झोंपड़ी और महल : सिंधी/पाकिस्तान लोक-कथा
Jhompadi Aur Mahal: Sindhi/Pakistani Folk Tale
सिंध के सक्खर नामक शहर में एक धनी मनुष्य रहता था। रहने के लिए उसके
पास कई बड़े-बड़े महल थे। उसकी सेवा के लिए उसके पास बहुत से नौकर-चाकर
थे। उसके पास किसी चीज की कमी नहीं थी। यदि कभी एक महल से दूसरे महल
तक जाना होता था तो वह घोड़े पर चढ़कर जाता था।
एक दिन रात के समय वह धनी अपने एक महल के सामने टहल रहा था कि
सामने से एक बूढ़ा आता हुआ दिखाई दिया। बूढ़े के कपड़े फटे हुए थे और वह
अपने सिर पर भार उठाए हुए था। धनी मनुष्य को देखकर उसने अपना भार धरती
पर फेंक दिया और प्रणाम करता हुआ बोला-“श्रीमान् जी! बहुत थक गया हूं।"
"तो ?"
“यदि आप आज्ञा दें तो आपके यहां रात काट लूं?”
“यह हमारा महल है, धर्मशाला नहीं है।"
“मैं केवल आपकी घुड़साल के बाहर पड़ा रहूंगा। पौ फटते ही चला जाऊंगा।"
“परंतु यहां तुम्हारी देख-भाल कौन करेगा?”
“मुझे किसी चीज की आवश्यकता नहीं है।”
“हमें क्या मालूम कि तुम कौन हो। एक मनुष्य हमें रात-भर तुम्हारा पहरा
देने के लिए लगाना होगा।"
“क्यों, महाराज?”
“इसलिए कि रात को तुम कोई वस्तु उठाकर न भाग जाओ ।”
“राम-राम!” इतना कहकर बूढ़े ने । अपने कानों को हाथ लगाए और
धनी को नमस्कार करने के बाद उसने अपना भार सिर पर उठा लिया और वह
वहां से चल दिया।
रात अंधेरी थी। आकाश में बादल छा रहे थे। कभी-कभी कुछ बूंदा-बांदी
भी होने लगती थी। आंधी आने का डर था। बूढ़ा बुरी तरह से थक रहा था।
उसके हाथ-पैर कांप रहे थे। चलना कठिन था परंतु धनी मनुष्य के कटु शब्दों ने
उसे ऐसा व्यथित किया था कि उसने अब सक्खर नगर के किसी भी शहरी के
पास जाकर विश्राम करने का विचार छोड़ दिया। वर्षा जोरों से आ गई। जिस तरह
रात का अंधकार बढ़ता जा रहा था उसी तरह बूढ़ा भी अपना भार उठाये हुए आगे
ही चला जा रहा था।
कुछ दिनों के बाद वह सिंधी अमीर अपने मित्रों और सेवकों के साथ शिकार
खेलने के लिए जंगल में गया। शिकार खेलते समय उसने अपना घोड़ा एक हिरण
के पीछे लगा दिया। बहुत यत्न करने पर भी वह शिकार उसके हाथ नहीं आया।
इस दौड़-धूप में वह अपने साथियों से बिछुड़ गया। घने जंगल में घुस जाने पर वह
अपने नगर का मार्ग भी भूल गया और घंटों तक जंगल में भटकता रहा। इतने में
रात हो गई। आंधी चलने लगी। बादल छा गए। कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिला
जो सिंधी अमीर की कुछ भी सहायता करता। बेचारा थककर चूर-चूर हो गया।
जब उसे कोई मार्ग नहीं सूझा तो अपने घोड़े की पीठ से नीचे उतरकर वह एक
वृक्ष के नीचे बैठ गया।
आंधी इतने जोरों से बढ़ने लगी कि जंगल के वृक्ष टूट-टूटकर गिरने लगे।
तूफान के कारण अंधेरा बढ़ने लगा। हाथ को हाथ सुझाई नहीं देता था। प्रकृति
के इस प्रकोप से घबराकर घोड़ा अपने बचाव के लिए इधर-उधर भागने लगा।
घोड़े का मालिक इतना थका हुआ था कि उसे कोई होश ही नहीं था।
थोड़ी देर के बाद आंधी शांत हो गई। थोड़ी-थोड़ी वर्षा होने से चारों ओर की
फैली हुई धूल बैठ गई। आकाश कुछ-कुछ साफ हो गया। सूर्य अभी छिपा नहीं था।
उसकी धीमी-धीमी किरणों के प्रकाश में सिंधी अमीर ने देखा कि उसका घोड़ा भी
उससे जुदा हो गया था। वह घोड़ा उसने दो हजार रुपए में खरीदा था और बहुत चाव
से पाला था। अब तो उस अमीर को घर पहुंचने की कोई आशा ही नहीं थी।
कहते हैं कि सवेरा होने के आस-पास रात का अंधकार बहुत बढ़ जाता है।
इसी तरह आशा और सुख की किरणों के पहुंचने से पहले निराशा और दुःख का
अंधेरा भी बहुत अधिक होता है। बहुत अधिक दुःखी और निराश हो जाने पर उस
सिंधी अमीर को दूर से एक व्यक्ति आता हुआ दिखाई दिया। पहले तो वह डर
गया कि कहीं कोई चोर या डाकू न हो, परंतु जब उस व्यक्ति ने पास आकर
नमस्कार करते हुए अपने होंठों की मुस्कान से धनी मनुष्य के हृदय को शांत कर
दिया तो निराश सिंधी को आशा का प्रकाश दिखाई देने लगा। हंसते हुए उस
व्यक्ति ने अमीर से पूछा-“आप इतनी घबराहट में क्यों हैं?”
“साथियों के बिछुड़नें से, राह भटकने से और किसी सहायक के न मिलने
से ।” ऐसा कहते-कहते अमीर ने अपनी सारी कथा सुना दी।
निस्सहाय अमीर की करुणाजनक कहानी सुनकर उस व्यक्ति को उस पर
दया आ गई। वह उसे अपनी झोंपड़ी में ले गया। वहां जाकर वह बोला-''यहां
मैं अपने बूढ़े पिता के साथ रहता हूं। जो रूखा-सूखा भोजन हम खाते हैं वह आप
भी खायें, और फिर विश्राम करें।”
“परंतु मेरे घोड़े का क्या होगा?” अमीर ने घबराते हुए पूछा।
“सुबह होने से पहले ही मैं आपके घोड़े को भी ढूंढ लाऊंगा।” वह
व्यक्ति बोला।
"कैसे ?"
“मैं इस जंगल के कोने-कोने से परिचित हूं।”
“तो क्या तुम मेरे साथियों को भी ढूंढ सकोगे?”
“यदि वे इस जंगल में हुए तो मैं उन्हें अवश्य ढूंढ निकालूंगा ।”
इस उत्तर से सिंधी अमीर को बहुत संतोष हुआ। अब वह निश्चित होकर
लेट गया। अभी वह सोया नहीं था कि उस व्यक्ति ने अमीर के सामने दूध का
कटोरा लाकर रख दिया।
“यह क्या है, महाशय?”' अमीर ने पूछा।
उत्तर मिला, “हमारी बकरी का दूध ।”
“तुम्हारे पास कितनी बकरियां हैं?
“केवल एक ।”
“क्या एक बकरी इतना अधिक दूध दे सकती है?”
“यह एक सेर से अधिक नहीं होगा ।”
“तुम भी पियो।”
“पिताजी ने कहा है कि आज का दूध केवल अतिथि-सेवा में ही लगाया जा
सकता है। आज हम लोग दूध नहीं पियेंगे।"
"क्यों ?"
“हमारे यहां सबसे बढ़िया चीज दूध और पूत को समझा जाता है। अतिथि
की सेवा में हम लोग इन दोनों वस्तुओं को पेश कर देते हैं। मैं पिताजी का
इकलौता पुत्र हूं, और दूध हमारे यहां सर्वोत्तम भोजन समझा जाता है। पिताजी ने
ये दोनों वस्तुएं आपकी सेवा में भेज दी हैं।”
“तुम सचमुच देवता हो ।”
“नहीं साहब! देवता तो बहुत दूर की चीज है, हम तो पूरी तरह मानवता
को भी नहीं अपना सके ।”
“नहीं भैया! मानवता तो आप लोगों में कूट-कूटकर भरी हुई है।”
इस तरह बातें करते-करते सिंधी अमीर सो गया।
अपने अतिथि की सच्ची सेवा करने वाला वह व्यक्ति चुपके से उठा और
हाथ में मशाल लेकर अपने अतिथि का घोड़ा ढूंढ़ने के लिए चल दिया।
पौ फटने के समय के आस-पास वह अपने अतिथि का घोड़ा लेकर अपनी
झोंपड़ी पर लौटा। उसकी माता ने जब देखा कि अतिथि का घोड़ा मिल गया है तो वह
उठकर घोड़े के लिए दाना दलने लगी। वह जानती थी कि घोड़ा जंगल में घास चरकर
आया होगा परंतु फिर भी उसने अतिथि के थोड़े की सेवा करना अपना कर्त्तव्य समझा।
घोड़े को यदि दाना न मिलता तो शायद अतिथि-सेवा अधूरी समझी जाती।
प्रातःकाल जब सिंधी अमीर सोकर उठा तो उसने देखा कि उसका घोड़ा
दाना खा रहा था और अतिथि-सेवक किसान उसके सामने हाथ जोड़े हुए कह रहा
था- “आज ईश्वर ने हमारी लाज रख ली।”
“कैसे ?” अमीर ने पूछा।
“आपका घोड़ा सकुशल मिल गया। यदि वह सामने की ओर निकल गया
होता तो शायद बाघ उसे अपना शिकार बना लेता।”
यह सुनकर अमीर ने उस व्यक्ति को बड़ा धन्यवाद दिया। इसी समय उस
व्यक्ति की वृद्ध माता ने अतिथि के लिए दूध का एक कटोरा भरकर भेज दिया।
दूध पी लेने के बाद अमीर ने घर लौटने की इच्छा प्रकट करते हुए
कहा-“मैं तुम्हारे पिता से मिलना चाहता हूं।”
नवयुवक अपने पिता को बुलाने गया और कहने लगा-“पिताजी, अतिथि
महाशय आपको याद कर रहे हैं।”
“किसलिए?” पिता ने पूछा।
“वे जाना चाहते हैं।”
“उनसे कहो कुछ दिन और ठहरें।”
“मैंने कहा था परंतु वे मानते नहीं।”
“अच्छा तो उन्हें सक्खर शहर तक छोड़ आओ।”
“जाने से पहले वे आपके दर्शन करना चाहते हैं।”
“बेटा! अच्छा तो यही होगा कि मैं उनसे न मिलूं।"
पिता की यह बात सुनकर पुत्र को कुछ आश्चर्य हुआ। उसने अपने पिता
के सामने मुख से कभी 'क्यों' का शब्द नहीं बोला था। अतः वह पिता को इस
प्रकार देखने लगा मानो उसकी आंखों में 'क्यों' का शब्द लिखा हो। वृद्ध पिता ने
पुत्र के इस प्रश्न को पढ़ लिया और उसे धीरे से समझाते हुए बोला-“तुम शायद
यही पूछना चाहते हो कि मैं अतिथि से इस प्रकार दूर रहकर उसका निरादर क्यों
कर रहा हूं। असल में मेरी इस बात में भी अतिथि-सत्कार का भाव भरा हुआ है।”
“मैं इस अनादर में आदर की भावना को समझ नहीं सका, पिताजी!”
“समझाऊं भी कैसे?”
“ऐसी कौन-सी कठिन बात है जो मुझे न समझा सकें।''
“यूं ही एक व्यर्थ-सी घटना है जिसे मैं बताना नहीं चाहता।”
“अच्छा तो मैं अतिथि महोदय से आपके बारे में क्या कहूं?''
“यही कि पिताजी बूढ़े भी हैं और रोगी भी। वे चल-फिर नहीं सकते। अतः
उनका बाहर आना कठिन है।”
पुत्र ने अपने पिता का संदेश सिंधी अमीर तक पहुंचा दिया। यह बात
सुनकर अमीर बोला-“इस पवित्र स्थान पर आकर मैं ऐसे महात्मा को देखे बिना
कैसे जाऊं जिसके घर में भूले-भटकों को मार्ग दिखाया जाता है, जहां अतिथि की
सेवा जी-जान से की जाती है, जहां अपरिचित अतिथि के घोड़े को ढूंढने के लिए
घरवाले अपनी जान संकट में डाल सकते हैं, और जहां गृहिणी अपना खान-पान
उठाकर अतिथि के घोड़े का पेट भरने के लिए तैयार रहती है। तुम्हारे पिता को
देखकर ही मेरा जीवन सफल हो सकता है।"
पुत्र ने अतिथि का संदेश पिता से कह सुनाया। अब वृद्ध क्या करता! उसे
अतिथि के सामने आना ही पड़ा।
सिंधी अमीर ने जब उसे देखा तो उसी समय पहचान गया कि यह तो वही
बूढ़ा है जो कुछ दिन हुए सक्खर में उसके महलों के सामने बोझ उठाए हुए आया
था। एक रात के लिए वह आश्रय मांगता था। अमीर ने उसे चोर तक कह दिया
था। कितनी दानवता थी उस दुर्व्यवहार में! इस वृद्ध के पुत्र ने अपनी मानवता का
परिचय देकर सिंधी अमीर के हृदय को बिलकुल ही बदल दिया। सिंधी अमीर हाथ
जोड़कर खड़ा हो गया और अपने दुर्व्यवहार के लिए क्षमा-याचना करने लगा।
वृद्ध ने कहा-“आपकी ओर से क्षमा-याचना का प्रश्न पैदा ही नहीं होता,
क्योंकि मैं बाहर आकर आपको उस पुरानी घटना की याद दिलाना नहीं चाहता
था। आपके आग्रह को मैं टाल भी नहीं सका। इसीलिए मुझे यहां आना पड़ा।
इससे शायद आपको दुःख हुआ हो। अतः मुझे आपसे क्षमा मांगनी चाहिए ।”
“कितना ऊंचा है आपका व्यक्तित्व!” यह कहकर सिंधी अमीर वृद्ध के
चरणों में गिर पड़ा। उसके नेत्रों से पश्चाताप के आंसू गिर रहे थे। उसके होंठ
फड़फड़ा रहे थे, मानो वह यही कह रहा हो-“इस बूढ़े की झोपड़ी महलों से बहुत
ऊंची है क्योंकि यहां मानवता का निवास है।”