Jhansi Ki Rani-Luxmi Bai : (Hindi Novel) Vrindavan Lal Verma
झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई : वृंदावनलाल वर्मा (उपन्यास)
14
यथासमय मोरोपंत मनूबाई को लेकर झाँसी आ गए। तात्या टोपे भी साथ आया।
विवाह का मुहूर्त शोधा जा चुका था। धूमधाम के साथ तैयारियाँ होने लगीं।
नगरवाले गणेश मंदिर में सीमंती, वर-पूजा इत्यादि रीतियाँ पूरी की गईं। राजा
गंगाधरराव घोड़े पर बैठकर गणेश मंदिर गए। उस दिन मनूबाई ने पहले-पहल
गंगाघरराव को देखा। गंगाधरराव का मुख-सौंदर्य अब भी वैसा ही था। आँखों का तेज
लाल डोरों के कारण आकर्षक कम, भयानक ज्यादा मालूम होता था। पेट कुछ बढ़ा
हुआ परंतु भद्दा नहीं लगता था। रंग साँवलापन लिए हुए। सारी देह एक बलवान
पुरुष की।
मनू का ध्यान शरीर के इन अंगों पर एकाध क्षण ठहरकर उनके सवारी के ढंग पर
जा अटका। वह मुसकराई। अपनी सम्मति प्रकट करने के लिए आस-पास लड़कियों में
किसी उपयुक्त पात्र को मन-ही-मन ढूँढ़ने लगी। उस समय मनू ने सोचा, यदि इस घड़ी
नाना या राव यहाँ होते तो उनको सब बातें सुनाती-समझाती।
राजा गंगाधरराव धीरे-धीरे, रुकते-रुकते गणेश मंदिर को जा रहे थे। नगर के
निवासी प्रणाम करते जाते थे और वे मुसकरा-मुसकराकर प्रणाम का जवाब देते जाते
थे।
यकायक मनू के सामने एक मराठा-कन्या आई। आयु १५ से कुछ ऊपर। शरीर
छरहरा, रंग हलका-साँवला, चेहरा जरा लंबा, आँखें बड़ी, नाक सीधी, ललाट प्रशस्त
और उजला। जैसे ही वह मनू के पास आई, उसने आँखें नीची करके आदरपूर्ण प्रणाम
किया। मनू को ऐसा लगा मानो पहले से परिचित हो। उससे बात करने की तुरंत इच्छा
उमड़ी।
बोली, 'तुम कौन हो?'
उसने उत्तर दिया, 'आपकी दासी, सुंदर मेरा नाम है।'
मनू-'मेरी दासी! कैसी?'
सुंदर-'आप हमारी महारानी हैं। मैं सेवा में रहँगी। आपकी दासी होकर अपना
भाग्य बढ़ाऊँगी।'
मनू-'मेरी दासी कोई न हो सकेगी। मेरी सहेली होकर रहोगी।' मनू ने उसका हाथ
पकड़कर अपनी ओर खींचा। वह झिझकी। मनू ने उसका हाथ ढीला करके पूछा, तुम
क्या सचमुच सदा मेरे पास रहोगी?'
'सदा, सरकार। सुंदर ने उत्तर दिया, 'हम सोलह दासियाँ आपकी सेवा में रहा
करेंगी।'
मनू को हँसी आई परंतु उसने रोक ली। गंगाधरराव की सवारी अब भी सामने थी।
मनू ने धीरे से सुंदर से कहा, 'तुम घोड़े पर चढ़ना जानती हो?'
सुंदर बोली, 'थोड़ा-सा। दौड़ना खूब जानती हूँ। कोस-भर दौड़ जाऊँगी और हाँफ
न आएगी।'
'धीरे-धीरे जानेवाले घोड़े को भी यह जाँघ से कसे जा रहे हैं!' गंगाधरराव की ओर
संकेत करके मनू ने कहा।
सुंदर ने चकित होकर पूछा, 'आपने कैसे जाना सरकार?'
मनू हँसी। दाँतों की सफेदी चेहरे के निखरे गोरे रंग से होड़ लगाने लगी।
मनू ने कहा, 'तुम हथियार चलाना जानती हो, सुंदर?'
'नहीं सीखा, सरकार।' सुंदर ने जवाब दिया।
इतने में गंगाधरराव की सवारी आगे बढ़ गई। दो लड़कियाँ और मनू के निकट
आईं। सुंदर की ही उम्र की एक, दूसरी लगभग चौदह वर्ष की। उन्होंने भी सिर झुकाया,
प्रणाम किया।
सुंदर ने परिचय दिया, 'इसका नाम मुंदर है और इसका काशी। मेरी तरह ये भी
आपकी दासियाँ हैं।'
मनू ने बिना किसी प्रयत्न के कहा, 'मेरी सहेलियाँ बनकर रहोगी। दासी मेरी कोई
भी न होगी।'
वे दोनों हर्ष के मारे फूल गईं। काशी जरा छोटे कद की और सुगठित शरीरवाली।
मुंदर छरहरे शरीर की और जरा लंबी। मुंदर और काशी दोनों गौर वर्ण की। मुंदर का
चेहरा बिलकुल गोल, आँखें सुंदर से कुछ ही छोटी परंतु चंचल और तेज। काशी की
कुछ बड़ी और स्थिर।
मनू ने तीनों से अलग-अलग प्रश्न किए।
'तुम लोग कौन हो?'
तीनों ने उत्तर दिया, 'कुणबी।'
'झाँसी में कब आईं?'
'पुरखे आए थे।'
'झाँसी के आस-पास घूमी हो?'
'बहुत कम।'
'घोड़े पर चढ़ना जानती हो?'
'थोड़ा-थोड़ा।'
'हथियार चलाना?'
सुंदर तो पहले ही बतला चुकी थी। मुंदर ने तलवार चलाना सीखा था और काशी ने
बंदूक। मनू को जानकर अच्छा लगा।
बोली, 'मैं तुम लोगों को घोड़े पर चढ़ना सिखाऊँगी। हथियार चलाना भी। मलखंब
जानती हो?'
वे तीनों सिर नीचा करके मुसकराईं। सिर हिला दिए-नहीं जानतीं।
'गाना-बजाना जानती हो?' मनू ने बहुत सूक्ष्म चुटकी लेते हुए कहा।
सुंदर बोली, 'वह तो हम तीनों जानती हैं। हम लोग, जब सरकार की मर्जी होगी,
सुनावेंगी।'
मनू ने कहा, 'जब इच्छा होगी, सुनुँगी; परंतु मुझको उसका शौक कुछ कम है। वह
अच्छा है किंतु घुड़सवारी, हथियार चलाना, मलखंब, कुश्ती, प्राचीन गाथाओं का
श्रवण-ये सब-मुझको बहुत अधिक भाते हैं।'
'कुश्ती!' सुंदर ने अपने बड़े नेत्रों को जरा घुमाकर आश्चर्य प्रकट किया।
मनू के होंठों पर सहज मुसकराहट आई। बोली, 'हाँ, कुश्ती भी। यह बहुत
आवश्यक है। पर किसी समय बतलाऊँगी। अभी अवसर नहीं है।'
इतने में कुछ और स्त्रियाँ पास आने को हुईं परंत् कुछ दूर ठिठक गईं। मनू ने उनको
उस समय अपने पास बुला लेने की जरूरत नहीं समझी।
मनू कहती गई, 'पुरुषों को पुरुषार्थ सिखलाने के लिए स्त्रियों को मलखंब, कुश्ती,
इत्यादि सीखना ही चाहिए। खूब तेज दौड़ना भी। नाचने-गाने से भी स्त्रियों का
स्वास्थ्य सुधरता है, परंतु अपने को मोहक बना लेना ही तो स्त्री का समस्त कर्तव्य नहीं
है।'
चौहद वर्ष की मनू अपने से अधिक वयवाली लड़कियों से जो कह गई, वह पास
ठिठकी हुई उन स्त्रियों ने भी सुन लिया।
मुंदर, सुंदर और काशी यह सब सुनकर जरा झेंपीं। उनकी मुसकराहट चली गई।
परंतु मनू अब भी मुसकरा रही थी। वह मुसकराहट उन लड़कियों को, उन स्त्रियों को
जीवन के कोष में से कुछ दे-सा रही थी। उन लड़कियों का सहमा हुआ जी शीघ्र ही
लहलहा गया। अन्य लड़कियों तथा स्त्रियों को भी मनू ने अपने निकट बुला लिया। ये
स्त्रियाँ उन तीन लड़कियों की अपेक्षा अधिक सहमी हुई थीं।
मनू ने उनको अपना मन खोलने के लिए उत्साहित किया। स्त्रियों की ओर से
प्रस्ताव, गायन इत्यादि द्वारा अपने हर्ष को प्रदर्शित करने का हुआ। उसने बिना किसी
विशेष उत्साह के स्वीकार किया।
जो और लड़कियाँ उन स्त्रियों के साथ थीं, उनके विषय में मनू ने प्रश्न किए। वे सब
दासियों के रूप में मनू के पास रहने के लिए नियुक्त कर दी गई थीं, क्योंकि विवाह का
मुहूर्त आ रहा था। उसके बाद भी उनको मनू के पास ही रहना था।
ये लड़कियाँ अब्राह्मण जातियों में से रूप, रस इत्यादि के पैमाने से तौलकर चुनी
जाती थीं और उनको आजन्म अपनी रानी के साथ कुमारी होकर रहना पड़ता था। यदि
वे विवाह कर लेतीं तो उनको महल की नौकरी छोड़नी पड़ती थी। दहेज में दासियों और
दासों का देना महाराष्ट्र में नहीं था, शायद राजपूताने के कुछ रजवाड़ों से वहाँ पहुँचा
हो! शायद इसका प्रारंभ भिक्षुणी और देवदासी प्रथा से निसृत हुआ हो। इन दासियों के
जीवन कितने कुतूहलों और कितने कोलाहलों से भरे रहते होंगे और इनके जीवन
कितने दुखांत होते होंगे, उसकी कल्पना की जा सकती है। इनको जन्म देनेवाले
लगभग इसी प्रकार के माता-पिता, केवल धनलोभ से इनको महलों के सपुर्द कर देते
थे। फिर, या तो वे अपने सौंदर्य के जमाने में राजा के विलास की सामग्री बनी रहती थीं
या जीवन के स्वाभाविक मार्ग पर जाकर महल से अलग हो जाती थीं।
मनू ने दासियों के इस चित्र की कुछ कल्पना की।
उसने अपनी उसी सहज मुसकराहट से कहा, 'मैं तुमको दासियाँ बनाकर नहीं
रखूँगी। तुम मेरी सखी-सहेली बनोगी। केवल एक शर्त है।'
मनू ने अपने विशाल नेत्रों की दृष्टि को उन पर बिखेरा। बोली, 'जानती हो क्या?'
उन सबने नाहीं के सिर हिलाए।
मनू ने कहा, 'मेरे साथ जो रहना चाहे - उसको घोड़े की सवारी अच्छी तरह आनी
चाहिए। तलवार, बंदूक, बरछी, छुरी-कटार, तीर-तमंचा इत्यादि का चलाना-
अच्छी तरह चलाना सीखना पड़ेगा। दोनों हाथों से हथियार एक से चलाना सीख जावें
तो और भी अच्छा।'
पुरुषों जैसे काम सीखने की बात सुनते ही स्त्रियों के चेहरों पर लाज की हलकी लाली
दौड़ गई। परंतु मन के हर्ष और उत्साह ने लाज को दबा लिया।
काशी ने स्थिर दृष्टि और स्थिर स्वर में कहा, 'हम लोगों को जो कुछ सिखलाया गया
है, उतना ही हम जानती हैं। अब जो कुछ सरकार की आज्ञा होगी, उसको हम लोग जी
लगाकर और दृढ़ता के साथ सीखेंगे। परंतु कुश्ती और मलखंब कौन सिखलावेगा?'
मनू ने तुरंत बताया, 'जितना मैं जानती हूँ, मैं सिखलाऊँगी। बाकी बिठूर के प्रसिद्ध
आचार्य बाला गुरु। उनको यहाँ बुला दूँगी।'
बाला गुरु का नाम सुनते ही लड़कियाँ शरमा गईं और उनसे बड़ी उम्र की स्त्रियाँ
हँस पड़ीं। उस हँसी पर मनू के मन में क्षोभ उठा परंतु मनू ने उसको नियंत्रित कर
लिया।
फिर उसी मुसकराहट के साथ बोली, 'बाला गुरु देवता हैं, और न भी हों तो तुमको
क्या डर? स्त्रियाँ दृढ़ता का कवच पहनें तो फिर संसार में ऐसा पुरुष कोई हो ही नहीं
सकता जो उनको लूट ले। बाला गुरु के साथ लड़कर कुश्ती सीखने की जरूरत नहीं
पड़ेगी। वह बतलाया-भर करेंगे। अखाड़े में उतरकर मैं सिखलाऊँगी।'
गणेश मंदिर पास ही था। वाद्य बज रहे थे। उनमें होकर कभी-कभी मीठी शहनाई
की चहक भी सुनाई पड़ जाती थी। स्त्रियाँ मनू से श्रृंगार रस की बात करने आई थीं,
अपने आदर के झरोखे में होकर। मनू के मन की धारा, गंगाधरराव की सवारी, बाजों -
गाजों और झाँसी निवासियों के हर्षोन्माद से संघर्ष पाकर दूसरी ओर चली गई थी।
सब स्त्रियाँ-लड़कियाँ भी अपने अच्छे-से-अच्छे वस्त्र और आभरण पहने हुए थीं।
केश खूब सँवारे गए थे और उनमें रंग-बिरंगे और सुगन्धित फूल गूँथे गए थे। मनू के
केशों में भी फूल थे। मनू ने हँसकर कहा, 'तुम लोग यदि कुश्ती सीखने के लिए इसी
समय अखाड़े में उतरो तो क्या हो?'
सुंदर मुसकराकर बोली, 'तो इन फूलों से सारा अखाड़ा भर जावेगा।'
मनू ने हँसकर कहा, 'और तुम्हारे बालों में अखाड़े की मिट्टी भर जावेगी।'
वे सब खिलखिला पड़ीं।
मनू बोली, 'परंतु वह मिट्टी तुम्हारे केशों पर इन फूलों से कहीं अधिक सुहावनी
लगेगी।'
मुंदर बोली, 'सरकार, बालों की शोभा मिट्टी से!'
मनू ने मुंदर का कंधा हिलाकर कहा, 'ये फूल कहाँ से आए? कहाँ जाएँगे? ये क्या
मिट्टी से बढ़कर हैं?'
मनू की बात में, अपनी दादियों से सुनी हुई संसार की अस्थिरता की झाँईं सुनकर वे
सब सहम गईं।
मनू समझ गई। बोली, 'नहीं, फूलों से नाता बनाए रखो परंतु मिट्टी से संबंध
तोड़कर नहीं।'
स्त्रियों के मन पर एक दार्शनिक झकोर ठोकर दे गई। उन्होंने ऊँचे स्वर में 'हाँ-हाँ'
कही; परंतु आँखों से ऐसा जान पड़ता था, मानो उनका आनंद कहीं भाग गया। उन्हें
अपनी असंगत अवस्था में क्लेश होने लगा, मानो मनू ने उनके फूलों की भर्त्सना की हो
और उनके आदर का अपमान।
मनू ने उन सब स्त्रियों से कहा, 'तुम गणेश मंदिर में जाकर देखो क्या होता है। मैं
तब तक इन तीनों से बात करती हूँ। परंतु एक बात सुनती जाओ। मुझको तुम्हारे फूल
बहुत अच्छे लगे, इनको फेंक मत देना।'
इस बात पर प्रसन्न होकर वे सब चली गईं। केवल सुंदर, मुंदर और काशी रह गईं।
मनू बोली, 'मैं सुनती हूँ झाँसी के लोग फूलों को बहुत प्यार करते हैं। अच्छा है।
मुझको भी पसंद हैं, परंतु क्या दुबले-पतले घोड़े पर सोने-चाँदी का जीन अच्छा लगता
है?'
सुंदर ने उमंग के साथ तुरंत कहा, 'सरकार, मैं आपकी बात अब समझी।'
15
सीमंती इत्यादि की प्रथाएँ पूरी होने के उपरांत गणेश मंदिर में गायन-वादन और
नृत्य हुए और एक दिन विवाह का भी मुहूर्त आया।
विवाह के उत्सव पर आसपास के राजा भी आए। उनमें दतिया के राजा विजय
बहादुरसिह खासतौर से उत्साह प्रदर्शन कर रहे थे।
कोठी कुआँवाले भवन में भाँवर पड़ने को थीं। बाहर गायन-वादन और नृत्य हो रहा
था। सामनेवाले मकान में मोतीबाई, जूहीबाई, इत्यादि अभिनेत्रियाँ झरपों के पीछे
वस्त्राभूषणों और पुष्पों से लदी बैठी थीं। बाहर दुर्गाबाई का नृत्य और उस काल के
प्रसिद्ध धुरपदिए मुगलखाँ का गायन अभ्यंतर के साथ हो रहा था। मुगलखाँ के ध्रुवपद
अलाप इत्यादि पर अनेक लोग 'वाह-वाह कर रहे थे; परंतु जनता दुर्गाबाई के नृत्य के
लिए बार-बार अकुला उठती थी। इसलिए मुगल ने अपना तैंबूरा रख दिया और
दुर्गाबाई को खड़े होने का इशारा किया। राजा विजय बहादुरसिंह महफिल में मसनद
पर बैठे थे। उन्हें ऊँचे दर्जे के गायन और नृत्य दोनों का व्यसन था। दुर्गाबाई नृत्य करने
को खड़ी होने को ही थी कि भीतर से इत्रपान का सामान आया। सोने के वर्कों से लिपटे
पान और बढ़िया इत्र। पान लानेवाले एक सरदार थे। उन्होंने कहा कि भाँवर शुरू हो
गईं। उसी समय भीतर एक घटना हुई।
प्रोहित ने मनूबाई की गाँठ गंगाधरराव से जोड़ने के लिए वर की चादर और वधू की
साड़ी के छोर हाथ में पकड़े। वृद्धावस्था के कारण हाथ काँप रहा था। गाँठ लगने में
जरा-सा विलंब हुआ। गाँठ अच्छी तरह नहीं लग पा रही थी। बार-बार हाथ काँप
जाता था।
मनू ने सोचा, मैं ही क्यों न इसको बाँध दूँ?
परंतु उसने विचार को नियंत्रित कर लिया। गाँठ तो पुरोहित ने बाँध ली लेकिन वह
काँपते हुए हाथों से गाँठ का फंदा कसने में कुछ क्षणों का विलंब कर रहे थे। मनू से न
रहा गया। बिना मुसकराहट के और दृढ़ स्वर में बोली, 'ऐसी बाँधिए कि कभी छूटे
नहीं।'
गंगाधरराव सिकुड़ गए। मोरोपंत मन-ही- मन क्षुब्ध हुए। होंठ सिकोड़ लिए। परंतु
पुरोहित खिलखिलाकर हँस पड़ा। उसके पास खड़े सब स्त्री-पुरुष हँस पड़े। कहकहे
लग गए। मनू पुलकित हो गई। आँखें नीची करके उसने थोड़ा-सा मुसकरा-भर दिया।
इस कहकहे की आवाज बाहर पहुँची और मनू की कही हुई बात भी। वहाँ भी कहकहे
लगे। चारों ओर उस वाक्य की चर्चा हो उठी।
सामनेवाले मकान में भी समाचार पहुँचा। जूही ने, जो अब यौवनावस्था में लहराने
को थी, कहा, 'मैं तो नाचना चाहती हूँ। ऐसे अवसर पर चुपचाप बैठे थक गई हूँ। इतनी
खुशी के समय भी न नाचें तो कब नाचेंगे?'
मोतीबाई में बाहरी गंभीरता आ गई भी परंतु मन आहलाद में फ्दक रहा था। बोली,
'नाचो, कोई हर्ज नहीं। मैं भी नाचना चाहती हूँ परंतु घुंघर बाँधकर नहीं। बाहर
बड़े-बड़े राजे-महाराजे बैठे हैं। शोर-गुल सुनेंगे तो क्या कहेंगे?'
जूही बोली, 'तबला-घुँघरू हमको कुछ नहीं चाहिए, शोर-गुल न होगा। इस पर भी
महाराज अगर कुछ कहेंगे तो मैं भुगत लुँगी। आखिर नाटक होगा ही। हम लोग
रंगशाला में नाचें और गावेंगे ही। राजे-महाराजे नाटकशाला में पास से सब कुछ देखेंगे
ही। मैं नहीं मानूँगी।'
उन दोनों ने मनमाना नृत्य किया और नर्तकियों ने ताल दिया, परंतु मीठी थपकी से।
बाहर मुगलखां खड़ा हो गया। बोला, 'वाह! जैसा राज्य है, वैसी ही महारानी हमको
मिली। दिल चाहता है कि मैं नाचूँ, परंतु कभी सीखा नहीं, इसलिए मजबूर हूँ!' और
उसकी आँखों में आँसू आ गए। बैठ गया।
दुर्गाबाई खड़ी हो गई। बोली, 'उस्ताद, यह काम मेरा है। मैं दिल और पैर दोनों से
नाचूँगी। आप अकेले दिल से, खेलिए या नाचिए।' और उसने सिर नीचा कर लिया।
विजय बहादुर प्रसन्न हुए। स्वभाव से ही जरा सनकी थे। इस समय सनक कुछ
तीव्रतर हो गई। बोले, 'दुर्गा, खूब अच्छी तरह नाचो, इनाम मिलेगा।'
'बहुत अच्छा सरकार। ' कहकर दुर्गा पुरे उत्साह के साथ गाने और नाचने लगी।
मुगलखाँ को इसका गाना खटक रहा था। परंतु उसके मन की इस चोट को दुर्गा का नृत्य
सँभाल ले गया।
थोड़ी देर में भाँवर की रस्म पूरी हो गई। अन्य रस्मों के पूरा होने पर गंगाधरराव वर
की सजधज में पाँवड़ों पर, फलों और चावलों की बरसा में, बाहर आए! सबने ताजीम
दी। गाना-बजाना थोड़ी देर के लिए बंद हो गया। गंगाधरराव एक ऊँची मसनद पर
जा बैठे और इधर-उधर बारीकी के साथ देखने लगे कि मनू के उस वाक्य का असर
भद्देपन की किस हद तक हुआ है। उनकी आँख कहीं जम नहीं रही थी। आँखों के लाल
डोरों में, रौब की जगह संकोच ने पकड़ ली थी।
वहाँ के उपस्थित लोगों के जी में वही वाक्य बार-बार और जोर-जोर के साथ
चक्कर काट रहा था। आँखें सबकी गंगाधरराव के दूल्हा वेश पर जा रही थीं और मन
के मना करने पर आँखें उसी वाक्य को दुहरा रही थीं।
उस मकान की झरप के भीतर का नृत्य बंद हो गया था। उन अभिनेत्रियों की आँखों
पर भी वही वाक्य सवार था।
जूही ने धीरे से मोतीबाई से कहा, 'असली राजा तो झाँसी को अब मिला, बाईजी।'
मोतीबाई ने आँखें तरेरकर जूही का हाथ दबाया, राजा सुनेंगे तो गरदन काटकर
फिकवा देंगे। खबरदार!'
'मैंने तो आपसे कहा,'जूही बोली, आपके हाथ जोड़ती हूँ, किसी को मेरी बात
मालूम न होने पावे।'
फिर ये सब झरपों के पास खड़ी होकर, जो कुछ दूसरी ओर हो रहा था, देखने-सुनने
लगीं।
गंगाधरराव विजय बहादुर से बोले, 'आपने मुगलखाँ का ध्रुवपद सुना ?'
विजय बहादुर ने कहा, 'पहले भी सुना है। इनकी होरी भी सुनी है। परंतु दुर्गा का
नाच मुझको बहुत भाया।
मुगलखां की आँख बदल पड़ी परंतु उसने सिर नीचा कर लिया। गंगाधरराव ने देख
लिया। वे बोले, मुगलखाँ ताव खाने पर बहुत अच्छा गाता है। अब सुनिएगा! इसके
धुवपद का मुकाबला कहीं है ही नहीं। नृत्य अपनी जगह अच्छा है परंतु मुगलखाँ का
ध्रुवपद राजा है और दुर्गा का नाच उसका चाकर।'
मुगल हर्ष के मारे फूल गया। आँखों में आँसू छलक आए। उनको जल्दी पोंछकर
हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। बोला, 'श्रीमंत सरकार का हुक्म हो तो लखनऊवाली बात
सुना दूँ।'
मनू के उस वाक्य से गंगाधरराव को छुटकारा नहीं मिल रहा था। उनको विश्वास
था कि उपस्थित लोग भी उसमें उसी प्रकार उलझे होंगे। प्रतिघात से उमंग की एक
लहर उठी और उन्होंने मुगलखाँ से कहा, 'महाराज साहब को जरूर सुनाओ और फिर
गाओ। बैठकर सुनाओ।
मुगलखाँ की बात सुनने के लिए वहाँ सन्नाटा छा गया।
मुगलखाँ ने कहा, 'सरकार, मैं गाने के लिए लखनऊ गया। वहाँ के गवैयों ने सलाह
कर ली कि मैं नवाब साहब के सामने पहुँच ही न पाऊँ। इसलिए उन्होंने कहा, पहले
हमको सुनाओ। समझेंगे कि उस्ताद हो, तो नवाब साहब के सामने पेश कर देंगे। वरना
अपने वनखंड को वापस जाना। मैं अपने देश के कपड़े पहने था। पहले तो उनका
मजाक उड़ाया गया, बुंदेलखंडी है। क्या ऊल-जलूल साफा बाँधे है! जूते आपके
माशेअल्लाह। दाढ़ी बुंदेलखंड के रीछों जैसी! बातचीत जंगलियों-सी! बरताव ठीक
भेड़ियों का! इत्यादि सुनते-सुनते कलेजा पक गया। फिर मैंने गाया। जो कुछ गाने के
बाद हुआ, उसको मैं कह नहीं सकता।'
गंगाधरराव उत्साह के साथ बोले, 'मैं बतलाता हूँ महाराज साहब। जब उस्ताद ने
आठों अंग सहित ध्रुवपद सुनाया तब सच्चे स्वरों की वर्षा हो उठी, निंदा करनेवाले
उसमें बह गए। उस्ताद के उन लोगों ने पैर छुए और इनको नवाब साहब के सामने पेश
किया। नवाज साहब स्वयं संगीत के जड़े जानकार हैं। उस्ताद को काफी इनाम दिया।
बुंदेलखंड को उन्होंने जी खोलकर सराहा।'
फिर मुगलखाँ ने तल्लीन होकर गाया। लगभग सारी जनता मुग्ध हो गई। राजा
विजय बहादुर इस अवसर पर पुरस्कार बाँटने के लिए अपने साथ काफी रुपया लाए
थे। सनक तो सवार थी ही, बख्शी से बोले, 'मुगलखाँ के साफे में जितने रुपए आवें, दे
दो, तबलेवाले के तबलों में चाहे फोड़कर चाहे वैसे ही भर दो। सारंगीवालों की सारंगी
में रुपया ठूँस दो। दुर्गा जितना बोझ बाँध ले उतना बाँध लेने दो।'
इस आज्ञा के सुनते ही अनेक वाद्यवाले खड़े हो गए। इनमें से एक शहनाईवाला भी
था। उसकी शहनाई में बहुत थोड़े रुपए जा सकते थे। इसलिए गुस्से में आकर उसने
शहनाई तोड़ डाली। बोला, 'सरकार, ऐसा बाजा किस काम का जो रुपए का मेल न खा
सके।'
राजा विजय बहादुर ने उसकी शहनाई को सोने से भरने का आदेश किया।
उस युग की प्रथा के अनुसार उस दिन सबको कुछ-न-कुछ दिया गया। रात को
नाटक हुआ। बहुत अच्छा। विजय बहादुर ने नाटकशाला से संबंध रखनेवाले सब
लोगों को काफी इनाम दिया।
विवाह की समाप्ति पर दरबार हुआ। नजर-न्योछावरें हुईं। पुरस्कार बाँटे गए।
बड़े-बड़े सरदारों की नजर-न्योछावरों के उपरांत छोटे जागीरदारों की बारी आई।
मऊ का एक जागीरदार अपने को आनंदराय कहते हुए आगे बढ़ा। राजा थकावट के
मारे खीझ उठे थे। आनंदराय ने अपने कुटुंब और अपनी सेवा का बखान करते हुए
रामचंद्रराववाली घटना का वर्णन भी शुरू कर दिया।
राजा खिसिया उठे। बोले, 'मैं भी स्मरण किए हूँ। तुम्हारी दास्तान पर यहाँ कोई
काव्य या रायसा नहीं लिखा जानेवाला है। नजर करने के बाद अपनी जगह जा बैठो।
तुमको जो मिलना होगा, मिल जावेगा।'
आनंदराय नजर-न्योछावर करके एक कोने में सिमट गया। अवस्था अधेड़ हो गई
थी परंतु शरीर अब भी बलिष्ठ था। अपने को अपमानित हुआ समझकर बार-बार
उसाँस ले रहा था और छाती फुला रहा था। वह एक निश्चय पर पहुँचा। जैसे ही राजा
के सामने जरा भीड़-भाड़ देखी, वहाँ से खिसक गया।
राजा के कर्मचारी नजर-न्योछावरों का ब्योरा भेंट करनेवालों के नाम-पते सहित
लिखते जा रहे थे। भेंट करनेवालों को पलटे में पुरस्कार भी बाँटने थे, इसलिए; और,
हिसाब रखने के लिए भी।
जब पुरस्कार बाँटते-बाँटते आनंदराय की बारी आई तब वह गैरहाजिर था। दरबार
के निकट ही रनवास के लिए झरपें लगी थीं। रानी भी वहाँ बैठी थीं।
'कहाँ चला गया आनंदराय?' राजा ने पूछा।
थोड़ी-सी तलाश करने के बाद वह नहीं मिला। फिर और लोगों की हाजिरी होती
रही।
इस रस्म की समाप्ति पर वहाँ के सब लोगों ने जयजयकार किया।
'महाराजा गंगाधरराव की जय।'
'महारानी लक्ष्मीबाई की जय।'
विवाह के उपरांत ससुराल में आने पर मनू का नाम उसी दिन महाराष्ट्र और
बुंदेलखंड की प्रथा के अनुसार लक्ष्मीबाई रखा गया था।
दरबार की समाप्ति के कुछ समय उपरांत रानी लक्ष्मीबाई (अब मनू नहीं कहा
जावेगा) किले के महल के अपने कक्ष में सुंदर, मुंदर और काशी के साथ थीं। उनको
अपनी सब सहचरियों में ये तीन सबसे अधिक प्यारी लग उठी थीं।
रानी ने कहा, 'आज एक बात अच्छी नहीं हुई। आनंदराय नाम के उस जागीरदार
की अवहेलना की गई।'
मुंदर बोली, 'सरकार को कैसे नाम याद रह गया? और इतने हल्ले-गुल्ले और
भीड़-भाड़ की ध्वनियों में यह घटना कैसे स्मरण रही?'
रानी ने कहा, 'मैंने देख लिया है कि बुंदेलबंड पानीदार देश है। इस पानी को बनाए
रखने की हमको जरूरत है। उस आदमी का पानी उतारा गया-यह बुरा हुआ।'
काशी बोली, 'छोटे-छोटे से आदमियों का महाराज कहाँ तक लिहाज करें? थक भी
तो बहुत गए आज। सुना है, नाटकशाला भी नहीं जाएँगे।'
रानी ने कहा, 'जिन्हें तुम छोटा आदमी कहती हो, आधार तो हमारे वे ही हैं।'
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विवाह होने के पहले गंगाधरराव को शासन का अधिकार न था। उन दिनों झाँसी
का नायब पॉलिटिकल एजेंट कप्तान डनलप था। वह राजा के पास आया-जाया करता
था। लोग कहते थे कि दोनों में मैत्री है।
गंगाधरराव अधिकार प्राप्त करने का प्रयत्न पहले से कर रहे थे। विवाह के उपरांत
उनको अधिकार मिल गया। परंतु अधिकार मिलने के पहले कंपनी सरकार के साथ
फिर एक अहदनामा हुआ। पुरानी बातें पुष्ट की गईं।
केवल एक बात नई हुई -झाँसी में अंग्रेजी फौज रखी जाएगी अंग्रेजी हुकूमत में, पर
खर्चा झाँसी का राज्य देगा। गंगाधरराव को मानना पड़ा। मन को खटका। उन्होंने
नकद खर्चा न देकर कंपनी सरकार का आग्रह निभाने के लिए झाँसी के राज्य से २ लाख
२७ हजार चार सौ अट्टावन रुपए वार्षिक आय का एक इलाका इन राज्य-लोलपों को
दे दिया। जब यह सब हो गया तब गंगाधरराव को शासन का अधिकार मिल पाया।
इसके बाद दरबार हुआ। खुशियाँ मनाई गईं। खेल-कूद, नाटक इत्यादि हुए, परंतु
अनेक झाँसी निवासियों को उनमें खोखलापन ही दिखलाई पड़ा। उनको अपने प्रदेश
का खंडित होना कसका।
स्वयं राजा को नाटकशाला में यथेष्ट मनोरंजन नहीं मिल सका। वे शीघ्र वहाँ से चले
आए और रंगमहल में रानी के पास पहुँचे।
रानी किलेवाले महल ही में प्राय: रहती थीं। बाहर बहुत कम निकल पाती थीं। जब
निकलती तब परदे की कैद में। इसलिए सवारी, व्यायाम इत्यादि किलेवाले महल के
इर्द-गिर्द आड़-ओट से कर पाती थीं, तो भी वे काफी समय इन बातों में लगाती थीं और
अपनी समग्र सहेलियों तथा किले के भीतर रहनेवाली रित्रयों को सवारी, शस्त्र-प्रयोग,
मलखंब, कुश्ती का अभ्यास कराती थीं। बचे हुए समय में धार्मिक ग्रंथों का थोड़ा-सा
परंतु नियमपूर्वक अध्ययन करतीं। भगवद्गीता पर उनकी परम श्रद्धा थी।
बाल्यावस्था को पार कर यौवन में पदार्पण करने को थीं परंतु नए-नए वस्त्र, कीमती
आभूषणों का शौक न करके उनकी धुन ऊपर लिखी बातों की ओर अधिक रहती थी।
झाँसी आने के बाद चपल, सुखी मनू में एक परिवर्तन धीरे-धीरे घर करता जा रहा
था-वे अब उतना नहीं बोलती थीं। रानी लक्ष्मीबाई में गंभीरता जगह करती जा रही
थी और क्रुद्ध हो जाने की वृत्ति तो और भी अधिक शीघ्रता के साथ घुलती चली जा रही
थी। व्यंग्य करने की इच्छा जरूर कुछ बढ़ती पर थी परंतु वह सहज, सरल, भव्य दिव्य
मुसकान सदा साथ रही। और चित्त की दृढ़ता तो पूर्वजन्मों से संचित होकर मानो छठी
के दिन ही ब्रह्मा ने पूरी समूची उनके हिस्से में रख दी थी।
रंगमहल में आने पर रानी ने गंगाधरराव का सत्कार जैसा कि हिंदू नारी-और
पत्नी-कर सकती है, किया।
राजा अपने भावों को छिपा पाने में असमर्थ थे। उनको इसका अभ्यास न था। चेहरे
पर रुखाई थी और आँखों में उदासी।
रानी ने कहा, 'आज आप नाटकशाला से जल्दी लौट आए। खेल अच्छा नहीं हुआ
क्या?'
राजा बोले, 'खेल तो सदा अच्छा होता है। मन नहीं लगा। एक नए खेल की तैयारी
के लिए कह आया हूँ।'
रानी-'कौन-सा?'
राजा- 'मृच्छकटिक?'
रानी-'यह क्या है?'
राजा-'शूद्रक कवि ने संस्कृत में लिखा है! मैंने हिंदी में उल्था करवाया है।
चारूदत्त ब्राह्मण और वसंतसेना के प्रेम की अद्भुत कहानी है। आप देखने चलोगी? '
रानी-'नहीं।
राजा-'घोड़े की सवारी, कुश्ती, मलखंब के सिवाय आपको और भी कुछ पसंद है
या नहीं?'
रानी-'अवश्य। सहेलियों को अपना-सा बनाना। उनको अवसर-कुअवसर पड़े
पुरुषों की सहायता करने में पीछे पैर न देने की सीख देना, घर की सफाई, स्वच्छता
इत्यादि बनाए रखना, काफी काम है।'
राजा-'इन सबको मोटा-तगड़ा बनाकर आप क्या करने जा रही हैं?'
रानी-'अभी तो मुझको भी नहीं मालूम। पर देह और मन को सबल बना लेना क्या
कोई कम महत्त्व का काम है?'
राजा-'व्यर्थ है। घर का ही इतना काफी काम स्त्रियों के लिए संसार में है कि उनको
घुड़सवारी इत्यादि की ओर खींच ले जाना फूहड़ बनाना है।'
रानी-'और नाचना-गाना?'
राजा-'अकेले में सभी स्त्रियाँ नाचती-गाती हैं। परंतु यदि वे इन विद्याओं को ढंग से
सीखें तो शरीर और मन दोनों के लिए काफी कसरत पा सकती हैं।'
रानी-'हाँ, स्वराज्य स्थापित है। अब सिवाय हँसने-खेलने के नर-नारियों के लिए
और काम ही क्या बचा है? देखिए न, किस आराम के साथ झाँसी राज्य का पंचआंस से
अधिक अंग्रेजों के हाथ में दे दिया गया। आपका वह मित्र गार्डन भी नाटकशाला में
आता होगा?'
राजा-'अंग्रेज लोग खूब हँसते-खेलते और नाचते -गाते हैं।'
रानी-'और नाचते -गाते ही पूरे हिंदुस्थान को रोंदते चले जाते हैं! खेल तो बढ़िया
है।'
राजा-'हमारे यहाँ फूट है। गाँव-गाँव में उपद्रवी, डाकू और बटमार भरे हुए हैं।
अंग्रेजों के पास हथियार अच्छे हैं। इसलिए उन्होंने राज्य कायम कर लिया।'
रानी-'नाटकशाला में जो हथियार बनते हैं, उनसे क्या अंग्रेज नहीं हराए जा सकते
हैं?'
राजा को यह व्यंग्य अखर गया। पर जिस मुसकान के साथ वह निसृत हुआ था, वह
आकर्षक थी। साथ ही, मोतीबाई, जूही इत्यादि कल्पना में बिजली की तरह कौंध गईं
और आगे आनेवाले मृच्छकटिक नाटक के अभिनय ने एक उमंग पैदा की, रानी की
मुसकान का आकर्षण उसी क्षण तिरोहित हो गया और उसके साथ ही उठता हुआ
क्षोभ। बोले, 'आप कभी-कभी बहुत बड़ी चोट कर बैठती हैं।'
रानी ने अदम्य भाव से कहा, 'आपके यहाँ भाट क्या केवल प्रशंसा और यशगान ही
करते हैं या कभी-कभी कड़खा भी सुनाते हैं?”
राजा का क्षोभ उभड़ा परंतु उन्होंने उसको वहीं का वहीं दबाने का प्रयत्न किया और
विषयांतर करते हुए बोले, 'हमारे यहाँ कवि, चित्रकार इत्यादि अनेक कलाकार हैं।'
रानी ने भी बात न बढ़ाते हुए पूछा, 'कवि कौन हैं और क्या करते हैं?”
राजा ने भी उत्तर दिया, 'एक हृदयेश है। अच्छा कवि है। एक पजनेश है। रंगीन है।
कहता अच्छे ढंग से है।'
'ये लोग क्या लिखते हैं?'
'राधागोविंद का प्रेम-वर्णन, नखशिख, नायिका-भेद'
'नखशिख, नायिका-भेद क्या?'
'राधा या गोपियों की चोटी से लेकर एड़ी तक का कोमल वर्णन। यह नखशिख
हुआ। नाना प्रकार की सुंदर स्त्रियों की वृत्तियों का विविध वर्णन, यह नायिका-भेद है।'
'अर्थात् स्त्रियों के पूरे शरीर की सूक्ष्म जाँच-पड़ताल, और इस काम के लिए इन
लोगों को इनाम-पुरस्कार भी दिए जाते होंगे?'
राजा जरा झेंपे, परंतु सहमे नहीं। बोले, 'इस प्रकार की कविता करने में बहुत
विद्वत्ता और मेहनत खर्च करनी पड़ती है। इसलिए उनको पुरस्कार दिया जाता है। वे
लोग राजदरबार की शोभा हैं।'
रानी ने फिर उसी मुसकराहट के साथ पूछा, 'भूषण को छत्रपति शिवाजी क्या इसी
तरह की कविता के लिए बढ़ावा दिया करते थे? भूषण तो दरबार की शोभा रहे होंगे?'
राजा इस व्यंग्य से चिढ़ गए और क्षोभ को दबा न सके।
बोले, 'आप हमेशा छत्रपति और पंत प्रधान बाजीराव और न जाने किन-किन का
नाम दिन-रात रटा करती हैं। मैंने कई बार कहा कि इन बातों की छेड़छाड़ में अब कोई
सार नहीं।'
रानी ने कहा, 'मैं तो विनती किया करती हूँ कि उन बातों को बतलाइए जिनमें सार
हो।'
राजा-'आप राज्य का प्रबंध करना सीखिए। मैं भी इस ओर ध्यान देता हूँ। अच्छी
व्यवस्था बनी रहेगी तो राज्य बचा रहेगा अन्यथा अंग्रेज फिर इसको अपनी देख-रेख में
ले लेंगे-या शायद राज्य को खत्म करके अपना अधिकार बरतने लग जाएँ।'
रानी-'उस समय क्या नाटकशालावाले किसी काम न आएँगे?'
राजा के हृदय में आग-सी लग गई। कुछ कहना चाहते थे, कुछ कह गए, 'आपके
मन में हठ नगर-कोट बाहर घोड़े पर घूमने का है और सखी-सहेलियाँ भी
जंगल-टौरियों पर साथ में घोड़े कुदाएँ तो इससे बढ़कर न राज्य है, न राज्य-प्रबंध और
न बिचारी नाटकशाला। ठीक है न?'
रानी के ऊपर उनके क्रोध का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। बोली, 'मेरे-आपके दोनों के
लिए यह विशाल महल क्या कम है?!
राजा पर इस व्यंग्य की चोट पड़ गई पर वे गुस्से को पीने लगे। कूछ सोचकर पूछा,
'क्या सचमुच आपको नाटकशाला का मेरा मनोरंजन नापसंद है?'
रानी ने तुरंत उत्तर दिया, 'इन दिनों अब इससे अधिक और हो ही क्या सकता है?
राज्य का काम चलाने के लिए दीवान है। डाकुओं का दमन करने और प्रजा को ठीक पथ
पर चाल् रखने के लिए अंग्रेजी सेना है ही। इस पर यदि कोई गलती हो गई तो कंपनी के
एजेंट की खुशामद कर ली। बस, सब काम ज्यों-का-त्यों मनमाना चलता रहा।' रानी
मुसकाने लगी।
इस बात में रानी की विलक्षण बुद्धि का आभास पाकर राजा को जरा विस्मय हुआ।
उनके होंठों पर बरबस हँसी आई।