जहाँ चाह, वहाँ राह : उज़्बेक लोक-कथा
Jahan Chah, Wahan Raah : Uzbek Folk Tale
बहुत समय पहले एक बूढ़ा रहता था। उसके पास सोने की तीन सौ अशरफ़ियाँ थीं। एक बार उसने अपने बेटे से कहा :
"अलीजान, तुम बड़े हो गये हो और मैं बूढ़ा हो गया हूँ। खुदा जाने मैं कितने और दिन इस दुनिया में रहूँगा, लेकिन मरने से पहले मैं तुम्हें व्यापार करना सिखा देना चाहता हूँ। ये सौ अशरफ़ियाँ लो और कल सौदागरों के काफिले के साथ रवाना हो जाओ। परदेस में पैसा कभी बेकार मत खर्च करना, सौदा खरीदकर लाना ।"
यह सीख देकर बूढ़े ने अपने बेटे को सौदागरों के साथ रवाना कर दिया ।
लड़का कुछ दिन पहले ही अठारह साल का हुआ था। वह एक भला और समझदार लड़का था । उसे व्यापार करना बिल्कुल भी अच्छा न लगता था, बल्कि वह कोई हुनर सीखकर अपनी मेहनत से जीना चाहता था।
पर अपने पिता के साथ बहस करने की उसकी हिम्मत नहीं हुई और वह अशरफियाँ लेकर सौदागरों के साथ चल पड़ा।
कुछ दिनों में कारवां एक बड़े शहर में पहुँचा और वे सब एक सराय में ठहरे ।
उस शहर में एक बड़ा बाग़ था। उसी दिन शाम को अलीजान घूमने के लिए बाग़ में गया । बाग़ में घुसते ही उसने देखा कि हजारों रोशनियों के जलने से वहाँ दिन की तरह उजाला हो रहा है। पेड़ों के बीच में जाली से घिरे संगमरमर के चबूतरे पर खुली छत खंभों पर टिकी हुई थी और उसके ऊपर रंग-बिरंगे बेलबूटे बने हुए थे। फ़र्श पर कालीन बिछे थे जिन पर सोने-चांदी और हीरे मोतियों की चौकियाँ रखी हुई थीं और उनके ऊपर हीरे-जवाहरात के मोहरे रखे हुए थे। एक-से कपड़े पहने हुए सौ से ज्यादा लड़के हर चौकी के पास दो-दो करके आमने-सामने बैठे हुए मोहरे चला रहे थे ।
अलीजान भौचक्का हुआ जाली के सहारे खड़ा देखता रहा, वह किसी भी तरह इस अद्भुत खेल से अपनी नजरें नहीं हटा पाया। वह इसी हालत में कई घंटों तक वहाँ खड़ा रहा। बाग़ का एक नौकर उसे वहाँ खड़ा देखकर उसके पास आया और बोला :
"आप यहाँ क्यों मुँह बाये खड़े हैं ?"
"ये लोग कौन हैं और क्या कर रहे हैं?" अलीजान ने घबराते हुए पूछा ।
"ये सारे लड़के, " नौकर ने जवाब दिया, "एक महीने से शतरंज खेलना सीख रहे हैं।"
"मैं किस तरह यह खेल सीख सकता हूँ?" अलीजान ने पूछा ।
"सौ अशरफ़ियाँ देकर आप भी यह खेल सीख सकते हैं ।"
अलीजान ने सौ अशरफ़ियाँ देकर खेल सीखना शुरू कर दिया।
थोड़े दिनों में ही अलीजान शतरंज इतने अच्छे ढंग से खेलना सीख गया कि अपने उस्तादों को भी मात देने लगा ।
एक साल बाद खेल की शिक्षा समाप्त हुई और लड़के अपने-अपने घर जाने लगे। अलीजान उदास होकर सोचने लगा : "बिना पैसों के मैं कहाँ जाऊँ ?"
उसके उस्ताद को उस पर दया आयी और उसने एक अशरफ़ी देकर वहाँ से गुजरनेवाले एक क़ाफ़िले के साथ उसे भेज दिया। अलीजान खाली हाथ अपने पिता के पास पहुँचा । पिता बड़ा दुःखी हुआ। एक साल बीत गया। बूढ़े ने फिर अपने बेटे को बुलाकर काफ़ी हिदायतें दीं और अंततः सौ अशरफ़ियाँ देकर सौदागरों के एक कारवाँ के साथ भेज दिया।
कारवाँ उसी बड़े शहर में पहुँचा ।
"इस बार मैं बिल्कुल भी फिजूलखर्ची नहीं करूँगा,"अलीजान ने निश्चय किया ।
शाम को वह टहलने निकला ।
बाग़ के पास पहुँचते ही उसे बहुत ही कर्णप्रिय संगीत सुनाई पड़ा। उसने देखा उसी जगह जहाँ उसने शतरंज खेलना सीखा था लड़के बैठे हुए तरह-तरह के वाद्ययंत्र बजाना सीख रहे हैं।
अलीजान अपने पिता की दी हुई सीख बिलक़ुल भूल गया और सौ अशरफियाँ देकर संगीत सीखने लगा ।
थोड़े समय में ही वह इतने अच्छे ढंग से गाना-बजाना सीख गया कि अपने उस्तादों को भी मात देने लगा ।
एक साल में पढ़ाई समाप्त हो गयीं । अलीजान उदास हो गया : अब किस मुँह से मैं अपने पिता के पास जाऊँ?" उसके शिक्षक को उस पर दया आयी और उसने उसे दो अशर- फ़ियाँ देकर घर भेज दिया।
अलीजान अपने पिता के पास लौट आया। अपने बेटे के आने पर हालाँकि बूढ़ा खुश हुआ, पर उसने उसे पहले से भी ज्यादा डांटा-फटकारा ।
एक साल बीत गया। बूढ़े ने अपने बेटे को बुलाकर अन्तिम सौ अशरफियों उसके हाथों में रखीं और बोला :
"अगर तुमने ये अशरफ़ियाँ भी बेकार खर्च कर दीं, तो हम लोग बेघर हो जायेंगे और भूखों मर जायेंगे ।" उसने अपने बेटे से वचन लिया कि यह रकम वह केवल किसी सौदे को खरीदने में ही लगायेगा ।
अलीजान फिर उसी बड़े शहर में पहुंचा। पहले वह हमाम में जाकर नहाया ।
तरोताज़ा होकर हमाम से लौटते समय वह अपने जाने-पहचाने बाग़ के पास से गुजरा, तो सोचने लगा : "एक मिनट झाँक लेने में क्या हर्ज है ? "
सोचते-सोचते किस तरह वह बाग़ के अंदर पहुँचा, उसे कुछ याद नहीं रहा ।
उसने देखा उसी संगमरमर के चबूतरे पर शिक्षक किताब में से कुछ पढ़ रहा है और लड़के बैठे अपनी कापियों में वे शब्द लिख रहे हैं।
अलीजान आश्चर्य में डूबा वहाँ काफ़ी देर तक खड़ा रहा। अंत में उसने फ़ैसला किया : "शतरंज खेलना मैं सीख चुका हूँ, संगीत भी सीख चुका हैं, पर पढ़ना-लिखना मैंने अभी तक नहीं सीखा। चाहे मैं भिखारी ही क्यों न हो जाऊँ, पर पढ़ना-लिखना जरूर सीखूंगा ।"
अलीजान ने सौ अशरफ़ियाँ दीं और पढ़ना-लिखना सीखने लगा। पहले की तरह इस बार भी वह सबसे अच्छा साबित हुआ और थोड़े दिनों में ही पढ़ना-लिखना अच्छी तरह सीख गया । फिर उसके पास घर वापस लौटने के लिए पैसा नहीं बचा। शिक्षक ने उसे तीन अशरफ़ियाँ देकर घर भेजा। पर इस बार अलीजान को पिता के पास लौटने की हिम्मत नहीं हुई।
उसने एक दूर के शहर जानेवाले एक सौदागर के यहाँ नौकरी कर ली। सौदागर का सारा सामान ऊँटों पर लादा जा चुका था। सूरज निकलने के पहले ही कारवाँ रवाना हो गया। कारवाँ कई दिन और कई रात तक रेगिस्तान में चलता रहा। उन्हें रास्ते में पानी के दर्शन कहीं नहीं हुए। अंत में वे एक कुएं के पास पहुँचे। कुआँ बहुत गहरा था और पानी उसके पेंदे में ही था ।
सौदागर ने अपने नये नौकर को कुएं में उतरने का आदेश दिया। अलीजान ने कुएं के पेंदे में सही-सलामत पहुँचकर मशक में पानी भर लिया। अचानक उसे कुएं की दीवार में एक दरवाजा दिखाई पड़ा।
"इसका क्या मतलब हो सकता है ?" यह सोचकर अलीजान ने दरवाज़ा थोड़ा-सा खोला । उसने देखा दरवाज़े के पीछे एक बहुत बड़ा और रोशनीदार कमरा है और वहाँ कालीन के ऊपर एक देव सिर लटकाये उदास बैठा है। उसके हाथों में एक वायोलिन रखा था ।
अलीजान डरा नहीं । उसने मशक दरवाज़े के पास छोड़ दी और दबे क़दमों से देव के पास पहुँचकर वायोलिन उठाकर बजाने लगा ।
देव ने तारों की मधुर झंकार सुनकर आँखें खोलीं और चैन की साँस ली। उसने चारों ओर देखा, खड़ा हुआ और अलीजान के पास आकर उसके सिर पर हाथ फेरा !
"ऐ, आदमी, तुम यहाँ किस तरह पहुँचे ?"देव ने पूछा ।
अलीजान ने उसे सारी बात बता दी। फिर उसे कारवाँ की याद आयी और वह जल्दी से उठकर चलने लगा ।
"तुम्हारी सबसे बड़ी इच्छा क्या है ? उसे पूरा करने के लिए मैं सब कुछ करूंगा," देव ने कहा ।
अलीजान ने आश्चर्यचकित होकर उसकी ओर देखा ।
"मेरा इकलौता बेटा मर गया," देव कहने लगा । "उसे यह दुनिया छोड़कर गये हुए आज पाँचवाँ दिन है। मैं अकेला रह गया और इतना दुःखी हो चुका था कि मरने के लिए तैयार था। अपना दिल बहलाने के लिए मैंने वायोलिन उठाया, पर मुझे बजाना नहीं आता। अगर तुम कुछ घंटे बाद आये होते तो मुझे जिंदा न पाते। अपने जादूभरे संगीत से तुमने मुझे मौत के मुँह में जाने से बचा लिया। तुम चाहो, तो मैं अपनी सारी धन-दौलत तुम्हें दे सकता हूँ !"
"इस कुएं से निकलने में मेरी मदद कीजिये, ” अलीजान बोला ।" इस के सिवा मुझे कुछ और नहीं चाहिए।" और उसने फिर से वायोलिन बजाना शुरू कर दिया। देव ने उसे एक बोरी भरकर सोना दिया और बोला :
"अपनी आंखें मीच लो !"
अलीजान ने अपनी आंखें मीच लीं ।
जब उसने आंखें खोलीं तो अपने आपको कुएँ की जगत पर पाया। उसने चारों ओर देखा- कोई नहीं था, कारवाँ जा चुका था ।
ऊँटों के पैरों के निशानों के सहारे सहारे अलीजान कारवाँ से जा मिला। उसे देखकर सब अचंभे में पड़ गये और पूछने लगे कि वह किस प्रकार कुएँ से बाहर निकला। अलीजान ने उन्हें सारा क़िस्सा सुनाया और देव की दी हुई सोने से भरी बोरी भी दिखायी।
जब क़ाफ़िला आराम के लिए रुका तो मालिक ने काग़ज़ के एक टुकड़े पर कुछ लिखा, उस पर अपनी मुहर लगाकर अलीजान को दिया और बोला :
"मेरी एक बहुत खूबसूरत बेटी है। मैं उसकी शादी तुम्हारे साथ कर दूंगा। तुम यह चिट्ठी लेकर कारवाँ से पहले मेरे घर पहुँचकर शादी की सारी तैयारी कर लो, पर देखना, सोना गँवाना नहीं तीन दिन में मैं भी घर पहुँच जाऊँगा ।"
उसने अलीजान को एक तेज घोड़ा दिया और रास्ता भी समझा दिया ।
अलीजान चलते-चलते सुस्ताने के लिए रुका। वह सोचने लगा "मैंने सौ अशरफियाँ खर्च करके पढ़ना-लिखना सीखा। जरा देख तो लूं, इस चिट्ठी में क्या लिखा है ।"
उसने चिट्ठी खोलक़र पढ़ी और काँप उठा ।
सौदागर ने अपनी पत्नी को लिखा था :
"मेरी प्यारी पत्नी में इस नौकर के साथ तुम्हें सोना भेज रहा हूँ। मैंने इससे झूठ कहा है कि मैं अपनी बेटी की शादी इसके साथ कर दूँगा । मिलते ही इसका सिर काट देना ।"
अलीजान ने दूसरा काग़ज लेकर उस पर यह लिखा :
"मेरी प्यारी पत्नी इस आदरणीय अतिथि का अच्छी तरह स्वागत करना और अपनी लड़की की शादी इसके साथ कर देना। शादी पर मेरा इंतजार मत करना। तुम्हारा पति ।"
चिट्ठी बंद करके अलीजान आगे चला ।
शहर पहुँचकर उसने सौदागर के घर का पता लगाया और पत्र उसकी पत्नी को दे दिया। पत्र पढ़कर उसने अतिथि का हार्दिक स्वागत किया।
दूसरे दिन ही बहुत धूमधाम से अलीजान की शादी सौदागर की लड़की के साथ कर दी गयी। दावत दो दिन तक चली।
तीसरे दिन एक तेज घोड़े पर सवार होकर अलीजान ने नौकरों को हुक्म दिया:
"मैं अपने व्यापार के काम से बाहर जा रहा हूँ। रात को दरवाजा किसी के लिए भी मत खोलना, और अगर कोई दीवार पर चढ़ आये तो उसे पकड़कर अच्छी तरह पीटना । यह तुम्हारे मालिक का हुक्म है।"
रात को सौदागर अपने क़ाफ़िले के साथ घर पहुँचा और दरवाजा खटखटाने लगा। उसे खटखटाते आवाज देते दो घंटे हो गये, पर किसी ने दरवाजा नहीं खोला। तब वह दीवार फांदकर अहाते में घुसा। नौकरों ने उसे फ़ौरन पकड़ लिया और पीट-पीटकर अधमरा कर दिया ।
मालिक काफ़ी देर तक बेहोश पड़ा रहा और होश आने पर बड़ी मुश्किल से अपने कमरे तक पहुँचा। पत्नी के साथ दुआ सलाम के बाद उसने पूछा :
"बताओ, तुमने उस आदमी का क्या किया जिसे मैंने चिट्ठी देकर तुम्हें भेजा था ?"
"आपने जो लिखा था, मैंने वही किया," पत्नी ने जवाब दिया।
"और अशरफ़ियाँ कहाँ रखी ?" सौदागर की आँखें लालच से चमक उठीं ।
कौन-सी अशरफ़ियाँ ?" पत्नी भौचक्की रह गई ।
मैंने तुम्हें लिखा तो था कि चिट्ठी लेकर आनेवाले को मार डालना और अशरफियां निकालक़र छिपा देना ।"
"अरे, आपको हुआ क्या है ? आपका दिमाग़ तो ठीक है? अपने दामाद को क्यों मार डालती ?"
"कौन-सा दामाद ?"
अपनी बेटी का पति ।"
"तुमने उसकी शादी कब कर डाली ?"
"दो दिन हुए।"
मालिक ने अपना माथा ठोक लिया और अपनी पत्नी और नौकरों को कोसने लगा ।" और वह खुद कहाँ है ?" उसने दामाद के बारे में पूछा ।
"सुबह घोड़े पर सवार होकर कहीं चला गया और दरवाजा खोलने के लिए मना कर गया। उसने कहा था कि अगर कोई दीवार फांदकर घर में घुस आये, तो उसे पकड़कर पीटना," नौकरों ने जवाब दिया।
सौदागर समझ गया कि उसे अपने किये का फल मिल गया, इस लिए उसने अपने दामाद के साथ मेल करने का फ़ैसला किया।
अच्छा, अब सौदागर और उसकी पत्नी को यहीं छोड़िये और अलीजान का हाल सुनिये । अलीजान काफ़ी देर तक घोड़ा दौड़ाता हुआ बड़े शहर में पहुँचा। उस दिन बाजार लगा हुआ था । मुनादी करनेवाला चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा था :
"खल्क खुदा की, मुल्क बादशाह का । कान खोलक़र ध्यान से सुनिये ! जो कोई अपने आपको शतरंज का अच्छा खिलाड़ी समझता है, महल में आकर बादशाह के साथ खेले । जो लगातार तीन बाजियाँ जीत जायेगा, बादशाह उसे अपने तख्त पर बैठा देगा। और जो लगातार तीन बाजियाँ हार जायेगा उसका सिर कटवा दिया जायेगा ।"
अलीजान बादशाह के महल में पहुँचकर बोला कि वह बादशाह के साथ शतरंज की बाज़ी लगाना चाहता है।
खेल शुरू हुआ। पहली बाजी अलीजान हार गया, पर बाक़ी दोनों जीत गया। फिर खेल शुरू हुआ। बादशाह दो बाजी जीत गया और तीसरी हार गया। फिर बाजी शुरू हुई। इस बार अलीजान ने एक के बाद एक तीन मातें बादशाह को दे दीं।
बादशाह क्या करता उसे अपना तख़्त अलीजान को देना पड़ा। बादशाह अपने तख्त पर से उठा और सिर झुकाकर अलीजान से बोला :
"अब इस तख़्त पर तुम बैठोगे ।"
"मैं बादशाह नहीं बनना चाहता। मैं अपने शहर लौटकर अपने लोगों को पढ़ना-लिखना और संगीत सिखाना चाहता हूँ।"
अलीजान पहले अपनी पत्नी को लेने गया और फिर उसके साथ अपने शहर में पिता के पास पहुँचा ।
सारा किस्सा सुनकर पिता ने उसकी बहुत तारीफ़ की और खुश होकर बोला :
"तुम वास्तव में बुद्धिमान हो ! इतनी बिद्याएं सीखकर तुम कितनी बार मौत के मुंह में जाने से बचे !"
"आदमी के लिए सत्तर विद्याएँ सीखना भी कम है !" बेटे ने जवाब दिया।