जयसन्धि (कहानी) : जैनेंद्र कुमार

Jayasandhi (Hindi Story) : Jainendra Kumar

सामन्त यशोविजय अपने दृढ़ भुजबल और दृढ़तर आत्म-विश्वास से काम लेकर मण्डलेश्वर बन गये । किन्तु उन्हें प्रतीत हुआ कि उन पर इससे भी आगे दायित्व है। आसपास के राज्यों में स्पर्द्धा है, विग्रह है, ईर्ष्या है । छुट-पुट युद्ध होते ही रहते हैं । अंतरराजकीय कोई अनुशासन नहीं । सब मनमानी करते हैं और जबरदस्त कमजोर पर चढ़ बैठता है।

यशोविजय को स्पष्ट कर्तव्य दीखने लगा कि ऐसी केन्द्रीय शक्ति को उदय में लाना और प्रतिष्ठित करना होगा जो इन सब राजाओं के दर्प को भंग करके उनमें एकसूत्रता लाए । केन्द्रीय सत्ता की स्थापना करने के काम के लिए अब आगे कौन आएगा ? सीधी नीति और धर्म की बातों से ये राजा लोग मानने वाले नहीं । शस्त्र का तर्क ही वे जानते हैं। मैंने आरम्भ में कहा कि अपने महाराष्ट्र में हमें अखण्डता लानी है। अच्छा है कि हम सब छत्रधारी आपस में मिलकर उपाय सोचें । पर क्या किसी सुना? मैंने पुस्तक लिखी, प्रचार किया, पार्टी बनायी । अन्त तक उनकी कोशिश रही कि न मुझे गिनें, न मेरी सुनें । आखिर शस्त्र की ही दलील उनके कानों उतरी और मुझे राजा बनना पड़ा। अब भी शक्ति की ही ये सुनेंगे और मुझे ही वह काम करना होगा।

यशोविजय की निष्पुत्रा पत्नी वसन्ततिलका ने कहा, "सुनो जी, तुम क्या जयवीर पर चढ़ाई करने की सोच रहे हो? तुम्हें अब क्या कमी है ? फिर उत्पात किसलिए ?"

यशोविजय ने कहा, “वसन्त, यह न समझो कि मैं तुम्हें नहीं देखता हूँ । रूप के लिए मेरे पास आँखें हैं। पर इतिहास हमसे ही न बनेगा तो वह और किसको लेकर बनेगा ? वसन्त, पति और पिता बनकर रहने वाले तो असंख्य हैं। कोई इतिहास का बनकर रहने को तैयार नहीं होगा ? वसन्त, ऐसे आदमी को युद्ध से विरक्त करोगी तो फिर उसके लिए रह क्या जाएगा ? संघर्ष में से विकास आता है। अपने इस महाराष्ट्र को संगठित पूँजीभूत शक्ति के रूप में विश्व के समक्ष हमें खड़ा करना है। उसमें अनेक लोगों को और उनकी अनेकता को बीच में टूटकर गिरना हो तो क्या तुम बीच में आकर मुझे उन पर दया दिखलाओगी? यशोविजय को तुम गलत समझी हो वसन्त, अगर तुम ऐसा समझती हो। "

वसन्ततिलका ने कहा - " लेकिन जयवीर और यशस्तिलका की सहायता से ही आज तुम राजा हो, यह क्या तुम्हें याद नहीं है।"

यशोविजय—‘“भाग्य में सब काम आते हैं वसन्त, लेकिन भाग्य पर किसी स्मृति का बोझ नहीं होता है । भाग्य असम्पृक्त और वह अमोघ भी है। मैं जयवीर के साथ अपने नाते की ओर देखूँ या यह देखूँ कि वह हमारे राष्ट्र की एकता में बाधा है ? वही एक व्यक्ति है जो महाराष्ट्र संघ में नहीं आना चाहता और जिसके कारण कुछ लोग भी छिटके हुए हैं।"

वसन्ततिलका बोली - " लेकिन बहन यशस्तिलका ?"

यशविजय सुनकर मुस्कराये। कहा - " उसकी अवस्था बीती नहीं है। फिर विवाह हो सकता है। "

वसन्ततिलका (चौंककर ) - " तुम उसे विधवा करोगे ?"

यशोविजय (भृकुटी वक्र करके) - " मैं कुछ नहीं करूँगा, पर जो होगा वह क्या मैं जानता हूँ? तुम स्त्रियों की विवाह से आगे गति नहीं । यशस्तिलका ! तुम जानती हो कि वह क्या चाहती है ? पति को कोई स्त्री नहीं चाहती।"

वसन्ततिलका—(व्यंग्य से) "न पत्नी को कोई पुरुष चाहता है, क्यों ?"

यशोविजय – “पुरुष का यह काम नहीं है। स्त्री पीछे चली आने को है। चाह का खर्च स्त्री पर कापुरुष ही करते हैं। "

वसन्ततिलका–‘“मैं समझी, तुम यशस्तिलका को विधवा बनाओगे। कहो, अपना बदला लोगे, यही न?"

यशोविजय –“हाँ, शायद । लेकिन उसके प्रेम के कारण यशस्तिलका ने जयवीर को नहीं बरा है, मेरे प्रेम के कारण उसने ऐसा किया है। यह मेरा कर्तव्य है कि मैं उसके प्रेम को मुक्ति दूँ ।"

वसन्ततिलका–“ और ऐसे मुझको भी मुक्ति दो ! क्यों ?"

यशोविजय—'वसन्त तुम भूलती हो। मैं इन चीजों के लिए नहीं बना हूँ । यशस्तिलका मुझे चाह सकी, पर स्वीकार नहीं कर सकी। वह समाज जहाँ व्यक्ति का कुल इतना प्रधान है कि प्रेम को व्यर्थ करता है, वह समाज जीर्ण है । यशस्तिलका के विवाह के क्षण से मैंने यह देख लिया। तब से तय किया कि समाज की ऊँच-नीचता को एक बार चीर कर मुझे राजा बनना होगा। जाति और कुल की बेड़ियों की जकड़ को खण्ड-खण्ड कर डालना होगा। उसी क्षण तय किया कि यशस्तिलका की बहन- तुमसे मुझे विवाह करना होगा ! चौंको नहीं। यह नहीं कि तुम अपूर्व सुन्दरी नहीं हो, पर विवाह से मैंने यह बतलाना चाहा कि समाज की मान-मर्यादाएँ झूठी हैं, कृत्रिम हैं । मैं अकेला हूँ। विवाह न मुझे यशस्तिलका से चाहिए था, न तुम्हारे विवाह का मेरे निकट उपयोग है। पर समाज की विषमताओं को बीच में से टूटना होगा। हमने क्या यह जंजाल फैला रखा है ? इसी को लेकर बड़े उठते और छोटे गिरते जा रहे हैं। वे ऐश करते हैं, ये तरसते हैं। मेरे पास जीने के लिए काफी काम है। समाज के स्वरों को बीच से चीरते हुए मुझे वहाँ उठते जाना है जहाँ कोई स्तर शेष नहीं है। तब लोग देखेंगे जिसको अनादि और अटूट माना था वह वर्गभेद बिखरा पड़ा है। वह सब प्रपंच था और मनुष्य उसके पार है। वसन्त, तुम यह चाहती हो कि मैं जयवीर का उपकार मानूँ और अपने काम में यहीं रुक जाऊँ ? चाहती हो कि मैं न रहूँ ?"

वसन्त - "नहीं, जयवीर पर चढ़ाई न करो !”

यशोविजय–“कौन जयवीर ? जयवीर को मैं क्या जानता हूँ? मैं उस आदमी को बर्दाश्त नहीं कर सकता जो इस महाद्वीप की एकता में विच्छेद डालता है। उसका नाम जयवीर है तो इसमें मेरा कोई दोष नहीं। तुम अपनी बहन को कहो कि वह तुम्हारे बहनोई को साथ लेकर सदा के लिए तुम्हारे साथ आ रहे। तब देखोगी कि उनके सत्कार में किसी प्रकार की त्रुटि नहीं होती है। पर राजकारण बहन-बहनोई को नहीं जानता।"

वसन्ततिलका ने कहा, “पर जयवीर कम शक्तिमान तो नहीं है। युद्ध में भीषण रक्तपात होगा। विजय क्या निश्चित है ? फिर जयवीर को मैं नहीं खो सकती तो तुम्हें ही खोने को कब तैयार हूँ ?"

यशोविजय सुनकर हँसे और बोले, "मैं तुम्हारे किस काम का सिद्ध हुआ हूँ कि मुझे रखने का तुम्हें लोभ होना चाहिए ?"

वसन्ततिलका ने जोर से रोककर कहा, "बस, चुप करो। "

यशोविजय ने गम्भीर होकर कहा, "लेकिन मैं नहीं खोया जाऊँगा । वसन्त, जो काम मुझमें रखकर यहाँ मुझे भेजा गया है, वह हो न जाएगा तब तक भगवान मुझे भला कैसे उठा सकेंगे !"

वसन्त- " तो तुम चढ़ाई ही करोगे ? और उपाय नहीं है ?"

यशोविजय—“नहीं, मैंने दूत भेजे हैं। चाहो तो उसी हैसियत से तुम हो आओ। मैं युद्ध नहीं चाहता, बचना चाहता हूँ । पर यह जयवीर के हाथ है। महाराष्ट्र संघ में अपना उचित प्रतिनिधित्व लेकर जयवीर सन्तुष्ट नहीं हो सके तो फिर मेरा अपराध क्या ? हमारी यह भूमि कब तक फूट का आँगन बनी रहेगी ! आखिर कभी तो विधान आएगा ! विधान का मसविदा जयवीर को भेज दिया गया है। तीस में से इक्कीस राजाओं ने उसको मान लिया है। शेष बस यह है कि सब मिल-बैठकर अपना अधिनायक चुन लें। यह किया-कराया काम इसलिए चौपट होने दिया जाए कि जयवीर राजी नहीं है और वह नातेदार है ? जाओ, जाकर उसे कहो कि इक्कीस राज्यों की ओर से यशोविजय इस दिशा में कदम बढ़ाकर अब पीछे हटनेवाला नहीं है । कहना, पन्द्रह रोज का अवकाश है। मैं व्यक्ति नहीं हूँ, स्वतन्त्र नहीं हूँ। मैं प्रतिनिधि हूँ और विधानाधीन हूँ। समय रहते यह सब हो जाना चाहिए। नहीं तो कहना कि भाग्य दुर्निवार ही है ।

वसन्ततिलका—‘“हाँ, मैं जयवीर के पास जाऊँगी। लेकिन...।"

यशोविजय - " अवकाश के पन्द्रह दिन से अधिक नहीं है।"

वसन्ततिलका—“लेकिन मैं वापस न आऊँ तो ?"

यशोविजय (भृकुटी समेटकर ) - " अवकाश पन्द्रह दिन का है। आगे तुम जानो। "

वसन्ततिलका–“तुम्हें निश्चय है कि ईश्वर तुम्हारी ओर है ?"

यशोविजय - " ईश्वर किसी की ओर नहीं होता, वसन्त ! निःस्वार्थ की ओर होता है। मैं नि:शंक हूँ ।"

वसन्ततिलका–“तुम राज्य बना रहे हो, राज्य को अब साम्राज्य बना रहे हो। पर किसके लिए ? तुम्हारे तो कोई पुत्र भी नहीं है ! "

यशोविजय – “ठीक कहती हो, वसन्त ! राज्य का साम्राज्य बना रहा होता तो कोई उसके लिए होना चाहिए था, पर कोई नहीं है। तुम जानती हो कि तुम तक नहीं हो। तब यही न कि मुझे न राज्य बनाना है, न साम्राज्य बनाना है। मुझे यहाँ आकर भगवदादेश पालना है।"

आँखों में आँसू लाकर वसन्ततिलका ने कहा, "तुम्हें किसी का भय नहीं है, स्वामी ?"

यशोविजय ने आश्चर्य से पूछा, "भय! किसका ?"

वसन्ततिलका बोली, “पराजय का, मृत्यु का, भाग्य का, ईश्वर का ? किसी का भय नहीं ?"

यशोविजय ने हँसकर कहा - " जाओ वसन्त, जयवीर के पास जाओ । कहना मुझे भय नहीं है। इससे लज्जा और लिहाज भी नहीं है।"

वसन्ततिलका ने कहा, “एक बात मेरी सुनोगे ? तुम निस्पृह हो, इससे कह रही हूँ। जयवीर में उतनी क्षमता नहीं है। तुम उसकी अधीनता स्वीकार कर लो तो क्या हर्ज है? तुम तो समर्थ हो !”

यशोविजय, "कोई हानि नहीं, वसन्त ! पर जयवीर में इतना भी तो साहस नहीं कि यही बात खुलकर कह सके। यह तो मैं सोचता ही था कि उसको केन्द्र बनाकर सबको एक विधान की अधीनता में गूँथ लूँगा; पर अधिनायक केवल नाम का हो तो उससे कूटचक्र की सृष्टि होगी, तब वहाँ सड़ाँध हो जाएगी। मेरी यही तो कठिनाई है, वसन्त ! जयवीर न मुझे मानेगा, न अपनी अधीनता में लेगा। मैं सत्ता नहीं चाहता, पर एकता तो चाहता हूँ। मुझे कोई दूसरा आदमी नहीं दिखता। सब अपने-अपने चक्र में, अपने-अपने राजहित की भाषा में सोचते हैं। महाराष्ट्र उनके बल पर कैसे बनेगा, तुम्हीं सोचो। मुझे क्षमा करना । तुम्हारी कविताओं की स्तुति मैंने मुँह से नहीं, हृदय से की थी। हत्या नहीं, मुझे प्रेम ही प्रिय है। पर प्रेम तो दुःख है। दुःख में से सृष्टि होती है, वसन्त ! एक समूचे महाराष्ट्र को जन्म लेना है। उसकी पीड़ा कम नहीं होगी । पर उसको सह जाना होगा। जयवीर और मैं काफी साथ रहे हैं। महाराष्ट्र की एकता में निष्ठा उसे दुर्लभ है। बताओ, तब मैं क्या करूँ ? अधिक नहीं, इतना तो वह करे कि नवसर्जन के इस संक्रान्ति काल में वह चुप ही बैठे। मेरे व्रत में बाधा तो न बने। वसन्त, तुम मानती हो कि राजा होकर यशोविजय कुछ और हो रहा है ! इनकार न करो। तुम्हारे चेहरे पर यह लिखा है। पर यह बात नहीं है। मैं वही हूँ, जिसने तुम्हारा चित्त जीता और जिसको तुमने अपने हृदय का समस्त काव्य दिया। लेकिन वसन्त, समय विषम है और मैं भी स्वाधीन नहीं हूँ । जाने भाग्य की किस श्रृंखला से बँधा हुआ हूँ। आवर्ती में से मेरी गति है । और जीतकर भी किसी का हृदय लेने की मुझे स्वतन्त्रता नहीं है । ऐसे व्यक्ति को दोष दे सकती हो, लेकिन क्या उस पर दया भी नहीं कर सकती हो; वसन्त ! और यशस्तिलका- मैंने झूठ नहीं कहा, वसन्त, कि जयवीर के न रहने पर उसे लौकिक क्षति कितनी भी हो, आभ्यन्तर में दोनों अपरिचित हैं। लेकिन तुम्हारे द्वेष की भी वह बात नहीं है।"

वसन्ततिलका, “सच बताओ, क्या यह सच है कि यशस्तिलका अपने पति को युद्ध के लिए उभार रही है ?"

यशोविजय, “सुनता तो हूँ, पर जासूस मन तक तो नहीं पहुँच सकते।”

वसन्ततिलका, ‘“तब क्या बहन यही न समझेगी कि तुम्हारे पक्ष में जयवीर को झुकाने आयी हूँ ।"

यशोविजय, “मेरे पक्ष में ? भविष्य के पक्ष में कहो, वसन्त, तो इसमें अन्यथा क्या है ?"

वसन्ततिलका, ‘“बहन क्या चाहती है ? हममें से किसी का घर बर्बाद देखना चाहती है ?"

यशोविजय (गम्भीर भाव से), "हाँ, शायद अपना ही घर बर्बाद देखना चाहती है।"

वसन्तलिका अपने पति की गम्भीरता को देखकर घबरा गयी । उसने निश्चय किया कि युद्ध को टालना होगा। वह जयवीर के पास पहुँची। कहा, “मैं सन्धि का प्रस्ताव लेकर आयी हूँ । तुम दोनों मिल जाओ तो क्या अजय न हो जाओ ? आखिर रक्त-पात क्यों?"

जयवीर, "वसन्त, यशोविजय अपने को बहुत गिनता है। मैं क्या कर सकता ? कायर तो नहीं बन सकता ?"

वसन्ततिलका, " पर मित्र तो बन सकते हो। मैं उसी की भीख माँगने आयी हूँ।"

जयवीर, "क्या वह मित्र चाहता है ? वह तो मातहत चाहता है। नया राजा बना है न? प्यादे से फरजी हुआ है तो टेढ़ा क्यों नहीं चलेगा ?"

वसन्ततिलका, “जयवीर, यह कहना तुम्हारे योग्य नहीं है। अपने बल से उन्होंने राज बनाया है। मिले से बनाया गया राज बढ़कर है। अपने मन में से उनके लिए दुर्भाव निकाल दो, जयवीर ! मैं कहती हूँ, तुम लोग मित्र हो जाओ।"

जयवीर ने हँसकर कहा, "उसके दूत यहाँ आये बैठे हैं। सिर पर तलवार लटकाकर यशोविजय सन्धि के लिए कहलाता है। यह क्या मित्रता की माँग है ? यह तो हुक्म है, जो अधीनों को दिया जाता है। मैं तो चाहता था कि हममें मेल रहे । क्या मैंने उसे सहायता नहीं दी ? लेकिन राज पाकर उसे मद हो गया है । "

वसन्ततिलका ने आग्रह से कहा, "मद नहीं, जयवीर ! उनको गलत न समझो। उन्हें तुमसे द्वेष नहीं। उन्होंने मुझे इसीलिए भेजा है। एक बात तुम मान लो कि तुम महाराष्ट्र संघ में हो जाओगे। आगे उन्हें कुछ नहीं चाहिए। संघ में अपना प्रतिनिधित्व तुम बढ़वा सकते हो।"

जयवीर उत्तर में कुछ कहे कि यशस्तिलका वहाँ आ पहुँची। आते ही बोली, "महाराष्ट्र संघ ! वह यशोविजय का ढकोसला है। यह उसमें शामिल होंगे तो मैं इनके साथ न रहूँगी। वह उद्दण्ड अपने चक्र में सबको फाँसना चाहता है ।"

वसन्ततिलका – "बहन, क्या कह रही हो?"

जयवीर –‘“संघ का विचार बुरा नहीं है। पर यशोविजय पर विश्वास के लिए प्रमाण चाहिए।"

वसन्ततिलका ने कहा, “प्रमाण में आप क्या चाहते हैं ?"

जयवीर ने कहा, “यह राजनीति का प्रश्न है, वसन्त ! इस बारे में मैं तुमसे किस अधिकार की बात करूँ ? क्या यशोविजय जैसे मैं कहूँ वैसे चलेगा।”

वसन्ततिलका, "वह संघ चाहते हैं, संघ को शक्तिमान चाहते हैं । इसके अतिरिक्त वह कुछ भी मान सकते हैं, मैं मनवा सकती हूँ । मुझे बताओ - कैसे तुम्हें विश्वास हो सकता है और तुम संघ में आ सकते हो ?"

जयवीर, “तो सुनो, वसन्त ! संघ में यशोविजय न जाए, न अधिनायक पद के लिए खड़ा हो। "

इस समय यशस्तिलका, जो चुप थी, हठात बोल उठी, "यह कैसे हो सकता है ! यशोविजय के बिना संघ व्यर्थ है और अधिनायक बने बिना यशोविजय व्यर्थ है। क्यों जी, वह तुम्हारी शर्तें मान भी जाएँ तो तुम भी मान जाओगे ?"

जयवीर ने अपनी पत्नी की ओर देखकर कहा, "इसमें क्या हर्ज है ? यशोविजय अलग रहे तो संघ का अधिनायक मैं हो सकता हूँ। "

यशस्तिलका–“ तुम? अधिनायक ?" कहकर वह एकदम हँस पड़ी। बोली, "वह होने देगा ?"

वसन्ततिलका–‘"मैं वचन देती हूँ, बहन, कि संघ का बहुमत यह चाहेगा तो वह बीच में नहीं आएँगे।"

यशस्तिलका फिर जोर से हँस पड़ी। बोली - " संघ का बहुमत ! वसन्त, तू विनोद तो नहीं कर रही है ? न कहीं संघ है, न बहुमत है। एक तुम्हारे स्वामी हैं और उनकी यह माया है। उसके लिए तुम यह जाल डालने क्यों आयी हो ? तुम्हारी बहन अन्धी नहीं है। "

वसन्तलिका बहुत घबराई हुई बोली, "यह क्या कहती हो, बहन ?"

यशस्तिलका गम्भीर भाव से बोली, "तू जा, वसन्त ! कह देना कि सब बात वृथा है । सन्धि के लिए कोई दूत न भेजें। नातेदारों से सन्धि नहीं हुआ करती। वह युद्ध चाहते हैं । कहना, जो वह चाहते हैं, होगा ।"

वसन्ततिलका ने कातर होकर कहा, "पर वह युद्ध नहीं चाहते हैं, बहन ! तुम क्या उन्हें भूल गयी हो ? फिर युद्ध उनके सिर क्यों डाल रही हो ? मुझे विश्वास है कि संघ उनके बिना चल सकेगा, तो उन्हें राजी कर लूँगी कि वह अलग रहें। फिर जयवीर अधिनायक बनें, इसमें क्या बहन, तुम्हे खुशी नहीं होगी । "

यशस्तिलका बोली, “व्यर्थ बात न कर वसन्त ! तू जानती है कि उनके बिना कुछ न होगा। इससे वह अलग भी न हटेंगे। खैर, इन बातों से होता क्या है ? उससे कह देना कि यश वही है जिसके रक्त में राजत्व है। कल का जो बना हुआ राजा है उसकी ओर का कोई सन्धि- प्रस्ताव वह नहीं सुन सकती । "

जयवीर ने कहा, "यश, यशोविजय बीच से हट जाएँ तो संघ स्थापना का विचार अच्छा ही है । ( वसन्त से) लिखित वचन तुम उससे दिला सकोगी ?"

वसन्ततिलका—“हाँ, शायद दिला सकूँगी।"

जयवीर - (यशस्तिलका से) "तो इसमें क्या हर्ज है, यश! लड़ाई में बर्बादी है और विजय अनिश्चित है ।"

यशस्तिलका जोर से बोली, "क्यों नहीं कहते कि तुम कायर हो और युद्ध से बचते हो ?"

जयवीर –“हाँ, युद्ध से बचता हूँ । कारण, एक तो उससे बचना ही चाहिए, दूसरे तुम - सी सुन्दरी का सौभाग्य अखण्ड रहना चाहिए ।"

यशस्तिलका इस पर चिढ़कर बोली, "मेरा सौन्दर्य तो तभी गया जब कायरता की बात तुम्हारे मन में आयी । मेरा सौभाग्य यश है, कापुरुषता दिखाकर मेरा अपमान कराना चाहते हो ? (वसन्ततिलका से) सुनो जी, और कह देना कि अगर उसकी बात में सच हो तो कोई दूत न आए। और अब तुम्हारे बहनोई को वह युद्ध - क्षेत्र में ही आकर मिलें। "

वसन्ततिलका हैरान होकर वह बोली, "बहन !”

जयवीर भी आगे कुछ न कह सका।

यशस्तिलका ने कहा, " वसन्त, अब इन्हें छोड़ दो। यहाँ आओ ।"

अलग जाकर दोनों बहनों में बात हुई । वसन्ततिलका बहन के लिए यशोविजय का एक मोहरबंद पत्र लायी थी । पत्र पढ़कर यशस्तिलका पीली पड़ आयी ।

यशस्तिलका बोली, “नहीं, वह यहाँ न आएँ । यहाँ बहुत खतरा है। उन्हें यह क्या सूझा जो यहाँ आना चाहते हैं ?"

वसन्ततिलका--‘“उन्होंने कहा था कि यदि कुछ और सम्भव न हो तो मैं यह पत्र तुम्हें दे दूँ। बहन ! हम दोनों अनिष्ट को टाल नहीं सकती ?"

यशस्तिलका देर तक निरुत्तर खड़ी रही । अनन्तर खोयी-सी बोली - " वह आएँगे? नहीं, वह नहीं आएँगे।"

वसन्ततिलका-" उन्हें एक भी अवसर न दोगी, बहन ? वह तुम्हें अब भी चाहते हैं।"

यशस्तिलका –“मुझे चाहते हैं! पागल तो नहीं हुई हो ?"

वसन्ततिलका-" और बहन, मुझे नहीं चाहते !"

झट से यशस्तिलका बोली, " वसन्त, तुम्हारा दिमाग़ खराब हो गया है।" वसन्ततिलका–“ तो जाने दो, बहन ! यह कहो, क्या किसी तरह वह तुम्हें मिलकर समझाने का अवसर नहीं पा सकते ?"

“नही, बहन! नहीं। यहाँ उनकी खैर नहीं है । कह देना कि ऐसा न सोचें और बहन, हम लोग कुछ नहीं कर सकतीं। अपने विवाह तक पर तो हमारा वश नहीं है। आगे हम क्या कर सकती हैं ? युद्ध होगा तो हो । जाओ बहन, कह देना कि किसी को किसी पर दया करने की जरूरत नहीं है । "

वसन्ततिलका सब तरह की कोशिश करके थक गयी। और लौटकर सब हाल उसने पति को कह सुनाया।

सुनकर यशोविजय कुछ विचारते रह गये। फिर कहा, "वसन्त, यश पागल हो गयी है। मैं उससे मिलने जाऊँगा ।"

वसन्ततिलका, “पर उसने मना किया है। और तुम्हारा लौटकर आना कठिन है।"

यशोविजय हँस पड़े । बोले-" कठिन, मैं नहीं जानता, वसन्त ! यह जानता कि समय से पहले मेरा मरना असम्भव है और उधर यश एकदम बौरा गयी है। तुम्हीं कहो, मैं रुक सकता हूँ?"

और यशोविजय नहीं रुके।

यशस्तिलका बहुत घबरा गयी जब परिचारिका के हाथ उसने पत्र पाया कि यशोविजय से आधी रात के समय वह स्वयं बाहर आकर कुंज में न मिली तो वह शयन कक्ष में आएँगे ।

यह सूचना पाकर वह किसी तरह कुछ भी अपने लिए निश्चय न कर सकी। जाने का समय हुआ तो कुंज में भी न जा सकी। वह जाग रही थी और जाना चाहती थी, पर पाँव जैसे बँध गये थे। वह उस समय पलंग पर उठकर बैठी थी, पर उतरकर चलना उसके लिए सम्भव नहीं हुआ। ऐसे बैठी रहकर अन्त में सब बत्तियाँ बुझाकर वह फिर लेट गयी।

यशोविजय ठीक समय पर कक्ष में आ उपस्थित हुए । बत्ती जलाकर देखा कि यश पलंग पर आँखें मूँदे लेटी है। सीधे सिरहाने बैठकर यशोविजय ने हाथ पकड़कर कहा, "यशस्तिलका, उठो, तुम सो नहीं रही हो।"

वह घबराई -सी उठी। चौंककर बोली, "कौन ?”

यशोविजय ने हँसकर कहा, "मैं हूँ यशोविजय। उधर का दरवाजा बन्द तो है ? इधर का मैं बन्द कर चुका हूँ !"

जैसे हैरत में हो यशस्तिलका ने कहा, "तुम ऐसे समय क्या चाहते हो ?"

यशोविजय – “मैं बात करना चाहता हूँ यश, और यह जानना चाहता हूँ कि हमारी बात कोई सुनेगा तो नहीं ?"

यशस्तिलका –“ तुम कैसे आये ? क्यों आये ? किसकी इजाजत से आये ?"

यशोविजय ने हँसकर कहा, "वह देखा जाएगा, यश ! मुझे जल्दी जाना है। मेरी बात सुनो। यह बताओ कि तुम मुझसे अभी तक नाराज हो ?"

कहते-कहते यशोविजय ने हाथ से सँभालकर उसे तकियों के सहारे बिठा दिया ।

यशस्तिलका ने कहा, “मुझसे तुम्हें क्या काम ? मुझे तुमसे कोई काम नहीं। " यशोविजय ने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा, "नहीं यश, यह सच बात नहीं है। दोनों को दोनों से काम है। सबको सबसे काम हुआ करता है। तुम मुझसे क्या चाहती हो? तुम जानती हो कि तुम्हारी वजह से मैं राजा बना। मैं तो अपने ढंग का कवि था। तुमने कहा कि राजा बनूँगा तब तुम बोलोगी। अब देखो, राजा हूँ । अब तो बोलने से इनकार नहीं कर सकती । "

"मुझे इससे क्या ? राजा से अब महाराजा बनो तो इसमें मुझसे अब कहने आते हो ?" यशस्तिलका ने कहा ।

यशोविजय और पास सरक आये। यशस्तिलका की ठोड़ी में हाथ डालकर कहा,

"सुनो, यह जयवीर से बैर न करो। इतना नहीं कर सकोगी, रानी ?"

हाथ को झटके से अलग करके यश बोली, "क्या बकते हो ?"

यशोविजय ने कहा, "मेरे दोष के लिए जयवीर को दण्ड न दो, रानी। वह तुम्हारे बच्चों के पिता हैं। "

यशस्तिलका बेहद क्रुद्ध होकर बोली, "हट जाओ, मेरी आँखों के सामने से। तुम हो कौन, जो यों सताने आए हो?"

यह उत्तर पाकर यशोविजय उस कमरे में ही कदम रखकर घूमने लगे । यशस्तिलका सामने बैठी निर्निमेष देखती रही। धीरे-धीरे उसकी आँखें भर आयी और उनमें से आँसू बह चले ।

यशोविजय घूम रहे थे। वह अपने विचार में लीन थे । सहसा अपने ही हाथ झटकाकर बोले, “मुझे समय कम है।"

कहने के साथ ठिठककर वह यशस्तिलका की ओर मुड़ने को हुए। उस समय तक काफी आँसू यशस्तिलका की आँखों से व्यर्थ भाव से बहकर सूख गये थे, पर आँखें स्थिर थीं और आँसुओं की रेखा साफ दीख पड़ती थी । यशोविजय ने एकाएक आगे बढ़कर उसे गोद में लेते हुए कहा, "यह क्या! तुम रो रही थीं ! भला क्यों ?"

यशस्तिलका गोद में गिरकर फूट-फूटकर और भी रोने लगी। बोली नहीं।

यह अप्रत्याशित व्यापार था । यशोविजय ने कहा, "क्यों- क्यों, क्या बात है ?"

यशस्तिलका रोती रही। कुछ नहीं बोली। और थोड़ी देर बाद वह चुप होकर उठी तो बोली, “तुम जाओ यशोविजय, यहाँ न रहो।"

यशोविजय ने कहा, “लेकिन मुझे बताओ, मैं क्या करूँ ? लड़ना नहीं चाहता हूँ । राजा होना, अधिनायक होना, कुछ नहीं चाहता हूँ। पर राष्ट्र संघ का स्वप्न मेरा पुराना है। तुम तो सब जानती हो । उसके बल पर कवि था तो तब रहता था, राजा हूँ तो अब रहता हूँ, वह गया तो मैं किसके लिए रह जाऊँगा ? तुम उस वक्त मेरी हँसी उड़ाती थीं और मुझे पागल कहती थीं। अब भी हँसी उड़ा सकती हो और पागल कह सकती हो। लेकिन मैं क्या तब तुमसे नाराज हो सका था कि अब नाराज होऊँ ? यश, तुम्हें मुझमें विश्वास नहीं है?"

यशस्तिलका जोर से बोली, "क्या विश्वास नहीं है ? चुप रहो । "

यशोविजय कहता रहा, “हम आपस में लड़ते-झगड़ते रहे हैं। एक देश दूसरे देश का दुश्मन है। छीना-झपटी और मार-काट मचती रही है। इसका अंत कब होगा ? यह शर्म की बात है, यश ! कि हम लड़ें और अपनी-अपनी सोचें । मैं आगे बढ़कर जान देने को तैयार हूँ। अगर उससे सब मिल सकें । संघ बनने पर मुझे एक तरफ किया जा सकता है, किन्तु यह लज्जाजनक दृश्य तो हमारे महाराष्ट्र की भूमि पर से मिट जाना चाहिए । यहाँ अनेक राज्य और राजे हैं और सब एक दूसरे की घात में हैं। छल और कपट से राजनीति छा गयी है। कूटचक्र का जाल फैला है। आदमी सरल नहीं रह गया है, कुटिलता सीखता जाता है। यश, मैं वही स्थिति लाना चाहता हूँ जहाँ दबाव न होगा और व्यक्ति प्रकृत भाव से रहेंगे। प्रकृत भाव मित्रभाव है, वह आपाधापी नहीं है। वह सहयोग और सहकार है यश, तुम इस काम में मेरी सहायता नहीं कर सकती हो?"

यशस्तिलका ने मुस्कराकर कहा, "यशोविजय, तुम वही पहले से पगले हो । मैं समझती थी, राजा हो गये हो; पर कुछ नहीं, तुम अब भी बोलने लायक नहीं हो ।”

यशोविजय ने यशस्तिलका के इस निर्बन्ध भाव पर प्रसन्न होकर कहा, "हाँ, यश ! मैं वही हूँ, पागल हूँ; लेकिन पागल जानकर ही तुम मेरी मदद करती रही हो । अब क्या उससे विमुख होगी ?"

उस समय यशस्तिलका ने गम्भीर भाव से कहा, “सुनो, यशोविजय! तुम पागल होकर समझदारी की बात न करो। पागल की कोई पहचान नहीं होती। उसके लिए जैसा युद्ध वैसी शान्ति । जैसा एक, वैसा दूसरा । "

कहते-कहते वह रुकी और उसकी आँखें भर आयीं। फिर आगे कह निकली, "जैसी यशस्तिलका, वैसी वसन्ततिलका । जैसा अपना, वैसा पराया। फिर पागल होकर यह क्या मोह में पड़े हो कि युद्ध रोकने को मुझसे मिलने आए हो ? पागल तो कभी नहीं घबराता !"

यशोविजय ने कहा, “घबराता नहीं हूँ, यश ! पर यह युद्ध अनिवार्य नहीं, प्रकृत नहीं है। जयवीर शत्रु नहीं है। यश, तुम जानती हो, वह लड़ाई सच्ची नहीं होगी और तुम्हारे मन की गाँठ को और कस देगी। यश, गाँठ को खोल क्यों नहीं देतीं ? उसे कसती ही क्यों जाती हो ?"

यशस्तिलका ने स्पष्ट भाव से कहा, "यशोविजय, अपनी मर्यादा का तुम्हें ध्यान रखना चाहिए। युद्ध नहीं टलेगा। बाधाएँ कम करके फल का मूल्य ही घटाओगे। यह नहीं होगा, यशोविजय । युद्ध में से तुम्हें गुजरना होगा।"

यशोविजय ने भी असंयत होकर कहा, "और जयवीर को तुम्हारे लिए बलि होना होगा। नहीं, यह नहीं होगा, यह बराबर में उन्हीं का शयन गृह है न ?" कहकर यशोविजय उस ओर का द्वार खोलने आगे बढ़े।

यशस्तिलका भयभीत हो पड़ी। बोली, "हें हें ! उधर कहाँ जाते हो?"

द्वार पर पहुँचकर उसे खोलने की चेष्टा करते हुए यशोविजय ने कहा, "जयवीर को जगाकर कहूँगा, यह मैं हूँ । तुम्हारे शयन कक्ष से आ रहा हूँ।"

यशस्तिलका ने कुछ नहीं सुना। भागती हुई आकर उसने यशोविजय की बाँह पकड़ ली। कहा, “अपने पर दया करो, यशोविजय ! क्या तुम्हें पता है कि तुम कहाँ हो ! अब भी तुम मृत्यु के मुँह में हो। यश लो, मेरी बात सुनो। "

यशोविजय को पकड़कर वह लौटा लायी, पर यशोविजय की मुद्रा अब भी कठिन थी। उसने कहा, "हिंसा से मुझे डर नहीं है। लेकिन जयवीर का बलिदान तुम न दे पाओगी। मेरे हाथों तुम वह नहीं करा सकतीं। मैं जान चुका हूँ कि वह संघ के विमुख नहीं, तुम्हीं उसे भड़का रही हो।"

यशस्तिलका क्रोध से बोली, "हमारे बीच में पड़नेवाले तुम कौन होते हो ?"

उसी भाव से यशोविजय ने कहा, "तुमको बलि चाहिए तो मैं हूँ। मैं अभी जाकर जयवीर के हाथों अपने को पकड़वा दूँगा । तब तुम्हें शान्ति होगी !”

यशस्तिलका, “मुझे शान्ति ? तुम्हें क्या हो गया है ?"

यशोविजय, “यश, पति निकृष्ट नहीं होता वह देवता होता है। उसी से स्त्री का सौभाग्य है। जयवीर क्या इसलिए अविचारणीय है कि वह पूरी तरह तुम पर विश्वास रखता है ? इसलिए उसे मुझसे टक्कर लेकर खण्ड-खण्ड होना होगा - क तुम चाहती क्या हो ?"

यशस्तिलका, ‘“हाँ, तुम्हारे लिए यह सब मुझे करना होगा ।"

यशोविजय, “यश, चुप रहो । मेरे लिए करना होगा ? क्या मैं राक्षस हूँ?"

यशस्तिलका अत्यन्त गम्भीर हो गयी। बोली, “प्रिय, मैं नहीं जानती तुम क्या हो। पर मेरा सब-कुछ तुम्हारे रास्ते में चूर्ण- चूर्ण नहीं हो लेगा, तब तक तुम्हारा काँटा नहीं टलेगा और मेरी मुक्ति नहीं होगी । "

यशोविजय ने आवेग से कहा, "यश!"

यशस्तिलका भारी वाणी से बोली, "मेरे प्रिय, तुम जानते हो कि जगत में एक मेरे ही पक्ष में तुम कमजोर हो। मैं इसे नहीं सहूँगी। मैं तुम्हें रंचमात्र भी कमजोर नहीं होने दूँगी। मैं न होती तो क्या तुम जयवीर के विचार पर तनिक भी अटकते ? मैं हूँ तो भी तुम नहीं अटकने पाओगे। यशोविजय, मेरे राजा, तुम राजा बने हो, यह काफी नहीं है। तुम्हें सम्राट बनना होगा। रास्ते में तुम्हारी यशस्तिलका विधवा बने, या कि मरे, तुम्हें रुकना नहीं होगा । और यह भी समझ रखो कि उस राह में यश जितनी काम आएगी, उतनी यथार्थ में वह सिद्ध होगी। इसको भावुकता समझकर तुम उड़ा देना चाहते हो तो तुम जानो, पर मेरा दूसरा अभीष्ट नहीं है।"

यशोविजय यह सुनकर स्तब्ध रह गये। कहा, "क्या इसीलिए कविता से हटकर स्वप्न की कर्म में पूर्ति करने के मार्ग पर मैं चला था ? क्या यही तुम्हारी प्रेरणा थी ? क्या इसी के लिए तुमने मुझे ठेलकर राजा बनने को मजबूर किया था ?"

यशस्तिलका–‘“हाँ, इसीलिए कि विजयी बनो । विवाह करके तुम साधारण हो जाते; पर तुम्हें असाधारणता की राह चलना होगा। मुझे दिया वह प्रण भूल गये कि महाराष्ट्र की अखण्डता तुम्हारा व्रत होगी और बीच में कोई वस्तु तुम्हें रोक न पाएगी। लेकिन यह क्या तुम मुझी पर रुकते हो ?"

यशोविजय ने भर्त्सना के स्वर में कहा, "मायाविनी, अगर मैं भी सब छोड़कर चला जाऊँ तो...?”

यशस्तिलका किंचित कटाक्ष से मुस्कराकर बोली, “यही तो कहती हूँ। तुम नहीं जा सकोगे । जिस स्वप्न पर तुमने अब तक तमाम जीवन व्यय किया है, वह तुम्हें अपनी ओर खींचे बिना न रहेगा। तुम चाहो तो भी दया के वश में न होगे। छिः, दया तुम्हें तोड़ेगी ?”

यशोविजय ने कहा, “यशस्तिलका, मेरी किसी असाधारणता पर नहीं, अपनी असाधारणता पर मुग्ध हो । पर यह भ्रम है। सुनो, मैं द्वार खोलकर जयवीर के पास जा रहा हूँ। चौंको नहीं, डरो नहीं। एक बार मुझे कुछ वह भी करने दो जो तुम्हारी योजना से बाहर है। जयवीर मुझे पकड़ सकता है, सजा दे सकता है, पर वह यह न करेगा। मेरी मृत्यु अभी नहीं है, लेकिन मैं यह नहीं देख सकता कि जयवीर को मुझसे लड़ना होगा।"

यशस्तिलका - "न-न, वहाँ न जाओ। मैंने ही इस राज्य में तुम्हारे लिए नागफाँस बो दिये हैं । तुम्हारे नाम का यहाँ इतना आतंक है कि डर के कारण ही वे तुमसे घृणा करने को लाचार हैं । अवस्था यह है कि वह चाहने पर भी तुमसे सन्धि नहीं कर सकते। तुम्हारा इतना गहरा अविश्वास यहाँ फैला दिया गया है। जानते हो- क्यों ? इसलिए कि युद्ध हो और तुम विजयी हो । यहाँ एक मैं हूँ जो तुम्हें प्रेम करती हूँ। और मैं हूँ जो सब घृणा की जड़ में हूँ। यहाँ मेरे ही कक्ष में तुम सुरक्षित हो। बाहर तुम्हारी खैर नहीं है, और मैं किसी तरह तुम्हें बाहर नहीं जाने दूँगी।"

यशोविजय ने हँसकर कहा, "तुम मुझे कैद करोगी ! यह ही तो मैं चाहता हूँ। "

यशस्तिलका, “मेरे दो विश्वस्त अनुचर तुम्हें नगर से बाहर पहुँचा आएँगे, तुम किसी तरह यहाँ किसी पर प्रकट न हो सकोगे।"

यशोविजय और भी मुस्कराकर बोले, "राजा यशोविजय को इस प्रकार आने- जाने का अभ्यास नहीं है, यश ! और तुम निःशंक रहो । प्रेमवश तुम्हारी फैलायी घृणा मेरा उपकार न कर सकेगी।"

यह कहकर बिना कुछ और सुने जयवीर की ओर के कक्ष का द्वार खोलकर यशोविजय वहाँ से चले गये । यशस्तिलका भय - कातर होकर देखती भर रह गयी । सोच उठी कि क्यों न झपटकर अभी यशोविजय को आसन्न मृत्यु में से खींच लाऊँ ? पर उसके देखते-देखते दूसरी ओर से वह द्वार बन्द कर दिया गया। तब पर-कटे पक्षी की भाँति वह अपने बिस्तर पर आ पड़ी।

अगले दिन मालूम हुआ कि जयवीर सन्धि के लिए तैयार है। और दोनों ओर के मन्त्रियों की मन्त्रणा एक तीसरे स्थान पर होनी तय पायी गयी है ।

यशस्तिलका ने पति से कहा, "यह तुम्हें क्या हो गया है! दो दिन पहले तुम युद्ध को तत्पर थे। इस बीच क्या नयी बात हुई ?"

जयवीर ने कहा, "रात यशोविजय आया था।"

यश चौंककर बोली, "यशोविजय ?"

"हाँ, यह कहने आया था कि संघ के अधिनायकत्व के लिए वह मेरा समर्थन करेगा। स्वयं वह चुनाव में खड़ा नहीं होगा। इस आधार पर मैं जरूर सन्धि कर सकता हूँ।"

यशस्तिलका ने कहा, “और तुमने उसका भरोसा कर लिया?"

"हाँ, कर लिया । "

"क्या कह रहे हो ? यशोविजय का विश्वास ! "

जयवीर ने कहा, "विश्वास का कारण है। एक तो यह कि उसके पास शस्त्र और सेना ज्यादा है। दूसरे यह कि उसने मुझे बताया कि वह तुमसे मिलकर आया है ।"

सुनकर यशस्तिलका चीख-सी मारकर आँखें फाड़े स्तब्ध रह गयी । जयवीर ने कहा, “यश, तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है। तुम्हें आराम करना चाहिए ।"

" तो तुम सन्धि करोगे ?"

जयवीर ने कहा, “मैं दूसरा मार्ग स्वीकार नहीं कर सकता। यशोविजय का कहना था, मैं उसके राज्य को अपने में मिला लूँ और वह मेरे अधीन मन्त्री होने को तैयार है। शर्त यही कि सम्मिलित राज्य संघ का समर्थन करें। पर यशस्तिलका, तुम्हारी छोटी बहन का पति एक राजा से कम हो। इसमें हमारी शोभा नहीं है। इसलिए दूसरा सन्धि का मार्ग ही मैंने स्वीकार किया । "

यशस्तिलका चकित, विस्मित-सी रह गयी थी। एकाएक बोली, "यशोविजय तुम्हारा मन्त्री ! और तुमने स्वीकार नहीं किया ?"

"हाँ, वह यही कहने आया था, और मैंने स्वीकार नहीं किया।" मैंने कहा, " तुम्हारे पास तो मुझसे ज्यादा फौज है, तो वह आँसू भर लाया। ऐसे आदमी का तुम मुझे अविश्वास करने को कहती हो ! लेकिन यश, वह तो कहता था कि तुम सन्धि के लिए राजी हो चुकी हो !"

यशस्तिलका जैसे चौंककर बोली, "क्या, कौन ?"

जयवीर ने कहा, "बात उठते ही मैंने उससे कहा कि सन्धि के बारे में यश से पूछना होगा। तब वह बोला- 'क्षमा करना, मैं वहीं से आ रहा हूँ। यश ने मुझे माफ कर दिया है। और वह सन्धि के लिए राजी है।' क्यों, क्या यह बात झूठ है ?"

यशस्तिलका ने कहा, "नहीं, सच है ।"

कहते हुए उसकी वाणी साधारण से भी अधिक स्थिर थी। फिर भी हठात हँसकर बोली, "तुमने उसका अविश्वास नहीं किया ? आधी रात मेरे कक्ष से आ रहा था, यह क्या सज्जन का लक्षण है ?"

जयवीर ने कहा, “तुम्हारा अविश्वास करूँगा, उस दिन क्या मैं जीवित रहूँगा?"

यह सुनकर यशस्तिलका अपने पति की ओर निहारती रह गयी । बोली, "मेरे कारण तुम्हें यशोविजय का विश्वास करना पड़ा। क्यों ?"

जयवीर ने कहा, “हाँ, आधी रात तुम्हारे पास से आकर खुद मुझे जगाकर कोई मुझसे झूठ तो नहीं कह सकेगा ?"

यशस्तिलका ने कहा, “अच्छा तो उठो, मुझे मेरे कक्ष तक पहुँचा आओ।" और यशस्तिलका ने जयवीर के गले में अपनी बाँहें डाल दीं। उसका कण्ठ भर आया था। जाने कैसी एक कृतार्थता का भाव मानो त्रास देता हुआ उसे धन्य कर गया !

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