जय रणछोड़ : गुजरात की लोक-कथा

Jay Ranchhod : Lok-Katha (Gujrat)

ओखा के राजा सोमैया माणेक ड्योढ़ी पर बैठे-बैठे हाथ में माला लेकर 'जै रणछोड, जै रणछोड, जै रणछोड' का जाप कर रहे हैं। अरब सागर की लहरों से होकर आनेवाला सुबह का ठंडा पवन विशाल ड्योढ़ी में चक्कर लगा रहा है, तभी बाहर बीस घोड़ों की प्रतिध्वनि हुई, साथ में आवाज आई।

'क्या सौमैया माणेक हैं न?'

माला फेरते हुए सोमैया माणेक ने गरदन गली की ओर की। देखा तो मजबूत कंधेवाले बुकानधारी लंबे घोड़े पर बैठे हुए बीस आदमी थे। देखते ही पहचान गए।

'अरे सालमीर जमादार! आइए भाई, आइए।'

'नहीं राजा आना और पलान छोड़ना नहीं हो सकेगा। घोड़े पर से ही बात कर लेनी है।'

सोमैया माणेक बाहर आए और घोड़े की लगाम को पकड़कर कहा, 'भाई! द्वार पर आए मेहमान ऐसे बात करके मोहल्ले में से ही लौट जाएँ तो ओखा की इज्जत नहीं जाएगी? नीचे उतरो। जो काम हो वह कहो।'

सालमीर जमादार नीचे उतरा। सवार भी उतरे। घोड़े अंदर घुड़साल में गए।

विशाल दरवाजा पार करके जमादार सालमीर अंदर आया। देखा तो धतूरे के फूल जैसी ड्योढ़ी पर मुटठे-मुढे भर हाथ के गद्दे पर मन-मन भर रुई के तकिए डाले गए हैं। जेतपर की लाल सुर्ख जाजिम बिछाई है। बड़े मोहल्ले में ऊँची सी दलान के आठ कमरे और सामने घुड़साल है। मोहल्ले में नागरवेल के पत्तों जैसा हरा-भरा नीम का पेड़ हवा का पंखे कर रहा है।

ओखा के राजा की यह सादगी देखते हुए जमादार सालमीर गद्दी-तकिया को टेककर बैठा। बगल में माणेक बैठे और हाथ में माला ले ली।

'कहिए भाई, अमर दीवान के जिगरी दोस्त को क्यों कर ओखा आना पड़ा? दीवान कैसे हैं?'

'दीवानजी काका का तो खून हो गया!'

'अरे! अमरजी दीवान का खून?'

'हाँ राजा! आठ ही दिन हुए हैं। नवाब की माँ ने नवाब के रिश्ते का कपड़ा देखने के बहाने रात को महल में बुलाकर छत पर जानेवाली सीढ़ी के कमरे में चार हत्यारों को कहकर दगाबाजी से खून करवाया है।

आँखें बंद करके उस पर हाथ रखकर सोमैया माणेक बोले, 'जै रणछोड़, जै रणछोड़, जै रणछोड़। विरले ही किसी सीप में पकनेवाला मोती चला गया।'

'उसका एक हत्यारा यहाँ है।'

'यहाँ? मेरे ओखा का आदमी अमरजी दीवान के खून में?'

'हाँ, उसका नाम गुलाब सिंह लुहाणा है। सलवान हेरोल की पुत्री के साथ ब्याहा है।'

'अमरजी के दोस्त वडोदरा के गायकवाड़ ने उसका मस्तक मँगवाया है। उसका सेनापति सिंधिया खंभालिया में लश्कर लेकर रुका हुआ है। कल साँझ तक खूनी का सिर उसके तंबू तक नहीं पहुँचा तो गायकवाड़ी फौज ओखा को रौंद डालेगी, कड़वा व्यवहार करेगी। केवल इतना कहने आया हूँ।'

कहकर जमादार सालमीर उठा। उसके सवार भी उठे, फिर से घोड़े सजे और फिर प्रतिध्वनि होकर शांत हो गई।

सोमैया माणेक बहुत देर तक स्थिर बैठे रहे, उनके सिर पर जमादार सालमीर का कहनाम हथौड़े की तरह लग रहा था। गायकवाड़ी फौज कड़वा व्यवहार करेगी।

वे उठे और हाथ में माला सहित रणछोड़राय के मंदिर में आए। आकर पलाथी मारकर रणछोड़राय की मूर्ति के सम्मुख बैठ गए। बैठकर आँखें बंद करके माला फेरने लगे। मेघ समान बुलंद आवाज से देवालय के गुंबज में उनका 'जै रणछोड़, जै रणछोड़' का नाद प्रतिध्वनित होता है।

मध्याह्न बीता। वो दोपहर का भोजन करने के लिए नहीं उठते हैं।

साँझ हुई, मंदिर में संध्या आरती के दीये जले। आरती हो गई, उस समय वे केवल आरती लेने उठे और वापस बैठ गए।

रात हुई, मंदिर के दीपक का तेज मंद होने लगा। चारों तरफ शांति छा गई, मात्र अरब सागर की हलकी गर्जना सुनाई देती है।

मध्यरात्रि हो गई और हाथ की माला रोककर रणछोड़राय के चरण में माथा झुकाकर वे बोले, 'बाप कल साँझ को जमादार सालमीर की अवधि पूरी होती है। मुझे क्या करना चाहिए, उसकी प्रेरणा मेरे हृदय में जगाना जगन्पिता।'

कहकर वापस आँखें बंद करके माला फेरने लगे और जाप करने लगे 'जै रणछोड़! जै रणछोड़! जै रणछोड़!'

प्रभात हुआ। पुजारी ने सूर्योदय की आरती कर ली। आरती लेकर सोमैया माणेक ज्योंही हाथ में माला लेने जा रहे थे कि अंतरात्मा में कुछ सूझा और वे मनोमन बोल उठे, 'ठीक है, स्वामी यह बात ठीक है।'

और उन्होंने पुकार लगाई। 'अरे कोई वीरसिंह को बुलाना और थोड़ी देर के लिए मंदिर खाली कर दो।'

ओखा के राजा की आज्ञा का तुरंत पालन हुआ। मंदिर खाली हो गया। नौकर सोमैया माणेक के बड़े पुत्र वीरसिंह माणेक को बुलाने गए।

मंदिर में बिल्कुल शांति है। सोमैया माणेक हाथ में माला फेर रहे हैं, तभी कान में आवाज आई।

'बापू!'

चौंककर सोमैया माणेक ने आवाज की तरफ देखा तो खंभे की आड़ में एक लड़की खड़ी है।

'क्या है बेटा ! तू कौन है ?'

'बापू जिसके लिए आप उपवास पर उतरे हैं, मैं उसकी औरत और सलवान हेरोल की लड़की हूँ।'

'कहो तुम्हें क्या कहना है ?'

'और कुछ नहीं बापू, इतना ही कि खुद बाप बेटी को विधवा बनाएगा?'

पलभर में सब समझकर सोमैया माणेक ने कहा, 'ठीक है बेटा, जाओ, तेरा सुहाग अखंड रहेगा। ओखा की पुत्री भी मेरी पुत्री है। मैं ओखा का राजा हूँ। बस्ती की पुत्री मेरी पुत्री, परंतु बच्चा, तेरे पति ने गलत किया है।'

'आज तो बापू वह गलत लगेगा, परंतु लड़ाई में राजा के हुक्म से हजारों आदमी आमने-सामने कट जाते हैं, वह अच्छा कहलाता है तो मेरे पति ने तो नवाब का आदेश मानकर वह काम किया है। दोष है तो नवाब का है।'

'यह भी सही है बेटी! सुख से जाओ, तुम्हारे पति को नहीं सौपूँगा।'

तभी वीरसिंह आए। कमर में तलवार लटक रही है, फेंटे में खुखड़ा है।

'क्या है बापू?'

'यहाँ बैठो, बेटा! यहाँ बैठो।'

वीरसिंह बैठ गए। मंदिर में नीरवता है। महासागर की गंभीर गर्जना सुनाई देती है।

'देखोजी! कल जमादार सालमीर आया था। जूनागढ़ के नगर दीवान अमरजी के खूनी को पकड़ने।'

सोमैया माणेक ने क्षणभर विश्राम लिया और माला करते-करते दो बार उच्चारण कर लिया जै रणछोड, जै रणछोड और फिर आगे बोले-कह गए, खूनी ओखा में है। आज साँझ तक माथा खंभालिया पहुँचा देना। कल साँझ तक यदि माथा नहीं आएगा तो गायकवाड़ी सेना ओखा के सिर पर कठोर प्रहार करेगी। जै रणछोड़, जै रणछोड़।

क्षणभर विश्रांति, फिर बात शुरू हुई।

'ओखा के सिर पर आफत आई है तो मुझको लगा, इसमें मानुषी बुद्धि काम नहीं करेगी। रणछोड़राय की शरण में जाने दो, जो सुझाएँगे सो सही, इसलिए कल से बैठा हूँ। आज प्रभात में आरती लेने के बाद मेरे हृदय में देवाधिदेव ने बताया है कि गायकवाड़ को सिर के बदले सिर देना चाहिए। खूनी गुलाबसिंह को सौंपकर उसकी हिंसा करवाना तो घोर पाप है। हम सब रणछोड़राय की रखवाली करनेवाले हैं। हम हिंसा करें या उसमें मदद करें तो धरा हचमचा उठेगी, इसलिए मैंने निश्चित किया है कि अपना सिर गायकवाड़ को उतारकर दे दूं।'

'बापू!'

"कुछ मत कहो बेटा! मुझसे गुलाबसिंह को नहीं सौंपा जाएगा, उसकी घरवाली मुझको बाप कहती है और कहती थी कि बाप पुत्री को विधवा बनाएगा? इसलिए उसका सुहाग अखंड रखने के लिए अपना सिर उतार देता हूँ। मनुष्य जीवन परकाज के लिए है और ऐसा अवसर भाग्यशाली को मिलता है तो बेटा, सिर उतार ले और साँझ को खंभालिया दे आना, और कहना कि यह माथा गुलाबसिंह लुहाणा के माथा के बदले में है। अब ओखा को माफ कीजिएगा।' कहकर सोमैया माणेक ने गरदन झुकाई।

'बापू-बापू!'

'मेरा पुत्र होकर डरता है ? रणछोड़राय की उपस्थिति में मरना है। प्रहार करो भाई। सूरज दादा अभी आकाश के बीच अपना रथ लाएँगे। चलिए बाप जीवित मर जाने की जै रणछोड़।' कहकर फिर से गरदन झुकाई। हाथ में माला के मणके घूमते जा रहे थे। मुँह से जै रणछोड़, जै रणछोड़, जै रणछोड़ के निकलते नाद मंदिर के गुंबज में प्रतिध्वनित होते रहे।

तभी बिजली की चमक हुई। एक पल, दूसरे पल में तलवार गरदन पर गिरी। सररर करते हुए मस्तक जमीन पर गिरा। लंबी हलकी-सी आवाज हुई तो भी 'जै रणछोड़, जै रणछोड़, जै रणछोड़' का नाद मानो मंदिर की दीवाल-दर-दीवाल और पत्थर-दर-पत्थर से प्रकट होता था, प्रतिध्वनि होती थी।

मस्तक को थाल में लेकर वीरसिंह घर आए। घोड़ा सजा और उसपर पलान से माथे को रुमाल में बाँधकर साँझ से पहले ओखा को पार कर के खंभालिया आ गया।

सिवान में गायकवाड़ के सेनापति सिंधिया की छावनी थी। घोड़े हिनहिना रहे थे। हाथी झूल रहे थे। साँड़ बोल रहे थे। सान पर हथियार तीक्ष्ण करने की ध्वनि आ रही थी।

वीरसिंह सीधे तंबू में ही गया। अंदर सेनापति के साथ अमरजी का पुत्र रुगनाथजी और जमादार सालमीर बैठे थे। चरोतर प्रदेश के उत्तम तंबाकू का हुक्का गुड़गुड़ा रहा है।

'लीजिए, यह मस्तक' कहकर नीचे रखा। सबकी नजर उस ओर गई और बोल उठे, 'अरे, यह तो सोमैया माणेक का सिर है।'

'हाँ, मेरे पिता का मस्तक है।'

'पर उनका मस्तक क्यों? ऐसा गजब क्यों किया?'

मेरे पिता ने कहा, 'गायकवाड सरकार को मस्तक चाहिए, इसलिए गुलाबसिंह के मस्तक के बदले में मस्तक दिया है।'

'परंतु उनका क्या दोष है ? इस तरह से प्राणार्पण का कारण क्या है?'

'दो कारण हैं। एक तो ओखा के राजा के रूप में बस्ती के बेटा-बेटी के जीवन का जतन करना, इसलिए गुलाब सिंह को बचाया। दूसरा हिंसा का कारण है। अपने हाथ से दूसरे की जीव हत्या मेरे पिता कैसे कर सकते हैं, हम तो रणछोड़राय के रखवाले हैं। इन दो कारणों से उन्होंने अपना ही मस्तक अर्पित करना जरूरी समझा। ये लीजिए जै रणछोड़!' कहकर वीरसिंह तंबू से बाहर निकल गया।

उसी क्षण गायकवाड़ी सेना ने पड़ाव उठाकर वडोदरा की ओर प्रस्थान किया। ओखा बच गया। गुलाबसिंह बच गया। उसकी औरत का सुहाग अखंड रहा।

-देवेंद्र कुमार पंडित

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