जय घोघा माता : लोककथा (उत्तराखंड)

Jai Ghogha Mata : Lok-Katha (Uttarakhand)

बहुत पहले की बात है। एक राजा था। उसका नाम घोघाजित था। वह पराक्रमी, न्यायप्रिय एवं धर्म परायण था। उसके घर एक कन्या का जन्म हुआ। उसका नाम घोघा रखा गया। राज ज्योतिषी ने उसकी जन्मकुण्डली बनाई और देखकर बताया- ‘‘इस कन्या की जन्मकुण्डली में असाधारण योग है। यह सुन्दर एवं प्रकृति प्रेमी होगी। दस वर्ष की आयु पूरी होने पर यह तुमसे हमेशा के लिए बिछुड़ जाएगी ‘‘।

घोघा अन्य बच्चों से अलग थी। उसे जंगल, खेत, पशु पक्षी आदि प्रकृति से जुड़ी वस्तुएँ अच्छी लगती थी। जब वह कुछ बड़ी हुई तो एक दिन उसने महल में रखी बांसुरी उठाई। जंगल में पेड़ों की घनी छांव में बैठकर वह बांसुरी बजाने लगी। बांसुरी की मीठी धुन जंगल में गूंजने लगी। घोघा के चारों ओर जंगल के कई जानवर और पक्षियाँ जमा हो गए जैसे बांसुरी की धुन से खिचें चले आए हों। अब वह अकसर ऐसा करने लगी |

ऋतु बसंत के समय जब जंगल एवं खेतों की दीवारें प्यूली के पीले फूलों से भर जाती, जब बुरांश के पेड़ लाल-लाल फूलों से लद जाते, सरसों के पीले खेत अपनी छटा बिखरते, पैंया के पौधे हरी-हरी पत्तियों से भर जाते , तब घोघा इन फूलों के पास आ जाती। ऐसा लगता घोघा इन फूल-पत्तियों से ढेंरों बातें कर रही हो। वह घुघुती, कफ्फू, मेलुड़ी आदि पक्षियों की मीठी आवाज को सुनकर कहीं खो जाती।

ऋतु बसंत का समय था। जंगल एवं खेतों की दीवारें प्यूली से भरी हुई थी। जंगल में लाल-लाल बुरांश खिले हुए थे। जंगल पक्षियों के मृदु स्वरों से गूंज रहा था। घोघा हमेशा की तरह जंगल चली गई। दिन बीता, काली रात का अंधेरा पसरा लेकिन घोघा महल में वापस नहीं लौटी। राजा को चिन्ता हुई। उसने अपने दरबारियों को घोघा को ढूंढने भेजा। घोघा का कहीं पता न चला। घोघा की दस वर्ष की आयु पूरी हो गई थी। राजा को ज्योतिषी की भविष्यवाणी याद आ गई। वह बहुत दुखी हुआ। उसे रात भर नींद नहीं आई। रात्रि के अन्तिम पहर में उसकी आंखें लग गई। उसने एक सपना देखा। दिव्य आभूषणों से सुसज्जित एक सुन्दर नारी एक सिंहासन में बैठी हुई थी। उस नारी की गोद में घोघा बैठी हुई थी। घोघा को देखते ही राजा चिल्लाया- ‘‘पुत्री ! घोघा मुस्करा रही थी। राजा की बात को सुनकर सिंहासन में बैठी वह नारी बोली- ‘‘पुत्र घोघाजित ! मैं तुम्हारी कुलमाता हूँ। मेरा एक नाम प्रकृति भी है। तुम्हारी पुत्री घोघा जिस प्रकृति की गोद में पली बढ़ी थी देखो उसी प्रकृति (मेरी) गोद में अभी भी है। प्रकृति का संरक्षण तुम्हारे राज्य की समृद्धि एवं अस्तित्व के लिए आवश्यक है। यही संदेश देने के लिए तुम्हारे घर घोघा ने जन्म लिया था।‘‘

दूसरे वर्ष की चैत्र माह की संक्रान्ति के दिन से तुम अपने राज्य में घोघा की याद में फूलों का त्योहार मनवाना। इस त्योहार में सभी छोटे बच्चे प्यूली, बुरांस के फूलों और पैंया के सुन्दर पत्तों को रिंगाल की छोटी-छोटी टोकरियों में जमाकर हर घर की देहरी में डालेंगे। घोघा की एक डोली भी बनाई जायेगी। सभी बच्चे ‘जय घोघा माता, प्यूली फूल, जय पैंया पात’ कह कर घोघा की जयकार करेंगे। तुम्हारी पुत्री घोघा अब घोघा माता के रूप में याद की जायेगी। घोघा माता की कृपा से तुम्हारे राज्य में प्राकृतिक सुन्दरता एवं समृद्धि बनी रहेगी।

घोघा की याद में आज भी उत्तराखंड में प्रत्येक वर्ष चैत्र माह की संक्रान्ति से आठ गते तक फूलों का त्योहार मनाया जाता है। इसे फूलदेई का त्यौहार कहा जाता है। चैत्र माह की संक्रान्ति को फूल संक्रान्ति के नाम से जाना जाता है।

(साभार : डॉ. उमेश चमोला)

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