जादू का डण्डा : उज़्बेक लोक-कथा
Jadu Ka Danda : Uzbek Folk Tale
बहुत दिन हुए एक बूढ़ा शिकारी अपनी बुढ़िया के साथ रहता था । एक बार बूढ़े ने जाल बिछाया और छिपकर बैठ गया। उसके जाल में एक बड़ा लक़लक़ फंस गया ।
जैसे ही बूढ़ा लक़लक़ को निकालने लगा, वह आदमी की आवाज में बोल उठा :
"मुझे छोड़ दो। मैं लक़लक़ों का राजा हूँ। मुझे छोड़ दो, मैं तुम्हें जो तुम माँगोगे, दूंगा। मेरा घर उन पहाड़ों के पीछे है। तुम जिससे भी पूछोगे, वह बता देगा कि मेरा घर कहाँ है ।"
बूढ़े ने लक़लक़ को छोड़ दिया।
बूढ़ा सुबह जल्दी उठकर लक़लक़ से अपना मुँहमाँगा इनाम लेने चल दिया। बूढ़ा चलता रहा, चलता रहा और बहुत-से नदी-नाले और पहाड़ पार करके एक जगह पहुँचा, जहाँ भेड़ें चर रही थीं।
"ये भेड़ें किसकी हैं ?" बूढ़े ने गड़रिये से पूछा ।
"लक़लक़ की" गड़रिये ने जवाब दिया ।
बूढ़ा आगे बढ़ा, तो उसने देखा घोड़ों का झुंड चर रहा है। "ये घोड़े किसके हैं ?" बूढ़े ने चरवाहे से पूछा ।
"लक़लक़ के," उसने जवाब दिया ।
"जरा सुनो, "बूढ़ा बोला, "लक़लक़ ने मुझे इनाम देने का वायदा किया है। मैं उससे क्या माँगूँ ?”
"लक़लक़ के पास एक जादू की देगची है। तुम जैसे ही बोलोगे, 'उबल मेरी देगची', वह उबलने और सोना उगलने लगेगी। तुम जादू की देगची ही मांगना," चरवाहे ने बूढ़े को सलाह दी।
बूढ़ा आगे चल दिया। चलता रहा, चलता रहा, बहुत-से नदी-नालों, झीलों, पहाड़ों और मैदानों को पार करके सात दिन और सात रात बाद लक़लक़ के घर आ पहुँचा।
"सलाम !" बूढ़े ने दरवाजे में क़दम रखते ही कहा ।
लक़लक़ अपनी चोंच बजाकर बोला :
"लक़-लक़। अगर तुमने सलाम नहीं किया होता, तो अब तक मैं तुम्हें चोंच मारकर जिन्दा ही निकल गया होता। तुम शायद अपना इनाम माँगने आये हो ? अच्छा, बोलो क्या चाहते हो ?"
"आपके पास जो जादू की देगची है, उसे मुझे दे दीजिये,” बूढ़ा बोला ।
लक़लक़ सोचने लगा ।
"बूढ़े, तुम देगची लेकर क्या करोगे? इससे अच्छा होगा कि तुम सोने से पूरा भरा थाल ले लो," लक़लक़ बूढ़े को मनाने लगा ।
पर बूढ़ा नहीं माना ।
लक़लक़ ने बूढ़े को जादू की देगची दे दी ।
बूढ़ा देगची लेकर अपने घर चल दिया ।
बहुत-से पहाड़, मैदान पार करके बूढ़ा एक गाँव में पहुँचा और आराम करने के लिए अपने एक परिचित के घर रुका।
"आप जरा इस देगची का खयाल रखें, बूढ़े ने अपने परिचित से कहा: "मैं बहुत थक गया हूँ, थोड़ी देर सो लूं। आप बस 'उबल, मेरी देगची' मत कहना," बूढ़े ने चेतावनी दी।
जैसे ही बूढ़े को नींद आयी, घर का मालिक जोर से बोला : 'उबल, मेरी देगची !'और देगची सोने की अशरफ़ियाँ उगलने लगी। उसने जादू की देगची छिपा दी और उसकी जगह एक बिल्कुल वैसी ही साधारण देगची लाकर रख दी।
बूढ़े की नींद खुली और वह देगची लेकर आगे चल दिया ।
बूढ़ा अपने जाने-पहचाने रास्ते पर चलता हुआ सात दिन और सात रात बाद आखिर अपने घर पहुँच गया । अन्दर आते ही उसने कहा :
"ला, बुढ़िया, चादर बिछा, हमें अभी इतना सोना मिलेगा कि हम बहुत अमीर हो जायेंगे ।"
बुढ़िया ने चादर बिछा दी । बूढ़े ने देगची चादर के बीच में रखी और जोर से चिल्लाया: 'उबल, मेरी देगची !'
पर न देगची में उबाल आया और न ही उसमें से सोना निकला । बूढ़ा फिर चिल्लाया, पर देगची वैसी ही रखी रही ।
बूढ़ा गुस्सा होकर जोर-जोर से लक़लक़ को कोसने लगा :
"लानत है, लक़लक़ तुझ पर। तूने मुझे धोखा दिया और मामूली देगची दे दी। मैं कल जाकर दूसरी चीज माँगूँगा ।"
दूसरे दिन बूढ़ा सुबह जल्दी उठकर चल दिया । चरवाहे के पास पहुँचकर उसने पूछा : "लक़लक़ ने मुझे धोखा दिया। अब मुझे उससे कौन-सी चीज मांगनी चाहिए ?" चरवाहा सोचकर बोला :
"लक़लक़ के पास एक जादूई चादर है। उसे ज़मीन पर रखकर जैसे ही 'खुल जा, मेरी चादर !' कहोगे, तुरंत उसके ऊपर तरह-तरह के खाने आ जायेंगे। तुम वही चादर माँगना ।"
बूढ़ा लक़लक़ के पास पहुँचा और घर में क़दम रखते ही बोला :
"सलाम ! "
"लक़-लक़, लक़लक़ ने अपनी चोंच बजायी । अगर तुम ने सलाम नहीं किया होता, तो अब तक मैं तुम्हें चोंच मारकर जिन्दा ही निगल गया होता। पिछली बार मैंने तुम्हें जादू की देगची दी थी। क्या वह ठीक काम नहीं कर रही है ?" उसने पूछा ।
बूढ़े ने लक़लक़ को सारा क़िस्सा सुनाया और कहने लगा:
"तुमने मुझे धोखा दिया। जादू की देगची की जगह तुमने मुझे मामूली देगची दे दी। इसी लिए मैं अब तुमसे जादूई चादर माँगने आया हूँ ।"
लक़लक़ ने बूढ़े को जादुई चादर दे दी। बूढ़ा चादर लेकर वापस चल पड़ा। काफ़ी देर चलने के बाद वह उसी गाँव में पहुंचा, जहाँ पिछली बार ठहरा था ।
अपने परिचित के घर आकर बूढ़े ने उससे कहा :
"मैं बहुत थक गया हैं, थोड़ी देर सो लूं, तब तक आप इस चादर का खयाल रखिये। बस 'खुल जा मेरी चादर' मत कहिये ।"
जैसे ही बूढ़ा सो गया, परिचित ने आवाज दी, 'खुल जा, मेरी चादर!' और पलक़ झपकते ही उस पर सत्तर तरह के स्वादिष्ट खाने लग गये। परिचित ने फ़ौरन जादूई चादर और खाने दूसरे कमरे में छिपा दिये और उसकी जगह एक बिल्कुल वैसी ही मामूली चादर लाकर रख दी। बूढ़े की नींद खुली तो वह चादर उठाकर आगे चल दिया ।
घर पहुँचकर वह बोला :
"आ, बुढ़िया, तू जो चाहे, तुझे खिलाऊँगा । बोल, क्या चाहिए ? अभी तैयार होकर आ जायेगा ।"
उसने चादर रखकर आवाज दी :
"खुल जा मेरी चादर ! "
पर वह कितना ही चिल्लाया, न चादर खुली और न ही उस पर किसी तरह के पकवान आये ।
बूढ़े को बहुत गुस्सा आया ।
“लक़लक़ ने दूसरी बार भी मुझे धोखा दिया। कल ही जाकर उससे दूसरी चीज माँगूंगा, "वह बोला ।
दूसरे दिन पौ फटते ही बूढ़ा सफ़र पर रवाना हो गया।
चरवाहे के पास पहुँचकर उसने सारा किस्सा सुनाया और पूछा :
"मुझे लक़लक़ से अब क्या मांगना चाहिए ?"
"मालूम पड़ता है, तुम्हारे दुश्मन बहुत हैं, "चरवाहे ने कहा ।"तुम लक़लक़ से जादू का डण्डा माँगो । जैसे ही तुम बोलोगे, 'मार, डण्डे, मार!' तुम्हारे सामने कोई भी क्यों न हो, डण्डा उसको मारने लगेगा।"
बूढ़ा फ़ौरन आगे चल दिया । लक़लक़ के घर पहुँचकर वह बोला :
"सलाम !"
लक़ लक़, लक़लक़ ने चोंच बजायी । "अगर तुमने सलाम नहीं किया होता, तो अब तक मैं तुम्हें चोंच मारकर जिंदा ही निगल गया होता ... फिर किस लिए आये हो ? जादू की देगची और चादर मैं तुम्हें दे चुका हूँ, अब और क्या चाहिए ?"
"इस बार भी तुमने मुझे धोखा दिया, "बूढ़ा कहने लगा।" जादूई चादर की जगह तुमने मुझे एक मामूली चादर दे दी । अब तुम मुझे एक असली चीज दो। मुझे वह डण्डा दो, जो खुद ही मार लगाने लगता है।"
"मुझे डण्डे की कोई जरूरत नहीं, अगर तुम्हें वह चाहिए तो ले लो," लक़लक़ ने कहा और जादू का डण्डा बूढ़े को दे दिया ।
बूढ़ा डण्डा लेकर वापस लौटने लगा। चलते-चलते वह उसी गाँव में पहुँचा, जहाँ पहले भी ठहर चुका था । अपने परिचित के घर आकर बूढ़े ने उससे कहा :
"जरा इस डण्डे का खयाल रखना, मैं थक गया हूँ, थोड़ा सो लूँ। बस 'मार, डण्डे, मार!' मत कहना ।"
बूढ़े के सोते ही घर के मालिक ने आवाज दी, “मार, डण्डे, मार!"
उसके आवाज देने की देर थी कि डण्डे ने घर के सब लोगों को पीटना शुरू कर दिया। चीख - चिल्लाहट सुनकर बूढ़े की नींद खुल गयी ! सब रोते हुए बूढ़े के पास आये और माफ़ी माँगने लगे :
"किसी तरह डण्डे को रोक दीजिये। हमने आपकी जादू की देगची और चादर चुरा ली थी। हमें माफ़ कर दीजिये, हम दोनों चीजें आपको लौटा देंगे। किसी तरह इस डण्डे को रोक दीजिये !"
"डण्डे, रुक जा !" बूढ़े ने आवाज़ दी और डण्डे ने पीटना बन्द कर दिया !
घरवालों ने दूसरे कमरे में से जादू की देगची और चादर लाकर बूढ़े को दे दी। तीनों चीजें लेकर बूढ़ा अपने घर की ओर चल दिया। कई नदी-नाले, झीलें, पहाड़ और मैदान पार करके सात दिन और सात रात बाद बूढ़ा आखिर अपने घर आ पहुँचा ।
देगची रखकर उसने आवाज़ दी :
"उबल मेरी देगची !"
देगची में उबाल आने लगा और वह सोने की अशरफियों उगलने लगी । बूढ़ा - बुढ़िया दोनों हाथों से भी अशरफ़ियाँ समेट नहीं पाये ।
बूढ़े ने फिर आवाज दी :
"खुल जा मेरी चादर ! "
चादर खुल गयी और उसके ऊपर सत्तर तरह के स्वादिष्ट खाने और पकवान आ गये । बूढ़े और बुढ़िया ने अपनी जिंदगी में पहले कभी इस तरह का नजारा नहीं देखा था। उन दोनों ने छककर खाया और पिया।
उस देश के खान को जब पता लगा कि बूढ़े शिकारी को कहीं से जादू की देगची और चादर मिल गयी है, तो उसने अपने वजीर को उसके पास भेजा ।
"जादू की देगची और चादर हमें दे दे, "वजीर कहने लगा ।
बूढ़े ने आवाज़ दी :
"मार, डण्डे, मार ! "
डण्डे ने वजीर की अच्छी तरह पिटाई कर दी और वह किसी तरह घिसटता हुआ खाली हाथ लौट आया।
खान ने सुबह अपनी सात हजार फ़ौज लेकर बूढ़े के घर को घेर लिया ।
"बूढ़े, अगर तुझमें दम है, तो बाहर आकर लड़!" खान चिल्लाकर बोला ।
बूढ़े ने दरवाजा खोलक़र जैसे ही आवाज़ दी :
"मार, डण्डे, मार!"
डण्डे ने खान के सैनिकों को ऐसी मार लगायी कि वे बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचाकर भाग पाये । इसके बाद डण्डा खान के पास पहुँचा और उसको भी पीटने लगा ।
खान रोने-चिल्लाने लगा :
"बूढ़े, अपने डण्डे को रोक दे ! मुझे जान से मत मार ।"
और बूढ़ा अपने घर के दरवाजे के आगे खड़ा हँसता रहा :
"अब तुम दुबारा कभी किसी ग़रीब की चीज पर अपनी नजर नहीं डाल सकोगे ।"
इस तरह बूढ़े शिकारी और उसकी पत्नी की सारी इच्छाएं पूरी हो गयीं ।