झाग (कहानी) : शमोएल अहमद

Jhaag (Story in Hindi) : Shamoel Ahmad

1

वो अचानक राह चलते मिल गई थी।

और जिस तरह गढ़े का पानी पांव रखते ही मैला हो जाता है उसी तरह... उसी तरह उसके चेहरे का रंग भी एक लम्हे के लिए बदला था । मुझे अचानक सामने देख कर वो ठिठक गई थी और मैं भी हैरत में पड़ गया था... और तब हमारे मुँह से... अरे तुम...! के तक़रीबन एक जैसे अलफ़ाज़ अदा हुए थे। फिर उसने आंचल को गर्दन के क़रीब बराबर किया तो मैंने उस पर सरसरी सी निगाह डाली थी। वो यक़ीनन उम्र के उस हिस्से में थी, जहां औरत पहले गर्दन पर पड़ती झुर्रियां छुपाना चाहती है। उसके चेहरे का रंग कुम्हलाया हुआ लगा और उसके लिबास से मैंने फ़ौरन ताड़ लिया कि बहुत ख़ुशहाल नहीं है। उसकी चप्पल भी पुरानी मालूम हुई जो उसकी सारी से बिल्कुल मैच नहीं कर रही थी। चप्पल का रंग अंगूठे के क़रीब कसरत-ए-इस्तिमाल से उड़ गया था। दफ़अतन मुझे उस वक़्त अपने ख़ुशलिबास होने का गुमान हुआ और साथ ही मैंने महसूस किया कि उसकी ज़बूँहाली पर मैं एक तरह से ख़ुश हो रहा हूँ। उसकी ख़स्ताहाली पर मेरा इस तरह ख़ुश होना यक़ीनन एक ग़ैर मुनासिब फे़अल था। लेकिन मैं ये महसूस किए बना नहीं रह सका कि जो रिश्ता मेरे और उसके दरमियान उस्तूवार नहीं होसका था, उसकी ये नादीदा सी ख़लिश थी जो एहसास-ए-महरूमी की सूरत मेरे दिल के निहां ख़ानों में गुज़शता बीस सालों से पल रही थी।

मुझे लगा वो मेरी नज़रों को भाँप रही है। तब उसने एक बार फिर गर्दन के क़रीब आंचल को बराबर किया और आहिस्ता से मुस्कुराई तो ये मुस्कुराहट मुझे ख़ुश्क पत्ते की तरह बे-कैफ़ लगी... उसने पूछा था कि क्या मैं इन दिनों इसी शहर में रह रहा हूँ। इस्बात में सर हिलाते हुए मैंने भी उससे तक़रीबन यही सवाल किया था जिसका जवाब उसने भी मेरी तरह इस्बात में दिया था। लेकिन... हाँ... कहते हुए उसके चेहरे पर किसी ग़ैर मानूस कर्ब की हल्की सी झलक बहुत नुमायां थी। शायद वो तज़बज़ुब में थी कि इस तरह अचानक मुलाक़ात की उसको तवक़्क़ो नहीं होगी या ये बात उसको मुनासिब नहीं मालूम हुई हो कि मैं उसके बारे में जान लूं कि वो भी इसी शहर में रह रही है। लेकिन ख़ुद मुझे ये सब ग़ैर मुतवक़्क़े मालूम हुआ था। मैं एतराफ़ करूंगा कि मुद्दतों उसकी टोह में रहा हूँ कि कहाँ है...? और कैसी है...? और ये कि उसकी इज़दवाजी ज़िंदगी...? शायद रिश्ते मुरझा जाते हैं... मरते नहीं हैं...!

वो ख़ामोशी से आंचल का पल्लू मरोड़ रही थी और मैं भी चुप था। मुझे अपनी इस ख़ामोशी पर हैरत हुई। कम से कम हम रस्मी गुफ़्तगु तो कर ही सकते थे... मसलन घर और बच्चों से मुताल्लिक़... लेकिन मेरे लब सिले थे और वो भी ख़ामोश थी... दफ्अतन मेरे जी में आया किसी रेस्तोरां में चाय की दावत दूं लेकिन सोचा शायद वो पसंद नहीं करेगी।

दरअस्ल रेस्तोरां मेरी कमज़ोरी रही है। राह चलते किसी दोस्त से मुलाक़ात हो जाए तो मैं ऐसी पेशकश ज़रूर करता हूँ। किसी ख़ूबसूरत रेस्तोरां के नीम तारीक गोशे में मशरूबात की हल्की हल्की चुस्कियों के साथ गुफ़्तगु का लुत्फ़ दोबाला हो जाता है। लेकिन हमारे दरमियान ख़ामोशी उसी तरह बनी रही और तब सड़कों पर यूंही बे मक़सद खड़े रहना मुझे एक पल के लिए अजीब लगा था... शायद मैं ग़लतबयानी से काम ले रहा हूँ। सच तो ये है कि उसके साथ इस तरह बे मक़सद खड़े रहना एक ख़ुशगवार एहसास को जन्म दे रहा था। ये भी मुम्किन है कि ख़ुद वो किसी बेज़ारी के एहसास से गुज़र रही हो, लेकिन एक दो बार उसने पलकें उठा कर मेरी तरफ़ देखा तो मुझे लगा मेरे साथ कुछ वक़्त गुज़ारने की वो भी ख़्वाहिशमंद है।

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तब मैंने रेस्तोरां की बात कह डाली थी। उसने फ़ौरन हाँ नहीं कहा। पहले इधर उधर देखा था, आहिस्ता से मुस्कुराई थी और पूछने लगी थी कि कहाँ चलना होगा तो मैंने एक दम पास वाले होटल की तरफ़ इशारा किया था।

हम रेस्तोरां में आए। कोने वाली मेज़ ख़ाली थी। वहां बैठते हुए मैंने महसूस किया कि उसके चेहरे पर गरचे बेज़ारी के आसार नहीं हैं, लेकिन एक क़िस्म की झिझक ज़रूर नुमायां थी। इस दरमियान उसका पांव मेरे पांव से छू गया... मेरी ये हरकत दानिस्ता नहीं थी... लेकिन मुझे याद है एक बार बहुत पहले...

तब वो शुरू शुरू के दिन थे जब कलियां चटकती थीं और ख़ुशबूओं में इसरार था और नदी की कुल कुल समुंदर के होने का पता देती थी... मुझे याद है उन दिनों रेस्तोरां में एक बार उसके साथ बैठने का इत्तिफ़ाक़ हुआ था। मैंने जानबूझ कर मेज़ के नीचे अपना पांव बढ़ाया था और उसके पांव के लम्स को महसूस करने की कोशिश की थी... वो यकायक सिकुड़ गई थी और आँखों में धनक का रंग गहरा गया था फिर ज़ेर-ए-लब मुस्कुराई थी और मेरी तरफ़ दूज़दीदा निगाहों से देखा था... लेकिन अब...

अब हम बीस साल की लंबी ख़लीज से गुज़रे थे और ज़िंदगी के उस मोड़ पर थे जहां मेज़ के नीचे पांव का छू जाना दानिस्ता हरकत नहीं होती महज़ इत्तिफ़ाक़ होता है और ये महज़ इत्तिफ़ाक़ था और मेरी ये नियत क़तई नहीं थी कि उसके बदन के लम्स को महसूस करूं... बस अनजाने में मेरा पांव उसके पांव से छू गया था और किसी एहसास से गुज़रे बगै़र हम महज़ एक बेकार से लम्स को एक दम ग़ैर इरादी तौर से महसूस कर रहे थे। उसने अपना पांव हटाया नहीं था और मैं भी उसी पोज़ीशन में बैठा रह गया था। और न कलियां ही चटकी थीं न च्यूंटीयां ही सरसराई थीं न उसकी दूज़दीदा निगाहों ने कोई फ़ुसूँ बिखेरा था। हम बीस साल की लंबी ख़लीज से गुज़र कर जिस मोड़ पर पहुंचे थे वहां क़दमों के नीचे सूखे पत्तों की चरमराहट तक बाक़ी नहीं थी।

बैरा आया तो मैंने पूछा। वो चाय लेना पसंद करेगी या काफ़ी... जवाब में उसने मेरी पसंद के स्नेक्स के नाम लिये थे और मुझे हैरत हुई थी कि उसको याद था कि मैं...

काफ़ी आई तो हम हल्की हल्की चुस्कियां लेने लगे... वो नज़रें नीची किए मेज़ को तक रही थी और मैं यूंही सामने ख़ला में घूर रहा था। इस दरमियान मैंने उसको ग़ौर से देखा। उसने कंघी इस तरह की थी कि कहीं कहीं चांदी के इक्का दुक्का तार बालों में छिप गए थे। आँखें हलक़ों में धंसी हुई थीं और गोशे की तरफ़ कनपटियों के क़रीब चिड़ियों के पंजों जैसा निशान बनने लगा था। वो मुझे घूरता देख कर थोड़ी सिमटी फिर उसके होंटों के गोशों में एक ख़फ़ीफ़ सी मुस्कुराहट पानी में लकीर की तरह उभरी और डूब गई।

मुझे ये सब अच्छा लगा... पास पास बैठ कर ख़ामोशी से काफ़ी की चुस्कियां लेना... एक दूसरे को कनखियों से देखने की कोशिश... और चेहरे पर उभरती डूबती मुस्कुराहट की धुँदली सी तहरीर...

हमारे पांव अब भी आपस में मस थे। किसी ने सँभल कर बैठने की शऊरी कोशिश नहीं की थी। मुझे लगा हमारा माज़ी पांव के दरमियान मुर्दा लम्स की सूरत फंसा हुआ है... और चाह कर भी हम अपना पांव हटा नहीं पा रहे हैं... जैसे हमें ज़रूरत थी उस लम्स की... उस मुर्दा बेजान लम्स की जो हमारा माज़ी था... उसमें लज़्ज़त नहीं थी इसरार नहीं था...एक भ्रम था... माज़ी में होने का भ्रम... उन लम्हों को फिर से जीने का भ्रम... उस रिश्ते का भ्रम जो मेरे और उसके दरमियान कभी उस्तूवार नहीं हुआ था। मेरी नज़र काफ़ी की प्याली पर पड़ी। थोड़ी सी काफ़ी बच्ची हुई थी... दो-चार घूँट फिर क़िस्सा ख़त्म... होटल का बिल अदा करके हम उठ जाऐंगे और मेज़ के नीचे हमारा माज़ी मुर्दा परिंदे की सूरत गिरेगा और दफ़न हो जाएगा... बस दो-चार घूँट...

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उन लम्हों को फिर से जीने का भ्रम बस इतनी ही देर क़ायम था...

काफ़ी का आख़िरी घूँट लेते हुए उसने पूछा कि इस होटल में कमरे भी तो मिलते होंगे...? मैंने नफ़ी में सर हिलाते हुए कहा कि ये सिर्फ़ रेस्तोरां है... और मेरा फ़्लैट यहां से नज़दीकहै...!

अचानक मुझे एहसास हुआ कि मैंने बेतुका सा जवाब दिया है। वो पूछ भी नहीं रही थी कि मैं कहाँ रहता हूँ...? उसने बस ये जानना चाहा था कि यहां कमरे मिलते हैं या नहीं और में फ़्लैट का ज़िक्र कर बैठा था। इन दिनों मैं अपने फ़्लैट में तन्हा था। बीवी मैके गई हुई थी और तीनों लड़के हॉस्टल में रहते थे।

मुझे याद आया शुरू शुरू की मुलाक़ातों में एक दिन रेस्तोरां में काफ़ी पीते हुए जब मैंने पांव बढ़ा कर उसके बदन के लम्स को महसूस करने की कोशिश की थी तो मैंने बैरे को बुलाकर पूछा था कि यहां कमरे मिलते हैं या नहीं...? लेकिन ये बात मैंने यूं ही पूछ ली थी और उसके पीछे मेरा कोई मक़सद नहीं था और आज उसने ये बात दुहराई थी और मैंने बरजस्ता अपनी फ़्लैट की बाबत बताया था... शायद इसका ताल्लुक़ कुछ न कुछ माज़ी से था और हमारे लाशऊर के निहां ख़ानों में कहीं न कहीं एक नादीदा सी ख़लिश पल रही थी... मुझे लगा होटल का कमरा और तन्हा फ़्लैट एक डोर के दो सिरे हैं और उससे क़रीबतर होने की मेरी फ़र्सूदा सी ख़्वाहिश उस डोर पर अब भी किसी मैले कपड़े की तरह टंगी हुई है...

मुझे हैरत हुई कि माज़ी की एक एक बात उसके दिल पर नक़्श है। बीस साल के तवील अर्से में वो कुछ भी नहीं भूली थी। बल्कि हम दोनों ही नहीं भूल पाए थे। होटल का बिल अदा करके हम बाहर आए तो उसने पूछा घर में कौन कौन रहता है...? मैंने बताया इन दिनों तन्हा रहता हूँ... मेरा फ़्लैट दूर नहीं है...अगर वो देखना चाहे तो...

वो राज़ी हो गई...

हम ओटो पर बैठे। वो एक तरफ़ खिसक कर बैठी थी और मैंने भी फ़ासले का ख़्याल रखा था। तब ये सोचे बगै़र नहीं रह सका कि होटल के सोफे पर हम कितने सहज थे और अब दूरी बनाए रखने की एक शऊरी कोशिश से गुज़र रहे थे। अगले चौक पर एक और आदमी ओटो में आगया तो मुझे अपनी जगह से थोड़ा सरक कर बैठना पड़ा और अब फिर मेरा बदन उसके बदन को छूने लगा था। मैंने महसूस किया कि ये लम्स बेमानी नहीं है बल्कि तीसरे की मौजूदगी हम दोनों के लिए ही नेक फ़ाल साबित हुई थी।

ओटो आगे रुका तो मैंने पैसे अदा किए। फ़्लैट वहां से चंद क़दम पर ही था। हम चहलक़दमी करते हुए फ़्लैट तक आए। ड्राइंगरूम में दाख़िल होते ही उसने एक ताइराना सी नज़र चारों तरफ़ डाली। कैबनेट में एक छोटे से स्टील फ्रे़म में मेरी बीवी की तस्वीर लगी हुई थी। वो समझ गई तस्वीर किस की हो सकती है। उसने इशारे से पूछा भी... मैंने इस्बात में सर हिला या और उसके क़रीब ही सोफे पर बैठ गया।

हमारे दरमियान ख़ामोशी छा गई...

वो चुपचाप सोफे पर उंगलियों से आड़ी तिरछी सी लकीरें खींच रही थी। अचानक उसका आंचल कंधे से सरक गया जिससे सीने का बालाई हिस्सा नुमायां हो गया। उसका सीना ऊपर की तरफ़ धंसा हुआ था और गर्दन की हड्डी उभर गई थी जिससे वहां पर गड्ढा सा बन गया था। गर्दन के किनारे एक दो झुर्रियां नुमायां थीं। मुझे उसकी गर्दन भद्दी और बदसूरत लगी... मुझे अजीब लगा... मैंने इसे बुलाया क्यों...? और वो भी चली आई... और अब हम दोनों एक ग़ैर ज़रूरी और बे मक़सद ख़ामोशी को झेल रहे थे।

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आख़िर मैंने ख़ामोशी तोड़ने में पहल की और पूछा वो चाय लेना पसंद करेगी या काफ़ी...? मेरा लहजा ख़ुलूस से आरी था... एक दम सपाट... मुझे लगा मैं चाय के लिए नहीं पूछ रहा हूँ, अपनी बेज़ारी का इज़हार कर रहा हूँ। उसने नफ़ी में गर्दन हिलाई तो मेरी झुंझलाहट बढ़ गई। मैंने उसे फ़्लैट का बाक़ी हिस्सा देखने के लिए कहा। वो सोफे से उठ गई। मैं उसे किचन में ले गया। फिर बालकनी दिखाई... फिर बेड रूम...

बेडरूम में उसने ताइराना सी नज़र डाली... सिंगार मेज़ की सामने वाली दीवार पर एक कील जड़ी थी। कील पर एक चूड़ी आवेज़ां थी जिससे एक छोटा सा काला धागा बंधा हुआ था। उसने चूड़ी को ग़ौर से देखा और पूछा कि धागा कैसा है...? मैंने हंसते हुए कहा कि बीवी का टोटका है।

वो जब भी घर से बाहर जाती है अपनी कलाई से एक चूड़ी निकाल कर लटका देती है और काला धागा बांध देती है। उसका ख़्याल है कि इससे ग़ैर औरत का घर में गुज़र नहीं होता और मेरी नज़र भी चूड़ी पर पड़ेगी तो मुझे उसकी याद आती रहेगी।

वो हँसने लगी और तंज़िया लहजे में बोली कि अक़ीदे का मतलब है ख़ौफ़... मेरी बीवी के दिल में ख़ौफ़ है कि मैं ऐसा करूंगा... उस ख़ौफ़ से बचने के लिए उसने इस अक़ीदे को जगह दी है कि चूड़ी में काला धागा बांधने से... मुझे उसकी ये दानिशवाराना बातें बिल्कुल अच्छी नहीं लगीं। लेकिन मैं ख़ामोश रहा। तब उसने एक अंगड़ाई ली और बिस्तर पर नीम दराज़ हो गई। फिर कील पर आवेज़ां चूड़ी की तरफ़ देखती हुई ता'ना ज़न हुई कि मेरी बीवी मुझे औरतों की निगाह-ए-बद से क्या बचाएगी...? बेचारी को क्या मालूम कि मैं कितना फ्लर्ट हूँ। मुझे तैश आ गया। मैंने एहतिजाज किया कि वो मुझे फ्लर्ट क्यों कह रही है। वो तीखे लहजे में बोली कि मैंने उसकी सहेली के साथ क्या किया था...? उसने मुझे याद दिलाया कि उस रात पार्टी में जब अचानक रोशनी गुल हो गई थी तो....

मैं चुप रहा। दरअसल मेरी एक कमज़ोरी है। औरत के कूल्हे मुझे मुश्तइल करते हैं... एक ज़रा ऊपर कमर के गिर्द गोश्त की जो तह होती है...

उस रात यकायक रोशनी गुल हो गई थी और उसकी सहेली मेरे पास ही बैठी थी। मेरा हाथ अचानक उसकी कमर से छू गया था। मैंने हाथ हटाया नहीं था और वो भी वहां बैठी रह गई थी...और हाथ अगर उस जगह मुसलसल छूते रहें और औरत मुज़ाहमत नहीं करे तो...

मुझे अजीब लगा। उसकी सहेली ने ये बात उसको बता दी थी। मैं इस से आँखें नहीं मिला पा रहा था।

मैंने कनखियों से उसकी तरफ़ देखा। उसके होंटों पर शरारत आमेज़ मुस्कुराहट रेंग रही थी। फिर अचानक वो मुझ पर झुक आई और एक हाथ पीछे ले जाकर मेरी पतलून की पिछली जेब से कंघी निकाली। इस तरह झुकने से उसकी छातियां मेरे कंधे से छू गईं। तब वो हंसती हुई बोली कि मैं पहले दाएं तरफ़ मांग निकालता था और कहा करता था कि ये मेरी इन्फ़िरादियत थी और ये कि हिटलर भी इसी तरह मांग निकालता था... मुझे हैरत हुई कि उसको एक एक बात याद थी।

वो मेरे बालों में कंघी करने लगी। उसकी उंगलियां मेरी पेशानी को छू रही थीं। मुझे अच्छा लगा। उसका झुक कर मेरी जेब से कंघी निकालना और मेरे बालों में फेरना... वो एक दम मेरे क़रीब खड़ी थी। उसके सीने की मरकज़ी लकीर मेरी निगाहों के ऐन सामने थी और उसकी सांसों को मैं अपने रुख़सार पर महसूस कर रहा था। उसके कंधे मेरे सीने को मुस्तक़िल छू रहे थे। फिर उसने उसी तरह कंघी वापस मेरी जेब में रखी और आईने की तरफ़ इशारा किया... मैंने घूम कर देखा...मुझे अपनी शक्ल बदली सी नज़र आई। मांग दाएं तरफ़ निकली हुई थी। मैं मुस्कुराए बगै़र नहीं रह सका। वो हँसने लगी और तब उसकी हंसी मुझे दिलकश लगी... अचानक मुझे महसूस हुआ कि ज़िंदगी अभी हाथ से फिसली नहीं है... दाएं तरफ़ निकली हुई।

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मांग...हंसती हुई औरत और सीने की हिलती हुई मरकज़ी लकीर...हम यक़ीनन उस वक़्त माज़ी से गिर रहे थे... उन दिल फ़रेब लम्हों से गुज़र रहे थे जहां नदी की कुल कुल थी और समुंदर का ज़ेर-ए-लब शोर था... वो ख़ुश थी... मैं भी शादमां था...

सुरूर के आलम में मेरा हाथ अचानक उसकी कमर के गिर्द रेंग गया और वो भी बेइख़्तयार मेरे सीने से लग गई... उसके होंट नीम वा हो गए... और यही चीज़ मुझे बेहाल करती है... कूल्हे पर हथेलियों का लम्स और नीम वा होंट...!

मैंने उसे बाँहों में भर लिया... वो मुझ से लिपटी हुई बिस्तर तक आई... मैंने ब्लौज़ के बटन... उसकी आँखें बंद थीं... और मैं भी होश खोने लगा था...

आहिस्ता आहिस्ता उसकी सांसें तेज़ होने लगीं... और वो अचानक मेरी तरफ़ मुतहर्रिक हुई, मेरे बाज़ूओं को अपनी गिरिफ्त में लिया और आहिस्ता आहिस्ता फुसफुसाकर कुछ बोली जो मैं समझ नहीं सका... उसकी ये फुसफुसाहट मुझे मकरूह लगी... सरशारी की सारी कैफ़ियत ज़ाइल हो गई। मेरी नज़र उसके बदन की झुर्रियों पर पड़ी जो उस वक़्त ज़्यादा नुमायां हो गई थीं... मुझे कराहियत का एहसास हुआ... गर्दन के नीचे उभरी हुई हड्डियों का दरमियानी गड्ढा... सीने का धंसा हुआ बालाई हिस्सा... और नीम पिचके हुए बैलून की तरह लटकी हुई छातियां... मुझे लगा उसका जिस्म एक मलबा है जिस पर मैं केकड़े की तरह पड़ा हूँ... मैंने अपने हाथों की तरफ़ देखा। मेरी उंगलियां उसकी छातियों से जोंक की तरह लिपटी हुई थीं... मैं कराहियत से भर उठा और ख़ुद को उससे अलग करते हुए उठ कर बैठ गया।

उसने आँखें खोलीं और कील पर आवेज़ां चूड़ी की तरफ़ देखा। चूड़ी से लटका हुआ धागा हवा में आहिस्ता आहिस्ता हिल रहा था... उसके होंटों पर एक पुरइसरार मुस्कुराहट रेंग गई। कुछ देर वो बिस्तर पर लेटी रही। फिर कपड़े दुरुस्त करती हुई उठी और शीशे के सामने खड़ी हो गई। मेरे अंदर उदासी किसी कुहासे की तरह फैलने लगी। मैं नदामत के एहसास से गुज़र रहा था। मैं उसको अपने फ़्लैट में इस नीयत से लाया भी नहीं था वो बस मेरे साथ आ गई थी और जब तक हम सोफे पर बैठे हुए थे इस बात का शाइबा तक नहीं था कि बेडरूम में दाख़िल होते ही हम फ़ौरन...

शायद उम्र का ये हिस्सा खाईदार मोड़ से गुज़रता है। चालीस की लपेट में आई हुई औरत और बचपन की सरहदों से गुज़रता हुआ मर्द दोनों ही इस हक़ीक़त से फ़रार चाहते हैं कि ज़िंदगी हाथ से फिसलने लगी है। हमने भी फ़रार का रास्ता इख़तियार किया था जो दाएं मांग से होता हुआ सीने की मर्कज़ी लकीर से गुज़रा था। मेरे हाथ पशेमानी आई थी और वो आसूदा थी। उसकी आसूदगी पर मुझे हैरत हुई। मैंने नफ़रत से उसकी तरफ़ देखा। वो अपने बाल संवार रही थी और उसके होंटों पर मुस्कुराहट उसी तरह रेंग रही थी। फिर उसने माथे से बींदी उतारी और शीशे में चिपका दी। मुझे ग़ुस्सा आ गया... उसकी ये हरकत मुझे बुरी लगी। गोया जाने के बाद भी वो अपने वजूद का एहसास दिलाना चाहती थी। वो जताना चाहती थी कि मर्द की ज़ात ही आवारा है, कोई धागा उसको बांध नहीं सकता। मैंने हसरत से धागे की तरफ़ देखा जिसमें मेरी वफ़ा शआर बीवी की मासूमियत पिरोई हुई थी। मुझे लगा मेरे साथ साज़िश हुई है। इस हासिद औरत ने मुझे एक मकरूह अमल में मुलव्विस किया और एक मासूम अक़ीदे पर ज़रब लगाई। अब सारी उम्र वो दिल ही दिल में हंसेगी। यक़ीनन इस धागे की बेहुर्मती का मैं उतना ही ज़िम्मेदार था...

पछतावे की एक दुख भरी लहर मेरे अंदर उठने लगी। शायद पछतावा ज़िंदगी का दूसरा पहलू है... पानी में लहर की तरह ज़िंदगी के हर अमल में कहीं न कहीं मौजूद... उन गुनाहों पर भी हम पछताते हैं जो सरज़द हुए और उन गुनाहों पर भी जो नाकर्दा रहे... गुज़शता बीस सालों से मेरे दिल के निहां ख़ानों में ये ख़लिश पल रही थी कि उससे रिश्ता उस्तूवार नहीं हुआ और आज उसकी मुकम्मल सुपुर्दगी के बाद ये पछतावा हो रहा था कि मैंने मुक़द्दस धागे की बेहुर्मती की... एक वफ़ा शआर औरत के अक़ीदे को मिस्मार किया...

6

वो जाने के लिए तैयार थी और उसी तरह मुस्कुरा रही थी। मैं भी चाहता था कि वो जल्द अज़ जल्द यहां से दफ़ा हो... मैंने नहीं पूछा कि कहाँ रह रही है...? उसने ख़ुद ही बताया कि एक रिश्तेदार के यहां किसी तक़रीब में आई थी और कल सुबह लौट जाएगी।

उसके जाने के बाद सन्नाटा अचानक बढ़ गया। मैं बिस्तर पर पज़मुर्दा सा लेट गया और आँखें बंद करलीं... मुझे अपनी बीवी की याद आई... इतनी शिद्दत से मैंने उसको पहले कभी याद नहीं किया था... इस वक़्त मुझे उसकी अशद ज़रूरत महसूस हुई।

मैंने किसी ईज़ा ज़दा मरीज़ की तरह आँखें खोलीं और कील पर आवेज़ां चूड़ी की तरफ़ देखा... चूड़ी से बंधा हुआ धागा हवा में उसी तरह हिल रहा था।

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