जॉन आफ आर्क : मुंशी प्रेमचंद

Joan of Arc : Munshi Premchand

जिन लोगों ने महिला वर्ग को व्यर्थ और निकम्मा समझ रखा है वास्तव में वे भारी गलती पर हैं। कोई युग ऐसा नहीं है जिसमें उन्होंने जनता के मन में अपनी प्रतिष्ठा और बड़ाई का सिक्का न जमाया हो। इतिहास साक्षी है कि युद्ध क्षेत्र में भी उन्होंने शूरवीरता और साहस के वे आश्चर्यजनक सीन प्रस्तुत किए हैं जिन्हें पढ़कर और सुनकर आज जनता आश्चर्य-चकित रह जाती है। ये गुणवान और शुभ आचरण का पर्याय देवियाँ जिस समय ज्ञान और कला तथा दया और गुणों की ओर पग बढ़ाती हैं तो लीलावती सी अनसुलझी पहेलियाँ दृष्टि में आती हैं और यदि वे धनुष-बाण से सुसज्जित होकर शत्रु के समक्ष मैदान में उतरती हैं तो पंक्तियाँ की पंक्तियाँ और परे के परे साफ करती चली जाती हैं। वे पुरुषों से किसी बात में भी कम नहीं। उनका सच्चा उत्साह, देशभक्ति, स्वाभिमान, पवित्रता, सहानुभूति और अन्य गुण पूजा के योग्य हैं। पूरे हिन्दुस्तान और विशेषकर राजपुताने में ऐसी घटनाएँ सामने आती हैं जिनसे पता चलता है कि इन हिन्दुस्तानी देवियों ने अपने देश, अपनी पवित्रता और अपने सतीत्व पर प्राण न्योछावर कर दिए और जलकर राख हो गईं, लेकिन अपने धर्म और जन्मभूमि पर मरते दम तक आँच न आने दी। अहिल्याबाई, रानी पद्मिनी, रजिया बेगम, चाँद बीबी, नूरजहाँ और इन अनेक देश पर मर मिटने वालों के उदाहरण मिलेंगे जिनके नाम जीवन-पटल पर चाँद-सूरज की भाँति टपका करेंगे। इन्हीं देवियों के कल्याणकारी अवतरण की कृपा से हमारा हिन्दुस्तान स्वर्ग जैसा हो रहा था। आज हमारे राष्ट्रीय पतन का मुख्य कारण यही है कि हमने उनको अपना गुलाम बनाकर, उनको अपने पाँवों की जूती समझकर और मानसिक क्षमताओं में अपने से कम मानकर उन्हें ज्ञान और कला के खजाने से वंचित कर दिया है। उनके लिये शिक्षा का द्वार बन्द कर दिया। परिणाम यह है जो हम आज आँखों से देख रहे हैं।

किसी देश का विकास और खुशहाली उसके उन युवा बच्चों पर आधारित है जिन्हें पुरुष नहीं वरन् माताएँ बनाती हैं। हमने उनको पर्दे और उपेक्षा में रखकर स्वतन्त्रता की झलक और नये युग के विकास से वंचित कर दिया। वे शारीरिक और मानसिक रूप से दुर्बल और अशक्त होती गईं और वही दुर्बलता, अशक्तता, अज्ञान और अशिक्षा हमें उत्तराधिकार में मिली। माताएँ ही हमको साहसी और गुणवान बनाया करती हैं और भावी खुशहाली तथा विकास की आधारशिला उनकी गोद में रखी जाती है। माताओं की बहादुरी, उनके साहस और दृढ़ संकल्प से ही राष्ट्रीय भवन के निर्माताओं को मसाला प्राप्त होता है। जहाँ के पूर्व व वर्तमान आविष्कारक और आविष्कार, ज्ञानी और विद्वान्, सर्वज्ञ और विवेकी, वैज्ञानिक और बुद्धिमान माताओं के सुन्दर गुणों का गुलदस्ता हैं। ये गुण माताएँ अपने बच्चों में शैशवकाल से ही कूट-कूटकर भर देती हैं जो भावी पीढ़ियों में मानव जाति पर जान न्योछावर करना बच्चों का खेल समझते हैं। अतीत के वैभव पर हमारा गर्व करना मानो रेत के ऊँचे टीले पर खड़ा होना है जिसका एक पल का भी भरोसा नहीं कि किस समय वह प्रतिकूल हवा की टक्कर से खील-खील हो जाए और तितर-बितर होकर गिर पड़े। रूस, जापान, इंगलिस्तान, फ्रांस, इटली - चाहे किसी भी साम्राज्य को लीजिए, उस देश की सफलता, विकास, समृद्धि, स्वतन्त्रता और उसकी व्यवस्था तथा स्थिरता के मूल में आपको उस देश की उच्च साहसी महिलाएँ ही दिखाई देंगी।

आज मैं आपको फ्रांस के एक निर्धन लेकिन शरीफ खानदान की लड़की की कथा सुनाता हूँ जिसने देशभक्ति के नशे में चूर होकर किस प्रकार अपने प्रिय देश के लिए स्वयं को कष्टों व खतरों की जलती हुई आग में झोंक दिया और उस पर बलिदान हो गई। ऐसे पुण्यात्मा लोग जो दूसरों की भलाई के लिए अपने जान-माल की चिन्ता न करें, संसार में दुर्लभ हैं। हाँ, अपनी मुक्ति के अभिलाषी, यश के इच्छुक, अपनी श्रेष्ठता तथा खुशहाली के दीवाने आपको बहुत से मिल जाएँगे। लेकिन निःस्वार्थ और निरुद्देश्य दूसरों की सेवा करने वाले देश के सच्चे हितैषी तथा जान छिड़कने वाले यदा-कदा ही दिखाई देंगे। कैसा अच्छा हो यदि उनको इस बात से परिचित कराया जाय कि जन सेवा ही ईश-मिलन है तो नरक के भयावह और हृदयद्रावक दृश्य स्वर्ग के शाश्वत सुख और विजयोल्लास में परिवर्तित हो जाएँ। किसी ने सत्य ही कहा है -

खुदा के आशिक तो हैं हजारों, बुतों में फिरते हैं मारे मारे।
मैं उसका बंदा बनूँगा जिसको खुदा के बंदों से प्यार होगा।।

मलूल अज हमरहान बूदन तरीके कारदानी नीस्त।
बेकश दुश्वारिय मंजिल ब यादे अहदे आसानी।।

सहयात्रियों से दुखी होना निपुणता का व्यवहार नहीं है। सुख के समय को स्मरण करके यात्रा की कठिनाइयों को सहन किया जा सकता है।]

आज देश इसी प्रश्न को हल करने में व्यस्त हैं कि महिलाओं की वर्तमान दशा चिन्तनीय है। अमरीका के प्रेजीडेंट रूजवेल्ट ने एक स्थान पर अपने भाषण में कहा कि "महिलाएँ ही देश की सम्पदा हैं। उनकी भलाई देश की भलाई है। यदि वे दुर्बल हैं तो देश दुर्बल है।" आज देश के नेता इसी भेद को खोलने पर तुले हुए हैं।

जिस समय फ्रांस और इंगलिस्तान उस शतवर्षीय युद्ध में व्यस्त थे जो एडवर्ड तृतीय के युग में सन् 1328 में प्रारम्भ हुआ था और जो सन् 1453 में हेनरी षष्ठ के युग में समाप्त हुआ तो मित्रता, श्रेष्ठता और बड़ाई से चमकते अंग्रेज उस समय आए दिन शहर पर शहर जीतते जाते थे और बड़े-बड़े प्रान्तों और शहरों को अधिकृत कर चुके थे। समस्त बंदरगाह और किले उनके हाथ में आ गए थे। पोर्ट स्मिथ, क्रेसी, कैले, पोर्सट्रिज, पेरिस, रून, पास्टस सब अंग्रेजों के राज्य में सम्मिलित हो चुके थे। दूसरे शब्दों में मानो वे सभी फ्रांस के प्रान्त बन गए थे। फ्रांसवासियों की दशा अकथनीय थी। वे आए दिन की पराजयों से दुखी थे। हर लड़ाई में हार ही हार हो रही थी। इंगलिस्तान का उत्कर्ष तथा प्रभुत्व प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँच गया था, दिलों पर उनका भय छा रहा था। उस समय समूचे योरुप की दृष्टि अंग्रेजों पर लगी हुई थी। लेकिन जय के साथ पराजय फूल में काँटे की भाँति सम्बद्ध होकर साथ-साथ चलती है क्योंकि प्रत्येक उत्थान के बाद पतन आवश्यक है। जब जीत पर जीत प्राप्त करते हुए उन्होंने पाँच वर्ष के अन्दर लगभग समूचा फ्रांस जीतकर अधीन कर लिया और जब ऑर्नलीज की घेराबंदी में सफल होने को ही थे कि अचानक वह आश्चर्यजनक घटना घटी जो विश्व-इतिहास में सदा स्मरणीय रहेगी। जब फ्रांस की ऐसी गम्भीर दशा थी और समस्याओं तथा कष्टों का सामना करते-करते जनता अन्ततः निराश हो चुकी थी और विदेशी आक्रान्ताओं के निरन्तर आक्रमणों से देश नष्ट-भ्रष्ट हो चुका था, देश से सुख-शान्ति विदा हो चुकी थी, उस समय जॉन ऑफ आर्क एक देवदूत की भाँति अवतरित हुई जिसे ईश्वर ने फ्रांस की दुर्दशा पर दया करके उसके बचाव और सहायता के लिए भेजा था। वह डोमरेमी में स्थित लोरीन के एक देहाती मजदूर की लड़की थी। उनके माता-पिता बहुत गरीब थे और झोंपड़ी में रहकर मेहनत-मजूरी से अपना पेट पालते थे। अपने घरेलू कार्यों और सीने-पिरोने से निपटकर जॉन ऑफ आर्क खेतों में भेड़ तथा अन्य पशु चराया करती थी। उस समय घर-घर पर अंग्रेजों का आंतक जमा हुआ था। लोग अपने घर-संपदा की सुरक्षा कठिनाई से कर सकते थे। प्रत्येक व्यक्ति के मुँह पर पुरानी भविष्यवाणियाँ थीं। वह काल दुर्भाग्य का काल माना जाता है। ब्रंस नामक एक फ्रांसीसी कवि ने भविष्यवाणी की थी कि लोरीन के बालूत के जंगलों में एक लड़की पैदा होगी, और सौभाग्य से बालूत के जंगल डोमरेमी की पहाड़ियों में ही थे। प्रायः लोग कहा करते थे कि जिस फ्रांस को एक औरत (सम्राज्ञी इसाबेला से आशय है) ने अपने हाथों से खोया है वह एक लड़की के सहारे स्वाधीन होगा। और, यह भी प्रसिद्ध था कि लोरीन की एक उत्साही लड़की फ्रांस को स्वतंत्रता का प्रकाश प्रदान करेगी। इन किवंदन्तियों ने उस तेरह वर्षीय लड़की के कोमल हृदय को आश्चर्यजनक रूप से प्रभावित किया। एक दिन उसने यह स्वप्न देखा कि महान् देवदूत जिबराइल उसे धर्मात्मा, आस्थावान, देश के लिये पूर्णतः समर्पित और पवित्र बनने का उपदेश दे रहे हैं। इसके बाद संत कैथेराइन और मार्गरेट प्रकट हुईं और उसे उपदेश देकर लुप्त हो गईं। आध्यात्मिकता अवतरित होने तथा अन्य आम चर्चाएँ होने पर भी जब उसने फ्रांस की ऐसी दुर्दशा देखी कि उसका प्यारा देश विजयी आक्रान्ताओं के आक्रमणों से बरबाद हो चुका है, लोगों का साहस टूट गया है और उत्साह ठंडा हो गया है, हर छोटा-बड़ा अपनी दुर्बलता और निर्धनता के हाथों रो-पीट रहा है, शत्रु के सामने आ डटना सरल कार्य नहीं रह गया है, तब देश के शासन और हानि व दुर्दशा से परिचित होकर वह शोक में डूबी हुई तथा अत्याचारों की तलवार से मारी हुई काँप उठी। और, दूसरी ओर जब उसने अपनी विपत्ति तथा निर्धनता का चिन्तन किया तो अनायास आँसू भरकर कहने लगी -

क्या हाथ उठाऊँ बहरे दुआ सूए आसमाँ
बर आए जो कभी वह मिरी आरजू नहीं

लेकिन फिर उसने अपने शोकाकुल हृदय को ढाढ़स बँधाया और उसके शरीर में एक बिजली सी कौंध गई। राष्ट्रीय स्वतंत्रता का नाम सुनकर उसका खून उबलने लगा। उसने राष्ट्रीय पराधीनता की शर्म अनुभव की। उसका दिल भर आया और उस गुप्त रहस्य तथा आकाशवाणी की याद ने उसके घायल हृदय को चीर दिया। वह देशभक्ति में डूबी बैरागन एक सच्चे संन्यासी की भाँति एक वृक्ष के नीचे अपने परम पिता की गोद में बैठ गई। उसने अपना दायाँ हाथ आकाश की ओर उठाया और बाएँ हाथ में तलवार लेकर सम्पूर्ण समर्पण से प्रार्थनारत हो गई। उसकी आँखों से आसुँओं की बूँदें टप-टप टपक रही थीं, उसके मुँह से ये शब्द निकल रहे थे कि ऐ सृष्टि के रचयिता परमात्मा, ऐ दोनों लोकों के स्वामी और अन्तर्यामी, मेरे देश की दशा पर दया कर, मेरे प्यारे देशवासियों को इस बरबादी और विनाश से मुक्त कर, मुझे शक्ति दे कि मैं देश की सेवा कर सकूँ, मुझे देशभक्ति की क्षमता प्रदान कर, अपनी मातृभूमि से प्यार करने का साहस दे, मेरे भाइयों को विदेशी शासन से बचा, अन्याय-अत्याचार का सामना करने का साहस दे। मेरा शरीर इस देश के जान-माल पर अर्पित है। ऐ परम पिता! मेरी इस विनम्र प्रार्थना और इच्छा को पूर्ण कर। उसकी प्रार्थना ईश्वर के दरबार में स्वीकार हुई और जब उसने वह आवाज सुनी तो उसका मुरझाया हृदय गुलाब के फूल जैसा खिल गया, उसका अस्तित्व उस चुम्बकीय क्षमता से भर गया जो बाद में उसके जीवन का सर्वश्रेष्ठ गुण सिद्ध हुआ। कहते हैं कि उसकी वाणी में विचित्र प्रभाव था और उसकी उपस्थिति मनुष्य में नवीनता और स्फूर्ति का संचार करती थी। उसके चेहरे से वह शराफत और रौब टपकता था जो मनुष्यों के दिल को जीत लेता है। इस प्रार्थना से उसके हृदय को शक्ति प्राप्त हुई। उसने हाथ में तलवार संभाली, उसे चूमा और आकाश की ओर देखकर संकल्प लिया कि मैं आज से अपना तन-मन देश को समर्पित करती हूँ। एक चित्रकार ने जॉन का ऐसा चित्र बनाया है जिसमें वह यह कहती हुई दिखाई देती है कि जब तलवार हाथ में है तो फ्रांस को छुड़ाना और स्वाधीन करना क्या बड़ी बात है। इसके बाद वह गाँव के पादरियों और लोगों के कहने के प्रतिकूल कप्तान के पास गई और उससे कहा कि मुझे कैंप में ले चलो। वह वैंकोलीवर में गई, फिर चिम्यान। वहाँ उसने अपने मिशन का वर्णन किया कि मैं एक मूर्ख लड़की हूँ लेकिन परमात्मा ने मुझे आदेश दिया है कि मैं ऑर्लनीज को अंग्रेजों के हाथों से बचाऊँ और फ्रांस के राजा को सिंहासन पर बैठाऊँ। मुझे न प्रशंसा की इच्छा है न पुरस्कार की चिन्ता, न शत्रु का भय न प्रतिद्वंद्वी का डर। मैं केवल ईश्वरीय इच्छा और ईश्वरीय आदेश पूरा करने को आई हूँ। अलहमीस के बड़े पादरी ने उन ईश्वरीय प्रेरणाओं और खुलासों की चर्चाओं का वर्णन करके सम्राट् चार्ल्स को प्रेरणा दी कि वे इस समय उसकी सहायता से लाभ उठाएँ। जिसकी निराशा आशा में बदल गई ऐसे फ्रांस के राजा ने इस अवसर को अच्छा समझकर उसे अपनी इच्छानुसार कार्य करने की अनुमति दे दी। फिर वह जान हथेली पर रखकर सेनापति बन, घोड़े पर सवार हो, जिरह-बख्तर पहन, सिर पर लोहे की टोपी रखकर, हाथ में फ्रांस का शाही झंडा लेकर मौत की हँसी उड़ाने के लिए लड़ाई के मैदान में कूद पड़ी। वह शत्रु-सेना के दस हजार सशस्त्र जवानों पर इस प्रकार टूट पड़ी जैसे कोई बाज अपने शिकार पर बुरी तरह टूटता है। यद्यपि इस लड़ाई में उसे गहरे जख्म लगे लेकिन उसने ऑर्लनीज का घेरा उठवा दिया। अंग्रेज भयभीत हो गए और फ्रांसीसियों ने उसे दया का दूत माना। जो लड़ाई के अतिरिक्त कुछ भी पसंद नहीं करते थे, उन फ्रांसीसी जनरलों की कोई परवाह न करती हुई वह जीत के बाजे बजाती तथा बधाई और कुशलता की पुकार सुनती हुई 14 जुलाई 1429 को रेम्स में प्रविष्ट हुई और जो भी सामने आता गया, उसे जीतती गई। और, उसने वहाँ पहुँचकर दूसरे दिन 17 जुलाई को बड़े गिरिजाघर में फ्रांस के राजा चार्ल्स के राज्यारोहण की रस्म पूरी की।

उसके बाद पेरिस और कम्पेकिन की घेराबंदी होती रही जहाँ उसकी स्वामिभक्त और उत्साही सेना ने बड़े शानदार महान् कार्य किए। लेकिन अन्तिम शहर की सुरक्षा के समय वह ड्यूक ऑफ बरगंडी के हाथों गिरफ्तार हो गई जिसने उसे बंदी बना लिया और बाद में अंग्रेजों के हाथ बेच दिया। जब उसे युद्धक्षेत्र से बंदीगृह में ले गए, उस समय का दृश्य अत्यन्त हृदयद्रावक है। कड़ी परीक्षा का अवसर था और वह मृत्युपाश में फँसी पुकार-पुकारकर कह रही थी कि देश के प्रेम में इस सिर पर जो कुछ भी बीते वह कम है।

फिर अहंकारी न्यायालय का द्वार खुला। 3 जनवरी 1431 को उसे न्यायालय के अधिकारियों को सौंप दिया गया जहाँ छह दिनों तक उसकी पेशी होती रही। 24 मार्च को उस पर शत्रु और जादूगरनी होने का आरोप लगाया गया और वह 30 मई 1431 को ‘ऊन’ स्थान में जादूगरनी मानकर जिन्दा ही दहकते अंगारों के हवाले कर दी गई। और, वह पवित्र आत्मा उन मुहब्बत का दम भरने वाले झूठे दोस्तों और अत्याचारपूर्ण व्यवहार करने वाले निर्दयी तथा कातिल शत्रुओं से सदा के लिए उड़कर उस स्थान पर जा पहुँची जहाँ मानव शरीर की बुराई और विश्वासघात कुछ काम नहीं आते और जहाँ थके-हारों को स्थायी सुख-चैन प्राप्त होता है। जिन फ्रांसवासियों को बचाने के लिए उसने प्रसन्नता से शहादत का जाम पिया और जिन्होंने अपनी मुक्तिदाता को बचाने का तनिक भी प्रयास नहीं किया उनके लिए; और उसकी वीरता पर आश्चर्यचकित होकर उसकी शूरवीरता का लोहा मान चुके लेकिन जिन्होंने अपने शत्रु के सुगुणों का सम्मान न किया, ऐसे अंग्रेजों के लिए अन्ततः यह एक लज्जाजनक कहानी है।

लड़ाई फिर भी चलती रही लेकिन उसके बाद अंग्रेजों के पाँव ऐसे उखड़े कि फिर न जम सके। सफलता की आशा जाती रही क्योंकि ड्यूक ऑफ बरगंडी फ्रांस के राजा की ओर मिल गया। उसके बाद आपस में समझौता हो गया लेकिन चार्ल्स अष्टम ने फिर नोरमेंडी को जीत लिया और चार वर्ष के अन्दर ही वह गाईन और बोड़दो का स्वामी बन गया। और इस प्रकार सन् 1453 में शतवर्षीय युद्ध समाप्त हुआ लेकिन उस समय केवल एक शहर कैले अंग्रेजों के अधिकार में शेष रह गया था।

जॉन के व्यक्तित्व में बहादुरी, पुरुषत्व, साहस, अकूत शक्ति, पवित्रता कूट-कूटकर भरी हुई थी। शारीरिक तथा मानसिक दृष्टि से वह अत्यन्त स्वस्थ और सुदृढ़ थी। उसके चेहरे-मोहरे से जैसा तेज बरसता था वैसा ही उसके शरीर से रौब-दाब टपकता था। एक चितेरे ने जॉन का इस प्रकार चित्र बनाया है जिससे उसकी आध्यात्मिकता, धर्मनिष्ठा, सौन्दर्य, सरलता और अन्य वे गुण स्पष्ट दिखाई देते हैं जो उसके जीवन का सर्वश्रेष्ठ भाग थे।

जॉन के जीवन में शौर्य और सन्तों-जैसे गुण विद्यमान थे जो उसके बाल्यकाल से ही उजले दिन की भाँति प्रकट थे। उसमें महान् कार्य करने की असीम शक्ति थी। वह हर समय कठिनाइयों और कष्टों का सामना करने के लिए तैयार रहती थी। उसमें आदमियों में प्राण फूँकने की आश्चर्यजनक शक्ति थी। उसकी समस्त विजयों और वीरता और बलिदान के कामों को अपनी आँखों से देखने वाले एक प्रत्यक्षदर्शी ने लिखा है - जो समस्त घटनाएँ मैंने देखी, सुनी और मेरे समक्ष घटीं, उन सबमें मैंने उसे ईशप्रिय, पवित्र और निःस्पृह पाया।

(‘जमाना’ के अप्रैल 1909 के अंक में प्रेमचंद की लिखी हुई एक जीवनी ‘जॉन ऑफ आर्क’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। इस जीवनी पर पत्रिका के अंक की अनुक्रमणिका में लेखकीय नामोल्लेख ‘दाल-रे अज अम्बाला’ तथा लेख के अन्त में ‘दाल-रे’ के रूप में प्रकाशित हुआ था। ध्यातव्य है कि यह वह समय था जब ‘सोजे वतन’ से उद्भूत विभागीय प्रतिबन्धों के कारण प्रेमचंद छद्म नामों से लिखने के लिये विवश थे।)

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