जंग बहादुर/पर्वत पुत्र (स्मृति की रेखाएँ) : महादेवी वर्मा

Jang Bahadur/Parvat Putra (Smriti Ki Rekhayen) : Mahadevi Verma

बादामी रंग के पुराने कागज के टुकड़े पर लिखी हुई रसीद उंगलियों में थामे हुए, जब मैं कुलियों के चित्रगुप्त अर्थात ठेकेदार की ओर से मुंह फेरकर बाहर बुझने से पहले जल उठने वाले दीपक-जैसी संध्या को देखने लगी, तब उन्हें अपनी अधीनस्थ आत्माओं का लेखा-जोखा और अपनी महत्ता का वर्णन रोकना पड़ा। कई बार खांस-खांसकर जब बृद्ध महोदय श्रोता की उदासीनता भंग न कर सके, तब कुछ आगे की ओर झुके हुए दाहिने कोने में मटमैला निबवाला कलम खोंसकर और टेढ़ी-मेढ़ी उंगलियों में बिना ढक्कन वाली और पानी मिली हुई फीकी स्याही से भरी दवात यत्न से दबाकर, धीरे-धीरे सीढ़ियों से नीचे उतर गये और उनके पीठ फेरते ही कितने ही कुली मेरे कमरे के सामने एकत्र होने लगे।

यह डोटियाल संज्ञाधारी जीव भी विचित्र हैं। नेपाल, भूटान आदि से जो कुली इस ओर आते हैं, उनकी विशेषता का मापदण्ड बोझा उठाने की शक्ति मात्र है। उनमें प्राय: छोटा-से-छोटा कुली भी डेढ़-दो मन का बोझ उठाकर ऊंचे पहाड़ों की मीलों लम्बी चढ़ाई पार कर जाता है, पर रूप में यह सब शिव के बाराती हैं। केवल वे कुरूप हैं, दीन नहीं और यह दीन अधिक हैं, कुरूप कम!

कोई टाट का सिला विचित्र पाजामा और फटे हुए काले खुदरे कम्बल का गिलाफ जैसा कुरता गले में लटकाये, भालू के समान घूम रहा है। कोई कोपीनधारी तार-तार फटा सूती कोट पहने, कमर से बोझ बांधने की मोटी रस्सी लपेटे और रूखे बालों को खुजलाता हुआ सेही जैसा कांटेदार जन्तु जान पड़ता है। किसी के कठिन एड़ी और ऐंठी फैली उंगलियों वाले पैर सड़क कूटने के दुर्मुठ से स्पर्धा करते हैं और किसी के, स्वरचित मूंज की खुरदरी चट्टी में सिकुड़-बंधाकर पंजे की भ्रान्ति उत्पन्न करते हैं।

कोई धूप में बैठकर कपड़ों में से जुएं बीनता हुआ वानर का स्मरण दिलाता है और कोई दुकानदार से मांग-जांच कर मुख तथा हाथ-पैर में मले हुए तेल के कारण जल से बाहर निकले हुए जलजन्तु की तरह चमकता है। ये भी मनुष्य हैं, इसे हम अभ्यासवश ही समझते हैं। इनमें मनुष्य का रूप पाकर नहीं।

ऐसे विविध अद्भुत रूपों की भीड़ देखकर मेरी मौसी तो कोने में दबकर बैठ गईं और भक्तिन बाहर देहली पर खड़ी होकर विस्मय की मुद्रा से उनका निरीक्षण-परीक्षण करने लगी, क्योंकि दैन्य और विचित्रता का ऐसा समन्वय तो हमारे गांवों में भी नहीं मिलता। मैंने कुछ उदासीन भाव से कहा- ‘तुम सब जाओ, हमारा कुली जंग बहादुरहै, उसी को भेज दो।’

मेरी बात समझकर उनमें परस्पर देखा-देखी होने लगी। भीड़ में से कोई विशेष साहसी बोला- ‘माई जी ई है जंगिया’ मैं इस नाम में जंग बहादुरको नहीं पहचान पायी, अत: फिर कहा- ‘जंग बहादुरको बुलाओ।’

वे विस्मित-से एक-दूसरे को धकियाने लगे। फिर एक व्यक्ति को आगे ठेलकर दूसरे ने कहा- ‘यई तो जंगिया बोलता है।’ जिसे ढकेला था उसमें अपने कुली के उपयुक्त महत्ता का लेशमात्र न पाकर मैंने संदेह से प्रश्न किया- ‘क्या नाम है तुम्हारा?’ उत्तर मिला- ‘जंग बहादुर सिंह।’

नाम ने नाम के आधार को ठीक से देखना आवश्यक कर दिया। पर्वतीय पथ और पत्थरों की चोट से टूटे हुए नाखून और चुटीली उंगलियों के बीच ढाल बनी मूंज की चप्पल मानो मनुष्य को पशु बनाकर भी खुर न देने वाले परमात्मा का उपहास कर रही थी। पांव से दो बालिश्त ऊंचा और ऊनी-सूती पैबन्दों से बना हुआ पैजामा मनुष्य की लज्जाशीलता की विडम्बना जैसा लगता था। किसी से कभी मिले हुए पुराने कोट में, नीचे के मटमैले अस्तर की झांकी देती हुई ऊपरी तह तार-तार फटकर झालरदार हो उठी थी और अब अपने पहनने वाले को एक जन्तु की भूमिका में उपस्थित करती थी। अस्पष्ट रंग और अनिश्चित रूप वाली दोपलिया टोपी के छेदों से रूखे बाल जहां-तहां झांककर मैले पानी और उसके बीच-बीच में झांकते हुए सेवार की स्मृति करा देते थे।

घनी भौहों के नीचे मुख चौड़ा और नाक कुछ गोल हो गई थी। हंसी से निरन्तर खुले हुए ओठों के कोने कान तक फैलकर गाल और कान के अन्तर को छिपा देते थे। छोटी और विरल मूंछों के काली डोरी-जैसे छोर मुंह के दोनों और झूलकर छोटे-छोटे दांतों से प्रकट होने वाले बचपन का विरोध कर रहे थे। एक ओर संकीर्ण माथे और दूसरी ओर छोटी गोल ठुड्डी से सीमित चौड़े मुख को, रोकर पोंछी हुई-सी छोटी आंखें वही सजल झलक देती थीं, जो रेगिस्तान के जलाशय में सम्भव है। गेहुआं रंग निरन्तर धूप में रहने के कारण कहीं पुराने तांबे जैसा और कहीं झाईंदार हो गया है। बोझ बांधने की गांठ-गंठीली पुरानी रस्सी का एक छोर गले की माला बनता हुआ कन्धे से लटक रहा था, दूसरा कमर-बन्द बनकर कोट के झबरपन में कहीं छिपा, कहीं प्रकट था। ऐसा ही था वह जंग बहादुर सिंह उर्फ जंगिया। उसे अपने भाई धनसिंह के साथ मेरा सामान लेकर केदारनाथ होते हुए बदरिकानाथपुरी तक जाना और श्रीनगर लौटना था। एक रुपया प्रतिदिन के हिसाब से प्रत्येक की मजदूरी तय हुई थी, जिसमें से एक आना रुपया कमीशन, ठेकेदार का प्राप्य था।

‘तुम्हारा भाई कहां है’ पूछते ही ‘धनिया वो धनिया’ की पुकार मच गई, पर बार-बार सबके ढकेलने पर भी जो भाई के पीछे ही अड़ा रहा, उसे मैंने बिना किसी के बताये ही धनसिंह समझ लिया। जंग बहादुरका चेहरा भी अपने छोटेपन के प्रति इतना सतर्क था कि उसे देखकर किसी पौराणिक अनुज का स्मरण हो आता था। गोल-मटोल कुछ पुष्ट शरीर वाले धनिया की आकृति भी उसके स्वभाव के अनुरूप थी। विरल भूरी भौंहों की सरल रेखा और छोटी नाक की कुछ नुकीली नोक उसकी सरलता का भी परिचय देती थी और तेजस्विता का भी। ओठों का दाहिना कोना कुछ ऊपर की ओर खिंचा-सा रहता था, जिससे उसके मुख पर मुस्कराने का भाव स्थायी हो गया था। रंग की स्वच्छता और त्वचा की चिकनाहट से प्रकट होता था कि कुली-जीवन की सारी कठोरता उसने अभी नहीं झेली है। टाट के पुराने पैजामे और जीन के फटे कोट ने उसे पराजित सिपाही की भूमिका दे डाली थी, जो उसके मुख के साथ विरोधाभास उत्पन्न करती थी।

पहाड़ के ऊँचे-नीचे रास्ते में मुझे अपना और अपने साथियों का जीवन इन्हें सौंपना होगा और मार्ग में जीवन की सब सुविधाओं के लिए यह मेरे संरक्षण में आ गये हैं, इस विचार ने उन दोनों कुलियों के प्रति मन में अयाचित ममता उत्पन्न कर दी। कहा- ‘तुम दोनों सामान देख लो, अधिक लगे तो एक कुली और ठीक कर लिया जाएगा।’

आगे-आगे जंगिया और पीछे-पीछे धनिया ने कमरे में पैर रखा और मौसी तथा भक्तिन को विस्मित करते हुए वे भारी बंडलों को अनायास उठा-उठाकर बोझ का अनुमान लगाने लगे।

मैं पैदल ही लम्बी-लम्बी पर्वतीय यात्राएं कर चुकी हूं, जिनमें सफलता का मूल मंत्र सामान कम रखना ही माना जाता है। अत: इस सम्बन्ध में मुझसे भूल होना सम्भव नहीं। फिर मैं यह विश्वास नहीं करती कि जिन यात्राओं में खाद्य सामग्री मिल जाने की सुविधाएं हैं, वहां भी घी के पीपे और बिस्कुट के बीसियों टिन ढोते फिरा जाये। हिम के सुन्दर शिखरों की छाया में पाल्सन का बटर और हन्टले पामर्स के बिस्कुट खाना मेरी समझ में कम आता है, पर वहीं लकड़ी कण्डे बटोरकर आलू भूनने और बाटी बनाने का सुख मैं विशेष रूप से जानती हूं। मेरी मौसी अवश्य कुछ अधिक सामान ले जाने की इच्छा रखती थी, परन्तु मेरी छोटी-सी इच्छा को भी बहुत मूल्य देने का उनका स्वभाव है। उनके बेटे जिन तीर्थों में उन्हें नहीं ले जा सकते, वहीं मैं ले जा रही हूं, अत: मैं सब बेटों से बड़ी हूं और मेरी बुद्धि सब प्रकार विश्वसनीय है, इस सम्बन्ध में उन्हें कोई सन्देह नहीं था!

इस प्रकार सबके इने-गिने कपड़े पर सारे बिस्तर, दवा का बक्स, कपड़े साफ करने के लिए साबुन आदि आवश्यक वस्तुएं ही साथ थीं, जिन्हें जंग बहादुरने पास कर दिया और दूसरे दिन सबेरे ही हमारी यात्रा आरम्भ हुई।

ऐसी यात्रा में चल-चित्र के समान जो जीवन दिखाई देता है, उससे हम किसी जाति के सम्बन्ध में ऐसा बहुत कुछ ज्ञातव्य जान सकते हैं, जो अन्य किसी प्रकार सम्भव नहीं। घर में व्यक्ति अपने आश्रितों और सेवकों के प्रति अपने व्यवहार को छिपा सकता है, मित्र बना सकता है, परन्तु यात्रा में ऐसा सहज नहीं होता। मनुष्य में जो भी स्वार्थपरता, विवेकहीनता, क्रूरता और असहिष्णुता रहती है, वह ऐसी यात्रा में पग-पग पर प्रकट होती चलती है। कुली को पैसे देते समय, उसके विश्राम, भोजन का समय निश्चित करते हुए, साथियों के सुख-दुख की चिन्ता और सहायता के अवसर पर मनुष्य अपने अन्ततम का ऐसा आभास दे देता है, जिससे उसके चरित्र की अच्छी व्याख्या हो सकती है।

एक ओर श्वेत शतदल की पंखुड़ियों की तरह कुछ खुली कुछ बन्द, कहीं स्पष्ट, कहीं अलक्ष्य पर्वत-श्रेणियों और दूसरी ओर कहीं हरितदल-से फैले खेत और कहीं गली चांदी जैसे स्रोतों के बीच में जो जीवन गतिशील है, उसे देखकर प्रसन्नता से अधिक करुणा आती है।

डांडी में बैठा हुआ कोई लम्बोदर अपने हांफते हुए कुलियों को ‘सर्प-सर्प’ कहकर इस तरह दौड़ाता है कि उसे देखकर हमें स्वर्ग पर अधिकार पाकर भी देवता न बन पाने वाले नहुष का स्मरण हो आता है। किसी डांडी में कोई सम्पन्न घर की श्रृंगारिता प्रसाधित महिला पर्वत के सौन्दर्य की उपेक्षा कर झपकियां लेती जाती है। किसी में घुटे सिर और सूखी लकड़ी से शरीरवाली कोई वृद्घा, कटु-तिक्त अनुपान से उत्पन्न मुद्रा धारण किये और राह में आंख गड़ाये हुए हिलती-डुलती चली जाती है। कहीं कोई धनहीन प्रौढ़ झप्पान में बैठकर दोनों पांव लटकाये हुए, याचना-भाव से आकाश की ओर ताकता है, कहीं कोई छोटे टट्टू पर विराजमान वीर, घोड़ेवाले को पूंछ पकड़कर चलने के लिए मना कर रहा है, क्योंकि इस व्यायाम से वह सभीत हो जाता है। कहीं डांडी में मृगचर्म बिछाकर बैठे हुए मठाधीश, शंख-झालर लेकर पैदल चलने वाले शिष्यों को देख-देखकर संदेह स्वर्गारोहण का सुख अनुभव कर रहे है।

इस डांडी, झप्पान, टट्टू आदि से भरे-पूरे दल के अतिरिक्त  एक दूसरा दल भी है,  जिसमें दरिद्रों का ही बाहुल्य है। प्राय: रुपयों के अभाव में इनमें से अधिकांश बिना टिकट ही रेल-यात्रा समाप्त कर आने में निपुण होते हैं। फिर पांच रुपये से लेकर पांच आने तक अंटी में रखकर और गठरी में सत्तू-चबेना-गुड़ का पाथेय लेकर चलते हैं। जीवित लौटने के साधनों के अभाव में इनकी यात्रा सब से अन्तिम विदा के उपरान्त ही आरम्भ होती है। राह में जहां बीमार हुए, साथी छोड़कर आगे बढ़ गये। दो-चार दिन वहां ठहरने से सबका पाथेय और रुपया-धेली चुक जाने का डर रहता है और उस दशा में किसी का भी लक्ष्य तक पहुंचना असम्भव हो सकता है। इसी से वह सब घर से ही ऐसा समझौता करके चलते हैं, क्योंकि एक का न पहुंचना तो उसके व्यक्तिगत पाप का परिणाम है, पर यदि उसके कारण अन्य भी न पहुंच सके, तो दूसरों को न पहुंचने देने का पाप भी उसके सिर रहेगा।

चट्टी-चट्टी पर इनमें से दो-एक बीमार पड़ते रहते हैं और कहीं-कहीं मर भी जाते हैं। अन्त्येष्टि का काम यात्रियों से मांग-मांगकर सम्पन्न किया जाता है। साधन न मिलने पर गहरा खड्ड तो स्वाभाविक समाधि है ही।

पैदल चलने वालों में कभी-कभी भ्रमणप्रिय टूरिस्ट भी आते-जाते मिल जाते हैं। वे यात्रियों के अस्त्र-शस्त्र से लैस तो होते ही हैं, उनका पैदल चलना भी मनोविनोद के लिए ही रहता है, क्योंकि अधिकांश के साथ टट्टू रहते हैं जिन्हें यात्रियों के सुविधानुसार कभी आगे, कभी पीछे चलना पड़ता है। दरिद्र पैदल चलने वालों से न डांडीवाले बोलते हैं, न ये फैशनेबिल यात्री।

डांडियों के काफिले में भी मृत्यु अपरिचित नहीं, पर वह कुलियों तक ही सीमित रहती है। कभी किसी कुली को हैजा हो गया, किसी को बुखार आ गया, किसी को गहरी चोट आ गई। बस तुरन्त दूसरा कुली ठीककर लिया जाता है और यात्रा अविराम चलती रहती है। बीमार कुली भाग्य पर छोड़ दिया जाता है। जीवित रहा, तो जहां से चले थे वहीं लौटकर दूसरा यात्री खोज लेता है, मर गया तो फेंक देने की सुविधा का अभाव नहीं। डांडियों के साथ सामान देने वाले कुली भी रहते हैं, पर उन्हें भी डांडियों के साथ ही दौड़ना पड़ता है।

इन यात्रियों की स्थिति बहुत कुछ ऐसी रहती है, जैसे हमारे यहां इक्केवालों की। वह बारह रुपये का टट्टू खरीद लाता है और उसे रात-दिन इस तरह दौड़ाता है कि कम-से-कम समय में छत्तीस वसूल हो जाएं। थके टूटे टट्टू के मर जाने पर वह बारह में नया खरीदने के उपरान्त भी लाभ में ही रहता है।

यात्री भी एक रुपया प्रतिदिन देकर कुली को खरीदता है, इसलिए लाभ की दृष्टि से तीन दिन का रास्ता एक दिन में तय करने की इच्छा स्वाभाविक है, अन्यथा वह घाटे में रहेगा।

यात्री तो बैठा-बैठा ऊंघता रहता है पकवान, सूखे मेवे आदि उसके साथ होते हैं, अत: अधिक थकावट या अधिक भूख का प्रश्न ही नहीं उठता पर वह कुलियों के विश्राम और भोजन के समय में से घटाता रहता है। सबेरे ही कह देता है कि बीस मील का रास्ता तय करना होगा। चाहे जिस तरह चलो पर शाम तक इतना न चलने पर मजदूरी काट ली जाएगी और वे बेचारे मनुष्य-पशु हांफ-हांफकर मुंह से फिचकुर निकालते हुए दौड़ते हैं।

आश्चर्य तो यह है कि सबल वे ही हैं। यदि उनमें से एक भी भृकुटियां टेढ़ी कर अपने सवार की ओर देखकर साभिप्राय इस सैकड़ों फीट गहरे खड्ड की ओर देखने लगे, तो सवार बेहोश हो जायेगा, पर उन्हें क्रोध आवे तो कैसे!

इसी स्वर्ग के हृदय में बसी मृत्यु और पवित्रता के भीतर छिपी व्याधि में से हमें भी मार्ग बनाना पड़ा। मैं तो डांडी में बैठती नहीं, दूसरे भी पैदल ही चले। मनुष्य के भाव के समान संप्रेषणीय और कुछ नहीं है, इसी से हमारे कुली स्नेहशील साथी बन सके और आज उनकी स्मृति को मैं उस तीर्थ का पुण्यफल ही मानती हूं। उन दोनों के पास दो टाट के टुकड़े और एक फटी काली कमली थी, जिसे चौड़ाई की ओर से ओढ़ना कठिन था और लम्बाई की ओर से ओढ़ने पर यदि पैर ढक जाते थे, तो सिर का बाहर रहना अनिवार्य था और सिर ढक लेने पर पैरों का बहिष्कार स्वाभाविक हो जाता था।

मलिन, बिना धुले कपड़ों में भी उन दोनों भाइयों का स्वच्छता-विषयक ज्ञान खो नहीं गया था। चट्टी में सबसे दूर अंधेरे कोने में खोजकर वे कड़कड़ाते जाड़े में कपड़े दूर रख कौपीनधारी बाबाजी के वेश में भात बनाते-खाते थे। स्वच्छ कपड़ों के अभाव में आचार की समस्या का यह समाधान निमोनिया को निमंत्रण है, यह मैं प्रयत्न करके भी उन्हें समझा न सकी।

बर्तन के नाम से प्रत्येक के पास एक-एक लोहे का तसला था, जिसमें से एक में दाल बन जाती थी, दूसरे में भात। कभी-कभी दाल का खर्च बचाने के लिए वे झरनों के किनारे खोजकर लिगूणा नाम का जंगली शाक तोड़ लाते और उसी के साथ स्वाद लेकर कच्ची-पक्की मोटी रोटियां खाते थे। मार्ग में आलू के अतिरिक्त कोई हरी तरकारी मिलती नहीं, पर इसे जंगलियों के खाने योग्य विषैली घास समझकर कोई खाने पर राजी नहीं होता था। एक बार हठपूर्वक शाक का आतिथ्य स्वीकार कर लेने पर उसमें मेरा भी हिस्सा रहने लगा और फिर तो उसे हमारे व्यंजनों में महत्वपूर्ण स्थान मिल गया।

मार्ग में हम सब उनके पीछे चलते थे, अत: शेष शरीर बोझ की ओट में होने के कारण केवल उनके पैर ही मेरे निरीक्षण की सीमा में रहते थे। धनसिंह की पलके चाहे संकोच से उठती हों पर उसके पैर भाई के साथ दृढ़ता से उठते थे। जब कभी चढ़ाई पर उनके पंजों का भार एड़ियों पर पड़ने लगता और आगे रखा हुआ पैर पीछे खिसकता जान पड़ता, तब मैं बिना उनका मुख देखे ही थकावट का अनुमान लगा लेती थी। परन्तु ‘जंग बहादुरथक गये हो’ पूछते ही विचित्र भाषा में वही परिचित उत्तर मिलता ‘अस्सा है मां! कुछ तकलीस नहीं।’ अच्छा और तकलीफ के अपभ्रंश रूपों पर यदि हंसी नहीं आती थी, तो स्वर की गम्भीरता के कारण।

जीवन में बहुत छोटी अवस्था में ही मैं मां का सम्बोधन और उसके उपयुक्त ममता का उपहार पाती रही हूं, उन पर्वत-पुत्रों के मां सम्बोधन में जो कोमल स्पर्श और ममता की सहज स्फीति रहती थी, वह अन्यत्र दुर्लभ रही है।

धनिया तो संकोच के कारण सिर नहीं उठा पाता था। पर जंगिया राह में कई बार घूम-घूमकर हमारी आवश्यकताओं और थकावट का पता लेता रहता था। अन्त में एक दिन उसने अमूल्य वस्तु मांग बैठने वाले याचक की मुद्रा से कहा’मां आप आगे चलता तो अस्सा होता! हम पीछू देखता है, फिर देखता है, बोझा से गरदन नहीं घूमता। आगे रहेगा तो हम सिर ऊंचा करके देख लेगा, वह गया मां, वह जाता है, और हमारा पांव जल्दी उठेगा।’ तब से हम लोग आगे रहने लगे।

आदि-बद्री पहुंचकर धनसिंह चट्टी के एक कोने में जाकर लेट गया और उसे जोर से बुखार चढ़ आया। मैंने अपने होमियोपैथिक दवाओं के बक्स से कोई दवा खोजकर ‘निरस्तपादपे देशे एरण्डोपि द्रुमायते’ की कहावत चरितार्थ की और भक्तिन चाय का अनुपान प्रस्तुत कर चतुर नर्स के गर्व का अनुभव करने लगी। जंग बहादुर को बैठे देख जब मैंने उसे बीमार के पैर दबाने का आदेश दिया, तब परिचित संकोच के साथ उत्तर मिला’मैं बड़ा है मां! वह सरम करता है, कैसा करेगा?’

इस शिष्टाचार की बात सुनकर मुझे विस्मय होना स्वाभाविक था। यहां तो एक सम्भ्रान्त परिवार की बृद्धा माता ने बताया था कि उसका लड़का जब-तब उस पर हाथ चला बैठता है और मातृत्व की दोहाई देने पर उत्तर मिलता है, वह जमाना गया, जब तुम सब पैर पुजाती थीं, पैदा किया, तो अपने शौक के लिए किया-इसी कारण हम तुम पर चन्दन-चावल चढ़ाते-चढ़ाते जन्म बिता दें? जब जन्मदात्री के सम्बन्ध में मनुष्य इतना अशिष्ट हो उठा है, तब सहोदरता विषयक शिष्टता की चर्चा करना व्यर्थ होगा। पर जंग बहादुरका अनुज इतना प्रगतिशील नहीं हो पाया, अत: बड़े भाई से पैर दबवाना उसे शिष्टाचार के विरुद्ध जान पड़े तो आश्चर्य नहीं।

कुली के बीमार पड़ जाने पर यात्री ठहरते नहीं, चट्टी से या निकट के गांव से दूसरे कुली बुलाकर तुरन्त ही आगे बढ़ जाते हैं। इस नियम के कारण उन दोनों भाइयों के सरल सहज स्नेह का जो परिचय अनायास मिल गया, वह अन्य परिस्थितियों में सुलभ न हो पाता।

जंग बहादुरजानता था कि छोटे भाई की जगह दूसरा कुली ले लेगा, पर वह उसे छोड़कर चला जावे, तो उसकी मां को क्या उत्तर देगा। धनिया न बीमारी की दशा में लौट सकता था, न चट्टी में अकेले पड़े-पड़े अच्छा हो सकता था। कुछ दिन ठहर जाने पर रुपया समाप्त हो जाना निश्चित था पर दूसरा बोझ मिलना अनिश्चित। ऐसी स्थिति में उसे छोड़कर बड़ा भाई कर्तव्यच्युत हुए बिना नहीं रह सकता। उसने निश्चय कर लिया कि वह सबेरे दो नये कुली बुला लावेगा और स्वयं धनिया की देखभाल के लिए रुक जायेगा।

धनिया ने भाई के मुख से उसका निश्चय न सुनने पर भी सब कुछ जान लिया था। उसे विश्वास था कि उसका भाई उसे छोड़ न सकेगा, अत: उसकी भी मजदूरी चली जायगी। जो थोड़े-बहुत रुपये मिलेंगे वे भी बीमारी में खर्च हो जायेंगे, तब दूसरे बोझ की प्रतीक्षा करना भी कठिन होगा और लौटना भी। उसने निश्चय किया कि वह जैसे भी बनेगा उठकर बोझ लेकर चलेगा।

सबेरे झरने से हाथ-मुंह धोकर लौटने पर मैंने चट्टी के नीचे वाले खंड में जंग बहादुर को दो नये कुलियों के साथ प्रतीक्षा करते पाया और ऊपर धनसिंह को कपड़े की पट्टी से सिर कसकर बोझा संभालते देखा ‘क्या तुम अच्छे हो गये’ सुनकर उसने थकावट से उत्पन्न पसीने की बूंदें पोंछते हुए बताया कि वह चल सकेगा। उसके न जाने से भाई का भी नुकसान होगा।

उन दोनों चचेरे भाइयों के स्नेह-भाव ने कुछ क्षण के लिए मुझे मूक कर दिया। मैं दो-तीन दिन वहां ठहरकर उन्हीं के साथ यात्रा आरम्भ करूंगी, यह सुनकर उनके मुखों पर विस्मय का भाव उदय हो आया, उसे देखकर ग्लानि भी हुई और खिन्नता भी। मनुष्य ने मनुष्य के प्रति अपने दुर्व्यवहार को इतना स्वाभाविक बना लिया है कि उसका अभाव विस्मय उत्पन्न करता है और उपस्थिति साधारण लगती है। धनसिंह तीसरे दिन अच्छा हो गया और चौथे दिन हम फिर चले।

उन दोनों के पारस्परिक व्यवहार, सौहार्द आदि ने मेरे मन में उनके प्रति जो ममतामय आदर का भाव उत्पन्न कर दिया था, वह उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। मेरी कुछ किताबें, दवा का बक्सा, बर्तन आदि वस्तुएं भारी थीं, अत: उनमें से प्रत्येक उन्हें अपने बोझ में बांधकर दूसरे का भार हल्का कर देना चाहता था।

सबेरे एक-दूसरे से पहले उठने का प्रयत्न करता था, जिससे सब भारी चीजें अपने बोझ में बांधने का अवसर पा सके। एक बताशा देने पर भी एक भाई दूसरे की खोज में दौड़ पड़ता था। कोई देखने योग्य वस्तु सामने आते ही एक-दूसरे को पुकारने लगता था। वे दोनों ऐसे दो बालकों के समान थे, जिन्हें किसी ने जादू की छड़ी से छूकर इतना बड़ा कर दिया हो।

मार्ग के अन्य कुलियों के प्रति भी उनके व्यवहार में संवेदनशीलता और सहानुभूति ही रहती थी, एक बार पहाड़ से उतरती हुई गाय इतने वेग से मार्ग तक फिसलती चली आई कि उसके खुर की चोट से एक कुली का पांव घायल हो गया। धनसिंह को सामान सौंपने के उपरान्त जंग बहादुरउस लहू-लुहान पैर वाले कुली को पीठ पर लादकर झरने तक ले गया और हमारे मरहम-पट्टी कर चुकने पर उसे डेढ़ मील दूर अगली चट्टी तक पहुंचाया। इतना ही नहीं, उसे अपना और उसका बोझ लाना पड़ा और अंधेरे में ठिठुरते हुए, अपने फटे कपड़ों में लगे, रक्त के दाग भी साफ करने पड़े। पर प्रश्न करने वाला उससे एक ही उत्तर पा सकता था’कुछ तकलीस नहीं, अस्सा है।’

धनसिंह संकोची होने के कारण बातचीत कम करता था, पर जंग बहादुरजब-तब बैठकर अपने माता-पिता, गांव-घर आदि की कहीं दुखद कहीं सुखद कथा कहता रहता।

वह नेपाल के छोटे ग्राम में रहने वाले माता-पिता का अन्तिम पुत्र है। जीविका का अन्य साधन न होने के कारण वह बचपन से ही अन्य कुली साथियों के साथ इस ओर आने लगा। गर्मियों के आरम्भ में वे आते और शरद के आरम्भ में लौट जाते हैं। किसी को मजदूरी के सिलसिले में कैलास किसी को पिण्डारी और किसी को बदरी-केदार की यात्रा करनी पड़ती है। ठेकेदार के पास सबके नाम और नम्बर रहते हैं। यदि कोई कुली लौटकर नहीं आता और समाचार भी नहीं मिलता, तो वह मरा समझ लिया जाता है। इसी प्रकार जब कोई सीजन के अन्त में घर में नहीं लौटता और न साथियों के द्वारा कोई समाचार भेजता है, तब घर वाले भी उसे महायात्रा का यात्री मानकर क्रिया-कर्म द्वारा उसका पथ सुगम बनाने का प्रयत्न करते हैं।

जंग बहादुरअनेक बार आपत्तियों में पड़ चुका है, क्योंकि वह अधिक कमाने की इच्छा से दूर-दूर की यात्राएं ही नहीं करता, एक सीजन में कई-कई यात्राएं कर डालता है। उसके अनिश्चित जीवन के कारण ही विवाह योग्य कन्याओं के पिता उसे जामाता होने के उपयुक्त नहीं मानते थे, परन्तु दो वर्ष पहले उसे अविवाहित रहने के शाप से मुक्ति मिल चुकी है। वयस्क वधू के माता-पिता थे ही नहीं। सम्बन्धियों ने सोचा, चाहे वर किसी पर्वतशिखर पर हिम-समाधि ले ले, चाहे धन-कुबेर बनकर लौटे, कन्या रहेगी तो ससुराल ही में, अत: बेचारे अभिभावक तो कर्तव्य-मुक्त हो सकेंगे।

पिछले वर्ष जंग बहादुरमजदूरी के लिए आया ही नहीं था। इस वर्ष खेत में कुछ हुआ नहीं, और पत्नी ने पुत्र-रत्न उपहार दे डाला। अब तो कुछ-न-कुछ कमाने का प्रश्न उग्र हो उठा।

जब वह घर से चला तब उसका पुत्र दो मास का हो चुका था पर वह इतना दुर्बल और छोटा था कि पिता उसे गोद में लेने का भी साहस नहीं कर सका। अब वह खाने-पीने से बची मजदूरी घर ले जाने के लिए जमा कर रहा है और जो कुछ इनाम में मिल जाता है, उससे पुत्र के लिए एक टोपी और कुरता बनाने की इच्छा रखता है। युवती पत्नी ने बार-बार आंखें पोंछते-पोंछते, फटा आंचल फैला-फैलाकर विनती की थी कि भले आदमी के साथ जाना और बोझा लेकर एक बार से अधिक मत चढ़ाई करना। पिता ने पीठ पर हाथ रखकर और आकाश की ओर धुंधली आंख उठाकर मानो उसे परमात्मा को सौंप दिया था। और मां तो गांव की सीमा के बाहर तक रोती-रोती चली आई थी। बड़ी कठिनाई से अनेक आश्वासन देने पर भी वह लौटी नहीं, वरन् वहीं एक जरा-जीर्ण पेड़ का सहारा लेकर दृष्टि-पथ से बाहर जाते हुए पुत्र को आंसुओं के तार से बांध लेने का निष्फल प्रयत्न करती रही। विदा का यह क्रम तो सनातन था पर इस वर्ष उस अनुष्ठान में भाग लेने के लिए विकल पत्नी और मौन पुत्र और बढ़ गये थे। जंग बहादुर को परम समर्थ जानकर उसकी विधवा काकी ने भी अपना पुत्र उसे सौंप दिया था, इसी से अब वह ऐसे ही यात्री की खोज में रहता है, जो उन दोनों को साथ ले चले।

बदरीनाथ की ओर मेरी यह दूसरी यात्रा थी इसी से मैंने कम-से-कम समय में प्रशान्त अलकनन्दा के तट पर बसी उस अलकापुरी में पहुंच जाने के लिए केदारनाथ का पथ छोड़ देना ठीक समझा। पर, जब वहां से लौटकर रुद्रप्रयाग पहुंचे, तो उत्ताल तरंगों में ताण्डव करती हुई अलकनन्दा के किनारे, तूफान में क्षण-भर ठहरे हुए फूल का स्मरण दिलाता था, तब केदार न जाने का पश्चात्ताप गहरा हो गया।

जिन्होंने, पांच जल की धाराओं से घिरा और रंग-बिरंगे फूलों में छिपे चरणों से लेकर शून्य नीलिमा में प्रकट मस्तक तक सफेद हिम में समाधिस्थ केदार का पर्वत देखा है वे ही उसका आकर्षण जान सकते हैं। मीलों दूर से ही वह उज्जवल शिखर अक्षरहीन आमंत्रण के समान खुला दिखाई देता है। जैसे-जैसे हम उसकी ओर बढ़ते हैं, वह विस्तार बढ़ता जाता है और उसकी रजत-विद्युत रेखाओं के समान झिलमिलाती हुई रेखाएं स्पष्टतर होती जाती हैं। लौटते समय जिस क्षण वह हमारी दृष्टि से ओझल हो जाता है, उस समय हम एक विचित्र अकेलेपन का अनुभव करते हैं।

रुद्रप्रयाग पहुंचकर कुछ साथी इतने थक गये थे कि इतनी लम्बी चढ़ाई के लिए साहस न बांध सके। वास्तव में बदरीनाथ के पर्वत-शिखर से केदार का शिखर केवल ढाई कोस के अन्तर पर स्थित है पर वहां तक पहुंचने में नौ दिन का समय लगता है। ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस’ की कहावत के मूल में सम्भवत: यही सत्य है।

जब मैंने वहां जाने का निश्चय कर लिया, तब विशेष थके साथी रुद्रप्रयाग में हमारी प्रतीक्षा और विश्राम करके ‘एक पंथ दो काज’ को चरितार्थ करने के लिए प्रस्तुत हो गये। जाने वालों के सामान के लिए एक कुली पर्याप्त था, अत: दूसरे कुली की समस्या का समाधान आवश्यक हो उठा। मेरी व्यक्तिगत इच्छा थी कि दूसरा कुली भी यात्रियों के साथ विश्राम करे और अट्ठारह दिन के उपरान्त हमारे लौटने पर साथ चले। पर जंग बहादुरमां जी का अट्ठारह रुपया मुफ्त कैसे ले ले। उसने बहुत संकोच और वरदान-याचक की मुद्रा से जो कहा उसका आशय था कि वह मांजी को जान गया है, अत: विश्वासपूर्वक धनसिंह को छोड़कर जा सकता है। यहां से श्रीनगर पहुंचकर वह नये यात्री की खोज भी करेगा और दूसरे भाई की प्रतीक्षा भी। सबके लौट आने पर वह धनिया के साथ यात्रा करेगा।

जंग बहादुरके स्वार्थ त्याग पर कोई काव्य चाहे न लिखा जावे, पर मेरे हृदय में उसकी स्मृति एक कोमल मधुर कविता है। जब मैंने जंग बहादुरको अपने साथ चलने का आदेश दिया और धनसिंह को रुद्रप्रयाग में विश्राम का, तब उसकी आंखें अधिक सजल हो आईं, या कण्ठ अधिक गद्गद् हो उठा, यह बताना कठिन है। उसने बहुत साहस से लौट जाने का प्रस्ताव किया था, पर हम सब का बिछोह सहना उसके लिए कठिन था। कई दिन बाद उसने अपनी अटपटी भाषा में बताया था ‘हम हियां सरम में, अदब से नहीं रोया, फिर दूर जाकर जोर से रोया, सोचा मां जी जाता है और हमारे भीतर कैसा-कैसा तो होने लगा।’

वह यात्रा भी समाप्त हो गई और तब एक दिन हम सबको बस पर बैठाकर वे दोनों भाई खोए से खड़े रह गये। जंग बहादुरने आंसू रोकने का प्रयास करते-करते कहा, ‘मां जी जीता रहना फिर आना, जंगिया का नाम चीठी भेजना।’ धनिया सदा के समान पृथ्वी पर दृष्टि गड़ाये, बीच-बीच में टपकते आंसुओं की भाषा में विदा दे रहा था। आज वे दोनों पर्वत-पुत्र कहां होंगे, सो तो मैं बता ही नहीं सकती पर उनकी मां जी होकर मुझे जो सम्मान मिला, वह भी बताना सहज नहीं।

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