जीवन्मृत (कहानी) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री

Jiwanmrit (Hindi Story) : Acharya Chatursen Shastri

(यह कहानी सन् 1930 में लिखी गई थी। कहानी बहुत वज़नी है। इसमें एक अत्यन्त ख़तरनाक भेद छिपा हुआ है, जिसे उस समय तीन व्यक्ति जानते थे और अब केवल एक व्यक्ति ही उसका जानने वाला जीवित है। इस भेद का सम्बन्ध भारत के एक बहुत भारी असफल विप्लव से है। कहानी में कुछ उलझनें थीं, कुछ ऐसी बातें थीं जो लिखी नहीं जा सकती थीं छोड़ी भी नहीं जा सकती थीं। इन उलझनों के कारण ही प्रतिदिन पचास पृष्ठ लिखने की सामर्थ्य रखने वाले लेखक को यह कहानी पूर्ण करने में नौ मास लगे थे। फिर भी कहानी 'चांद' में छपते ही 'चांद' की दो हज़ार की जमानत जब्त हो गई थी। कहानी को पढ़कर तत्कालीन लाहौर हाईकोर्ट के प्रसिद्ध कौसिल (बाद में जस्टिस और फिर कस्टोडियन जनरल) श्री अछरूराम ने आश्चर्यचकित होकर चार पृष्ठों के पत्र में लेखक को लिखा था कि क्या वास्तव में कल्पना सत्य की ऐसी हूबहू तस्वीर खींच सकती है ? कहानी - नायक के श्री अछरूराम बालसहचर हैं। उस व्यक्ति के चरित्र के वे प्रत्यक्ष द्रष्टा हैं।

कहानी में कुछ टेक्निकल विचित्रताएं भी हैं। पात्रों के नाम गायब हैं, कथानक नहीं है, केवल उसका आदि-अन्त है। कहानी की गति अतिशय गम्भीर है। वर्ण्य प्रच्छन्न हैं, वे साधारण पाठक की समझ से परे हैं। मानवीय ऐषणाओं और मनोविकारों को मूर्त करने में कलाकार ने परिश्रम की पराकाष्ठा कर दी है। कहानी उच्चतम मनोवैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है।)

पन्द्रह वर्ष का लम्बा काल एक भयानक दुःस्वपन की तरह व्यतीत हो गया। एक- एक क्षण, एक-एक श्वास, जीवन की एक-एक घड़ी, हजारों बिच्छुओं की दंशवेदना में तड़प-तड़पकर व्यतीत हुई है । वह कल्पना और मानवीय विचारधारा से परे का दुख न कहना, स्मरण न करना ही अच्छा है। मानो मैंने एक महान पवित्र व्रत लिया था, जो एक प्रकृत योद्धा को सजने योग्य था, जिसके लिए चरम कोटि के त्याग, साहस, सहिष्णुता, वीरता और प्रतिभा एवं ओज की आवश्यकता थी। अपनी शक्ति और व्यक्तित्व पर बिना ही विचार किए मैं रणपोत पर सैनिक गर्व से उद्ग्रीव होकर चढ़ गया। सहस्रावधि नर-नारियों ने हर्ष और आशा में भरकर उल्लास प्रकट किया, साधुवाद दिए, पर मानो प्रशान्त महासागर में एक साधारण चक्कर खाकर ही वह दढ पोत जल- मग्न हो गया और देखते ही देखते उसका अस्तित्व विलीन हो गया । रह गया अकेले मैं - साधन, शक्ति और अवलम्ब से रहित, एकमात्र तख्ते के एक टुकड़े के सहारे तैरता हुआ। अन्ध निशा में, एक सुदूर तारे के क्षीण प्रकाश में, उस दुर्धर्ष महाजलराशि पर, जीवन के मोह के कच्चे धागे के आसरे भटकता रहा । पन्द्रह वर्ष तक अनन्त हिंस्र जीव- जन्तुओं का आक्रमण, हड्डियों में कम्प उत्पन्न करने वाला शीत और नस-नस से प्राण खींच लेने वाली पर्वत-समान जलराशि की उत्तुंग तरी के थपेड़े उस असहाय अवस्था में सहन करता रहा। पन्द्रह वर्ष तक ! और कितना भयानक, कितना रोमांचकारी, कितना अद्भुत, यह जीवन का मोह रहा ! ये प्राण कितने बहुमूल्य प्रमाणित हुए। क्या पृथ्वी पर और कोई मनुष्य भी इस तरह जिया होगा ?

प्रकृति की एकान्त स्थली पर मैंने अपनी शैशव और यौवन का प्रारम्भ व्यतीत किया। वहां एक ही रंग था - त्याग, शान्ति, तप और निर्वासना । जब तक शैशव पर विधान का शासन रहा, मेरे बाहरी पीत वसन और अन्तस्तल का भी एक रंग रहा, पर यौवन विकास ने बाहर-भीतर में भेद डाल दिया। हां, संसर्ग तो कुछ न था, जो था साधारण; परन्तु नैसर्गिक वासनाओं ने प्रस्फुटित होते-होते उस त्याग, तप और निर्वासन - सबसे विद्रोह करना शुरू कर दिया। मैं ब्रह्मचारी था । उस तपस्थली पर मेरे जैसे बहुत थे, पर हमारे गुरु और उपजीवी ब्रह्मचारी न थे। हम नैसर्गिक रह ही न सके, हमारी सादगी में भी एक शान थी, हमारे ब्रह्मचर्य में भी एक फ़ैशन था, हमारे त्याग तप में भी प्रदर्शन था। जगत के सर्व-साधारण कैसे जीवन के पथ पर बढ़ते हैं, मैं नहीं जानता; पर हम सभी में हास्य, उल्लास, गोपनीय वासनाएं तथा तमोमयी भावनाएं थीं। उस आश्रम में मैं ही सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ हूं। मुझे सर्वश्रेष्ठ होना ही चाहिए; यह मैं शीघ्र ही समझ गया । कैसे? यह नहीं बताऊंगा। आचार्य का पुत्र था । राजपुत्र तो जन्म ही से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। इसमें अनुचित क्या? मैं सर्वप्रथम, सर्वश्रेष्ठ पुरुष होकर उस दुर्धर्ष आश्रम से बाहर आया। संसार कैसा सुन्दर था ! मैं देखते ही मोहित हो गया। वह मेरे ऊपर श्रद्धा, आशा और प्रेम बिखेर रहा था। मैंने जाना भी न था कि मैं जीवन में इतना आदर पाऊंगा। वह आशातीत आदर पाकर मैं गर्व से नाच उठा । मैंने अच्छी तरह अपनी मानसिक दुर्बलताएं अपने पीले उत्तरीय में लपेटकर छिपा लीं और मैं असाधारण पुरुष की तरह खुले संसार में पैर के धमाके से हलचल मचाता हुआ आगे बढ़ चला।

स्त्री को सदैव दूर से देखा और अनुमान से समझा था । आश्रम में स्त्रीमात्र दुष्प्राप्य थी। फिर मैं तो मातृहीन बालक ठहरा। परन्तु सदैव ही मैंने स्त्री- जाति के सम्बन्ध में विचारा । फिर भी वह क्या वस्तु है, कुछ समझा नहीं ।

पर, विशाल जगत में आते ही स्त्री मिली। अद्भुत वस्तु थी। इसे देख, फिर और किसी को देखने की इच्छा ही न होती थी। मैं जगत को भूल गया । स्त्री-शरीर, स्त्री- हृदय, स्त्री-भावना, यह मेरा खाने और बिखेरने का अब विषय रहा, परन्तु जीवन का एक नूतन अनिर्वचनीय आनन्द तो अभी मिलना शेष ही था । वह मुझे शिशु कुमार के अवतरण होते ही मिला । आह ! जगत के पर्यो के भीतर क्या-क्या छिपा है, और उसे भाग्यवान किस तरह अनायास ही प्राप्त कर लेते हैं, यह मैं क्या कभी विचार भी सकता था ?

वाह रे मेरा सुखी जीवन और मेरा नवीन संसार! मैं सोता था हंसकर, जागता भी था हंसकर ! शिशु कुमार और उसकी माता, ये दोनों ही मेरे हास्य के साधन थे । शीतकाल प्रभात की सुनहरी धूप की तरह वह मेरा हास्य मुझे कैसा सजता था ! आज पन्द्रह वर्ष से मैं उस अतीत हास्य की कल्पना करके भी एक सुख पाता हूं।

देश मेरा प्राण और देश सेवा मेरा व्रत था । यह बात कुछ मेरे मन के भीतर नहीं उपजी, प्रत्युत मुझे बचपन से सिखाई गई थी । उस आश्रम की उन अति गरिष्ठ पुस्तकों के अलावा, जिनसे सदैव भयभीत रहने पर भी मेरा पिंड नहीं छूट सका था, यही एक प्रधान विषय था, जिसे आश्रम के गुरु से शिष्य तक भिन्न-भिन्न शब्दों और शैलियों में सोचते - विचारते थे।

देश ही मातृभूमि है, वह मातृभूमि - माता जन्मदात्री से भी पूजनीय है। वही मातृभूमि विदेशी अत्याचारियों द्वारा दलित है । उसका उद्धार करना हमारे जीवन का एक व्रत है। बस, यही हमारे देश-प्रेम की रूप-रेखा थी । मातृभूमि का उद्धार कैसे किया जाए, यह मैंने न कभी सोचा, न समझा, न किसी ने मुझे बताया ही । मैं मातृभूमि का उद्धार करूंगा, यह मैं चिल्लाकर कहता । पर किस तरह, यह नहीं जानता था । और इसीलिए मैं अब तक समय-समय पर चिल्ल - पुकार करने के सिवा और कुछ कार्य इस विषय में कर भी नहीं सका। मैंने समझा, यही यथेष्ट है। इसे करने में धन भी मिला और यश भी । रोज़गार - धन्धे को ढूंढ़ने की दिक़्क़त भी न उठानी पड़ी, यही चिल्ल-पुकार करना मेरा व्यवसाय हो गया। मैं अब जिह्वा और लेखनी दोनों से यही चिल्लाया करता । निदान, देश पर मरने वालों की फेहरिस्त में मेरा नाम दूर ही से चमकने लगा। मेरी स्त्री हंसती थी। वह मुझे जीवित रखना चाहती थी, मारना नहीं । मैं कह दिया करता - यह तो कहने की बातें हैं। मरने का ऐसा यहां कौन सा प्रसंग है ? बस, यही उसके हास्य का विषय था। शिशु कुमार की बात कैसे भूली जाए ? हंसने में चार चांद तो वही लगाता था।

पर मैंने जो कुछ समझा वह मेरी जड़ता थी । देश का अस्तित्व एक कठोर और वास्तविक अस्तित्व था । उसकी परिस्थिति ऐसी थी कि करोड़ नर-नारी मनुष्यत्व से गिरकर पशु की तरह जी रहे थे । संसार की महाजातियां जहां परस्पर स्पर्धा करती हुई जीवन-पथ पर बढ़ रही थीं, वहां मेरा देश और मेरे देश के करोड़ों नर-नारी केवल यह समस्या हल करने में असमर्थ थे कि कैसे अपने खंडित, तिरस्कृत, अवशिष्ट जीवन को ख़तम किया जाए ? देश-भक्त मित्र मेरे पास धीरे-धीरे जुटने लगे। उन्होंने देश की सुलगती हुई आग का मुझे दिग्दर्शन कराया। मैंने भूख और अपमान की आग में जलते और छटपटाते देश के स्त्री - बच्चों को देखा। वहां करोड़ों विधवाएं, करोड़ों मंगते, करोड़ों भूखे- नंगे, करोड़ों कुपढ़-मूर्ख और करोड़ों ही अकाल में काल-ग्रास बनते हु अबोध शिशु थे। मेरा कलेजा थर्रा गया। मैं सोचने लगा, जो बात केवल मैं कहानी - कल्पना समझता था, वह सच्ची है, और यदि मुझमें सच्ची गैरत थी, तो मुझे सचमुच मरना ही चाहिए था। मैं भयभीत हो गया। मैं कह चुका था कि मैं मरने से पीछे हटने वाला नहीं हूं। अब क्या करता ? मैं बिल्कुल पशु तो नहीं, बेगैरत भी नहीं, परन्तु मैं मरने को तैयार नहीं था। फिर भी मैं ज़बान लौटा न सका, मेरी वाग्धारा और लेखनी वैसे ही चलती रही। वास्तविकता का ज्यों-ज्यों दिग्दर्शन मुझे हुआ, वह उतनी ही अधिक मर्मस्पर्शिनी हो गई। बोलना और लिखना मैंने सीखा था, फिर वह मेरा स्वाभाविक गुण था । शीघ्र ही मेरी सोलहों कलाएं पूर्ण हो गईं। मैं देश में सितारे की भांति चमकने लगा। मेरा सम्मान चरमकोटि पर पहुंचा; पर मेरा हास्य, मेरा सुख सदा के लिए गया । मैं सदा ही शंकित, थकित और चिन्तित रहता, मानो मृत्यु परछाईं की तरह सदा मेरे पीछे रहती थी। मैं उससे बहुत ही डरता था। अब मृत्यु ही मेरे हृदय और मस्तिष्क के विचारने का विषय रह गई, परन्तु क्या कहूं, इस दुःख में भी एक वस्तु थी, जो प्राणों से चिपट रही थी वही स्त्री और शिशु कुमार ।

राजा साहब को मैंने कभी नहीं समझा, पर उनसे कभी डरा भी नहीं । उनके नेत्र अद्भुत थे, और देखने का ढंग और भी अद्भुत । छोटा सा मुख, बड़ी-बड़ी मूंछे, उस पर भारी सा हम्मामा, और काले चश्मे से ढकी हुई अद्भुत रहस्यमयी आंखें। सभी कहते थे, राजा साहब से हम डरते हैं, पर मैं कभी न डरा । वे आते ही सदैव पहले मुझे प्यार करते, तब पिता जी से बात करते थे । वे पिता जी के अनन्य भक्त थे, पिता जी के दीक्षा लेने के पूर्व से ही । उनके संन्यस्त होने के बाद तो वे उनके शिष्य ही हो गए थे । बहुधा उनमें एकान्त में बातचीत होती, घंटों और कभी-कभी दिनों तक। वे खाना-पीना - सोना भी भूल जाते। तब भी मैं उनके विषय को न समझ सका था और अब, इतना बड़ा होने पर भी नहीं समझ सका । एक ही बात प्रकट थी कि वे बड़े भारी देशभक्त हैं। मैं भी देशभक्त था। बस, यही हमारा उनका नाता था । वह धीरे-धीरे बढ़ा। पहले वह जैसे मुझे प्यार करते थे, वैसे अब वे शिशु कुमार को प्यार करने लगे। यह बात मुझे और मेरी पत्नी को बहुत भाती थी। पर वे कभी-कभी शिशु कुमार को छाती से लगाकर मेरी ओर ऐसी मर्मभेदिनी दृष्टि से ताकते थे कि मैं घबरा जाता था । तभी तो मैं कहता था कि वह दृष्टि बड़ी अद्भुत थी। उस समय मैं उसे समझा नहीं, समझा तब जब मैं स्त्री, पुत्र, प्राण, जीवन सब कुछ उन्हें देकर महापथ पर महायात्रा के लिए अग्रसर हुआ। आज वे आंखें पन्द्रह वर्ष से प्रतिक्षण मुझे घूर रही हैं। उनसे एक क्षण भी बचना मेरे लिए अशक्य है।

राजा साहब ने मुझसे जिसलिए परिचय बढ़ाया था, उसका मुख्य कारण धीरे-धीरे उन्होंने खोला। मैं ज्यों-ज्यों सुनता था, भयभीत होता, पर यत्न से भय को छिपाकर उत्साह प्रदर्शित करता था। फिर भी मालूम होता, मानो वे सब समझ रहे हैं, वे थोड़ी- थोड़ी बातें करते और चले जाते। एक दिन हठात मुझे बुलाकर उन्होंने कहा- क्या तुम अपने पिता के सच्चे पुत्र और साहसी देश सेवक हो ? मैं 'न' कहता किस तरह? मैंने सिंह-गर्जन की तरह हुंकार भरी । राजा साहब ने मुख्य उद्देश्य बता दिया। मैं सन्न हो गया। वे मृत्यु को जेब में लिये फिरते थे, अपने लिए भी और मेरे लिए भी। उस महावीर के सम्मुख कायर बनाना मेरे लिए शक्य न रहा । मैं 'हां' करता गया । स्वामी जी के सम्मुख भी 'हां' की। स्त्री ने हाहाकार किया, परन्तु एक अपूर्व गर्व भावना मन में आ गई थी। मैं पीछे न हटा। मैंने अपना जीवन राजा साहब के हाथों सौंप दिया। फिर तो मैं इस तरह उड़ा, जैसे आंधी से उड़ता हुआ और डाल से टूटा हुआ सूखा पत्ता ।

मैंने अपनी आत्मा से अधिक उस पर विश्वास किया था। उसके पिता मेरे गुरु और परम श्रद्धास्पद थे। वे अपने जीवन के प्रारम्भ से ही देश के एक अप्रतिम सेवक रहे, उनकी सन्तान कैसे देश और जाति की मित्र न होगी ? मैं इसके विपरीत सोच ही न सका । इस प्रसंग से प्रथम कई वर्ष से मैं उससे परिचित था । पत्र-व्यवहार और मुलाक़ात सभी में वह एक उत्कट देशभक्त, वीर युवक ध्वनित होता रहा। जब मैंने उससे अपना गम्भीर अभिप्राय निवेदन किया, तो वह एकटक मेरे मुख को देखता रह गया। उसके होंठ और कंठ सूख गए। बड़ी चेष्टा करके उसने कहा, श्रीमान, आपने राज्य और रियासत को धूल के समान त्याग दिया; राज्य, भोग और ऐश्वर्य से दूर हो गए; दिन-रात देश और जाति की ध्वनि आपके रोम-रोम से निकलती है। अब आप क्या सचमुच प्राणों की बाज़ी भी लगा देने को तैयार हैं?

मैं तो तैयार ही था। बिना एक क्षण रुके मैंने कहा- हां-हां, अब प्राणों को छोड़कर मेरे पास और रह ही क्या गया है ? ये भी जिसकी धरोहर हैं, उसे जितनी जल्दी सौंप दिए जाएं उतना ही अच्छा। इस शरीर को इन प्राणों का भार अब सह्य नहीं है । यह गुलामी, यह काला जीवन, हमारा, हम समस्त भारतवासियों का कैसा है, समझते हो ? जैसे, एक भेड़ के बच्चे का उस बाड़े के भीतर जिसके फाटक पर शिकारी कुत्तों का पहरा लग रहा है। इस पहरे के भीतर राजा रहा तो क्या, प्रजा रहा तो क्या, जीवित रहा तो क्या और मर गया तो क्या ? बोलो तुम क्या कहते हो ?

उसकी आंखों से झर-झर आंसू टपक गए। उसने गद्गद कंठ से कहा— श्रीमन्, मैं भी कैसा अपदार्थ हूं ! मैं अपनी स्त्री - बच्चे को त्यागने में कष्ट पा रहा हूं, परंतु आप ओह ! आपके सम्मुख मैं लज्जित होने का कारण न पैदा होने दूंगा। मैं सोचूंगा, कल इसी समय मैं आपको वचन दूंगा। सिर्फ़ कलभर आप और रहने दीजिए ।

“कुछ हर्ज नहीं, पर समझ लेना, मृत्यु की पद-पद पर आशंका है। भय और विपत्ति के बादलों में जाना होगा। ज़रा भी विचलित हुए, ज़रा भी स्त्री- बच्चों के मुख का स्मरण आया, ज़रा भी मन में भीरुता आई, तो देश अतल पाताल में गया ही समझना, साथ ही पचासों वीर मित्रों की जान जाएगी। सब कुछ मिट्टी में मिल जाएगा।"

"श्रीमन्, क्या आप नहीं जानते, मैं किसका पुत्र हूं ?”

"जानता हूं, पर तुम्हें स्वयं भी कुछ होना चाहिए।”

“तब श्रीमन् का मुझ पर विश्वास नहीं ?"

“विश्वास ? विश्वास अपनी आत्मा से भी अधिक है। मैं अपने विश्वास से बेफ़िक्र हूं। मैं यह चाहता हूं कि तुम्हें स्वयं अपने ऊपर विश्वास हो ।”

वह अधोमुख होकर सोचने लगा। मैंने मन में वेदना अनुभव की । लाखों युवकों में मैंने इसे चुना है, क्या मैं धोखा खाऊंगा ?

मैंने उसे विदा किया, वह चला गया ।

दूसरे दिन ठीक समय पर मिलते ही उसने कहा— श्रीमन्, मैं तैयार हूं । उसने अपना हाथ बढ़ा दिया । मैं घोर संदिग्ध अवस्था में था । क्षण भर मैं उसे देखता रहा। क्या यह सच है ? महान् विचारधाराओं के कार्य-रूप में परिणत होने का समय आ गया ? ओह प्यारे भारतवर्ष ! 'ठहरो । मैंने खड़ा होकर उसका स्वागत किया। मैं कुछ बोल न सका । मेरे नेत्रों में आंसू थे। कुछ ठहरकर मैंने कहा—प्यारे युवक, मैं प्रतिज्ञा करता हूं, प्राण रहते तुम्हारी रक्षा करूंगा। प्रत्येक खतरे को अपने सिर पर लूंगा। तुम्हें प्राणों से अधिक प्यार करूंगा, परंतु फिर भी तुम्हें प्रतिज्ञा करनी है कि यदि कुअवसर उपस्थित हो तो अपने प्राणों को, शरीर को अपदार्थ समझोगे । अभी तुम्हारे सम्मुख जो भयानक गम्भीर भेद प्रकट होंगे, उन्हें तुम्हारे हृदय से बाहर तब तक न आना चाहिए, जब तक कि तुम्हारे हृदय को चीरकर टुकड़े-टुकड़े न कर दिया जाए। तुम सदा यह समझकर अपने जीवन को बलिदान करने के लिए तैयार रहना कि इससे सैकड़ों सच्चे वीरों के जीवन की रक्षा होगी, जो अब नहीं तो फिर कभी-न-कभी देश का उद्धार करेंगे। युवक के नेत्रों में स्थिरता थी । उसने सहज - शांत स्वर में कहा— श्रीमन्, हर तरह परीक्षा कर लें ।

मैंने कहा – तुम्हारे पिता की भक्ति मेरे हृदय में धरोहर है । मैंने उनसे आदेश ले लिया है। तुम्हारी यही परीक्षा काफ़ी है । तुम मुख से एक केवल बार कह दो कि तुम भेदों को प्राणों से बढ़कर समझोगे ।

"समझूँगा।”

“विपत्ति आने पर तुम स्थिर रहोगे ?”

“उसी तरह, जैसे पत्थर की मूर्ति रहती है।"

“यदि तुम्हें मृत्यु का आलिंगन करना पड़े ?”

“ तो मैं उसे अपने पुत्र की तरह गले लगाऊंगा।”

“यदि तुम्हें भेद लेने के लिए असह्य वेदनाएं दी जाएं ?”

“मैं धर्म से शपथपूर्वक कहता हूं कि मृत्यु पर्यन्त उन्हें सहन करूंगा।”

“यदि प्रलोभन दिए जाएं ?"

"वे मुझे विचलित नहीं कर सकेंगे।”

युवक के होंठ कांपे । नेत्रों की पुतलियां चलायमान हुईं। मैंने अधी होकर कहा— प्रलोभन ? क्या प्रलोभन तुम्हें चलायमान न कर सकेंगे ?

"नहीं श्रीमन्, अभी मैं बड़े से बड़े प्रलोभन को त्याग आया हूं।”

मुझे संतोष न हुआ । मैं उठकर टहलने लगा। मैं सोचने लगा-वेदना, यातना और मृत्यु, एक ओर हैं, परंतु प्रलोभन ? ओह, इसका अंत नहीं। यह युवक वेदना सहेगा, मृत्यु का आलिंगन भी करेगा। मैं विश्वास करता हूं, पर - प्रलोभन ? ओह, विश्वास नहीं होता । शायद उसे स्वयं भी विश्वास नहीं ।

युवक ने मेरे पास आकर कहा— श्रीमान् क्या विश्वास नहीं करते ?

"मेरे प्यारे मित्र, मैं तुम्हारे साथ अन्याय कर रहा हूं। मुझे विश्वास करना चाहिए।” मैंने युवक को छाती से लगा लिया। मैंने कहा - लो, अब हम-तुम एक हुए, एक महान् कार्य की पूर्ति के लिए। यदि परमेश्वर को अभीष्ट हुआ तो हम मरकर भी अमर होंगे। हम दोनों करोड़ों मनुष्यों से अधिक शक्तिशाली हैं। हम पृथ्वी की महाविजयिनी शक्ति के सम्मुख चल रहे हैं - मरेंगे या विजयी होंगे। - आवेग में ही ये शब्द मुख से निकल गए। उसके बाद मेरा बाहुपाश कब शिथिल हुआ, कब वह युवक खिसककर मेरे पैरों में आ गिरा, मुझे स्मरण नहीं ।

जगत् में असाधारण होना भी कैसा दुर्भाग्य है ! पृथ्वी की असंख्य आंखें उसी के छिद्रान्वेषण में लगी रहती हैं। वह यदि जगत् के लिए मरता है, तो जगत् की दृष्टि में यह उसका साधारण-सा कर्तव्य है, किंतु यदि वह एक क्षण भी अपने लिए जीता है तो मानो पाप का पर्वत उसके सिर पर लद जाता है। क्या यह दुर्भाग्य नहीं ? अरे भाई, सभी कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी, नर-नारी अपने ही लिए तो जीते हैं ? अपने क्षण-भर के सुख और जीवन के लिए अनगिनत प्राणियों को नष्ट कर डालते हैं। कोई भी तो उनसे कुछ नहीं कहता। फिर हमपर ही यह अग्नि-वर्षा क्यों ? मैंने सब कुछ त्यागा। जीवन के कष्ट और आपत्तियों की क्या कहूं, अब तो सबको पार कर गया। अब उनकी स्मृति से क्यों मन को संताप दूं ? परंतु शरीर और हृदय, ये जब तक जीवन-तत्त्व से संयुक्त हैं, तब तक तो प्रकृत संन्यस्त में सदैव कमी रहेगी ही। यह मेरा अब तक का अनुभव है ।

मैं संन्यस्त हुआ सही, पर पिता का हृदय कहां रक्खा जाए ? पुत्र तो आत्मा और रक्त-मांस में से भाग लेकर बना था, उसका मोह कहां तक त्यागूं? कहां तक निर्मोही बनूं ? उसकी मां तो उसे जन्म देकर ही मर गई थी। उसने अल्प जीवन में जो कुछ दिया, अब भी वह अतीत के सब सुखों के ऊपर नृत्य कर रहा है। उस मधुर स्मृति की एक अमिट रेखा यह पुत्र था । इसे मैंने हाथों-हाथ पाला और उसे, जैसा कि मैंने चाहा था, संसार के सामने, क्रान्ति के नव्य कुमार के रूप में पेश किया। लक्षावधि देशवासी उसपर नाज़ करते थे और मैं अपनी सफलता पर मुग्ध होता था, उसी तरह जैसे किसान अपने कड़े परिश्रम से सींची हुई खेती को पकी देखकर मुग्ध होता है ।

फिर भी मैं राजा साहब के वचन को न टाल सका। उनके भयानक साहस से मैं अवगत था। उनकी प्रत्येक गतिविधि से मैं परिचित था । पुत्र के अनिष्ट का भय पद-पद पर स्पष्ट था। किंतु मुझे सहमत होना पड़ा। इसके अनेक कारण थे। देश के नाम पर बलिदान होने की मैं स्वयं उच्च स्वर से पुकार कर चुका था, पुत्र को भी वही शिक्षा दी थी। अब उसे उस मार्ग में रोककर क्यों राजा साहब और अन्य साथियों की दृष्टि में अपदार्थ बनता ? लड़के में भी साहस और उत्साह था । पर उसके मर्मस्थल की दुर्बलता मैं जानता था। विलासिता उसे गिराएगी, मुझे भय था । उसने स्वयं नवजात पुत्र और पत्नी का विसर्जन कर उस भयानक यात्रा और कठोर कर्त्तव्य पथ पर राजा साहब का अनुकरण करने का अपना इरादा प्रकट किया, तब मैं स्तब्ध रह गया। मैंने कहा – पुत्र, राजा साहब का मैं चिर सहयोगी हूं, परंतु केवल मुख से। तुम तो इतने उत्साह से यह बात कह रहे हो, कदाचित् तुम अवश्यम्भावी विपद् से अवगत नहीं । कार्य की गुरुता और कठिनाई तुम यथावत् नहीं समझ रहे हो । यह तुमसे होने वाला कार्य नहीं, महादुस्साध्य है। यह लौहपुरुषों का महकमा है। इसके लिए वे पुरुष चाहिए जो लोहे का शरीर, लोहे की आत्मा और लोहे का हृदय रखते हों। मेरे बेटे, मैं जानता हूं । तुम वह नहीं हो। घर में बैठो, बैठे-बैठे जो बने करो। देश और जाति के लिए यही यथेष्ट है।

उसने एक न सुनी। वह मूर्ख मुझ पिता के सम्मुख भी कायर बनना न चाहता था । उसने अस्वाभाविक करारे स्वर में हठ प्रदर्शन किया और मुझे सहमति देनी पड़ी।

वही हुआ, जिसका भय था । पृथ्वी के उस छोर पर वे विपत्ति के अग्नि-समुद्र में बड़े कौशल और सावधानी से घुस रहे थे। अरे, जब अग्नि-समुद्र में घुसना था, फिर कौशल क्या ? वह फंस गया, राजा साहब बाल-बाल बचकर निकल भागे। मैं यहीं बैठा उनकी गतिविधि का निरीक्षण कर रहा था। महासमर की प्रचंड ज्वालाएं यूरोप को भस्म कर रही थीं। उसकी चिनगारी कब मेरी कुटी को भस्म कर देगी, यह कहना शक्य न था । यूरोप के दैनिक पत्रों को देखने के अतिरिक्त मैं और कुछ कर ही न सकता था। मन ही न लगता था। उसके उस पत्र पर सरकारी गुप्त विभाग के सर्वोच्च अधिकारी की एक टिप्पणी थी। उससे समझ गया, पुत्र की मृत्यु का मूल्य बहुत अधिक है । वह मूल्य मेरे पास था तो, पर मैंने बहुत चेष्टा की कि प्राण देकर उस मूल्य को न दूं। पर हाय ! अवसर ही ऐसा आ गया, मेरे प्राणों का कुछ भी मूल्य इस सौदे में न रहा । उसने सब- कुछ कह दिया था। उसके वक्तव्य की सत्यता के प्रमाणमात्र मेरे पास थे। मैं कई दिन तक उसके बच्चे को छाती से लगाकर तड़पता फिरा । अपने संन्यास वेश की असत्यता मुझ पर खुल गई। ओह, मुझे वह काला काम करना पड़ा। मैंने पुत्र के प्राणों की पिता की तरह रक्षा की।

पर उसके बदले हुआ क्या? देश भर में तलाशियों और गिरफ्तारियों की धूम मच गई। होनहार, अटपटे वीरों ने हंसते-हंसते फांसी पाई। कुछ कालेपानी जाकर वहीं घुल गए। कुछ युग व्यतीत कर लौट आए । देशोद्धार का सुयोग अतल पाताल में चला गया। मेरे दुष्कर्म का यह भेद एक राजा साहब को ही मालूम था, पर वे भारत में आ न सकते थे। एक पत्र उन्होंने भेजा था। ओह, जाने दो, जब उसे भस्म कर दिया है, तब उसकी चर्चा क्यों? जिस बात के भूलने में सुख है, उसे हठपूर्वक स्मरण क्यों किया जाए ?

महाजातियों का यह संघर्ष कैसा सुन्दर है! यदि मैं भी इन्हीं जातियों में जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त करता तो क्या आज चूहे की तरह इधर से उधर प्राण बचाता फिरता ? महाशक्ति की सेनाओं की कमान इन्हीं हाथों में होती, पर जीवन में कभी वह क्षण आएगा भी? आए या न आए, मैं अन्त तक न थकूँगा । भोजन और सोना कई दिन से नसीब नहीं हुए। नाविक के वेश में, मछलियों की सड़ी गन्ध में छिप-छिपे सिर भन्ना गया, पर विपत्ति तो अभी सिर पर है । वह दूर पर रण की तोपों का गर्जन सुनाई पड़ रहा है। वह सर्चलाइट का श्वेत सर्प समुद्र पर लहरा रहा है । किन्तु प्रभात होते ही तो किनारे लगेंगे ? किनारे पर शत्रु हैं या मित्र, कौन जाने ? मित्र हुए तो इस बार जान बची, पर यदि शत्रु हुए आज ही प्राणान्त है । जीवन भी कैसी चीज है ? इस समय राजमहल याद आ रहे हैं। महारानी मानो करुण नेत्रों से झांक रही हैं, परन्तु क्या इस महायुद्ध में मैं अपने वंशधरों की भांति अपने देश के लिए जूझने में पीछे रहूं ? जूझने के ढंग तो यथावसर निराले होते ही हैं, परन्तु जिन विदेशियों को मैं मित्र बनाकर अपना और अपने देश का ऐसा गम्भीर दायित्व सौंप रहा हूं, वह क्या सच्चे रहेंगे? एक विदेशी से प्राण छुड़ाने को दूसरे का आश्रय लेना सुन्दर नीति तो नहीं, परन्तु दूसरी गति भी नहीं थी । फिर, अब लौटने का उपाय भी तो नहीं है। एक बार देश में आग फैल जाए। अमन, आराम और शान्ति की इच्छा नष्ट हो जाए, देश जूझ मरने की हौस मन में उत्पन्न करे, फिर तो आज़ादी स्वयं ही आ जाएगी। यह महासमर तो महाराज्यों के भाग्य का निबटारा करेगा. महाजातियों के भाग्य का निबटारा तो कहीं अन्यत्र ही होगा। सुदूर पूर्व में शान्त समुद्र की लहरें रक्त से लाल होंगी, एशिया की प्रसुप्त आत्मा जागरित होकर हुंकार भरेगी, तब यूरोप का श्वेत दर्प ध्वंस होगा । उसी दिन के लिए तो मेरा आयोजन है। ओह ! अभी मुझे बहुत काम है, पहली यात्रा में ही यह विघ्न हुआ।

अभी मुझे बारम्बार चीन, जापान, रूस, अमेरिका और न जाने कहां-कहां जाना होगा। महाविध्वंस क्या यों ही हो जाएगा ? परन्तु वह युवक तो फंस गया। बुरा हुआ । बचना सम्भव ही न था। महासाहस उसमें न था । चिन्तनीय बात तो यह है कि सब-कुछ उसे ज्ञात है। आवश्यक काग़ज़ भी बहुत से वहीं रह गए हैं। तब वह क्या प्राणों के लोभ से देश को चौपट करेगा ? विश्वासघाती होगा ? मरने में क्षण-भर का ही तो दुःख है। वह अवश्य उसे सह लेगा, भेद न खोलेगा। फिर भी सचेत रहना आवश्यक है । मुझे अब नया कार्यक्रम बनाना उचित है। अपने मार्ग की गति भी बदलनी उचित है। ये नाविक विश्वसनीय हैं, परन्तु मैं कुछ और ही करूंगा।

ओह देश! मेरे प्यारे स्वदेश !! यह तन, मन, धन सब तुझ पर न्यौछावर है । तेरी एक-एक रज-कण में मेरे जैसे लाख शरीर बनते-बिगड़ते हैं। फिर इस शरीर का क्या मोह? मेरे प्यारे स्वदेश! मैंने सब कुछ तुझे दिया है। अब प्राण भी दूंगा । इस धरोहर को पास रखने योग्य अब मेरे पास ठौर भी नहीं रह गई है । आह, क्या कभी मैं तुझे देख सकूँगा? वह नील श्यामल रूप ! अरे, बचपन की क्या-क्या बातें याद आ रही हैं ? परन्तु नहीं, मुझे इस समय कायर नहीं बनना चाहिए। मैं प्रण करता हूं, देश की भूमि पर तभी पैर रखूंगा, जब उसे पूर्ण स्वाधीन कर लूंगा ।

प्राण बचे तो, पर वे मोल बिक गए थे। उन पर मेरा क़ाबू न था । अब स्वेच्छानुसार मैं न कुछ कर सकता था, न सोच सकता था । उन बहुमूल्य गोपनीय बातों के बदले मुझे गुप्त विभाग में उच्च पद मिला था। मेरे प्राण जैसे मेरे लिए क़ीमती थे, वैसे ही उस गुप्त विभाग के लिए भी थे। मेरा जीवन रहस्यमय था। मेरे हृदय में कुछ और भी है, तथा मेरी ओट में कुछ रहस्य-भेद होगा, इस तत्त्व ने मेरे प्राणों को इस अधम शरीर में सुरक्षित रखा और इस कापुरुष ने यही गनीमत समझा। शिशु की फैली हुई बांह और हंसता हुआ मुख मैं कुछ काल तक देखता रहा, उस जेल - यन्त्रणा और मत्य की कोठरी में भी और इस अफ़सरी की सखद किन्त भीषण कुर्सी पर भी । परन्तु पाप के पथ पर तो पाप की हाट लगी ही रहती है। फिर लिली की बात क्यों छिपाऊं ? न जाने क्यों वह मुझ अभागे पर मुग्ध हुई । उसका पति मेरा उच्च ऑफ़िसर था । हम लोगों ने विष द्वारा उस कंटक को दूर कर दिया। अब लिली थी और मैं था । परन्तु मृतात्मा हमारे बीच में जीवित की अपेक्षा अधिक भयानक रूप में थी। एक बार फांसी के फन्दे को हम दोनों ने अपने संयुक्त गर्दनों के इर्द-गिर्द देखा । हमने सोचा, यहां से भाग चलें। तार दिया, जहाज़ का टिकट भी ले लिया, पर भाग न सके। जहाज़ पर ख़ूनी असामी कहकर पकड़े गए। पर लिली का रोना देखने योग्य था । वह छूटती कैसे, हड्डियों तक घुस गई थी । हताश, दोनों मृत्यु का आलिंगन करने को तैयार हो गए। परन्तु ये कठिन प्राण तो इस शरीर में जमकर बैठे थे। उन्हीं शक्तियों ने प्राण बचा लिए । मैं लिली के मृतक पति के पद पर उसी मृतक के नाम से बैठ गया । लिली अब वास्तव में मेरी पत्नी थी। अब मानो मैं मर गया हूं, मैं नहीं हूं, जिसे मैंने लिली के लिए मारा, मानो वह मैं हूं। शिशु का वह हास्य और पत्नी के वे नेत्र अब भी कभी-कभी स्वप्न की तरह स्मरण आते हैं, पर पूर्वजन्म की इन बातों में अब क्या रक्खा है? लिली से मैं अब भी प्यार की आशा करता था । छिः ! कैसी विडंबना है ! पति के हत्यारे को प्यार करना क्या साधारण है ? फिर यदि प्रेम की सुखद गोद में हत्या जैसा पाप घुस जाए, तब वह जिन्हें सुखद प्रतीत हो वे निश्चय ही राक्षस होंगे। हृदय की उन वेदनाओं को क्या कहा जाए, जिन्होंने शरीर को नष्ट कर दिया है ? और वह अभागा भी कैसा दुःखी जीव है जो उसी के साथ रहने को विवश किया गया है जो उससे घृणा करती है ? हमारे रस की प्रत्येक बूंद में विष है, पर उसे रस कहकर पीना हम दोनों के लिए अनिवार्य है ! हाय रे प्रारब्ध !

मैं अभागिनी अबला स्त्री क्या करती । मरना सुखकर था, परंतु शिशु कुमार के मंद हास्य ने उसे दुरूह कर दिया। क्या कोई भी मां अपने फूल से बच्चे को इसी तरह हंसते छोड़कर मर सकती है ? अब तो मैं पहले मां थी, पीछे पत्नी । इसीलिए गोद के शिशु को धरती में पटककर परोक्ष पति के नाम पर मरना मेरे लिए संभव ही न रहा । मैं सुख-दुःख के बीच झूलती रही । मैं मृत्यु और जीवन की ड्योढ़ियों में पड़ी ठोकर खाती रही । मुझ दुखिया के कष्ट, मूक मनोवेदना का अनुमान तो कीजिए ? मेरी बात पूछने वाला कौन था ? मेरे मन को सहारा किसका था ? मैं पति के सहवासकाल की प्रत्येक घटना, प्रत्येक बात, अपनी आंखों से प्रतिक्षण देखती, सोते समय और जागते समय भी। मैं कभी हंसती और कभी रो देती । कभी सोते-सोते या बैठे-ही-बैठे चमक उठती। मुझे ऐसा प्रतीत होता था मानो वे आ गए। उन्होंने अभी-अभी शिशु कुमार को आवाज़ दी है। कण्ठ- स्वर को मैं प्रत्यक्ष सुन पाती। मैं द्वार की ओर दौड़ती, परंतु तत्काल ही समझ जाती, ओह ! कुछ नहीं, यह सब मनोविकार था। मैं नहीं कह सकती कि सोने के समय जांगती थी या जागने के समय सोती थी । प्रायः मैं जड़वत् बैठी रहती । उस समय मैं किसी की कोई बात ही न सुन पाती थी। मैं उस समय देखती थी वे उन्हें पकड़कर फांसी पर चढ़ा रहे हैं, उनके शरीर में तलवार घुसेड़ रहे हैं। शरीर रक्त से भर रहा है। मैं एकाएक चीत्कार कर उठती, और फिर धरती पर धड़ाम से गिरकर बेहोश हो जाती थी ।

शिशु कुमार को देखकर ही मैं सचेत रह सकती थी। मुझे तब वास्तव में हंसना ही पड़ता था। वह उनके सिखाए ढंग पर मेरे गले में बांहें डालकर जब ज़रा-ज़रा तोतली वाणी से सितार की झनकार के स्वर में कहता—माताजी, ‘रूठो मत' तब मैं मानो किसी गूढ़ जगत् से एकाएक भूतल पर आती। होंठों पर मुस्कान न आती, पर नेत्रों में आंसू आ जाते थे। उन्हें शिशु कुमार से छिपाने के लिए मैं उसे ज़ोर से छाती से लगा लेती थी ।

उस दिन स्वामीजी एकाएक मेरे सम्मुख आ खड़े हुए । उनके होंठ कांप रहे थे और पैर लड़खड़ा रहे थे । उनके मुख पर हवाइयां उड़ रही थीं, वे कुछ कहना चाहते थे, पर बोली न निकलती थी। मैं घबराकर उठ खड़ी हुई । मैंने कभी उन्हें इतना विचलित न देखा था। मैंने कहा – बात क्या है पिता जी ? वह जीवित है, वह आ रहा है। - वे अधिक न बोल सके। आंसुओं की धारा उनके नेत्रों से बहने लगी। उन्होंने मुंह फेरकर अच्छी तरह रुदन किया।

मेरे शरीर में रक्त की गति रुक गई। मेरी हड्डी - हड्डी कांपने लगी। मैंने खड़े रहने की चेष्टा की, पर न रह सकी । मेरा सिर घूम रहा था, छाती फटी पड़ती थी । मैं बैठ गई या गिर गई, स्मरण नहीं ।

स्वामी जी ने घूमकर कहा बेटी, आज सातवीं तारीख़ है। दस तारीख के प्रात:काल जहाज़ बम्बई के बन्दरगाह पर लगेगा । हमें आज ही चलना होगा। तुम अपना आवश्यक सामान ले लो। अभी समय है। गाड़ी साढ़े नौ पर खुलती है। वे इतना कहकर चले गए।

मार्ग में मैं जीवित थी या मृत, नहीं कह सकती । बम्बई कब पहुंची, स्मरण नहीं | रेल दौड़ रही थी, मैं मानो आकाश में घुसी जा रही थी, मानो मैं अभी सूर्य - मंडल को भेदन करूंगी। डेक पर सहस्रावधि नर-नारी खड़े थे। एक भीमकाय जहाज़ उन्मत्त समुद्र की जल-राशि के हृदय को विदीर्ण करता हुआ भयानक दानव की तरह तट की ओर निकट आ रहा था। मेरी संज्ञा प्रायः लुप्त थी । जहाज़ के डेक पर लगते ही नर-नारियों का समुद्र किनारे उतरने लगा। मैं सम्पूर्ण चेष्टा से उनके बीच कुछ खोज सकने भर की संज्ञा संचित कर रही थी। सब कुछ एक रंगीन बिन्दु के समान दीख पड़ता था । नहीं कह सकती, कब तक हम लोग खड़े रहे। हठात स्वामी जी ने कहा-इस जहाज़ में तो वह नहीं है। क्या कारण हुआ! उनके प्रदीप्त नेत्र दूर तक घूमकर मेरे मुख पर आ लगे। बम्बई आने पर यही शब्द मैं ठीक-ठीक सुन सकी । मैं समझी, यह सब मृग मरीचिका थी। वे नहीं आए, वे नहीं आएंगे। मैंने अनन्त तक फैली हुई जल - राशि पर दृष्टि दौड़ाई | हठात मेरे मन में एक भाव उदय हुआ । मैंने कहा - पिता जी, तब मैं कहां जाऊंगी ? मेरे ये शब्द मेरे ही कानों में तोप के भीषण गर्जन की तरह प्रतीत हुए।

स्वामी जी ने मेरे मुख की तरफ़ देखा। उन्होंने आश्वासन देकर कहा - अवश्य कुछ कारण हुआ है। पत्र या तार शीघ्र मिलेगा। तब भविष्य के कर्तव्य पर विचार करेंगे। अभी घर चलो। मैंने एक पग भी न हिलाया । बहुत तर्क हुआ । विजय मेरी हुई। सोते हुए शिशु कुमार को छोटी बहू की गोद में सौंप, उसे बिना ही अच्छी तरह देखे, उसे बिना ही चूमे, मैं अनन्त समुद्र के पार, उस अज्ञात प्रदेश पार, उस अज्ञात प्रदेश में, उस पति को ढूंढ़ लाने चली। मेरा माता होना धिक्कार हुआ। हाय रे! अधम नारी-हृदय ! !

इस कृष्णकाय और साधारण पुरुष ने क्या जादू कर दिया ? ओह, मैंने कैसा घोर दुष्कर्म किया? अब इन रक्तरंजित हाथों को कौन प्यार करेगा ? यही व्यक्ति ? और यह कितना भयानक, कितना घृणास्पद है! क्यों यह पापिष्ठ हमारे बीच में आया ? क्यों इसने हमारे प्रशान्त प्रेम में आग लगाई ? मैं इसे घृणा करती हूं। पति की मृतक आंखें कैसी चमक रही हैं! वे सब-कुछ जानती हैं। उन्होंने अपना सभी प्रेम और विश्वास मुझे दिया, इसीलिए कि मैं अपनी वासना के लिए उनका प्राण हरण करूं ? परन्तु अब तो मैं इसके साथ रहने के लिए बाध्य हूं, छुटकारा पा नहीं सकती। यह वह विदेशी कृष्णकाय हत्यारा नहीं, मेरा वही पति है। इसमें क्या राजनीतिक महत्त्व है, इसे तो वह गुप्त विभाग जाने, जिसने इस भाग्यहीन को इतना बड़ा पद दिया है। पर मैं कैसे यह मान लूं ? क्या आंखें फोड़ लूं, हृदय को चीर डालूं ?

सुनती थी कि यह विवाहित है । इसके पुत्र, पत्नी है। आज उसे देख भी लिया। वह इसे ले जाने के लिए यहां आई है, पर वह सब कैसे सम्भव हो सकता है? अब यह अपना पूर्व नाम भी स्मरण करेगा, तो उसकी सज़ा मौत है । और कैसी भयानक बात है। मैं उससे मिली, कितनी सीधी-सादी, दुखिया स्त्री है ! वह अपने हठ पर है। किन्तु उसे मालूम नहीं कि प्रबल और समर्थ हाथ उसके विपरीत है। अपराध का इतना समर्थन कहां किसने देखा होगा ? ओफ़ !

कल मैंने उन्हें देखा। वही थे, किन्तु कितना परिवर्तन हो गया है। फिर भी मेरी आंखें क्या उन्हें भूल सकती थीं? उन्होंने भी देखा। मैं समझ गई, उनकी हड्डी तक कांप गई है, पर क्यों? वे दौड़कर क्यों नहीं मेरे पास आए ? इतना डरे क्यों ? क्या पहचाना नहीं ? ओह, हे ईश्वर, तब मेरे लिए ठौर कहां है? इतना करके भी मैं वंचित रही ? आशा के कच्चे तार के सहारे ये प्राण इस अधम शरीर को यहां तक ले आए। आकर जो पाना था पाया भी, पर क्या मैं पाकर भी न पा सकूँगी ? ओह, पति के नाम पर मर मिटने वालियों से भी मेरा साहस बढ़कर है। मैं आगे बढ़ी। दिन छिप गया था। गहरा कोहरा इस विदेश | की महानगरी में अद्भुत और भयानक मालूम होता था । प्रकाश स्तम्भों की धुंधली रोशनी में मैं उनके पीछे बढ़ी चली गई और साहसपूर्वक उनका हाथ पकड़ लिया। उन्होंने रुककर देखा, भद्र विदेशी भाषा में उन्होंने कहा – देवी, आप कौन हैं? क्यों आपने मुझे रोका है? आपका क्या काम है, कहिए ? - अरे ! वही तो कंठस्वर था । सदा तो इसे मैंने सुना है, पर अपरिचित शब्द-जाल कैसा ? मैं रो उठी, मैं गिर गई, चरणों पर नहीं, धरती पर। उन्होंने मुझे उठाया, तसल्ली दी। मैंने देखा, वही, वही, वही हैं। मैंने गले में बांहें डाल दीं। जितना रो सकती थी, रोई । मैंने कहा — दासी पर यह निष्ठुरता क्यों ? यदि यह अपराधिनी है, तो शिशु कुमार को क्यों भूल गए? देखो प्यारे, वह सूखकर कांटा हो गया है। वह सदैव तुम्हारा ही नाम रटा करता है। तुमने स्वयं उसे अपना नाम रटाया था। वे भी रो उठे। अंत में उन्होंने कहा—प्रिये, धीरज धरो । मेरे कलेजे की आग देखो। मैं जीवन्मृत हूं, मैं कब का मर चुका हूं । सरकारी खातों में मेरी मृत्यु-तिथि दर्ज है। पर जो वास्तव में मर गया है, उस नाम से मैं जीवित हूं । उसका नाम मेरा नाम है, उसका पद मेरा पद है,उसकी स्त्री मेरी स्त्री है। ओह ! वह मुझे घृणा करती है, और मैं उसे । हम दोनों हत्या के अभियुक्त हैं । फांसी की रस्सी हम दोनों की गर्दनों के चारों ओर पड़ी है। ज्यों ही हमने यह भेद खोला - अपना पूर्व नाम जाना, कि उसका फंदा कस दिया गया। उसी दिन यह अधम देह प्राणों से रहित हो जाएगी।

मैंने यह भेद समझा ही नहीं। मैं अवाक् रह गई । पर जो कुछ सुनना था, सभी सुना। मैंने कहा— मैं अधिकारियों से कहूंगी, कानून से लडूंगी। उन्होंने कहा— सभी तरह मेरे प्राण जाएंगे। मेरे प्राण लेकर तुम क्या करोगी? क्या इसीलिए यहां आई हो ?

मैं क्या करती ? मैं मूर्च्छित हो गई। उन्होंने धीरे-धीरे कहा- मेरे पास बहुत धन हो गया है। चाहे जितना ले जाओ। शिशु कुमार को पढ़ाओ और अपने सधवा होने की बात भूल जाओ। मैं यदि मर सकता तो तभी मरता, जब वीर की तरह मरने का संयोग आया था। अब इस तरह जीने के बाद, ज्यों-ज्यों पाप और कायरता शरीर में घुसती जाती है, त्यों-त्यों मैं मरने से भय खाता जाता हूं। प्रिये, तुमने बहुत सहन किया है, और भी सहन करो। मुझे तब तक जीने दो, जब तक जी सकता हूं । ग्लानि और अनुताप को मैं सहन कर गया हूं। इससे अब ज्यादा कष्ट और कौन होगा ?

मैंने कहा- जिस मूल्य में तुम जीवित रहो, वह मैं दूंगी। मैं भयभीत नहीं, शोकाकुल भी नहीं। मैं दस वर्ष पूर्व भीरू स्त्री थी, पर तुम्हारे वियोग और जीवन की कठिनाइयों ने मुझे पुरुष - सा साहसी बना दिया है । अब मैं उन तमाम अतीत स्मृतियों को भूल जाऊंगी, जिनके सहारे जी रही थी । जब तुम 'जीवन्मृत' हो तो मैं भी जीवन्मृत हुई । वह सब कुछ पिछले जन्म की बातें हुईं । वह गङ्गा का उपकूल, वह जीवन के उल्लासपूर्ण दिवस, उस दिन वनवीथिका में तुम्हारा खो जाना, वह शिशु कुमार के जन्म से प्रथम का प्यार, उसके जन्म-दिन का वह दुर्लभ उपहार ... आह ! वह सब मेरे पूर्वजन्म की बातें हैं ! मैं उस जन्म में पुत्रवती, सौभाग्य-सिंदूर की अधिकारिणी, प्रेम और दुलार की पुतली थी। आज उन्हें भूलना भी कठिन है और याद रखना भी दुर्लभ ! पर भूलूं तो क्या ? और याद रक्खूं तो क्या ? जिसे पा नहीं सकती, उसकी कल्पना करने से ही क्या लाभ?

मेरे इस असाधारण साहस का यही फल हुआ । मैंने उन्हें विदा किया, इस जन्म के लिए । मेरा उनका शरीर-सम्बन्ध विच्छेद हुआ । उन्होंने मुझे बहुत-कुछ देना चाहा, पर मैंने स्वीकार न किया। मैंने कहा-तुमने अपने सुख के दिनों में जो शिशु कुमार मुझे दिया है, वही मेरे लिए बहुत है । मैं उसीके सहारे अवशिष्ट आयु काट दूंगी । तुम-तुम जाओ और पाप, छल, पाखण्ड, विश्वासघात में जीवन बिताओ। मेरे जीवन्मृत स्वामी, तुम्हें धिक्कार है ! मैं तुम्हारा धन छू नहीं सकती, मैं पसीना बेचकर अपना और शिशु कुमार का पेट भरूंगी। -मैं चली आई।

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