ के निवासी-यहाँ की मरी हुई मिट्टी और कहाँ के सूरज-चाँद-तारों तक की निन्दा करते हैं अघाकर।....ए देशेर सब किसू आजगूषी !

पवित्रा को बस इसी एक बात का बहुत गहरा दुख है-गाँव के लोगों का यहाँ की मिट्टी से मोह क्यों नहीं हो रहा ! वह कौन-सा दरवाजा है इनके दिल का जिसे खोलने के लिए पवित्रा कुण्डी खटकावे ? किस दरवाजे की...?
राखाल विश्वास का लड़का अन्दू इस तरह मुँह लटकाये क्यों आ रहा है ? पवित्रा ने हाथ की सिलाई से निगाह उठाकर देखा, गोपाल पाइन और छिदामदास भी आ रहे हैं।...कुछ हुआ कहीं !
अन्दू आकर चुपचाप खड़ा हो गया।
-की ?
गोपाल पाइन बोला-आमि जा बोल्सिलाय !....कहो न, मुँह क्या देखता है, अन्दू ! चौधरी बाबू के बेटा ने तुमसे जो कुछ भी कहा है, साफ-साफ कह दे दीदी ठाकरुन को। डरना मत।
छिदामदास ने कहा-उसके मुँह से सुनने की जरूरत नहीं। ऐसी बातें तो यहाँ के लोग दिन-रात करते हैं।

गोपाल पाइन ने कहा-बंगाली-कंगाली कहे, हम सह लेंगे। जब कंगाल हो गये हैं तो लोग कंगाल ही कहेंगे। पाकिस्तानी बोलते हैं-यह भी सहा जा सकता है। लेकिन यह सरासर गोमांस खाने की बात कहना-इसको कैसे सहा जा सकता है ? आप ही लोग विचार कीजिए।...दीदी ठाकरुन, आप तो जानती हैं कि मैं छोटी-छोटी बातों पर ध्यान नहीं दिया करता।

गोपाल पाइन जरा कम सुनता है। इसलिए रसिकता करते हुए अपनी बधिरता को इसी बात से गौरव प्रदान करता है-मैं छोटी बातें नहीं सुनता, काम में लेता ही नहीं।
-किसने क्या कहा ?
-चौधरी बाबू के बेटा ने।
-क्या कहा ?

-कहा कि तुम लोग गोमांस खाते हो। मुर्गी खाते हो !
-तुम चौधरी बाबू के बेटा के पास किस लिए गये थे ?
-गाँव में बिस्कुट बेचने गया तो तौधरी बाबू के लड़के ने सभी से कहा कि इसके हाथ का बिस्कुट खाओगे ? ये लोग गोमांस खाते हैं। तिसपर मैंने टोका तो बोले-हाँ-हाँ, हम लोगों को सब पता है। सभी को भागते समय गोमांस खिलाया गया है पाकिस्तान में। और एक बार जो चख लिया है तो वह खाये बगैर रहेगा ?
पवित्रा कुछ सोचने लगी। फिर बोली-चौधरी का बेटा दुकान-उकान तो नहीं करता है ?
गोपाल पाइन ने कहा-इससे दुकान का क्या सम्बन्ध ?
अन्दू ने कहा-दुकान करता है तभी तो ऐसा कहता है, दीदी ठाकरुन। उसकी दुकान का सड़ा हुआ बिस्कुट कोई छूता नहीं। इसी से तो...।
पवित्रा ने मुसकराकर गोपाल पाइन की ओर देखा। फिर अन्दू से बोली-जब तू सब कुछ समझता ही है तो रोने क्यों आया ?
-सोचा जो दीदी ठाकरुन को रिपोर्ट कर दूँ।
गोपाल पाइन की दृष्टि डाक-पियन पर पड़ी और वह आगे बढ़कर अगुवानी करने के लिए पहुँचा। सारे गाँव की चिट्ठी उसके हाथ में देने में डाक-पियन ने शुरू-शुरू में आनाकानी की थी। किन्तु पवित्रा ने कहा था कि सारे गाँव की चिट्ठी गोपाल पाइन ही पढ़ता-लिखता है। उसके जिम्मे यही काम है। इसलिए उसके हाथ गाँव-भर की चिट्ठी डाकिया जहाँ कहीं भी दे देता है-हाट में, घाट में, बाट में।

किन्तु आज बीच गाँव में डाकिये से गोपाल पाइन लड़ पड़ा। बाँग्ला और अँगरेजी में पता लिखे हुए पत्रों पर अपनी सुविधा के लिए कैथी लिपि में पेन्सिल से ‘पाकिस्तानी टोला’ लिख दिया करता है डाकिया। गोपाल पाइन हिन्दी नहीं जानता तो क्या हुआ, कैथी लिपि में लिखे हुए इस शब्द को पढ़ने में उसे कोई कठिनाई नहीं हुई। उसने डाकिया से कहा-पियोन साहेब, यह क्या बात है। ‘इंग्रेजी’ और बाँग्ला’ में साफ-साफ लिखा हुआ है नोबीननगर और आप उसके ऊपर से ‘अपाना-फरमान’ लिखा है-पाकिस्तानी टोला ? आप ही लोग माने सरकारी ‘कम्मोचारी’ होकर ऐसा कीजिएगा तो यह राज कैसे चलेगा ? एँ ! बोलिए ? यहाँ मिनिस्टर साहब आये थे-आपको मालूम है ? गाँव का क्या नाम हुआ यह भी मालूम है ? तख्ती लटका था, यह भी मालूम है...?
डाक-पियन ने झल्लाकर कहा-चलिए-चलिए, सब कुछ मालूम है। हम ‘दू अच्छर’ कैथी में पाकिस्तानी-
टोला लिख दिया तो आप लड़ाई करते हैं और उधर दुनिया-भर के लोग पाकिस्तानिया-टोला कहते हैं। आप किससे-किससे लड़ते चलिएगा ?...लीजिए मनीआर्डर तामील कीजिए।
-किसका मनीआर्डर है ?
-श्रीमती पवित्रा। पचास रुपये।

गोपाल पाइन ने भेजनेवाले का नाम और पता पढ़ा-हरिप्रसाद जादव, विलेज ऐण्ड पोस्ट : सुक्की बेहाली।...देखें कूपन में क्या लिखा है ? अरे बाबा, यह तो वही ‘कैथी ना क्या’ है ?
पवित्रा के कहने पर डाकिया ने पढ़कर सुनाया-आगे आपको मालूम हो कि उस दिन हम आपके गाँव में गये। आपको देखकर और आपके गाँव की बेअवस्था को देखते हुए हम अपनी ओर से आपको यह मो. पचास रुपये जिसका निस्फ पचीस रुपया होता है, भेजा। इसको आप चाहे जिस काम में खरच करें। आपका शुभचिन्तक-एच.पी. जादव।
-कौन है यह हरिप्रसाद जादब ? पवित्रा ने सभी के चेहरे की ओर बारी-बारी से देखकर पूछा।
गाँव-भर के बैठे-ठाले लोग जमा हो गये।
कालाचाँद ने कहा-दीदी ठाकरुन, कोई भी हो यह हरिप्रसाद जादब, आपको इससे क्या ? गाँव की ‘बेअवस्था’ देखकर किसी ने पचास ‘टाका’ भेज दिया है। आप ‘साइन करके ले लीजिए।
पवित्रा ने मुँह बिदकाकर कहा-वाह, जानूँ नहीं, पहचानूँ नहीं-साइन करके रुपया ले लूँ ?....‘बेअवस्था’ माने क्या ?
-बेअवस्था माने खराब अवस्था। है न पियोन साहेब ?

डाक-पियन ने खैनी थूकते हुए कहा-बेअवस्था माने खराब अवस्था ? यह कौन सिखाइस है आपको ? अरे बेअवस्था माने खूब बढ़िया ‘इन्तजाम-बाद’।
पवित्रा ने डाक-पियन की ओर असहाय दृष्टि से देखकर पूछा-ये ‘इन्तजाम-बाद’ क्या !...ओ ! व्यवस्था तो नहीं ?
डाक पियन का खिसियाया हुआ मन जरा पसीज गया। बोला-देखिए। रुपया छुड़ाने में कोई हर्ज नहीं है। हरिप्रसाद जादब को सभी जानते हैं। कीर्तन के पीछे पागल रहता है। थोड़ी बदनामी भी है तो इसको लेकर आप क्या कीजिएगा। चाल चलन उसका ठीक नहीं है तो क्या हुआ-कीर्तन का पक्का भगत है। पैर में घुँघरू बाँधकर नाचता है। नाचते-नाचते बेहोश हो जाता है।

कालाचाँद घोष कुछ याद करने की कोशिश करते हुए कहता है-कीर्तन करता है ? नाचता है ? तब हम समझ गये कि कौन है यह हरिप्रसाद जादब। एक दिन हम लोगों के कीर्तन में भी वह आया था। दीदी ठाकरुन, वह जो घोड़ा पर चढ़कर आया था, पान बहुत खाता है-वही।...उसने जरूर ही कीर्तन पार्टी के लिए रुपया भेजा होगा।
पवित्रा कुछ सोचकर बोली-ना बाबा, मैं मनीआर्डर नहीं छुड़ाऊँगी।...आप लौटा दीजिए, पोस्टमैन साहब।
पाइन ने कहा- हो सकता है, स्कूल के लिए चन्दा भेजा हो भले आदमी ने। मनीआर्डर लौटाना ठीक नहीं जँचता।
पवित्रा ने किसी की राय पर ध्यान नहीं दिया।
पवित्रा ने याद करने की चेष्टा की-घोड़ा पर चढ़कर कौन आया था, कब ? पान बहुत खाता था ? होगा कोई। लेकिन उसने मेरे नाम से ही रुपये क्यों भेजे ?

मनीआर्डर के तामील करने और वापस करने के झमले में गोपाल पाइन आज की डाक से आये हुए पत्रों की बात भूल गया था। उसने एक-एक चिट्ठी का पता-ठिकाना पढ़ना शुरू किया। एक सरकारी लिफाफे पर अपना नाम देखकर उसका कलेजा धड़क उठा था। अचानक वह चीख पड़ा-दीदी ठाकरुन !!स्कू...ल!!...हो गया...स्कूल हो गया। मेरा काम भी हो गया।...लेकिन..बाँग्ला मास्टर काहे ? हम ‘इंग्रेजी’ भी जानते हैं। हमको खाली बाँग्ला टीचर काहे...। हो गया, स्कूल मंजूर हो गया-सभी भाई-बहन सुन लीजिए !

पवित्रा को अचरज होता है, बहुत कम बोलनेवाला, कम सुननेवाला, सोनेवाला यह गोपाल पाइन इधर इतना 'बकबक' क्यों करने लगा है ? स्कूल तो होना ही था। इस तरह चिल्लाने की क्या जरूरत?

पवित्रा ने गोपाल पाइन के सारे उत्साह को अचानक बुझा दिया मानो- पाइन मॅशाय, स्कूल तो हुआ मगर आपके पोख्ता - साइनबोर्ड का कुछ हुआ?... स्कूल का नाम पाकिस्तानी स्कूल तो नहीं रख देंगे अधिकारी लोग?

गोपाल पाइन ने ध्यान से पत्र को पढ़ते हुए कहा – कर्ता लोगों की तिगति देखकर कुछ ऐसा ही लगता है। ... आपने ठीक ही कहा है दीदी ठाकरुन देखिए, लिखा है - गोड़ियर गाँव के पाकिस्तानी टोला में स्कूल खोलने के प्रस्ताव पर विचार करते हुए...

इससे आगे नहीं पढ़ सका गोपाल पाइन । उसका गला भर आया- सचमुच, यह 'पाकिस्तानी टोला' नाम अब कभी नहीं मिटने का । गोड़ियर...गोड़ियर... चूल्हे में जाए यह गोड़ियर गाँव!

- नहीं पाइन मास्टर ! ऐसा नहीं कहते। सभी गाँव फूलें - फलें । पवित्रा ने समझाया - गोड़ियर गाँव के साथ आपका नोबीननगर भी चूल्हे में जो चला जाएगा!

- हम लोगों का नोबीननगर भी गोड़ियर गाँव में!

- नोबीननगर नेंई बाबा - नबीनगर बोलो! पाकिस्तानी टोलार नामे स्कूल का रजिस्टर खोलो! बोलो हरि बोलो !!

कालाचाँद इस कीर्तन पर गोपाल पाइन को छोड़कर सभी हँसे ! वह रह-रहकर एक ही बात बोलता - साला! गोड़ियर गाँव का पाकिस्तानी टोला !! गोड़ियर !....

3

गोड़ियर गाँव!

पन्द्रह घर मैथिल, चार परिवार राजपूतों के यह है गोड़ियर गाँव का बाबू टोला। बीस घर ग्वाले, आठ धानुक, तेरह घर गोढ़ी - गोड़ियर गाँव का असल नाम इसी गोढ़ी टोला से हुआ - जहाँ गोढ़ी (मछली मारनेवाली जाति) लोग रहते हैं - गोढ़िहार । गोढ़िहार से गोड़ियर !

गोड़ियर गाँव का सबसे सुखी, सम्पन्न और शिक्षित परिवार गोढ़ी का ही है। तालेवर गोढ़ी के यहाँ रुपया गन्ध करता है। अर्थात् सूखी हुई मछलियों (सुगंठी) की तरह जमे हुए रुपयों से गन्ध निकलती है। तालेवर गोढ़ी का बड़ा बेटा रामजी गोढ़ी मैट्रिक तक पढ़ा हुआ है। पहले पाट का कारोबार करता था। आजकल गाँव में आटा - घानी का एंजिन चलाता है। दिन-भर उसक मशीन चलती रहती है । चैत महीने में बोलनेवाली उस चिड़िया की तरह एक बँधे हुए ताल पर तु-तु-तु-तु-तु-तु आवाज सारे इलाके में प्रतिध्वनित होती रहती है। लोग कहते हैं- रामजी अब अररिया- कोर्ट शहर में भी मिल बैठावेगा।

तालेवर गोढ़ी का सबसे छोटा यानी दूसरा लड़का लहेरियासराय में डॉक्टरी पढ़ता है—कृष्णजी गोड़े। कृष्णजी ने मैट्रिक की परीक्षा में विश्वविद्यालय भर में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया था। इसलिए जिले भर में उसके नाम की धूम मच गई थी - कृष्णजी गोड़े या गोरे ... गौड़ । जिला मल्लाह संघ की ओर से इस तेजस्वी विद्यार्थी को सम्मान पत्र देते हुए कुलदीप माँझी मुख्तार साहब ने कहा था- मुझे विश्वास है हमारी जाति क यह तेजस्वी विद्यार्थी प्रान्त में ही नहीं, सारे भारत में हम लोगों का मुख उज्ज्वल करेगा; धन्य है वह माता ... धन्य है वह गाँव ...!

पिछले साल कुलदीप माँझी की बड़ी कन्या का शुभविवाह कृष्णजी के साथ धूमधाम से अररिया कोर्ट शहर में हुआ। बड़े-बड़े हाकिम-हुक्काम वर- वधू को आशीर्वाद देने के लिए आए थे। निमंत्रण पत्र में मुख्तार साहब ने खास तौर से लिखवाया था - स्मरण रहे कि इसी तेजस्वी कृष्णजी ने 1962 ई. में उत्तरांचल विश्वविद्यालय की प्रवेशिका परीक्षा में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया...।

ब्राह्मण टोली में चौधरी - परिवार और राजपूतों में गिन - गूँथकर एक घर बाबू साहब। बाकी लोग यजमानी, पहलवानी, गाड़ीवानी, घोड़ा लदाई, दुकान, खेती-मजदूरी और चोरी करके जीवन-यापन करते हैं ।

चौधरी के घर की ही सारी सम्पत्ति धीरे-धीरे तालेवर गोढ़ी के घर में चली गई है। जमीन, पोखरे, बाग-बगीचे और मवेशी - बड़े मुकदमे में सभी रेहन- बन्धकी गिरवी के रूप में तालेवर गोढ़ी ने लिखवा लिया | ... पंडित रामचन्द्र चौधरी अब चार पेड़ आम और दो गाछ कटहल अगोरकर बैठे हैं। परिवार की सम्पत्ति को स्वाहा करनेवाला बड़ा बेटा तेल- नून की दुकान चलाता है। मझला अररिया कोर्ट में श्याम सुन्दर बाबू मुख्तार के घर रसोई -पानी करता है । मझला घर से लापता है। पंडित रामचन्द्र चौधरी जिस दिन भंग ज्यादा पी लेते हैं उस दिन चाणक्य नीति से शुरू करके हितोपदेश और पंचतंत्र के श्लोकों को दुहराकर अपने ज्येष्ठ पुत्र कामदेव चौधरी को कोसते हैं। ... कामदेव चौधरी नाम रखते समय ही मेरा माथा ठनका था। किन्तु ज्योतिषी भाई को ककारवर्ण में कामदेव ही सूझा। सो कामदेव का साला एक दिन ऐसा प्रबल होगा - किसे मालूम था! कानी मुसहरनी - छौंड़ी (लड़की) - जिसको देखने पर पानी भी नहीं रुचे - उसमें न जाने कौन रूप झरते देखा मेरे ब्राह्मणपुत्र ने - हो राम, हो राम ! बलात्कार और हत्या ! खूब मुँह उज्ज्वल किया मेरे पुत्र ने । और उधर वह तालेवर गोढ़ी का बेटा रामजी गोढ़ी है- मिट्टी छूता है तो सोना हो जाता है । पूर्वजन्म में खूब पुण्य किया था तालेवर गोढ़ी ने - शिवाला बनाकर शिवलिंग स्थापित करनेवाला है। हरिद्वार, ऋषिकेश से पिछले ही साल पुण्य करके लौटा है, इस बार तीर्थ-स्पेशल ट्रेन सभी धाम का दर्शन करने जा रहा है! हो राम, हो राम!!...

राजपूतों के चार परिवारों में एक का मुसम्माती कारबार है। अर्थात् घर- मालकिन बेवा है, नाबालिग लड़का भी नहीं कोई - एक पाँच साल की लड़की है जिसे वह धोती-कुरता पहनाकर रखती है। नाम भी मर्दाना रखा है सम्मात - कुलदीप ...कुलदीपिया... दीपा !

बाकी तीन में एक-ठाकुर रणवीर सिंह इलाके के नामी पहलवान रह चुके हैं। अस्सी वर्ष की उम्र में भी एक सेर चना-चबेना फाँककर पानी पीते हैं। गठिया के कारण छाने हु घोड़े की तरह लाठी टेकते हुए डगमगाकर चलते हैं। पाँचों लड़के शहर में कमाते हैं। हर महीने दस रुपये के हिसाब से पाँच मनीआर्डर आते हैं ठाकुर साहब के नाम । और इन मनीआर्डरों के आते पाँच पुत्रवधुओं से उनका वाग्युद्ध शुरू हो जाता है। सारे गोड़ियर गाँव में ठाकुर साहब की पाँचों पतोहुओं की बहादुरी की चर्चा दिन-रात होती रहती है। दिन-दहाड़े भूले-भटके छागल और बकरे को तरकारी काटनेवाले हँसुआ से ऐसी सफाई से साफ कर देती हैं कि बकरे की मेंमियाहट भी नहीं निकल सके कंठ से !

दो घर राजपूत, सौतेले भाई हैं- दोनों खेती करने के अलावा झूठी गवाही देते हैं और लठैत का काम करते हैं।

बीस घर ग्वाले हैं। किन्तु न किसी के पास एक भैंस है और न गाय । खेती-मजदूरी के सिवा और क्या कर सकते हैं, बेचारे ! किसी के पास एक धूर भी जमीन नहीं ।

धानुकों का भी वही हाल है। गोड़ियर गाँव की लक्ष्मी तालेवर गोढ़ी के घर विराजती है। सभी टोले और सभी जाति के लोगों को तालेवर गोढ़ी की कृपादृष्टि पर भरोसा रहता है। इसलिए उसके दालान पर गाँव और इलाके- भर के लोग 'मुँहलगुआगिरी' करने के लिए जमा होते हैं। रामजी को आटा- घानी से कभी छुट्टी मिलती नहीं। फिर उसके पास 'दरबार लगाने' से क्या फायदा! तिजोरी की चाबी तालेवर गोढ़ी के पास रहती है। बिना बाप से पूछे वह किसी को एक नया पैसा' भी नहीं दे सकता।... चाबी ! मरते समय ही वह किसी को देगा। क्योंकि हर बात के पहले तालेवर गोढ़ी यह कहना नहीं भूलता - मेहनत का पैसा! मेहनत करो और पैसा कमाओ, फिर देखो वह धन जो कभी घटे! मेरे घर में कोई बाढ़ का पैसा नहीं और न बाढ़ में आई हुई मछलियों के पैसे हैं। अग्रिम नगद भुगतान देकर जमींदारों से जल कर की बन्दोबस्ती लेता था। तिस पर गाँव के बाबू लोगों के 'जोर जुलुम' । सिपाहियों को घाट पर भेजकर रोज एक पसेरी मछली 'तलवाना' में ही तलब करनेवाले ऐसे मालिकों के जल-करों से मछली, काछू (कच्छप), केंकड़ा, घोंघी निकालकर, पुरइन के पात और कमलगट्टा बेचकर मैंने किस तरह पाई-पाई बटोरा है - इसे देखा है इलाके के लोगों ने। ... रात में पहले सिर्फ चोरी होती थी जल-करों की, बाद में डकैती करने लगे लोग। दल बाँधकर भाला- फरसा लेकर आते और एक ही रात में जलकर साफ ! मार-पीट और मामले-मुकदमों के झंझट - फाव में !!... तो, हमारा कहना है कि मेहनत करो और बाबा भोलेनाथ पर भरोसा रखो - सब कारज सिद्ध !!

तालेवर गोढ़ी के दरबार में भीड़ लगी हुई है । गाँव-भर के मुँहलगुवे चापलूसों को आज बताने लायक एक बात मिली है । धानुक टोली का मोहन दफादार चूँकि सरकारी आदमी है इसलिए वह गैर-कानूनी बातें नहीं करता कभी। मोहन दफादार ने कहा- गाँव के लोग दस साल से चिल्ला रहे थे स्कूल स्कूल, मगर स्कूल के नाम पर एक चटसार भी नहीं खुला कभी । उधर देखिए–पाकिस्थनियाँ सबको आए हुए छह महीने भी नहीं हुए हैं, मिडल स्कूल खोलने का औडर पास हो गया।

सभी ने एक ही साथ अचरज से आँखें फाड़ते हुए पूछा- क्या...या...या? स्कूल? पाकिस्थनियाँ टोला में?

इसके बाद थोड़ी देर खामोशी छाई रही। सभी की निगाहें तालेवर गोढ़ी पर जा अटकीं । तालेवर गोढ़ी ने हाथ की 'सुमिरनी' पर 'सतनाम - सहसर नाम' आदि मंत्र कहकर विराम दिया। फिर खखारकर झोली से हाथ निकालकर बोला-क्या हुआ?

-स्कूल खुल गया, पाकिस्थनियाँ टोली में । मिडल स्कूल।

-मिडल ही क्यों, हाई स्कूल भी खुल सकता है। तालेवर गोढ़ी ने निर्विकार भाव से कहा- जो सचमुच अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं, सरकार उनके लिए स्कूल जरूर खोलेगी। इसमें अचरज करने की क्या बात है?

-हम लोगों का दर्खास्त दस साल से खटाई में... |

- क्या बात करते हो बेंगाईदास ! दस साल से दर्खास्त खटाई में फूलने किसने दिया? गाँववालों ने ही तो । जब जाँच में अफसर साहब आए तो सभ रामजी के ऊपर सारी जिम्मेवारी फेंक दी - स्कूल की बात जानें रामजी बाबू!...रामजी बाबू को मुसम्मात का बेटा समझा गाँववालों ने। चलो ——परसिडंट' बना दिया बाबू को, बाबू फूलकर 'फोकचामछली' (बॉल फिश) हो गए और चन्दा में कड़कड़ाकर 'नम्बरी - नोट' गिन देंगे । ... वह गुड़ नहीं जो चींटी खाए ! मेहनत करो! मेहनत का फल चखोगे तो बूझोगे ।

- वाजिब बात, वाजिब बात !

- सही कहते हैं आप।

- असले कहते हैं।

- हाँ भाई, बात तो तालेवर भाई साढ़े सोलह आने सही कहते हैं।

तालेवर गोढ़ी की वाजिब बात सुनकर सभी के चेहरे मुरझा गए ।... आज बुढ़वा खखुवाया हुआ है शायद ? आज कोई काम बनेगा नहीं ।

तालेवर गोढ़ी ने लोगों के मुरझाए हुए चेहरों को फिर खिला दिया। बोले— भैया, तुम लोग कहाँ हो? पाकिस्थनियाँ सब बसेगा? बस सकेगा? बसने का होता तो ये जहाँ बसे हुए थे वहाँ से भागते ही क्यों?

दोनों सौतेले भाई जयराम सिंघ और रामजय सिंघ आजकल तालेवर गोढ़ी के बिना पैसा के लठैत हैं। जयराम सिंघ बोला - जहाँ-जहाँ कोलोनी साया वहाँ जाकर देखिए। ई बंगलिया सब देखने में निबोलिया' लगते हैं। लेकिन भीतर से बड़ा 'मारखु' होते हैं। रातोंरात सिमेंट- लोहा-लक्कड़ बेचकर गाँव के गाँव-परेट (अर्थात् भाग गए ) । सिसुआ में, महिचन्दा में - सब जगह लोनी का यही हाल हुआ।

- कामचोर हैं सब ।

- फैसन देखा है ?

- साला, जनानी भी खड़ाऊँ पहनकर चलेगी । धरती पर पैर नहीं देगी ।

- धरती पर पैर कैसे दे ? सरकार बहादुर का रुपया है - घर की मुर्गी है चाहे दाल बनाओ...!

इस बार तालेवर गोढ़ी फिर खखुवाया- अरे, सरकार बहादुर ! अब सरकार बहादुर कहाँ? अब कंगरेस बहादुर कहो। अपना राज है-मन का मौज है। नेहरू जी को लगता है क्या - रुपया खर्च होता है हो। मरेगी पबलिक ।

इस बार मोहन दफादार को तालेवर गोढ़ी की बात को काटने का अवसर मिला- नेहरू जी को काहे दोख देते हैं? और सरकार का ही क्या कसूर है?

तालेवर गोढ़ी आज डरा नहीं । उसने बात को सिर्फ पलट दिया - अजी, जी को कौन 'ख' देता है! सब कसूर है ई 'चोरवा' सबका ।

- चोरवा ?

तालेवर गोढ़ी स्थानीय काँग्रेसियों को 'चोरवा' कहता है। जब मोहन फादार ने पूछ दिया तो बात के रुख को फिर मोड़कर जवाब देना होगा- चोरवा माने जो लोग सरकारी रुपये इस तरह धोखा देकर ले भागते हैं उनको क्या कहोगे?

- ओ !

तालेवर गोढ़ी आज कोई राजनीतिक बात नहीं करना चाहता। वह शुरू से ही प्रसंग को बदलना चाहता था। लेकिन मुँह से दो बातें निकल ही गईं। अब कहीं जो मोहना दफादार जाकर लगा दे थाना में तो हुआ - मुफ्त में एक नम्बरी... ।

तालेवर गोढ़ी ठाकुर रणवीर सिंह पहलवान से बीस बरस छोटा है तो क्या हुआ - साठा पर पाठा है। ऐसे अवसरों पर औरतों से सम्बन्धित कोई गप्प शुरू कर देता है। हाथ किन्तु सुमरनी पर ही रहता है - छाजा-बाजा केश - तीन बंगाला देश । तो, क्या सभी पाकिस्थनियाँ औरतों के केश एड़ी तक लम्बे हैं!

कुताय धानुक ने कहा- केश एड़ी तक तो नहीं, पर केश सभी को हैं । देखने 'जोग' केश... ।

मुँहलगुआ-गोष्ठी हठात् चौंक उठी- पंडित रामचन्द्र चौधरी !.. चौधरी !! तालेवर गोढ़ी ने उठकर प्रणाम किया-

- गोड़ लगता हूँ चौधरी जी ।

- परनाम! परनाम!!

- जीयs जीयs जीयs...

पंडित रामचन्द्र चौधरी ने बारी-बारी से सभी को आशीर्वाद दिया और भरी दृष्टि से एक-एक की ओर देखा । ... सिर्फ पाँच वर्ष ! बस इतने ही दिनों में क्या से क्या हो गया। ये सभी मुँहलगुए चौधरी के दरबार के हैं। बड़े सभी चौधरी के गवाह थे । मोहन दफादार भी। खूब लूटा इन लोगों ने मिलकर चौधरी को ...' गुड़ पर मक्खी दौड़ल जाय !

चौधरी ने कहा- कहाँ की बात हो रही थी?

- इसी पाकिस्थानी टोला की । कोलोनी में स्कूल खोलने का औडर पास हो गया।

- यदि स्कूल का पैसा खाकर बंगलिया सब नहीं भागे तो मेरा नाम रामचन्द्र चौधरी नहीं, कुकुरचन्द्र चौधरी कहना। जितने निठल्ले और कामचोर लोग थे सब रिफूजी हो गए हैं। मगर पंजाबी - रिफूजी ऐसे नहीं । पटना में वीशन रोड के बगल में लौलोसेन के सामने एक पंजाबी - रिफूजी की पकौड़ी की दुकान थी । बालिस्टर साहब के बासा से सटे हुए ही । बूढ़ा - बूढ़ी दिन-रात पकौड़ी और घुघनी बेचते - जब हम लोग पहली बार गए थे। और जब मुकदमा का जजमिंट सुनने गए तो देखा कि न पकौड़ी है न पकौड़ी की दुकान और न पकड़ी बनानेवाले बूढ़े - बूढ़ी.... ?

- कहाँ चले गए सब ? सरकारी कर्जा खाकर भाग गए ?

- नहीं भाई, वे क्यों भागेंगे? भागें ये बंगाली - रिफूजी । अजी, क्या बतलावें । देखकर दंग रह जाना पड़ा। कहाँ वह टीन की छत्ती और कहाँ तीन जिला ब्लिडिंग सुनोगे, किसकी ब्लिडिंग ... ?

- ब्लिडिंग क्या?

- ब्लिडिंग माने आलीशान पोख्ता मकान! - मोहन दफादार ने पूछनेवाले को समझा दिया ।

जयराम सिंह ने समझ लिया किसका मकान होगा। बोला- वही पकौड़ी बेचनेवाले की ब्लिडिंग होगी । है न चौधरी मौसा !

- तुमने ठीक समझा है। अब सोचो कि कहाँ पंजाबी - रिफूजी और कहाँ बंगाली-रिफूजी!

मोहन दफादार ने भी ताईद की - चौधरी जी ठीक कहते हैं। मेहनत के भगता है और दिन-भर एक जगह झुंड बाँधकर बैठे-बैठे लोग बीड़ी धूकते हैं और हमेशा कचर पचर करके न जाने क्या-क्या बोलते रहते हैं - और 'सालार बेटा साला' सभी को कहेंगे।

चौधरी बोले-कल का किस्सा बतलाता हूँ। एक बंगलिया छौंड़ा फेरी करने के लिए गाँव पर आया। तो, जैसा कि बच्चे सब कहते हैं, कहने लगे - 'दाल पकाया भात पकाया परवल की तरकारी - मीन मारकर भोग लगावे अधम जात बंगाली ।' कि बस, उस रत्ती भर लौंडे को यह छोटी-सी बात इस सरह लगी कि आँखें लाल करके दाँत कटकटाने लगा और अपनी भाषा में बच्चों को गाली देने लगा।

- क्या कहा? सालार बेटा साला?

- नहीं जी, उसने तो समझा कि यहाँ हमारी भाषा समझनेवाला कोई है नहीं ।... यहाँ सारी उम्र पूरब - बंगाल में ही कटी है। उसने सालार बेटा साला नहीं कहा- क्योंकि साला तो जैसे बिहार में, वैसे बंगाल में । साला कहने से तो सभी समझेंगे। उसने कहा- असब्बो, जोंगली, खोट्टा...!!

तालेवर गोढ़ी की उँगली सुमरनी पर चल रही थी। उसने 'सतनाम सहसर नाम' कहकर जाप में विराम दिया। पूछा- असब्बो तो बहुत बुरा गाली मालूम होता है। पंडित जी ?

चौधरी जी ने कहा- ऐसा-वैसा खराब नहीं। असब्बो माने असभ्य, जोंगली माने जंगली, खोटा माने राड़ - बदमाश । 'साला- हरामजादा' तो व्यक्तिगत-गाली है। लेकिन ये गालियाँ ऐसी हैं कि एक को दीजिए तो सारे गाँव-टोला समाज पर पड़े।

- हह, तब तो बड़ा 'शब्दभेदी' गाली जानते हैं ये लोग! - तालेवर गोढ़ी ने अपने पोपले मुँह को संकुचित करके कहा।

–तालेवर बाबू, अभी किस्सा खतम कहाँ हुआ है! जब कामदेव ने उसक टोका तो कहने लगा-हाम को कुछ बोलेगा तो हाम हांगर-इस्टराइक करेगा तुम्हारा घर पर।

-इतनी बड़ी धमकी उस लौंडे ने दी ?

तालेवर गोढ़ी को फिर पूछना पड़ा - हांगर क्या?

मोहन दफादार ने इस बार अर्थ नहीं समझाया। पंडित जी ने ही कहा-अनशन ।

- अनशन क्या?

- बिना खाए- पीये मर जाना। यह तो आत्महत्या के बराबर है। बिना सरकारी- परमिशन से कोई हंगर - इस्टरायक नहीं कर सकता। महात्मा जी भी जब करते थे तो पहले सरकार से हुक्म ले लेते थे।

उस दिन जब सभी उठकर चले गए तो तालेवर गोढ़ी ने जयराम सिंघ से एकान्त में पूछा- तुम कोलोनी में गए हो कभी?

- गया तो हूँ ।

-कैसे लोग हैं? तुमने किसी से दोस्ती नहीं की अब तक ?

- जयराम सिंघ इस प्रश्न का 'भीतरी मतलब' समझता है। तालेवर मालिक जानना चाहते हैं कि कोई लठैत-वठैत या गुंडा - बदमाश कोलोनी में है या नहीं।

जयराम सिंघ ने बड़े-बड़े दरबारों में काम किया है। इसलिए ऐसे अवसर पर क्या कहना चाहिए, जानता है। उसने कहा- पाकिस्तानी हो या हिन्दुस्तानी आदमी हर किस्म के होते हैं और सभी जगह होते हैं।

तालेवर गोढ़ी ने जयराम सिंघ को एक रुपया दिया - गाँजा की खुराकी ।

- और केश क्या सचमुच एड़ी तक होता है बंगालिनों का?

- मालिक, ये भी कोई बंगाली हैं । झर बंगाली हैं सब । देखने में न किसी मुँह किसी की । 'अरजल-खरजल' सब हैं।

जयराम सिंघ को अचरज हुआ - आज बूढ़े ने दो-दो बार बंगालिन के एड़ी तक लम्बे केश के बारे में पूछा, क्यों पूछा?... छाजा-बाजा - केश, तीन बंगाला देश !

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छाजा बाजा...!

बाजे में बाजा एक खोल और बंगला देश की सारंगी - एक हाथ की । और उसी पर जब 'गान' करने लगते हैं ये तो कॉलोनी के बाहर सड़क पर गोड़ियर गाँव के एकाध रसिक ठिठककर सदा खड़े हो रहते हैं... सचमुच, कीर्तन गाना जानते हैं बंगाली ही! लेकिन रात में कॉलॅनी में जाते डर लगता है। बड़े कानूनी लोग हैं। कॉलॅनी का कानून न जाने कैसा है कि सभी कहते हैं- कॉलॅनी का कानून हीं जानते ?

- सारंगी से मिल जाता है गला, सुनते हो?

- औरत गाती है । मुलगैन ही जनाना है ।

कारे मंडल और रब्बी पासमान दोनों को बचपन की याद आती है - 'बाला लखिन्दर-बेहूला' नाच में दोनों नटुआ थे। करीब तीस साल पहले इस इलाके में यह नाच खूब चला था। बंगाल - पाला । रब्बी पासमान वाला लखिन्दर बनता था और कारे मंडल बेहुला ! वही पुरानी दोस्ती आज तक निभा रहे हैं- दोनों।

कारे मंडल ने कहा-पालवेत! (मित्र!) कुछ याद आती है? अभी जो गीत हो रहा था उसका 'भास' (लय) ठीक 'बेहुला-विलाप' से नहीं मिलता ?

इतना कहकर का गुनगुनाना शुरू किया-

- अ-की दूख लिखिलो आमार कपाले हो भगवान की दूख लिखिलो आमार कपाले!

रब्बी पासमान बोला - खोल का ताल भी वही है ।

- पालवेत! चलोगे?

- नहीं पालवेत, कोलोनी का कानून बहुत खराब है।

- किसी दिन सूरज रहते ही आकर कोलोनी के सरगना से मिलकर हेलमेल बढ़ाना चाहिए। क्यों पालवेत?

टॉर्च की रोशनी पीछे से पड़ी तो दोनों चौंक गए।

गोपाल पाइन डर गया। वह टॉर्च की रोशनी बुझाकर खड़ा रहा। बहुत साहस करके उसने पूछा- के?

रब्बी और कारे ने एक ही साथ कहा- हम लोग! भैंस खोज रहे हैं। ... मोंइस... मोंइस बंगाली मोसाय!

- भैंस ?... मोंस ? तो, इधर में काहे वास्ते?

गोपाल पाइन की भर्राई हुई आवाज सुनकर दोनों को साहस हुआ। तीस साल पहले बेहुला नाच में सीखी हुई अद्भुत और खिचड़ी बंगला-वार्ता - ज्ञान के बल पर कारे मंडल कभी - कभी अपने पालवेत से बंगला में ही बातें करता है। आज वह ज्ञान काम में आया। कारे ने कहा - नोमोस्कार हे कत्ता ! हामी मोंइस खोजै यांछी। इ दिके आईंयाछी तो मिष्टी - गान सुनीया मन लोभैंयाछी ताहि से एइखान दांड़ैयाछी तो कोई बेजाइ करैयांछी ?...नोमोस्कार ।

गोपाल पाइन का धड़कता हुआ दिल सहज गति से चलने लगा.... नोमोस्कार हे कत्ता ?... हामी मोंस खोजैयांछी ?

गोपाल पाइन के टॉर्च की धुँधली रोशनी में भी एक पालवेत ने दूसरे को ‘कनखी-नजर' से देखा - घसको अब ! शायद बिगुल फूँकेगा।

गोपाल पाइन जेब से बीड़ी निकालकर सुलगाने लगा तो रब्बी चिल्लाया-

ना-ना। ओइ सीठी ना बजैयाँ । सीठी हरगिस ना बजैयाँ । हामरा भालोनोक।बदनोक नाहीं ।

गोपाल पाइन समझ गया, दोनों 'आपन पाटी' का 'मानुस' है। वह कहा करता है - दीदी ठाकरुन, दूसरे देश का आदमी भी 'आपन - पाटी' का हो, यह इसी जिला में आकर देखा - 'सोमोस्त हिन्दुस्तान' में । यहाँ पर कुछ लोग ऐसे भी मिले हैं जो हम लोगों की बोली में बात करना चाहते हैं। बंगला देश की और बंगला देश की सभी चीज की तारीफ करते हैं और अपने देश को 'भुच्च' अर्थात् मूर्ख कहते हैं। ... गोपाल पाइन 'आपन पाटी' के लोगों से ठीक ऐसी ही खिचड़ी बोली में बातें किया करता है। बोला - बदनोक नाहीं तो ठाकुरला गया गान सुनो। चलो ! हामार देश का गान बुझता है ?

- हैं - ए - ए ! गान बुझी की- हामी आपको देशेर गान गाही - बेहुला- लखिन्दर करीताम हामी, कलंक भंजन, दाता करन, गुरुदखिना सँब गाही ।

- अच्छा? तब तो खूब भालो ।

–भालो की भालोर जैसा! हामो बनीताम बेहुला । होई बोनितो-नखन्दर ।

–अच्छा? तब तो हम लोग का कीर्तन भी खूब गा सकता है। ठीक है, चलो दीदी ठाकरुन को बोलकर कीर्तन में हम... ।

सामने की सड़क पर टॉर्च की बहुत तेज रोशनी लपलपाई और दूर से ही किसी ने पूछा- कौन लोग हैं हो?

रब्बी ने पहचाना, जयराम सिंघ ?.. जयराम सिंघ भी कीर्तन सुनने आया या उसका भी कुछ 'भुला' गया है ?

-कौन? मामा? हम लोग हैं। पालवेत है और कोलोनी के ....

गोपाल पाइन ने धीरे से कहा - इंग्रेजी मास्टर ।

- कोलोनी-स्कूल का इंग्रेजी मास्टर !

जयराम सिंघ ने आकर कहा- तो तुम लोगों ने इस बेचारे मास्टर को यहाँ चौरास्ता पर काहे घेरा है?

गोपाल पाइन ने परख लिया - यह आदमी भला नहीं। यह 'अपना पाटी' का नहीं 'उस पाटी' का है। हूँ! बेचारे मास्टर ! गोपाल पाइन बेचारा नहीं । होनेवाले सरकारी स्कूल का अँगरेजी टीचर है। ... सचारा है गोपाल पाइन ।

रब्बी के जी में आया कि वह कॉलॅनी के इस बेचारे मास्टर को बंगला में ही चेतावनी दे दे तब तक जयराम सिंघ एकदम करीब आ गया- अरे तुम लोगों ने इधर मेरी भैंस देखी है?

गोपाल पाइन को अचरज हुआ - सभी की भैंस ही खोती है यहाँ ?

उसने रब्बी और कारे से विदा लेते हुए घुनघुनाकर कहा-देखा हबे एक दिन।

कारे ने कहा- जरूर हौबे ।

गोपाल पाइन चला गया तो जयराम ने गंजी की 'भीतरजेबी' में हाथ डालकर तम्बाकू - खैनी की टिकिया निकाली। वह जानता है, दोनों खैनी भी खाते हैं और चिलम के भी भक्त हैं।

जयराम सिंघ ने पूछा- खैनी खाओगे?

रब्बी बोला-मामा, तुम पूछकर खैनी कब से खिलाने लगे? खैनी नहीं, पीनी की बात पूछो।

जयराम सिंघ के बटुए में तीन खुराक खैनी और एक चिलम गाँजा हर वक्त तैयार रहता है। चिलम सुलगाने के लिए पाट की सुतली का गाँठदार हार बनाकर रखता है।... एक गिरह काटकर माचिस दिखला दो, आग की गुल्ली तैयार ।

एक स्थान पर बैठ गए। यहीं इस नबीनगर गाँव की तख्ती गाड़ी गई थी।

चिलम का पहला फेरा पड़ने के बाद जयराम सिंघ ने ही पूछा- तुम लोगों को कोलोनीवालों से हेलमेल हो चुका है क्या?

रब्बी ने धुएँ को अन्दर दबाते हुए सिर हिलाया- नहीं मामा ! कोलोनी का कानून बहुत खराब ! बाहरी लोगों का गाँव में आना और हेलमेल बढ़ाना उन्हें पसन्द नहीं ।

कारे अब तक चुप था। उसे इस जयराम सिंघ नामक आदमी को देखते ती आने लगती है । ... आदमी नहीं पिशाच है। पता नहीं किधर चला है! पालवेत ने खूब सँभलकर बात की। वाह रे पालवेत!

- तो इस मस्टरवा से क्या बतिया रहे थे?

कारे ने कहा-पूछ रहे थे कि उन लोगों के पास कोई पुराना-धुराना खोल 'बिकरू' (बिकाऊ) है?

वाह रे पालवेत! रब्बी मन-ही-मन अपने मित्र पर प्रसन्न हुआ।

जयराम सिंघ ने कहा- सुनते हैं इस कोलोनी में दमा की जड़ी जानता है कोई?

- सो सब तो अब दिन उगने पर ... ।

जयराम सिंघ की ‘ठकुराई' पर आँच पड़ी। उसने कहा - कोलोनी के कानून की ऐसी-तैसी। रात में गाँव में नहीं जाएगा कोई? यह भी कोई कानून है?

गरमागरम चिलम में कपड़े की 'साफी' लपेटकर बटुए में रखते हुए उसने कहा- हमारी भैंस इसी टोले में 'भुला कर गई है।

रब्बी और कारे टुकुर-टुकुर देखते रहे और जयराम सिंघ कन्धे पर लाठी रखकर कॉलनी की ओर चला गया।

पालवेत? क्या समझा ?

—यही कि अब यह कोलोनी उमड़ी। यहाँ से भी सब कुछ बेच-बाँचकर भागेंगे लोग।

छाजा बाजा...!!

आज पवित्रा कीर्तन में नहीं है। महीने में एक कीर्तन नागा करती है। उस दिन अपने झोंपड़े में पड़ी पड़ी दूर से ही कीर्तन सुनती है और मैमनसिंघ जिला के जुमापुर गाँव में पहुँच जाती है। अपने गाँव में !... और किसी भी दिन, एक क्षण के लिए भी, गाँव की याद को नहीं आने देती है पवित्रा!

कुमारी पवित्रा चटर्जी।

सरकारी कागज और रजिस्टर में यही नाम लिखा हुआ है। नाम के साथ जुड़ी हुई रानी...? पवित्रारानी । पबी, पोदा, पोत्रा, पाता - कितने नाम! किन्तु Tea - 'बूलू' । बाबूजी - 'पाता'!

__माँ पाता !

–बलि कऽपाता होलो?... पूछती हूँ कि कितने पन्ने हुए कि पाता को पुकार रहे हो—पवित्रा की माँ को यह 'लीड़ - दुलार' पसन्द नहीं .....तुम 'पंडित - मानुस' ठहरे - क्या तुम्हारी बेटी भी तुम्हारे - जैसा पंडित है जो उसे बुलाकर सुना बिना तुम्हारी कीर्तन - रचना नहीं होती?.. और, कौन गाएगा तुम्हारा रचा हुआ कीर्तन ? देश में क्या कीर्तन की किताब का अभाव है?

... बंगला देश में कीर्तन का अभाव हो या नहीं- पवित्रा के पिता काशीनाथ चटर्जी के मन के कोने में नए-नए भाव सदा उमड़ते रहते - बरसाती बादलों की तरह। पद सुनाते समय आँखें झरने लगतीं, गले में कँपकँपी ! सुननेवाले - समझनेवाले का अभाव वह अवश्य अनुभव करता ।

फिर वह हल्देपाखी आई है। कृष्णचूड़ा पर ही आकर बैठी है—का कस्य परिवेदना !

पवित्रा के पिता - जुमापुर गाँव के एकमात्र हिन्दू-जमींदार । एकमात्र ब्राह्मण परिवार। एकमात्र सवर्ण हिन्दू !

.... गाँव में तीन और जमींदार थे। तीनों मुसलमान । मुसलमानों की तेरह टोली और हिन्दुओं के सब मिलाकर ढाई मुहल्ले । गाँव के सभी लोग, हिन्दू- मुसलमान, पवित्रा के पिता को 'पिताठाकुर' कहते थे। और पवित्रा की हवेली IT नाम मशहूर था - ठाकुर बाड़ी ।

काशीनाथ चटर्जी बंगला और संस्कृत के ही पंडित नहीं, उर्दू और फारसी के भी अच्छे जानकार थे। ... जुमापुर की 'मजलिस' में दूर-दूर के मौलवी और आते थे और काशीनाथ चटर्जी उन लोगों से घंटों इस्लाम मजहब की बातों पर बहस करते। घर में जब किसी बात पर उन्हें तरस आती तो वे प्राय: फारसी का कोई पद्य दुहराते थे। उस समय सारे घर में एक दबी हुई हँसी खेल जाती। किन्तु जब उसका अर्थ ठेठ बंगला में सुनाया जाता तो...व्यंग्यबाण का शिकार व्यक्ति छटपटाकर रह जाए ! माँ कहती - दिन नहीं, रात नहीं - हमेशा 'कलमा' !

दिन-रात कलमा !

.....अरबी या फारसी के चन्द जुमले! अल्ला हो अकबर !! और - शिकार छटपटा रहा है। लाशें तड़प रही हैं?... बड़दा के धरेछे? बड़े भैया को पकड़ लिया? सर्वनाश ! अल्ला हो - मानिक के धरेछे? मानिक भी पकड़ा गया ? सर्वनाश! आग में झोंक दिया? बाबा कोथाय? बाबा? माँ गो? तुमी कोथाय?...साला बूड़ा कोथाय? सालार बिटी कोथाय ? उर बिटी के आमी...? ना, आगे आमी? जे धरने से आगे! घर-घर !! खोज-खोज । आगुन लागा। अल्ला हो अकबर ! कर्मफर सालार बिटी कोय?....

- दीदी ठाकरुन !

.... का कस्य परिवेदना !

... नहीं। मैं क्या करूँ? आमि धरा देबो ना? मैं मानूँगी? आमि बाँचबो। मैं चाहती हूँ!

- दीदी ठाकरुन ?

- आमि बाँचते चाय...?

-सोपोन देख सो ? कालाचाँद की माँ ने कहा-कीर्तन तो समाप्त हो गया। उस गाँव से एक आदमी आया है। कालो - कुलो! खूब गेंट्टा- सेंट्टा !! हाथ में पाँच हाथ की लाठी है। कहता है- मिलवाले का 'कारपोरदार ना कारपोद्दार' क्या है?

- कहाँ आया है? मुझे खोजने ? ना-ना ! वे मुझे मार डालेंगे! मुझे...मुझे.... खोजने क्यों?

- नहीं, वह कहने आया है कि हम लोगों की गाय जिस जमीन पर चरती यह कोलोनी की नहीं, मिलवाले की है। जो गाय चरावेगा उसे 'खाजना' देना होगा !

.... टु-टु! टु-टु!!

शारदा बर्मन 'कोलोनी - रक्षा दल' का नायक है। समय पड़ने पर सीटी बजाकर रक्षा दल के नौजवानों को बुलाता है।

कालाचाँद की माँ बोली–वही सुनिए.... बाँसी बाजलो !

पवित्रा का रक्षादल से कोई सम्बन्ध नहीं। फिर भी वह रक्षादल के 'वालंटियर' की तरह तुरन्त उठकर खड़ी हो गई- न मालूम क्या हुआ?

'ठाकुरतला' के बाहर गोपाल पाइन की आवाज सुनाई पड़ रही है-अभी रात में खाना तागादा होता है? इस देश का यही कानून है ? आप 'अगाड़ी में बोला' (पहले बोले) कि मोंस (भैंस) खोजने आया है। इनके बाद खाजना...?

- की? की? होलो टा की ?... आखिर हुआ क्या?

- होबे आर की ?... जिस देश का जो रिवाज । इस देश में राज-काज, खाजना-तागादा—सब साला रात में होता है ? मोंस भी साला रात में खो जाता है । ...

दस - ग्यारह साल से बिहार के विभिन्न इलाकों में रहकर दल की दीदी ठाकरुन पवित्रा ने बोलचाल की हिन्दी सीख ली है। सदा शुद्ध ही बोलने की चेष्टा करती है और स्थानीय शब्दों और मुहावरों को बहुत सतर्कता से सुनती और व्यवहार में लाती है।

पवित्रा ने रक्षादल के घेरे के बीच लाठी लेकर खड़े जयराम सिंघ से पूछा - क्या है भाई साहब?

जयराम सिंघ ने आज पहली बार देखा है पवित्रा को । गाँव के लोग ठीक ही कहते थे-पाकिस्थानी टोला में एक ही बंगालिन है, बाकी सब अरजल- खरजल। एक झुंड पनकौड़ों और पनकौओं के बीच एक...एक...हंस?

जयराम सिंघ ने इस जिला के कई 'दरबार' में नौकरी की है। लेकिन, मर्दाना औरत से पहली बार मुकाबला हुआ है। उसने झुककर बन्दगी करते हुए कहा - माताराम जयहिन्द ! देखिए - माताराम !...

- दीदी ठाकरुन बोलिए । 'बामून' की लड़की है फिर 'जै हिन्द' क्यों बोलते हैं ? - कोलोनी के किसी व्यक्ति ने टोका ।

- देखिए - दीदी - राम!...

इस बार कई बच्चे हँस पड़े। वातावरण थोड़ा हलका हो गया। बच्चों पर तो जयराम सिंघ ने फिर अपना बयान जारी किया- बात यह है कि हम ठहरे नौकर । हमको तो जैसा हुकुम मालिक का होगा वैसा ही करना होगा।

- चौरस्ता पर आप बोले कि 'मोंस' खोजने आया...?

- देखिए मास्टर साहब! जयराम सिंघ ने खुशामद के सुर में कहना शुरू किया - यह आप लोगों का बंगला मुलुक तो नहीं है कि आदमी जिस काम से निकले बस वही एक काम करे। हम लोगों के बिहार में एक आदमी जब किसी तरफ निकलता है तो उधर का सभी काम कर के वापस लौटता है। हमारे देश में लोग गंगा स्नान भी करने जाते हैं और सुँगठी (सूखी मछली) का व्यापार भी । आप लोगों की तरह 'अकिल - ज्ञान' और 'संगठन ' यदि इस देश में रहता तो फिर... ?

गोपाल पाइन असमंजस में पड़ गया... यह आदमी भी 'आपन - पाटी' का मालूम होता है! इतनी देर से क्यों फिजूल बक-बक कर रहा था?

पवित्रा को एक नया मुहावरा मिला - गंगा - स्नान और सुँगठी का व्यापार एक ही साथ ।

- तो मालिक बोले कि उधर भैंस खोजने जाते हो तो जरा पाकिस्थानी टोला...।

- ए सिंघ जी । पाकिस्थानी टोला मत बोलिए। इस गाँव का नाम नोबीनगर है । जान लीजिए, नहीं जानते थे तो !... 'अगाड़ी' से नोबीननगर बोलिए।

-कौन नगर ?

पवित्रा बोली- देखिए भाई साहब, पूर्णियाँ में दस तारीख को कोलोनी कमिटी की मीटिंग है। मैं उसमें इस सवाल को रखूँगी कि नबीनगर कॉलोनी के आसपास की परती जमीन पर मवेशी चराने के लिए खाजना देना होगा क्या ? यदि देना होगा तो किस फंड से और किसको ?

जयराम सिंघ का मुँह सूख गया। उसने जीभ से मुँह की खैनी को मुँह में ही घुलाते हुए कहा-इसमें मिटिंग-उटिंग के झंझट में क्यों पड़ने जाइएगा आप?

- कैसे?

- आप लोग मालिक से मिलकर 'इस्तदुआ' कीजिए कि परती की 'चराई' माफ हो जाए। बहुत 'धर्मी' और नेमी आदमी हैं तालेवर बाबू । जाति के गोढ़ी हैं तो क्या हुआ - ऐसा दयावान इस 'एतराफ' में कोई नहीं मिलेगा।

मालिक से मिलकर क्या होगा सिंघ जी । मालिक तो अपना घर में है। हमारे वास्ते तो आप ही मालिक हैं। आप ही 'दोया' कर दीजिए तो फिर... ।

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