जीवन का व्यवसाय (निबंध) : महादेवी वर्मा

Jivan Ka Vyavsaya (Hindi Nibandh) : Mahadevi Verma

(1)

आदिम युग से ही नारी ने पशुबल में अपने आपको पुरुष से दुर्बल पाया। प्रकृति ने न केवल उशके शरीर को ही अधिक सुकुमार बनाया है, वरन् उसे मनुष्य की जननी का पद देकर उसके हृदय में अधिक संवेदना, आंखों में अधिक आर्द्रता तथा स्वभाव में अधिक कोमलता भर दी। मातृत्व के कारण उसके जीवन का अधिक अंश संघर्ष से भरे विश्व के एक छिपे कोने में बीतता रहा। पुरुष चाहे उसे युद्ध में जीतकर लाया, चाहे अपहरण कर; चाहे उसकी इच्छा से उसे प्राप्त कर सका, चाहे अनिच्छा से; परंतु उसने प्रत्येक दशा में नारी को अपनी भावुकता का अर्घ्य देकर पूजा। नारी भी नारियल के कड़े छिलके के भीतर छिपे जल के समान पुरुष की बाह्य कठोरता के भीतर छिपी स्निग्ध प्रवृत्ति का पता पा गई थी। अत: उसने सारी शक्ति केवल उसकी कोमल भावना को जगाने में लगा दी। उसने न अपनी भुजाओं में शक्ति भरने और उस शक्ति के प्रदर्शन से पुरुष को चमत्कृत करने का प्रयत्न किया और न अपनी विद्याबुद्धि से पुरुष को पराजित करने का विचार किया। वह जानती थी कि इन गुणों के प्रदर्शन से पुरुष में प्रतिद्वंद्विता की भावना जागेगी, परंतु वह पराजित होने पर भी वशीभूत न हो सकेगा, क्योंकि प्रतिद्वंद्वियों की हार-जीत में किसी प्रकार का आत्म-समर्पण भी संभव नहीं।

इसी से आदिम युग की नारी ने निरर्थक प्रतिद्वंद्विता का भाव न रख कर अपने केशों में फूल उलझाए, कानों में कलियों के गुच्छे सजाए और संपूर्ण नारीत्व के बल पर उसने बर्बर पुरुष को चुनौती दी! उस युग का कठोर पुरुष भी कोमल नारीत्व के सम्मुख कुंठित हो उठा। तब से न जाने कितने युग आए और चले गए, कितने परिवर्तन पुराने होकर नए परिवर्तनों को स्थान दे गए, परंतु स्त्री तथा पुरुष के संबंधों में जो तब सत्य था वह अब भी सत्य है। स्त्री ने न शारीरिक बल से पुरुष को जीता और न ही विद्याबुद्धि से, फिर भी जय उसी की रही, क्योंकि पुरुष ने अपने नीरस जीवन को सरस बनाने के लिए उसकी मधुरता खोजी और उसका अधिक से अधिक मूल्य दिया।

परंतु नारी के कर्त्तव्य की चरम सीमा उसके प्रेयसी होने में ही समाप्त नहीं होती; उस पर मातृत्व का गुरु भाव भी है। धीरे-धीरे वह संतान की वात्सल्यमयी जननी बन कर, पुरुष को आकर्षित करने वाली रमणीसुलभ विशेषताओं को भूलने लगी। उसके स्त्रीत्व के विकास तथा व्यक्तित्व की पूर्णता के लिए संतान साध्य है और रमणीत्व साधन मात्र। इसीलिए प्रत्येक रमणी मातृत्व का अंकुर छिपाए हुए है। परंतु यह संशयात्मक है कि प्रत्येक पूर्ण माता रमणीत्व से शून्य नहीं।

वास्तव में माता होकर उसकी इच्छा, भावना तथा चेष्टा में ऐसा परिवर्तन हो जाता है, जो सूक्ष्म होकर भी स्पष्ट है और सीमित होकर भी जीवन भर में व्यापक है। जब स्त्री प्रेयसी से पत्नी तथा पत्नी से माता रूप में परिवर्तित हो गई तब उसके प्रति विशेष कर्त्तव्य के बंधन में बंधे हुए पुरुष ने देखा तथा अनुभव किया कि वह स्त्री से अधिक महान हो जाने- के कारण क्रीड़ा की वस्तु मात्र नहीं रह गई। पुरुष ने स्त्री के मातृ-रूप के सामने मस्तक झुकाया, उस पर हृदय की अतुल श्रद्धा चढ़ाई अवश्य, परंतु पूजा-अर्चा से उसके अंतस्तल की प्यास न बुझी। उसे ऐसी स्त्री की भी कामना रही, जो केवल मनोविनोद और क्रीड़ा के लिए होती, जो जीवन के आदि से अंत तक केवल प्रेयसी ही बनी रह सकती और जिसके प्रति पुरुष कर्त्तव्य के कठोर बंधन में न बंधा होता। पुरुष इसी इच्छा का परिणाम हमारे यहां की वार-वनिताएं हैं, जिन्हें जीवन भर केवल स्त्री और प्रेयसी ही बना रहना पड़ता है।

उनके जीवन का विकास एकांगी होता है। उनके हृदय की कल्याणमयी सुकोमल भावनाएं प्राय: सुप्त ही रहती हैं और उनकी जीवन-शक्ति प्रकाश देने तथा जगत् में उपयोगी कार्य करने वाली विद्युत न होकर ऐसी विद्युत होती है जिसका पतन वृक्षों के पतन का पूर्वगामी बन जाता है।

उसके मन तथा शरीर दोनों को नित्य नवीन बने रहने का अभिशाप मिला है। उनके नारीत्व को दूसरों के मनोरंजन मात्र का ध्येय मिला है तथा उनके जीवन का तितली जैसे कच्चे रंगों से शृंगार हुआ है, जिसमें मोहकता है परंतु स्थायित्व नहीं। वह संसार की विकृत प्राणी मानकर दूर रखी गई, परंतु विनोद के समय आवश्यक भी समझी गई, जैसे मनुष्य-समाज, हानि पहुंचाने वाले विचित्र पशु-पक्षियों को भी मनोरंजन के लिए कठघरे में सुरक्षित रखता है।

पुरुष ने ऐसी, केवल मनोरंजन के लिए जीवित रहने वाली, नारी के प्रेयसी भाव को और अधिक मधुर बनाने के लिए भावोद्दीपक कलाओं की आराधना का अधिकार दिया। ऐसे अस्त्रों से सुसज्जित होकर वह और भी दुर्जेय हो उठी। उसने फूल-जैसे हल्के चरणों से देवता के सामने तन्मयताभरा लास दिखाया, कोकिल से मीठे स्वरों में में बंधे संगीत से मानव समुदाय को बेसुध करना तथा पुरुष की दर्बल सुप्त प्रवृतियों को जगाने का अधिक से अधिक मूल्य मांगा और पाया। पुरुष ने उसे अपने कल्याण के लिए नहीं स्वीकार किया, वरन् बाह्य संसार के संघर्ष तथा शुष्कता से क्षण भर अवकाश पाने के लिए मदिरा के समान उसके साहचर्य का उपयोग किया। प्रश्न हो सकता है कि क्या स्त्री, पत्नी के रूप में पुरुष के संघर्षमय जीवन को अधिक सरल और सह्य न बना सकती थी? अवश्य ही बना सकती थी और बनाती रही है; परंतु वह माता होकर जो स्निग्ध स्नेह दे सकती है वह उत्तेजक नहीं है और प्राय: पुरुष ऐसी उत्तेजना भी चाहता है, जिससे वह कुछ क्षणों के लिए संज्ञाशून्य-सा हो जावे।

गंगाजल मदिरा से अधिक कल्याणकारक तथा पवित्र है, परंतु कोई भी अपने आपको भूलने की इच्छा रखने वाला उसकी पवित्रता पर ध्यान न देगा। स्त्री, पत्नी बनकर पुरुष को वह नहीं दे सकती जो उसकी पशुता का भोजन है। इसी पे पुरुष ने कुछ सौंदर्य की प्रतिमाओं को पत्नीत्व तथा मातृत्व से निर्वासित कर दिया। वह स्वर्ग में अप्सरा बनी और पृथ्वी पर वीरांगना। राजकार्य से ऊबे हुए भूपालों की सभाएं उससे सुसज्जित हुईं, युद्ध में प्राण देने जाने वाले वीनों ने तलवारों की झनझनाहट सुनने से पहले उसके नूपुरों की रुनझुन सुनी, अति विश्राम से शिथिल लक्ष्मी के कृपा-पात्रों के प्राण उसकी स्वरलहरी के कंपन से कंपित हुए और कर्त्तव्य के दृढ़ बंधन में बंधी गृहिणी उसके अक्षय व्यावसायिक स्त्रीत्व के आकर्षण से सशंकित हो उठी। आंखी के समान उसका स्त्रीत्व बादल की छवि लेकर आया, परंतु ध्वंस तथा धूल छोड़कर अज्ञात दिशा में बढ़ गया।

पुरुष के लिए वह आदिम युग की बंधनहीन, कर्त्तव्य-ज्ञान-शून्य तथा समाजरहित नारीमात्र रही। पुरुष को आकर्षित करना उसका ध्येय तथा पराभूत करना उसकी कामना रही। मनुष्य में जो एक पशुता का, बर्बरता का अक्षय अंश है उसने सर्वदा ऐसी ही नारी की इच्छा की। इसी से ऐसी रूप-व्यवसायिनी स्त्री की उपस्थिति सब युगों में संभव रही। स्त्री के विकास या उसकी शक्तियों के विस्तार के लिए ऐसा जीवन कितना आवश्यक या उपयुक्त है, इस पर पुरुष ने प्राय: विचार नहीं किया। विचार करने की उसे आवश्यकता भी नहीं थी। उसके पास त्याग, बलिदान तथा आत्मसमर्पण का मर्म जानने वाली एक पत्नी थी ही। माता और बहिन के स्नेह से भी उसके प्राण स्निग्ध थे। फिर वह इस रूप की हाट में उत्तेजना बेचने वाली कलामयी नारी के हृदय की भूख क्योंकर समझता? उसे भी अपनी पूर्णता के लिए सौंदर्य के विक्रय के अतिरिक्त और कुछ चाहिए, यह कैसे मान लेता? यदि यह रूपसी भी माता बनकर वात्सल्य का वितरण करने लगती तो फिर पुरुष नारी का केवल प्रेयसी रूप कहां और किसमें देखता, उत्तेजना की मदिरा कहां और कैसे पाता?

उसने कहीं इस स्त्री को देवता की दासी बनाकर पवित्रता का स्वांग भरा, कहीं मंदिर में नृत्य कराकर कला की दुहाई दी और कहीं केवल अपने मनोविनोद की वस्तु-मात्र बनाकर अपने विचार में गुण-ग्राहकता ही दिखाई।

यदि स्त्री की ओर देखा जाए तो निश्चय ही देखनेवाला कांप उठेगा। उसके हृदय में प्यास है, परंतु उसे भाग्य ने म-गमरीचिका में निर्वासित कर दिया है। उसे जीवन भर आदि से अंत तक सौंदर्य की हाट लगानी पड़ी, अपने हृदय की समस्त कोमल भावनाओं को कुचलकर, आत्मसमर्पण की सारी इच्छाओं का गला घोंटकर, रू का क्रय-विक्रय करना पड़ा– और परिणाम में उसके हाथ आया निराश हताश एकाकी अंत।

उसने क्या खोया और क्या पाया, इसका विचार करने का संसार ने उसे अवकाश ही न दिया और यदि देता भी तो संभव है वह तब अपना हानि-लाभ जानने की बुद्धि नहीं रखती। जीवन की एक विशेष अवस्था तक संसार उसे चाटुकारी से मुग्ध करता रहा है, झूठी प्रशंसा की मदिरा से उन्मत्त करता रहा है, उसके सौंदर्य-दीप पर शलभ-सा मंडराता रहता है परंतु उस, मादकता के अंत में, उस बाढ़ के उतर जाने पर उसकी ओर कोई सहानुभूति भरे नेत्र भी नहीं उठाता। उस समय उसका तिरस्कृत स्त्रीत्व, लोलुपों के द्वारा प्रशंसित रूप-वैभव का भग्नावशेष क्या उसके हृदय को किसी प्रकार की सांत्वना भी दे सकता है? जिन परिस्थियों ने उसका गृह-जीवन से बहिष्कार किया, जिन व्यक्तियों ने उसके काले भविष्य को सुनहले स्वप्नों से ढांका, जिन पुरुषों ने उसके नुपुरों की रुनझुन के साथ अपने हृदय के स्वर मिलाए और जिस समाज ने उसे इस प्रकार हाट लगाने के लिए विवश तथा उत्साहित किया, वे सब क्या कभी उसके एकाकी अनत का भार कम करने लौट सके?

यह संभव नहीं था कि उसने अपने सुनहरे दिनों के साथियों पर विश्वास न किया हो, उनके प्रत्येक वाक्य में सच्ची सदिच्छा न देखी हो, परंतु उसके वे अनुभव अंत में मिथ्या ही निकलते हैं।

किसी भी विषय को सदा भावुकता के दृष्टिकोण से देखना उचित नहीं होता। इन स्त्रियों की स्थिति को भी हम केवल इसी दृष्टिकोण से देखकर न समझ सकेंगे। उनकी स्थिति को यथार्थ रूप में देखने के लिए हमें उसे कुछ व्यावहारिक रूप में भी देखना होगा। अनेक व्यक्तियों का मत है कि चाहे जितना प्रयत्न किया जाए, स्त्री-समुदाय में कुछ स्त्रियां अवश्य ही ऐसी होंगी जो गृहस्थ जीवन तथा मातृत्व की अपेक्षा ऐसा स्वतंत्र जीवन ही स्वीकार करेंगी तथा कुछ-कुछ का मत है कि अनेक पुरुषों को ऐसी रूप की हाट की आवश्यकता भी रहेगी। पुरुष को आवश्यकता रहेगी, इसलिए स्त्री को अपना जीवन बेचना होगा, यह कहना न्यायसंगत न होगा। कोई भी सामाजिक प्राणी अपनी आवश्यकता के लिए किसी अन्य के स्वार्थ की हत्या नहीं कर सकता।

(2)

इन स्त्रियों ने, जिन्हें गर्वित समाज पतित के नाम से सम्बोधित करता आ रहा है, पुरुष की वासना की वेदी पर कैसा घोरतम बलिदान दिया है, इस पर कभी किसी ने विचार भी नहीं किया । पुरुष की बर्बरता, रक्तलोलुपता पर बलि होनेवाले युध्द वीरों के चाहे स्मारक बनाये जावें , पुरुष की अधिकार-भावना को अक्षुण्ण रखने के लिए प्रज्ज्वलित चिता पर क्षण भर में मर मिटने वाली नारियों के नाम चाहे इतिहास के पृष्ठों में सुरक्षित रह सकें ; परन्तु पुरुष की कभी न बुझने वाली वासनाग्नि में हँसते -हँसते जीवन को तिल तिल जलाने वाली इन रमणियों को मनुष्य-जाति ने कभी दो बूँद आँसू पाने का अधिकारी भी नहीं समझा । न समझना ही अधिक स्वाभाविक था ; क्योंकि इन्हें सहानुभूति का पात्र समझना , इनकी दयनीय स्थिति तथा इनके कठिन बलिदान का मूल्य आँकना पुरुष को उसकी दुर्बलता का स्मरण करा देता है । चाहे कभी किसी स्वर्णयुग में बुद्ध से अम्बपाली को करुणा की भीख मिल गई हो , चाहे कभी ईसा से किसी पतिता ने अक्षय सहानुभूति माँग ली हो , परन्तु साधारणतः समाज से ऐसी स्त्रियों को असीम घृणा और घोर तिरस्कार ही प्राप्त हुआ ।

यह सत्य है कि युगों से हमारी विनोद सभाएँ तथा विवाह आदि पवित्र उत्सव इनके बिना शोभाहीन समझे जाते रहे । प्राचीनकाल में तो देवताओं की अर्चना में भी नर्तकियों की आवश्यकता पड़ जाती थी परन्तु इन सब आडम्बरों की उपस्थिति में भी उस जाति को समाज से कोई सहानुभूति नहीं मिल सकी ।

क्रीतदासी न होने पर भी उसकी दासता इतनी परिपूर्ण रही कि वह अपने जीवन का गर्हिततम व्यवसाय करने के लिए विवश थी । उसे अपने घर के द्वार समाज के कुत्सित से कुत्सित व्यक्ति के लिए भी खुले रखने पड़े और भागने का प्रयत्न करने पर समाज ने उसके लिए सभी मार्ग रुद्ध कर दिये । वह पत्नीत्व से तो निर्वासित थी ही , जीविका के अन्य साधनों को अपनाने की स्वतंत्रता भी न पा सकी । उसकी दशा उस व्यक्ति के समान दयनीय हो उठी , जिसे घर के सब द्वारों में आग लगाकर धुएँ में घुट जाने के लिए विवश किया जा रहा हो ।

कभी कोई ऐसा इतिहासकार न हुआ जो इन मूक प्राणियों की दुःखभरी जीवनगाथा लिखता ; जो इनके अँधेरे हदय में इच्छाओं के उत्पन्न और नष्ट होने की करुण-कहानी सुनाता , जो इनके रोम-रोम को जकड़ लेने वाली श्रृंखला की कड़ियाँ ढालने वालों के नाम गिनाता और जो इनके मधुर जीवनपात्र में तिक्त विषय मिलाने वाले का पता देता । क्या यह उन स्त्रियों की सजातीय नहीं हैं , जिनकी दुग्ध -धारा से मानवजाति पल रही है ? वया यह इन्हीं की बहिनें नहीं हैं , जिन्होंने पुरुष को पति का पद देकर अकुण्ठित भाव से परमेश्वर के आसन पर आसीन कर दिया ? और क्या यह उन्हीं की पुत्रियाँ नहीं हैं , जिनके प्रेम, त्याग और साधना ने झोपड़ों में स्वर्ग और मिट्टी के पुतलों में अमरता उतार ली है ? जो एक स्त्री कर सकती है, वह दूसरी के लिए भी असंभव नहीं हो सकता , यदि दोनों की परिस्थितियाँ समान हों ।

मनुष्य जाति के सामान्य गुण सभी मनुष्यों में कम या अधिक मात्रा में विद्यमान रहेंगे । केवल विकास के अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियाँ उन्हें बढ़ा-घटा सकेंगी। पतित कही जाने वाली स्त्रियाँ भी मनुष्य-जाति से बाहर नहीं हैं , अत : उनके लिए भी मानव-सुलभ प्रेम , साधना और त्याग अपरिचित नहीं हो सकते । उनके पास भी धड़कता हुआ हृदय है , जो स्नेह का आदान- प्रदान चाहता रहता है, उनके पास भी बुद्धि है, जिसका समाज के कल्याण के लिए उपयोग हो सकता है और उनके पास भी आत्मा है, जो व्यक्तित्व में अपने विकास और पूर्णता की अपेक्षा रखती है । ऐसे सजीव व्यक्ति को एक ऐसे गर्हित व्यवसाय के लिए बाध्य करना जिसमें उसे जीवन के आदि से अन्त तक, उमड़ते हुए आँसुओं को अंजन से छिपाकर, सूखे हुए अधरों को मुस्कराहट से सजाकर और प्राणों क्रन्दन को कण्ठ ही में रुंध कर धातु के कुछ टुकड़ों के लिए अपने आपको बेचना होता है, हत्या के अतिरिक्त और कुछ नहीं ।

और भी जब इतना घोर बलिदान , इतनी निष्ठुर हत्या केवल मनुष्य की पशुता की तुष्टि के लिए की जाती हो , तब इस क्रूर कार्य के उपयुक्त नाम किसी भी कोष में पाना कठिन होगा । जैसे दास-प्रथा के युग में स्वामियों के निकट दास व्यक्ति न होकर यन्त्र मात्र था , वैसे ही समाज सदा से पतित स्त्रियों को समझता आ रहा है । उसके निकट ऐसी स्त्रियाँ मनोरंजन का निर्जीव साधन मात्र हैं । यदि उसे कभी चिन्ता भी होती है तो पुरुष- समाज के हानि-लाभ की । उस दशा में वह इन अभागिनियों को ऐसे स्थान में सुरक्षित रखने के नियम बनाता है, जहाँ सुगमता से किसी की दृष्टि न पहुँच सके , परन्तु उनकी स्थिति में परिवर्तन करना उसका अभीष्ट कभी नहीं रहा । हमारे समाज ने कुष्ठ के रोगियों के लिए भी आश्रम बनाये, विक्षिप्तों के लिए भी चिकित्सालयों का प्रबन्ध किया , परन्तु इनके कल्याण का कोई मार्ग नहीं ढूँढ़ा। उसने अपना वासना-विक्षिप्तों को निर्वासित नहीं किया , वरन् उनके सुख के लिए स्वस्थ मन और शरीर वाली स्त्रियों को गृह की सीमा से निर्वासन दण्ड दे डाला।

यह अन्याय ही नहीं, निष्ठुर अत्याचार भी था , इसे प्रमाणित करने के लिए प्रमाणों की आवश्यकता नहीं । हम उनकी ओर से आँख मूंदकर कुछ समय के लिए अपने अन्याय को अनदेखा कर सकते हैं , परन्तु हमारी यह उदासीनता उसे न्याय नहीं बना सकती । जिस समाज में इतनी अधिक संख्या में व्यक्ति आत्म-हनन के लिए विवश किये जाते हों , अपने स्वस्थ और सुन्दर शरीर को व्याधिग्रस्त कुरूप तथा निर्दोष मन को दूषित बनाने के लिए बाध्य किये जाते हों , उस समाज की स्थिति कभी स्पृहणीय नहीं कही जा सकती ।

कोई भी निष्पक्ष इतिहासकार या समाज-शास्त्रवेत्ता बता सकेगा कि मनुष्य का असंयम और उसकी बढ़ी हुई विलास-लालसा ही समय- समय पर मनुष्य-जाति के पतन का कारण बनती रही है । जिस दुराचार को रोकने के लिए मनुष्य ने इस निष्ठुर प्रथा की सृष्टि की होगी , उसे इससे प्रश्रय ही मिला । मदिरा से भी कभी किसी की प्यास बुझी है! ज्यों-ज्यों मनुष्य-जाति में छिपी हुई पशुता को भोजन मिलता गया वह और अधिक सबल होती गई तथा उसके बढ़े हुए आकार को अधिक खाद्य की आवश्यकता पड़ती गई। होते-होते हमारी पशुता ने न जाने कितने नाम , रूप और आकार, धारण कर लिये । आदिम मनुष्य की पशुता नैसर्गिक बन्धनों में बँधी हुई थी , परन्तु आज के मनुष्य की पाशविक प्रवृत्ति सर्वथा स्वतन्त्र है । उसके कृत्रिम जीवन के समान उसकी प्रवृतियाँ और विकास भी कृत्रिम होकर पहले से अधिक भयंकर हो उठे हैं । वह अपने जीने के अनेक साधन ही ढूँढ़कर सन्तुष्ट नहीं हो सका है , वरन् उसने दूसरों को नष्ट करने के असंख्य उपायों का आविष्कार भी कर लिया है । यदि वह अपने शरीर के फोड़े को नश्तर से अच्छा करना सीख गया है तो उसके साथ ही सुई जैसे यन्त्र द्वारा दूसरे के शरीर में विष पहुँचा कर उसे नष्ट करना भी जान गया है । इसी से आज कि पतित स्त्री की स्थिति प्राचीनकाल की नर्तकी से भिन्न और अधिक दयनीय है । आज असती मेनका से साखी शकुन्तला की उत्पत्ति सम्भव नहीं है, जिसे भरत-जैसे राजर्षि की जननी होने का सौभाग्य मिला था ; आज वारांगना वसन्तसेना का अनन्य प्रेम स्वप्न है, जिसे पाकर कोई भी पत्नी अपने स्त्रीत्व को सफल समझ सकती थी ।

वर्तमान समाज जिस स्त्री को निर्वासन-दण्ड देना चाहता है, उसके फूटे कपाल को ऐसे लोहे से दाग देता है जिसका चिह्न जन्म-जन्मान्तर के आँसुओं से भी नहीं धुल पाता । किसी दिशा में भी न वह और न उसकी तिरस्कृत सन्तति इस कलंक कालिमा से छुटकारा पाने की आशा कर सकते हैं । उसे मूक भाव से युग-युगान्तर तक इस दण्ड का (जिसे पाने के लिए उसने कोई अपराध नहीं किया ) भोग करते हुए समाज के उच्छंखल व्यक्तियों की सीमातीत विलास -वासना का बाँध बनकर जीवित रहना पड़ता है । उसके लिए कोई दूसरी गति नहीं , कोई दूसरा मार्ग नहीं और कोई दूसरा अवलम्ब नहीं। वह ऐसी ढालू राह पर निरवलम्ब छोड़ दी जाती है, जहाँ से नीचे जाने के अतिरिक्त और कोई उपाय ही नहीं रहता ।

कुछ व्यक्तियों का मत है कि ये स्त्रियाँ अपनी जीविका के लिए स्वेच्छा से इस व्यवसाय को स्वीकार करती हैं और किसी भी दशा में अपनी स्थिति में परिवर्तन नहीं चाहतीं । यह कल्पना यदि सत्य है तो इससे स्त्री का नहीं वरन् सारी मानव- जाति के पतन का प्रमाण मिलता है और यदि असत्य है तो मनुष्य इससे अधिक अपना अपमान नहीं कर सकता । सम्भव है , सौ में एक स्त्री ऐसी मिल जावे जो मन में ऐसे व्यवसाय को अपमान का कारण न समझती हो , परन्तु उसके जीवन का इतिहास कोई दूसरी ही कहानी सुनायेगा । परिस्थितियों ने उसके हृदय को इतना आहत किया होगा , समाज की निष्ठुरता ने उसकी इच्छाओं को इतना कुचला होगा , मनुष्य ने उसे इतना छला होगा कि व आत्मगौरव को आडम्बर और स्नेह तथा त्याग को स्वप्न समझने लगी होगी ।

स्नेह ही मनुष्यता के मन्दिर का एकमात्र देवता है। जब वही प्रतिमा खण्ड-खण्ड होकर धुल में बिखर जाती है, तब उस मन्दिर का ध्वंस हुए बिना नहीं रहता । जैसे प्रतिमा के बिना मन्दिर किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है, उसी प्रकार स्नेहशून्य मनुष्य किसी भी पशु की श्रेणी में रखा जा सकता है । स्त्री के हृदय से जब स्नेह का बहिष्कार हो जाता है , उसकी कोमलतम भावनाएँ जब कुचल दी जाती हैं , तब वह भी कोई और ही प्राणी बन जाती है । उसमें फिर गरिमामय स्त्रीत्व की प्राणप्रतिष्ठा करने के लिए मनुष्य की ही अजस्र सहानुभूति तथा स्निग्धतम स्नेह चाहिए। परन्तु हमारे समाज का निर्माण ही इस प्रकार हुआ है, उसकी व्यवस्था ही इसी प्रकार हुई कि वह स्त्री से न किसी भूल की आशा रखता है और न उन भूलों की क्षमता में विश्वास करता है । पहले से ही वह स्त्री को पूर्णतम मनुष्य मान लेता है और जहाँ कहीं अपने इस विश्वास में सन्देह का लेशमात्र भी देख पाता है , वहाँ स्त्री को मनुष्य कहलाने का भी अधिकार देना स्वीकार नहीं करता ।

मानव-जाति की जननी और उसके चरित्र की विधात्री होने के कारण , यदि स्त्री के जीवन का आदर्श कुछ ऊँचा रखा गया तो समाज ने कोई विशेष अन्याय नहीं किया । परन्तु अन्याय यही हुआ कि अपने आदर्श की चिन्ता में उसने मनुष्य-स्वभावगत उन दुर्बलताओं का कोई ध्यान ही नहीं रखा, जो स्त्री और पुरुष दोनों में समान रूप से विद्यमान रहती हैं । जीवन का आदर्श और उस तक पहुँचने की साधना जितनी सत्य है, उस साधना के मार्ग में समय-समय पर मिलने वाली बाधाएँ भी उससे कम सत्य नहीं । उचित तो यही था कि स्त्री और पुरुष दोनों को अपनी भूलों को सुधार कर साधना के पथ पर अग्रसर होते रहने की सुविधाएँ मिलती रहतीं , परन्तु पुरुष के अधिक सबल और समाज के निर्मायक तथा विधायक होने के कारण ऐसा न हो सका । उसके छोटे ही नहीं , बड़े- बड़े चरित्रगत दोषों और त्रुटियों को समाज ने प्राय : अनदेखा कर दिया और अन्त में परिस्थिति ऐसी हो गई कि उसके जीवन में साधना का कोई विशेष स्थान नहीं रह गया ।

परन्तु समाज का आदर्श तो स्थिर रखना ही था , इसलिए स्त्री पर साधना का भर और भी गुरु हो उठा । उसकी भूलें अक्षम्य समझी गई, उसकी स्वभावगत मानवीय दुर्बलताओं को दूर करने के लिए कठिनतम बन्धनों का आविष्कार किया गया तथा उसकी कामनाओं को केवल समाज के कल्याण में लगाने के लिए उन्हें दुर्वह संयम से घेरा गया । स्त्री ने साहस से हँसते -हँसते अपने भार को वहन किया । उसने कभी किसी भी त्याग या बलिदन के सम्मुख कातरता नहीं दिखाई , किसी भी बन्धन से वह भयभीत नहीं हुई और समाज के कल्याण के लिए उसने अपने सारे जीवन को बिना विचारे हुए ही चिर -निवेदित कर दिया । परन्तु वह त्रुटियों से पूर्ण मनुष्य ही थी ! अनेक स्त्रियाँ साधना की चरम सीमा तक पहुँच गईं सही , परन्तु कुछ उस पथ को पार न कर सकीं । समाज ने इन विचलित दुर्बल नारियों को दूसरी बार प्रयत्न करने का अवसर देने की उदारता नहीं दिखाई, वरन् उन्हें पतन के और गहरे गर्त की ओर ढकेल दिया ।

उनकी असंख्य बहिनों द्वारा किये हुए बलिदान ही उनके दोषों और क्षणिक अस्थिरता का प्रक्षालन कर सकते थे, परन्तु समाज ने उन दुर्बल नारियों का एक नवीन समाज बना डाला । इन अबलाओं को समाज के कुष्ठगलित अंग के समान घृणित व्यक्तियों ने अपनी मनोविनोद का साधन मात्र बनाकर रखा । इन्हें अपनी जीविका के लिए शरीर और आत्मा दोनों को किस प्रकार मिट्टी के मोल बेचना पड़ा , यह करुण-कहानी सभी जानते हैं ।

कितनी ही छोटी-छोटी भूलों , कितने ही तुष्ट दोषों के दण्ड-स्वरूप उन स्त्रियों को समाज से चिर -निर्वासन मिला है । जो सुयोग्य पत्नियाँ और वात्सल्यमयी माताएँ बन सकती थीं उन्हें आकण्ठ पंक में डुबा कर पुरुष अब यह कहते हुए भी लज्जित नहीं होता कि ये स्वेच्छा से ऐसा घृणित व्यवसाय करने आती हैं । उसने स्त्री के चारों ओर विलासिता और प्रलोभनों के जाल बिछाकर उसे साधना के शिखर तक पहुँचने का आदेश दिया है । उस पर यदि कभी वह अपने पथ पर क्षण भर रुककर उन प्रलोभनों की ओर देख भी लेती है तो समाज उसे शव के समान , मांसभक्षी जन्तुओं के आगे फेंक देता है, जहाँ से वह मृत्यु के उपरांत ही छुटकारा पा सकती हैं । जिसने इस स्थिति से निकलने का प्रयत्न भी किया , हमने उसे कोई अवलम्बन नहीं दिया , किसी प्रकार की आशा नहीं दी । इस पर भी हमें अभिमान है कि हम उस मनुष्य जाति के सदस्य हैं , जो सहानुभूति और प्रेम का आदान-प्रदान करने के कारण ही पशुओं से भिन्न है । समाज की बर्बरतापूर्ण विलासिता की परिणाम -स्वरूपिणी इन नारियों को हमने कब कितनी सहानुभूति दी है, यह कहना कठिन है । हाँ तिरस्कार हम जितना दे सकते थे, दे चुके हैं और देते रहेंगे ।

यह तिरस्कार भी साधारण नहीं वरन् समाज की अत्यन्त लोलुपता और निष्ठुरता का सम्मिश्रित फल है । समाज इनके प्रति घृणा के साथ -साथ एक अनिवार्य आसक्ति का भी अनुभव करता है । सभ्य और सुसंस्कृत व्यक्तियों से भरे नगरों में सहस्त्रों की संख्या में इनकी उपस्थिति तथा उस उपस्थिति को स्थायी बनाने और उस संख्या को बढ़ाते रहने के क्रमबद्ध साधन और निश्चित प्रयत्न क्या यह प्रमाणित नहीं करते ? पतित कही जाने वाली स्त्रियों के प्रति समाज की घृणा हाथी के दाँत के समान बाह्य प्रदर्शन के लिए हैं और उसका उपयोग स्वयं उसकी मिथ्या प्रतिष्ठा की रक्षा तक सीमित है । पुरुष इनका तिरस्कार करता है समाज से पुरस्कार पाने की इच्छा से और इन अभागे प्राणियों को इस यातनागार में सुरक्षित रखता है अपनी अस्वस्थ लालसा की आग बुझाने के लिए जो इनके जीवन राख का ढेर करके भी नहीं बुझती। समाज पुरुषप्रधान है, अतः पुरुष की दुर्बलताओं का दण्ड उन्हें मिलता है जिन्हें देखकर वह दुर्बल हो उठता है। इस प्रकार उन स्त्रियों का अभिशाप दोहरा हो जाता है, एक ओर उन्हें जीवन के सारे कोमल स्वप्न, भव्य आदर्श , मधुर इच्छाएँ कुचल देनी पड़ती हैं और दूसरी ओर सामाजिक व्यक्ति के अधिकारों से वंचित होना पड़ता है ।

पुरुष की स्थिति इसके विपरीत है । किसी भी पुरुष का कैसा भी चारित्रिक पतन उससे सामाजिकता का अधिकार नहीं छीन लेता , उसे गृह-जीवन से निर्वासन नहीं देता , सुसंस्कृत व्यक्तियों में उसका प्रवेश निषिद्ध नहीं बनाता और धर्म से लेकर राजनीतिक तक सभी क्षेत्रों में ऊँचे-ऊँचे पदों तक पहुंचने का मार्ग नहीं रोक लेता । साधारणत : महान दुराचारी पुरुष भी परम सती स्त्री के चरित्र का आलोचक ही नहीं न्यायकर्ता भी बना रहता है । ऐसी स्थिति में पतित स्त्रियों के जीवन में परिवर्तन लाने का स्वप्न सत्य हो नहीं सकता । जब तक पुरुष को अपने अनाचार का मूल्य नहीं देना पड़ेगा तब तक इन शरीर व्यवसायिनी नारियों के साथ किसी रूप में कोई न्याय नहीं किया जा सकता ।

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