जो बारी खाता है (कश्मीरी कहानी) : उमेश कौल

Jo Bari Khata Hai (Kashmiri Story) : Umesh Kaul

प्रत्येक मनुष्य में एक मूर्ख एवं एक दार्शनिक का वास होता है। कभी उसका मूर्ख चरम पर पहुंचकर दार्शनिक बनता है और कभी उसका दार्शनिक ध्वस्त होकर मूर्ख हो सकता है। समय भाग्य है और जीवन एक बारी।

आज जब जवा ने मुझे और शांता को आपस में बतियाते देखा तो मानो शांता को सन्निपात हो गया हो। मुझे उसकी आँखों का काला रंग पिघलता हुआ लगा और जैसे उसके चेहरे से गर्म हवाएँ उड़ रही हों।

जवा लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ, आँखों के नीचे से देखता हुआ, हमारे सामने से गुजरा। उसने सारे मुहल्ले में अपनी धाक जमा रखी थी। पिछले वर्ष जब से वह मुहल्ले की कीर्तन-मण्डली में आ गया था, मुहल्ले के आधे निजाम की लगाम उसके हाथों में आ गई थी। यदि किसी के यहाँ चोर घुसने की आशंका हो जाए तो अगली सुबह जवा उनके यहाँ खैर-खबर पूछने जाता। कोई लकड़ी खरीदता तो जवा दौड़कर देखने जाता कि तोलने में कोई हेर-फेर तो नहीं किया जा रहा। यदि मुहल्ले में किसी के यहाँ विवाह होता तो सगाई से पहले जवा वहाँ पहुँचता तथा विवाह सम्पन्न होने पर, सारे (मुहल्ले वालों के) बर्तन उनको वापस लौटाकर ही वहाँ से रुखसत होता। मुहल्ले के भाई-बहन के काम आने का उसमें गुणात्मक चाव रहता।

इसके साथ ही जवा ने मुहल्ले के अंदर किसी लड़की के किसी लड़के के साथ बातें करने पर प्रतिबन्ध लगा रखा था। ज्यों ही उसे कोई लड़का तथा लड़की आपस में बातें करते हुए दिख जाते तो तुरन्त वह हाय-तौबा मचाता और सारा मुहल्ला इकट्ठा करता कि 'देखिए भाई साहब!

इश्क-माशूकी ही करनी है तो मुहल्ले से बाहर करें। मुहल्ले के अन्दर नहीं। हम मुहल्ले में यह सब नहीं होने देंगे।

उसके बाद मुहल्लेवाले अपनी-अपनी फुर्सत के मुताबिक एक-एक बात की अलग-अलग दास्तान गढ़ते। शांता भी डर गई कि अभी वह हंगामा करेगा और अभी उसके साथ दस दुमों वाली एक दास्तान वाबस्ता हो जाएगी। पर मैं जवा को अच्छी तरह से जानता था। हालाँकि ऐसे तो उसमें और मुझमें कोई खास समानता न थी, पर छुटपन के स्कूली दिनों की पहचान अभी भी चल ही रही थी। विशेषकर इसलिए कि जवा एक दिलचस्प उलझे धागे के गोले की तरह था, जिसमें से कभी-कभी उलझाव कम करना मुझे अच्छा लगता। जब मैं खाली होता तो नदी की तरफ निकल पड़ता जहाँ कि जवा मुझे अमूमन मिल ही जाता। जवा से खोद-खोदकर बातें उगलवाने में मुझे पुस्तक पढ़ने-सा लुत्फ़ आता, क्योंकि जिस प्रकार पुस्तक में लिखे के दो अर्थ होते हैं-एक अमिधा और दूसरी लक्षणा के, उसी प्रकार जवा की भी दो तहें थीं-एक वह जो दिख जाती थी, दूसरी वह जो समझ से परे थी, पर थी जरूर। उसके भीतर से कुरेद-कुरेदकर बातें निकालने के अनुभव से मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा था कि जवा वह शख्स है जो कि दुनिया से छिपकर ज़्यादा जी रहा है और दुनिया के समक्ष कम। दुनिया से छिपकर हवा में अपने तई कीलें गाड़ता कि आसमान पर चढ़ेगा और वहाँ से पुकार-पुकार कर दुनिया वालों को अपने करिश्मे से हैरत में डाल देगा।

मेरे हिसाब से वह उन लोगों में था (पता नहीं लोगों की कोई और किस्म भी है, जिन्हें यह हसरत होती है कि कोई उसके हाथों से कुछ ऐसा बन पड़े जिसे देख लोगों की आंखें विस्मय से फट जाएँ और लोग उसे देवता समझकर भोग चढ़ायें, उसका अस्तित्व लोगों के दिलो-दिमाग पर बना रहे और उसका नाम लोगों की जुबान पर।

इस हद तक तो जवा कुछ-कुछ समझ में आता था, पर इससे आगे कभी वह मेरी समझ में नहीं आया। एक शंका उसको भीतर-ही-भीतर दीमक की तरह चाट रही थी कि कोई उसका भाग्य चुराता है, और कोई उसकी बारी खाता है। उसकी यह विचित्र शंका न कभी मेरी समझ में आई और न ही इस पर मैं कभी विश्वास ही कर सका। उसकी बातें सुनते हुए मुझे कभी किन्हीं क्षणांशों में लगता कि जैसे उसकी बातों में जरूर कोई दर्शन छिपा है। मगर यह मानना कि मूर्खता के अंदर कहीं दर्शन भी हो सकता है, कठिन है, अतः यह क्षण मुझ पर हावी न हो पाता।

उससे बातें करने पर लगता कि उसके खयालात स्वतः स्फूर्त हैं, या यह भी कि जो कुछ वह बोल रहा है वह उसकी खुद की समझ में भी नहीं आ रहा है । उसकी हर बात का सारांश एहि होता था कि कोई उसका भाग्य चुराता है, और कोई उसकी बारी खाता है। यहाँ तक पहुँचते ही जवा मुझे पूरा अहमक लगता। यहीं पहुँचकर उसका तमाशा और मेरी रुचि दोनों समाप्त हो जाते। इससे परे या तो मैं कुछ समझ न पाता या उसमें समझने योग्य कुछ न होता। जवा को उस दिन भी ऐसा ही लगा कि कोई उसकी बारी खाता है जिस दिन वह दसवीं में तीसरी बार फेल हो गया। परिणाम सुनते ही पहले नदी पर लैम्प सिगरेट की पूरी डिब्बी पी डाली, फिर सारी चिन्ता को विसर्जित कर सिनेमा देखने चला गया।

दूसरे दिन वह मुझे मिला तो मैंने पूछा- क्यों जवकाक! आप कह रहे थे कि इस वर्ष आपकी तैयारी खूब है?"

“की थी तैयारी जवा सिगरेट जलाने लग पड़ा-“देखो, मेरे जिम्मे परीक्षा देना था। पास होना तो...मैं क्या करता..मारो गोली...!"
“क्यों, फिर नहीं बैठोगे परीक्षा में?"

“अब आग लगा दूँगा...। यह तो यूँ ही...कर कुछ ऐसा लेना चाहिए जिससे हासिल भी तो कुछ हो।" जवा कुछ देर के लिए मौन हो गया। फिर बोला-“देखो, यह भाग्य की बात है। या तो चोर भाग्य हो या एक बार भाग्य को चुरा लेना चाहिए। देखो मुझे कहना नहीं आता..." जवा बोलते-बोलते रुक-सा गया।
"मगर क्या?" मैंने फिर से पूछा।

उसने शब्दों को समेटा और बोला- "देखो, खानेवालों ने बारी खाई मेरी और छीननेवालों ने भाग्य छीना मेरा। फिर किस बात पर मैं यों ही बेहाल होऊँ लिथड़ जाऊँ...काहे?" यकायक वह मौन हो गया।
"अब?"

“अब मैं सोच रहा हूँ कि कुछ और करूँ।"

मैं बहुत देर तक यह समझ ही न पाया कि यह 'कुछ और' जवा क्या करेगा?
सड़क पर एक नई दुकान खुल गई। राशन घाट पर कोई नया मुंशी नियुक्त हुआ। लोग दफ्तरों को जाते और घर लौट आते रहे। 'कुछ और' करते हुए जवा जादू सीखने लग गया। पता नहीं उसे हो क्या गया कि बाजीगरी का भूत उस पर सवार हो गया। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उसने डमडाह-डमडाह किताब एक रुपये में खरीद ही ली। झीने पीले कागज पर गंदे-गंदे ढंग से लिखे बिना हाशिए के हरूफ। उसने मुझे वह किताब छिपाकर आड़ में दिखाई मानो उसके पास सोना बनाने का नुस्खा हो और इस पर किसी और की नजर न पड़े। अर्से तक उसने यह किताब अंदर की जेब में तहा कर छिपा रखी। कभी वह नदी पर, कभी किसी श्मशान घाट पर और कभी किसी कब्र पर बैठकर वह मंत्र साधने लगा। एक मंत्र यों था, “अलकुर्सी, बलकुर्सी। अनाथ की रोटी, कबूतर की बोटी, सुलेमान की दुहाई।" और दूसरा मंत्र था, “हीं क्लीं परकरी भास्वरन यक्षिणी शटपटांग भौंग स्वाहा।' उन दिनों उसकी आँखों में वह धैर्य झलकता जो एक फहमीदार कुमारी की आँखों में विवाह-पूर्व झलकता है जो कि विवाह करके अपने सभी अरमान पूरे करने की ताक में होती है, या उस नाफहम बच्चे जैसा वलवला जो एक कलाबाजी दिखाते हुए कहता है कि देखते जाओ दूसरी कलाबाजी क्या रंग लाती है।

स्वयं जवा ने कभी नहीं बताया कि आखिर उसका उद्देश्य क्या है। पर कुरेद-कुरेदकर जो बात मेरे हाथ लगी वह यह थी कि वह वक्त को मुट्ठी में कसकर पकड़ेगा और आस-पास के पूरे माहौल को काबू में करेगा। वह आस-पास के सिर ऊँचा कर चलनेवालों के सिर झुकवाएगा। वह मस्त और मगरूर चाल चलनेवाली सुन्दरियों से अपने पैर स्पर्श करवाएगा।

पर कुछ समय उपरान्त जवा जैसे ऊब-सा गया। न स्वर्ण-काया में यक्षिणी प्रकट हुई, न ही सुलेमान की ताबेदारी से जिन्न ही प्रकट हुआ। उस दिन अत्यंत खिन्न था और यों ही नदी में छोटे-छोटे कंकर फेंक रहा था। उसका चेहरा कह रहा था कि मायूसी की तल्खी उसकी रग-रग में दौड़ रही है। मैं पूछ बैठा, "जवकाक! बाजी कहाँ पहुँची?"

उत्तर देने के बजाय उसने मुँह दूसरी तरफ फेर लिया। फिर पता नहीं क्या सोचकर फिर से मेरी तरफ नज़रें कर लीं। उसके होंठों पर अवसाद का रंग था या वैसी हँसी का जो कि असफलता पर मनुष्य को अपने होंठों पर लादनी पड़ती है।

“अजी कहाँ! मंत्र ही सिद्ध न हुआ ।" जवा ने ये शब्द बहुत कठिनाई से बोले और फिर चुप हो गया। फिर जेब से जादूगरी की किताब निकाली और पैर की ठोकर से उसे दूर उछाल दिया। तदुपरांत उठाकर उसे दूर नदी में फेंक दिया।

"क्यों, मंत्र सिद्ध क्यों नहीं हुआ?” मैं चाह रहा था कि वह कुछ बोले।

वह अपनी आँखों को मिचमिचाते हुए नदी की तरफ देखने लगा और बोला-"क्या बताऊँ! इसके लिए भी भाग्य होना चाहिए। लोग बिना बाजी के ही बाजी जीत जाते हैं। हमें बारी ही नहीं मिलती। तुम इसे बेवकूफी कह सकते हो, पर कुछ हो रहा है...वर्ना...।" जवा ने यह जुमला पूरा नहीं किया, मानो उसे पता न था ठीक से कि वास्तव में उसे कहना क्या है।
“वर्ना क्या...?" मैंने बात को आगे बढ़ाया।

"क्या मंत्र झूठ है?" वह अपने लहजे को कुछ दमदार-सा बनाते हुए बोला जो कि या तो नासमझ का वहम था या समझदार का यकीन।

“अगर मंत्र झूठ है, फिर तो प्रार्थना भी झूठ है। अगर जिन्न नहीं है, फिर तो देवता भी नहीं हैं। यह तो सब विश्वास की बात है...।" मुझे यह उत्तर सूझा और उसका दार्शनिक उसके चेहरे पर आकर बैठ गया।

“जो कुछ नहीं है उसे हम अपने विश्वास से बनाते हैं और जो है उसे हमारे विश्वास की जरूरत नहीं। और वही भाग्य है।"
“विश्वास से क्या होता है? भाग्य होना चाहिए।" फिर से जवा नदी में छोटे-छोटे ठीकरे मारने लगा। फिर मेरी तरफ मुखातिब होकर बोला-“मेरा भाग्य कोई दूसरा ही छीन रहा है जो कि मुझे बारी ही नहीं दे रहा।"
"भला कौन?"

“पता नहीं कौन।' जवा फिर छोटे-छोटे पत्थरों से खेलने लगा-“ऐसे मैं क्या कह सकता हूँ। पर है कोई ज़रूर जो मेरा भाग्य चुरा रहा है-थोड़ा-थोड़ा करके, कदम-कदम चलके।" यह बोलते-बोलते जवा मुझे आँखें फुला-फुलाकर देखने लगा।

दूसरे दिन जवा दामन झाड़कर कोई दूसरा काम ढूँढने निकल पड़ा और इसी क्रम में कहने लगा कि वह अब ड्राइवरी सीखेगा। उसने कई खूटियाँ ठुकवाई और नई सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। उठते-बैठते वह उन दिनों गाड़ी के अंगों का जिक्र करता-बांट, डैशबोर्ड, कारबोरेटर, बियरिंग, एक्सेल। उसे शौक चढ़ गया कि वह स्टेयरिंग हाथों में पकड़कर गाड़ी को हवा से बातें करवाए कि सारी सवारियाँ चीख उठे, स्त्रियाँ चीख उठे। कितनी बार उसने खयालों-खयालों में ही दाँत पीसकर क्लच दबाया, कितनी बार उसने बैठे-ठाले ही पैरों से ब्रेक दबाई। गाड़ी हवा-सी चल पड़ी तो सवारियों ने हाहाकार मचाया। खतरनाक मोड़ मुड़ने के बाद जब हर बार गाड़ी रुकी तो सवारियों में जैसे नव-जीवन आया हो। फिर हर तरफ से सवारियाँ उसी का जिक्र करती रहीं। एक स्त्री (छोटी, कोमल और सुन्दर) उसे प्रेम-भरी आँखों से देख रही थी। ऐसे वह दुनिया की नज़रों से बचकर अपने साथ सोचता। या तो उस पागल की मानिंद जो नाली में टोपी डालकर कहता है कि अब वह शिकारे की सैर करेगा या उस समझदार की तरह जो जीवन के हर क्षण में रोमांच उत्पन्न करना चाहता है।

जवा खुद कुछ नहीं बोलता था, पर उसके चेहरे पर उसके भीतर का समूचा उत्पात लिखा होता और यह देखने में मुझे बड़ा ही आनन्द आता। कितनी ही सुबहें बीतीं। बहती हुई नदी पर से भाप उड़ती रही। कितने ही दिनों चीलें अपने-आपको आसमान पर वारते हुए उड़ती रहीं। कितनी ही शामों में कौओं के झुंड आते और जाते रहे।

जवा ने ड्राइवर बनने का भी विचार त्याग दिया। जो सीढ़ी उसने अपने तई बनाई थी-ढह गई। मुझे ज्ञात या कि गिर पड़ने के कारण उसके सारे शरीर में पीड़ा है। वह चाह रहा था कि किसी तरह भी आसमान गिर पड़े ताकि दुनिया के ऊपर ढक्कन रहे और कुछ न दिखे। पर मैंने उसे छेड़ा-"क्यों, आज फिर किसी ने तुम्हारा भाग्य चोरी किया होगा?"

मेरी बात सुनते ही जवा के चेहरे की रंगत जैसे उड़ गई। उसे मेरे इस प्रकार के मज़ाकों की ज़रा-सी भी आदत न थी। वह ऐसे निहार रहा था कि मैं समझा अभी उसके झर-झर अश्रु बह निकलेंगे। पिछले व्यंग्य को कुछ धोते हुए मैंने कहा-“तुम सिर्फ देखते हो, कुछ बोलते क्यों नहीं हो?"

जवा ने नजरें हटाईं। फिर शब्दों को समेटने लगा। फिर बोल ही पड़ा-“आप व्यंग्य करें, मगर मैं जानता हूँ कि मैं एक राह खोजता हूँ तो दूसरी राह खो जाती है। तो जिसे राह मिलेगी वह...।" बात अधूरी छोड़कर वह चुप हो गया-ऐसा चुप जिससे व्यक्ति अपना यकीन और दूसरे का संदेह, और दूसरे का यकीन और अपना संदेह देखकर होता है।
मैंने फिर से पूछा-"तुमने ड्राइवरी क्यों छोड़ दी?"

उसने क्षण-भर सोचा और बोला-“यह सीधी-सी बात है। जब तक मैं क्लीनर हूँ तब तक मुझे ड्राइवर की झाड़ खाते ही रहना है, फिर जब ड्राइवर बनूंगा तो फिर ट्रैफिक इन्सपेक्टर की, मालिक की, सवारियों की झाड़ खानी ही पड़ेगी। तुम इसे मूर्खता कहोगे, पर है यह सच। मुझ-जैसा शख्स यही कहेगा कि तेज चल के दुनिया को मजबूर कर दो कि वह तुम्हें देखे। जब हम तेज चल रहे होते हैं, हमें सारी दुनिया देख रही होती है।"
“भाग्य अपना-अपना सबका होता है। मैंने यों ही कहा-"पहले तो सबका अपना-अपना होता है, पर बाद में एक-दूसरे का छीनते हैं।"
“पर कैसे?"

"सीधा आदमी तब तक कैसे जीतेगा जब तक दूसरा न हारेगा? सभी जीत तो सकते नहीं। क्या ऐसी कोई सफलता है जो सबको मिल-बाँटकर प्राप्त हो? मैं हर क्षण देखता हूँ कोई मेरा भाग्य छीन रहा है, मेरी बारी खाता है।"

"मगर कौन?" मैंने तपाक से पूछा। मैं क्षणभर को भूल गया था कि एक मूर्ख से बतिया रहा हूँ। उसने ऐसा चेहरा बनाया कि मुझे फिर याद आ गया।

उसने उत्तर दिया, "कोई है यहीं हमारे आस-पास ही हमारे ही बीच । कुछ कह नहीं सकते कि कौन?" फिर वह मुझे गाय की तरह निहारने लगा।
कुछ समय बीतने पर मैंने देखा कि जवा अब नदी-तट की बजाय दुकान पर बैठा रहता है-वाइट-क्लॉथ का साफ-सुथरा कमीज-पायजामा पहनकर, पट-पट करती खड़ाऊँ पैरों में पहन। उसका उठना-बैठना तथा बातचीत करना बड़े मोतबरों-सा हो गया था। इन दिनों में उसने बहुत-सी नई बातें सुनी थीं। माथे से मारकर कैसे डबल ईंट तोड़ी जा सकती है। और तो और, किसी कादिरसिंग ने एक स्तम्भ को ही उखाड़ दिया था। जवा का चेहरा बता रहा था कि ये सारे गुण उसमें उत्पन्न होने लगे हैं। उसने स्वयं तो नहीं स्वीकारा, पर मैं ताड़ गया कि वह किसी को जोर से ठेलना चाहता है तथा कोई स्तम्भ उखाड़ना चाहता है, पर मौका नहीं मिल रहा था। हाय! अगर उसे मौका मिलता तो एक ही दिन में चमक उठता। मगर अवसर पता नहीं उसके समय कहाँ खो जाता है। एक दिन उसने सपना देखा कि एक शख्स एक औरत को (जो कि युवा, कोमल एवं सुंदर है) कंधे से धक्का मार रहा है। जवा उस शख्स की गर्दन पकड़ता है और ठुड्डी पर एक ठोकर मारता है जोरों की, और उसके बाद उस स्त्री को ढाढस बँधाता है। स्त्री अश्रुपूर्ण नेत्रों से उसकी तरफ मुड़-मुड़कर देखते हुए चली जाती है।

पर साक्षात् में ऐसी कोई घटना नहीं हुई। एक बार एक बुरकेवाली बुरके के अंदर युवा और रेशमी सपने बुन रही थी कि वह ताँगे के नीचे आने लगी थी। दूसरी बार एक चुस्त चुन्नीवाली अपनी छातियों से जरा हटकर चुन्नी रखने में व्यस्त थी कि उसकी टक्कर एक साइकिलवाले से हुई। जवा ने दुकान से छलाँग लगाई थी ताकि साइकिल और ताँगेवाले को पकड़ पाए। पर दोनों ही कान सहलाते हुए निकल गए थे। जवा ने दूसरी नजर बुरकेवाली और चुन्नीवाली पर डाली थी, पर दोनों ही आगे निकल चुकी थीं निश्चिंत-सी होकर। तो जवा फिर दुकान पर बैठकर सिगरेट के लम्बे-लम्बे कश लेने लगा-धुएँ से खुद को लपेटते हुए। उन दिनों जवा सुबह जाग जाता तो उसे लगता कि आज के दिन कुछ खास घटित होगा। रात को सोता तो इस अहसास के साथ कि बिना कुछ घटित हुए ही दिन बीत गया। एक दिन उसे अपने बल का प्रदर्शन करने का अवसर मिला, उस दिन अन्ततः उसके हिस्से सिर्फ उदासी आई। दूसरे दिन हलवाई से जब एक बच्चे ने कुछ अधिक दूध माँगा और हलवाई ने उसे गाली दी तो जवा को लगा जैसे उसे इतने दिनों की प्रतीक्षा का मुआवजा मिल गया। उसने हलवाई को अपने सिर से जम के मारा और उसकी अल्मारी को यों उखाड़ा कि सारा बाजार जमा हो गया। घरों की खिड़कियों से लड़कियों और औरतें तमाशा देखने लगीं-मगर जवा फिर भी वैसे का वैसा ही था।

कोई लफंगा किसी से झूठी उधारी की माँग कर रहा था तो जवा उससे हिसाब करने लगा। दोनों तरफ से कपड़े फट गए। दोनों ओर से चूल्हे की लकड़ियों, तख्तों के फट्टों के आदान-प्रदान हुए। कुछ ने तो लड़ाई समाप्त कराने की पहल भी की, मगर कुछ शुद्ध रूप से तमाशा देख रहे थे। पर जवा वैसा ही रहा। न कोई उससे भयभीत हुआ, न ही किसी के समक्ष उसका मूल्य ही बढ़ा।

समय गुजरता गया। सड़क पर नई रोड़ी डाली गई। बच्चे कॉलेज जाने लगे। बेटों की नौकरियाँ लग गई। कई लड़कियों के विवाह हो गए। जवा कहीं खो-सा गया था। अभी भी वह कीलें ठोंक रहा था, पर आसमान तक उसकी सीढ़ी मुकम्मिल नहीं हो रही थी। वह फिर मायूस हो गया था और अंदर ही अंदर सुलगता जा रहा था। अगर उसके बस में होता तो वह एक ही भूकम्प में पृथ्वी को उलट-पलट देता। मैंने यों ही दिल्लगी करनी चाही-“मैं आजकल तुमसे कुछ डर-सा रहा हूँ।"
"मुझसे क्यों भला? ऐसा क्यों?" जवा ने हँसते-हँसते पूछा। "तू व्यन की बेल जैसा हो गया है।"
“व्यन की बेल? सो कैसे?" जवा के बोलने का लहजा ही बदल गया। वह रुक-रुककर बोलने लगा-"कहते हैं कि कुछ करते ही रहना चाहिए।"
"कुछ क्या? क्या तुम्हें खुद नहीं पता कि तुम अस्ल में चाहते क्या हो ?"

जवा ने मुझे तेज नजर से देखा। ऐसी कि जैसी सुरया-अल हसन ने चुस्त दलील सुन के की हो, या कोई मूढ़-मगज़ मजदूर असंगत दलील देकर करेगा। वह बोल उठा-"मैं जानता हूँ अपनी चाहत। मगर चाहत क्या करेगी? बड़ी बात है भाग्य।" मुझे लगा कि जवा के चेहरे पर अहं का रंग आने लगा। उसने बात आगे बढ़ाई-"किसी का नसीब छीन लेने पर, बारी खाने पर, फिर उसकी चाहत करना या उससे चाहत करवाना बेमानी है।" जवा बातें करते हुए आँखें भी मिचमिचाता था।
मैं बोल पड़ा- तुम्हें वहम हो गया है।
"नहीं, वहम नहीं। मैं जानता हूँ।"
"किसने तेरा भाग्य छीना? कौन-सी तेरी बारी खाई मैंने" लहजे में हत्तक थी।

उसने अत्यन्त इत्मीनान से जवाब दिया, “यह कौन बता सकता है? यह एक ऐसी गिनती है जिसका कोई आदि-अंत असंभव है। किसी एक नुक्ते पर उँगली रखकर नहीं कहा जा सकता कि यह चोर है, इसने छल किया है और...।" बात अधूरी छोड़कर जवा एकदम चुप हो गया।
मुझे जवा पलभर को दार्शनिक-सा दिखा, पर फिर मेरे मन ने निर्णय किया कि जवा बेवकूफ है।
आखिरकार जवा एक कीर्तन-मण्डली में प्रविष्ट हो गया। जाने क्या विचार कर उसने खुद के साथ ही विमर्श किया, अपने तई पूरी ईमानदारी के साथ-एक नई सीढ़ी बनाने और चढ़ने का।

बाजा उसे बजाना नहीं आता था। उसने चिमटा उठाया। पहले-पहले वह सबसे पूर्व धर्मशाला में पहुँच जाता। चटाई झाड़ता। तब दरी झाड़ता और विछाता। तब बाजा, छनका, मटका, चिमटा आदि सारे साज निकालकर तैयार रखता। फिर तब वह कीर्तन-मण्डली में कुछ जम-सा गया तो जरा देर से आने लगा। तब तक मर्द, औरतें और बच्चे आ चुके होते। उसे एक खास किस्म की मसर्रत मिलती जब वह चार-पाँच मिनट देर से आकर लोगों के बीच-बीच में से चलकर कीर्तन-स्थल तक पहुँचता।

कीर्तन-मण्डली के गायक-वादक उसे हाथों-हाथ लेते और चारों तरफ से कहते-“जवकाक! इधर से आइए।"
"जवकाक! आपको देर क्यों हुई?"
जवा के चेहरे पर ये वाक्य सुनकर गज़ब के आनन्द और उल्लास की लालिमा प्रकट होती। मर्द उसे आँखों-आँखों से ही कुछ कहते और औरतें कानाफूसियाँ करतीं।

कीर्तन-स्थल पर से आस-पास जब वह दृष्टि दौड़ाता तो उसे इस बात का अहसास होता कि वह उस पूरे वातावरण में कुछ अलग महत्त्व रखता है। फिर से एक गर्वीली-सी नजर चारों ओर घुमाकर भजन गाने लगता। इस क्षण वह या तो उस आजन्म जागरूक रहनुमा की तरह लगता जिसे जलसे में आए सभी लोग अर्धनिद्रा में लगते, या उस बंदर-सा जो पंडाल में बैठकर इस सोच में पड़ता कि भला इतने लोग उसके इर्द-गिर्द क्यों एकत्र हैं?

कीर्तन करते-करते जवा इस कदर उल्लास से भर उठता कि वह दिल खोलकर चीखने लगता, खड़ा होकर नाचता और चिमटा बजा-बजाकर गाता-'हे देवी! काट मेरे गम तेरे चरणों पर करुं नमन' या 'दिल चुराया मेरा उस श्याम रूप ने दिल चुराया।' सुननेवालों में से कोई आकर उसे श्रद्धापूर्वक बर्फी का टुकड़ा पकड़ाता। कोई श्रद्धालु स्त्री पूड़ियों का भोग पकड़ाती। जवा सबसे पहले प्रसाद लेता।

एक परिवार ने एक दिन चाय का प्रबंध किया था तो उनकी बहू सबसे पहले इसी को खोस (कप) देने आई। दूसरे घर की एक लड़की (युवा, कोमल एवं सुंदर) एक दिन लोगों के बीच से जाते हुए जवा को तरबूज की एक फाँक दे आई। मुहल्लेवाले बोलने लगे कि जवा कीर्तन करते-करते लीन हो जाता है। मुहल्लेवालियाँ कहती थीं कि क्या गला पाया है जवा ने!

एक दिन उसने मुझे कहा कि मैं क्यों नहीं आता हूँ कीर्तन में, जहाँ इतना आनन्द आता है कि मनुष्य सारा संसार भूल जाता है? मुझे सब पता था, पर मैंने उसे छेड़ा-“भई, इसके लिए भी भाग्य होना चाहिए। क्या पता मेरी भी कोई बारी खाता हो!"

जवा ने होंठ काटे और आँखें मिचमिचाते हुए कुछ सोचने लगा, लेकिन तुरंत फिर हंस दिया कुछ ऐसी हँसी जैसी कि छोटे की बात समझने पर बड़ा हंसता है या बड़े की बात समझने पर छोटा, और बोल पड़ा, "वहाँ (कीर्तन में) कोई किसी की बारी नहीं खाता। वहाँ सब बराबर हैं। जवा का चेहरा कह रहा था कि जैसे उसे यह विश्वास है कि वह दोनों हाथों से कुछ ऐसा कर रहा है जिसे देखकर आस-पास के लोग उसकी माला जपते हैं, उसके गीत गाते हैं। आजकल वह अमरनाथ की यात्रा पर जानेवाले गोसाईं के लिए चंदा इकट्ठा करने, वर्षा लाने के लिए यज्ञ का आयोजन करने के समय अन्नादि जमा करने के लिए आगे निकला है, अतः अपनी बारी पकड़ ली है।

तो अपनी बारी में उसने मुहल्ले का आधा निजाम अपने ही हाथों में लिया था। रात को अब चोर नहीं घूम सकता। लकड़ीवाला अब कम नहीं तोल सकता, लड़का किसी लड़की के साथ अब बात नहीं कर सकता। यही सारे जवा के मंसूबे थे। जवा अब कानून और नैतिकता का रक्षक हो गया था। अतः अब उसका भाग्य कोई नहीं चुरा सकता था।

इसी दौरान जवा ने मुझे और शांता को बातें करते हुए देखा था। शांता चिंता में मरने लगी और मैं जवा को ढूंढने नदी की तरफ गया। यों तो वह मेरे विरुद्ध कुछ न करता, क्योंकि कोई समानता न होने पर भी वह मुझसे दबता ही था। पर था वह उलझे धागे का गोला। एक तरफ से दार्शनिक, दूसरी तरफ से मूर्ख। मैंने सोचा कि क्या भरोसा अगर वह शोर ही मचा दे! जब तक लोगों को हकीकत समझ में आएगी तब तक अपने पर आन पड़ेगी। जवा नदी पर नहीं था। मैंने धर्मशाला में उसका घर ढूंढा-गलियों में से घूमते हुए। पर मुझे उसका अता-पता ही न मिला। वह शाम बीत गई।

दूसरे दिन भी वह मुझे कहीं दिखाई नहीं दिया। तीसरे दिन वह मुझे अचानक एक दुकान की दहलीज पर सिगरेट के कश लगाता हुआ दीख गया। मुझे देखते ही उसने नजरें फेर लीं। फिर सिगरेट का एक लम्बा कश लिया। मैं उसके सम्मुख गया। मुझे देखने के सिवा अब उसके पास और कोई चारा न था। मैं बोला-"क्यों जवकाक! परसों से आप दीखे ही नहीं?"
“यहीं तो था!" उसने लापरवाही से जवाब दिया।

उसके चेहरे पर कोई छाया-सी मँडरा रही थी। मैं समझ गया उसे मुझसे शिकायत है कि मैंने मुहल्ले में उसके द्वारा स्थापित मर्यादा को भंग क्यों किया। मच्छर उड़ाते हुए मैंने कहा-"कीर्तन में भी तुम नहीं आए थे?"

"कीर्तन हुँह! सब बकवास है! चाहत, विश्वास, सब सब झूठ!" वह यकायक चुप हो गया। फिर सिगरेट के लम्बे कश लिये और कुछ बोलने के लिए जैसे शब्द जोड़ने लगा है- "मैं रह-रहकर कहता नहीं था कि कोई मेरा भाग्य चुरा रहा है। कोई मेरी बारी खाता है। आज मुझे वह मिल गया।"
“वह कौन है?" मैंने यों ही हँसते हुए पूछ डाला।

उसने सिगरेट का लम्बा कश लिया और फिर जले-भुने अंदाज में बोला-“वह तू है तू! तू जिसके साथ परसों बतिया रहा था, उसके सपने मैं दूसरी कक्षा से ही सँजो रहा हूँ। वह तुम्हीं हो जिसने मेरी आँखों में धूल झोंककर मेरी बारी खाई।" जवा की आँखें भर आईं।

मुझे लगा कि उसका दार्शनिक भी वहीं पर है जहाँ उसका मूर्ख है।

(अनुवादक : क्षमा कौल)

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