जनार्दन की रानी (कहानी) : जैनेंद्र कुमार

Janardan Ki Rani (Hindi Story) : Jainendra Kumar

सनातन काल में एक राजा जनार्दन थे। जब से लोग जानते थे तब से उन्हीं का राज था। उस राज से बाहर भी धरती है, ऐसा नहीं माना जाता था । अखिल भूखण्ड के वह एकछत्र अधिपति थे ।

राजा जनार्दन अपनी रानी से बहुत अभिन्न थे। उसी के लिए अपना जीवन मानते थे। रानी ही उनकी केन्द्र थी, सर्वस्व थी, स्वप्न थी ।

राजा जनार्दन को राज करते शताब्दियाँ हो गयीं। जैसे अन्यथा कुछ सम्भव न हो, यही सनातन विधान हो । तब सब अपने कर्तव्य में रहते थे और दूसरे के अधिकार की मर्यादा रखते थे ।

एक दिन राजा ने प्रधान सचिव को बुलाया। कहा, “देखो, अब हम जाएँगे । एक कल्प बीत गया। हमको और ग्रहों में जाना है। जानते हो यह राज किसकी शक्ति से और किसके आशीर्वाद से चलता है ?"

सचिव ने कहा, "महाराज के प्रताप से !"

राजा ने कहा, "नहीं मन्त्री, महारानी के श्रम और सेवा से वही तुम सब जन की माता है। मैं जाऊँ तब उन्हीं के निमित्त तुम्हें रहना और उनके अनुकूल शासन- कार्य चलाना होगा। हर बात में उनकी ही सुविधा सर्वोपरि मानना ।"

"आप कहाँ जाएँगे, महाराज ?"

"ब्रह्माण्ड अनन्त है, सचिव, और ग्रह - मण्डल अनेक । आवागमन तो लगा ही है।"

सचिव के अनन्तर राजा ने रानी से कहा- " आज मैं व्योम - यात्रा पर अकेला जाऊँगा । प्रिये, चिन्ता न करना ।"

रानी ने कहा, "आज न जाओ, आर्य । शुभ योग नहीं है। "

राजा हँसे । बोले, "तुम साथ चली हो तब शुभाशुभ योग का ध्यान किया गया है, ऐसा याद नहीं आता। आज क्या है ?"

रानी बोली, "आर्य, जानते हैं आज क्या है । आर्य इस बार लौटना नहीं चाहते हैं । "

"यह तुमने कैसे अनुमान किया, शुभे ?"

"मुझसे भी अधिक प्रिय है और श्रेय है, वहीं जाते होंगे। इसी से तो आर्य आज मेरा साथ नहीं चाहते हैं । "

राजा ने कहा, “यह सच है, शुभे ! तुम्हारे पार भी बहुत सृष्टि है, तुम रुष्ट तो नहीं हो ?"

"नहीं! रुष्ट नहीं हूँ। आर्य रहे, इससे इतनी कृतार्थ हूँ कि जा रहे हैं, इसके लिए भी कृतज्ञ ही हो सकती हूँ। मेरा हित आर्य में है, और आर्य की स्मृति मेरी सम्पदा है। यह निधि मुझे बहुत है। मेरा सब आर्य का ही तो ऋण है।"

राजा ने कहा, "रानी, मेरे रहते तुम अपने को दासी रखे रहीं । अब तुमको सम्राज्ञी बनना है। शुभे, इसी से जाता हूँ कि तुम अपने पद पर आओ। मुझे राजा समझा गया जबकि मैं अनुचर था। तुम दासी बनीं जबकि तुम अन्नदात्री थीं। शुभे, शक्ति की मूल तुम हो । तलवार के विजेता तो आँगन के खिलाड़ी हैं। वे नामसमझ बालक हैं। उद्दण्डता में वे तुम्हें न समझे, पर तुम अपने को समझोगी। अधीश्वरी तुम हो । यह बात मेरे रहते तुम जानने से इनकार करती रहीं । इसी से मुझे जाना होगा । मेरा अभाव जब तुममें खो जाएगा तब तुम जान लोगी कि तुम्हीं थीं, मैं तो दिखावा था । और उस दिन कौन जाने तुममें होकर मुझे अलग होने की जरूरत ही न रहे। बस, शुभे ! मैं चाहता हूँ कि तुम अपने को पहचानो और यशस्विनी बनो।"

इसके बाद राजा अन्तर्ध्यान हो गये। बहुत ढूँढ़ा, बहुत खोजा । धरती नाप डाली गयी, समुद्र मथ दिये गये और आसमान भी झुका दिया गया। ज्ञात हुआ कि राजा कहीं नहीं है। यह ज्ञान सबमें फैल गया। धीरे-धीरे करके राजा कभी थे, यह भी ज्ञानीजन भूलने लगे । यहाँ तक कि उनके आचार्य, दार्शनिक और ऐतिहासिकों ने ग्रन्थों में उल्लेख किया कि अखिलेश कहीं कभी कोई था, प्रमाणाभाव से यह असिद्ध है । दूसरी ओर रानी यशस्विनी नहीं बनी। युग-युगान्त हो गये, वह अपने राजा को और अब उनकी स्मृति को लेकर दासी ही बनी हुई हैं।

सचिव ने अपने कर्तव्य का निर्वाह किया। शासन का दायित्व उनका था । उन्होंने पहले कहा, "महारानी, राजा गये, क्या आज्ञा है ?"

रानी ने कहा, "सचिव, मुझसे पूछने की मति तुम्हें किसने दी ? जिन्होंने दी होगी। वह तो नहीं हैं। अब तुम्हें मेरा नहीं, अपनी बुद्धि का भरोसा है। जाओ, अपनी बुद्धि से चलो और मुझे मेरे दुःख में छोड़ो।"

अमात्य ने कहा, "महारानी, महाराज कह गये थे...।"

रानी बोली, “जानती हूँ, कह गये थे। पर अपने व्यर्थ कर्म के लिए मुझे न पूछो, मुझे दुःख का भोग है। शासन की ओर देखना होगा तो सचिव, तुम सबको इसी क्षण बरखास्त हो जाना होगा। तुममें स्वर्गीय महाराज की श्रद्धा नहीं, न तुममें उनकी महारानी की हित भावना है। तुममें सत्ता का प्रेम है। उसमें मुझसे आज्ञा न लो। मेरा काम अभी शोक है। जाओ, अपने से तुम निबटो । "

जाते हुए सचिव को रोककर रानी ने फिर कहा - "सचिव, तो तुम्हारे दार्शनिक और ऐतिहासिक खोज समाप्त कर चुके ?"

"जी।"

"तो वह नहीं हैं! कहीं नहीं हैं ?"

"विद्वान ऐसा ही विवेचन करते हैं। "

"पर तुम तो जानते हो, वह थे ! "

"जी, लेकिन विद्वानों से अधिक मैं कैसे जान सकता हूँ। जानने में अधिकार उन्हीं का है। "

"सचिव, तुम उनको बता नहीं सकते ?"

"महारानी, वे विद्वान हैं। यदि कहें कि मैं भ्रम में हूँ ?"

"भ्रम ! तुम्हारे हृदय में उनकी स्मृति है, उनके आदेश हैं। क्या वह अब सब तुम्हें भ्रम है ?"

"महारानी, स्मृति धुँधली हो रही है और आदेश खो रहे हैं। भ्रम हो भी सकता है । तिस पर शोध विद्वानों की है। माननी ही होगी।"

"तो जाओ, मानो। मेरे हृदय में वह रहेंगे। वहाँ से वह न जाएँगे। तुम अपना शासन देखो और आराम देखो। मुझे दुःख में रहकर उन्हें जीवित रखना है । "

"महारानी की इच्छा!" कहकर सचिव वहाँ से चले गये और शासन कार्य में लग गये।

विज्ञप्ति हो गयी। मृत महाराज जनार्दन की मूर्ति, चित्र, लेख, उल्लेख जहाँ भी हैं, समाप्त कर दिये जाएँ। विद्वत् परिषद ने प्रमाणित किया है कि जनार्दन का अस्तित्व कहीं नहीं पाया गया। सत असत नहीं होता। इससे जो आज असत है, वह कभी सत्य न था । जो इस भ्रम को पोषण देंगे, वह शासन की ओर से दण्डनीय होंगे।

विज्ञप्ति के अनन्तर विद्वत् परिषद और शासन - परिषद की सम्मिलित बैठक हुई। निर्णय हुआ कि लोकतन्त्र ही सर्वश्रेष्ठ शासन पद्धति है। दोनों परिषदों से दो- दो प्रतिनिधि चुने गये। सचिव समिति के प्रधान हुए। समिति से शासन समिति के नाम से सब सूत्रों की नियामक बनायी गयी । सचिव को सत्ताधीश नाम दिया गया।

घोषित हुआ कि एकछत्र राजपद्धति समाप्त हो गयी है । विकासशील सभ्यता के लिए वह कलंक थी । यहाँ सब बराबर हैं, और लोकमत पर जिसका आधार नहीं है वह तन्त्र निरंकुश है। सत्ताधीश और चार सदस्यों की शासन समिति लोकमत की प्रतिनिधि है ।

उस समय बहुतों के कण्ठ में प्रश्न उठा - महारानी ? प्रश्न की क्षीण आवाज भी कुछ सुन पड़ी। यह आवाज पास से और दूर से, यहाँ से और वहाँ से, जगह- जगह से उभरी। पर वह अस्फुट रही । शीघ्र ही उसके ऊपर होकर उत्तर फैल गया कि महारानी का अस्तित्व पुरातन काल का अवशिष्ट है। शासन समिति की विज्ञप्ति ने बताया कि रानी अपढ़, अशिक्षित हैं। वह वहम में पली हैं और अब भी जनार्दन नाम के किसी अखिलेश के होने के भ्रम को छोड़ना नहीं चाहतीं। प्राण विशारदों की रिपोर्ट है कि इस तरह अमर माने जाने पर भी उनके चिरायु होने की आशा नहीं है । शरीर परीक्षकों का कहना है कि उनके मस्तिष्क में गहरी जड़ता है, विकार के चिह्न भी हैं। तो भी सत्ताधीश की ओर से उन्हें श्रम करने और जीवित रहने की प्रत्येक सुविधा है। सुरक्षा के लिए हर समय उन पर पहरा रखा जाता है। उनके सम्बन्ध में चिन्ता करने की किसी को आवश्यकता नहीं है। सदा से वह इसी हालत में रही हैं। मेहनत में उन्हें सुख है और सन्तोष उनका धन है। अधिक अधिकार के योग्य होने पर उन्हें वह भी दिये जाएँगे। पर अभी उसकी उन्हें आवश्यकता या शिकायत नहीं है।

रानी को सचमुच शिकायत नहीं है। मन में जनार्दन की रट रखती हैं, हाथ से नित्य नियमित काम करती हैं। कहती हैं कि तुम कह गये हो कि मैं यशस्विनी बनूँ । अब जहाँ हो वहीं तुम जानते हो कि तुम्हारे अभाव में मैं सचिवों और अंगरक्षकों की बन्दिनी ही बन सकती हूँ। तेज था मुझमें तो तुमको लेकर ही था, तुमको लेकर ही वह प्रकट होगा । मेरा आधार अभिमान नहीं हो सकता। अभिमान का शासन जीतता नहीं, कुचलता है। मैं तो तुम्हारे प्रेम के सिवा कुछ नहीं जानती । इस प्रेम से ही मेरे शासन का उदय हो, तो होगा। तुम्हारे अभाव में मैं बिखरी हूँ; तुमको लेकर ही संकल्प में बँधूंगी। ओ जी, कहाँ हो तुम? सब कहते हैं तुम नहीं हो। फिर मेरे हृदय में वह क्या है जिसका ध्यान हीन होकर भी मुझे तुष्ट और बन्दी होकर भी मुझे स्वतन्त्र रखता है ?

इस भांति शताब्दियाँ बीत गयीं । लोकतन्त्र का लोहयन्त्र मजबूत होता चला गया। संगठन-शक्ति, यन्त्र - शक्ति, प्रचार-शक्ति, विज्ञान-शक्ति के प्रकाश से जग मुखरित दीखने लगा ।

उस समय भी रानी अपनी आस्था पर माथा टेके जनार्दन का नाम ले लेकर कहती थी— “अजी ओ, अब तो सदियाँ हो गयीं। देख लिया न तुमने कि मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकती हूँ? क्या परीक्षा की अवधि अभी नहीं बीती ? देखते नहीं कि तुम्हारी रानी का क्या हाल हो रहा है? मुझे क्या अमरता तुमने इसलिए दी थी कि मैं सब सहूँ और न मरूँ !"

ऐसे ही एक समय घोर निशीथ की वेला में किसी ने उसके भीतर कहा, “रानी, मैं आ गया हूँ। तुम पर ताले हैं, पर सब टूटेंगे। आ गया हूँ, अब तुम तक पहुँचने में मुझे देर नहीं होगी।"

रानी ने जैसे स्वप्न में कहा, "कौन ? जनार्दन !"

"हाँ, जनता, मैं।"

"मेरे जनार्दन ?"

"हाँ, जनता का ही जनार्दन। "

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