जयशंकर प्रसाद-पथ के साथी : महादेवी वर्मा

Jaishankar Prasad-Path Ke Sathi : Mahadevi Verma

महाकवि प्रसाद जी का जब-जब स्मरण आता है, तब-तब मेरे सामने एक चित्र अंकित हो जाता है ।

हिमालय के ढाल पर उसकी गर्वीली चोटियों से समता करता हुआ एक सीधा ऊँचा देवदारु का वृक्ष था । उसका उन्नत मस्तक हिम-आतप वर्षा के प्रहार झेलता था। उसकी विस्तृत शाखाओं को आँधी-तूफान झकझोरते थे और उसकी जड़ों से एक छोटी, पतली जलधारा आँख-मिचौनी खेलती थी। ठिठुराने वाले हिमपात, प्रखर धूप और मूसलाधार वर्षा के बीच में भी उसका मस्तक उन्नत रहा और आँधी और बर्फीले बवंडर के झकोरे सहकर भी वह निष्कम्प निश्चल खड़ा रहा; पर जब एक दिन संघर्षों में विजयी के समान आकाश में मस्तक उठाये, आलोक-स्नात वह उन्नत और हिमकिरीटिनी चोटियों से अपनी ऊँचाई नाप रहा था, तब एक विचित्र घटना घटी। जिस उपेक्षणीय जलधारा का प्रहार हल्की गुदगुदी के समान जान पड़ता था, उसी ने तिल-तिल करके उसकी जड़ों के नीचे खोखला कर डाला और परिणामतः चरम विजय के क्षण में वह देवदारु अपने चारों ओर के वातावरण को सौ-सौ ज्योतिश्चक्रों में मथता हुआ धरती पर आ रहा ।

सभी महान् प्रतिभाशाली साहित्यकारों के जीवन में संघर्ष रहना अनिवार्य है, पर बड़े-बड़े संघर्ष उनकी जीवन-शक्ति को क्षीणतम कर पाते हैं । यह कार्य तो ऐसी छोटी बाधाओं का सम्मिलित परिणाम होता है, जिनकी ओर वे सर्वथा उपेक्षा का भाव रखते हैं। प्रसाद जी इसके अपवाद नहीं थे।

मेरे चित्र की पृष्ठभूमि में उनका साहित्य, मेरा कुछ घंटों का परिचय और कुछ प्रचलित स्तुतिनिन्दापरक कथाएँ ही हैं । छायावाद-युग की दृष्टि से उनके साहित्य से मेरा अपरिचय सम्भव नहीं था और स्थान की दृष्टि से प्रयाग से काशी से दूर नहीं था; परन्तु कुछ अज्ञात कारणों से मैंने उन्हें प्रथम और अन्तिम बार तब देखा, जब वे कामायनी का दूसरा सर्ग लिख रहे थे और मैं सान्ध्यगीत लिख चुकी थी। पर, उनका यह दर्शन भी न किसी अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन के विवादी मेघ गर्जन में हुआ और न किसी अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में सातों स्वर-समुद्रों के मंथन के बीच, न भाषण के अजस्र प्रवाह में, न फूल मालाओं के घटाघोप में । काशी में उनका दर्शन अपनी कवित्वहीनता में विचित्र है ।

भागलपुर से प्रयाग आते-जाते मार्ग में जब-तब काशी पड़ जाती थी। एक बार प्रसाद के दर्शनार्थ ही मैंने कुछ घंटों के लिए यात्रा भंग की; पर मैं और मेरे साथ आने वाला नौकर दोनों ही काशी की सड़कों और गलियों से सर्वथा अपरिचित थे । कवि प्रसाद को सब जानते होंगे, इसी विश्वास से कई ताँगे वालों से पूछ-ताछ की; पर परिणाम कुछ न निकला। निराश होकर जब स्टेशन के वेटिंग रूप में लौटने वाली थी, तब एक ने प्रश्न किया- 'क्या सुँघनी साह के घर जाना है ?"

सुँघनी साहु का रूढ़ अर्थ ग्रहण करने में मैं असमर्थ रही। समझा तम्बाकू के चूर्ण का बास लेने वाले कोई साहुकार होंगे । फिर अर्थ को और स्पष्ट करने के लिए पूछा-'सुँघनी साहु क्या काम करते हैं?' तम्बाकू की दुकान करते हैं, सुनकर ताँगे वाले पर अकारण ही क्रोध आने लगा । प्रसाद जैसा महान् कवि तम्बाकू की दूकानदारी जैसा गद्यात्मक कार्य कैसे कर सकता है। कुछ स्वगत और कुछ ताँगे वाले के अज्ञान कानों के लिए कहा, मुझे किसी तम्बाकू की दूकान वाले सेठ जी के यहाँ नहीं जाना है। जिनके यहाँ जाना है वे कविता लिखते हैं। ताँगे वाला भी साधारण नहीं था, इसी से उसने परास्त न होने की मुद्रा में उत्तर दिया – 'हमारे सुँघनी साहु भी बड़े-बड़े कवित्त लिखते हैं ।' तब मैंने सोचा-सम्भव है ऐसे कवित्त लिखने में ख्यात सुँघनी साहु, प्रसाद जैसे कवि से अपरिचित न हों। स्टेशन पर कई घंटे बिताने से अच्छा है कि सुँघनी साहु से पता पूछ देखूँ ।

आकाश को नीले कपड़े की चीरों में विभाजित कर देने वाली काशी की गलियों में प्रवेश कर मुझे सदा ऐसा लगता है मानो मैं किसी विशालकाय अजगर के उदर में घूम रही हूँ, जिसने अपनी साँसों मुझे ही नहीं, कुछ दुकानों को भी अपने भीतर खींच लिया है और अब बाहर आने का एकमात्र द्वार उसका मुख बन्द हो गया है।

अन्त में जहाँ तक ताँगा जा सका वहाँ तक ताँगे में, उसके उपरान्त कुछ दूर पैदल चलकर हम एक सफेद पुते हुए मकान के सामने पहुँचे जो अतिसाधारण और असाधारण के बीच की मध्यम स्थिति रखता था । कहलाया, प्रयाग से महादेवी आई हैं । सोचा यदि गृहस्वामी प्रसाद जी ही होंगे तो मेरा नाम उनके लिए सर्वथा अपरिचित न होगा और यदि कोई सुँघनी साहु ही हैं तो शिष्टाचार के नाते ही बाहर आ जायँगे।

प्रसाद जी स्वयं ही बाहर आये । उनका चित्र उन्हें अच्छा हृष्ट-पुष्ट स्थविर बना है, पर स्वयं न वे उतने हृष्ट जान पड़े और न उतने पुष्ट ही । न अधिक ऊँचा न नाटा-मझोला कद, न दुर्बल न स्थूल, छरहरा शरीर, गौर वर्ण, माथा ऊँचा और प्रशस्त, बाल न बहुत घने न विरल, कुछ भूरापन लिये काले; चौड़ाई लिये मुख, मुख की तुलना में कुछ हल्की सुडौल नासिका, आँखों में उज्ज्वल दीप्ति ओठों पर अनायास आने वाली बहुत स्वच्छ हँसी, सफेद खादी का धोती-कुरता। उनकी उपस्थिति में मुझे एक उज्ज्वल स्वच्छता की वैसी अनुभूति हुई जैसी उस कमरे में सम्भव है, जो सफेद रंग से पुता और सफेद फूलों में सजा हो ।

उनकी स्थविर जैसी मूर्ति की कल्पना खंडित हो जाने पर मुझे हँसी आना ही स्वाभाविक था। उस पर जब मैंने अनुभव किया कि प्रसाद जी ही सुँघनी साहु हैं तब हँसी ही रोकना असम्भव हो गया। उन दिनों मैं बहुत अधिक हँसती थी और मेरे सम्बन्ध में सबकी धारणा थी कि मैं विषाद की मुद्रा और डबडबाई आँखों के साथ आकाश की ओर दृष्टि किये हौले-हौले चलती और बोलती हूँ।

मेरी हँसी देखकर या मुझे मेरे भारी-भरकम नाम के विपरीत देख प्रसाद जी ने निश्चल हँसी के साथ कहा- 'आप तो महादेवी जी नहीं जान पड़तीं।' मैंने भी वैसे ही प्रश्न में उत्तर दिया—‘आप ही कहाँ कवि प्रसाद लगते हैं जो चित्र में बौद्ध भिक्षु जैसे हैं। '

उनकी बैठक में ऐसा कुछ नहीं दिखाई दिया जिसे सजावट के अन्तर्गत रखा जा सके। कमरे में एक साधारण तख्त और दो-तीन सादी कुर्सियाँ, दीवाल पर दो- तीन चित्र, अलमारी में कुछ पुस्तकें। यदि इतने महान कवि रहने के स्थान में मैंने कुछ असाधारणता पाने की कल्पना की होगी तो मेरे हाथ निराशा ही आई ।

उन दिनों वे कामायनी का दूसरा सर्ग लिख रहे थे। क्या लिख रहे हैं, पूछने पर उन्होंने प्रथम सर्ग का कुछ अंश पढ़कर सुनाया। वेदों में अनेक कथानक बहुत नाटकीय हैं और उनमें से किसी पर भी एक अच्छा महाकाव्य लिखा जा सकता था । उन्होंने ऐसा कथानक क्यों चुना है, जिसमें कथासूत्र बहुत सूक्ष्म है । ऐसी जिज्ञासाओं के उत्तर में उन्होंने कामायनी सम्बन्धी अपनी कल्पना की कुछ विस्तार से व्याख्या की ।

उनकी धारणा थी कि अधिक नाटकीय कथाओं की रेखाएँ इतनी कठिन हो गई हैं कि उन्हें अपने दार्शनिक निष्कर्ष की ओर मोड़ना कठिन होगा। युग की किसी समस्या को प्राचीन कलेवर में उतारना तभी सम्भव हो सकता है जब प्राचीन मिट्टी लोचदार हो। जो प्राचीन तथा कठिन होकर एक रूपरेखा पा लेती है, उसमें वह लचीलापन नहीं रहता जो नई मूर्तिमत्ता के लिए आवश्यक है । इन्द्र का व्यक्तित्व उनकी दृष्टि में बहुत आकर्षक रहस्यमय था, परन्तु उसकी नाटकीय और बहुत कुछ रूढ कथावस्तु, कामायनी के सन्देश को वहन करने में असमर्थ थी ।

ऋग्वेदकालीन वरुण के व्यक्तित्व और विकास के सम्बन्ध में भी उन्होंने अपना विश्लेषण दिया । वैदिक साहित्य और भारतीय दर्शन मेरा प्रिय विषय रहा है, अत: तत्सम्बन्धी बहुत-सी जिज्ञासाएँ मेरे लिए स्वाभाविक थीं । परन्तु सभी चर्चाओं में मैंने अनुभव किया कि प्रसाद जी दोनों के सम्बन्ध में आधुनिकतम ज्ञान ही नहीं अपनी विशेष व्याख्या भी रखते हैं। वे कम शब्दों में अधिक कह सकने की जैसी क्षमता रखते थे वैसी कम साहित्यकारों में मिलेगी।

उनके बहुश्रुत होने का प्रमाण तो स्वयं उनका साहित्य है, परन्तु दर्शन, इतिहास, साहित्य आदि के सम्बन्ध में, इतने कम शब्दों में इतने सहज भाव से वे अपने निष्कर्ष उपस्थित कर सकते थे कि श्रोता का विस्मित हो जाना ही स्वाभाविक था ।

लौटने का समय देख जब मैंने विदा ली तो ऐसा नहीं जान पड़ा कि मैं कुछ घंटों से परिचित हूँ। प्रसाद जी ताँगे तक पहुँचाने आये और हमारे दृष्टि के ओझल होने तक खड़े रहे । अपने साहित्यिक अग्रज को फिर देखने का मुझे सुयोग नहीं प्राप्त हो सका। वे कहीं आते- जाते नहीं थे और मैंने एक प्रकार से क्षेत्र-संन्यास ले लिया था ।

और उसी बीच प्रसाद के अस्वस्थ होने का समाचार मिला, पर बहुत दिनों तक किसी को यह भी ज्ञात नहीं हो सका कि रोग क्या है? अन्त में क्षय की सूचना भी हिन्दी जगत के लिए चिन्ता का कारण नहीं बन सकी । हमारे वैज्ञानिक युग में नितान्त साधनहीन के लिए ही यह रोग मारक सिद्ध होता है । प्रसाद जी के साथ साधन-हीनता का कोई सम्बन्ध किस को ज्ञात नहीं था, इसी से अन्त तक सबको उनके स्वस्थ होने का विश्वास बना रहा।

जब कामायनी का प्रकाशन हो चुका था और हिन्दी-जगत एक प्रकार से पर्वोत्सव मना रहा था तब उनके महाप्रयाण की बेला आ पहुँची ।

मैं स्वयं कई दिन से ज्वरग्रस्त थी । एक बन्धु ने भीतर सन्देश भेजा कि वे अत्यन्त आवश्यक सूचना लाये हैं। किसी प्रकार उठकर मैं बाहर के दरवाजे तक पहुँची ही थी कि सुना प्रसाद जी नहीं रहे । कुछ क्षण उनके कथन का अर्थ समझने में लग गये और कुछ क्षण द्वार का सहारा लेकर अपने-आपको सँभालने में।

बार-बार उनका अन्तिम दर्शन स्मरण आने लगा और साथ-ही-साथ उस देवदारु का, जिसे जल की क्षुद्र धारा ने तिल-तिल काट कर गिरा दिया था।

प्रसाद का व्यक्तिगत जीवन अकेलेपन की जैसी अनुभूति देता है । वैसी हमें किसी अन्य समसामयिक साहित्यकार के जीवन के अध्ययन से नहीं प्राप्त होती ।

उन्हें एक सम्पन्न पर ऋणग्रस्त प्रतिष्ठित परिवार में जन्म मिला और भाई- बहिनों में कनिष्ठ होने के कारण कुछ अधिक मात्रा में स्नेह-दुलार प्राप्त हो सका । किशोर अवस्था में वे एक ओर शारीरिक स्वास्थ्य के लिए बादाम खाते और कुश्ती लड़ते रहे और दूसरी ओर मानसिक विकास के लिए कई शिक्षकों से संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी आदि का ज्ञान प्राप्त करते रहे । पर इसी किशोरावस्था में उन्हें पारिवारिक कलह की कटुता का अनुभव हुआ। इतना ही नहीं, उनके किशोर कंधों पर ही पारिवारिक उत्तरदायित्व, अर्थव्यवस्था और ऋण का भार आ पड़ा। ऐसा लगता है कि यही दुर्वह भार, सारे दुलार, स्वास्थ्य और विद्या का स्वाभाविक प्राप्य था ।

तरुणाई में ही वे माता-पिता, बड़े भाई, दो पत्नियों और एकलौते पुत्र की वियोग- व्यथा झेल चुके । यह बचपन में तारुण्य के अन्त तक फैली हुई विछोह की परम्परा उनके भावुक मन पर कोई दुखने वाली चोट नहीं छोड़ गई थी, ऐसा कथन मनुष्य के स्वभाव के प्रति अन्याय होगा और यदि वह मनुष्य एक महान साहित्यकार हो तो इस अन्याय की मात्रा और अधिक हो जाती है ।

बहुत सम्भव है कि सब प्रकार के अन्तरंग-बहिरंग संघर्षों में मानसिक सन्तुलन बनाये रखने के प्रयास में ही उन्हें उस आनन्दवादी दर्शन की उपलब्धि हो गई हो जिसके भीतर करुणा की अन्त:सलिला प्रवाहित है।

चाँदनी से धुले ज्वालामुखी के समान ही उनके भीतर की चिन्ता उनके अस्तित्व को क्षार करती रही हो तो आश्चर्य नहीं । उनकी अन्तर्मुखी वृत्तियाँ या रिजर्व भी इसी ओर संकेत करता है । पारिवारिक विरोध और प्रतिष्ठा की भावना के वातावरण में पलने वाले प्राय: गोपनशील हो ही जाते है । उसके साथ यदि कोई गम्भीर उत्तरदायित्व हो तो यह संकोच उनके मनोभावों और बाह्य वातावरण के बीच में एक आग्नेय रेखा खींच देता है । कण-कण कटती हुई शिला के समान उनकी जीवनी-शक्ति रिसती गई और जब उन्होंने जीवन के सब संघर्षों पर विजय प्राप्त कर ली तब वे जीवन की बाजी हार गए, जिसमें हार जाने की सम्भावना भी उनके मन में नहीं उठी थी ।

क्षय कोई आकस्मिक रोग नहीं है, वह तो दीर्घ स्वास्थ्य-हीनता की चरम परिणति ही कहा जा सकता है । अस्वस्थ रहते हुए भी वे एक ओर अपनी लौकिक स्थिति ठीक करने में संलग्न थे और दूसरी ओर कामायनी में अपने सम्पूर्ण जीवन दर्शन को भावात्मक अवतार दे रहे थे।

सम्भवतः रोग के निदान ने उनके सामने दो विकल्प उपस्थित किये । ऐसी चिकित्सा प्रचुर व्यय-साध्य होती है । और कभी-कभी रोग का अन्त रोगी के साथ होने पर परिवार IT आत्मीय जन की वियोग-व्यथा के साथ विपन्नता का भार भी वहन करना पड़ता है ।

उनके सामने अकेला किशोर पुत्र था और अपने किशोर जीवन के संघर्षों की स्मृति थी । यह निष्कर्ष स्वाभाविक है कि वे अपने किशोर पुत्र के भविष्य पर किसी दुर्वह भार की काली छाया डालकर अपने इतिहास की पुनरावृत्ति नहीं करना चाहते थे । तब दूसरा विकल्प यही हो सकता था कि वे पतवार फेंक कर तरी समुद्र में इस प्रकार छोड़ दें कि वह दिशाहीन बहती हुई जीवन-मरण के किसी भी तट पर लग सके। उन्होंने इसी को स्वीकार किया और अपने अदम्य साहस और आस्था से मृत्यु की उत्तरोत्तर निकट आने वाली पगचाप सुनकर भी विचलित नहीं हुए।

पर जीवन और मृत्यु के संघर्ष का यह रोमांचक पृष्ठ हमारे मन में एक जिज्ञासा की पुनरावृत्ति करता रहता है। क्या इतने बड़े कलाकार का कोई ऐसा अन्तरंग मित्र नहीं था जो इस असम द्वन्द्व के बीच में खड़ा हो सकता।

सम्भवत: घर में ऐसा कोई बड़ा व्यक्ति नहीं था जिसका निर्णय निर्विवाद मान्य होता, सम्भवत: किशोर पुत्र के लिए पिता के हठ पर विजय पाना कठिन था। पर क्या ऐसे आत्मीय बन्धु का भी उन्हें अभाव था जो उनके दुराग्रह को अपने सत्याग्रही- विरोध से परास्त कर क्षय के चिकित्सा-केन्द्रों तथा विशेषज्ञों का सहयोग सुलभ कर देता ।

कार्य के कारण की ओर चलें तो विश्वास करना होगा कि नहीं था । सम्पन्न, मधुर भाषी और हँसमुख व्यक्ति के साथ आनन्द-गोष्ठी में बैठकर हँस लेना सबके लिए सहज हो सकता है, परन्तु किसी संक्रामक रोग से ग्रस्त मित्र की निष्प्रभ आँखों में मृत्यु के सन्देश के अक्षर पढ़कर उसे बचाने के लिए कोई बाजी लगाना कठिन हो जाता है ।

प्रसाद जैसे मनस्वी और संकोची व्यक्ति के लिए किसी से स्नेह और सहानुभूति की याचना भी सम्भव नहीं थी । चन्द्रगुप्त में सिंहरण के निम्न शब्दों में बहुत कुछ प्रसाद के न बात भी हो तो आश्चर्य नहीं :

'अपने से बार-बार सहायता करने के लिए कहने में मानव स्वभाव विद्रोह करने लगता है। यह सौहार्द और विश्वास का सुन्दर अभिमान है। उस समय मन चाहे अभिनय करता हो, संघर्ष से बचने का, किन्तु जीवन अपना संग्राम अंध होकर लड़ता है। कहता है— अपने को बचाऊँगा नहीं, जो मेरे मित्र हो आवें और अपना प्रमाण दें !'

सम्भव है कवि प्रसाद का जीवन भी अपना संग्राम अंध होकर लड़ा हो और उसने अपने-आपको बचाने का कोई प्रयत्न न किया हो। उन्हें किसी की प्रतीक्षा रही या नहीं इसे आज कौन बता सकता है ! व्यावहारिक जीवन में एक का हित दूसरे के हित का विरोधी भी हो सकता है | ऐसे व्यक्तियों की प्रसाद सम्बन्धी स्मृति उनकी अपनी चोटों की स्मृति अधिक हो सकती है, प्रसाद की विशेषताओं की कम ।

भारतेन्दु के उपरान्त प्रसाद की प्रतिभा ने साहित्य के अनेक क्षेत्रों को एक साथ स्पर्श किया है । करुण मधुर गीत, अतुकान्त रचनाएँ, मुक्त छन्द, खंड-काव्य, सभी उनके काव्य के बहुमुखी प्रसार के अन्तर्गत हैं। लघु कथा के वैचित्र्य से लम्बी कहानियों की विविधता तक उनका कथा-साहित्य फैला है। कंकाल उपन्यास के विषम नागरिक यथार्थ से तितली की भावात्मक ग्रामीणता तक उनकी औपन्यासिक प्रतिभा का विस्तार है ।

एकांकी, प्रतीक रूपक, गीति नाट्य ऐतिहासिक नाटक आदि में उन्होंने नाटकीय स्थितियों का संचयन किया है। उनका निबन्ध-साहित्य किसी भी गम्भीर दार्शनिक चिन्तन को गौरव देने में समर्थ है।

साहित्यिक प्रतिभा के साथ उनकी व्यवहार बुद्धि भी कुछ कम असाधारण नहीं है । धूमिल नये युग के काव्य और विचार को आलोक की पृष्ठभूमि देने के लिए ही उन्होंने इन्दु, जागरण जैसे पत्रों की कल्पना को मूर्तरूप दिया । भारती भंडार का जन्म भी उनकी उसी बुद्धि का परिणाम है, जिसने युग की प्रत्येक सम्भावना को परख कर उसका उचित दिशा में उपयोग किया । उनका जीवन उनके कार्य को देखते हुए घट में समुद्र का स्मरण दिलाता है ।

बुद्धि के आधिक्य से पीड़ित हमारे युग को, प्रसाद का सबसे महत्त्वपूर्ण दान कामायनी है...... अपने काव्य-सौन्दर्य के कारण भी और अपने समन्वयात्मक जीवन-दर्शन के कारण भी ।

भाव और उसकी स्वाभाविक गति से बनने वाले जीवन-दर्शन में सापेक्ष सम्बन्ध है। बहती हुई नदी का जल आदि से अन्त तक ऊपर से कहीं तरंगाकुल, कहीं प्रशान्त मन्थर, जल ही दिखाई देता है, परन्तु वह तरलता किसी शून्य पर प्रवाहित नहीं होती । वस्तुत: उसके अतल अछोर जल के नीचे भी भूमि की स्थिति अखंड रहती है । इसी से आकाश के शून्य से उतरने वाले मेघ-जल को हम बीच में तटों से नहीं बाँध पाते, पर नदी के तट उसकी गति का स्वाभाविक परिणाम हैं।

भाव के सम्बन्ध में भी यही सत्य है । जिसके तल में कोई संश्लिष्ट जीवन-दर्शन नहीं है, उसे आकाश का जल ही कहा जा सकता है । जीवन को तट देने के लिए, उसके आदि की इकाई को अन्त की समष्टि में असीमता देने के लिए ऐसे दर्शन की आवश्यकता रहती है जिस पर श्रेय प्रेय में तरंगायत होकर सुन्दर बन सके। यदि कोई भाव-धारा ऐसी संश्लिष्ट दर्शन-भूमि नहीं पाती तो उसके स्यायित्व का प्रश्न संदिग्ध हो जाता है ।

यह दर्शन, महाकाव्य की रेखाओं से जिस विस्तार तक घिर सकता है उस विस्तार तक गीत से नहीं । छायावाद-युग में भाव के जिस ज्वार ने जीवन को सब ओर से प्लावित कर दिया था उसके तट और गन्तव्य के सम्बन्ध में जिज्ञासा स्वाभाविक थी। और इस जिज्ञासा का उत्तर कामायनी ने दिया |

प्रसाद को आनन्दवादी कहने की भी एक परम्परा बनती जा रही है । पर कोई महान् कवि विशुद्ध आनन्दवादी दर्शन नहीं स्वीकार करता क्योंकि अधिक और अधिक सामञ्जस्य की पुकार ही उसके सृजन की प्रेरणा है और वह निरन्तर असंतोष का दूसरा नाम है।

‘आनन्द अखंड घना था' (कामायनी) विश्व-जीवन का चरम लक्ष्य हो सकता है, परन्तु उसे इस चरम सिद्ध तक पहुँचाने के लिए कवि को तो निरन्तर साधक ही बना रहना पड़ता है । सितार यदि समरसता पा ले तो फिर झंकार के जन्म का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि वह तो हर चोट के उत्तर में उठती है और सम-विषम स्वरों को एक विशेष क्रम में रखकर दूसरों के निकट संगीत बना देती है । यदि आघात या आघात का अभाव दोनों एक मौन या एक स्वर बन गए हैं, तब फिर संगीत का सृजन और लय सम्भव नहीं।

प्रसाद का जीवन, बौद्ध विचारधारा की ओर उनका झुकाव, चरम त्याग, बलिदान वाले करुण कोमल पात्रों की सृष्टि, उनके साहित्य में बार-बार अनुगुंजित करुणा का स्वर आदि प्रमाणित करेंगे कि उनके जीवन के तार इतने सधे और खिंचे हुए थे कि हल्की-सी कम्पन भी उनमें अपनी प्रतिध्वनि पा लेती थी।

हमारे युग की समष्टि के हृदय और बुद्धि में जो भाव और विचार नीरव उमड़-घुमड़ रहे थे, उन्हें कवि ने जागरण के स्वर देकर मुखरित किया ।

पर जब 'हिमाद्रि तुंग श्रृंग से' माँ भारती ने इस स्वर-साधक को पुकारा तब वह अपनी वीणा रख कर मौन हो चुका था।

('पथ के साथी' में से)

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