जीवन-यौवन (कहानी) : अशेष चट्टोपाध्याय
Jiwan-Yauvan (Bangla Story in Hindi) : Ashesh Chattopadhyay
जरा उस आदमी को देखें । पूर्वी एस्पेलेनेड ( कोलकाता शहर के बीचोबीच सबसे बड़े मैदान) के खुले मंच पर रीढ़ की हड्डी सीधी ताने हुए सीधा बैठा है। उसके साथ-साथ और भी कई बैठे हैं। उन सभी ने मिलकर इस पिच - सड़क को ही जैसे घर का फर्श बना रखा है। कहीं पर कोहिमा में द्वितीय युद्ध में मारे गए सैनिकों के समाधिस्थल के संबंध में पढ़ा था; उनके स्मृति- फलक पर लिखा है- 'तुम्हारे कल के लिए उन्होंने अपना आज न्योछावर कर दिया।' इनका बैठना ऐसा लगता है, जैसे-जंगल-जंजाल से ढँके कब्र के पत्थरों पर पड़ी रंगहीन क्रॉस की कतार- की कतारें। सभी मुखों पर एक प्रकार की मटमैली छाया, झँवाई - सी आँखें । देखते ही मन में एक अपराध-बोध चुभता है - 'तुम्हारे कल के लिए हमने अपना आज समर्पित कर दिया।'
उस आदमी को देखें। औरों के सिर जिसके कंधों तक ही पहुँचते हैं, जिसके बालों पर उम्र ने चूना पोत दिया है, जो कमर से गरदन तक एकदम सीधा है, जिसका मुँह एक भारी कड़े पत्थर के लोंदे जैसा लगता है। उस आदमी को पहले मैं पहचानता था । बहुत दिन पहले। उस समय तो सारे रास्ते ही गलीचों से थे। जीवन बड़ी कोमलता से माँड़कर बनाए गए मिट्टी के ढेले - सा था, जिससे जैसा मन हो, वैसी मूरत बनाई जा सके। क्रोध, दुःख, मान- अभिमान, प्रेम सभी एक-दूसरे से जुड़े हुए, गुँथे हुए थे। एक दूसरे से दबा पड़ा नहीं रहता था।
उस आदमी को देखें! उसके संगी-साथियों को देखें ! सभी के चेहरे राजभवन की ओर हैं। उनमें से कुछ आदमी स्मारक -पत्र (मेमोरेंडम ) लेकर राज्यपाल से मिलने की कोशिश में गए हैं। मैं जानता हूँ, राज्यपाल इस समय कलकत्ते में नहीं हैं। एक फीता काटने के लिए कलकत्ते से बाहर गए हुए हैं। फलतः उन्हें अपना माँग-पत्र या स्मारक-पत्र उनके सेक्रेटरी के पास ही रख आना पड़ेगा । उस रद्दी कागज के निचले हिस्से में हैं - अनेक काँपते हुए हाथों के दस्तखत - 'आपके कल के लिए हमने दे दिया है अपना आज ।'
जब हम बच्चे थे, तब भूगोल के नक्शे पर भारतवर्ष का रंग लाल-गुलाबी था । अब दोनों हाथ कटे हुए इस देश के दोनों हिस्से और रंग अलग-अलग हैं। 'गवर्नर्स हाउस' का नाम बदलकर हुआ है, राजभवन । दल बाँधकर वहाँ तब भी जाना संभव नहीं था, अब भी नहीं है। एक समय जो लोग इनके सामने खड़े होने में ही डरते थे, वे ही अब आगे बढ़ने के सारे रास्ते रोके खड़े हैं। कलकत्ते में बिना पैसे के तमाशा देखनेवालों की कमी नहीं है। आसपास भारी भीड़ इकट्ठी हो गई है। उनके साथ हैं - कपड़े का एक बैनर और कुछ चटाइयों के ऊपर चिपकाए हुए पोस्टर। उन सबको हटा देने पर दरिद्र बूढ़ों- कुछ बूढ़ियाँ भी हैं - की जमात भर ही है। इधर-उधर से रह-रहकर छोटे-मोटे विचारों के छींटे सुनाई पड़ते हैं। कुछ तो निरे मजाक भर हैं, किसी-किसी में मिथ्या - सहानुभूति के पुलिंदे चढ़े हैं।
भीड़ के आदमी के रूप में ही खड़े रहना मेरे लिए निरापद है। उस काले-पत्थर के लोंदों मार्का मुख की ओर देखने की हिम्मत मुझमें नहीं है।
“अरे ओ भाई साहब! आप यहाँ हैं और मैं चिंतित हूँ कि जाने कहाँ चले गए ? – एक ही साथ अनेक बातें माथे में चक्कर काटने लगीं। बड़े ही प्रभावशाली कोण से उस बुड्ढे का फोटो लिया है। रूपाकार तो प्रकाश के विपरीत दिशा से आया है, लेकिन पीछे के पोस्टर के अक्षर सब धूप में चमक रहे हैं। बहुत अच्छा वैपरीत्य (कंट्रास्ट) बना है। अब भाई साहब एक अच्छा-सा मौजूँ- सभी तरह से सही शीर्षक सोचें तो इस गिरफ्तारी का । "
"तुम्हारे कल के लिए हमने अपना आज न्योछावर कर दिया । ' - अपने अनजाने में ही मैंने एक सत्य को खोदकर बाहर रख दिया। जैसे किसी दूसरे व्यक्ति ने मेरे गले से बात उगलवा दी हो! मैं स्वयं ही सकपका गया। सामने खड़ा फोटोग्राफर दिलीप भी हक्का-बक्का हो गया।
मेरे पेशे में - और मेरी उम्र में भी - विह्वलता का, आर्द्रता का भाव अधिक देर तक ठहर नहीं पाता । कल के अखबार में, बहुत हुआ तो भीतर के पृष्ठ में एक तीन कॉलम की गिरफ्तारी की कहानी भर छप जाएगी। मेरी जेब में पड़ा है, दिल्ली से अभी-अभी लौटे एक युवक नेता का वक्तव्य । अपने ही दल के दूसरे ग्रुप के नेता के विरुद्ध की गई क्रोधपूर्ण धमकियों भरा। वह पहले पृष्ठ पर निश्चय ही छपेगा । और तो और, यह दूसरा अग्रलेख भी हो सकता है।
उस काले कड़े पत्थर के लोंदे जैसे मुखवाले उस आदमी से जिस समय मेरा प्रथम परिचय हुआ था, उस समय उसकी जो उम्र थी—मैं उसी जगह पहुँच गया हूँ। उस समय तो मैं भी सपनों का सौदागर था । अपने उस 'मैं' को आज मैं पहचानना भी नहीं चाहता । अब तो पीछे की ओर लौटकर निहारने में ही मुझे डर लगता है। फिर भी वही 'मैं' आगे आया और आकर उसने मेरे कंधे पर हाथ धर दिया |
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'कफे-दि- अजित' पर्यंत जाने की जरूरत नहीं पड़ी। उसके पहले ही समीर से भेंट हो गई। उस समय के कलकत्ता में भी साँझ की वेला में ट्राम - बस का शोर-गुल होता था, भीड़ होती थी । सुंदर प्रकाश की शोभा से सज्जित दुकानों में सीढ़ी चढ़ते-उतरते लोगों का आना-जाना अनवरत जारी है। हमारे दोनों पाँव इसलिए चलते जा रहे हैं, क्योंकि अभी कहीं ठहर पाने को कोई ठिकाना नहीं है। समीर तो वैसे ही बहुत हड़बड़ी वाला लड़का है। प्रायः हर वक्त बहुत व्यस्त रहता है। इस तरह ढीले-ढाले रूप में चलना उसके एकदम विपरीत है। एक-ब-एक आमने-सामने पड़ जाने पर सचेत हुआ ।
"क्यों रे, लौट रहा है ?" आश्चर्यचकित होते हुए सुई सी चुभोकर उसे जीवंत करने की चेष्टा की ।
"ओऽ, अरे तू है !" मुझे देख लेने पर अपने बिखरे मन को समीर ने समेटा । एक फीकी-सी हँसी हँसा । फिर बोला, 'कफे-दि-अजित' की धर्मशाला में तीन दिन की जगह, तीन सप्ताह तक मस्ती उड़ाने दिया। उधार में ली गई चार कप चाय में चौदह लोगों द्वारा प्रत्येक संध्या को प्रायः ढाई घंटा रोज अड्डा मारना। दुकान के मालिक अजित साँपूई ने सारी घटना तिरछी नजर से देखी-भाली है । आज उसने खुल्लम-खुल्ला कह दिया, “हेथा नय, हेथा नय, अन्य कोथा, अन्य कोन खाने।" (यहाँ नहीं, यहाँ नहीं, और कहीं; अन्य किसी स्थान पर । ") अतएव जाओ, निकलो बाहर उठो, मुसाफिर गठरी बाँधो खोजो नूतन डेरा ।
"लेकिन और सब ?" मैं हड़बड़ाकर बोला, “श्यामल, बबलू, सुरजीत, मंटू, न्यापा दादा ?"
"कोई चिंता नहीं ।" समीर ने उत्फुल्ल होकर कहा, "सभी को देशप्रिय पार्क के दक्षिण की ओर की बेंचों की ओर रि-डायरेक्ट (फिर से भेज देने) कर देने का महान् उत्तरदायित्व अजित साँपूई ने स्वेच्छा से और आनंदपूर्वक स्वयं ग्रहण कर लिया है। "
फुटपाथ पर लोगों के आने-जाने का प्रवाह उसी प्रकार तेज गति से प्रवहमान है। एक स्थान पर खड़े होकर बात करना बहुत कठिन है। फलत: हमें जल्दी-जल्दी अपने खड़े होने की स्थिति बदलनी पड़ रही थी। मेरे दोनों कंधों को पकड़कर समीर ने पीछे की ओर मोड़ दिया। फिर 'स्लो मार्च' के ढंग पर हम दोनों मंथर गति से बढ़ने लगे।
यह जिस समय की बात है, उस समय कलकत्ता के दक्षिण में नाकतला, बॉश ट्रोनी, यूँटियारी, बड़िशा, इन सब जगहों में ज्यादातर मैदान था; दूर-दूर कहीं-कहीं एक-दो घर थे और उत्तर में लेक टाउन, बांगर एवेन्यू, साल्ट लेक आदि किसी की कल्पना में अभी नहीं थी । दक्षिण का गँवार बतास बहुत दूर तक निर्बाध चला जाता था। उसकी सुगंध बतास जैसी ही थी। काफी रात चढ़े दूर अलीपुर चिड़ियाखाना से कभी-कभार बाघ-सिंह की दहाड़ तिरती आती थी। मारने-पीटने की योजना बनाने के पहले लोग थोड़ा सोचते - विचारते थे। हम जो दक्षिण के बाशिंदे थे, उत्तर के बंधु-बांधवों को कनिष्ठ लोगों की प्रजा समझते थे।
'कफे-दि- अजित' — को मिलाकर देखें तो हम इसे लेकर मोटे तौर पर अपनी पक्की जगहों से चार बार विताड़ित हो चुके थे। इसके पहले 'मनोहर कैबिन, टी हाउस और भजू दादा की चाय की दुकान पर अड्डा जमाने की कोशिश हम लोगों ने की थी । एक जगह दस दिनों तक टिक सके थे। अंततः एक दिन दुकान मालिक ने हाथ जोड़ दिया। इन सब जगहों की खोज समीर करता था। काफी वर्षों से बी. ए. की परीक्षा दे रहा है, इसी से उसका चेहरा कुछ चटकदार हो गया है। उसकी परीक्षा फीस जमा करने को हम सब कहते थे - कलकत्ता विश्वविद्यालय का वार्षिक चंदा। एक अच्छे उद्यमी पिता की संतान होने के कारण साज- पोशाक की दशा ठीक ही थी। कैप्स्टन - उस समय इस ब्रांड की सिगरेट, जो सचमुच उत्कृष्ट थी- छोड़कर और कोई सिगरेट नहीं पीता था । परंतु पूरा का पूरा एक सिगरेट अकेले-अकेले पी लेना संभव नहीं होता था । हमारे जैसे खाली टेंटवाले गणेश कई थे। पहली और अंतिम कश खींचने के बीच वह नीलमणि सिगरेट कम-से-कम दो आदमियों का ओठ जरूर छू लेती थी।
उस समय हम सबकी आयु – 'सँभालो - सँभालो' - प्रकृति की थी । बीस वर्ष के चौखटे के थोड़ा इधर-उधर । किसी का एम.ए. क्लास में नाम लिखा है, तो किसी के नाम के बाद एम. ए. लिख सकने की योग्यता हो जाने पर भी नौकरी के लिए उतनी व्यस्तता नहीं थी । घर पर तो मुफ्त का रहने का स्थान और भोजन - पानी मिलता ही था । दो-एक ट्यूशन के जोर से थोड़ी मोड़ी मासिक आमदनी भी हो जाती थी। उसी से चाय-पानी का खर्च किसी-न- किसी तरह चल जाता। वैसे बेकार रहने के कारण भरण-पोषण करनेवाले गुरुजनों की डाँट फटकार कभी-कभार सुननी पड़ती। लेकिन उस सबकी हम कुछ परवाह नहीं करते थे ।
हमारे सारे ध्यान-ज्ञान और अड्डेबाजी का मूल आकर्षण का केंद्र था - जिस भाँति भी संभव हो सके, एक पत्रिका प्रकाशित करना । नामी-गिरामी मासिक पत्रों तथा साप्ताहिकों की ऊँची-ऊँची इमारतों से हमारी रचनाएँ प्राय: ही फिर से बाँध - बँधकर वापस आ जाती थीं। वही सब अस्वीकृत कहानियाँ, कविताएँ, निबंध आदि इस पत्रिका को भर देते थे। छापेखाने के अक्षरों में अपनी रचना की सुषमा देख-देखकर मन भरता नहीं था। पत्रिका का नाम था - ' मृगशिरा ' । मलाट पर लकड़ी का ब्लॉक, डिमाई साइज (23x36) के दो या तीन फर्मे भर की पत्रिका, कोई विज्ञापन नहीं । अगर कभी कोई विज्ञापन पाते भी और छापते भी, तो भी उनके दुष्ट बदमाश मालिकों से उसका पैसा नहीं ले पाते थे। हमारा उद्देश्य था कि वर्ष में कम-से-कम चार बार पत्रिका प्रकाशित हो, किंतु तीन बार प्रकाशित करने में ही जीभ बाहर निकल आती थी । " कलकत्ता-संस्कृति के दो टिमटिमाते प्रदीपों को हम प्रभामंडित तेजपुंज बनाने में साहाय्य कर रहे थे। पहली, छोटी पत्रिका प्रकाशित करना और दूसरी, विलायती किताबों की गप्पें पढ़कर मस्ती लूटना।" (यह बात पहले-पहल संभवत: समीर ने ही कही थी । )
एक खुली जगह यदि संभव हो तो गली के भीतर, जहाँ लोगों का आवागमन कम, किंतु कुरसी - मेज और यदि वह भी नहीं, तो कम-से-कम बैठने की बेंच हो। ऐसी चाय की दुकानें हम ढूँढ़- ढूँढ़कर बाहर करते थे । इस प्रकार के अनुसंधान में समीर की दृष्टि क्लब के बाज की तरह अत्यंत तीक्ष्ण थी। दुकान का मालिक हम लोगों को खरीदार - ग्राहक के रूप में पाकर पहले-पहले अपने को अत्यंत कृतार्थ समझता था। लेकिन स्क्रू की चूड़ी हम धीरे-धीरे कसते थे। पहले दिन पूरे दल-बल के साथ नकद पैसा चुकता कर चाय - टोस्ट, आमलेट खरीदते थे। दूसरे दिन आमलेट को विदा कर देते थे। तीसरे दिन टोस्ट भी छोड़ देते थे। फिर कई दिनों तक केवल चाय, लेकिन वह भी कई-कई बार। तब तक भी सारा कारबार नकद देकर। उसके बाद 'उधार का फंदा' बड़ी निपुणता से दुकान के मालिक के गले में डाल दिया जाता था । कभी-कभार दो-चार रुपया उधार का चुकाकर कुछ ढीला छोड़ दिया जाता। इसी कौशल से कुछ दिन बीत जाते थे। अंत में निश्चय ही पूर्व नियमानुसार उस अड्डे का समय समाप्त हो जाता। जैसा कि आज हुआ - 'कफे दि - अजित' का ।
उसके बाद का दूसरा अड्डा तलाश करने में कुछ समय लगता। उतने दिनों तक देशप्रिय पार्क के दक्षिण ओर के एक बेंच पर जमता हमारा अस्थायी अड्डा । वहाँ भी बूढ़े पेंशनभोगियों को वहाँ से भगाकर ही बैठने का अवसर मिलता था। इस प्रकार की जबरदस्ती दखल करने की कारगुजारी और बूढ़ों को हटाने का भार समीर के ही ऊपर था। वह होंठों में सिगेरट दबाए हुए, सबसे अधिक वृद्ध सज्जन के सामने पहुँचता और अत्यंत मुलायम स्वर में कहता, “नाना! जरा सा एक काठी और दियासलाई देंगे।" इसके बाद तो क्रुद्ध विक्षुब्ध होकर क्रोध से देखते हुए वहाँ से चले जाने के अलावा बूढ़े लोगों के लिए और कोई उपाय नहीं होता था । बस, केवल एक बार एक वृद्ध ने, जिनकी पकी हुई दाढ़ी छाती तक लटकी थी, किटकिटाकर कहा था, " अपने बाप से ही जाकर क्यों नहीं माँगते दियासलाई?" परंतु जरा भी गुस्सा हुए बगैर बहुत शांत गले से समीर ने उत्तर दिया था, "नानाजी, मेरे पिताजी तो मुझसे भी कुछ अधिक ऊँचे दर्जे के हैं। वे तो यह चीज - यहाँ उसने दाहिने हाथ की दो उँगलियों से गोला बनाकर दिखाया - भी (माने गाँजा ) दूसरे के सिर पर कटहल फोड़कर खाते हैं। मैं तो उन्हीं पिताजी का सपूत हूँ । केवल दियासलाई ही तो माँगी है !"
‘कफे-दि-अजित' से भगाए जाने पर कुछ दिनों तक हमारा कुछ समय बहुत बुरा बीता। नए अड्डे पर बैठते-न- बैठते ही परेशान कर भगा देने का उपक्रम। सभी जगह कुरसी - मेज-दुकान के मालिक के दिमाग, सभी दोपहर की धूप में तपे हुए टिन की तरह। दो दिन बीतते- न-बीतते अपना प्रसार समेट लेना पड़ता। तब तक समीर की टेकनीक भी भोथरा गई थी अथवा यह भी हो सकता है कि दुकानदार सब पहले से अधिक सयाने हो गए होते थे। हम लोगों का ऊँट की तरह ‘पहले नाक घुसेड़कर दुकान पर दखल कर लेने का कौशल ' - शायद अधिक प्रसारित हो गया हो । एक जगह तो महानिष्क्रमण के समय छोटी-मोटी मारपीट ही हो गई। हमारे दल के सबसे निरीह और उम्र में बड़े सदस्य न्यापा दादा का चश्मा टूट गया और समीर के भारी हाथों के घूँसे से दुकान मालिक की नाक से खून टपकने लगा। थाना पुलिस तक की नौबत पहुँचने के पहले ही हम लोग हवा हो गए।
न्यापा दादा यद्यपि हम लोगों के साथ थे, फिर भी जो हमारा खास अंदर महल था, उसके बाहर - बाहर थे। हम सब 'डिलान टामस', रयांबो, हाइने, रिल्के, सार्त्र, किर्कगार्द, इन सब नामों के ईंट-पत्थर लेकर उछल-कूद करते थे। उस समय न्यापा दादा की आँखें ऐसी लगती थीं, जैसे घर में भूल से जला रखे दीये की बत्ती । तीस वर्ष की अवस्था में ही उनका विद्यासागर जैसा कपाल, सिर के बाल सँवरते-सँवरते प्राय: ब्रह्मतालु तक पहुँच गए हैं। ऐसे ही प्राय: हर वक्त जैसे चोट खाए केंचुए जैसे। किंतु दो अवसरों पर वही न्यापा दादा हमारे लिए केंचुए की जगह शंखचूड़ पहलवान थे। एक अँधेरी गली में उनके पिताजी का ट्रेडिल मशीन का एक प्रेस था । वहाँ हमारी पत्रिका के छपने की पक्की व्यवस्था थी । प्रेस के बकाया बिल और हमारे बीच अनेक बार न्यापा दा मध्यस्थ दीवार सदृश थे। उस उम्र में बहुतों के मन लड़कियों के शरीर के सौंदर्य की खोज में नाक से सूँघते रहते थे । सिद्धांत की बातें तो हुई थीं, किंतु प्रयोग अभी भी बहुत दूर-दूर था। किंतु न्यापा दादा जैसे ललचाए पागल व्यक्ति - कौन जाने लालची पागल होने से ही - को तीन-तीन बार प्रायोगिक अनुभव हो चुका था । इसके अतिरिक्त वह पैदाइशी ताक- झाँक करनेवाला पट्ठा था । अड्डे की तंद्रालसता को दूर करने का सर्वोत्तम उपाय था - न्यापा दा का अतिक्षीण स्वर में रस ले-लेकर कथा - वर्णन । वैसे सदा सलज्ज मुखचोर बने रहनेवाले न्यापा दा उस समय आश्चर्यजनक कथावाचक हो उठते। थोड़ी-थोड़ी भी जगह वर्णन से छूट जाने का कोई उपाय नहीं । सबकुछ तिल-तिलकर बखानते और उस पर भी समीर की - " बार-बार हुँकार, और विस्तार से सर, और विस्तार से । "
एक समय पर न्यापा दा की सारी कहानियाँ बासी पड़ गईं। देशप्रिय पार्क की अवस्था एकदम अस्थिर हो चली। आज यह आ रहा है, तो कल वह नहीं आ रहा। ठीक ऐसे ही समय में हम सब एकदम तरोताजा स्वर्ग का ही अधिकार पा गए। मानो दक्षिण प्रशांत सागर का प्यागो प्योगो द्वीप; परिपूर्णतः चिरंतन बसंत की बहार । इस बार भी कैप्टन कुक की भूमिका में समीर ही था। उस दिन संध्या समय सबके मुँह की बोली मानो झर गई थी। सबकी जबान पर ताला पड़ गया था । दो-एक व्यक्ति उठ जाने के लिए विकल थे। समीर जाने कहाँ लापता हो गया था । लौटा तो जैसे पाँवों में पहियोंवाला जूता पड़ा हो ! पहले तो एक बार जमकर किरात - नृत्य किया । हम सब तो स्तंभित रह गए। उसके बाद बड़े गर्व से बोला, “चलो।" शेष रहस्य रास्ते में जाते हुए ही सुना गया । लगातार चाय मिलने की व्यवस्था तो है ही, बैठने के लिए कुरसी - मेज की भी कोई कमी नहीं है और ऊपर से माथे पर मुक्त आकाश । उन्मुक्त वायुमंडलमय (ओपन एयर ) कॉफी-पान स्थल (कैफे ) । लगता था, जैसे बैबिलोनियाँ की झूलती वाटिका का आभास दे रहा था ।
हाँ, तो सराहने लायक है समीर की प्रखर दृष्टि । पूरे क्षेत्र की सूक्ष्म खोजबीन कर यह अत्यंत उपयुक्त स्थान ढूँढ़ निकाला है। लेक - मार्केट के समीप ही एक मंजिला अकेला भवन । अभी शीघ्र ही बनाए गए दुमंजिले पर एक बड़ा सा हॉलनुमा कमरा, जो खुली छत के मस्तमौला पहरेदार की भाँति खड़ा था । उसी कमरे में अभी जल्दी ही आरंभ किया गया भोजनालय–‘लेक व्यू होटल एंड रेस्टोरेंट ' - सुदृश्य झील भोजनालय एवं विश्रामगृह । अभी दूसरा भाग आरंभ नहीं हुआ था, किंतु समीर ने पहले से ही भूमिका बाँध रखी है।
इस दुकान के मालिक का चेहरा देखकर तो कइयों ने सोचा कि चलो, देशप्रिय पार्क ही फिर लौट चलें, परंतु इस प्रकार की गड़बड़ी और अनिर्णय की दशा में समीर ही हम लोगों की रक्षक - ढाल के सदृश है। चेहरा और गले की आवाज दोनों ही भारी हैं, किंतु सर को कंपित कर देनेवाले समीर के रूखे बाल तक इनकी दाढ़ी के नीचे ही हैं। यदि ये पीछे भी खड़े हों, तो भी समीर उन्हें पूरा-पूरा ढक नहीं पाएगा। दोनों ओर से दो-दो इंच बाहर ही निकला रहेगा। यदि इनकी देह का रंग काला कहा जाए तो पूरी तरह बखाना नहीं जा सकेगा। मुख के साथ समता रख सकता है - ताप में झुलसा हुआ, पानी में भीगा हुआ खुरदुरा ग्रेनाइट का काला कड़ा पत्थर । शरीर के रंग के साथ शोभा दे रहा है, धुलाई के चूर्णों वाशिंग पाउडर के विज्ञापनों में चित्रित श्वेत - शुभ्र पैजामा और कमीज । देह की बनावट भी ग्रेनाइट पत्थर जैसी ही मजबूत है। देह की बलिष्ठता सहज ही दृष्टि को आकर्षित कर लेती है। उम्र का हिसाब लगाने की इच्छा नहीं होती । फिर भी इतना तो स्पष्ट लगता है कि हमारे और इनके मध्य एक पूरी पीढ़ी पसरी हुई, फैली हो सकती है। आयु के साथ निर्भर करनेवाले सिर के बाल पक जाने से अधिक साथ नहीं दे सके। किसी-किसी तरह ललाट के आसपास थोड़ी सी झलक मारकर ही रह गए हैं, परंतु मुँह पॉलिश छुटे ग्रेनाइट पत्थर की तरह पतला, मोटा, नाना जगहों से मुड़ा - चुड़ा और गड्ढों भरा है।
समीर ने बड़े आदर से उनसे हम सबका परिचय करवा दिया। हम लोगों ने फिर नए सिरे से सुना कि हममें से कोई कवि है अथवा कोई कहानीकार है। यहाँ तक कि न्यापा दा भी प्रबंध लेखक हैं, यह भी पता चला। अब दूसरी ओर का परिचय सुनकर हम सबके गले उतारने की बारी आई। इन महाशय का नाम है - गोकुलानंद मुखोपाध्याय । नाम ही बता देता है कि वे पुराने जमाने के व्यक्ति हैं। परंतु पूरी पृष्ठभूमि जान लेने के बाद एक भोजनालय चलानेवाले व्यापारी के रूप में उनकी कल्पना ही नहीं की जा सकती। 'अनुशीलन समिति', 'युगांतर दल' इन सब नामों के छापामार दस्तों के पिस्तौल - बम लेकर किए जानेवाले क्रियाकलाप के बारे में थोड़ा-थोड़ा पुस्तकों में पढ़ा है । इतिहास पढ़ते समय तो जाने कितने नाम याद करने पड़े थे। अब वह सब बीत जाने के बाद कौन उन सबको तसवीर की तरह फ्रेम में मँढवाकर मन में सँभाले रखे है ? परंतु ये महापुरुष उन्हीं इतिहास की पुस्तकों में से निकल आकर बाहर स्थित एक जीवंत चरित्र हैं। मछुआ - बाजार बमकांड के विषय में हत्का - हत्का-सा कहीं सुना या पढ़ा था। उस कांड को लेकर जो मुकदमा चला, उस मुकदमे में फँसने और सजा पानेवालों में से एक ये भी हैं। जितने दिनों तक जेल में खटते रहे, यदि उस सब समय को जोड़ा जाए, तो लगभग हमारी उम्र के बराबर का समय इनका जेलों में बीता । पृथ्वी सिमटकर एक छोटी कोठरी भर रह गई थी। किसी-किसी तरह आकाश का एक छोटा-से- छोटा टुकड़ा देख लेना ही एक महत्त्वपूर्ण घटना होती थी । इसी प्रकार वर्ष - पर- वर्ष बीतते गए । कुछ अंडमान के तथाकथित काले पानी में, कुछ अपने देश की लाल ऊँची दीवारों के घेरों में ।
हम सबके जन्म के कुछ ही वर्षों बाद मानचित्र में हमारे देश के रंग और चेहरे में परिवर्तन हुआ। परंतु मानचित्र पर जिन्होंने भारतवर्ष के रंग को ललछौंहा गुलाबी बना रखा था, उनके ऊपर हमारा कोई रोष नहीं है। उन्हें देश से भगाने के लिए हममें से किसी ने एक ढेला भी नहीं फेंका। हम सबकी सुविधा के लिए लड़ाई - भिड़ाई का सारा कार्य बहुत पहले ही दूसरों ने कर दिया था। फलत: देश-विभाजन का दारुण - दाह हम लोगों के शरीर को जरा सा भी छू नहीं गया। पुलिस की लाठी, आँसू-गैस आदि की बातें हमने सुनी हैं। बाद में इनसे आमने-सामने का परिचय भी हुआ है। उन्नीस सौ अड़तालीस में 'काला काल - मुर्दाबाद, मुर्दाबाद' का नारा लगाते हुए अन्य अनेक लोगों के साथ हम भी विधानसभा भवन तक गए थे। उस समय 'पी.डी. ऐक्ट' पास हुआ था । मेरी पीठ पर एक घुड़सवार सिपाही की लाठी की चोट लगी थी। उस दिन जो नौजवान लड़का पुलिस की गोली से आर-पार छिदकर चूर्ण- विचूर्ण हो धज्जी-धजी हो गया, उसे किसी ने याद तक नहीं किया। वह था शिशिर मंडल । ढेले, ईंट-पत्थरों के बीच उसके रहने की कोई उपयुक्तता नहीं थी । वह इन सबके बीच था भी नहीं। वह तो धनात्मक लाल निशानवाली आर.डब्ल्यू.ए.सी. (रेडक्रॉस सोसाइटी) की चिकित्सा (एंबुलेंस) गाड़ी के साथ था, कटे-फटे, टूटे-फूटे रक्तरंजित शरीरों पर दवा लगाकर महरम - पट्टी बाँधने के लिए। किंतु फिर ऐसा कार्य उसे कभी नहीं करना पड़ा। उसी दिन मैंने पहली बार देखा, एक छोटे से शीशे के टुकड़े की कितनी संहारक क्षमता है! जबकि उसी टकटक लाल शीशा (गोली) को उगलने वाले उस यंत्र (बंदूक - पिस्तौल) से इनकी जान-पहचान शुरू से ही जाने कितने वर्ष पहले से है। उस जमाने में पुलिस के माथे पर लाल पगड़ी बँधी होती थी। जब हमारा निरा बचपन का समय था, तब जो लोग हमसे कुछ ही अधिक उम्र के थे, वे प्रायः ही एक कहावत को नारेबाजी की तरह चिल्ला-चिल्लाकर कहते थे, “वंदेऽऽऽ मातरम्। लाल पगड़ी का माथा गरम । " हम लोगों ने तो इतना भर भी नहीं किया ।
ग्रेनाइट पत्थर जैसे मुखवाले उन सज्जन के और हमारे बीच जो आयु की दूरी थी, वह बड़ी जल्दी ही मिट गई। समीर ने ही जैसे जंग खाए हुए, सिकुड़नेवाले फाटक के दोनों पल्लों को खींचकर मिला दिया। पुराने किले के कील-पेंचवाले फाटक जैसे उस चेहरे की ओर हम लोग बहुत कम ही देखते थे, जबकि हम ठीक समझते थे कि एक जोड़ी आँखें हमें बराबर देखती रहती हैं, कान हमारी बातों को रिकार्ड-सा सँजो रहे हैं।
एक दिन अचानक ही झनकारते हुए समीर पूछ बैठा, “अच्छा गोकुलानंद बाबू ! आपने अपने नाम के भीतर 'आनंद' शब्द को घुसा रखा है। जबकि आपको देखने से तो ऐसा लगता है, जैसे यह शब्द सिंदबाद की गरदन पर बैठा हुआ बुड्ढा हो। जीवन में आप अंतिम बार कब हँसे थे, जरा बताएँ तो ?”
समीर की आगा-पीछा सोचे बगैर की गई इस लापरवाह बात से तो पूरा कमरा ही ऐसा हो गया, जैसे एस्किमो का बनाया हुआ इगलू घर ! चारों ओर से घुप्प गाल फुलाए ! मुझे तो ऐसा लगा, जैसे पिनपिनाकर सिर के सारे बाल खड़े हो रहे हों। यहाँ तक कि बड़े रास्ते पर चलती ट्रामों, बसों की गड़गड़ाहट भी जैसे धमकी खाकर अचानक चुप हो गई हो। संभवत: इसी स्थिति को कहते हैं, 'गर्भवती निस्तब्धता।'
" समीर बाबू।" अपने घरघराहट भरे गले पर बिना कोई जोर दिए, गोकुलानंदजी ने कहा, “हँसी के भी नाना प्रकार हैं। आप लोगों की हँसी भी कोई हँसी है ? ऐसा लगता है, जैसे मुँह में पानी भरकर कुड़कुड़ाते हुए कोई कुल्ला कर रहा हो । जो आरंभ हो पाती ही नहीं कि समाप्त हो जाती है। मैंने एक बार लगातार घंटे भर तक हँसी हँसी थी । "
“हँसी की किसी प्रतियोगिता ( कंपटीशन) में भाग लिये हुए थे क्या ?" दोनों आँखों को मजाकिया आश्चर्य से समीर ने लड्डू की शक्ल का बना लिया। हम सबको तो जैसे काठ मार गया। साँस रोककर इन दो तलवारबाजों की लड़ाई के दर्शक भर बने रहे। पूरा घर तब भी इगलू-सा घुप्प बना रहा। ऊपर से कानों के पास जैसे आग की लपट झलमला रही हो।
“हाँ, उसे एक प्रकार की प्रतियोगिता कह सकते हैं । किंतु हँसी की नहीं, सहनशक्ति की प्रतियोगिता । "
" उसके साथ आपकी उस राक्षसी हँसी का क्या संबंध ?"
" राक्षसी - भूख जो लग गई थी। "
ऐसे जवाब ने तो जैसे समीर के मुख में ठेंठी (काग) लगा दी और इधर इगलू गलते - डगरते एक भारी बर्फ की दरार के निकट जा पहुँचा । अब तो सारी बातचीत की दशा पूरी तरह गोकुलानंद की मुट्ठी में बंद थी। अब तो चाहे पार उतारें या बीच नदी में डुबोएँ; सभी उन्हीं के हाथ में है । समीर जैसा साहसी पट्ठा भी दुविधा में पड़ गया है। ग्रेनाइट पत्थर के लोंदे पर रुई फेरने से उसे गुदगुदी नहीं आती; तो भी अत्यंत चकचकाती दो आँखों की बढ़ती चमक को हँसी न कहें तों क्या कहे ?
" राक्षसी - हँसी, राक्षसी - भूख इत्यादि शब्दों से आपने जो रहस्य पैदा कर दिया है, वह मोनालिसा की मुसकान सदृश अति सूक्ष्म, फिर भी अति जटिल है। " संशय के भाव को और अधिक सह न पाने के कारण सुरजीत बोल पड़ा, “आप जब तक और अधिक खोलकर स्पष्ट नहीं करते, तब तक हम लोगों की त्रिशंकु की दशा दूर नहीं हो पाएगी।"
श्यामल की आवाज बहुत सुरीली है । वह भी एक पंक्ति गा उठा, “आर रेखो न आँधारे, आमाय देखते दाओ ।" (देखने दो हमें, और अँधियारे में मत रखो।) और इस एक पंक्ति के गाते ही इगलू गायब हो गया। मेरे सिर के बाल फिर सो पड़े। सुनाई पड़ने लगा - नीचे जाने किन लोगों में आपस में झगड़ा हो रहा है।
बाहर का समाप्तप्राय सांध्य - प्रहर घर के भीतर से प्रकाश को सोखता जा रहा था । ग्रेनाइट के मुख पर लिखा हुआ पढ़ा नहीं जा सकता। बिजली बत्तियों के तमाम स्विचों का बोर्ड उसी मुख के पीछे था। पीछे की ओर हाथ घुमाते ही सारी बत्तियाँ जल उठीं। हम सभी उन्मुख हो उठे हैं।
"आप लोग जिस प्रकार का जटिल रहस्य सोच रहे हैं, वस्तुतः उस प्रकार का कोई रहस्य नहीं है।" हमारे उत्तेजित भावों को एक तरफ धकेलते हुए गोकुलानंदजी बोले, “जेल काटते हुए अनेक बार उपवास-अनशन करना पड़ा था। यह घटना पहले बार के उपवास की है। उस समय मेरी अवस्था आप लोगों के ही समान थी। भूख लग ही भोजन को हथिया लेने की प्रबल इच्छा होती। जेल की लंबी अवधि को जानते हुए भी अभी जेल को ही घर-द्वार मानना नहीं सीख पाया था । उपवास के आरंभिक तीन-चार दिन काटना ही बहुत कठिन कार्य है। उसके बाद तो सहने की एक प्रकार की शक्ति आ जाती है । कम-से-कम यह आश्वासन मेरे बड़े भाई लोग जरूर देते थे । परंतु उपवास के पाँच दिन बाद पहले आँख बंद करते ही गरमागरम भात से भरी हुई थाली दिखाई पड़ने लगती, जिसकी भाप से भात की सोंधी गंध उठ रही होती। उस भात से भरी थाली के भात के बीचोबीच बने गड्ढे में मसूर की पतली दाल, थाली के एक किनारे पर एक मुट्ठी प्याज और कच्चे हरी मिर्च की कतरनों से सना हुआ एक गोला आलू का चोखा। यदि मैं संन्यासी होता तो कहता - "अरे, दूर भागो । माया और अविद्या के सब चोंचले ! दूर भगो ।” सचमुच मैंने वैसा ही कहा भी । परंतु वह भात की थाली तो तनिक भी हिली - डुली तक नहीं। उसके और दो-एक दिन बाद तो खुली आँखों से भी वही सब देखने लगा । "
'भ्रमदशा।" अपने अनजाने ही सुरजीत कह गया ।
" ठीक ही कह रहे हैं। " सुरजीत की बात को सहज ढंग से, जैसे चलती हुई बस का यात्री नन्हे बच्चे को उठाकर अपनी गोद में रख लेता है, उसी तरह गोकुलानंद बाबू ने अपनी कथा की गाड़ी में बैठा लिया। बोले - " पेट की बत्तीस नाड़ियों को निचोड़कर अपनी गरदन सीधी रखने की प्रतिज्ञा के ललाट को झुकाकर जलती हुई भूख की आँच में तपाकर तैयार की हुई भ्रमदशा, परंतु वही भ्रम यकायक एक ऐसे भयंकर यथार्थ के रूप में परिणत हो गया कि यह जानते हुए भी कि यह एकदम झूठ है, उस पर झपट्टा मारने की इच्छा होती है, और एक दिन सचमुच ही मैंने उस भातों से भरी थाली पर जोरदार झपट्टा मारा। फिर क्या था ? अचानक ही आरंभ हो गई हँसी की तरंग । उपवास के सात दिन बीत चुके थे। वैसे मेरा स्वास्थ्य सदा से ही अच्छा रहा है। सात दिन तक भोजन छोड़ देनेवाले में हँसने की क्षमता हो सकती है क्या ? परंतु मैंने अपना सारा कष्ट, सारी भूख उसी हँसी के तालाब में डुबो देनी चाही। कितनी देर तक हँसता रहा, नहीं जानता। सभी साथियों ने मिलकर मुझे दाब रखा था। मेरे सिर पर बराबर पानी गिराते रहे थे। तब भी वह राक्षसी हँसी बंद होने का नाम नहीं लेती थी। गले से आवाज निकल नहीं पा रही थी । ऐसा लगता, कलेजा और हृदय सभी कुछ फटकर चूर्ण-विचूर्ण हो जाएगा। फिर भी हँसी जैसे एक भारी कटे घाव से बहती रक्त की धारा के समान लगातार बहती चली आ रही थी । हाँ, उस समय मुझे होश नहीं था । हँसी बंद करवाने में साथियों को लगभग एक घंटा समय लगाना पड़ा था। यह सब जानकारी बाद में दूसरे साथियों के मुँह से सुनकर जान सका था।
वह घर फिर इगलू-सा हो गया था। समीर के मुख को देखने से लगता था कि जैसे किसी ने उसके पेट को सँड़सी से भींच रखा है। हम सबके मन भी इन बातों की चोट से चूर्ण-विचूर्ण हो एकदम स्तंभित हो गए थे। मंटू जरा अधिक भावुक है। सड़क पर यदि कुत्ते को भी मोटर से दबते देखता है तो रोने लगता है। उसने तो इसी बीच अपना मुँह दोनों हाथों से ढक लिया है। सुरजीत की उँगलियों में फँसी सिगेरट जलते - जलते इतनी करीब पहुँच गई है कि उँगलियाँ अब जलीं कि तब । इस घर में पुनः वही गर्भवती निस्तब्धता व्याप गई है। वह भी टूटी; उसी ग्रेनाइट से खुदे मुख की ही बात से ।
उसके बाद भी चौंतीस दिनों तक उपवास व्रत रखा था, परंतु फिर उस गरम भात की थाली का भ्रम नहीं हुआ। राक्षसी - हँसी के धकिया देने से वह भागा, तो भाग ही गया। "
यदि कोई केवल मूकों का स्कूल हो, तो हम सब इस समय तक उसी के गूँगे विद्यार्थी थे। अधिक देर तक चुप रहना समीर के लिए गोकुलानंद बाबू के उपवास की भाँति ही कष्टकर है, किंतु जब उसी के होंठ सिले हुए हैं तो औरों के मुँह भला किस तरह खुलेंगे ? परंतु वह जो कहावत है- 'जहाँ देवदूत प्रवेश करने में ही हिचकते हैं, मूर्ख वहाँ तेजी से दौड़े जाते हैं।'
“इतनी देर तक उपवास की बातें सुनते तो मुझे बड़ी जोर की भूख लग गई।" जो न्यापा दा सात थप्पड़ लगने पर भी चीं तक नहीं करते, वे चट से बोल पड़े थे ।
परंतु इससे शाप जैसे वरदान ही सिद्ध हुआ । हमारे पाँव काफी समय से युधिष्ठिर का रथ (जो पृथ्वी से ऊपर उठा रहता था) बने हुए थे । न्यापा दा की बात पर समीर के अट्टहास से वे फिर धरती पर लगे । अचानक श्यामल अपने सुरीले कंठ से गा उठा, “आलो, आमार आलो, ओगो आलोय भुवन भरा। " ( प्रकाश ओ मेरे प्रकाश, अरे प्रकाश से तीनों भुवन भर उठे हैं ।) यह गाना श्यामल बस, एक ही व्यक्ति के लिए स्वागत गान के रूप में गाता था और वह भी सिर्फ यही एक पंक्ति । वे धन्य पुरुष हैं- आलोक बाबू । किसी-किसी तरह पाँच फीट तक पहुँचे, फिर इससे ऊँचे नहीं बढ़ सके। उम्र भी जैसे अनेक वर्षों से एक ही स्थान पर अटक गई है। सदा-सर्वदा साफ-सुथरा कुरता-पाजामा पहने हुए। आलोक बाबू रेस की घुड़दौड़ के मैदान की अनधिकारिक बुकिंग के आधिकारिक क्लर्क हैं। इस मुहल्ले के सभी रेस्टोरेंटों में उनके ग्राहक हैं। हम लोग भी आलोक बाबू के बहकावे में आकर कभी-कभार दो-एक रुपए की बाजी खेलते हैं। समीर ने एक बार पाँच रुपया जीता था । और सभी के भाग्य में बस कटहल मतलब कि शून्य। जीत के एक रुपए में एक आना कमीशन आलोक बाबू का बँधा था । चेहरे से सदा चमकते- दमकते आलोक बाबू के मुँह के एक कोने में हमेशा एक विशेष प्रकार की मुसकान बसी रहती थी। बस, आज ही जाने क्यों वह हँसी वे बाहर छोड़ आए हैं। आते ही धपाक् से एक कुरसी पर बैठ गए।
हम लोगों ने दूर से ही रेस का मैदान देखा है। उसके अंदर के क्रियाकलाप हमारे लिए घड़ी के सूक्ष्म कल-पुर्जों की तरह अदृश्य हैं। आलोक बाबू ही छोटा-मोटा उपहार देते रहते हैं। रुपए के बदले पेंसिल से अनाप-शनाप लिखे हुए कागज के टुकड़े। समीर दो-एक बार मैदान में गया है। वहाँ का हाल-चाल कुछ समझता है । आलोक बाबू के मुँह की उस सदाबहार हँसी के उड़ जाने का कारण वह कुछ अनुमान कर सकता है।
" ओगो मोर आलो! केन तब वद्नारविंद आज बेगुन पोडार समकालो ?" (अरे मेरे आलोक ! आज तुम्हारा मुखकमल जले हुए बैंगन जैसा झँवाया क्यों है ? ) समीर ने यात्रा - दल की तरह हाथ-मुँह अधिकाधिक नचाते हुए कहा। यह बात कहकर उसने फिर अपना स्वर बदलते हुए पूछा, "आज जुलाब हुआ है क्या ? वैसे मैं इस जुलाब का मतलब समझता हूँ। अर्थात् टिकट काटने में आय से अधिक खर्चा !" आलोक बाबू ने गरदन हिलाई।
"अच्छा!" समीर ने कहा, "तो भाग्यवान पुरुष कौन है ? हम लोगों में से ही कोई ?" इस बार पीछे की ओर आलोक बाबू ने सिर हिलाया ।
" भाग बेटे !" समीर झुंझलाकर बोला, “बस घटर - घटर सिर हिला रहा है। क्या बात है ? जीभ पर फालिज ( पक्षाघात) मार गया है क्या ?"
“बारे-बारे घूघू तुमी खेये जाओ धान । एबारे घूघू तोमार बधिबो परान ।" (हर बार तो ऐ उल्लू खा जाते रहे धान । अबकी बार घूघू जी तुम्हारा लेंगे परान।) सुरजीत ने उच्छ्वासित हो कहा – “हमारे कपाल तो तुम्हारे द्वारा फोड़े गए कटहलों के लासे से चिपककर चटिया गए हैं, अब तुम्हारे कपाल पर कटहल किसने फोड़ा ?"
किसी-किसी तरह आलोक बाबू ने नाम उगल दिया - " गोकुलानंद बाबू ।”
" आँऽऽ ! " एक ही शब्द पर हम सभी के द्वारा दिए गए जोरदार उच्चारण से बाहर के सब खरीदार चौंक पड़े।
“आपने आलोक बाबू के साथ भी खेल किया था ?” मैंने कुछ इस तरह पूछा, जैसे मैंने गोकुलानंद बाबू को किसी बदनाम बस्ती से निकलते हुए देख लिया हो ! उसके बाद फिर पूछा, “कितने रुपए उन्होंने लगाए थे दाँव पर ?"
" अधिक नहीं, बस पाँच रुपए।" ग्रेनाइट पत्थर का लोंदा जैसे बोला, “आखिर क्यों ? आप लोगों को दाँव लगाते देखकर मुझे भी खेलने की इच्छा हो गई।" समीर ने झपटते हुए पूछा, “कितने रुपए अदा करने हैं ?"
“साढ़े सत्तासी। आरंभकर्ता का भाग्य ।" आलोक बाबू की बात हवा में मिल गई । " तब तो निश्चय ही परम भाग्यशाली।" समीर उछल पड़ा, “किला जीत लिया।"
" तुम तो कुछ जीते हो नहीं।" मैंने चिकोटी काटी - " फिर बकरी के तीसरे बच्चे की भाँति क्यों उछल रहे हो ?"
“ यह जीतना हमारा ही जीतना है।" समीर ने मेरी बात की परवाह किए बगैर कहा, "यह तो हमारे अड्डा मालिक साधु पुरुष की जीत है। क्यों भाई न्यापा दा, तुमको ही तो भूख- भूख सी लगी थी ?"
न्यापा दादा ने कहा, "मांस पकने की खुशबू आ रही है। "
" अच्छी बात है, एक-चौथाई प्लेट मांस और दो स्लाइस रोटी प्रत्येक को। " समीर गरजकर बोला, "नहीं, आलोक बाबू नहीं, तुम्हें भी हम छोड़ नहीं रहे हैं। तुम भी हमारी पाँत में ही हो।"
इसके बाद से ही हमारा अड्डा उसी होटल से लगी छत पर आ जमा । गोकुलानंद बाबू भी बीच-बीच में कभी- कभी आ बैठते थे। बातें बहुत कम करते थे, सुनते अधिक थे। उस दिन जब श्यामल गा रहा था, 'आजि ए आनंद संध्या ।' तब गोकुलानंद बाबू बोले, "हम लोगों के समय रविबाबू के संगीत का इतना प्रचलन नहीं था । हम समझते भी नहीं थे। अब श्यामल बाबू का गाना सुनकर मन करता है कि कहें - ' आमि अवाक् होये शुनि, केवल शुनि ।' (मैं विस्मयविमूढ़ हो सुनता रहूँ । केवल सुनता ही रहूँ।) " इतना कहकर वे हँसे पड़े, फिर बोले, "देखिए, रवि बाबू के गीत अच्छे लगते हैं, यह बात कहने के लिए भी गंगाजल से गंगा-पूजा करनी होती है। "
आप कभी गाना नहीं गाते थे ?" श्यामल ने जानना चाहा।
"नहीं, उस लायक गला भी नहीं था और सीखने का सुयोग या परिवेश भी नहीं था । फिर सुयोग पाकर भी क्या करता? उसके पहले ही तो " फिर उन्होंने बात रोक ली, पूरी नहीं कही।
"उसके पहले क्या हुआ ?" श्यामल पूरी बात जानने को उत्सुक हो उठा। बड़ी सड़क के बिजली के खंभे से छिटककर छत पर आते प्रकाश को अँधेरे ने थोड़ा सरककर जगह दे दी है। उसी से मैं समझ सका कि गोकुलानंद बाबू का मुँह फिर ग्रेनाइट पत्थर का लोंदा बन गया है। मुझे मन-ही-मन ऐसा लगा, जैसे श्यामल गाना तो अच्छा गाता है, परंतु उसकी बुद्धिलब्धि (आई. क्यू.) कसरती पहलवानों सी ही है। वातावरण के भारीपन को दूर करने के अभिप्राय से मैंने श्यामल से अनुरोध किया कि वह वही गाना गाए, 'दुःखेर बरषाय, चक्षेर, जल जेइ नामल । बर दरजाय बंधुर रथ सेइ थमल ।'
(दुःख की बरसात में आँखों के आँसू ज्यों ही बरस पड़े, हृदय के द्वार पर परमप्रिय का रथ तभी आ खड़ा हुआ ।)
"यह भी क्या रवींद्रनाथ का गीत है ?" गले की आवाज से हम चकित हो गए।
“हाँ। " श्यामल ने उत्तर दिया।
" दुःख की बरसातें तो न जाने कितनी आई-गईं। उनके थपेड़ों को भी जीवन में कम नहीं भोगा, परंतु हृदय - मंदिर के द्वार पर प्रियतम का रथ सचमुच क्या कभी आकर ठहरता है ? अथवा कभी आया भी था, ठहरा भी था; मैं ही पहचान न सका, आहट न पा सका।" इस ग्रेनाइट की कड़ी चट्टान से निचुड़कर बह रही है विषादमय दुःखानुभूति । अनुभूति मनुष्य को जलाकर झाँवा बना देती है। उम्र के साथ-साथ झाँवें का अस्तर और मोटा एवं स्थूल होता है । दुःख को छकाने के लिए एक मजबूत ढाल बन जाती है, फिर किसी विशेष क्षण में एक-दो बातें, एक-दो कविता या गानों की कड़ियाँ । वही सात स्वर ही तब सितार के सात तार बन जाते हैं, वे ही झनझना उठते हैं। ग्रेनाइट पत्थर का लोंदा भी रक्त-मांसयुक्त चेहरे में बदल जाता है।
किंतु श्यामल ने गाया, एक दूसरा ही गीत, 'दुःख आमार असीम पाथार पार होलो; जे पार होलो।' (दुःख का हमारा अनंत पारावार पार हुआ) निहारकर देखता हूँ तो पाता हूँ कि ग्रेनाइट पत्थर की दोनों आँखों की पलकें जाने की बुझ गई हैं।
परंतु यह तो हुई एक विशेष पक्ष की चर्चा । हम लोग उस समय तक तो होटल के नए खुदवाए गए तालाब के आमंत्रित मगरमच्छ थे। रेस्त्राँ की चाय तो है ही, होटल के भोजन वगैरह का भी उधार रखने का पल्ला शुरू हो गया। होटल के काउंटर पर एक छोटा-नाटा सा फूले-फूले गालोंवाला मोटी-मोटी मूँछोंवाला आदमी बैठता था-
धोती के ऊपर हाफ कमीज पहने हुए। सभी उसे 'मैनेजर बाबू' कहते थे । सामने पड़ी रहती थी एक चार नंबरी जिल्दबंद कॉपी । उसमें हम सबके नाम पर अलग-अलग हिसाब का खाता था, परंतु उस हिसाब में निश्चय ही उधारवाले खाते में ही पंक्ति - दर पंक्ति लिखा होता था । प्राप्ति या चुकता किए गए कॉलम में कदाचित् ही एकाध जगह कलम चली हो, वह भी विशेषकर समीर के खाते में ।
एक साथ ही भोजन-व्यवस्था का होटल और रेस्टोरेंट भी । बीच में विभाजक दीवार के उस पार होटल की रसोई । सभी कुछ समीर के लिए अपने घर के समान है। जब चाहे तब उस ओर रसोईघर में जा घुसता। क्या - क्या पकवान बन रहा है, इसे जानने का बड़ा उत्साह उसके मन में बराबर भरा रहता । रोहू मछली की बड़ी मूड़ी (सर) देखते ही उसकी आँखें जैसे सर्चलाइट हो जातीं! खुद ही थाली उठा लाता। उस थाली में ही मछली की बड़ी मूड़ी चली आती । जोर से कहता, "मैनेजर बाबू। मेरे नाम पर चढ़ा लीजिएगा।"
उस चार नंबरी कॉपी के दो पन्नों पर समीर के नाम उधार-लिस्ट भर गई थी । मैनेजर बाबू ने उसी के भीतर मछली की मूड़ी को भी घुसेड़ दिया और खँखारकर गला साफ करने लगे। फिर बोले, “समीर बाबू ! इसे मिलाकर कुल बासठ रुपया, बारह आना हुआ। "
समीर तब तक रोहू मछली की मूड़ी फोड़ चुका था । हम लोगों को इतनी ज्यादती अच्छी नहीं लगती। जब-तब होटल की मछली और मांस पर झपट्टा मारना ! लेकिन समीर तो एकदम स्वच्छंद है। हम लोगों की भौंहें सिकोड़ने की वह कुछ भी परवाह नहीं करता। मैं कहता - 'तू तो कालिदास की संतान है, जिस डाल पर बैठा है, उसी डाल पर कुल्हाड़ी की चोट पर चोट मारे जा रहा है। जबकि हम सब भी उसी डाल के असवार हैं। तू स्वयं तो मरेगा ही, तू हम लोगों को भी मारेगा।' हम लोगों की आपत्ति और सलाह समीर के निकट पानी पर थप्पड़ मारने के समान है, बल्कि उलटा ही प्रभाव पड़ता । कम होने की जगह उसकी माँग और भी अधिकाधिक बढ़ जाती । एक चक्र चाय- कहने की जरूरत नहीं कि उधार की ही हो चुकी है। छत के अड्डे पर से ही समीर ने आवाज लगाई, "मैनेजर बाबू, शिबू को भेजकर एक पैकेट कैप्सटेन मँगा लें तो।" समीर की इस प्रकार की घोषणा का सीधा मतलब है- होटल की नकद बिक्री के पैसे से होटल के नौकर से सिगरेट मँगानी होगी और नियम - रक्षार्थ खर्चे को समीर के खाते में चढ़ा देना होगा ।
एक दिन साँझ को कुछ पहले ही आ गया। हाँ, सूर्य जरूर दिखाई नहीं पड़ रहा। फिर प्रकाश की गठरी अभी भी आकाश काफी कुछ सँभाले हुए था। खुली जगह में आदमी अच्छी तरह पहचाने जा सकते थे । समीर और एक युवा लड़की छत पर कुरसी पर बैठे हैं। हमारे अड्डे पर पहली बार किसी लड़की का आगमन हुआ । यह अवश्य है कि पहले के अड्डों की जो श्री - शोभा और गठन -भंगिमा थी, उसमें किसी खदेरू की माँ भी चौखट लाँघने का साहस नहीं करती।
समीर के साथ की वह लड़की कोई ऐसी सुंदरी नहीं थी कि उसे देखकर किसी के होश हवा होते । परंतु थी वह न ज्यादा दुर्बल, न अधिक मोटी, मँजा हुआ चमकता रंग, झलकता गठा हुआ मुख और काजल - टानी बड़ी-बड़ी आँखें। इस प्रकार के चेहरे की कोई भी लड़की, बातचीत में यदि कुछ निपुण हो तो एक खास उम्र में अच्छी लगती है । उस समय मेरी भी वही उम्र थी। लड़की को यदि अकेले-अकेले पाता तो छत ही झील का किनारा जान पड़ती। दो-चार दिन साथ-साथ घूमने से प्रेमपाश में बँधना भी असंभव नहीं था, किंतु अपनी अधिकार- सीमा के बाहर होने से ही ईर्ष्या की दाह जल उठती।
समीर और उस युवती को देखकर ईर्ष्या तो हुई ही, उससे अधिक जलन हुई उनके सामने पड़ी मेज को देखकर । उस पर सटाकर रखी थीं दो थालियाँ । उस पर सरसों के तेल के तरलायित झोल (रस) में डूबी हुई बड़ी-बड़ी पावदा बहुत स्वादिष्ट मानी जाने वाली दो मछलियाँ । उनकी मूड़ी और पूँछ थाली को आर-पार कर बाहर निकल आई हैं। पीठ की ओर से मछली काट-काटकर दोनों जने खा रहे हैं और खूब हँस रहे हैं।
'आओ, परिचय करवा दूँ।" मुझे देखकर समीर बोला, "मेरी छोटी बहन की सखी है यह, शिप्रा । कहने लगी कि समीर भाई बड़ी जोर की भूख लगी है, कुछ खिलाएँ।"
'अरे! मैंने कब आपसे खिलाने के लिए कहा । " लड़की तो मारे आश्चर्य और लाज के असहाय-सी गड़ने लगी । उसने थाली से हाथ खींच लिया।
“अरे, मुँह की भाषा से क्या सारी बात समझी या समझाई जा सकती है ?" जैसे दहकता, सड़क दबाने का रोलर चलाकर समीर ने लड़की की सारी आपत्ति दबा दी । कहने लगा- "यदि ऐसा ही होता तो मन नामक इतने बड़े सम्माननीय पदार्थ का अस्तित्व किसलिए है? इसके अलावा, यह अलौकिक स्वर्गीय मछली पावदा क्या परम स्वार्थी की तरह अकेले - अकेले खाने की वस्तु है ? अकेले खाना अच्छा लगेगा? नहीं, हरगिज नहीं। हाथ मत समेटो। कौन जानता है कि उस परलोक सिधारी मछली की आत्मा तुम्हारी इस अवहेलना से दुःखी हो रही है या नहीं ?"
अबकी बार तो लड़की भी हँस पड़ी। मैं भी हँसा । समीर तो उसी प्रकार का है। उसके ऊपर हुआ किसी का भी क्रोध दो मिनट बाद ही भागने भागने को उद्यत हो जाता है। कोई भी बहुत देर तक उससे गुस्सा नहीं कर सकता। उसके बाद शिप्रा कभी-कभी अकेली ही अड्डे पर आती थी । समीर ऐसा व्यवहार प्रदर्शित करता, मानो वह उसके एकाधिकार की संपत्ति हो ! ईर्ष्यावश, हम में से अनेक-अनेक रंगों के हरे-पीले होते रहते, अपनी पूरी जानकारी में ही शिप्रा बहुत दिनों तक मक्खीरानी की भूमिका निभाती नहीं रह सकी । उसके साथ और भी दो-तीन ऐसी लड़कियाँ आईं तो लड़कों को देखते ही सिकुड़ते-ठिठुरनेवाली छुई-मुई नहीं थीं। तब हमारा अड्डा पहले से अधिक रंगीन हो गया। लड़कियों को देखकर गोकुलानंद बाबू मन-ही-मन दीपक और पतंग की उपमा विचारते। वे शुरू-शुरू में अपने आप में सिमटे ही रहते। लड़कियाँ उन्हें बोधिसत्त्व अथवा करुणा की प्रतिमूर्ति भर समझतीं ।
उन्हीं सब में से एक लड़की थी - बासवी । इंगलिश में एम. ए. पढ़ रही थी । कविता लिखती थी बँगला में।
"ओ, आप एक क्रांतिकारी हैं? कितनी आश्चर्यजनक प्रसन्नता की बात है। " गोकुलानंदजी से परिचय कराने पर अंग्रेजी मंत्रों से प्रायः उनकी पूजा ही उसने कर डाली।
" आपने गलती की। " ग्रेनाइट पत्थर के लोंदे से खसखसाती आवाज निकली। " आपने जो कुछ कहा, वह सब भूतकाल में बिला गया। अब वह सब किसी को याद नहीं। इस समय मैं एक भोजनालय चलाता हूँ। चाय बेचता हूँ।”
"ओह, नहीं नहीं । आप अतिशय विनम्र हुए जा रहे हैं। " बड़े अंदाज से गरदन हिला-हिलाकर बासवी ने कहा ।
" विनम्रता भी तो एक गुण है, जबकि मुझमें कोई भी गुण नहीं है। " खसखसाते गले की आवाज में विषाद भरा हुआ था।
बासवी की कविता को अपनी पत्रिका 'मृगशिरा' के लिए हमने माँग लिया और गोकुलानंद बाबू से अंतिम कवर पृष्ठ का विज्ञापन। इसके बाद इन युवतियों को सिरगेट पीना सिखाने का अध्याय शुरू हुआ। शुरू-शुरू में तो उन्हें खाँसी आती थी, परंतु बासवी ने ही पहले-पहले धुएँ का छल्ला बनाना सीखा। वह भी खुले आसमान में। गोकुलानंद बाबू की आँखों को देखने से लगता कि बासवी की तारीफ कर रहे हैं। एक दिन अचानक बोल-बोल पड़े, “जरा एक सिगरेट मुझे भी दीजिए न, देखूँ पीने में कैसा लगता है ?" समीर ने तत्काल सिगेरट देकर उसमें आग लगा दी, परंतु दो-चार कश खींचकर ही उन्होंने फेंक दिया। फिर संकुचित होकर बोले, "कभी सिगरेट पी नहीं थी, संभवतः इसी से अच्छा नहीं लगा।"
" प्रत्येक वस्तु की साधना होती है।" समीर ने श्रेष्ठ ज्ञानी की भाँति कहा, "कदम-कदम चलकर सिद्धि लाभ करना होता है । आप लोग निश्चय ही पहले-पहल किसी जीर्ण-शीर्ण हवेली में पिस्तौल लेकर लक्ष्य भेद की प्रैक्टिस करते थे। क्या पहली ही बार में निशाना लगाने के चक्कर में आँख में गोली मार सके थे ?"
होटल के कमरे का उफनता प्रकाश छत पर भी थोड़ी सी जगह में भी अँधेरा नहीं जमने देता था। थोड़ी ही देर पहले गोकुलानंद बाबू का मुँह एक जैसे कोमल प्रकार का हो गया था, जो हमारे विचारों और खुशियों से मेल खाता था। अब फिर से पूरी तरह ग्रेनाइट पत्थर के लोंदे जैसा हो गया। समीर द्वारा उन आरंभिक दिनों की चुभन पैदा कर देने पर हड़हड़ाते हुए अनेक बातें बतला गए, लेकिन उस दिन के बाद से बहुत नाप-तौलकर कम-से-कम बातें करने लगे ।
अपने बीते दिनों की घटनाओं को वे बहुत सावधानी से छिपाए रखते थे।
हम समझते थे कि उनकी जिंदगी के अनेक वर्ष वृक्ष, लतादि, खुला आकाश देखे बिना ही बीते थे, और उस समय का 'अंडमान' तो जैसे यमराज का दक्षिणी दरवाजा ही था। डेविल्स आइलैंड (भूतों का द्वीप) का समान गोत्रीय भाई ! हम लोगों ने बहुत बार उन्हें हीरो (नायक) बनने का अवसर प्रदान किया । बम - पिस्तौल के कारोबार के बारे में जानने की कोशिश की। सेलुलर जेल में वर्ष-पर-वर्ष कैसे बीते ? इस संबंध में जानना चाहा । परंतु इन सब प्रश्नों पर उनकी दो प्रकार की प्रतिक्रियाएँ थीं। अधिकतर तो ग्रेनाइट पत्थर के लोंदे के मुख के होंठों को सिल लेना। इस पर भी अधिकाधिक जोर देने पर कह पड़ना, "उपेंद्र बैनर्जी की 'निर्वासित की आत्मकथा' पढ़ लेना । "
बस एक दिन मात्र के लिए एक परिवर्तन देखा था। बस उसी दिन, उसी दफे उन्होंने कुछ भिन्न रूप में उत्तर दिया था। उस दिन उन्होंने कहा था, " आप लोगों में से किसी एक ने उस दिन एक आधुनिक कवि की कविता गाकर सुनाई थी। ‘जोदि एकइ बर्षाय बृष्टिते, यदि मुछे जाय नाम। एतो पथ हेंटे, एतो जल घंटे, की तबे पेलाम ।' (एक हलकी सी पहली - पहली बारिश की बौछार से ही यदि दीवार पर लिखा नाम धुल- पुंछ जाए, तो फिर इतने लंबे रास्ते की पदयात्रा से, इतने घाट घाट का पानी मथ - मथकर, छान घोंटकर कठिन रास्ता पार करके फिर पाया क्या ?" फिर कुछ क्षणों तक मौन हो रहे, फिर अचानक ही गला ऊँचा कर कहने लगे- “ तब क्या पाया? बता सकते हैं कि तब क्या पाया?" ग्रेनाइट पत्थर के लोंदे की आँखों के कोओ मैं प्रज्वलित अग्निशिखा-सा प्रश्न धधकने लगा। आज देश का शासन भार किन लोगों के हाथ में है ? इन सबमें से अधिकांश ने स्वतंत्रता - प्राप्ति के पहले—गंदगी फैलाने के अलावा देश के लिए और क्या किया था ? कुछ बतला सकते हैं? कुछ देर तक साँस लेकर फिर बोले, “पहले इतना पूछने पर भी कभी आप लोगों को बतलाया नहीं; परंतु आज बता रहा हूँ।
उन्नीस सौ बावन के चुनाव में मैंने भी प्रत्याशी (निर्दलीय) के रूप में चुनाव लड़ा था। मैं कौन हूँ? देश की स्वाधीनता के लिए कितनी यातनाएँ भोगी हैं ? क्या-क्या किया है ? सारा विवरण प्रचार - पत्र (पैंफलेट) पर छपवाकर हजारों-हजार की संख्या में सर्वत्र भिजवाया था । परंतु उस निर्वाचन में जो व्यक्ति जीता था, वह असल में एक बहुत संपत्तिशाली व्यापारी था । रातोरात भारी समाज-सेवक बनकर बड़ी पार्टी का टिकट पाकर उसका प्रतिनिधि प्रत्याशी बन गया था । और अधिक लज्जा की बात तो यह कि उसका पिता अंग्रेजी राज्य का बहुत बड़ा हितैषी और कृपापात्र था। उसे 'रायबहादुर' की पदवी भी मिली थी । उसका बड़ा चाचा पुलिस का डिप्टी सुपरिंटेंडेंट था, परंतु उसे भी रायबहादुर की पदवी मिली थी। क्योंकि स्वतंत्रता के लिए आंदोलन करनेवालों को बुरी-से-बुरी सजा देने में वह माहिर था, पीटते-पीटते उन्हें मार ही डालता था। पूरी तरह वंश परंपरा से अंग्रेजों का पुश्तैनी नमक हलाल कुत्ता था वह। "
एक सुर में इतनी सारी बातें कह जाने से गोकुलानंद बाबू हाँफने लगे थे। ऐसे समय में समीर बड़ा ही चतुर है, उसने ठीक मौका देखकर बिल्कुल ठीक निशाने पर चोट की - " तो भी आप हार गए ?" उसने छोटी सी जिज्ञासा की ।
"हाँ, यह कहने की जरूरत ही नहीं थी।" अपने गले की तेज कर्कश आवाज से हमारा परिचय कराते हुए से बोले, “हार ही नहीं गया, पूरी तरह से नेस्तनाबूद हार हारा। कितने वोट पाया था, जानते हैं?" पूछकर सभी के चेहरे पर गरम निगाह फेर ली। इस बार तो समीर की भी घिग्घी बँध गई।
“दो सौ उनसठ। और जो जीता था, उसने पाया था - चौदह हजार सात सौ तिरानबे ।" विष बुझी तीखी आवाज में उन्होंने खुद ही उत्तर दिया ।
उस दिन हम लोगों का अड्डा फिर जम नहीं सका । हममें से प्रत्येक ने ग्रेनाइट पत्थर के इस लोंदे का अपनी- अपनी तरह से भिन्न-भिन्न अर्थ समझा था, भिन्न-भिन्न रूपों में इसके प्रति धारणा बनाई थी। लगा कि संभवतः किसी की भी धारणा ठीक नहीं थी । इसके अतिरिक्त यह भी संभव है कि सभी की कुछ-न-कुछ ठीक ही थी। अंधा आदमी हाथी की पूँछ पकड़कर कहे कि यही हाथी है, तो इससे पूँछ अवश्य हाथी नहीं हो जाती या फिर हाथी पूँछ नहीं हो जाता। परंतु यदि पूँछ को हटा दें तो हाथी भी तो बाँड़ा हो जाएगा। हमारे सारे उपद्रवों को एक रंगीन गेंद समझकर एक व्यक्ति खेल खेलते हैं। उन्हीं के मन के भीतर बनैले अतिशय तिक्त फल की झाड़ी पसरी है। इनमें असली आदमी कौन है - हम समझ ही नहीं पा रहे । मस्तिष्क संशयाच्छन्न हो गया ।
दुर्गा-पूजा, सरस्वती - पूजा के नाम पर चंदा इकट्ठा करने की उम्र हम सभी पार कर चुके थे, बहुत पहले ही । अब तो हमारा एकमात्र उत्सव था, बस पतली सी पत्रिका 'मृगशिरा' का प्रकाशन । उसकी विगत अंतिम संख्या साढ़े चार महीने पहले निकल सकी थी। अब अधिक विलंब होने से सम्मान नष्ट हो जाने का भय था । छपने के लिए रचनाओं की कोई चिंता नहीं थी, परंतु रचनाओं को छपवाने के लिए देय रुपयों को जुटाने की बड़ी समस्या थी। पत्रिका के चौथे कवर - पृष्ठ के लिए तो 'लेक व्यू होटल एंड रेस्टोरेंट' के नाम का विज्ञापन निर्धारित था ही। हम सभी को आश्चर्यचकित कर दिया गोकुलानंद बाबू ने विज्ञापन के प्राप्य रुपयों का पूरा-पूरा अग्रिम पेमेंट करके । खाने के लिए हाथ-पाँव धोकर तैयार होने के पहले ही भोजन की रसभरी थाली । परंतु इससे और आश्चर्यजनक जो बात हुई, उसकी हमने कल्पना तक नहीं की थी । गोकुलानंद बाबू गरदन सीधी करके बातें करते थे। परंतु उसी दिन कुछ झुकते हुए बोले, “मेरी भी एक रचना आप लोग छापेंगे ?"
"बहुत अच्छी बात है।" मैंने कुछ संकुचित होते हुए कहा, “आपका ऐसा नानाविध घटनाओं से भरा जीवन रहा है। कितने विचित्र-विचित्र अनुभव हुए हैं। मुँह से तो आप कुछ विशेष कहते नहीं । अच्छा हो, लिखकर ही दे दें। परंतु जिस प्रकार से आप बातें करते हैं, ठीक उसी प्रकार से लिखिएगा । "
दो दिन के भीतर ही उनकी रचना हम पा गए। हाथ की लिखावट ऐसी सुंदर कि ब्लॉक बनवाकर छापने लायक थी। पढ़कर देखा तो पाया कि एक अति सुंदर लिपिकर ने बटतला की भाव-विह्वल भाषा में एक असफल प्रेम की हृदय विदारक कहानी लिखी है। कहानी के नायक की आयु उन्नीस वर्ष है, जो अभी शीघ्र ही कॉलेज में प्रविष्ट हुआ है। नायिका चौदह वर्ष की है। कुछ दिनों तक तो वह गाँव की पाठशाला में आती-जाती रही, परंतु अब माँ के साथ रसोईघर में कलछुल - पौना पकड़े भोजन बनाने में सहयोग करती है। अगर जरा सा भी अवकाश पाती है तो नायक के कमरे को, जो उसके घर के पास ही था, सजा-धजा देती है। दोनों की जाति भिन्न-भिन्न है, इसी से खलनायक की भूमिका में दोनों जनों के अभिभावक लोग ही हैं।
एक तो विज्ञापन के पैसे का अग्रिम भुगतान, दूसरे मैनेजर बाबू के रजिस्टर में हम सबके नाम के आगे उधार खाए पैसों की लंबी लिस्ट । करें क्या ? समीर को वह रचना दिखलाई। परंतु उसके जैसे अति स्पष्ट कटु सत्यवक्ता की भी जीभ अटक गई। अंततः मैंने ही अनुरोध किया - " कोई एक दूसरी रचना दें न! अपने जीवन में जो कुछ आपने स्वयं देखा है, अनुभव किया है, उस पर आधारित । "
गोकुलानंद बाबू ने हमें अनेक बार चमत्कृत कर हतबुद्धि, किंकर्तव्यविमूढ़ किया है। अबकी उस रचना को हमारे हाथ से वापस लेकर उन्होंने तुरुप का ताश फेंका। हमें आश्चर्यचकित करते हुए ख ख ख ख का अट्टाहास कर ग्रेनाइट पत्थर का मुखौटा हँसी की हथौड़ी से टूट-फूट गया । हमारे मुँह, पर तो जैसे मछली की आँखें जड़ दी गई हों!
"क्यों, बम-पिस्तौल और जेलखाने के अतिरिक्त, इनके बाहर क्या मेरा कोई जीवन ही नहीं था ?" ग्रेनाइट पत्थर के टूटे-फूटे टुकड़े फिर से जुड़ गए। वही पुराना, खरखराहट भरा रिकॉर्ड फिर बजने लगा - " जो मैंने इसमें लिखा है, वह मेरे जीवन की सर्वाधिक बहुमूल्य स्मृति भी तो हो सकती है।" उसके बाद मानो अपने को ही सुनाते हुए बोले, " ठीक ही तो है। प्रेम का मैं क्या कुछ जानता हूँ ? समझता ही क्या हूँ ?"
हम सभी घर का फर्श देख रहे हैं। उस समय भी, जानकर भी हम जानना नहीं चाहते थे कि हमारे सुख के दिन अब समाप्ति की ओर पहुँच रहे हैं। 'लेक व्यू होटल एवं रेस्टोरेंट' - की उस जीर्ण-शीर्ण नौका में हम लोगों ने अनेक छेद कर दिए। उसके बाद उधार की असीम - नदी में वह चलनी मार्का - नौका एक दिन घुप्प से डूब गई। कुछ दिनों से गोकुलानंद बाबू आ नहीं रहे थे। टाट उलटने की सूचना मैनेजर बाबू ने दी - " आज ही अंतिम रात है।"
समीर तत्क्षण यों ही न्यापा दा, सुरजीत और मंटू को लेकर बाहर चला गया। शिप्रा इधर बहुत दिन बाद आई थी। उसके हाथ में हममें से प्रत्येक के नाम से अंकित 'शुभ-विवाह' – चिह्नित कार्ड थे । वह भी सिर झुकाए बैठी थी । समीर वगैरह करीब आधा घंटा बाद लौटे। चारों के हाथ में चार बोतलें थीं। उनमें घने गाढ़े सफेद रंग का तरल पदार्थ ढल ढल कर रहा था । यह समीर की विशेषता थी । दवाओं की दुकान से विशुद्ध अल्कोहल खरीद लाकर पानी मिलाकर सस्ते में तैयार की गई मदिरा । उस दिन हम सभी ने उसे पिया। नाक-भौं सिकोड़ते हुए शिप्रा ने भी दो-एक घूँट उतारी। फिर श्यामल के सुर में सुर मिलाकर मेजों को टेबल की तरह बजा-बजाकर हम सबने गाया, 'आज खेला भाङार खेला, खेलबी आय।' (आज तोड़- ताड़कर खेल को खत्म करने का खेल है; खेलोगे, आओ !)
छह महीने से कुछ ही कम दिनों तक हम लोग वायुमंडल में लगातार रंगीन गुब्बारे उड़ाते रहे थे। बंद हुए होटल का साइनबोर्ड उसके बाद भी धूप में तपता, बारिश में भीगता रहा। उधर से आते-जाते समय हम उसकी ओर निहारते रहते। नष्ट-साम्राज्य की बातें याद कर-करके दीर्घ निःश्वास निकल पड़ते। अचानक एक दिन देखा कि होटल के उसी मकान में किसी बैंक का शुभ-उद्घाटन बड़ी तड़क-भड़क से हो रहा है। इसके कुछ दिनों बाद हमारा अड्डा टूट-फूटकर बिखर गया ।
सूर्य को साक्षी बनाकर पृथ्वी ने पाँच परिक्रमाएँ पूरी कीं। हम सबने अपनी आयु के साथ पाँच और जोड़ लिया । मन की ओर से तो किसी का चालीसा पहले ही आ पहुँचा। एक समीर ही अपनी इच्छा से अब तक बेकार पड़ा है। अपने से दस वर्ष कम उम्रवाले लड़कों के साथ ही डोलता रहता है, बाकी लगभग सभी जैसी-तैसी किसी एक नौकरी के घाट पर नैया का लंगर डालकर स्थिर बैठ गए हैं। दो-एक तो विवाह वगैरह करके बच्चों के बाप बन गए हैं। एक वह समय था, जब रचना करना, पत्रिका प्रकाशित करना आदि इतना महत्त्वपूर्ण था कि उसी के लिए मतवाले बने रहते थे। जबकि हम सभी सस्ते किस्म की आतिशबाजी के पटाखे हैं। कभी-कभी अकेले में होने पर उसके सुंदर-सुरीले गले की याद हो आती है। मैं अब सूट-टाई पहने हुए चक्कर लगानेवाला, एक बृहत् राष्ट्रीय संस्था (मल्टीनेशनल कंपनी) का साबुन और डिटरजेंट पाउडर वितरित करनेवाला फेरीबाज (एजेंट) हूँ। हिंदीभाषी व्यापारी का लड़का मुझे देखते ही चिल्लाता है - " पिताजी ! साबुन बाबू आया है।"
एक बार रामपुरहाट बंगाल का एक कस्बा बाजार में टूर पर गया था। अचानक गोकुलानंद बाबू से मुलाकात हो गई। ठीक वही चेहरा। पहले की तरह ही श्वेत शुभ्र कमीज - पाजामा पहने हुए। केवल चमड़े का एक ब्रीफकेस, एक अधिक उपादान हाथ में लटका था । आकार-प्रकार में मेरे ब्रीफकेस के कुछ छोटा । उनकी बढ़ती उम्र की छाप बस सिर के पके बालों पर ही दिखाई दी और ग्रेनाइट पत्थर के लोंदे पर अब एक कठोर रबर का आभास चढ़ गया था।
उसी क्षण कभी के दिवालिया हो गए असफल होटल के रजिस्टर में उधार खाते में अंकित रुपयों के अंक जैसे टिड्डी के झुंड की तरह घिर आए । पूरी तरह एकदम आमना-सामना हो गया। पासवाली गली से खिसक जाने का भी कोई उपाय नहीं बचा था। फलतः एक हँसी-खुशी का मुखौटा लगाना ही पड़ा।
“अरे, अरुणांशु बाबू हैं।" ब्रीफकेस समेत दो बलिष्ठ भुजाओं के घेरे में मैं उस चौड़ी छाती में जैसे चिपका लिया गया।
ग्रामीण कस्बे की सँकरी सड़क। सिर के ऊपर सूरज की प्रखर किरणों की चिलचिलाती धूप । सड़क के किनारे की गंदी नाली की तीखी दुर्गंध की जलन । साइकिल-रिक्शों की लगातार गूँजती टुन टुन, प्याँक- प्याँक । पतली सड़क पर आगे निकल जाने की चेष्टा में थोड़ी ही दूर पर ट्रक और बस की घिसा-घिसी-रगड़ । ठीक पैर के पास ही एक आदमी एक टोकरा बैंगन लिये बैठा है। चारों ओर आसपास लोग अपने-अपने मतानुसार अकेले-अकेले ही बचे रहने के लिए जीवन-संग्राम लड़ रहे हैं। मैं भी उन्हीं में से एक हूँ। बातें करने का वक्त कहाँ है ? अभी-अभी मुझे बस से सिउड़ी (एक कस्बा शहर) जाना अत्यावश्यक है।
गोकुलानंद सभी का समाचार पूछ रहे थे । श्यामल नहीं रहा, सुनकर एकदम स्तब्ध रह गए। बहुत धीमे स्वर में पूछा, “कैसे हुआ ?"
"यदि अतिशय संक्षेप में कहें तो कहेंगे कि उसने आत्महत्या की थी।"
“कितना मधुर गान गाते थे ! " सड़क की भीड़-भाड़, झगड़ा-टंटा, धूल- धक्कड़, धक्का-मुक्की की परवाह न करते हुए गोकुलानंद बाबू ने कहा - "दुःख आमार असीम पाथार; पार होलो; ये पार होलो। (दुःख का पारावार मेरा, हुआ पार, अरे पार पार हो गया जी ।) जबकि अंततः उसी दुःख के आगे हार मान गए ? वह भी इतनी कम उम्र में ! "
“एक प्रकार से श्यामल ने अच्छा ही किया था । " मेरे मुँह से पट से बात निकल गई।
"इसका मतलब ?" गोकुलानंद जैसे मेरी भाव-भंगिमा का अंदाज नहीं लगा पा रहे थे।
"जीवन की सबसे उत्तम - अवस्था कि उम्र में स्थायी रूप से स्थिर हो गया है। हम लोग बूढ़े होंगे, परंतु उसकी उम्र तो अब बढ़ेगी नहीं। हमारे पुनः लौटने का रास्ता पूरी तरह बंद है। चाहें या न चाहें, उम्र के धक्के खा खाकर आगे बढ़ना ही पड़ेगा। आगे की ओर। जबकि आगे की ओर बढ़ने पर और आगे सामने कोई हमें वरण करने के लिए आरती उतारने का थाल सजाकर तो कोई बैठा नहीं है। "
'लेक व्यू होटेल ऐंड रेस्टोरेंट' की छत पर के अड्डे के नष्ट हो जाने के समय से ही अब तक इसप्रकार की बात कहने की शैली खत्म हो गई थी। इस समय मैं भूल ही गया था कि मैं एक साबुनवाला एजेंट हूँ ।
काले कड़े रबर के टुकड़े के एक किनारे चिंता के जाल से जकड़ी एक टुकड़ा हँसी चमक उठी । फिर कहने लगे, " अभी इस आयु में इस प्रकार की पागलों जैसी बातें करते हो ।" इतना कहकर ही उन्होंने घड़ी देखी और फिर इसकी सकारण व्याख्या भी दी, “मुझे फिर जल्दी ही रेलगाड़ी पकड़नी होगी । बोलपुर शांतिनिकेतन के पास का शहर जाऊँगा। इसी प्रकार फिर राह चलते रास्ता - घाट में कहीं, कभी फिर मुलाकात हो जाएगी।"
" हम लोगों ने ही उधार में खा-खाकर आपका होटल उजाड़ दिया।" जब उनसे भेंट हुई थी, तभी से यह बात मन में सुई-सी चुभ रही थी। अब जब एक झटके में कह गया तो विवेक-बुद्धि के शरीर पर पड़ी एक परत कालिख अपने आप झड़ गई।
'अरे, चुप करें, चुप करें। क्या अनाप- सनाप कह रहे हैं आप।" दोनों पैरों के बीच ब्रीफकेस फँसाकर नीचे रखते हुए गोकुलानंद बाबू बोल पड़े- “ ये सब बातें भूल जाइए। अलावा इसके, क्या बस आप लोगों ने ही उधार खाया था ? मेरा मैनेजर, रसोईघर का प्रबंधक और नौकर-चाकर आदि सभी ने मिलकर क्या मेरी तलैया नहीं चुराई थी ?" गोकुलानंद बाबू होटल के फेल हो जाने का धक्का सह चुके हैं। अब फिर से कर्मठ हो चले हैं। पूरे प्रदेश में इस समय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय और बहुधंधी स्कूलों की बाढ़ आ गई है। अब वे उन्हीं सभी को नाना प्रकार के यंत्रों-उपकरणों की सप्लाई का काम कर रहे हैं। यह व्यवसाय कोई खराब नहीं चल रहा है, यह भी उन्होंने समझाया। उनका चेहरा देखकर भी मुझे ऐसा ही लगा ।
'अच्छा भाई, चलूँ।" कहकर गोकुलानंद बाबू ने कदम बढ़ाए।
" जाने से पहले बस एक बात का जवाब देते जाएँ। " अत्यंत दीन-हीन, कातर- सा मैं बोल पड़ा - " इतने दिनों से इस पहेली का जवाब ढूँढ़ रहा हूँ । उत्तर का पता नहीं पा सका । मन यह भी कहता है कि आज के इस सुयोग के बीत जाने पर फिर कभी पाऊँगा भी नहीं ?"
"कहिए! " पाँव बढ़ाने को उद्यत हो जाने पर भी उन्होंने पाँव आगे नहीं बढ़ाए।
"हम लोगों ने दिन भर आपके होटल में बिना पैसा चुकाए खाया पिया।" मेरे गले की आवाज कब इतनी तेज हो गई थी, मैं स्वयं भी नहीं जान सका - " आपके अन्य नकद ग्राहक कुरसी खाली न होने के कारण लौट गए, बार- बार। हम लोगों ने छत पर होटल की कुरसियाँ अटका रखी थीं। इससे बहुत कम अत्याचार करने पर भी हम लोगों को अन्य होटलवालों ने मार भगाया था, परंतु आपने ही क्योंकर और किस विधि से हमें सहन किया ? हम लोगों को बहुत पहले ही विदा क्यों नहीं कर दिया ?" एक ही रौ में ऊँचे स्वर में इतनी सारी बातें कहकर मैं हाँफने लगा था।
काले-कठोर रबर के टुकड़े के ऊपर एक आश्चर्य रूप की हँसी खेल गई । उस हँसी जैसी कोई हँसी मैंने कभी और कहीं भी नहीं देखी थी। बाद में भी कभी नहीं देख पाया । वे बोल पड़े- “ जब बीस वर्ष की आयु थी, तभी जेल चला गया। जब जेल से छूटा तो चालीसवाँ वर्ष पूरा होने में ज्यादा देर नहीं थी । आप सब लोग जिस आयु -वेला में साहित्यिक आलोचना- प्रत्यालोचना करते थे, अड्डेबाजी करते थे, पत्रिका प्रकाशित करते थे, युवती - मित्रों के साथ गप्प मारते थे, उसी आयु-वेला में मैं पूरी तरह जेलखाने की दीवारों के भीतर कैद था । मुक्त समाज से एकदम छिपा हुआ । चहारदीवारियों में फँसा था । "
कुछ देर तक मौन रहने के बाद पुनः कहने लगे- “ पहले आप लोग कई बार अत्यंत आग्रहपूर्वक मुझसे जानना चाहते थे कि अंडमान की जेल में मेरे यौवन का जीवन किस तरह कटा, कैसे बीता ? वहाँ मुझे क्या करना पड़ा, जानते हैं? कभी तो पत्थर तोड़ता था तो कभी नारियल की छाल हाथों से उधेड़ उधेड़कर साफ कर उससे रस्सी बुनता था। इस तरह प्रतिदिन दो सेर तौलकर रस्सी बुनकर तैयार करनी पड़ती थी । यदि इससे जरा भी कम होती थी तो जेल के पठान चौकीदारों के चाबुक पीठ को छलनी बना देते थे। नारियल की सूखी हुई छाल की कितनी मात्रा से दो सेर भार की रस्सी बनाई जा सकती है ? इसका कुछ अनुमान आप कर सकते हैं ?"
उनका प्रश्न हवा में लटका रहा, परंतु उत्तर का ज्ञान मुझे नहीं हो सका । यदि उत्तर की जानकारी होती, अंदाजा लगा पाता, तो भी उत्तर देने का साहस मुझमें नहीं था । उनकी ओर आँख उठाकर देखने में भी असुविधा हो रही थी । फिर भी उनके गले की जो आवाज पुनः सुनाई पड़ी, उसमें मुसकराहट का आभास था।
"आपके उस आधुनिक कवि की कविता, लेकिन मुझे अभी तक याद है— 'ऐतो पथ हेंटे; एतो जल घंटे, की तबे पेलाम?' (इतनी लंबी राह पैदल चलकर, इतने घाटों का पानी मथ - मथकर होंड - हाड़कर फिर पाया क्या ? ) अंततः क्या पाया?–नारियल के खुज्झों - सूखी छालों के कड़े रेशों की हाथ से रस्सी बँटते- बँटते हाथ की हथेली के तलुओं की क्या हालत हो गई थी, जानते हैं ? लीजिए, यह देखिए ठीक से निहारिए इस ओर ।" अचानक विस्मयवश उधर देखा । दो हाथों की पाँच-पाँच उँगलियों के दो भारी-भारी पंजे आँखों के सामने फैल गए थे। भैंसे के चमड़े के समान मोटा, काला काला हथेली का तलवा! जिस पर हाथ की हथेली पर सर्वसुलभ रेखाओं में से एक भी रेखा का; किसी भी रेखा का कहीं कोई भी कोई भी चिह्न तक नहीं है ।
“मेरे हाथों को देखकर भविष्यत् बखान सके, ऐसा ज्योतिषी दुनिया में पैदा ही नहीं हुआ।" ये बातें हवा की तरंगों पर तिरती हुई मेरे कानों में आईं।