जर्जर खपरैल की एक स्लेट : नानक सिंह

Jarjar Khaprail Ki Ek Slate : Nanak Singh

बस से उतरते ही उस ने मुझ से पूछा, “बंगला चाहिए?" और उत्तर में मैंने कहा, "बंगला नहीं, कमरा चाहिए।"

डलहौजी मेरे लिए कोई बेगाना शहर नहीं था। लगातार कई वर्षों से यहाँ आना होता है। इस जगह के चप्पे-चप्पे से परिचित हूँ। आम तौर पर मैं पहुँचते ही किराए का मकान नहीं ले लेता। पहले एक-दो दिन किसी दोस्त के यहाँ ठहर जाता हूँ और सुविधा से कोई मनचाहा ठिकाना ढूँढ़ लेता हूँ। परंतु उस व्यक्ति की खुशमिजाजी ने और उसकी भद्रतापूर्ण बोल-चाल ने मुझ पर जैसे जादू कर दिया। उसने अपना नाम बताया, मंगू।

डलहौजी की यदि मैं स्त्री के रूप में कल्पना करूँ तो कहना पड़ेगा कि इसको मैंने दोनों हालतों में देखा है। पहले नव-वधू के रूप में, फिर एक विधवा की तरह।
सच पूछें तो डलहौजी का सौन्दर्य और सुहाग अंग्रेजों के साथ ही चला गया।

मुझे वह दिन भी याद है, जब डलहौजी पर्वत की चहल-पहल अपने शिखर पर पहुँची थी। सैलानियों की भीड़ का यह हाल होता था कि सदर बाजार से लेकर बकरोटे तक कंधे से कंधा टकराता था। कोठियों, फ्लैटों और होटलों के कमरे ठसाठस भरे होते थे। इस पर्वत पर पहुँचकर जिसको रहने के लिए मनचाही जगह मिल जाती, समझिए उसकी किस्मत जाग पड़ी हो। होटल वाले खूब जी भर सैलानियों को लूटते थे। छोटे से छोटे कमरे का किराया भी पाँच-सात रुपये रोज से कम नहीं होता था। कोठीवालों का दिमाग तो सातवें आसमान पर होता था। रद्दी-से-रद्दी कोठी का, सीज़न का किराया होता था डेढ़-दो हजार और वह भी सारा पेशगी।

किन्तु यह तो तब की बात थी, जब डलहौजी साहब लोगों और मेम साहबों का 'समर-हिल' था। अब तो वहाँ यह हाल है कि बड़ी-बड़ी आलीशान कोठियों और होटलों में उल्लू बोलते हैं। किराए घटते-घटते आठ-दस रुपये तक पहुँच गए हैं। फिर भी कोई ग्राहक नज़र नहीं आता।

मकान मालिकों की दुर्दशा में अब भी कुछ कमी थी तो उसको पूरा कर दिया है निकासी जायदादों ने। सन् सैंतालीस से पूर्व मुसलमान मालिकों की जो कोठियाँ हजारों रुपये सीजन पर चढ़ती थीं अब वही कोठियाँ पंद्रह-बीस रुपये मासिक पर दी जा रही थीं। इतना सस्ता किराया होते हुए भी किराएदार मुश्किल से मिलता था।

जिस समय का मैं जिकर कर रहा हूँ, वह शायद 1947 या 1950 का साल था। उस समय डलहौजी का नाम ही शेष रह गया था। लगभग नब्बे प्रतिशत मकान खाली पड़े रहते थे। अंग्रेज चले गए थे। देश में हूए विभाजन के फलस्वरूप लोग अभी तक होश में नहीं आए थे। इसलिए जो कुछ भी मैंने कहा, जितना भी किराया देना चाहा, जो भी शर्ते कहीं, मंगू का बस एक ही उत्तर था 'तथाऽस्तु'।।

मंगू ने बताया कि वह अपने मालिकों की कोठियों की चौकीदारी के अतिरिक्त उनके लिए किराएदार खोज देने में भी थोड़ी-बहुत मदद करता है। मेरा सामान उठवाकर वह मुझे मोती टिप्पे की एक कोठी के सामने ले आया। कहने लगा, “लो जी, यह कोठी बिल्कुल आपके ही मतलब की है। एकदम एकांत स्थान। उधर सामने रावी का नज़ारा दीखता है।"

स्थान मेरी पसंद का था परंतु कोठी की हालत खस्ता थी। जान पड़ता था, जैसे वर्षों से उसकी मरम्मत की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। पर्वतीय मकानों की उमर वैसे ही कम होती है। यहाँ वर्षा और तूफान से अच्छे-अच्छे मकानों के बखिए उड़ जाते हैं। फिर भी यहाँ भीतरी भाग की दशा इतनी बरी नहीं थी। पर प्रश्न यह था कि सारी कोठी को लेकर मैं क्या करूँगा? मुझे तो केवल एक कमरे की जरूरत थी। पर मंग था कि मेरी किसी भी बात को सुनता ही नहीं। बोला. “अजी, आप जितनी जगह चाहें ले लें। बाकी कमरे रहने दें। और किराया जितना दिल चाहे दे दें।"

पर इस 'दिल चाहे' की भी तो कोई सीमा होनी चाहिए थी। दिल तो आदमी का चाहता है कि सब कुछ मुफ्त में मिल जाए। आखिर जितना भी किराया मैंने उससे कहा, वह मान गया। मैंने शांतिपूर्वक कोठी के एक कमरे में सामान रखवा दिया।

मुझे मंगू बड़ा ही अच्छा आदमी लगा। वह मेरे लिए पानी लाता, मकान की सफाई करता, रोटी भी पका देता और यदि आवश्यकता पड़े तो कपड़े भी धो देता। इतना ही नहीं, वह हर समय कोठी की मरम्मत भी करता रहता।

अड़ोस-पड़ोस की कोठियों से वह फूलों के पौधे भी न जाने कैसे ले आता और उनको लगाने में लगा रहता। उस पर हमेशा यह चिंता सवार रहती कि कहीं किराएदार किसी बात पर नाराज होकर चला न जाए।

उस व्यक्ति में मैंने सभी गुण देखे थे। पर उस में एक सबसे बड़ा अवगुण भी था। वह यह कि वह बहुत लालची था। किराया पेशगी लेने की कोई शर्त नहीं थी। पर उसने बड़ी युक्तियों से कह-सुनकर मुझसे कुछ-न-कुछ पेशगी ले ही ली। इतने पर ही बस न करके वह हर दूसरे-चौथे दिन मुझे घेर लेता 'कोठी का टेक्स देना है जी। मालिक की ओर से मनीआर्डर आने ही वाला है। बस, कल नहीं तो परसों आपको लौटा दूंगा।' ऐसी बात कह-कहकर वह मुझसे अगले से अगले महीने का किराया भी ले जाता। परन्तु न उसका कल-परसों आया और न ही उसने कभी कुछ लौटाया। कई बार तो वह कम्बख्त एक या दो रुपये की फरमाइश कर देता। मैंने मन में कई बार संकल्प किया कि बस अब उसको एक पैसा नहीं दूंगा, चाहे रो-रोकर मर जाए। किंतु न जाने उसकी बोली और बरताव में कैसा आकर्षण था कि जब भी वह कुछ माँगता मुझसे इनकार न किया जाता।

एक दिन जब मैं सवेरे उठा, तो बाहर कुछ शोर सुनाई पड़ा। बरामदे में जाकर देखा, तीन-चार आदमी मंगू को घेरे बुरी तरह फटकार रहे थे। पूछने पर मालूम हुआ कि मंगू उनके बगीचों से कुछ पौधे चुरा लाया है। यह मंगू की पहली चोरी नहीं थी। इससे पूर्व भी उनके काफी पौधे चोरी हो चुके थे।

मंगू की इस दशा पर मुझे दया भी आई और क्रोध भी। भला बेवकूफ से कोई पूछे कि कोठी किसी की, रहने वाला कोई, और वह किस लिए पाप का भागी बनता मैंने मिन्नत-खुशामद करके मंगू का पीछा छुड़वाया। वे लोग मेरे लिहाज पर वापस चले गए। बाद में मैंने मंगू को खूब लताड़ा। उसने कहा, "नहीं, सरदार जी, लोग बेकार मुझे परेशान करते हैं। खाली पड़ी कोठियों में से भला दो-चार पौधे ले ही लिए तो कौन-सा प्रलय हो गया। वैसे ही सूख-सड़ जाएँगे। उन बंगलों में कोई किराएदार भी तो नहीं है।"

"मूर्ख," मैंने उसे फटकारा, "किराएदार हों या न हों, चोरी आखिर चोरी ही है। फिर तुमसे ही किसने कहा कि मुफ्त में पाप की गठरी सिर पर उठा। अरे, मालिकों को जरूरत होगी तो खुद ही पौधे लगवा लेंगे।"

कहने लगा, "सरदार जी, मालिकों की बात कुछ नहीं। मुझे इस बात का डर है कि कहीं आप उदास होकर चले न जाएँ।"
मैंने कहा, "अच्छा, अगर चला भी गया तो और कोई आ जाएगा।"
"अरे, यहाँ कौन आ जाएगा? आधा सीजन बीत गया है। आपने ही आकर दरवाजा खुलवाया है। नहीं तो सारा सीजन खाली पड़ा रहता।"

“अरे, जा इस बात की जितनी चिंता मालिकों को नहीं, तुझे है।" मंगू फिर नहीं बोला। मैंने भी और फटकारना उचित नहीं समझा। सोचा, नौकर वफ़ादार हो तो ऐसा।

एक रात अचानक ही इतने जोर की वर्षा हुई कि जल-थल एक हो गए। आधी रात जब मेरी आँख खुली, तो बिस्तर का काफी हिस्सा भीगा हआ था। बत्ती जलाकर देखा, तो छत कई जगह से चू रही थी। पास के स्टोर रूम में जाकर देखा, वहाँ भी काफी सामान भीग रहा था। बड़ा क्रोध आया उस मंगू के बच्चे पर, जिसने चार सौ बीस करके यह निकम्मी जगह मेरे सिर मढ़ दी थी। मंगू से भी अधिक क्रोध आया अपनी अक्ल पर । डलहौजी में, जहाँ मकानों को आजकल कुत्ते भी नहीं पूछते, मेरे लिए यही स्थान रह गया था। दिल चाहता था कि मंगू का गला पकड़ कर घोंट दूँ।

सामान को एक जगह से दूसरी जगह पर रखा। चारपाई इधर से घसीट कर उधर की। इसी काम में लगा हुआ था कि मुझे किसी के छत पर चलने की आवाज सुनाई दी। भय-सा लगने लगा। सोचा, मंगू को जाकर जगाऊँ। कोठी के ही पिछले कमरे में वह सोता था। टार्च लेकर उसके कमरे में पहुँचा। मंगू का बिस्तर खाली था।

क्या मंगू ही छत पर चल-फिर रहा था? जैसे ही सामने की दीवार पर मेरी दृष्टि पड़ी कि मैंने मंगू को छत से उतरते हुए देखा। उसके सिर पर पत्थर की दो-चार स्लेटें और हाथ में हथौड़ी थी। सर्दी से उसका शरीर काँप रहा था।
आश्चर्यचकित रह गया मैं। इतनी सख्त ठंड, बीच-बीच में ओलों की बौछार और यह कम्बख्त नंगे बदन छत पर चल-फिर रहा था। मेरा सारा गुस्सा पानी हो गया।

आते ही मेरे सामने दोषी की तरह खड़ा हो गया। सर्दी के मारे पूरी बात उसके मुंह से निकल नहीं रही थी। बोला, “आपको बहुत कष्ट हुआ होगा, सरदार जी ! मुझे क्या पता था इस तूफान का। आजकल तो पानी बहुत कम बरसता है।"

मंगू पर बरसने के लिए मैंने मन में जितना कुछ इकट्ठा किया था, उसकी विनम्र बातों के सामने यह सब कुछ बह गया। मैं केवल इतना ही कह सका, “अरे, पगले, तेरी यह स्लेटें कब तक टिकेंगी वहाँ? यह तेज बौछार उन्हें उड़ा ले जाएगी।"

वह उसी प्रकार गिड़गिड़ाया, “आज की रात किसी प्रकार निकल जाए। कल मैं किसी कारीगर को लाकर स्लेटों को पक्की तरह लगवा दूंगा।"

भीतर जाकर देखा। मंगू का थोड़ा बहुत परिश्रम सफल हो गया था। छत अब उतनी नहीं चू रही थी। दूसरे दिन वह फिर आ धमका, “सरदारजी, बड़ी शर्म आती है माँगते हुए। मालिक की ओर से मनीआर्डर अभी तक नहीं आया। पाँच रुपये देने की कृपा कर सकें तो कोई कारीगर बुला लाऊँ।"

उसकी इस तरह की माँग से हृदय बड़ा क्षुब्ध हुआ। एक बार तो इच्छा हुई कि उसके कान की खिड़कियाँ खोल दूँ। क्या मेरे पास कोई थैली जमा कर रखी है उसने? परन्तु जब उसकी आँखों में याचना के गहरे भाव देखे तो कुछ कह न सका। नोट निकाल कर मैंने उसे पकड़ा ही दिया।

और फिर मैं मंगू को सुबह से शाम तक छत पर चढ़ा हुआ देखता रहा। न कोई कारीगर आया, न मजदूर। और एक दिन मंगू की इस मालिक-परस्ती का भेद भी खुल गया। दोपहर को बरामदे में बैठा हुआ लिख रहा था। तभी म्युनिसिपलिटी का एक चपरासी आकर पूछने लगा, “सरदारजी, मंगतराम कहाँ है?"

“कौन मंगतराम?" मैंने प्रश्न किया। “जी, कोठी का मालिक। उसके नाम नोटिस आया है प्रोपर्टी टैक्स का।"
मैंने उत्तर दिया, “पर यहाँ तो नहीं रहते कोठी के मालिक । हाँ, चौकीदार मंगू है, जो कहीं इधर-उधर गया होगा।"
चपरासी हँस पड़ा, “तो आप नहीं जानते सरदारजी। वही मंगू तो है कोठी का मालिक। यह नोटिस ले लीजिए और उसे दे दीजिएगा।"
मुझे चपरासी की बात पर विश्वास न आता यदि मैं उस नोटिस का यह वाक्य न पढ़ लेता-“लाला मंगतराम, लैंड-लार्ड, डलहौजी।"

मैंने चपरासी से कहा, “अरे भाई, वह बड़ा कंजूस है।" मैं और कहता कि चपरासी बोला, "कंजूस नहीं, बदनसीब । इस कोठी के सिर पर मंगतराम का कुनबा कभी ऐश किया करता था। अब तो इसकी मरम्मत और टैक्स का खर्च भी नहीं निकलता।" चपरासी ने ठंडी साँस भरी, “डलहौजी चली गई, सरदारजी, अंग्रेजों के साथ ही। अब तो बस नाम ही रह गया है इसका।"

डलहौजी की बदली हुई तसवीर तो पहले ही देख चुका था, अब मंगू की बदली हुई तसवीर मेरी आँखों के सामने आ गई। मैंने पूछा, “भला यह हाल है, तो वह इसे बेच क्यों नहीं देता?"
चपरासी ने उत्तर दिया, "बेचे बिचारा किसको? जायदाद का मूल्य तो आबादी से होता है, सरदारजी, ईंट-पत्थरों से नहीं।"
और एक लम्बी साँस लेकर वह चुप हो गया।

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