झाड़ू (तेलुगु कहानी) : वि. नरेन्द्र

Jhadu (Telugu Story) : Vi. Narendra

1.
आधी रात, थका हुआ नगर, आधे सपने देखता सो रहा है - जैसे युद्ध विराम हो। शीत चुपचाप आक्रमण कर रही है। सड़क के लैंपपोस्ट के प्रकाश में जो बर्फ़ बरस रही है, दिखाई भी नहीं देती। पूरी सड़क खाली है। प्रश्न चिह्न की तरह झुकी कमर से जवाबों को छूकर उठाते झाडू... बिना माँ बाप की नन्हीं मुर्गियाँ दानों की तलाश में जब कच्ची ज़मीन पर झुकती हैं तब उनके फड़फड़ाते डैनों से आवाज़ के साथ जिस तरह धूल उठती है उसी तरह नगर के कूड़े को झाड़ते झुके हुए ये लगभग तीस लोग हैं।

सुजाता को इस काम की आदत नहीं है। ज़ोर से साँस लेती है, एक बार झुकती है और फिर सीधी खड़ी होकर अंगड़ाई लेती है। उस की उम्र लगभग बीस साल होगी। हाल ही में अपने मर्द के साथ शहर आई है। दसवीं पास सुजाता को काम दिलाने के लिए यहाँ लाया था उसका मर्द। तब उसे क्या मालूम था कि काम क्या है।

पहले दिन जब उसने कहा कि उसे सड़क पर झाडू लगाने का काम नहीं करना है तो उसका मर्द नरसिंह बहुत नाराज़ होकर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा था, झाडू लगाना भी नहीं आता तो कैसी औरत हो? फिर बोला, ''देख, तुझे और तेरे बच्चे का पोषण करना मेरी ताकत की बात नहीं है। अगर तुझे पढ़ाई करने का मन था, तो बीच में क्यों छोड़ दी? खूब पढ़ के एक मुंशी से शादी करनी थी।'' ऐसी बातें वह सुजाता से पहले भी कर चुका है। इसी तरह अकसर तंग करता रहता है।

2.
एक दिन सुजाता पड़ोसी के घर से समाचार पत्र लाकर पढ़ रही थी। और पढ़ाई में इतनी लीन हो गयी कि बच्चे का रोना तक उसे नहीं सुनाई दिया। नरसिंह ने यह देखकर अखबार फाड़ डाला। वह बढ़ई है। अनपढ़ है। रोज़ १५० रुपए कमाता है और पचहत्तर रुपए दारू पीने में खर्च करता है। घर चलाना मुश्किल हो रहा है। अब तक सुजाता ने पढ़ाई की रुचि तज दी है। कभी-कभी अपनी पेटी से छोटी-छोटी कविताएँ निकालकर प्यार से पढ़ती है। पहले सपनों की बाढ़ के कारण नींद दूर होती थी पर अब तो नींद को मार कर सरकारी सफ़ाई कर्मचारी बन गई है। सफ़ाई कर्मचारी क्या बनी खुद ही झाडू बन गई। चमगादड़ की ज़िंदगी हो गई। आधी रात से सूरज निकलने तक, किस्तों में झाड़ने पर साठ रुपए मिलेंगे।
''बेटी, कमर दर्द है क्या? या फिर इस शीत में पति की याद आ रही है?'' दनादन झाड़ती हुई अधेड़ राजेश्वरी ने पूछा।
''नहीं बुआ, इस काम की मुझे आदत नहीं, और सुबह जल्दी उठना पड़ता है, नींद पूरी नहीं होती ना...'' कहकर सुजाता फिर झाड़ू लगाने लगी।

सड़क के डिवाइडर के पास झाड़ते हुए, उसने वहाँ एक पुरानी, स्पंज से बनी छोटी गुड़िया को देखा। उसे हाथ में उठाया। झट-से बच्चे की याद आई। शायद बच्चा दूध के लिए चारपाई पर पलटता होगा, नहीं तो नींद में हिचकी लेता होगा। नरसिंह तो खुद दारू पीकर सो जाता है। फिर अगर बच्चा रोता है तो कौन देखेगा? झाडू को वहीं छोड़कर घर जाने की इच्छा हुई सुजाता को। शीत का प्रभाव ज़्यादा हुआ तो उसकी आँखों में आँसू आ गए और डिवाइडर पर बैठ गई। गुड़िया को एक हाथ में पकड़कर, दूसरा हाथ सीने पर रखा। दूध तो है... लेकिन बच्चा पास नहीं। उसे अपने आप पर तरस आया और उसने गुड़िया को फेंक दिया।

''अरे, महारानी की तरह बैठी हो। उठो...झाडू मारो...झाडू...'' मल्लम्मा ने घुड़की दी। सुजाता को इस जीवन से फिर घृणा हुई। फिर झाडू हाथ में उठा ली। गाँव का तालाब सूख गया और खेती का काम कुछ नहीं मिलने के कारण यहाँ नगर में आ गया नरसिंह। आजकल भवन निर्माण के काम का मजदूर बन गया है। दिन भर काम करके वह घर पहुँचता है और सुजाता को दिन में आधी नींद सोकर, रात में झाडू लेकर सड़क के लिए निकलना होता है।

खाना पकाती है, बच्चे को सुलाती है। उसे देखते हुए बड़ी मुश्किल से काम के लिए निकलती है। साठ रुपयें की याद में कदम आगे बढ़ाती है। सड़क पर झाड़ू लगाते समय सुजाता के मन में बहुत सारे विचार आते हैं। चौराहे पर किसी ने कूड़े को जला दिया था। पूरी सड़क पर राख ही राख। जल कर फूटे हुए पटाखों की चिंदियाँ।
सुजाता चिढ़ गई।
''देश में धोखेबाज ज़्यादा हो गए।'' सुजाता ने अपने आप से कहा।
दूर गांधी जी की प्रतिमा दिखाई दी। वह हँसने लगी। ''उनकी सारी माँगें पूरी हुई पर आज भी आधी रात में एक औरत हाथ में झाडू लिए घूम रही है नेता समझते हैं देश को असली स्वतंत्रता मिल गई।'' सुजाता मुस्कुरायी और सोचने लगी।
''बापू के दांत होते तो कोई टूथपेस्ट कंपनी उन्हें एक विज्ञापन में ले लेती...''

सड़क पर झाड़ू लगाते समय सुजाता के मन में बहुत सारे विचार उमड़ते हैं। उसने तो कभी नही सोचा थी कि - एक झाडू उसे नौकरी दिला सकती है। दसवीं कक्षा की किताबें, पाठशाला के पुस्तकालय की किताबें उसकी याद में अचानक चले आते हैं। शादी के पहले, पढ़ाई के बाद, जब पाँच साल खाली थी तब गाँव के ग्रंथालय में बहुत सारी किताबें पढ चुकी थी। छोटी-छोटी कविताएँ भी लिखती थी। लेकिन गरीबी ने पढ़ाई को आगे बढ़ाने नहीं दिया।
राख को झाड़ती है तो धूल उठ रही है। उस का मन में अनजाने क्रोध की भावना है। उस जगह को ज़ोर से झाड़ने को मन करता है।
''झाडू मार.. झाडू मार लॉरी में आकर बोले गए नारों को, खाने के लिए फेंके गए पैकेट के शोर को... विष छिड़कने वाले इ.वि.एम. (इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन) को...राजनीतिक डाइनोसॉर के पदचिह्नों को...''

कमर में फिर दर्द। सर्दी से शरीर काँपने लगा और सुजाता वहीं बैठ गई। फ़र्श पर आधी चादर में सिहरते सोनेवाले भिखारी की आवाज़ सुनाई दे रही है। एक पगली खाँस रही है और सिसक रही है। बंद दुकानों के किवाड़ पर अलग-अलग रंग बिरंगे चित्र हैं। सुजाता जहाँ बैठी थी, वहीं सामने वाली दुकान के किवाड़ पर जो चित्र था, उसे देखती रही, देखती ही रही।

दुकान के सामने रंग के दाग, सूखी कूँची, रंग का एक छोटा डिब्बा नज़र में आया। सुजाता इन्हीं गलियों में आती जाती रहती है तो उसे मालूम है कि इस दुकान का किवाड़ रातभर ही नहीं बल्कि दिन में भी बंद रहता है। रंगसाज भी दिखाई नहीं देता। ''कहाँ चला गया?'' सोच रही है सुजाता।
''क्या मर गया होगा?'' नहीं...नहीं...ऐसा नहीं होना चाहिए। फिर विचार।
''क्यों नहीं? हो सकता है मर चुका हो। किसने मारा था? सामने वाले भवन पर लगे हुए पीछे की रोशनी सो जगमगाते फ्लेक्सि बोर्ड में जो कोट पहन कर हँस रहा है, उसी ने मारा होगा।''
सुजाता को भय हुआ। वह झाडू की तरफ़ देखने लगी।
''अरे मेम साहिबा की तरह बैठी है, चल उठ। अगर ठेकेदार देखेगा तो, काम से निकाल देगा। चल झाडू मार...'' प्यार से कहा मंगव्वा ने।
सुजाता ने फिर से झाडू लगाना शुरू किया। मन में अनजानी पीड़ा है।

''झाडू मार...झाडू मार - यंत्रों को जिन्होंने व्यवसाय को मार दिया है, कंप्यूटरों को जो डालर की बदबू से जल रहे हैं, ई-मेल को जो व्यंग्यात्मक दृष्टि से हँसते हैं।'' जिनको कितना भी झाड़ो पर कूड़ा कभी साफ़ नहीं होता। सच हमेशा छुपा ही रहता है।

एक मारुति वैन तेज़ रफ़तार से सड़क पर इसी ओर चलती चली आ रही है। सभी सफ़ाई कर्मचारी भय से किनारे की तरफ़ भाग गई हैं। वैन डिवाइटर से टकरा कर ऊपर चढ़ गई है और फिर से सड़क पर आ गई है। और तेज़ी से दूर चली जा रही है। एक सफ़ाई कर्मचारी बाल बाल बच गई है।

''बदमाश, शायद खूब शराब पी रखी होगी...'' कह कर एक सफ़ाई कर्मचारी ज़ोर से चिल्लाई। वैन की तेज़ रफ़्तार के बावजूद, बंद किड़की से 'बचाओ...बचाओ।' की चीख़ सुजाता के कान तक पहुँच ही गई। भय से उसका शरीर ठिठुर गया। हर रात एक युद्ध जैसा अनुभव... चोट को छूने की तरह सड़क को झाडना... सुजाता का मन में थकावट।

सुजाता सोच रही है - 'क्यों मैं भिन्न हूँ? अन्य भंगियों की तरह अपना काम क्यों नही करती? झाड़ू लगाना मेरा काम है... बस। लेकिन झाडू सारंगी बन जाती है। पढ़ने लिखने वाले दिनों की यादें...पीछा करती हैं तो साँसों में संगीत बजने लगता है।'

खंभे के पास झाड़ू मारनेवाली भंगिन ने ज़ोर से पुकारा। सब लोग घबराकर झाडू छोड़कर वहाँ पहुँचे। खंभे के बगल वाले कूड़ेदान में एक अविकसित शिशु का शव।

सब सफ़ाई कर्मचारी वहाँ घेरे हैं। भ्रूण हत्या पर, अनुचित संबंधों पर शब्दों के हमले हो रहे हैं। उत्तेजना इतनी जैसे उनकी झाडू में इस प्रदूषण को साफ़ करने की सारी शक्ति हो। फिर सब काम में जुड गए। कूड़े के ट्रैक्टर आने के बाद शव को उसमें डाल दिया गया। उस शिशु को देखने पर सुजाता को ऐसा कष्ट हुआ कि वहाँ से हिल तक नहीं पाई।

''बेटी, तुम पढ़ी लिखी हो न, इस काम पर नहीं आना। मैं ठेकेदार से बात करूँगी।'' रत्ना ने प्यार से कहा। सुजाता चकित हो गई। झट से झाडू उठाई और दनादन झाड़ना शुरू किया। अनजाने में क्रोध। झाड़ने लगी तो किसी बच्ची की स्कूल की किताब के कुछ काग़ज़ सड़क पर गिरे मिले।
ज़ोर से झाड़ने लगी। मन में फिर विचार आया।

''झाडू मारो...किताबों को, जो बचपन को चबाते हैं, झाडू मारो...अंतड़ियों को जो पिंड को पीस डालती हैं, झाडू मारो...कार्पोरेट कालेजों को जो मासूम पंख तोड़ते हैं, झाडू मारो...अंगों को जो सड़क पर पड़े हैं, झाडू मार अनाथ लाश को जिन्हें अस्पताल वालों ने फेंक दिया है।''

हड्डी कुतरनेवाली शीत में झाडू नहीं मानती है। सुजाता का मन कुछ कह रहा है। झाडू से लटक रहे अखबार का टुकड़े को ऊपर उठाती है और सड़क पर जलती रोशनी के नीचे समाचार पढ़ने लगती है।

2.
'नगर को सर्वोच्च स्वच्छता पुरस्कार' शीर्षक के नीचे फोटो देखा उसने। प्रधानमंत्री के हाथों से अवार्ड लेती हुई एक महिला। वह बहुत खूबसूरत है। उस का मुख मुस्कुराहट से चमक रहा है। वो है... नगरपालिका की अध्यक्ष।

''लेकिन उस दिन हमें देखते ही किस तरह तेवर चढ़ा लिए थे उसने। किस तरह नफ़रत प्रदर्शित की थी? वातानुकूलित कमरे से बाहर आने के दस मिनट के भीतर ही पसीना पसीना होकर, झटपट खिसक ली थी।''

नगर के पूरे १५०० सफ़ाई कर्मचारी मिलकर एक दोपहर जब उस से अपनी बीमा सुविधा और भविष्य निधि के बारे में पूछने गए तो बहुत लापरवाही से उसने कह दिया कि वो सब सुविधाएँ दिन में काम करनेवालों के लिए हैं और रात में काम करने वालों के लिए लागू नहीं होतीं।

उसकी इन बातों से नाराज़ होकर सभी झाडू हवा में उठे। इस गंदी शिष्टता को साफ़ करने की इच्छा हरेक झाडू में जागी। झाडू नारे बन गये। माँ के पल्लू की तरह नगर की सड़कों को साफ़ रखने के बाद भी कृपा न करनेवाले अफ़सर पर झाडू रोष बन कर उठे, लेकिन झाडू का वह आग्रह कूडेदान में घुस गया। सुजाता ने उस अखबार के टुकड़े को दोहराया और फेंक दिया।

कोई आदमी दारू पीकर सड़क पर फिर रहा है वह एकदम कै करता है। उसने पास में साफ़ करनेवाली सफ़ाई कर्मचारी श्यामला का पल्लू पकड़ा और अपनी ओर खींचा। श्यामला ने चीखते हुई उसे ढकेल दिया। सब लोग दौड़ कर वहाँ पहुँचे। तब झाडू एक अस्त्र बन गया। झाडू की मार से शराबी होश में आया और भाग गया।

सुजाता दिल खोलकर हँसी, कुछ क्षण के लिए। सड़क के किनारे खड़े जंग लगे हुए पोस्ट बाक्स के बाजू से कराह उठ रही है। एक ११-१२ वर्ष का बच्चा शीत से सिहरता सो रहा है। वह फटी हुई जाँघिया और मैली बनियान पहने पतले कंबल में सिमट रहा है। सड़क के उस पार एक बड़ा सा पोस्टर है - बाल-श्रमिक के विरुद्ध सरकार की चेतावनी।
सुजाता का मन बिलख गया। ऐसे ही देखती रह गई। गाँव में अपने भाई की याद आई।
''अरे, इस शहर में ये सब मामूली बातें हैं। चिंता मत करो। मन में लेती तो, काम नहीं कर पाओगी। चलो, चलो...झाडू मारो।'' कहा सरोजिनी ने।
सुजाता का मन बहल गया। सन्नाटे से बातचीत हुई।

''झाडू मारो... चाय का प्यालों को, जो सपने की तरह टूटते हैं¸ झाडू मारो। बिरियानी हड्डी को जिसपर फफूँद उगती है, झाडू मारो। प्रवासी जीवन को जो ईख के गूदा जैसा है।'' हाथ में झाडू फिर कोई अनजाना क्रोध उबल रहा है। ऊँची आवाज़ में एक ऐंबुलेन्स सड़क पर आती देख सुजाता पीछे हटी। एंबुलेन्स को देखते ही उसे अपने बाप की याद आई। उनकी तबीयत का ख़याल आया। दवा ले रहे हैं या नहीं। फिर झाडू लगाने लगी। एक पुलिस जीप इतनी तेज़ी से चली गई कि मानो किसी बात का निषेध कर रही है।

सामने आठ मंज़िलों वाले भवन पर 'भल्लुकास गोल्ड एंपोरियम' का भारी होर्डिंग दिखता है। उस पर सोने के गहनों से लदी सिने तारिकाएँ दिखाई गई हैं। उन्हें देखते ही सुजाता को अपने गाँव में हुई एक चोरी याद आई। ऐसा लगा कि माँ के गहने और बाकी गाँव वालों के गहने जैसे इन्हीं लोगों ने लूट लिए हों।

उस भवन को देखती ही रह गई। इतने में एक विमान थोड़ा नीचे से, भारी आवाज़ करता हुआ निकल गया। विमान को देखते ही श्रावणी की याद आई। अपने गाँव के ठाकुर की बेटी थी वह। बचपन में सुजाता की सहपाठी। अमेरिका में शादी तय हुई और परदेस चली कुछ ही दिनों बाद विमान में उसकी लाश आई। तब से जब भी विमान को देखती है तो श्रावणी की याद आती है। यादें पथरीले टुकड़े बनकर बरसती हैं।
''बेटी लगता है तुम काम नहीं कर पाओगी। जाओ, घर जाकर अपने मर्द के साथ सोजा। जाओ।'' एक सफ़ाई कर्मचारी ने मज़ाक किया।
सुजाता ने फिर से झाडू लगाना शुरू कर दिया। चार बज रहे हैं। वाहन सड़क पर आने लगे हैं। ठंडी हवा भी बहने लगी है।

हवा बहने से, बारिश होने से सफ़ाई कर्मचारियों को डर लगता है- अब तक जो सड़कें साफ़ हुई थीं थे, वे सब फिर गंदी हो जाएँगी। ठेकेदार आकर तब तक गालियाँ देता रहता है जब तक वे फिर झाड़ने न लगें। इसी तरह दिवाली के बाद चार पाँच दिन झाड़ने पर भी कचरा नहीं निकलेगा। हाथ पाँव में दर्द होता है। ठेकेदार अतिरिक्त पैसे नहीं देता, बोलता है कि दुकानदारों से माँग लेना। हवा ज़ोर से बहने लगी। सुजाता डर गई।
हवा का ज़ोर बढ़ रहा है। उसका रुख़ सुजाता की और है। अब तक साफ़ किया गया सारा कचरा एकदम हवा में उठ गया है। सब सफ़ाई कर्मचारी हताश होकर खड़ी रह गई हैं।

अचानक मज़हबी मार-धार की तरह बवंडर फैल शुरू हो गया। लगभग बीस मिनट तक...उछालती हवा तेज़ी से बहती रही। सब सफ़ाई कर्मचारी सड़क के किनारे खड़ी चुपचाप देखती रह गई। कुछ देर के बाद हवा शांत हो गयी। सभी के चेहरे पर आशंका। अब तक साफ़ किया गया कचरा फिर सड़क पर आ गया। सुजाता शक्तिहीन हो गई।
ठेकेदार की जीप आ रही है। सब लोग काँपने लगे। अब दुबारा झाड़ने को वह ज़रूर कहेगा।

बरसात के दिनों मे ऐसा ही होता है। सारी सड़क साफ़ करने के बाद बारिश होती है और साफ़ किया गया सारी कचरा फिर से सड़कों पर जमा हो जाता है। दुबारा झाड़ना पड़ता है। गरमी के मौसम में तो ऐसे बवंडर सदा सताते हैं। ठेकेदार की जीप रुकने पर सब सफ़ाई कर्मचारी उस के पास चली गई।

''क्या फिर बवंडर आया है? ठीक है, फिर से साफ़ कर देना। सुनो आज दस बजे विश्व बैंक के प्रतिनिधि हमारे शहर आ रहे हैं। आप लोगों को पता होगा कि हमारा नगर चार बार स्वच्छता पुरस्कार हासिल कर चुका है। विश्व बैंक के प्रतिनिधियों के आने के समय सड़क पर कचरा मिला तो मैं अपना ठेका खो बैठूँगा। तुम सब लोगों की नौकरी छूट जाएगी समझो।''

चेतावनी देकर ठेकेदार वहाँ से चला गया। उनमें से किसी को पूरी बात नहीं समझ में नहीं आई। बस इतना ही समझ में आया कि कुछ बड़े लोग आ रहे हैं और फिर से झाड़ना होगा। वे खड़ी हुईं और फिर से झाड़ू लगाने में जुट गईं।
''अरे गाडियाँ निकल रही हैं, ठेकेदार फिर आएगा। ले झाडू पकड़।'' एक सफ़ाईवाली ने सुजाता से कहा।

सुजाता ने झाडू उठाई। मन भारी हो गया। झाडू हिलती नहीं। कमर दर्द की खबर दे रही है। हाथ पाँव ठिठुरते हैं। फिर भी झाड़ना है। जिन बादलों पर विश्वास करती हैं, वे धोखा देते हैं। जिस हवा को सांस समझती है वह भी जान लेती है। घिरता हुआ अंधेरा सपनों को फांसी देता है।
रोशनी से भय। सुबह होने के पहले ही झाड़ना है नहीं तो काम से... झाडू की तीली की तरह... निकाल देंगे। भय से वह फिर झाड़ने लग जाती है।

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सुबह होते ही सुजाता घर पहुँची। उसका पति और बेटा अब तक जागे नहीं। 'बच गई' कहकर प्लास्टिक के कटोरा में नल से पानी ले आई। घिरती नींद को दूर करती हुई, बरतन साफ़ करने लगी। खाना पकाया। बेटा जागा तो उसे दूध पिला दिया। मर्द उठकर काम के लिए तैयार हो गया और खाना डिब्बे में लेकर चला गया। सुजाता ने हाथ मुख धोया और कुछ खाया। उसे पता नहीं चला कि वह कब सो गई। लगभग दोपहर एक बजे उठी। बच्चा खेल रहा था। झोंपड़ी जैसे घर के एक कोने में पुराना काला सफ़ेद टी.वी. है। सुजाता ने टी.वी. चालू किया। समाचार प्रसारित हो रहे हैं। दृश्य तो ठीक तरह नहीं दिखाई दे रहा, लेकिन सड़क पर झाड़ने वालों का चित्र धुँधला दिखने पर भी ध्यान से उसी की तरफ़ देखने लगी।

पहले आधी रात में महिला सफ़ाई कर्मचारियों के सड़क झाड़ने का दृश्य, उस के बाद कुछ गोरे आदमी..., उन से बातचीत करती नगरपालिका अध्यक्ष...एक बड़े कमरे में चर्चाएँ। पार्श्व स्वर में उद्घोषिका का स्वर - ''नगर को और साफ़ रखने के लिए जर्मनी से हाई-टेक वैक्युअम क्लीनर मँगवाए जा रहे हैं। विश्व बैंक तीस करोड़ रुपए का ॠण देने को तैयार है। यह हाई-टेक वैक्युअम क्लीनर प्रति घंटा आठ किलोमीटर की सफ़ाई करता है। आँधी, बारिश होने पर भी कचरे को अपने आप लोड करता है।'' फिर उस यंत्र को दिखाने लगे। उसे देखते ही सुजाता काँप गई।

वह मशीन बिलकुल वैसी ही है कि गाँव में खेत में धान काटने वाली हार्वेस्टर थी। जैसी खेत में उतरी धान रोपने वाली राईस ट्रान्सप्लांटर थी। उस मशीन के कारण ही पक्षी, केकड़े, साँप आदि खेत से भाग गए थे। और उसी के कारण इन लोगों को खेती का काम छोड़कर पेट भरने के लिए शहर आना पड़ा था।

लेकिन हाई-टेक वैक्युअम क्लीनर इन सभी मशीनों भयंकर है। सुजाता ने काँपते हुई कोने से झाडू उठाई। झाडू अब एक आयुध है। चारों तरफ़ देखा सुजाता ने। लेकिन शत्रु दिखा नहीं। बच्चा रोने लगा। बेबस होकर नीचे बैठ गई। बच्चे को गोद में लिया और दूध पिलाने लगी। लेकिन बच्चा रोता ही रहा।

(रूपांतरकार: कोल्लूरि सोम शंकर)

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