जन्म-दिवस : सविन्दरसिंह उप्पल (पंजाबी कहानी)

Janm Divas : Savinder Singh Uppal

ज्योंही जुगलप्रसाद का वेतन पांच रुपये और बढ़ा उसने अपने कनिष्ठ पुत्र ज्योति को एक ऐसे स्कूल में प्रविष्ट कराने की अपनी चिर आकांक्षा पूरी करनी चाही जो कि आरम्भ से ही अंग्रेजी की शिक्षा देता हो तथा नवीन शिक्षा पद्धति पर आधारित हो। दूसरी ओर उसकी पत्नी देवकी पति के वेतन की बढ़ोतरी से घर के लिये आवश्यक वस्तुएँ जुटाने की आस लगाये बैठी थी । ज्योति को ऐसे स्कूल में प्रविष्ट कराने की बात सुनकर देवकी थोड़ी देर तक तो सोच में पड़ी रही पर इस बात को कहे बिना भी उससे न रहा गया-

"मैं तो कहती हूँ कि ज्योति को किसी छोटे मोटे स्कूल में भरती करा दो हम पांच रुपया महीना फीस कहाँ दे सकते हैं ।"
"भली मानस ! यही समझ ले कि यह पांच रुपये बढ़े ही नहीं ।"
"राम राम ! ऐसी बात जीभ पर मत लाओ।"

फिर ज्योति को नये ढंग से चलने वाले स्कूल में बड़े उत्साह के साथ प्रविष्ट करा लिया गया । जुगलप्रसाद जहाँ यह चाहता था कि उसका पुत्र अंग्रेजी में प्रवीण हो जाय वहाँ वह इसलिए भी उसे ऐसे स्कूल में प्रविष्ट कराना चाहता था क्योंकि वहां प्रत्येक बालक को अपने व्यक्तित्व के विकास का अवसर प्रदान किया जाता था। कभी कभी वह दफ्तर के समय से कुछ देर पहले घर से चल पड़ता। और ऐसे स्कूल के बाहर खड़ा होकर देखता कि वहां लगे हुए सुंदर पुष्पों के समान बालक साफ-सुथरे एक जैसे वस्त्र पहन, ऊँच नीच से परे खिले हुए धीरे धीरे आपस में प्रेमपूर्वक बातें करते और खेलते तथा गालीगलौच करना तो वे अपनी और अध्यापिकाओं के आदेशानुमार पाप समझते थे । बिना संकोच के वे सबके साथ बात कर लेते, उत्साहपूर्वक और आत्मविश्वास के साथ व यथावसर बात विचार सकते। कुछ ऐसी ही बातें थीं जिनके कारण जुगलप्रसाद की चिर अभिलाषा थी कि वह अपने कनिष्ठ पुत्र को किसी ऐसे ही स्कूल में प्रविष्ट कराए।

इन स्कूलों में पढ़ाने के लिए तो प्रत्येक की इच्छा होती है, पर पढ़ा विरला ही सकता है क्योंकि इन स्कूलों की मूंछे दाढ़ी से भी बहुत लम्बी होती हैं-दाखिला, वर्दी, खेलों की फीस, खाने-पीने के पैसे आदि कुछ ऐसे खर्च थे जिनको देने में साधारण आदमी का कचूमर निकल जाता है। पर जुगलप्रसाद इरादे का बड़ा पक्का था, इसलिए उसने इधर-उधर से माँगमूंग कर बड़ी कठिनाई से एकत्र किये गए चालीस रुपये देने के समय तनिक भी चूँ-चाँ न की। लड़के को स्कूल में प्रविष्ट करा के वह अधिक प्रसन्न हुआ। आज तो उसके पैर भी धरती पर न पड़ते थे। वह सोचता कि ज्योति ऐसे निखरे और स्वच्छ वातावरण में पढ़कर बहुत योग्य बनेगा। स्वतंत्र भारत का वह ऊँचा और अच्छा अफसर बन सकेगा। उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हमारे देश को इस समय ऐसे मनुष्यों की बड़ी आवश्यकता है। सारे खानदान और भारत के लिए ज्योति 'ज्योति' बन कर दिखा देगा।

ज्योति जहाँ योग्य था वहाँ सुन्दरता में भी वह कम न था। उसकी अध्यापिका उसके स्वच्छ और धुले हुए कपड़ों में चमकते हुए उसके रूप और सुन्दर नाक-नक्शों को देखकर उसे प्रतिदिन प्यार किए बिना न रह सकती। वह उसका विशेष ध्यान रखती।

महीने के बाद जब परीक्षा हुई तो ज्योति अपने सहपाठियों से हर बात में आगे था। उसकी प्रिंसिपल ने रिपोर्ट में प्रसन्नता प्रकट करने के साथ-साथ जुगलप्रसाद को ऐसे योग्य बालक का पिता होने के लिए बधाई लिख भेजी।

अब तो जुगलप्रसाद अपने जैसा भाग्यशाली पिता किसी और को समझता ही न था। दफ्तर में वह अपने कई क्लर्क साथियों से ज्योति की योग्यता के विषय में बड़े गर्व से बातें करता और घर में वह दूसरे बच्चों को ज्योति जैसा योग्य बनने की प्रेरणा देता था। देवकी को तो कई बार कहता-

"मैं कहता था कि ज्योति सारे खानदान का नाम चमका देगा।"
यह बात सुनकर उसकी पत्नी देवकी भी अपने मन ही मन में गर्व करती कि आखिर ऐसा योग्य पुत्र जन्मा तो मैंने ही है।
अभी छः महीने ही बीते थे कि स्कूल से एक चिट्ठी आई। जुगलप्रसाद उसे पढ़ते ही फूला न समाया-

"मैंने कहा सुनती हो, ज्योति की माँ ! यह देखो।" और वह ज्योति को उठाकर रसोई घर में ही ले गया। उसने ज्योति को इतनी बार चूमा जैसे वह आज चूमने का रिकार्ड ही तोड़ कर रख देना चाहता हो और ज्योति आश्चर्यचकित होकर पिता के मुँह की ओर देखे जा रहा था। "मैंने कहा, आखिर बात तो बताओ। आखिर बात क्या है जो इतने प्रसन्न हो रहे हो।" देवकी भी बात जानकर इस खुशी में शीघ्र ही सम्मिलित होने के लिए उतावली हो रही थी।

“चलो कमरे में चलो। यह बात जरा आराम से बतलाने वाली है।" और जुगलप्रसाद ज्योति को उसी प्रकार उठाये हुए कमरे में आ गया।
देवकी भी बड़ी आतुरता से पति के पीछे-पीछे कमरे में आ गई।

"जरा चारपाई पर बैठ जाओ।" जुगलप्रसाद मुस्कराया और कुर्सी पर बैठ कर आई हुई चिट्ठी को फिर से पढ़ने के लिए ऐनक को नाक के ऊपर जमाने लगा।

एकाध मिनट के लिए वह अंग्रेजी में लिखी हई चिट्ठी को फिर पढ़ता रहा, जिससे कि वह अपनी जीवन-संगिनी को इस शुभ-समाचार की प्रसन्नता में पूर्ण रूप से सम्मिलित कर सके।
"बतलाओ भी" देवकी ने मुस्कराते हुए ऐसे कहा मानो और प्रतीक्षा उसके लिए असह्य हो रही थी।
“लो सुनो।” और फिर उसने ऐनक को ऊँचा करके धीरे-धीरे देवकी को समझाते हुए कहा-

"ज्योति की प्रिंसिपल ने लिखा है कि इस रविवार को प्रान्त के प्रसिद्ध मंत्री ज्वालाप्रसाद का जन्म-दिवस यहाँ की नागरिक-सभा की ओर से मनाया जा रहा है। शहर के कुछ चुने हुए स्कूलों के दो-दो विद्यार्थियों के साथ मंत्री जी इस अवसर पर मिलना पसंद करेंगे। के.जी. कक्षा में से हमारे ज्योति को चुना गया है। यह उनको हार पहनायेगा।"
यह सुनते ही देवकी ने उठकर ज्योति को अपनी गोद में ले लिया।

"यह मेरा लाल जायेगा इतने बड़े मंत्री के पास । बलिहारी इस पर।" फिर उसने चुम्बनों की बौछार लगा दी मानो अपने पति के द्वारा स्थापित रिकार्ड को तोड़ने का प्रण कर लिया हो। फिर उठाकर ज्योति को छाती से लगा लिया। देवकी का चेहरा उस समय किसी तेजस्वी के चेहरे से कम नहीं चमक रहा था।

पत्नी को प्रसन्न होता देखकर जुगलप्रसाद और भी गद्गद हो गया। ज्योति ने आज उनकी अभिलाषा को साकार कर दिया था। फिर उसने आँखें बंद कर लीं ताकि संपूर्ण प्रसन्नता और उल्लास को अंतर्मुखी कर ले।

पर शीघ्र ही आँखें खोल कर उसने देवकी से कहा, “अरे हाँ, यह तो तुझे बतलाना भूल ही गया कि ज्योति के लिए कुछ विशेष प्रकार के वस्त्र तैयार करने हैं, वहाँ पहनकर जाने के लिए।" फिर ऐनक को ठीक करके चिट्ठी को पढ़ता-पढ़ता कहता गया-

"सफेद कमीज, सफेद नेकर, सफेद जुराबें, सफेद जूते और एक सुनहरी हार।" इन चीजों का नाम सुनते ही देवकी का उल्लास काफूर हो गया। उसके मुख पर आती हुई प्रसन्नता वहीं-की-वहीं रुक गई और फिर धीरे-धीरे प्रसन्नता का स्थान चिंता और क्लेश ने ले लिया। उसने ऐसा अनुभव किया मानो वह उल्लास के महल को केवल बाहर से ही देखकर प्रसन्न हो गई थी और जैसे ही आतुरता के साथ उसने अंदर पग रखने के लिए प्रयत्न किया कि किसी ने अचानक ही उस उल्लास रूपी महल का द्वार बंद कर दिया हो।

“क्या बात है तुम उदास क्यों हो गई हो?" जुगलप्रसाद को इस प्रसन्नता की घड़ी में उसका चेहरा तनिक भी अच्छा न लगा।

"मैं सोचती हूँ कि इन चीजों के लिए पैसे कहाँ से आवेंगे। आज तो महीने की 26 तारीख है और घर में कुल 10-12 आने साग-सब्जी के लिए पड़े हैं। अभी तो पिछले माँगे हुए 40 रु. ही नहीं उतर पाये।"

इस कटु सत्य ने तो मानो जुगलप्रसाद को भी ऊपर से पटक दिया। वह तो अभी तक उल्लास के गगन में वात्सल्य के पंख लगाकर उड़ान भर रहा था। इस आवश्यक पहलू की ओर उसका पहले ध्यान न गया था। जैसे स्वादिष्ट भोजन जल्दी-जल्दी खाते समय दाँतों के नीचे आ जाने से कटी जीभ संपूर्ण भोजन का स्वाद मार देती है, कुछ इसी प्रकार की बेस्वादी जुगलप्रसाद ने देवकी की कटु सत्य जैसी वास्तविकता में अनुभव की। उसे अपनी आर्थिक अवस्था के ऊपर खीझ आई, जो पग-पग पर आकर उसका मार्ग रोक लेती थी। फिर उसकी यही खीझ क्रोध बनकर देवकी के ऊपर बरस पड़ी।

“बस तुम तो हर समय यही रोना रोती रहती हो। लोग तो ऐसे अवसरों के लिए तरसते हैं। और तुम हो कि..."

“आप तो वैसे ही गरम हो रहे हैं। क्या मैं नहीं चाहती मेरे लाल की शान बढ़े? पर इन चीजों का प्रबंध तो करने से ही होगा न। ऐसे थूक से तो बड़े नहीं पकते।"

“चाहे कुछ भी हो, इन चीजों का प्रबंध तो करके ही रहूँगा।" जुगलप्रसाद ने दृढ़ता के साथ कहा।

"अच्छा मैं देखती हूँ कि गुड्डी की गुल्लक में कितने पैसे हैं। वह रोएगी तो सही पर मैं उसे बहला लूँगी।" और वह गुल्लक लेने चली गई।

देवकी के जाने के बाद जुगलप्रसाद ने सोचा-“मैं तो यों ही बेचारी देवकी पर गुस्सा होने लग जाता हूँ। पर पैसे की कमी मुझे सदैव क्रुद्ध कर देती है। यह भी कोई जीवन है कि पैसे-पैसे के लिए हाथ सिकोड़ना पड़े। क्या हम गरीबों का इतना भी अधिकार नहीं कि हम अपने एक होनहार बच्चे की एक छोटी-सी प्रसन्नता को भी न खरीद सकें? और यह अमीर हैं कि हजारों रुपये ऐसे ही ऐयाशी में बहाते फिरते हैं। हम गरीब लोग तब तक न उठ पायेंगे जब तक हम स्वयं प्रयत्न नहीं करते। अमीर न तो हमें उठाएगा और न ही हमें उठने देगा।"

फिर उसका ध्यान देवकी की ओर गया जो विवाह के समय से ही तंगी-तुर्शी के पाटों में पिसती आ रही थी। अब उसके मन में देवकी के लिए अधिक दया थी-बेचारी क्या करे? बड़ी कठिनाई से डेढ़ सौ रुपये में पाँच बच्चों का पालन करती है। स्त्री वास्तव में कुछ अधिक यथार्थवादी होती है। घर में बात-बात पर उसे आर्थिक दृष्टि से अभाव का अनुभव होता है। उसे गिनी-चुनी आय में निर्वाह करने के लिए, सौ उपाय निकालने पड़ते हैं। उस बेचारी को अधिक समय तक घर की चारदीवारी के घिरे वायुमंडल में ही तो रहना पड़ता है। साथ में वह प्रायः कमाती भी तो नहीं। ऐसा विचार आना स्वाभाविक ही है। इस प्रकार के विचारों ने उसके मन में देवकी के प्रति अधिक सहानुभूति और दया उत्पन्न कर दी।

"मैंने कहा, गुड्डी की गुल्लक से साढ़े सात आने निकले हैं और ज्योति की गुल्लक से सवा बारह आने।"

जुगलप्रसाद ने देखा कि वह बेचारी यह प्रयत्न कर रही थी कि किसी प्रकार मेरा लाल स्कूल वालों की इच्छानुसार तैयार होकर इतवार को जा सके। उसने सोचा-स्कूल वालों ने तो अपनी ओर से हमारे बच्चे को मान दिया है पर वे क्या जानें कि यह मान हमारे लिए मुसीबत बन जायेगा। अच्छा कोई बात नहीं। कुछ भी हो जाय मेरे बच्चे को इतवार तक यह चीजें मिलनी ही चाहिएँ। आज बृहस्पतिवार है। बीच में दो दिन हैं-शुक्र और शनि। कोई बात नहीं। यह सोचकर। वह दृढ़ विश्वास से बाहर निकल गया जिससे किसी से कुछ रुपये उधार ले सके।

एक घंटे के बाद जब वह लौटा तो उसकी जेब में एक-एक रुपये के तीन नोट थे। उसे ये तीन रुपये भी उधार लेने के लिए कितने लोगों के आगे हाथ फैलाना पड़ा, तब जाकर वह एक-एक करके तीन रुपये उधार ले सका था।
घर आकर बजट पर विचार किया गया।

"एक फटी सफेद चादर में से इसकी कमीज तो मैं पड़ौसिन की मशीन से तैयार कर लूँगी। हाँ, सफेद नेकर का कपड़ा भी बाजार से लेना पड़ेगा और सिलाई भी उसकी दर्जी से करानी पड़ेगी-मुझे नेकर सीना नहीं आता।" देवकी ने पति के इन पैसों से ही काम चलाने की युक्ति बताते हुए कहा।

देवकी से, गुल्लकों में से निकली रेजगारी को लेकर जब वह जाने लगा तो उसने देखा कि ज्योति घर पर नहीं था। इधर-उधर ढूँढ़ा पर वह कहीं दृष्टिगत न हुआ।
यद्यपि इस समय थोड़ा-थोड़ा अँधेरा हो गया था पर जुगलप्रसाद न चाहता था कि इस कार्य में विलम्ब किया जाय । वह स्वयं ज्योति को ढूँढ़ने चला गया। उसने देखा कि बाहर गली में लड़कों के साथ ज्योति खेल रहा है। उसको इस प्रकार निश्चित देखकर उसने सोचा, 'सच कहते हैं कि बचपन बादशाहत होती है, उसको अपने वस्त्रों का प्रबंध करने की कोई चिंता ही नहीं. माँ-बाप स्वयं ही चिंता करेंगे।'

लगभग दो घंटे बाद जब जुगलप्रसाद और ज्योति घर लौट रहे थे तो दोनों के मुखों पर प्रसन्नता के चिह्न थे। ज्योति इसलिए प्रसन्न था कि आज उसके लिए नए बूट, नई जुराबें और नेकर का कपड़ा आदि वस्तुएँ खरीदी गई थीं। और जुगल- प्रसाद इस समस्या का हल कर लेने पर इसलिए प्रसन्न था कि वह अपने होनहार पुत्र को मंत्री जी के स्वागत के अवसर पर भेज सकेगा। दर्जी को उसने इस बात के लिए ठहरा दिया था कि वह नेकर शनिवार को अवश्य ही दे दे। वह रास्ते में सोचता आया-सच कहते हैं एक होनहार पुत्र भी घर को चमका देता है। इतवार के दिन जहाँ और चुने हुए स्कूलों के योग्य बालक स्टेज पर जाकर मंत्री जी को हार पहनायेंगे उनमें मेरा ज्योति भी होगा। जब इसका नाम पुकारा जाएगा 'ज्योति प्रसाद, लड़का लाला जुगलप्रसाद' तब वहाँ उपस्थित अभ्यागतों और मंत्रियों को पता लगेगा कि वह लड़का लाला जुगलप्रसाद का है। फिल्म ली जाएगी। समाचार पत्र में इसका नाम आएगा और हो सकता है कि इसका चित्र भी आवे-यह सोचकर उसकी बाँछे खिल गईं और वह मन-ही-मन इस बात के लिए अपना ही साधुवाद करने लगा कि कम-से-कम एक बच्चे को तो अच्छे स्कूल में प्रविष्ट कराने की मैंने बुद्धिमानी की थी। जो प्रतिष्टा मेरे और चार लड़के-लड़कियों ने मिलकर भी नहीं बढ़ाई वह इस अकेले ने ही बढ़ाकर दिखा दी है।

घर आते ही जुगलप्रसाद ने देवकी को बुलाया और बहुत मान और उत्साह के साथ उसने उसे बताया-"ज्योति की माँ! मैं नेकर का कपड़ा खरीद कर दर्जी को दे आया हूँ और शनिवार के लिए पक्का भी कर आया हूँ। तुम ये बूट, जुराबें और हार थैले से निकालकर जरा सँभाल कर रख दो और कमीज कल अवश्य बना देना।" फिर कुछ और स्मरण कर वह हर्ष के साथ बोला-“ज्योति की माँ! आज ईश्वर ने एक और काम बना दिया। मैं जब स्थानीय पत्र के दफ्तर के पास से निकला तो विचार आया कि पता किया जाय कि उस दिन के अवसर पर किसी प्रकार हार पहनाते हुए ज्योति के चित्र का भी प्रबंध हो सके। ज्योंही में दफ्तर के भीतर गया एक फोटो ग्राफर कैमरा लटकाए बाहर आ रहा था। मैंने उससे बात की तो पता चला कि इतवार वाले समारोह पर वही जा रहा है। मैं उससे भी बात कर आया हूँ कि जब रिपब्लिक स्कूल का के.जी. कक्षा का प्रतिनिधि मेरा यह लड़का मंत्री को हार पहनाए तो वह अवश्य ही उसका चित्र खींचे।"

देवकी के मुँह पर कुछ चिंता के चिह्न देखकर अपनी प्रसन्नता में बिना अंतर डाले वह बोल पड़ा-“बाकी रही पैसों की बात, फोटो बनने तक पहली तारीख तो हो ही जाएगी भली मानस । ईश्वर आप ही गरीबों के कार्य करता है हा हा हा।"

जुगलप्रसाद सारी-की-सारी बात एक साँस में ही कह गया और फिर कभी-कभी ऐसे अप्रत्याशित अवसर से पूरा-पूरा लाभ उठाते हुए वह हँस-हँस कर दोहरा हो गया।
देवकी चित्र संबंधी इस फिजूलखर्ची के संबंध में कुछ कहना तो चाहती थी पर पति के रंग में भंग पड़ने के डर से कुछ न बोली और बाहर चली गई।

सुबह लड़के और लड़कियों को स्कूल और जुगलप्रसाद को दफ्तर भेजने के बाद देवकी ने एक पुरानी सफेद चादर निकाली। पहले तो उसे खूब निरखा-परखा। फिर काँट-छाँट की और दिन-भर मगज़-पच्ची करके पडोसिन की मशीन पर शाम तक बड़ी कठिनाई से कमीज तैयार कर सकी।

उधर जुगलप्रसाद ने दो घंटे की छुट्टी ली और नागरिक सभा के कार्यालय में जाकर प्रयत्न किया कि किसी प्रकार उसको भी निमंत्रण पत्र मिल सके जिससे वह स्वयं अपने नेत्रों से अपने प्यारे पुत्र को मान प्राप्त करता देख सके। पर उसे ज्ञात हुआ कि उस समारोह में तो बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ नेता, धनवान लखपति, ऊँचे अधिकारीऔर कुछ बुलाए गए बच्चे ही जा सकते हैं और तब उसने सोचा कि मैं तो इनमें से किसी गिनती में भी नहीं आता। बेचारा मन की उमंग मन ही में दबोच कर रह गया।

इतवार का दिन आया। ज्योति को उसकी माँ, बहनों, भाइयों और स्वयं जुगलप्रसाद अथवा सारे परिवार ने तैयार किया। आज सारे परिवार को ज्योति पर मान था जिस कारण सभी जुटे हुए थे। कोई उसे साबुन मल-मल कर नहला रहा था, कोई नेकर-कमीज को इस्त्री कर रहा था, और कोई उसकी कंघी-पट्टी के काम में जुटा हुआ था।

सायंकाल को सारा परिवार इस बात की प्रतीक्षा में था कि किस समय ज्योति समारोह से वापस आए जिससे वह अपने मुख से सारी रौनक और प्राप्त सम्मान सविस्तार बताये। जुगलप्रसाद, दो बार सड़क तक स्वयं ही जा चुका था। बच्चों को जाकर देखने के लिए भेजने का तो अंत ही न था। पर वह अभी तक नहीं आया था। अंततोगत्वा उसने दूर से देखा-उसकी प्रिंसिपल स्वयं ज्योति को अपने साथ ला रही थी। यह दृश्य देखकर तो जुगलप्रसाद की प्रसन्नता का मानो कोई अंत ही न रहा। देवकी का ध्यान उस ओर आकृष्ट करता हुआ वह गद्गद होकर बोला-

“आखिर सारे स्कूल का योग्य बालक जो हुआ। प्रिंसिपल भी इसके साथ आने में गर्व समझती है। वह देखो, वह बार-बार ज्योति की ओर झुक कर उसे अपनी बाँहों से खींचती है और बातें करती है।"

देवकी अपने अन्य बच्चों को भी इस प्रसन्नताजनक दृश्य से आनन्द लेने का अवसर देने के विचार से उनको लिवाने के लिए भीतर चली गई।

पर पास आते ही जुगलप्रसाद ने देखा कि ज्योति सिसकियाँ भर रहा है। यह देखकर जुगलप्रसाद हक्का-बक्का रह गया। यह बात उसकी समझ में न आ रही थी। आते ही उसकी प्रिंसिपल ने कहना आरंभ किया-“मिस्टर जुगलप्रसाद मुझे खेद है कि आपके सुपुत्र ज्योति को हार पहनाने का मान न मिल सका क्योंकि सेठ लखपतराय ने ज्योति के स्थान पर अपने पुत्र का नाम लिखवा लिया था। मैंने तो उसकी एक न सुनी पर उसने हमारे चेयरमैन को कहकर यह काम करवा लिया। आप जानते ही हैं, मैं तो आखिर एक मुलाजिम ही हूँ, मुझे ऐसा होने के कारण बहुत ही खेद है।"

ज्योति की प्रिंसिपल यह सब कुछ एक साँस में ही कह कर चलती बनी जैसे कोई मुसाफिर आने वाले तूफान की मार से बचने के लिए खिसकने का प्रयत्न करता

जुगलप्रसाद पर जैसे वज्र गिर पड़ा हो। उसे अपने पैरों के नीचे से मानो धरती खिसकती हुई प्रतीत हुई। वह वहीं-का-वहीं खड़ा रह गया। उसने ऐसा अनुभव किया जैसे किसी मोटी तोंद वाले ने उसके भीतर पैट्रोल छिड़कने के पश्चात् दियासलाई जला कर उसकी इच्छाओं और उमंगों को भस्म कर दिया हो और वह आग की लपट उसके रोम-रोम से निकल कर उसको जला रही हो। सहसा उसकी आँखों में लहू उतर आया और वह इस प्रकार दृढ़ता के साथ गर्जा “आज उस मंत्री का जन्म-दिन नहीं, मेरा जन्म-दिन है, मेरे सोये हुए साहस और धैर्य का जन्म-दिन है। मैं देखूँगा कि अब कोई कैसे गरीबों की इच्छाओं और उमंगों को लताड़ने का साहस करेगा।"

बाहर आकर देवकी और उसके अन्य बच्चों ने जब ज्योति को सिसकियाँ भरते और जुगलप्रसाद को जोश और क्रोध में भभकते देखा तो उनके नेत्र खुले-के-खुले रह गए।