जाट-मुल्ला : हरियाणवी लोक-कथा
Jaat-Mullah : Lok-Katha (Haryana)
एक गाँव में एक जाट व मुल्ला पड़ोसी थे। दोनों पड़ोसी तो थे पर एक-दूसरे को फूटी आँख न सुहाते थे। क्योंकि जाट मेहनती किसान था और मौलवी पढ़ा लिखा। वह जाट को अपने से छोटा समझता था। अब खेत क्यार के काम की वजह से जाट के लत्ते-कपड़े मैले रहते थे। मौलवी धौल पोस यानि साफ-सुथरा रहता था। मौलवी बात-बात पर मेन जाट का मजाक उड़ाता रहता था। जाट इस बात से तंग था।
हर रोज सुबह सवेरे जाट हल लेकर घर से बाहर जाने लगता तो मुल्ला अपने चबूतरे पर बैठ बोल उठता “खुदा की खुदाई खुदा ही जाने” बात गलत न होते हुए भी जिस लहजे में कही जाती थी, उससे जाट चिड़ जाता था। जाट को लगता कि मुल्ला उसे चिढ़ाने के लिए ही जोर-जोर से बोलता था कि “खुदा की खुदाई खुदा ही जाने।”
रोज-रोज सुन कर जाट दुखी हो गया। एक दिन जब मुल्ला बोला “खुदा की खुदाई खुदा ही जाने” तो जाट बोला- तेरे खुदा की खुदाई में भी जानूँ सूं, मुल्ला को लगा जाट उसका अपमान कर रहा है वह बोला कि-तू के जाण खुदा कि खुदाई पर जाट भी कूण-सा कम था बोला कि मैं सब जाणू। फिर क्या था दोनों में शर्त लग गयी, कि जो जीतेगा वह वह हारने वाले के पशु ले लेगा। मुल्ला सोच रहा था इस तरह वह जाट को हरा कर उसकी दुधारू गाय हथिया लेगा। शर्त लगाकर वे फैसले हेतु इलाके के काजी के पास गए। काजी ने दोनों की बात सुनी, फिर काजी ने जाट से बोला- खुदा की खुदाई को तुम कैसे जानते हो बताओ।
जाट ने कहा- हुजूर मेरे साथ चलें दिखाता हूँ खुदा की खुदाई, काजी हँसा। जाट काजी मुल्ला व अन्य लोगो को लेकर एक झील के किनारे आ कर काजी से बोला कि हुजूर ये झील खुदा ने नहीं खुदाई है तो क्या इस मियां के अब्बा ने खुदाई है?
अब काजी भी पाशोपेश में पड़ गया। अगर कहे कि खुदा ने नहीं खुदवाई [बनवाई तो खुदा की कुदरत का अपमान होगा। सोच-विचार कर उसने फैसला जाट के पक्ष में दिया। मौलवी को अपनी गाय जाट को देनी पड़ी।
अब क्या था, चोट खाया मुल्ला जाट से बदला लेने के लिए मौका ढूँढने लगा। उसने बहुत सोच-साचकर बोलना शुरू कर दिया “मेरे मन कि मैं ही जानें।”
जाट से फिर बर्दाश्त नहीं हुआ तो एक दिन बोला- मुल्ला “तेरे मन की मैं भी जानूँ तूं।” मुल्ला तो ताक में था उसने सोचा, अब मैं अपना सारा हिसाब बराबर कर लूँगा।
मुल्ला बोला लगा शर्त?
जाट बोला लगाले।
“तेरे मन कि मैं भी जानूँ” बस फिर क्या था, शर्त एक बार फिर लग गयी कि जो जीतेगा वह अपना घर दूसरे को दे देगा, शर्त लगा कर मुल्ला भीतर ही भीतर बहुत खुश था कि अबकी बार जाट को मजा चखा दूंगा और इस तरह इस जाहिल जाट के पड़ोस से सदा-सदा के लिए पिंड छूट जाएगा।
मुल्ला को लगा काजी तो जाट के हक में है, वह बोला कि ये फैसला काजी के यहाँ नहीं ये तो बादशाह के दरबार में होगा।
जाट मान गया।
नियत दिन व वक्त पर गाँव के लोगों के साथ दोनों बादशाह के दरबार में हाजिर हो गए। उन दिनों बादशाह अक्सर उदास रहते थे, क्योंकि दवा-दारू, फूंक-झाड़, दुआ-मन्नत के बावजूद उसकी बेगम को औलाद नहीं हुई थी। यह बात सब जानते थे। खैर मुकद्दमा बादशाह के सामने रखा गया। तो बादशाह ने जाट से कहा कि अगर तुम जानते हो तो बताओ मुल्ला के मन की बात।
तब जाट हाथ जोड़ कर बोला, हुजूर मुल्ला के मन में दिन रात एक ही बात रहती है कि हमारे प्यारे बादशाह सलामत के घर में खुदा, एक चाँद-सा बेटा दे दे, जिससे कि हजूर का बंश आगे बढ़े और सल्तनत को उसका वारिस मिल जाये।
बादशाह ने मुल्ला कि तरफ देख कर पूछा- बताओ अपने मन की बात।
मुल्ला को काटो तो खून नहीं, उसने मन ही मन सोचा कि अगर मैं कहूँ कि, मेरे मन में ये बात नहीं है, तो बादशाह गुस्से में मेरा सिर कलम करवा देगा, जान बची तो लाखों पाये मुल्ला ने कहा कि हुजूर सच बात है।
मुल्ला ने बादशाह के फैसले के मुताबिक घर जाट के हवाले किया और अपने परिवार के साथ गाँव छोड कर दसरे देश चला गया। तब से यह कहावत चल पड़ी
अनपढ़ जाट पढ़ा जिस्या अर पढ़ा लिखा जाट खुदा जैसा।
(डॉ श्याम सखा)