जलवा : फणीश्वरनाथ रेणु
Jalwa : Phanishwar Nath Renu
फातिमादि को कभी देखूँगा और इस तरह देखूँगा, इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी।
इसलिए, कुछ देर तक 'पंटना-मार्केट” को स्वप्नलोक समझकर खोया - खोया - सा खड़ा रहा-जूते की दूकान पर ।
बुरके में सिर से पैर तक ढँकी दो महिलाएँ और साथ में नौनदस साल की गुड़िया - जैसी खूबसूरत लड़की । लड़की ने दुबारा पूछा - मौसी पूछ रही हैं कि पटना कब आएं आप ?
दुकानदार ने रेजगारी गिनते हुए कहा, वह आप से ही पूछ रही है।
लड़की हँस पड़ी। बुरके के अन्दर भी हँसी खनकी ।...परिचित हँसी! लड़की हँसी अपनी मौसी की किसी बात पर। बोलीं, “मेरी मौसी आपकी फातिमादि हैं।”
अब कत्थई रंग के बुरके के अन्दर से फातिमादि की चिर-परिचित बोली स्पष्ट सुनाई पड़ी-“सुना, दिल्ली या बम्बई में रहते हो ?”
“मैं पिछले दस साल से पटना में हूँ।”
“अजब बात! पटना में हो और कभी देखा नहीं ?”
“और आप...?” इतनी देर के बाद मेरा होश लौटा, मानो।
मेरी बात को बीच में ही काटकर बुरका-पोश फातिमादि बोलीं, “मेरी छोड़ो ।
अपनी बताओ। शादी-वादी की ?”
मुझे सकपकाया देखकर वह बोलीं, “बाकरगंज-गली में “दानिशमंजिल” देखा है न ? वहीं,-रहती हूँ। बहू को लेकर किसी दिन आओगे? कल ही आओ न, सुबह आठ बजे।”
लड़की बोली, “कल सुबह आठ बजे तो हमीदा खाला के घर जाना है।”
“ओ-ओ!...परसों आओ!”
मेरे मुँह से अनायास ही निकल पड़ा-“प्रणाम !!”
“खुश रहो।”
फातिमादि को कभी “आदाब अर्ज” नहीं कहा हमने। वह हमारे “प्रणाम' को कबूल कर हमेशा खुश रहो" कहकर आशीर्वाद देतीं। किन्तु फातिमादि को इस तरह
सिर से पैर तक ढँका हुआ कभी नहीं देखा। उन दिनों भी नहीं, जब वह परिचितों की निगाहों से बचकर रहती थीं।
रात-भर नींद नहीं आई। आँखें मूँदते ही कत्थई रंग के बुरके में ढँकी हुई छाया आकर खड़ी हो जाती ।...एक जोड़ी जालीदार आँखें! लाख कोशिश करके भी बुरके को हटाकर फातिमादि का चेहरा नहीं देख सकता। और झुँझलाकर आँखें खोल लेता।
अपने घरवाले की लम्बी साँसों और छटपटाहटों को देख-सुनकर कोई भी गृहिणी सशंक हो सकती है। मगर कथाकार की पत्नी जानती है कि कहानी गढ़ते समय उसका घरवाला इसी तरह बेवजह, बेकार, बेकरार होकर लम्बी साँसें लेता करवटें बदलता है। अतः वह सुख से सोयी रहती है।
उस रात जगी हुई थी। पूछा, “तुमसे कभी फातिमादि के बारे में कहा है मैंने ?”
“नहीं तो! कौन फातिमादि ?”
“एक कहानी की फातिमादि ” बात को टालकर मैंने करवट ली।
कहानी की फातिमादि! अचरज हुआ कि फातिमादि के बारे में अब तक अपनी पत्नी को कुछ क्यों नहीं सुनाया!...नहीं, अचरज की कोई बात नहीं। कट्टर सनातनी की बेटी और हिन्दू-सभाइस्ट भाई की बहन को जान-बूझकर ही मैंने कभी फातिमादि की कोई बात नहीं बताई। डर था कि सुनकर मुँह बिदकाकर कुछ कह देगी। कहेगी-ऐबसर्ड!
ऐबसर्ड नहीं! असाधारण !
आज से छत्तीस साल पहले भी लोगों ने कहा था-एबनॉर्मल ।...अधपगली ! मेरा सौभाग्य कि मैंने इस असाधारण महिला को बहुत करीब से देखा है।
याद आती है 1930 की उस सभा की। स्कूल के पिछवाड़े में भारी भीड़। ठाकुरबाड़ी के चबूतरे पर गांधी-टोपी पहने कई लोग बैठे थे। एक दस-ग्यारह साल की लड़की 'लेक्चर” दे रही थी।
लड़की को पाजामा और कुरता पहने देखकर बहुत अचरज हुआ था। सुना, सोनपुर के मौलवी साहब की बेटी है। मौलवी साहब “खिलाफत'” के समय से ही 'मोटिया” पहनते हैं, चर्खा कातते हैं। सफेद पाजामा-कुरता पहने, कन्धे पर तिरंगा झंडा लेकर खड़ी लड़की!
1934 के प्रलंयकारी भूकम्प के बाद, दूसरी बार देखा था। चार साल में ही काफी बड़ी दीख रही थी।
महात्मा गांधी भूकम्प-पीड़ित क्षेत्र के दौरे पर आए थे। मंच पर गांधीजी के पास खड़ी लड़की को पहचानने में कोई दिक्कत नहीं हुई थी।... प्रार्थना-सभा में कुरानशरीफ की आयतों का सस्वर-पाठ करती हुई मौलवी साहब की बेटी! हाल ही दो साल की सजा काटकर जेल से निकली है। कहते हैं, गिरफ्तारी के समय पुलिस के डंडे से बुरी तरह घायल हो गई थी।
1937 में तीसरी बार। निकट से देखने का पहला अवसर मिला। स्कूल के मैदान में जिला राजनैतिक-सम्मेलन का आयोजन किया गया था। कांग्रेसी-मिनिस्टरी के दिन थे। इसलिए स्कूल में ही प्रतिनिधियों के ठहरने की व्यवस्था की गई थी और स्कूल के बालचर कांग्रेस-सेवादल के स्वयंसेवकों के साथ मिलकर काम कर रहे थे।
सेवादल की जी. ओ. सी. मौलवी साहब की बेटी को पहली बार 'फातिमादि' कहकर पुकारा था। उस सभा में प्रोफेसर अजीमाबादी की तकरीर के समय, मुस्लिमलीगियों ने गड़बड़ी मचाने की कोशिश की । फातिमादि लपककर मंच पर गई थीं। और उनकी तेज आवाज पंडाल में गूँज उठी थी-““गद्दारो! शरम करो ।”
और, 1943 में पाँच महीने तक दिन-रात उनके साथ रहना पड़ा। बनारस, लखनऊ, इलाहाबाद और गोरखपुर की गलियों में, "आजाद दस्ता' के क्रान्तिकारी कार्यक्रमों को लेकर अलख जगानेवाली फातिमादि की तसवीरें आँखों के आगे आती हैं, एक-एक कर ।...गिरफ्तारी के समय पुलिस-सार्जेट की भदृदी गालियों के जवाब देते समय उनके चेहरे पर जो बिजली कौंधी थी; 1947 में हिन्दू-मुस्लिम दंगे के समय उपद्रवियों से जूझते समय उनके मुखमंडल पर जो आभा छायी रहती थी, सबको इस कत्थई रंग के बुरके ने कैसे ढँक दिया? यह कैसे हुआ ?
“मैं उनके चेहरे पर पड़े परदे की चित्थी-चित्थी उड़ा देना चाहता हूँ। मैं फातिमादि की सूरत देखना चाहता हूँ और वह चीखकर अपनी दोनों हथेलियों से अपना मुँह ढँक लेती हैं-“नहीं-नहीं। ओजू!...अजीत...मेरा चेहरा मत देखो... ।'
सपना टूटने के बाद बहुत देर तक मैं चुपचाप पड़ा रहा। ऑल इंडिया रेडियो का 'सिगनेचर-ट्यून” शुरू हुआ। हठातू, मन में एक खयाल आया-आकाशवाणी के 'सिगनेचर-ट्यून'! को बदलने के लिए अब तक कोई €ंगामा” क्यों नहीं हुआ ? यह तो शुद्ध “अज़ान” का सुर है।...वायलिन पर चढ़ती-उतरती नमाज की पुकार।
“ददानिश-मंजिल' की सीढ़ियों पर चढ़ते समय मुझे लगा, इस पुरानी इमारत की हर ईंट मुझे ताज्जुब-भरी निगाहों से देख रही है।
“किससे मिलना है ?”
“फातिमादि से ”
“किससे ?”
“फातिमादि से ”
सवाल पूछनेवाला अचरज से बुत बना खड़ा रहता है। फिर बुदबुदाता है- “फातिमादि ?”
गुड़िया-जैसी खूबसूरत लड़की हँसती हुई आती है, सलाम करती है और कहती है, “मौसी पूछती हैं कि बहू को क्यों नहीं ले आए ?”
मैं समझ गया, फातिमादि आज भी मेरे सामने नहीं आएँगी। आज भी इसी लड़की को बीच में रखकर बातें चलाएँगी।
उधर कई कमरों के दरवाजे जोर से बन्द हुए। मद्धिम आवाज में बजते हुए रेडियो अचानक चुप हो गए। हवा में फिसफिसाहट और सरगोशियाँ।
“सुना है, अफसाने लिखते हो?” चिक की आड़ से सवाल पूछा गया।
फर्श पर बिछी फटी दरी की ओर देखते हुए मैंने जवाब दिया-“जी हाँ, झूठ बोलने की आदत को“आब पेशा...।”
खिलखिलाहट सुनकर “दानिश-मंजिल' की कई खिड़कियाँ चरमराकर खुलीं। भुने हुए प्याज की गन्धू, से कमरा भारी हो गया। और इसी गन्ध ने मेरे दिमाग में हाल की घटना की यादे जगा दी ।...एन. सी. सी. के कैम्प के बावर्चीखाने में 'जहर-कातिल' की शीशी के साथ पकड़े गए उस मुसलमान नौजवान का नाम क्या था ?”
गुड़िया-जैसी लड़की का नाम नग्मा है। वह एक प्याली चाय ले आई। मैं झूठ बोलना चाहता था, मगर बोल नहीं सका। चाय की प्याली हाथ में लेकर मैंने पूछा- “तो फातिमादि...आप इतने दिन से...मेरा मतलब...आप न जाने कहाँ खो गईं ?”
जवाब मिला, “बहू को लेकर कब आ रहे हो ?”
मैं आँखें मूँदकर चाय पी गया। मैं समझ गया, फातिमादि मेरे सवाल का जवाब नहीं देना चाहतीं। मुझे अब थोड़ा सन्देह भी होने लगा, यह ख़ातून हमारी फातिमादि नहीं, कोई और हैं।
मैं कुरसी छोड़कर उठा। नगमा तश्तरी में पान ले आई। इस बार साफ-साफ झूठ बोल गया, “मैं पान नहीं खाता ”
चलते समय मैंने हिम्मत. बाँधकर कह दिया, “माफ करें। मुझे लगता है, आप हमारी वह फातिमादि नहीं ।
“तुमने ठीक समझा है, अजीज ।”
अजीज ? मैं फिर चौंका। याद आई, फातिमादि मुझे अजीत नहीं, अजीज कहा करती थीं। मैं खामोश खड़ा" रहा और चिलमन के उस पार फिर एक खुली खिलखिलाहट खनक उठी।
“दानिश-मंजिल' की सीढ़ियों से उतरते समय मुझे लगा, इस पुरानी इमारत की हर ईंट मुझे नफरंत-भंरी निगाह से देख रही है।...मैं उस नौजवान का नाम याद करने की कोशिश करने लगा, जिसने एक हजार “कैडेट” के भोजन में जहर मिला दिया था।
“अमजदिया-होटल'” के सामने दीवार पर एक उर्दू 'पोस्टर” चिपकाया जा रहा है। मोटे हरूफों में लिखा हुआ है-“नेशनलिस्ट-मुस्लिम कनवेन्शन मुर्दाबाद !...गद्दारों से होशियार! '
उस नफरत-आमेज पोस्टर को पढ़कर एक मौलाना तैश में बड़बड़ाने लगा-“इन : नद्दाफ के बंच्चों ने रुई धुनना छोड़कर अब कौम को धुनना शुरू किया। इन्हें सबक सिखाना होगा। नेशनलिस्ट के बच्चे... !!
मुझे मितली आने लगी। रिक्शा पर बैठकर मैंने अपनी नाड़ी पर ऊँगली रखी। दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। पसीने से देह तर-ब-तर हो गई ।...चाय के स्वाद में
थोड़ी तुर्शी थी न?...दाहिनी ओर जनरल हॉस्पिटल है और बाईं ओर पुलिस चौकी। सोचने लगा, पहले किधर जाना ठीक होगा? - किन्तु: रिक्शावाले ने पूछा तो जवाब दिया, “राजेन्द्रनगर ले चलो ”
एक कहानी-गोष्ठी में “नई कहानी', 'अ-कहानी', “आज की कहानी”, “आनेवाले कल की कहानी” पर लगातार चार घंटों तक चुपचाप वाद-विवाद सुनने के बाद सीधे घर लौटने की हिम्मत नहीं हुई। ऐसी हालत में गंगा के किनारे अथवा किसी “बार' में बैठकर ही अपने को ढूँढ़ना पड़ता है। लेकिन रिक्शावाले ने पूछा तो जवाब दिया, “राजेन्द्रगगर चलो ।
गोलमार्केट” के पास पहुँचकर हमेशा की तरह अपने फ्लैट और कमरे को दूर से ही देखा। अपने कमरे में रोशनी देखकर माथा ठनका-अब कहाँ जाएँगे?
दिल को कड़ा किया-कोई भी हो, माफी माँग लूँगा। कोई बहाना बनाकर विदा. कर दूँगा।
सीढ़ियों पर चढ़ते-चढ़ते मैंने सारी दुनिया की परेशानी ओढ़ ली। दुनिया से बेजार एक आदमी का मुखौटा चेहरे पर लगाकर दरवाजा खटखटाया। किन्तु दरवाजा खुला तो देखा पत्नी के मुख-मंडल पर खुशी की लाली बिखरी हुई है। मेरी लटकी हुई सूरत पर उसकी नजर ही नहीं पड़ी। हुलसती हुई बोली, “कहो तो कौन आए हैं ?”
मुझे अवाक् होने का मौका. ही नहीं मिला। हँसती-मुसकाती नग़मा ने आकर सलाम किया। पत्नी बोली, “ओहो ! तीन घंटे से हम हँस रहे हैं।...तुम कहाँ थे ?...और तुम भी खूब हो! कभी बताया नहीं।
“क्या नहीं बताया?” मैंने पूछा।
यही कि तुम हिन्दू नहीं, मुसलमान हो !”, मेरे कमरे से आवाज आई।
देखा, फातिमादि सारे फ्लैट को रौशन करके बैठी हैं। बुरका फर्श पर पड़ा हुआ
है। बुरका नहीं, चित्थी और चीथड़े! यह कैसे हुआ? किसने... ?”पत्नी बोली, “और कौन! तुम्हारी दुलारी बेटी नौमी...जब तक बुरका नहीं . उतारा, भौंकती रही। और जब बुरका उतारकर रखा तो दाँत से नोंच-नोंचकर छुट्टी कर दिया ।”
“वह है कहाँ ?
देखा, फातिमादि की गोदी में आँचल के नीचे दुबककर बैठी है, शैतान। कोई अपराध करने के बाद वह इसी तरह मुँह बनाकर बैठती है।
“गोदी से उतरती ही नहीं। गुर्राती है।” नगमा बोली।
उन्नीस-बीस साल के बाद देखा, फातिमादि जैसी की तैसी हैं। सिर्फ, आँखों के पास कई नई रेखाएँ उभर आई हैं।
पत्नी की हँसी छलक रही थी रह-रहकर। किस्सा सनाने लगी-"'नौमी को बाँधकर मैंने दरवाजा खोला। इन्होंने पूछा, 'अज़ीज़ हैं घर में? मैं बोली, कौन अजीज ?...अजीज नहीं, अजीत। तो बोलीं-'अरे हाँ-हाँ सुना है उसने अपने नाम का एक हरूफ बदलकर अपने को हिन्दू बना लिया है और एक बेचारी हिन्दू लड़की से शादी कर ली है।' मैं तो अवाक्...!"
“अच्छा! तो भाभीजान अब तक मुगालते में हैं। क्यों अजीज? इस तरह किसी का धरम बिगाड़ना कुफ़ नहीं तो और क्या है? लेकिन मौन गई तुमको ! हो उस्ताद! बुतपरस्त बनने के बाद अपना देवता भी चुना तो ऐसे दाढ़ीवाले को जिसने कलमा पढ़कर... ।”
उन्हें श्रीरामकृष्ण परमहंस देव की मूर्ति की ओर इंस तरह इशारा करते देखकर हम सभी ठठाकर हँस पड़े। .. ।
हँसी की हिलोरें थर्मी तो मैंने पूछ लिया, “अच्छा, अब बताइए। आप कहाँ थीं ? कहाँ हैं ?”
“कब्र में थी, कब्र में हूँ।”
पत्नी रसोईघर में चली गई। मुंझे लगा, अभी यह सवाल पूछना उचित नहीं हुआ।
फातिमादि ने पूछा, “तुमने क्या सोचा था?...पाकिस्तान चली गई है। है न ?”
“आपने पॉलिटिक्स क्यों छोड...
“यह मुझसे क्यों पूछते हो ? अपने उन नवाबजादों से कभी क्यों नहीं पूछा, जो रातोंरात 'देश-भगत' बनकर कांग्रेस के खेमे में दाखिल हो गए-बगल में छुरी दबाकर ।
अपने नेतांओं से क्यों नहीं जवाबतलब करते ? कल तक गांधी-जवाहर-पटेल को सरेआम गालियाँ देनेवाले, कौमी झंडे को जलानेवाले फिरकापरस्त लीगियों की इज्जत अफजाई की गई और मुल्क के लिए मरने-मिटनेवालों को दूध की मक्खियों की तरह निकाल फेंका ।...तुम खुद अपने से यह सवाल क्यों नहीं पूछते?” फातिमादि का चेहरा लाल हो गया।
मुझे खुशी हुई।
मैंने टोका-“लेकिन, आपका इस तरह खामोश हो जाना...।”
“खामोश ?” लगा, सिंहनी तड़फ उठी-“इन जालिमों ने मुझ पर क्या-क्या कहर ढाए, यह तुम्हें क्या भालूम?...और, हमने किस दरवाजे की कुंडी नहीं खटखटाई! मगर, दिल्ली से पटना तक के खुदाबन्दों ने मुझे अकल की दवा करने की सलाह दी।
शादी करके बच्चे पैदा करने की नसीहत दी! और आखिर में धमकियाँ...ओह...अजीज !”
फातिमादि का गला भर आया। पत्नी न जाने कब आकर खड़ी हो गई थी। बोली, “तुम भी अजब आदमी हो...।”
नौमी, जो अब तक दुबककर बैठी थी, फातिमादि के चेहरे को सूँघकर 'कुँई-कुँई' करने लगी।
अब भी लोगों को होश नहीं हुआ है। इन्हें, सिर्फ अपनी गद्दी की फिक्र है। देश जहन्नुम में जाए। इन्हें क्या? फातिमादि की बोली में गहरी पीड़ा उतर आई धी-“तुम...तुम...अफसाने लिखते हो न?...याद है, आजादी के पहले जिन तरक्की-पसन्द अदीबों की नज्मों और अफसानों में हिन्दू-मुसलमान इत्तहाद की बातें, 'मानवता” की दुहाई और न जाने क्या-क्या ढुँसी रहती थीं, आजादी के बाद अचानक उनकी बोलियाँ बन्द ही नहीं, बदल गई...। अव्वाम की कसमें खानेवाले टुकुर-टुकुर देखते रहे और फिरकापरस्त अजदहों ने पूरी कौम को लील लिया।”
पत्नी ने टोका-“फातिमादि, खाना ठंडा हो जाएगा।”
टाउन-हाल में “नेशनलिस्ट-मुस्लिम-कान्फ्रेन्स' की तैयारी धूमधाम से हो रही है। देश के कोने-कोने से प्रतिनिधियों के आने की खबरें छप रही हैं। और इन्हीं खबरों के साथ मोटी सुर्खियों में इस कान्फ्रेस्स की मुखालिफत के समाचार भी छपते हैं। रोज दोनों ओर से, सैकड़ों नामों के साथ बयान शाया होते हैं। विरोधियों का कहना है कि कोई “गैर-नेशनलिस्ट” नहीं, सभी मुसलमान नेशनलिस्ट हैं।
और अपने को नेशनलिस्ट कहनेवाले खुलेआम कहते हैं कि पुराने 'मुस्लिमलीगियों' के दिल-दिमाग में फिरकापरस्ती का जहर है।'उन पर यकीन नहीं किया जा सकता ।...बहुत दिन से किसी राजनैतिक जलसे में शरीक नहीं हुआ था। किन्तु इस बार अपना “कर्तव्य” समझकर इस सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए पहुँचा। किन्तु, वहाँ का दृश्य देखकर फुटपाथ पर ही
ठिठककर खड़ा रहा। टाउन-हाल के सामने सड़क के दोनों ओर हजारों लोग खड़े नारे लगा रहे थे।
गालियाँ, नारे और रह-रहकर रोड़े और पत्थरों की बौछार पुलिस के सिपाही चुपचाप कतार बाँधकर खड़े थे, क्योंकि प्रदर्शनकारियों की
रहनुमाई 'कुलीन मुस्लिम” नेताओं के साहबजादे और बड़े अफसरों के लड़के कर रहे थे। मुझे लगा, हम फिर सन् 1947 साल में लौट गए हैं। हवा में फिर वही जुनून, वही नारे, वही नज्जारे, वही चेहरे!!
“लेना। लेना। जा रहा है, काफिर का बच्चा!”
“तड़तड़ाक्! तड़तड़ाक् !
“यह रहा हरामखोर! मारो साले को!”
“सुअर की औलाद!”
तड़तड़ाक् ! अब वे हर डेलीगेट को पकड़कर पीटने लगे। उत्तेजना की लहरें तेज होती गईं।
नारे, गालियों और रोड़ों की वर्षा जोर-शोर से होने लगी। “महात्मा गांधी की जय!”
एक महीन किन्तु तेज आवाज! हठात् सबकुछ रुक गया। लोगों ने देखा, अंजुमन इस्लामिया हॉल के प्रवेशद्वार-अब्दुल बारी-दरवाजा-के सामने एक औरत खड़ी नारे लगा रही है।
फातिमार्दि ? मुझे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। देखा, फातिमादि ही हैं।
“कौन है यह औरत ?
“कोई हिन्दू... ?”
“अरे नहीं। पहचोनते नहीं ।.यह वही कुतिया है... ।”
“फातिमा?...साली फिर कहाँ.से आ गई ?”
कुत्ती ?
पागलों का एक जत्था नाचता, अश्लील गालियाँ देता हुआ फातिमादि की ओर झपटा। फातिमांदे मुस्कुराती खड़ी रहीं। देखते-ही-देखते दरिन्दों ने उनको जमीन पर पटक दिया और बाल पकड़कर घसीटना शुरू किया। द्वोनों ओर खड़ी भीड़ ने तालियाँ बजाई-'शाबाश! जब तक पुलिस के सिपाहियों की टुकड़ी पहुँचे, उन्होंने फातिमादि के सभी कपड़े उतार लिए थे।...मैं इससे आगे और कुछ नहीं देख सका।
कई दिन के बाद बहुत हिम्मत बाँधकर हम दोब्रों अस्क््ताल में फातिमादि को देखने पहुँचे ।
केबिन के दरवाजे के पास ही नग्मा खड़ी प्लिली। हमें देखते ही बिलख-बिलखकर रोने लगी।”
“जानवरों ने फातिमादि के चेहरे पर एसिड की शीशी उड़ेल दी थी। चेहरा झुलसकर काला हो गया है। एक आँख खराब हो गई है।...हाथ की हड्डी टूट गई है।
आहट पाकर उनके होंठ थरथराए। शायद मुस्कुराने की कोशिश कर रही हैं। फिर धीमे स्वर में बोलीं-“दुर पगला! यहाँ रोने आया है? जलवा देख ।...भाभी! कल सूजी का 'पायस'”...क्या कहते हैं उसको...'परमान्न'...बनाकर ले आना। नौमी को भी साथ लाना ।
फ़ातिमादि को कभी इस तरह देखूँगा, इसकी कल्पना भी नहीं की थी हमने।