इतिवृत्त (आत्मकथा) : अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

Itivritt (Auto-Biography) : Ayodhya Singh Upadhyay Hariaudh

रोग का रंग

बाबू बंकिमचन्द्र चटर्जी बंगाल के एक बड़े प्रसिद्ध उपन्यास लेखक हैं। उन्होंने बंगला में 'विष वृक्ष' नाम का एक बड़ा ही अनूठा उपन्यास लिखा है। उसमें कालिदास की एक बड़ी मनोमोहक कहानी है-आप लोग भी उसको सुनिए। कालिदास के पास एक मालिन नित्य आया करती, यह मालिन बड़ी मनचली और चुलबुली थी, प्रकृति भी इसकी बड़ी रसीली थी। यह कालिदास से उनके बनाए रसीले श्लोकों को सुनती, और उसके बदले उन्हें फूलों का गजरा भेंट देती। कालिदास का मेघदूत बड़ा ही मनोहर काव्य है, पर उसके आदि के कई एक श्लोक कुछ नीरस से हैं। एक दिन कालिदास ने मालिन को इन्हीं श्लोकों को सुनाया, मालिन ने नाक भौं चढ़ाई, कुछ मुँह बनाया, कहा मालिन लोग अच्छे-अच्छे फूलों के लिए चक्कर लगाती हैं, आप हमको नाम के श्लोक की ओर क्यों घसीटते हैं। कालिदास ने कहा-तब तो तुम स्वर्ग में न जा सकोगी। मालिन के कान खड़े हुए, उसने कहा-क्यों? कालिदास ने कहा-स्वर्ग में पहँचने के लिए सौ सीढ़ियाँ तय करनी पड़ती हैं। इन सौ सीढ़ियों में पहले की कुछ सीढ़ियाँ अच्छी नहीं हैं। पर उनसे आगे की एक से एक बढ़कर हैं। पर जब तक तुम पहले की सीढ़ियों को तै न करोगी, तब तक न तो तुम्हें अच्छी सीढ़ियाँ ही मिलेंगी, और न तुम स्वर्ग में ही पहुँच सकोगी। मालिन ताड़ गयी, हँसकर बोली-चूक हुई, क्षमा कीजिए, अब मैं जान गयी कि जो मीठे फलों का स्वाद लेना चाहता है, उसको फीके फल खाकर मुँह न बनाना चाहिए।

हम न तो अपने ग्रन्थ को मेघदूत बनाना चाहते हैं, न अपने को कालिदास। हम पढ़नेवालों को मालिन बनाना भी नहीं चाहते। अभिप्राय हमारा इस रचना के परिणाम से है। आप लोग इसके आदि के कुछ प्रसंगों को पढ़कर घबरायेंगे अवश्य। पर मेरी विनय यह है कि घबराने पर भी आप लोग इसे पढ़ते चलिए, आगे चलकर बिना कुछ रस मिले न रहेगा।

हम लोग प्राय: लोगों को तरह-तरह के रोगों में फँसा हुआ पाते हैं। कोई सिर पकड़े फिरता है, कोई पेट के दर्द की शिकायत करता है, किसी की ऑंख दुखती है, किसी का कान फटा पड़ता है, कोई ज्वर से चिल्लाता है, कोई अतिसार के उपद्रव से व्याकुल रहता है, निदान इसी तरह के बहुत से रोग लोगों को घेरे रहते हैं, और वे उनके हाथों बहुत कुछ भुगतते हैं। पर क्या कोई यह भी सोचता है कि इस तरह रोग के हाथों में पड़ जाने का क्या कारण है? रोग सब सुखों का काँटा है। अच्छे-अच्छे खाने, तरह-तरह के मेवे, भाँति-भाँति के फल, सुन्दर सेज, सजे हुए आवास, सुन्दरी रमणी, ऐसे ही और कितने भी सामान रुग्णावस्था में काटे खाते हैं, संसार की सारी सुख विलास की सामग्री मिट्टी हो जाती है-पर क्या रोगग्रस्त होने से पहले कभी हम रुग्ण न होने का विचार करते हैं? लोग जब खाट पर पड़ जाते हैं, तो बात-बात में विचारे भाग्य को कोसते हैं, देवी-देवताओं को मनाते हैं, भगवान की दुहाई देते हैं, पर क्या कभी यह भी विचारते हैं कि हमारा स्वास्थ्य बहुत कुछ हमारे हाथ है। जो हम जी से चाहें, यथार्थ रीति से सावधान रहें, और लड़कपन ही से स्वास्थ्य के नियमों पर चलाए जावें, तो रोगों से हम लोगों को बहुत कुछ छुटकारा मिल सकता है, पर दु:ख है कि हम लोगों का ध्यान इस ओर बहुत कम होता है। मैं यह नहीं कहता कि स्वास्थ्य के नियमों पर चलने से हम लोग सर्वथा रुग्ण होने से बचे रहेंगे, पर यह अवश्य कहता हूँ कि बहुत कुछ बचे रहेंगे। कितनी अवस्थाएँ ऐसी हैं कि जिनमें हम लोग सर्वथा विवश हो जाते हैं और उनके बारे में हमारा किया कुछ नहीं हो सकता, पर ऐसी दशाएँ बहुत कम हैं। अधिकतर ऐसी ही दशाएँ हैं कि यदि हम उनसे बचे रहें तो सब प्रकार के रोगों के पंजे से हमको छुटकारा मिल सकताहै।

जो कोई सिर पकड़े बैठा हो, और सिर दर्द का रोना रोता हो, और आप उससे पूछें कि क्यों भाई, सिर में दर्द क्यों है? तो यदि वह थोड़ी भी समझ रखता होगा, तो कह उठेगा, कि रात मैं देर तक जागता रहा, या आज बहुत समय तक धूप में घूमता फिरा, या कोई ठण्डी वस्तु खा गया, या खाने-पीने में देर हो गयी, निदान कुछ-न-कुछ कारण अपने सिर दर्द का वह अवश्य बतलावेगा, जिससे यह बात पाई जाती है कि उसको अपने सिर दर्द का कारण अवश्य ज्ञात है। और ऐसी दशा में यह कहा जा सकता है कि यदि सिर दर्द के उस कारण से उस दिन वह बचता, तो उसके सिर में दर्द कभी न होता। अब यह बात यहाँ सोचने की है कि जब वह जानता था कि ऐसा करने से उसको इस तरह की वेदना हो जाती है, तो फिर उसने वैसा क्यों किया? यही भेद ऐसा है कि जो समस्त सुख दुखों की जड़ है। और जो इस भेद को जितना समझ सका है, वह इस संसार में उतना ही सुखी या दु:खी पाया जाता है। मान लो कि उसको रात में जागने से सिर दर्द हुआ था, तो फिर रात में वह क्यों जागा? अवश्य है कि या तो वह कोई तमाशा या नाच देखता रहा, या किसी मेले में सैर सपाटा करता रहा, या कोई पुस्तक देर तक पढ़ता रहा, या मित्रों के रोकने से रुका रहा, या ऐसी ही और कोई बात हुई, जिससे उसको रात में देर तक जागते रहना पड़ा। जब उसके सोने का समय हुआ होगा, तो उसके दिल ने उससे अवश्य कहा होगा कि अब चलकर सो रहो। परन्तु चाह ने कहा होगा कि थोड़ा नाच या तमाशा और देख लो, या थोड़ा सैर सपाटा और कर लो, या थोड़ी देर तक पुस्तक और पढ़ लो, या देखो तुम्हारे मित्र रोक रहे हैं, उनकी बात न मान कर यों चले जाना ठीक नहीं। पर चाह बढ़ाने ही से तो बढ़ती है, इसी तरह थोड़ा-थोड़ा करके उसने बहुत रात तक जगाया, जिसका फल यह हुआ कि दूसरे दिन सिर पकड़ कर बैठना पड़ा। मनुष्य को अपनी चाहों पर अधिकार रखना चाहिए, और सदा उसको बुध्दि के कहने पर चलाना चाहिए, पर ऐसा बहुत कम होता है, जहाँ तक देखा जाता है चाह ही मनुष्य को दबा बैठती है, और इसी से उसको सब तरह के दुखों में फँसना पड़ता है। जो उसको चाह के दबाने की शक्ति होती, तो वह कभी स्वभाव के प्रतिकूल अधिक समय तक न जागता। न तो नाच तमाशा या मेले की सजधज उसको ठहरा सकती, न पुस्तक की चटपटी बातें उसको विवश करतीं, और न कोई मित्र ही उसकी उचित बातों को सुनकर उसका रोक रखना पसन्द करता। और ऐसी अवस्था में वह अवश्य यथा समय सोता, और कभी सिर दर्द का शिकार न होता। ऐसे ही और सब दुखों और रोगों की बातों को भी समझ लेना चाहिए। पर स्मरण रखना चाहिए कि चाहों का दबाना स्वभाव डालने से आता है, जब तक स्वभाव न डाला जावे, वे कभी वश में नहीं रहतीं, और मनुष्य को ही दबा बैठती हैं। इस स्वभाव डालने का सबसे अच्छा समय लड़कपन है, जो लड़कपन से इस तरह का स्वभाव डालना नहीं सीखते वे पीछे कम सफलीभूत होते हैं।

मेरे एक मित्र प्राय: पेट के दर्द की शिकायत किया करते। मैंने एक दिन उनसे पूछा-बात क्या है? उन्होंने कहा कि कोई अच्छी वस्तु मिलने पर जब अधिक खा जाता हूँ या कोई कड़ी वस्तु खा लेता हूँ, तभी ऐसी नौबत आती है। मैंने कहा-फिर आप संयम से क्यों नहीं काम लेते ? उन्होंने कहा-जीभ नहीं मानती। इसी तरह किसी की ऑंख नहीं मानती, किसी का कान नहीं मानता, किसी का जी नहीं मानता और किसी के और और अंग नहीं मानते, और यह न मानना ही सब दुखों की जड़ है।

एक मुहर्रिर को मैंने देखा कि जब सूर्य डूब जाता, और अंधियाला बढ़ता जाता है उस समय भी आपकी लेखनी चलती रहती, और आप कागज के पीछे पड़े रहते। ऐसे ही एक क्लर्क दो एक पैसे के तेल का बचाव करता, और रात में चाँदनी के सहारे अपने कागजों को लिखता रहता। थोड़े ही दिनों में उनकी ऑंखें बिगड़ीं। लोगों ने फटकार बतलाई, तो उन्होंने कहा कि सब लोग जानते थे कि ऐसी नौबत आवेगी। किसी ने मना भी तो नहीं किया। इससे पाया जाता है कि इन बेचारों ने जो कुछ किया अनजान में किया, जो वे जानते कि ऐसा करने से ऑंखें बिगड़ जावेंगी तो शायद वे ऐसा न करते। ऐसे ही कितनी बातें ऐसी हैं, जो अनजान में हमारे ऊपर बुरा प्रभाव डालती हैं, हम लोग उसके बुरे प्रभाव को जानते ही नहीं जो उससे बचें। पर यह जानना चाहिए कि जो बातें बँधी हुई नियमों के प्रतिकूल हैं, या जिनके करने में हमको अपने जी पर दबाव डालना पड़ता है, उनको कभी न करना चाहिए। जो हम उसके बुरे प्रभाव को जानते भी न हों, किसी ने हमको बतलाया भी न हो, तब भी समझ लेना चाहिए कि उन बातों के करने से कुछ न कुछ बुराई अवश्य होगी। यह बँधी हुई चाल है कि लोग दिन भर काम करते हैं। और संध्या समय बन्द कर देते हैं, यह भी बँधी हुई चाल है कि जब रात को लिखना पढ़ना होता है तो दीया या कोई दूसरी रोशनी जला लेते हैं। इसलिए मुहर्रिर और क्लर्क को आप ही सोचना चाहिए था कि जो बँधी हुई चाल है, उसे छोड़कर चलना ठीक नहीं। और यदि वे इतना सोचते तो उनकी ऑंखें कभी न बिगड़तीं। ऐसे ही और बातों के विषय में भी सोच लेना चाहिए।

आज हम यह आप लोगों को सुनाने बैठे हैं, पर जब सूझना चाहिए था उस घड़ी हमको भी ये बातें न सूझीं। हम पहले प्रसंग में लिख चुके हैं तीन साल से माघ का महीना हमारे लिए बहुत डरावना हो गया है, यहाँ तक कि इस साल जान बचने की भी बहुत कम आशा थी। पर क्या हमारी यह दशा बिल्कुल अपने आप है, नहीं इसमें बहुत कुछ हमारी भूल चूक और लापरवाही का भी हाथ है। सन् 1879 ई. में जब मेरा सिन चौदह साल का था, मिडिल वर्नाक्यूलर मैंने पास कर लिया, मुझको तीन रुपया गवर्नमेन्ट स्कालर्शिप मिली, और क्वींसकॉलेज बनारस में अंग्रेजी पढ़ने की आज्ञा हुई। मैं पन्द्रह वर्ष के सिन में बनारस गया, और बोर्डिंग हाउस में ठहरा। मैं अपने घर में एक लड़का था, बड़े लाड़ प्यार से पला था, कभी किसी तरह की कठिनता का सामना नहीं पड़ा था। घर पर पका पकाया भोजन मिलता, अच्छी-अच्छी खाने की वस्तु मेरे लिए इहतियात से रखी रहती। मैं जिस तरह चाहता, रहता, जब चाहता नहाता खाता, तनिक सिर भी धमकता, तो घर भर आवभगत में लग जाता। पर बनारस में ये सब बातें कैसे नसीब होतीं, यहाँ मुझको रोटी भी अपने हाथ से बनानी पड़ती, और वह भी मैं कठिनाई से एक बेले बना सकता, जो रसोई बनती, वह भी अच्छी न बनती, इससे उसको खाकर भी प्रसन्न न होता। चित्त पहले से ही वश में न था, रुपये हाथ में थे, फिर बनारस-सा नगर, एक-से-एक खाने की अच्छी वस्तुएँ बिकने को आतीं, हमने भी उन पर हाथ मारना आरम्भ किया। इसका फल यह हुआ कि जो कभी मैं कच्ची रसोई बनाता, तो बड़ी लापरवाही से बनाता, जिससे प्राय: वह बुरी बनती, जिसमें से मैं कुछ खाता, कुछ छोड़ देता। इससे भूख बनी ही रहती, और खोंचेवाले की राह ताकता रहता, ज्यों वह पहुँचता, मैं भी उसके पास जा धमकता, और जो जी में आता, लेकर खाता। इसका परिणाम बड़ा बुरा हुआ, एक तो मेरी प्रकृति बादी, दूसरे बनारस की जलवायु बादी, तीसरा मेरा असंयम। पाँच-चार महीने में मुझे बादी बवासीर हो गयी। इन दिनों मुझको दिन रात कब्ज रहता, तबीअत जब देखो तब खराब। पर बात कुछ समझ में न आती। धीरे-धीरे ज्ञात हो गया कि मुझे बादी बवासीर हो गयी, और मैं बनारस छोड़कर निजामाबाद चला आया।

घर आने पर खाने पीने का गड़बड़ जाता रहा, जलवायु का झगड़ा भी जाता रहा, इसलिए मेरा स्वास्थ्य जैसे पहले था वैसा फिर हो गया, पर बादी बवासीर जड़ से न गयी, कभी-कभी वह अपना रंग दिखला जाती। यह बवासीर युवावस्था के लिए भी टाड़ा हुई, अठारह बीस बरस के सिन में भी जैसा चाहिए वैसा बल शरीर में न आया। जैसा दुबला पतला और दुर्बल बदन पहले था वैसा ही इन दिनों भी रहा। पर न तो बवासीर में कभी पीड़ा होती, और न उसकी वजह से कोई दूसरी ही ऐसी बुराई पैदा हुई, जिससे मुझको कोई विशेष कष्ट होता। इसलिए इन दिनों बवासीर से मैं बहुत लापरवाह रहा, जिसका फल यह हुआ कि वह धीरे-धीरे अपना बल बढ़ाती रही। पच्चीस बरस के सिन में उसका रंग कुछ बदला, वह महीने दो महीने पर सताने लगी, पर उसका यह सताना भी साधारण था, दो एक दिन कुछ कष्ट रहता, फिर दूर हो जाता। धीरे-धीरे तीस साल पूरा हुआ, अब रुग्णता का रंग कुछ और गहरा हुआ, अब उससे तरह-तरह की पीड़ायें होने लगीं। अब मेरे कान भी खड़े हुए, मैं कुछ औषधी-सेवन और दौड़ धूप भी करने लगा, पर आप देखें तो कैसी गहरी नींद के बाद ऑंख खुली। पन्द्रह वर्ष के पहले जिन बातों को दूर करना सहज था, अब वह बहुत ही कठिन हो गया। मैं चिनगारी को न बुझा सका, पर उससे जो एक डरावनी आग पैदा हो गयी, तब उसे बुझाने के लिए दौड़ा। नासमझ और टालटूल करने वालों की यही दशा होती है। वे समय पर सोते हैं, और जब समय नहीं रहता, तब उनकी ऑंखें खुलती हैं, जो सफलता का मँह न देखकर बड़े दु:ख के साथ फिर बन्द हो जाती हैं। तैतीसवीं साल बीमारी का बड़ा कड़ा धावा हुआ। मैंने समझा दिन पूरे हो गये। साथ ही अपनी लापरवाही और टालटूल की प्रकृति पर घृणा भी बड़ी हुई। परन्तु चार-पाँच महीने दुख झेल कर मैं फिर सँभल गया, किन्तु इस बार रुग्णता ने जो रंग पकड़ा वह निराला था। मैं इस निरालेपन को बतला सकता हूँ, पर नीरस बातों को कहाँ तक बढ़ाऊँ। थोडे में इतना कह देना चाहता हूँ कि चालीस साल के सिन तक मैं कुछ सुखी भी था, पर चालीस साल के बाद से रोग ने बहुत दुखी कर रखा है, देखूँ यह रंगत कितनी चटकीली होती है।

रोग

हम कौन हैं, आप यह जानकर क्या करेंगे। फिर हम आप से छिप कब सकते हैं, आपकी हमारी जान-पहचान बहुत दिनों की है। हमने कई बार आप से मीठी-मीठी बातें की हैं, आपका जी बहलाया है, आपके सामने बहुत से फूल बिखेरे हैं, आपको हरे-भरे पेड़ों का समाँ दिखलाया है। कभी सुनसान की सैर करायी है, कभी सावन भादों की काली-काली घटाओं पर लट्टई बनाया है। यह सुबह का चमकता दिनमणि है, यह प्यारा-प्यारा निकला हुआ और यह छिटकती हुई चाँदनी है, यह चिलचिलाती हुई धूप है, उँगलियों को उठाकर आपको ये बातें दिखलाई हैं, और बतलाई हैं। पर आज इन बातों से काम नहीं, इस पचड़े से मतलब नहीं। हम कोई हों, आप बातें सुनते चलिए, यदि कुछ स्वाद मिले, आपका जी मेरी बातों को सुनने को हो तो सुनते रहिए, नहीं तो जाने दीजिए, दूसरी ही बातों से जी बहलाइए। याद रखिए, एक ही तरह की वस्तु खाते-खाते जी ऊब जाता है, कभी-कभी खाना अच्छा नहीं लगता। ऐसी नौबत आती है कि दो-एक दिन यों ही रह जाना पड़ता है, या कोई हलकी वस्तु थोड़ी सी खाकर दिन बिता लेते हैं। और तो बहुत होता है, कि रहर की दाल आज बदल दो, आज उर्द की दाल। आज दाल चावल खाने को जी नहीं चाहता, आज मीठा चावल हो तो अच्छा। आप लोगों ने लाड़-प्यार की बहुत-सी कहानियाँ पढ़ी हैं, जी की लगावट और मनचलों की चालाकी भरे चोचलों की तरह-तरह की रंग-बिरंगी लच्छेदार बातें सुनी हैं। आज मनफेर कीजिए, इस छोटी-सी रचना पर अपनी नजर डालिए, देखिए इसकी बातें काम की हैं या नहीं।

जाड़ों के दिन सुख-चैन के दिन होते हैं, न उनमें गरमी के दिन की सी घबराहट और बेचैनी रहती है न बवंडर उठते हैं, न लू-लपट चलती है, न प्यास के मारे नाकों दम रहता है, न बरसात के दिनों का सा बात का जोर, न कीच काँच का बखेड़ा रहता है, न तरह-तरह के रोग फैलते हैं, और न बिशूचिका अपना डरावना चेहरा दिखलाकर दिल दहलाती है। इसका दिन साफ-सुथरा होता है, हवा धीमी और सुन्दर बहती है, जो कुछ खाइए ठीक-ठीक पचता है, न बहुत पानी पीया जाता है, न पेट भर खाने के लाले पड़ते हैं। बाजार सब प्रकार की वस्तुओं से पट जाता है, सेब, अंगूर और दूसरे मेवे बहुतायत से मिलते हैं। जब से ताऊन का पाँव भारत में पड़ा, दूसरे लोगों के लिए भी जाड़े के दिन सुख-चैन के दिन नहीं रहे। पर मुझको तो तीन साल से जाड़े के दिन बहुत सताते हैं। मुझसे एक वैद्य न कहा था, कि चालीस बरस का सिन...बाद तुम्हारी बवासीर तुमको बहुत तंग करेगी, सचमुच वह मुझको अब बहुत तंग करती है। चालीसवें साल में ही उसने तंग करने की नींव डाली और हरसाल नींव पर रद्दे रख रही है। विशेषकर माघ का महीना मेरे लिए डरावना हो गया है। इस महीने में रोग का वेग बहुत बढ़ जाता है, बहुत पीड़ा होती है, बहुत कुछ भुगतना पड़ता है। इस साल यह वेग इतना बढ़ा और उसके ऐसे-ऐसे झटके लगे कि मैंने यह सोच लिया था, कि अब बहुत हो गया, जितने दिन और घड़ियाँ बीतती हैं, गनीमत हैं। पर, दिन पूरा नहीं हुआ था, अभी शायद संसार में कुछ दिन और रहना है। इसलिए माघ बीतते बीतते मैं बहुत कुछ सम्हल गया, और अब मैं पहले से बहुत कुछ अच्छाहूँ।

यद्यपि अब मैं बहुत कुछ अच्छा हूँ, आठो पहर तबीयत नहीं ठीक रहती; पर रोग कभी-कभी अपना रंग दिखला जाता है। किसी-किसी दिन मेरी भी वही दशा हो जाती है। इससे नहीं कहा जा सकता कि कब क्या हो जाएगा। कबीर साहब ने कहा है, यह देह नव द्वार का पिंजड़ा है, उसमें हवा नामक पंछी रहता है, इसलिए उसका उड़ जाना तो विचित्र बात नहीं है, वह ठहरी हुई है, यही आश्चर्य है।

नव द्वारे का पींजरा , तामें पंछी पौन।

रहने को आचरज है , गये अचंभा कौन।

सच है, इस साँस का क्या ठिकाना, आयी न आयी। पण्डित रामकर्ण ब्याह का उमंग भरे घर आये, रात भर स्त्री के साथ रंगरेलियाँ मनाते रहे। हँसते खेलते उठे, नहाया धोया, कुछ खा-पीकर दस बजे गुरुदेव से मिलने चले। अभी घोड़ा गाँव के बाहर आया था कि सर चकराने लगा, घोड़े से उतर कर पृथ्वी पर लेट गये। लेटते ही साँस देह के बाहर हो गयी। बेचारे नहीं जानते थे कि इस तरह अचानक मृत्यु उन पर टूट पड़ेगी। मुंशी अमृतलाल कचहरी का कुछ काम करके सन्ध्या समय घर आये, दस बजे रात तक सबके साथ गुलछर्रे उड़ाते रहे, ग्यारह बजे के लगभग रोटी खाकर सोए, बातें करते-करते नींद आ गयी, पर थोड़ी देर में अचानक नींद टूट गयी, मन घबराया चारपाई से उठकर खड़े हुए, पर सँभल न सके, धड़ से पृथ्वी पर गिर पड़े। फिर न उठे। स्त्री ताकती ही रही गयी। एक बात भी मुँह से न निकली। राय दुर्गाप्रसाद साहब बाबू मोहनसिंह से हँसी-मजाक कर रहे थे, और तब छूट चल रही थी, सिर में जरा धमक तक न थी, कि बाबू वहाँ से विदा हुए। पास ही घर पर पहुँच कर कपड़े उतारते थे कि राय साहब ने उनको चौंका दिया। वह दौड़कर राय साहब के पास आये, वह पृथ्वी पर पड़े हुए साँसें तोड़ रहे हैं, कुछ कहना चाहते हैं, पर जबान न खुली। इतने में जम्हाई आयी, और काम तमाम।

जनरल स्मिथ विलायत से हिन्दुस्तान आये, दिन भर कांग्रेस में बातें सुनते रहे। हँसते रहे, तालियाँ बजाते रहे, शाम को डेरे पर जाकर काम-काज करते रहे, दोस्तों से मिलते जुलते रहे, दस बजे सो गये। उनकी ऑंखें फिर न खुलीं, दिल की हरकत बन्द हो गयी थी। वे चल बसे। मिस्टर हूपर बोर्ड माल के मेम्बर थे, हाल ही में उनकी शादी थी, वे विलायत जा रहे थे। रास्ते में फ्रांस के एक होटल में ठहरे हुए थे, दिन भर शरीर बहुत अच्छा रहा, रात में उसी होटल में लाल साहब से मिले, बहुत देर तक इधर उधर की बातें करते रहे। जब सोए तब कोई शिकायत न थी, पर चार बजे पेट में दर्द उठा, लोग डॉक्टर बुलाने दौड़े पर जब तक डॉक्टर आवें, दर्द ने उनको इस संसार से उठा लिया था। वह बेचारे आये और अपना-सा मुँह लिए वापस गये।

जिन दिनों मैं नत्थूपुर में गिर्दावर कानूनगो था, एक दिन पिताजी ने अचानक दर्शन दिया, आजकल आप बहुत स्वस्थ थे, बड़े प्रफुल्ल थे, जब तक रहे, ऐसे ही रहे, आठवें दिन जब घर को पधरने लगे, तब भी मैंने उनको स्वस्थ ही पाया। पर हाय! नौवाँ दिन बड़ा बुरा था, आज आप पहर दिन बीते घर पहुँचे, नहा धोकर अच्छी तरह खाया पीया, फिर आराम किया, जब उठे तब भी तबीअत वैसी ही फुरतीली थी। संध्या समय संगतजी में भजन गाते रहे। दो घड़ी रात तक यही झमेले रहे। इसके बाद रात को घर आये। उनका नियम था कि वे दो घड़ी रात गये नित्य संगत जी में जाते थे। बड़े प्रेम से भजन करते, आज भी इस काम में कोई कसर नहीं छोड़ा। आज भी उनके भजनों का रंग वैसा ही जमा, लोग उनको सुनकर वैसा आनन्द लिये, वैसा ही राम रस में सराबोर हुए, पर कहते कलेजा मुँह को आता है, आज उनकी ये तमाम बातें सपना हो गयीं। संगत जी से वापस आकर कुछ देर अध्ययन किया, फिर सोए। पर सोने के दो घड़ी बाद पेट के दर्द से उनकी हालत खराब हो गयी, इस समय रात का सन्नाटा था, छ: घड़ी रात बीत चुकी थी। उनके चचा उनके पास ही सोए थे, वे जगकर दौड़ धूप करने लगे। परन्तु दो घण्टे में उनकी ऑंखें सदा के लिए बन्द हो गयीं। और फिर न खुलीं। यह कैसी मौत है। कुछ घड़ी पहले क्या कोई भी जी में ला सकता था कि ऐसा होगा... और भी बहुत सी बातें बतलाई जा सकती हैं, पर मतलब आप समझ गये होंगे, मतलब और कुछ नहीं; यही है कि-

क्या ठिकाना है जिन्दगानी का।

आदमी बुलबुला है पानी का।

मैं मानूँगा कि जितनी ऐसी मौतें होतीं हैं वे देखने में आकस्मिक ज्ञात होती हैं, पर सच्ची बात यह है कि वे वास्तव में बहुत दिनों के पुराने रोग का परिणाम होती हैं। जो प्राणी इस तरह मरता है, वह देखने में हट्टा कट्टा और स्वस्थ भले ही हो, खाता-पीता और कामकाज करता ही क्यों न रहे, भीतर से वह खोखला होता है। रोग उसको उसी प्रकार चाट गया रहता है जैसे किसी लकड़ी को घुन या किसी पेड़ की जड़ को दीमक। प्राय: देखा गया है कि जो पेड़ बड़ी-बड़ी ऑंधियों में अपनी जगह से थोड़ा भी नहीं हिले, वे ही साधारण हवा की झोंकों से उखड़ गये और टूट कर धारा पर गिर पड़े। इसका कारण क्या है? इसका कारण कुछ और नहीं, यही है कि उस समय दीमकों ने खाकर उसकी जड़ को इतना दुर्बल कर दिया था कि वह साधारण हवा के झोंकों को भी सह नहीं सकता था। यही गति चटपट मरने वालों की भी है। पर इससे क्या! जो यह बात मान भी ली गयी कि ऐसी मृत्यु बहुत दिनों के रोगों का परिणाम होती है, तो भी इससे यह नहीं पाया जाता कि मनुष्य के जीवन का कोई ठिकाना है। बहुत से ऐसे लोग देखे गये हैं कि वे बिना किसी पुराने रोग के एक-ब-एक मर गये। उनके हृदय की गति अचानक बन्द हुई और वे चल बसे। कितने ऐसे पाए गये कि उनको साँप काट गया और वे घण्टे आधा घण्टे ही में ठण्डे हो गये। कोई नहाने के लिए पानी में उतरा और फिर ऊपर न उठा, कोई पेड़ से गिरा और वहीं का वहीं रह गया, किसी के ऊपर बिजली गिरी और दो चार मिनट में ही उसका काम तमाम हो गया, किसी के ऊपर मकान गिरा और उसका दम वहीं टूट गया। सच बात यह है कि मनुष्य मृत्यु से हर घड़ी घिरा हुआ है, और इसलिए यह बहुत ठीक है कि मर जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, जीते रहना ही विचित्रता है। पर यह सब होने पर भी संसार की यह रीति है कि एक बीमार मनुष्य से एक अधाबीमार की और एक अधाबीमार से एक भले चंगे के जीवन का भरोसा होता है। जो रोग मुझको है, वह चौबीस बरस का पुराना है, अब भी किसी-किसी दिन उसका वेग बहुत बढ़ जाता है, इससे मैंने जो पहले यह लिखा है कि यह नहीं जाना जाता कि कब क्या होगा, यह ठीक है। पर पहले से जो मैं बहुत कुछ अच्छा हूँ, इसलिए अभी कुछ दिन और जीते रहने की आशा बँधा गयी है और इसी आशा के सहारे आज मैंने फिर आप लोगों को कुछ मनमानी बातें सुनने के लिए लेखनी पकड़ी है। देखूँ मैं अपने विचार को कहाँ तक पूरा कर सकता हूँ।

जिन दिनों मैं बहुत रुग्ण था और जी में यह बात बैठ गयी थी कि अब चलने में देर नहीं है। उन्हीं दिनों मृत्यु और परलोक के विषय में मेरे जी में बहुत सी बातें उठी हैं, मैं उन बातों को आप लोगों को भी सुनाऊँगा। आशा है आप लोग धर्य से मेरी बातें सुनेंगे।

जी का लोभ

जिन दिनों माघ के महीने में मेरा स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया था, उन्हीं दिनों की बात है, कि एक दिन दो घड़ी रात रहे मेरी नींद अचानक टूट गयी। इस घड़ी रोग का पारा पूरी डिगरी पर था। सर घूमता था, दिल घबराता था और जान पड़ता था कि कोई कीड़ा उसमें बैठकर उसे बुरी तरह से नोच रहा है। हाथ-पाँव ऐंठ रहे थे, बेबस हुए जाते थे, और उनमें एक तरह की झनक पैदा हो गयी थी। जी बैठता जाता था, दम फूल रहा था, ऑंखें तलमला रही थीं, और उनसे पानी निकल रहा था। साँस कभी नाकों की राह खर्राटे के साथ निकलती, कभी धीरे चलती, कभी टूटती हुई जान पड़ती, और फिर ऐसा ज्ञात होता कि सारी देह में एक सन्नाटा-सा छा रहा है। थोड़ी ही देर में ऐसा जान पड़ा कि मैं अब अचेत हो जाऊँगा, और एक-ब-एक सारा बदन पसीने से तर हो गया। मैंने समझा अब देर नहीं है, जी बहुत घबराया, घबराहट ही में रजाई मैंने फेंक दी, चारपाई पर उठ बैठा, और फिर कमरे का किवाड़ खोल कर बाहर निकल आया।

बाहर बड़ी सर्दी थी। हवा धीरे-धीरे बह रही थी, पर बहुत ही ठण्डी थी, बरफ को मात करती थी। बाहर आते ही जी ठिकाने हो गया, धीरे-धीरे और शिकायतें भी कम हुईं। जब दौरे का बेग जाता रहा, और जी बहुत कुछ सम्हल गया उस समय मेरी दृष्टि नीले आकाश पर पड़ी। आकाश इस समय धुंधला था, और उसका विचित्र समाँ था। रंग-रंग के तारे उसमें छिटके हुए थे, और खूब चमक रहे थे। शुक्र भी बहुत कुछ ऊपर चढ़ आया था, और अपनी ऊदी रंगता में बड़ी आन बान से जगमगा रहा था। मैंने इन तारों को बड़ी वेदनामयी दृष्टि से देखा, मेरी ऑंखों ने मेरे जी का गहरा दुख इन ताराओं को जतलाया, मानो उन्होंने बहुत ही चुपचाप उनसे कहा कि क्या हमारे दुखड़े पर तुमको रोना नहीं आता। पर तारे तनिक भी न हिले, वे वैसे ही खिले रहे, वैसे ही हँसते रहे। और उनमें वैसी ही ज्योति फूटती रही। मानो उन्होंने कहा-नादान! क्या कभी तू किसी कीड़े मकोड़े के दुखड़े की कुछ परवाह करता है। जब नहीं करता, तो हमारी ओर यह वेदना भरी दृष्टि क्यों? तू तो हम लोगों के सामने एक कीड़े-मकोड़े से भी गया-बीता है।

अब मैंने दूसरी ओर दृष्टि डाली। सामने ही एक शिवालय का ऊँचा बुर्ज दिखलायी पड़ा। यह शुक्र की फीकी और हलकी ज्योति में कुछ-कुछ चमक रहा था, मानो भगवान की दया का हाथ ऊपर उठा हुआ मुझे ढाढ़स दे रहा था, कि घबराओ नहीं, सब अच्छा होगा।

ज्यों ज्यों रात बीतती थी, सर्दी तेज होती जाती थी। मैं सिर से पाँव तक कपड़े से लदा था, पर सर्दी फिर भी अपना काम कर रही थी, इसलिए मैं बाहर न ठहर सका और फिर कमरे में आकर चारपाई पर लेट गया। ऊपर से रजाई भी ओढ़ ली। पर नींद न आयी, आज न जाने कहाँ-कहाँ की बातें आकर जी में घूमने लगीं, बहुत सी पुरानी बातों की सुरत हुई। मैं ज्यों-ज्यों बीमारी की बातें सोचने लगा, त्यों-त्यों न जाने क्यों मुझे अपना जी बहुत प्यारा मालूम होने लगा। और मैं तरह-तरह की चिन्ताओं में डूब गया।

इस समय मुझे यह बिचार बार-बार होने लगा कि लोगों को अपना जी क्यों इतना प्यारा है ? मनुष्य ही नहीं, देखा जाता है कि चींटी से हाथी तक सभी इस रंग में रँगे हुए हैं। फूल संसार में हँसने के लिए ही आये हैं। पर आप उनको डाल से तोड़ कर अलग कीजिए। फिर देखिए वे कैसे कुम्हलाते हैं। पेड़ों से बढ़कर हरा भरा कौन होगा, पर उनकी जड़ पर टाँगा चलने दीजिए, फिर देखिए उनके एक-एक पत्ते पर कैसी एक उदासी न जाने कहाँ से आकर छा जाती है। आप कहेंगे फूल पत्ते भी इस असर से नहीं बचे हुए हैं ? मैं कहूँगा हाँ। फूल-पत्ते भी नहीं बचे हुए हैं। पहले इस विषय में कुछ शक भी हो सकता था, पर अब वर्तमान काल की जाँच पड़ताल ने इस विषय को बहुत स्पष्ट कर दिया है। जब चारपाये, चिड़ियाँ, पेड़-पत्ते, तक को अपना जी प्यारा है, तब मनुष्य की चर्चा ही क्या। पर सोचना तो यह है कि जी इतना प्यारा क्यों है?

संसार के दृश्य बड़े निराले हैं; उसकी वस्तुएँ ऐसी सुन्दर, ऐसी जी लुभाने वाली, और ऐसी अनूठी हैं, कि बड़े दुखों को झेलकर भी हम उनको नहीं भूलते। उनका चाव, उनसे मिलनेवाले सुख, हमको संसार के लिए बावला बनाए रहते हैं। काल के दिनों में एक भूख से तड़पता हुआ मानव यह कह सकता है कि मृत्यु आ जाती तो अच्छा। पर यदि सचमुच मृत्यु उसके सामने आकर खड़ी हो जावे, तो उसकी गति भी लकड़ीवाले की सी ही होगी। जैसे बोझ से घबरा कर लकड़ीवाले ने सिर के गट्ठे को गिराकर मृत्यु को याद किया था, और जब मृत्यु आयी, तब उसने कहा-मैंने किसी और काम के लिए तुझे नहीं बुलाया था, तू मेरे इस गिरे हुए गट्ठे को उठा दे, बस यही काम है। उसी तरह आशा है कि मृत्यु से वह भी यही कहेगा, कि मैंने तुझको इसीलिए बुलाया था, कि शायद तू मुझको कुछ खाने को दे दे। क्योंकि सच्ची बात यह है कि मृत्यु को वह खिजलाहट में पुकार उठता था, या इसलिए मृत्यु-मृत्यु चिल्लाता था कि जिससे लोग समझें कि उसका दुख कितना भारी है। और उसके ऊपर दया करें। नहीं तो मृत्यु मृत्यु चिल्लाने से क्या अर्थ, मृत्यु तो चुटकी बजाते आती है। एक सुई अपने कलेजे में गड़ा दो, देखो मृत्यु आ जाती है कि नहीं, या अपने गले में एक छुरी घुसेड़ दो, या अपने सिर को आग में डाल दो, देखो दम भर में काम तमाम हो जाता है या नहीं। पर सचमुच मृत्यु लाना कभी स्वीकार नहीं होता, भूखा मृत्यु को ऊपर ही से बुलाता था, जी से कभी नहीं। उसको ऐसी आपदा में भी आशा की झलक दिखलाती थी, वह जी में ही सोचता था, कि क्या हमारे घये दुख के दिन सदा रहेंगे, नहीं कभी नहीं, एक-न-एक दिन किसी दाता का हाथ उठेगा, हमारे दु:ख दूर होंगे, और हमारे लिए फिर वही दिन-रात और सुख की घड़ियाँ होंगी।

दु:ख के दिनों की यह दशा है। पर जहाँ चारों ओर सुख के ही डेरे हैं, वहाँ का क्या कहना। वहाँ तो सृष्टि हमारी ऑंखों में सोने की है। रत्नों जड़ी है। वहाँ तो यह सुनना भी अच्छा नहीं लगता, कि कभी हमें इसको छोड़कर उठ जाना पड़ेगा। फिर जी प्यारा क्यों न होगा। कहावत है कि-'जी से जहान है'। महमूद गजनवी ने लोगों का लहू चूस-चूस कर और कितने लोगों का रोऑं कलपा कर बहुत बड़ी सम्पदा इकट्ठी की थी। जब वह मरने लगा तो उसने आज्ञा दी कि उसकी कमाई हुई सारी सम्पत्ति उसके सामने लाई जावे। देखते-ही-देखते उसके सामने सोने, चाँदी और जवाहिरात के ढेर लग गये। वह देर तक उनको देखता रहा, और देख-देख कर रोया किया। वह क्यों इतना रोया, यह बतलाने की आवश्यकता नही कहना इतना है कि जिस जी के चले जाने के पीछे महमूद गज़नवी की ऑंखों में इतनी बड़ी सम्पत्ति भी किसी काम की न रही, उस जी से बढ़कर कौन रत्न होगा। और उसको कौन प्यार न करेगा।

आपको अपनी घरवाली का चाँद सा मुखड़ा दम भर नहीं भूलता, आपको उसकी रसीली बड़ी-बड़ी ऑंखें जो सपने में याद आती हैं, तो भी आप चौंक पड़ते हैं। जब कभी वह आकर पास बैठ जाती है, और प्यार से गले में हाथों को डालकर मीठी-मीठी बातें करने लगती है, तो आप पर रस की वर्षा होने लगती है। कुछ घड़ियों के लिए भी आप उससे अलग होते हैं तो आपका जी मलता है, जो कहीं परदेश जाने की नौबत आती है, तो ऊपर पहाड़ टूट पड़ता है। उसके बिना आपको चैन नहीं आता, जीना नीरस जान पड़ता है। वह आप के गले की माला है, ऑंखों की पुतली है, जीवन का सहारा है। औरत सब सुखों की कुंजी है। पर मुझे यह बतलाइये कि जो कोई बात ऐसी आन पड़े कि जिससे आप यह समझें कि अब सदा के लिए हमारा और इसका साथ छूटता है, तो उस घड़ी आपकी क्या गति होगी? आप पर कैसी बीतेगी। निस्सन्देह आपका यह दु:ख बहुत बड़ा होगा, और अब आप समझ गये होंगे कि 'जी' का लोभ इतना क्यों है?

आप अपने बच्चों को बहुत प्यार करते हैं, सचमुच बच्चे हैं भी प्यार की वस्तु, उनकी भोली भाली सूरत पर कौन निछावर नहीं होता, उनकी तोतली और प्यारी बातें किसको नहीं भातीं। वे कलेजे के टुकड़े हैं, हाथ के खिलौने हैं, प्यार की जीती जागती तसवीर हैं, और आनन्द के लबालब भरे प्याले हैं। फिर कौन उन्हें दिल खोल कर न चाहेगा। आप जो उनको ऑंखों के ओझल करना भी पसन्द नहीं करते, तो कौन कहेगा कि यह ठीक नहीं, वे ऐसे ही धन हैं, कि सदा उनको ऑंखों के सामने ही रखा जावे पर बतलाइये जो आपकी ऑंखें इस तरह बन्द हों कि कभी उनके भोले-भाले चेहरों को देखने के लिए भी न खुल सकें, तो आपका कलेजा कसकेगा या नहीं। फिर आप सोच लें कि 'जी' इतना क्यों प्यारा है।

जब कोई इतना रुग्ण हो जाता है कि उसे अपने बचने की आशा नहीं रहती, तब वह प्राय: अपनी ऑंखों में ऑंसू भर लाता है, कभी अपने मिलने वालों से ऐसी दु:ख भरी बातें कहता है कि जिसको सुनकर कलेजे पर चोट सी लगती है, कभी ठण्डी साँसें भरता है, कभी घबराता है। पर क्यों? इसीलिए कि वह समझता है कि अब उससे संसार का बैचित्रय से भरा हुआ बाजार छूटता है। उसको उसका बढ़ा हुआ परिवार, उसके मेली-मिलापी, उसकी जमीन-जायदाद, धन-दौलत, नौकर-चाकर, उसके बाग-बगीचे, कोठे-अटारी, मन्दिर-मकान ही नहीं रुलाते, उनकी याद ही नहीं सताती, उनसे मिलने वाले सुखों का ध्यान ही नहीं दु:ख देता, कितने ही पर्व-त्यौहारों की बहार, कितने मेले-ठेलों का समाँ, कितने हाट-बाजार की धुम, कितनी सभा-सोसाइटियों का रंग, मौसिमों का निरालापन, खेल तमाशों का जमाव, भी एक-एक करके उसकी ऑंखों के सामने आते हैं, और उसको बेचैन बनाए बिना नहीं छोड़ते। यदि सृष्टि इतनी रंगीली न होती, तो शायद जी का इतना प्यार भी न होता।

सावन का महीना था। बादल झूम-झूम कर आते थे, कभी बरसते थे, कभी निकल जाते थे। काली-काली घटाओें की बहार थी, फुहारें पड़ रही थीं। कभी कोयल बोलती, कभी पपीहा पुकारता। हवा के ठण्डे-ठण्डे झोंके आते थे, पर बड़े मजे से आते थे, उनसे हरी-भरी डालियाँ हिलती थीं, और मोती बरस जाता था। धोये-धोये पत्तों पर समाँ था, फूलों की भीनी-भीनी महँक फैल रही थी। इसी बीच दूर से आयी हुई नफीरी की एक बहुत ही सुरीली ध्वनि ने एक रोगी को तड़पा दिया। मैं उनके पास बैठा था, वे दो एक दिन के ही मेहमान थे। पर ज्यों-ज्यों नफीरी की आवाज पास आती जाती थी, त्यों-त्यों वे बेचैन हो रहे थे। हम लोग इस समय जहाँ बैठे थे; वह एक वाटिका थी, जो ठीक सड़क के ऊपर थी। नफीरी के साथ-साथ कुछ देर में कुछ सुरीले गलों के स्वर भी सुन पड़े, थोड़ी ही देर में बड़ी मस्तानी आवाज से कजली गाती हुई गँवनहारिनों का एक झुण्ड नफीरी वालों के साथ ठीक वाटिका के सामने से होकर निकल गया। कुछ देर अजब समाँ रहा। अबकी बार बीमार की ऑंखों में ऑंसू भर आया। वे बोले-पण्डित जी, यह सावन के दिन अब कहाँ नसीब होंगे। हाय! अब मैं इनको सदा के लिए छोड़ता हूँ। मैंने कहा-एक दिन सभी को छोड़ना पड़ता है। उन्होंने कहा-हाँ, यह मैं मानता हूँ-पर क्या मैं थोड़े दिन और नहीं जी सकता हँ। दो चार सावन तो और देखने को मिलते। मैंने कहा-आगे चलकर फिर आप यही कहेंगे। उन्होंने कहा, ठीक है, पर क्या इस सावन में हमीं मरने को थे। मैं चुप रहा, फिर बोला-आप घबराइये नहीं, अभी आप बहुत दिन जियेंगे। अब आप लोग देखें जी का लोभ! यहाँ का एक-एक दृश्य ऐसा है, जो हम लोगों को सानन्द संसार को नहीं छोड़ने देता।

एक पण्डित जी कहा करते कि सृष्टि यदि बिल्कुल अंधियाली होती, और उसमें एक भी सुख का सामान न होता, तो कोई भी अपने 'जी' को प्यार न करता। पर जब उनसे कहा गया कि अंधियाले में रहने वाले उल्लू और तरह-तरह के दु:खों में फँसे मनुष्यों को क्या अपना जी प्यारा नहीं होता? तो वे कुछ देर चुप रहे, फिर बोले, हाँ भाई; संसार नाम में ही कुछ जादू है। शायद जब तक यह नाम भी रहेगा, तब तक किसी को भी इन पचड़ों से छुटकारा न मिलेगा।

मैं चिन्ता में डूबा हुआ इसी तरह की बातें सोच रहा था, कि सुबह का दृश्य सामने आया। अंधेरा दूर हुआ, आकाश में लाली छाई और चिड़ियाँ चहकने लगीं। इसलिए मेरा जी इधर फँस गया, और कुछ घड़ी के लिए मुझको अपना सारा दु:ख भूल जाना पड़ा।

घबराहट

जब किसी बीमार के जी में यह बात बैठ जाती है कि अब बचना कठिन है, तो उसमें घबराहट का पैदा हो जाना कुछ आश्चर्य नहीं। अपने दुख को देखकर मैं भी बहुत घबराया, सोचने लगा, मृत्यु भी कैसी बुरी बला है, कि कोई प्रयत्न काम ही नहीं देता। कोई कभी गुम हो जाता है, तो आशा नहीं टूटती, भरोसा रहता है कि कभी तो मिलेगा। लोग उसकी हुलिया जारी कराते हैं, उसके लिए समाचार पत्रों में नोटिस देते हैं। जहाँ कहीं उसके होने की आशा होती है, वहाँ लोगों को दौड़ाते हैं, इसी प्रकार के और भी कितने उपाय करते हैं। इन्हीं उपायों में से किसी-न-किसी एक उपाय से वह प्राय: मिल भी जाता है। जब कोई परदेश चला जाता है और बरसों घर की सुधि नहीं लेता, तब भी घरवाले उससे निराश नहीं होते, उसके पास चीट्ठियाँ भेजते हैं, घर का दु:ख-सुख उसको सुनाते हैं, या घर वालों में से कोई आप उसके पास चला जाता है, और किसी-न-किसी तरह उसको लिवा लाता है-जो वह नहीं आता तो भी धर्य रहता है कि कभी तो वह समझेगा, और घर की सुधि लेगा। इसी तरह की और भी दशाएँ हैं कि जिनमें मनुष्य घरवालों से अलग हो जाता है-जैसे आठ-दस बरस के लिए कारागार बद्ध हो गया, या काले पानी भेज दिया गया, या कहीं बणिज व्यापार करने चला गया पर फिर भी उसकी आशा होती है, और लोग बिल्कुल उससे हाथ धो नहीं लेते। किन्तु मौत ऐसा गुम होना है, कि फिर पता नहीं लगता, ऐसा परदेश है कि वहाँ जाकर कोई नहीं लौटता, ऐसी कैद है कि जिससे कोई नहीं छूटता, ऐसा काला पानी है कि जहाँ से छुटकारा नहीं होता, और ऐसी ठौर है कि जहाँ जाकर फिर कोई नहीं पलटता। न वहाँ कोई चीठी जाती, न कोई नोटिस पहुँचती है, न कोई हुलिया जारी होता है, और न कोई दूसरा उपाय काम आता है। फिर सोचने की बात है कि यदि मृत्यु से घबराहट न होगी तो किससेहोगी।

एक ग्रन्थ में लिखा है कि सिकन्दर लगभग सारे संसार में घूम आया, उसका बहुत बड़ा भाग उसने अपने हाथों में कर लिया, उसके पास बड़े-बड़े पढ़े-लिखे पण्डित थे, सब तरह के कारीगार और शिल्पी थे, अच्छे-से-अच्छे गुणी और वैद्य थे, हवा से बातें करने वाले घोड़े थे। एक-से-एक अनूठी सवारियाँ थीं, सब तरह के निराले हथियार थे, धन-दौलत से भण्डार भरा था, जवाहिरात कंकरों की तरह लुढ़कते थे। फिर भी मृत्यु आयी, और सिकन्दर को एक साधारण प्राणी की भाँति मरना पड़ा। देखना चाहिए मृत्यु कैसी प्रबला है, फिर उसको देखकर हम जैसों का कलेजा दहले, और हम लोग घबराहट में पड़ें तो क्या आश्चर्य है।

आग लगती है तो उसे पानी से बुझा देते हैं, ऑंधी चलती है तो घर मैं बैठकर जी बचा लेते हैं, लू लपट से बचने के लिए खस की टट्टियाँ लगाते हैं, पानी को छत्तो से रोकते हैं, रोगों में दवा खाते हैं, बहुत सी आपदाओं में सम्पदा काम देती है, अंधियाले में ज्योति जगमगाती है, पर किसी ने न बतलाया कि मृत्यु से बचने के लिए क्या करना चाहिए। संसार में हर तरह की विपत्ति से बचने का कुछ-न-कुछ उपाय है, तो मृत्यु से बचने का नहीं है, फिर बेचारा मनुष्य घबराए न तो क्या करे।

घबराहट का यह ढंग है कि इसके सामने बड़े-बड़े चतुरों की ऑंख पर भी परदा पड़ जाता है, बड़े-बड़े बुध्दिमान भी उल्लू बन जाते हैं। जिस काम को हम जानते हैं कि इसके करने से कुछ नहीं होगा, जो बात हमारे किसी काम की नहीं, घबराहट में हम उसको भी कर बैठते हैं। जब कोई डूबने लगता है तो सामने बहते हुए तिनके को दौड़कर पकड़ता है, पर क्या उसके सहारे से वह बच सकता है। थाली खो जाने पर लोग घड़े में हाथ डालते हैं, पर क्या सचमुच घड़े में थाली मिल सकती है। जब हम रुग्णता की आपत्ति में पड़ते हैं, या हमारा रोग प्रबल हो जाता है, तब भी हमारी यही अवस्था होती है कि हमसे जो लोग कहते हैं, हम वही करने को उतारू होते हैं, चाहे उनमें सभी बातें हमारे काम की हों चाहे न हों।

मेरे एक मित्र थे, उनकी प्रकृति थी कि जब वे किसी को बाँहों पर बहुत यन्त्र बाँधे हुए देखते, या किसी को झाड़ फूँक कराते हुए पाते, या किसी सीधे-सादे मनुष्य को किसी साधु संत की दी हुई राख सिर पर या ऑंखों में मलते हुए देख लेते, तो बहुत हँसते, मुँह बनाते और जो अवसर पाते तो उसे बहुत तंग भी करते। एक दिन एक मनुष्य दु:ख से घबरा कर एक मन्दिर में लोट रहा था, फूट-फूट कर रो रहा था, देवता के सामने गिड़गिड़ा रहा था, नाक रगड़ रहा था, कि वे उसके अपराधों को क्षमा करें। और उसके कष्टों को दूर कर दें। वहीं आप भी पहुँच गये। आपको उसकी नासमझी पर बड़ा दु:ख हुआ, बोले, देखिए न, यह बालू में से तेल निकालना चाहता है। एक दिन मैं उनके घर पर गया, इस समय सिर दर्द से आप बहुत बेचैन थे। एक मनुष्य आपका सिर पकड़े बैठा था, और कुछ छू छा कर रहा था। मैंने कहा-मर्द! यह क्या? उन्होंने कहा-कुछ नहीं। इन्होंने अपनी उँगलियों से मेरे सिर को जोर से पकड़ रखा है। इससे मुझको बड़ी तसकीन हो रही है। और इसीलिए मैंने ऐसा करना गवारा किया है। आप तो जानते ही हैं कि मैं इन बातों को पसन्द नहीं करता। मैंने कहा, इसी तरह आप को दूसरों की तसकीन का भी ख्याल रखना चाहिए। मेरी बात को सुनकर वे कुछ रूखे हुए। पर बोले नहीं। सच्ची बात यह है कि-घबराहट में तसकीन की ही खोज रहती है। चाहे वह किसी तरह मिले। जिन बातों को हम जी से घृणित समझते हैं, घबराहट में तसकीन के लिए हम उनको भी करने से नहीं हिचकते। क्योंकि उस घड़ी समझ ठीक-ठीक काम नहीं करती।

ऐसे लोग भी हैं, जो बड़ी-बड़ी विपत्तियों में भी नहीं घबराते। उनका धर्य उनके सारे संकटों को हल कर देता है। पर ऐसे धर्य धारण करने वाले कितने हैं? आप पोस्ते के खेत को देखिए, जहाँ तक आप की दृष्टि जावेगी, आप श्वेत फूल ही देखेंगे, इन्हीं फूलों में कभी-कभी लाल फूल भी दिखलाई पड़ता है। पर दो-चार भी नहीं, एक ही। इसी प्रकार गहरी विपत्ति में भी जिनका धर्य काम करता है वे इस संसार में थोड़े हैं। मैं उन धर्य धारण करने वालों में नहीं हूँ। मैं भी घबराने वालों में से हूँ। इसलिए संकटों में जैसी दशा ऐसे लोगों की होती है, मेरी भी हुई। जब तक रोग का बेग साधारण होता था, मेरी घबराहट भी साधारण थी। पर रात के बेग ने मुझे बहुत चौंका दिया। मैं सोचने लगा कि क्या रोग के हाथ से छुटकारा पाने का कोई उपाय भी है? और आज दिन भर यही सोचता रहा।

मिलने वालों की भी कमी नहीं थी। जब से प्रकृति प्राय: गड़बड़ रहने लगी, तभी से नित्य ही कुछ लोग मिलने के लिए आया करते थे। आज मैं कचहरी नहीं गया, इससे और अधिक लोग आये। इनमें सब तरह के लोग थे। कुछ लोगों से कचहरी का हरिऔध था, वे इसलिए आये कि सहानुभूति दिखलाने के ऐसे ही अवसर होते हैं, उन्होंने समझा कि इन अवसरों पर आया गया भूलता नहीं, हमारे दस पन्द्रह मिनट लगेंगे, पर किसी अवसर पर हमारा यह दस पन्द्रह मिनट काम आ जायेगा, कोई-न-कोई काम अवश्य निकलेगा। कुछ लोग संगी साथी थे, वे हमारे दु:ख से दुखी थे, वे प्रतिदिन जानना चाहते थे कि हमारा क्या हाल है। बिना हमें देखे उनको चैन नहीं पड़ता था। इसलिए वे आये। और हमें देखकर अपना बोध कर गये। कुछ लोग बड़े-बूढ़े थे, सब पर दया करना ही उनका काम है, वे दया करके आये, और जिन बातों को हमारे हित का समझा, बतला गये। कितने लोगों से राह चलते ऑंखें बराबर हो गयीं, वे जानते थे आजकल इनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। पहले की जान-पहचान थी, शील ने न माना, इसलिए वे लोग भी आये, कुछ देर बैठे, कुछ पूछा-पाछा? फिर चले गये। कितने लोग कुछ लालच से आये, कुछ लोग इधर-उधर चक्कर लगाते-लगाते हमारे यहाँ भी पहुँच गये। कोई-कोई यह सोच कर आये कि चलो देखें इसकी रस्सी कितनी दराज है। यह कई बार अब तब हुआ, पर सम्हल गया, क्या अबकी बार भी तो न सम्हल जाएगा। पर ये लोग थे विचित्र, इनकी सहानुभूति की बातें बड़ी प्यारीथीं।

ऐसे अवसर पर जितने लोग आते हैं, कुछ-न-कुछ ऐसी बातें अवश्य कहते हैं कि जिससे रोगी को शान्ति मिले। ऐसा करने के दो कारण हैं। एक तो इससे रोगी के साथ सहानुभूति दिखलाई जा सकती है, दूसरी इसमें छिपी हुई बात यह है कि कहने वाले ऐसे अवसर पर ही अपने को बहुत सी बातों का जानकार और अवसर का समझने वाला सिद्ध कर सकते हैं। निदान हमारे यहाँ भी जितने लोग आये, सभी ने कुछ-न-कुछ बतलाया। जिसका जिस उपाय से भला हुआ था, जो क्रिया जिसको अनुकूल हुई थी, उसने वही हमको बतलाई। किसी ने झाड़फूँक कराने की सलाह दी, किसी ने पूजापाठ कराने के लिए कहा, किसी ने दान-पुण्य की बड़ाई की, किसी ने तन्त्र-मन्त्र को सराहा। बहुतों ने तरह तरह की औषधों बतलाईं, कुछ लोगों ने कई एक हकीम और वैद्य का नाम बतलाया, दो साहबों ने दो डॉक्टरों की बड़ी प्रशंसा की। एक सज्जन ने एक जड़ी दी; और उसकी बड़ी लम्बी चौड़ी प्रशंसा कर कहा, कि बस इसको बाँधने की देर है, आपने इसे अपनी बाँह पर बाँध नहीं, कि आप अच्छे हुए नहीं। मैं पहले से इन बातों को बिचारता आया हूँ-आज भी विचारता रहा कि आप लोगों को भी अपना विचार सुनाऊँगा।

दु:ख के दिनों की यह दशा है। पर जहाँ चारों ओर सुख के ही डेरे हैं, वहाँ का क्या कहना। वहाँ तो सृष्टि हमारी ऑंखों में सोने की है। रत्नों जड़ी है। वहाँ तो यह सुनना भी अच्छा नहीं लगता, कि कभी हमें इसको छोड़कर उठ जाना पड़ेगा। फिर जी प्यारा क्यों न होगा। कहावत है कि-'जी से जहान है'। महमूद गजनवी ने लोगों का लहू चूस-चूस कर और कितने लोगों का रोऑं कलपा कर बहुत बड़ी सम्पदा इकट्ठी की थी। जब वह मरने लगा तो उसने आज्ञा दी कि उसकी कमाई हुई सारी सम्पत्ति उसके सामने लाई जावे। देखते-ही-देखते उसके सामने सोने, चाँदी और जवाहिरात के ढेर लग गये। वह देर तक उनको देखता रहा, और देख-देख कर रोया किया। वह क्यों इतना रोया, यह बतलाने की आवश्यकता नही कहना इतना है कि जिस जी के चले जाने के पीछे महमूद गज़नवी की ऑंखों में इतनी बड़ी सम्पत्ति भी किसी काम की न रही, उस जी से बढ़कर कौन रत्न होगा। और उसको कौन प्यार न करेगा।

आपको अपनी घरवाली का चाँद सा मुखड़ा दम भर नहीं भूलता, आपको उसकी रसीली बड़ी-बड़ी ऑंखें जो सपने में याद आती हैं, तो भी आप चौंक पड़ते हैं। जब कभी वह आकर पास बैठ जाती है, और प्यार से गले में हाथों को डालकर मीठी-मीठी बातें करने लगती है, तो आप पर रस की वर्षा होने लगती है। कुछ घड़ियों के लिए भी आप उससे अलग होते हैं तो आपका जी मलता है, जो कहीं परदेश जाने की नौबत आती है, तो ऊपर पहाड़ टूट पड़ता है। उसके बिना आपको चैन नहीं आता, जीना नीरस जान पड़ता है। वह आप के गले की माला है, ऑंखों की पुतली है, जीवन का सहारा है। औरत सब सुखों की कुंजी है। पर मुझे यह बतलाइये कि जो कोई बात ऐसी आन पड़े कि जिससे आप यह समझें कि अब सदा के लिए हमारा और इसका साथ छूटता है, तो उस घड़ी आपकी क्या गति होगी? आप पर कैसी बीतेगी। निस्सन्देह आपका यह दु:ख बहुत बड़ा होगा, और अब आप समझ गये होंगे कि 'जी' का लोभ इतना क्यों है?

आप अपने बच्चों को बहुत प्यार करते हैं, सचमुच बच्चे हैं भी प्यार की वस्तु, उनकी भोली भाली सूरत पर कौन निछावर नहीं होता, उनकी तोतली और प्यारी बातें किसको नहीं भातीं। वे कलेजे के टुकड़े हैं, हाथ के खिलौने हैं, प्यार की जीती जागती तसवीर हैं, और आनन्द के लबालब भरे प्याले हैं। फिर कौन उन्हें दिल खोल कर न चाहेगा। आप जो उनको ऑंखों के ओझल करना भी पसन्द नहीं करते, तो कौन कहेगा कि यह ठीक नहीं, वे ऐसे ही धन हैं, कि सदा उनको ऑंखों के सामने ही रखा जावे पर बतलाइये जो आपकी ऑंखें इस तरह बन्द हों कि कभी उनके भोले-भाले चेहरों को देखने के लिए भी न खुल सकें, तो आपका कलेजा कसकेगा या नहीं। फिर आप सोच लें कि 'जी' इतना क्यों प्यारा है।

जब कोई इतना रुग्ण हो जाता है कि उसे अपने बचने की आशा नहीं रहती, तब वह प्राय: अपनी ऑंखों में ऑंसू भर लाता है, कभी अपने मिलने वालों से ऐसी दु:ख भरी बातें कहता है कि जिसको सुनकर कलेजे पर चोट सी लगती है, कभी ठण्डी साँसें भरता है, कभी घबराता है। पर क्यों? इसीलिए कि वह समझता है कि अब उससे संसार का बैचित्रय से भरा हुआ बाजार छूटता है। उसको उसका बढ़ा हुआ परिवार, उसके मेली-मिलापी, उसकी जमीन-जायदाद, धन-दौलत, नौकर-चाकर, उसके बाग-बगीचे, कोठे-अटारी, मन्दिर-मकान ही नहीं रुलाते, उनकी याद ही नहीं सताती, उनसे मिलने वाले सुखों का ध्यान ही नहीं दु:ख देता, कितने ही पर्व-त्यौहारों की बहार, कितने मेले-ठेलों का समाँ, कितने हाट-बाजार की धुम, कितनी सभा-सोसाइटियों का रंग, मौसिमों का निरालापन, खेल तमाशों का जमाव, भी एक-एक करके उसकी ऑंखों के सामने आते हैं, और उसको बेचैन बनाए बिना नहीं छोड़ते। यदि सृष्टि इतनी रंगीली न होती, तो शायद जी का इतना प्यार भी न होता।

सावन का महीना था। बादल झूम-झूम कर आते थे, कभी बरसते थे, कभी निकल जाते थे। काली-काली घटाओें की बहार थी, फुहारें पड़ रही थीं। कभी कोयल बोलती, कभी पपीहा पुकारता। हवा के ठण्डे-ठण्डे झोंके आते थे, पर बड़े मजे से आते थे, उनसे हरी-भरी डालियाँ हिलती थीं, और मोती बरस जाता था। धोये-धोये पत्तों पर समाँ था, फूलों की भीनी-भीनी महँक फैल रही थी। इसी बीच दूर से आयी हुई नफीरी की एक बहुत ही सुरीली ध्वनि ने एक रोगी को तड़पा दिया। मैं उनके पास बैठा था, वे दो एक दिन के ही मेहमान थे। पर ज्यों-ज्यों नफीरी की आवाज पास आती जाती थी, त्यों-त्यों वे बेचैन हो रहे थे। हम लोग इस समय जहाँ बैठे थे; वह एक वाटिका थी, जो ठीक सड़क के ऊपर थी। नफीरी के साथ-साथ कुछ देर में कुछ सुरीले गलों के स्वर भी सुन पड़े, थोड़ी ही देर में बड़ी मस्तानी आवाज से कजली गाती हुई गँवनहारिनों का एक झुण्ड नफीरी वालों के साथ ठीक वाटिका के सामने से होकर निकल गया। कुछ देर अजब समाँ रहा। अबकी बार बीमार की ऑंखों में ऑंसू भर आया। वे बोले-पण्डित जी, यह सावन के दिन अब कहाँ नसीब होंगे। हाय! अब मैं इनको सदा के लिए छोड़ता हूँ। मैंने कहा-एक दिन सभी को छोड़ना पड़ता है। उन्होंने कहा-हाँ, यह मैं मानता हूँ-पर क्या मैं थोड़े दिन और नहीं जी सकता हँ। दो चार सावन तो और देखने को मिलते। मैंने कहा-आगे चलकर फिर आप यही कहेंगे। उन्होंने कहा, ठीक है, पर क्या इस सावन में हमीं मरने को थे। मैं चुप रहा, फिर बोला-आप घबराइये नहीं, अभी आप बहुत दिन जियेंगे। अब आप लोग देखें जी का लोभ! यहाँ का एक-एक दृश्य ऐसा है, जो हम लोगों को सानन्द संसार को नहीं छोड़ने देता।

एक पण्डित जी कहा करते कि सृष्टि यदि बिल्कुल अंधियाली होती, और उसमें एक भी सुख का सामान न होता, तो कोई भी अपने 'जी' को प्यार न करता। पर जब उनसे कहा गया कि अंधियाले में रहने वाले उल्लू और तरह-तरह के दु:खों में फँसे मनुष्यों को क्या अपना जी प्यारा नहीं होता? तो वे कुछ देर चुप रहे, फिर बोले, हाँ भाई; संसार नाम में ही कुछ जादू है। शायद जब तक यह नाम भी रहेगा, तब तक किसी को भी इन पचड़ों से छुटकारा न मिलेगा।

मैं चिन्ता में डूबा हुआ इसी तरह की बातें सोच रहा था, कि सुबह का दृश्य सामने आया। अंधेरा दूर हुआ, आकाश में लाली छाई और चिड़ियाँ चहकने लगीं। इसलिए मेरा जी इधर फँस गया, और कुछ घड़ी के लिए मुझको अपना सारा दु:ख भूल जाना पड़ा।

झाड़फूँक

आजकल एक विचार फैला हुआ है-जो बात चटपट समझ में न आ जावे, या दलीलों से जो पूरी तौर पर साबित न की जा सके, या जिसका प्रभाव ठीक-ठीक हम न जान सकें, वह बात मानने योग्य नहीं होती है। ऐसी बात को इस प्रकार के विचार वाले बिल्कुल ढकोसला समझते हैं। और जो लोग इस प्रकार की बातें मानते हैं, उन पर बुरी तरह से आक्रमण करते हैं, और जली कटी सुनाने में भी नहीं चूकते। आजकल की ऐसी बातों में झाड़फूँक भी है। एक मनुष्य ने कुछ पढ़कर किसी को फूँक दिया। या हाथों से या और किसी वस्तु से उसको झाड़ दिया, और इससे उसका भला हो गया, या कोई रोग दूर हो गया, यह बात उनके जी में नहीं जमती, इसलिए ऐसी बातों में वह पड़ना नहीं चाहते। पड़ना ही नहीं चाहते, वरन् उनकी जड़ तक को खोद कर फेंक देना चाहते हैं। उनका विचार है कि भ्रम का परदा जितना ही लोगों की ऑंखों के सामने से दूर किया जावे, उतना ही अच्छा। जो कहीं कुछ ऐसा प्रभाव दिखलाई पड़ता है, कि जिसको हम आप झाड़फूँक का प्रभाव कह सकें। तो उसको ऐसे लोग संयोग बतलाते हैं, जो सदा नहीं हुआ करता।

मेरा विचार है कि इस प्रकार की जितनी चालें हम लोगों में चली हुई हैं, उनका सिद्धान्त बुरा नहीं है, हाँ, यह हो सकता है कि पीछे उसमें बहुत-सी बुराइयाँ आकर मिल गयी हों। झाड़फूँक कब चला, किसने चलाया, यह बतलाना कठिन है, पर यह अवश्य कहा जा सकता है, कि जभी चली हो पर यह प्रणाली बहुत समझ-बूझकर चलाई गयी है। सबका हित और भला करना ही इसका उद्देश्य है। बहुत दिनों तक इसका ऐसे हाथों में रहना पाया जाता है कि, जिनसे समाज का बहुत कुछ भला हुआ, नहीं तो इसकी जड़ कभी उखड़ गयी होती। अब जो कुछ उसका बचा खुचा भाग हम लोगों के सामने है, वह न तो अच्छे हाथों में है, और न पहले की तरह पूरा और ठीक है, और इसीलिए अब उसका उतना आदर भी नहीं है। थोड़े दिनों से फिर कुछ अच्छे चिन्ह दिखलाई पड़ने लगे हैं, पर वे कहाँ तक ठीक उतरेंगे, अभी यह बतलाना कठिन है।

थोड़े दिन हुए समाचार पत्रों में प्राय: यह समाचार पढ़ने को मिला, कि अमेरिका से एक साहब आये हुए हैं जो हाथ से छूकर या झाड़कर बहुत से रोगों को दूर कर सकते हैं। उनके इस क्रिया की जाँच लाहौर में भी कराई गयी। वहाँ उन्होंने कई एक रोगियों को हाथों से छू कर और झाड़कर आराम किया। किसी डिप्टी कमिश्नर ने भी उनको अपना रोग दूर करने के लिए लाहौर से बुलाया था। पर फिर इसके बाद क्या हुआ और वह कहाँ गये, इसका कुछ पता न चला। यहाँ इस बात के लिखने का प्रयोजन यह है कि जो विज्ञान के ज्ञाता हैं, जिनकी ऑंखों पर भ्रम का परदा पड़ा हुआ नहीं माना जा सकता, उनमें भी ऐसी बातें अब मानी जाने लगी हैं, और वह लोग बहुत अच्छे ढंग से अब इस कार्य को करने लग गये हैं।

श्रीमद्भागवत में लिखा है कि जब संकट के गिरने पर दुधमुँहें बच्चे श्रीकृष्ण बालबाल बच गये, तो इस तरह के बखेड़ों की शान्ति के लिए बहुत से ब्राह्मण बुलाए गये। उन लोगों ने आकर लड़के को झाड़ा फूँका और शान्ति के लिए कई एक धार्मिक क्रियाएँ कीं। श्रीशुकदेवजी ने इस अवसर पर जो कथन किया है, उसका मर्म यह है कि-जो झूठ नहीं बोलते, किसी से डाह नहीं रखते, कोई जीव नहीं मारते, जिनसे घमण्ड और बुराई नहीं होती, ऐसे सच्चे लोगों की दी हुई असीस कभी बिना पूरे हुए नहीं रहती-

येऽसूयानृतदंभेर्ष्या हिंसा मान विवर्जिता : ।

न तेषां सत्यशीलानामाशिषो विफला : कृत : ।

- भागवत

शुकदेवजी का वचन यह बतलाता है कि झाड़फूँक करने के लिए कैसे पवित्र पुरुष चाहिए। आजकल झाड़फूँक करना एक व्यापार हो गया है। और यह काम अधिकतर ऐसे लोगों के हाथ में चला गया है, जो प्राय: धूर्त होते हैं, और यह जानते तक नहीं कि इसका सिद्धान्त क्या है। यदि कुछ बुराई है तो यही, नहीं तो जितनी कड़ी ऑंखों से यह देखा जाने लगा है, कभी भी यह उतनी कड़ी ऑंखों से देखे जाने योग्य नहीं है।

कितने कीड़े ऐसे हैं कि यदि वे बदन से छू जावें, तो छाले पड़ जाते हैं, कितनों के छू जाने से बेतरह खुजली होने लगती है, आग के छू जाने से लोग जल जाते हैं, पानी छू जाने पर ठण्डे होते हैं। बिजली की बैटरी छू गयी नहीं कि हम बेहोश हुए नहीं। यदि कोई युवती जरा ऑंख बदल कर हमारा हाथ पकड़ लेती है तो हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कलेजा धड़कने लगता है। हम इन सब बातों को मानते हैं, पर ऐसा सत्य पुरुष जिसकी पहचान श्रीशुकदेवजी ने बतलाई है, अपने जी में हमारी भलाई चाहते हुए, हमारा रोग दूर करने की चाह से, यदि हमारे ऊपर हाथ फेरेगा, तो हमारा अवश्य भला होगा; न जाने हम इसे क्यों नहीं मानते। जब बड़े लोग (जिनके शरीर की बिजली भी विशेष शक्तिमान होती है) अपने बढ़े हुए भीतरी बल को काम में लाते हुए, किसी पर हाथ फेरते हैं, तो उनके शरीर की बिजली तो काम करती ही है, उनका बढ़ा हुआ भीतरी बल भी उससे अधिक काम देता है, फिर किसी का भला क्यों न होगा? और रोगी कैसे अच्छा न होगा? बड़े लोगों की बातें तो दरकिनार, यह सब लोग जानते हैं कि एक स्वस्थ और अच्छे चाल-चलन वाले मनुष्य के शरीर की बिजली अथवा विशेष शक्ति रोगी प्राणी पर वैसा ही प्रभाव डालती है, जैसे शरद ऋतु की कड़ी धूप में सताए हुए पौधों पर चाँदनी। परन्तु यदि हम इस अनुभूत बात को भी न मानें तो इस विषय में क्या कहा जाए।

लड़कों को एक रोग होता है, जिसमें उनका दम फूलता है, और कलेजा बेतरह उछलता है, इसे हलफा कहते हैं, यह बड़ी बुरी बीमारी है, लड़के इसके पंजे में पड़कर बहुत जल्द मर जाते हैं। इस बीमारी में मोर का पंख जलाकर शहद में चटाया जाता है और बहुत लाभ करता है। आप लोगां ने देखा होगा कि भीख माँगने वाले योगी अपने साथ एक मुरछली भी रखते हैं, स्त्रियों इस मुरछल से प्राय: लड़कों को जोगियों से झड़वाया करती हैं, ये सब जोगी नाम के ही जोगी होते हैं, गुण इनमें कुछ नहीं होता, जब ये लड़कों को झाड़ देते हैं, तो बातें भी ऊट-पटांग बकते हैं, इससे यह तो कभी नहीं माना जा सकता, कि उनमें लड़कों के भला करने का कोई विशेष बल है। पर लड़कों की देह से बार-बार जो मुरछल छुलाई जाती है, वह अपना प्रभाव अवश्य रखती है, ऊपर जो रोग कहा गया है, उसके कीड़ों को इन मोर के पंखों के छुलाने से बड़ा धक्का लगता है, और वे बहुत कुछ दबे रहते हैं। यह एक ऐसी बात है जिसको सभी जानते हैं, और ऐसी दशा, में यह नहीं कहा जा सकता कि झाड़ने से कुछ होता ही नहीं।

झाड़ने के इतना ही फूँकने में भी गुण है, यह नहीं कहा जा सकता। पर फूँक भी कुछ-न-कुछ गुण अवश्य रखती है। हमारी ऑंखों में जब किरकिरी पड़ जाती है, या कोई छोटा तिनका घुस जाता है, तो उस समय ऑंखों में फूँक का दिलाना बहुत काम करता है। जब ऑंखें कुछ पड़ जाने से या योंही गड़ने या दुखने लगती हैं, तो किसी कपड़े से छोटे मुट्ठे पर फूँक मार कर यदि उस मुट्ठे को कुछ देर तक हम ऑंखों पर फेरते रहते हैं, तो ऑंख का गड़ना और दुखना दोनों बन्द हो जाता है। आप लजालू पौधे की पत्तियों पर फूँक मारिए तो यह देखने में आवेगा, कि उसकी पत्तियाँ सिकुड़ रही हैं, और उसकी डालियाँ झुकती जाती हैं। इन बातों पर से यह कहा जा सकता है, कि फूँक भी अपना प्रभाव कुछ रखता है, और उससे कुछ-न-कुछ भला भी होता है, और ऐसी दशा में हम फूँक को भी बिल्कुल व्यर्थ नहीं बतला सकते।

झाड़ फूँक में एक भेद की बात और है, वह यह कि जिस समय कोई झाड़ फूँक करता है, उस समय वह कोई-न-कोई मन्त्र भी पढ़ता रहता है। मन्त्र क्या है? वह अपना कुछ प्रभाव रखता है या नहीं, हम यह बात भी थोड़े में यहाँ बतलाना चाहते हैं। यह सब लोग जानते हैं कि मन्त्र और कुछ नहीं है। थोड़े से शब्दों का समूह मात्र है। शब्दों का गुण छिपा नहीं है, जिस काम के लिए जो शब्द माना हुआ है, अपनी जगह पर वह शब्द उस काम के लिए पूरा प्रभाव रखता है। यदि हम किसी राक्षसी को माँ कहकर पुकारेंगे तो शायद वह भी पसीज जावेगी, क्योंकि माँ शब्द का प्रभाव ही ऐसा है। देखने में माँ एक अक्षर का शब्द है, पर इस एक अक्षर में ही, दया की, पालने-पोसने की, भला करने की, सहारा देने की, दुख दर्द में शरीक होने की, न जाने कितनी गूढ़ बातें भरी हुई हैं, जब हम किसी को माँ कहकर पुकारते हैं, तो वे सभी गूढ़ बातें एक साथ उसके जी में जाग उठती हैं, और वह हमारी ओर ढलने के लिए अपने आप बेबस हो उठती है। यही हाल दूसरे शब्दों का भी है। बड़ी कुचरित्र स्त्री को भी हम बेटी कह पुकारते हैं, तो वह हमारे सामने सिर नीचा कर लेती है। और उसके जी के सारे बुरे भाव एक दम पलट जाते हैं, पर 'बेटी' शब्द है तो दो ही अक्षर, हम किसी को गाली देते हैं, तो वह हमारा दाँत तोड़ने के लिए तैयार हो जाता है, पर यह गाली क्या है, केवल दो चार शब्द मात्र। आप किसी से प्यार जतलाते हैं, या किसी से मीठी बातें करते हैं, तो वह आपके पाँवों की धूलि भी सिर पर चढ़ाने को उतारू हो जाता है, पर प्यार जतलाने या मीठी बातें करने में क्या कोई जादू है, नहीं यहाँ भी शब्द ही काम करते हैं। फिर मन्त्र के शब्द जिस काम के लिए बनाए गये हैं, उस काम के करने में वे उपयोगी क्यों न सिद्ध होंगे। न जाने कितने सह्स्त्र बरसों से हमारे जी में यह बात जमी हुई है कि मन्त्र के शब्दों में यह प्रभाव है कि उनके जपने, जाप कराने, या उनके सहारे झाड़ फूँक कराने से बड़ी-बड़ी आपदाएँ टल जाती हैं, बड़े-बड़े रोग कट जाते हैं, तो क्या इन शब्दों का हमारे लिए काम में लाना, सर्वथा व्यर्थ हो जावेगा, और हमको उसका कुछ फल न मिलेगा? संसार में जिनते शब्द फैले हुए हैं, यदि वे अपनी जगह पर काम देते हैं, तो यह मानना पड़ेगा कि मन्त्र के शब्द भी अवश्य अपनी जगह पर काम देंगे। और ऐसी दशा में मन्त्र का प्रभाव और उसका उपकारक होना मान्य है।

आजकल के पढ़े-लिखे लोगों ने भी लगभग यह बात मान ली है, कि जिसमें कुछ भी भीतरी बल है, या आत्मबल है, वह जब अपने बल को एक दुखिया के दुख को दूर करने में लगाता है, उसको अच्छा कर देने का विचार जी में जगह बनाता है, और अपनी अच्छी-से-अच्छी स्वस्थता और आत्मबल का उस पर भाव डालता है, तो उसके भला होने में कभी त्रुटि नहीं होती। अब इसी के साथ झाड़ फूँक के व्यापार, मन्त्र के बल, और उस देवते के नाम को भी संयुक्त कीजिए, जिसके विनय और प्रार्थना का यह मन्त्र होता है, और फिर बतलाइए कि झाड़ फूँक किसी काम की वस्तु है या नहीं?

ऐसे अवसर पर प्राय: लोग यह भी कहते हैं कि जब झाड़ फूँक से ही सब कुछ हो सकता है, तो औषधी क्यों खिलाई जाती है? पर पहले तो यह प्रश्न ही ठीक नहीं है, क्योंकि यह कोई नहीं कहता कि झाड़ फूँक ही सब कुछ है, उसके साथ-साथ दवा भी होनी चाहिए, और ऐसी प्रणाली भी है। पर यदि हम इस प्रश्न को मान भी लें तो इसका सीधा-सादा उत्तर यह है, कि जो दवा के विश्वासी हैं, वे खुले और हवादार घर क्यों खोजते हैं, सर्दी और धूप से बीमार को क्यों बचाते हैं, रोगी को साफ सुथरे कमरों में क्यों रखते हैं, उसके बिछावन को सातवें-आठवें दिन क्यों बदलते हैं? जो ये सब भी दवाए हैं या दवा को सहायता पहुँचाने वाले सामान हैं, तो उनको समझना चाहिए कि झाड़ फूँक भी दवा है, या दवा को सहायता पहुँचाने वाली प्रणाली है। जो बिना ऊपर लिखी क्रियाओं के दवा का प्रभाव बहुत कम होता है या दवा व्यर्थ सी हो जाती है, तो यह भी जानना चाहिए कि झाड़ फूँक का प्रभाव भी बहुत सी अवस्थाओं में बिना दवा के बहुत कम होता है, और झाड़ फूँक को सफल बनाने के लिए दवा का होना भी बहुत आवश्यक है। जब नौका भँवर में पड़ती है, तो उसके बचाने की सभी युक्तियाँ उस समय की जाती हैं, किसी युक्ति को लेकर झगड़ा नहीं उठाया जाता। इसी प्रकार जब कोई बीमार होता है, तो उसके लिए जितने प्रयत्न हो सकें, सभी करने चाहिए उलझनें डालना व्यर्थ है।

किसी की सम्मति यह भी है कि जिनका आत्मबल बहुत बढ़ा हुआ होता है, वह झाड़ फूँक कर बड़े-बड़े रोगों में भी सफल हो सकते हैं, और ऐसी दशा में दवा की भी आवश्यकता न होगी, परन्तु ऐसे लोग हैं कहाँ? और यदि हैं भी तो इने गिने। इसीलिए जहाँ तक देखा जाता है, छोटी-छोटी बीमारियों में, और स्त्रियों एवम् लड़कों के किसी मुख्य रोग में इससे काम लिया जाता है। सब रोगों या बड़ी-बड़ी बीमारियों में न तो केवल इस पर भरोसा किया जाता है न करना चाहिए। यदि छप्पर के किसी एक कोने में आग लग जावे तो उसको हम हाथ से पीटकर या उस पर धूल डालकर उसे बुझा सकते हैं, पर जब यह आग बढ़कर छप्पर भर में फैल जाती है, तो फिर उसको सैकड़ों घड़ा पानी से बुझाना कठिन होता है, और ऐसी दशा में उसको कोई हाथ से पीटकर या उस पर धूल डालकर कभी बुझाना नहीं चाहता। यही दशा आप झाड़ फूँक और किसी दूसरे ऐसी ही क्रियाओं को समझिए। ये सब उपाय मुख्य अवस्थाओं को छोड़कर आरम्भ की हैं और इनसे आदि में ही काम लेना चाहिए।

बहुत दिनों से हमारे घर की यह चाल है कि, अगर झाड़ फूँक कराई भी जाती है, तो बच्चों की कराई जाती है। और वह भी ऐसे लोगों से जो कि भले-मानस और योग्य होते हैं। जब से हमने होश सँभाला, कभी न तो अपने घर में किसी पुरुष की झाड़ फूँक होते देखा न किसी स्त्री की। जब से घर का कारबार मेरे हाथ में आया, तब से कई अवसर ऐसे आ पड़े कि जिनमें लोगों ने मुझसे झाड़ फूँक कराने के लिए कहा, पर मेरा चित्त कभी इस ओर नहीं आया। कारण यह है कि मेरे जी में यह बात बैठ गयी है, कि यह काम अब ऐसे लोगों के हाथों में नहीं है, कि जिनके झाड़ फूँक का कुछ प्रभाव हो सके। झाड़ फूँक के विषय में मेरे जो विचार हैं, आप लोग उन्हें ऊपर देख आये हैं, उससे आप लोग समझ गये होंगे कि मैं झाड़ फूँक को बुरा नहीं समझता, पर यह अवश्य चाहता हूँ कि यह काम उन्हीं लोगों से लिया जावे, जो इसके योग्य हों, नहीं तो उससे किनारे रहना ही अच्छा है। निदान यही सब सोच समझ कर मैंने अपने उन मित्रों की राय को पसन्द नहीं किया, जिन्होंने मुझे झाड़ फूँक कराने की सम्मति दी, सिवा इसके मेरा रोग भी ऐसा नहीं है कि वह झाड़ फूँक से जावे, इसलिए मैं इससे किनारे ही रहा। बच्चों की झाड़ फूँक मैं अब भी करा लेता हूँ, पर उन्हीं लोगों से जिनको कि मैं आत्मबल में बढ़ा हुआ पाता हँ-या गाँव घर का जिन्हें मैं बड़ा बूढ़ा समझता हूँ।

पूजा-पाठ

आजकल का एक ढंग यह भी है कि पहले तो हमारे मन की जितनी बातें नहीं हैं, उनको हम मानना नहीं चाहते, और यदि किसी कारण से हमको उन्हें मानना पड़ता है, तो उनको हम उलट-पुलट कर अपने मन की बना लेते हैं। आजकल पूजा पाठ के भी कुछ नये अर्थ गढ़े गये हैं, पर हमको उस नये अर्थ से काम नहीं। हमें मुख्य अर्थ से ही प्रयोजन है। पूजा पाठ करने का क्या फल है। इसके करने से किसी का कुछ भला हो सकता है या नहीं? आज तक किसी का कुछ भला हुआ? और यदि हुआ तो क्या ? यदि हम इन प्रश्नों का उत्तर देने लगें, तो बहुत लम्बा चौड़ा उत्तर दिया जा सकता है, इस ग्रन्थ जैसी बहुतेरी पुस्तकें निर्मित हो सकती हैं, क्योंकि संसार की सारी धार्मिक पुस्तकें इसकी प्रशंसा से भरी पड़ी हैं। पर हमको उसके जटिल मार्ग में नहीं जाना है, उसके ऊँचे-ऊँचे पदों पर नहीं पहुँचना है, हमें केवल यह देखना है कि पूजापाठ करने या न करने से रोगी को कुछ लाभ पहुँच सकता है, या नहीं, उसका रोग दूर हो सकता है या क्या?

पूजापाठ हम अपने आप भी कर सकते हैं, और दूसरों से भी करा सकते हैं। जो पूजापाठ हम दूसरों से कराते हैं, उसमें यथा शक्ति इस बात की चेष्टा करते हैं कि पूजापाठ करनेवाला ऐसा मिले जो अच्छी तरह से पढ़ा लिखा और भला हो, और अपना काम जी लगाकर ठीक-ठीक करे। जिस आत्मबल की चर्चा हमने झाड़ फूँक के वर्णन में की है, यदि उस आत्मबल को काम में लाकर कोई पूजा पाठ करेगा, तो वह किसी रुग्ण को कहाँ तक लाभ पहुँचा सकता है, यह बतलाने की आवश्यकता नहीं है। जिसका आत्मबल जितना बढ़ा होगा, वह इस विषय में उतना ही सफल होगा, और यदि इतना ही लिखकर हम इस पूजापाठ की बात को यहीं छोड़ दें, तो भी हमारा काम पूरा होता है। पर झाड़ फूँक और पूजापाठ में बड़ा भेद है, झाड़ फूँक कहीं होता है कहीं नहीं, पर पूजापाठ सब जगह होता है, और आजकल धर्म के विषयों में बहुत कमी हो जाने पर भी, इसका बहुत कुछ आदरमान है। इसलिए हम इस बारे में सब बातें पूरी तौर पर लिखना चाहते हैं।

जितने पूजापाठ हैं वे सब किसी देवता के नाम पर होते हैं, सोचा यह जाता है कि इस पूजा पाठ से देवते प्रसन्न किए जाते हैं, जिसके बदले वे हमारे बहुत से दुखों को दूर कर देते और कितने कार्मों को पूरा करते हैं। अब यहाँ पहले ही यह प्रश्न होता है कि क्या देवते कोई हैं? और क्या हमारे पूजा पाठ से वे प्रसन्न भी हो जाते हैं? और क्या सच है कि वे प्रसन्न होकर हमारा दुख दूर कर देते, या हमारे कामों को पूरा कर देते हैं? देवते हैं या नहीं, यह कोई नया प्रश्न नहीं है, बहुत पुराना प्रश्न है, इस विषय में हमारे धर्म के ग्रन्थों में ही बहुत कुछ खूब लिखा गया है, आजकल के नये जाँच पड़ताल करनेवालों ने भी इस विषय में खूब लिखा-पढ़ी की है। हम यहाँ उन वैज्ञानिकों की बातों को नहीं दिखलाना चाहते पर इतना कहना चाहते हैं कि जो ईश्वर का होना मानते हैं, उनको देवते भी मानने पड़ेंगे, चाहे ये ईश्वर के दूसरे नाम करके माने जावें, चाहे उनकी कोई शक्ति समझी जावें, चाहे उनका कोई अलग रूप माना जावे। जो लोग ईश्वर को नहीं मानते, उनको भी एक ऐसी शक्ति माननी पड़ेगी, जो इस सम्पूर्ण संसार का सब कुछ है, और यह सब कुछ ही ईश्वर है, ईश्वर और कहते किसे हैं? पुष्पदन्ताचार्य ने महिम्न में एक स्थान पर लिखा है कि मनुष्यों की प्रकृति भिन्न प्रकार की होती है, इसलिए वे सीधे टेढ़े बहुत से रास्तों से होकर निकलते हैं, पर वे उसी प्रकार परमात्मा के पास पहुँचते हैं, जैसे सब नदियों का पानी समुद्र में पहुँचता है।

रुचीनां वैचित्रयात् कुटिल ऋजुनाना पथयुषाम्।

नृणामेकोगम्यस्त्वमसि पयसामर्णवमिव।

संस्कृत का एक और कवि कहता है कि जैसे आकाश से गिरा हुआ पानी बहुत से रास्तों से समुद्र में ही पहुँचता है, उसी तरह से समस्त देवतों को किए गये भाव ईश्वर के पास ही जाते हैं।

आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरे।

सर्वदेवं नमस्कारम् , केशवं प्रति गच्छति।

यह बात है बहुत ऊँचे दर्जे की, पर है बहुत सच, हमको सचाई ही से काम है। चाहे हमारे पाँवों की कोई पूजा करे, चाहे सिर की, वह पूजा है हमारी ही। चाहे कोई कलक्टर का अदब करे, चाहे कमिश्नर का, चाहे मेम्बरान बोर्ड का, चाहे लाट साहब का, पर वास्तव में वह अदब है हमारे सम्राट का ही। और जब यह ठीक है, तो प्रश्न की आवश्यकता नहीं रही कि देवते हैं या नहीं?

पूजापाठ से देवते प्रसन्न होते हैं कि नहीं, यह दूसरा प्रश्न है। ऊपर जो कुछ लिखा गया है, उससे यह बात आप लोग समझ गये होंगे, कि देवतों की पूजापाठ वास्तव में ईश्वर की पूजापाठ है। इसलिए हमको देखना है कि पूजापाठ से ईश्वर प्रसन्न होते हैं या नहीं। कोई-कोई कहेंगे कि वाह, क्या अच्छी टालटूल है, प्रश्न तो है देवतों के प्रसन्न होने का, और आप खींच खाँचकर उसको ईश्वर पर ले गये। पर थोड़ा सा सोचने पर यह सन्देह नहीं रह सकता। यह कोई भी न कहेगा कि यदि कोई पेड़ सींचा जावे तो उससे उसके डाल और पत्ते हरे न होंगे। या डाल और पत्तों पर जो जल किसी तरह आकर गिरेगा, वह पेड़ को हरा भरा न बनावेगा। इसलिए अब हम फिर अपने मुख्य अभिप्राय पर आते हैं, और देखते हैं, कि पूजापाठ से ईश्वर प्रसन्न होते हैं कि नहीं।

ईश्वर का कोई रूप रंग नहीं है, वह क्या है, न तो यह ठीक-ठीक बतलाया जा सकता है, और न मन और बुध्दि उसके विषय में कुछ काम करती है। फिर भी वह किसी प्रकार बतलाया ही जाता है, और मन और बुध्दि से भी काम लेना पड़ता है, क्योंकि बहुत से विषयों में यह देखा गया है, कि कुछ मानकर आगे बढ़ने से बाद को परिणाम ठीक निकल आता है। इसी सिध्दान्तों पर और किसी प्रकार ईश्वर के भेद की गुत्थी को थोड़ा बहुत सुलझाने के लिए हमारे यहाँ संसार को ही ईश्वर का रूप माना गया है। हमारी देह पर यहीं कोई धूल डालता है, तो हम बुरा मानते हैं, पर उसी पर यदि कोई फूल चढ़ा देता है, तो हम प्रसन्न होते हैं। इसलिए समझना चाहिए कि जिस काम से संसार को या संसार के किसी एक भाग को यहाँ तक कि एक रज:कण को लाभ पहुँचेगा, वही काम तो ईश्वर को प्रसन्न करनेवाला है, और जिससे इनको लाभ न पहुँचेगा, या इनकी बुराई होगी, वही काम ऐसे हैं कि जिनसे भगवान अप्रसन्न होंगे। अब हम यह विचारेंगे कि पूजापाठ से संसार को कुछ लाभ पहुँचता है या नहीं? कुछ भलाई होती है या नहीं? पहले पूजापाठ के जितने सामान हैं आप उनको लीजिए। पूजापाठ के लिए यह आवश्यक है कि घर को लीपपोत कर स्वच्छ बनाया जावे, पूजापाठ के लिए कपूर, धूप, चन्दन, फूल, माला और तरह तरह की साकलाओं का होना भी आवश्यक है। जो लोग विज्ञान के जानने वाले हैं, वे अच्छी तरह जानते हैं, कि जैसे साफ सुथरा मकान उसमें रहनेवालों को स्वस्थ बनाता है, उसी तरह कपूर और धूप का जलना, फूल माला का सुगन्ध फैलाना, और तरह-तरह की साकलाओं के सहारे से होम का होना भी हवा को साफ और सुगन्धित बनाकर, आस-पास के रहने वालों को लाभ पहुँचाता और नीरोग बनाता है। जब पाठ होने लगता है, तब भी हम यही जानते और सुनते हैं, कि हमारे लिए जिसकी पूजा हो रही है, वह बड़ी भारी शक्ति रखता है, वह दुखियों के दु:ख को दूर करता है, अकिंचनों पर दया करता है, विपत्ति में पड़े को उबारता है, यहाँ तक कि जिसकी सहायता कोई नहीं करता वह उसकी भी बाँह पकड़ता है। ये बातें ऐसी हैं, जो टूटे हुए दिल को भी ढाढ़स बँधाती हैं, अंधेरे में भी उँजाला करती हैं, और गिरे हुए को भी पकड़कर उठाती हैं। अब आप समझ गये होंगे कि पूजापाठ में जितनी बातें हैं वे सब संसार के लोगों को लाभ पहुँचाने वाली हैं, ऐसी दशा में यह बात अपने आप सिद्ध हो गयी कि पूजापाठ से ईश्वर (या देवते) प्रसन्न होते हैं।

अब रही बात कि रोग वाले का रोग दूर हो सकता है या नहीं? रुग्ण को लाभ पहुँचेगा या नहीं? जब रोगी एक लिपे पुते साफ-सुथरे मकान में रखा जावेगा, जब उसके पास की हवा नित्य कपूर, धूप और तरह-तरह की साकलाओं को जलाकर साफ-सुथरी और सुगन्धित बनाई जावेगी, तब उसे ऐसे देवता का भरोसा दिलाया जावेगा, जिसका विश्वास उसके जी पर लड़कपन से ही जमा हुआ है, और जब भरोसा दिलानेवाला एक ऐसा जन होगा, जिसकी उसके जी में बहुत कुछ जगह है, या जिसको उसके जी में जगह दी है, तो उसको लाभ क्यों न पहुँचेगा, अवश्य पहुँचेगा, और मैं समझता हूँ कि शायद कोई बुध्दिमान ऐसा नहीं है जो इस बात को न मानेगा।

आजकल बहुत छानबीन करने के बाद यह बात मान ली गयी है, कि जो बात हमारे ध्यान में हर घड़ी जमी रहती है, या जिस ओर हमारा जी प्राय: लगा रहता है, उसका हमारे ऊपर बहुत बड़ा प्रभाव होता है। यदि खाते-पीते, उठते-बैठते और दूसरे कामों के समय भी मृत्यु ही हमको याद रहती है, चर्चा भी हम जब करते हैं, तब उसी की करते हैं, तो समझ लेना चाहिए कि मृत्यु हमारे सिर पर सवार है, और अब वह बहुत शीघ्र अपना काम करेगी। श्रीमद्भागवत में लिखा है कि कंस को पिछले दिनों सर्वदा मृत्यु ही याद रहती, कृष्ण ही उसकी ऑंखों पर नाचा करते, सोने में भी वह सपना मृत्यु का ही देखता और खाते-पीते भी मृत्यु ही उसको चौंका देती, फल क्या हुआ, श्रीकृष्ण अचानक वृन्दावन से मथुरा आये, और देखते-देखते ही कंस का विनाश कर डाला।

इंगलैण्ड में एक बड़े कंगाल लड़के के जी में यह बात बैठ गयी थी, कि वह लार्ड मेयर होगा। लोग उसकी बातों को सुनकर हँसते, पर वह अपने विचार का इतना पक्का था कि एक दिन ऐसा आया, कि जिस दिन वह सचमुच लार्ड मेयर हो गया था। हमारे यहाँ इससे और भी ऊँचा उठा गया है, और वेदान्त ने बतलाया है कि यदि ठीक-ठीक तुम्हारी लौ ईश्वर के साथ लग गयी है, तो और तो क्या तुम्हारे ईश्वरत्व प्राप्ति में भी सन्देह न रह जावेगा।

कोई रुग्ण है और उसके जी में यह बात जम गयी है, कि अब वह अच्छा न होगा, और यह विचार इतना पक्का हो गया है, कि जी से निकालने पर भी नहीं निकलता, तो लाखों दवा भी होती रहे, तो भी समझ लेना चाहिए कि मृत्यु पास आ गयी, और अब वह मरेगा। पर यदि वह किसी बुरे रोग में भी फँस गया है, और उस पर उसका दिल इतना पुष्ट है, या किसी प्रकार इतना पुष्ट बना दिया गया है, कि वह यह समझता है, कि कुछ नहीं, अब वह थोड़े दिनों में ही अच्छा हुआ जाता है, तो समझ लेना चाहिए कि उसके अच्छे होने में देर नहीं है, और उसका बड़ा भारी रोग भी काई की तरह फट जावेगा।

संसार में जब पढ़े-लिखे लोगों में भी ऐसे लोग कम हैं, जो सब बातों का भेद ठीक-ठीक समझते और उससे लाभ उठाते हैं, तो फिर जो लोग अनपढ़ गँवार हैं, उनकी चर्चा ही क्या। इसलिए बुध्दिमान लोगों ने ऐसी बातें बना रखी हैं, कि जिनको करते रहने पर बिना समझे हुए भी लोग बहुत कुछ लाभ उठाते हैं, और तरह-तरह की आपदाओं से बचते हैं। जब हम देखते हैं कि कोई शिव जी के मन्दिर में जाकर उनकी जल अच्छत से पूजा करता है, उन पर विल्व पत्र चढ़ाता है, उनका गुण गाता है, और साथ ही अपना दुखड़ा भी सुनाता जाता है, तो हमको समझ लेना चाहिए कि पलटते समय वह ऐसे विचार भी साथ लाता है, कि जो उसके लिए पारस का काम देते हैं। कोई कितना ही बड़ा समझदार और जी का कड़ा क्यों न हो, फिर भी मुसीबत में घबरा जाता है। जब समझदार और दिल के कडे लोगों की यह दशा है, तो अनपढ़ और गँवार ऐसे अवसर पर कितना घबराएँगे, यह बतलाने की आवश्यकता नहीं। मनुष्य जब घबराता है, तो उसका घबराया हुआ दिल कोई सहारा ढूँढ़ता है, सहारा ढूँढ़ने वाले को कभी-कभी एक तिनके का सहारा भी काम दे जाता है। पर जिसका सहारा देनेवाला ऐसा है, कि जिसने काल के मुँह से मारकण्डे को भी बचा लिया, जो सब देवतों से बड़ा और काल का भी काल है, उसका क्या पूछना, यदि उसका घबराया हुआ दिल उसका सहारा न पावेगा, तो किसका पावेगा, और इस सहारे को पाकर यदि उसका दिल पुष्ट न होगा, तो किसका होगा, और यही बात ऐसी है, जो उसके लिए पारस बन जाती है। पूजापाठ करना और कराना, उसके सारे सामान, और ऐसा ही और भी कितनी ही बातें, सब ऐसे ही ऐसे कामों को पूरा करने के लिए गढ़ी गई हैं और उन सबकी जड़ यही है, कि किस तरह एक घबराए और निराश भी को ढाढ़स देकर धर्य बँधाया जावे, और कैसे उसके जी से घबराहट बढ़ाने वाले और निराश करने वाले विचार दूर कर दिए जावें, जिससे वह निश्चिन्त और सुखी हो, और उसके सब तरह के रोग दूर हो जावें।

पण्डित जगन्नाथ पाठक हमारे यहाँ के एक बहुत सीधे-साधे ब्राह्मण थे, इनमें ब्राह्मणों के बहुत से गुण थे, परन्तु पढ़े-लिखे कम थे, यहाँ तक कि अपनी विद्या पर उनको आप भरोसा न था। जब वे कोई पूजापाठ करते, तो उनको इस बात का खटका बना रहता, कि जजमान का काम मुझसे पूरे तौर पर हुआ या नहीं हुआ। वे सच्चे थे, इसलिए जब उनको इस प्रकार का विचार होता, तो उनके जी को चोट लगती। और वे दुखी होते। दुखी होने पर उनका मुँह मलीन हो जाता, तब वे देवते के सामने अपना सिर झुका देते, गिड़गिड़ाते, हाथ जोड़ते, ऑंखों में ऑंसू भर लाते, और बहुत दर्दभरी आवाज़ से देर तक विनय करते और यह चाहते कि देवता उनकी भूलचूक को क्षमा करें, और यजमान का काम कर देवें, जिसमें वे लोगों को अपना मुँह दिखलाने योग्य रहें। एक दिन मैं एक रोगी को देखने गया, उस समय उसके पास एक चौकी पर बैठे हुए पाठक जी पाठ कर रहे थे, जब मैं पहुँचा, उसके थोड़े ही देर बाद पाठ पूरा हुआ, और पाठक जी विनय करने में लग गये। मैंने रुग्ण से पूछा कि अब आप कुछ अच्छे हैं? उन्होंने कहा-मेरी तो घड़ी टल रही थी, मैं भी जीने से निराश हो गया था, पर अब आशा होती है कि मैं अवश्य अच्छा हो जाऊँगा। पाठक जी ऐसे सीधे और सच्चे ब्राह्मण जब मेरे लिए देवता के सामने इतना गिड़गिड़ा रहे हैं, तो मैं क्यों न अच्छा होऊँगा, अवश्य अच्छा हूँगा। कुछ दिनों पीछे मैंने देखा कि जैसा उनका विचार था, उसके अनुसार वे अच्छे हो गये थे।

विसूचिका बड़ी ही डरावनी बीमारी है, यदि तीन मनुष्य साथ हों, और इन तीनों को छोड़कर दूसरा कोई इनका साथी और सहायक न हो, और ऐसा संयोग आन पड़े कि इन तीन मनुष्यों में से दो विशूचिका से बीमार होकर मर जावें तो डॉक्टरों की राय है कि तीसरा भी अवश्य मर जावेगा। जिन दिनों किसी गाँव में या शहर में यह बीमारी फैली होती है, उन दिनों इस विचार की सचाई ज्ञात होती है। यह रोग ऐसा बुरा है कि गाँव में फैला नहीं कि लोगों के जी में डर समाया नहीं। ज्यों-ज्यों मृत्यु बढ़ती जाती है, लोगों की घबराहट भी अधिक होती जाती है, बहुत से लोगों की तो ऐसी गत हो जाती है कि उनको हर घड़ी बीमारी का ही ध्यान बना रहता है, और ऐसे ही लोग बहुत कर मरते भी हैं। इसीलिए अच्छे लोग इसकी चर्चा भी बुरी समझते हैं। हम लोगों में चाल है कि विसूचिका के दिनों में बड़ी धुमधाम से चलावा या निकासी की जाती है, इस चलावे का ऐसा प्रभाव देखा गया है, कि होते ही गाँव का गाँव रोग के चंगुल से छुटकारा पा जाता है, कभी-कभी ऐसा नहीं भी होता है, पर हमको प्राय: होनेवाली बात को देखना है। चलावे में पहले पूजापाठ होता है, फिर होम, और इसके बाद रात में गाँव के सब लोग एकत्र होकर किसी भैंसे या बकरे को सवारी की तरह सजाते हैं, और फिर बाजा, घड़ी, घण्टा और शंख बजाकर बड़े उत्साह से दुर्गा को मनाते हुए उसे गाँव के बाहर निकाल देते हैं। जिसका अर्थ साधारणतया यह समझा जाता है, क्रिया द्वारा बीमारी गाँव के बाहर निकाल दी गयी। जैसी ही डरावनी यह बीमारी है, और जैसा ही प्रत्येक के जी पर इसका डर छाया रहता है; वैसी ही यह परम्परा है, जिससे सर्व साधारण का डर जाता रहता है। घबराहट मिट जाती है। और इसी का यह प्रभाव होता है कि रोग का सारा आतंक गाँव से दूर हो जाता है। चाहे रोग का गाँव से निकाल दिया जाना, और उसके सारे सामान ढकोसले ही समझे जावें, पर इस प्रयत्न का जो प्रभाव साधारणतया लोगों पर मुख्य कर स्त्री एवं लड़कों और साधारण जनों पर पड़ता है, वह अवश्य इस बात का प्रमाण है कि यह आविष्कार बहुत सोच समझकर किया गया है, और बड़े काम का है। इसकी जड़ भी रोगी के दिल को पुष्ट बना देना, और लोगों के भावों को पलट देना, आदि उन्हीं विचारों पर है कि जिनकी चर्चा मैंने ऊपर कीहै।

हमने देखा है कि जब पूजापाठ होने पर कोई रोगी नहीं बचता, मर जाता है, या काम नहीं पूरा होता, तो किसी-किसी की प्रकृति बिगड़ जाती है, और पूजापाठ से वह बिल्कुल बे-विश्वास हो जाता है। हमारे यहाँ एक रागी थे, उनको एक ही लड़का था, आठ नौ बरस के सिन में इस लड़के को चेचक निकली। रागी बेचारे ने जिस प्रकार अन्य उपचारों का प्रबन्ध किया, उसी प्रकार उन्होंने धुम से पूजापाठ भी कराया। पर उसका दिन पूरा हो गया था; इसलिए वह चल बसा, संयोग ऐसा हुआ कि जिस समय पाठ हो रहा था, उसी समय लड़का मरा, रागी बेचारे का कलेजा दुख से तो फट गया ही था यह बात उनको और खली, वे पागल हो गये, और एक डण्डा लेकर उन्होंने पूजा के कुल कलसों को तोड़ डाला, पूजा के सारे सामान को छींट दिया। चाहा कि पोथी लेकर उसको भी टुकड़े-टुकड़े कर डालें, पर पण्डित जी के सामने पेश न गयी। उनका क्रोध यहीं ठण्डा न हुआ, जब वह लड़के की लाश लेकर निकले तब भी बुरा हाल था, वह रोते तो थे, पर बीच-बीच में सैकड़ों बेतुकी गालियाँ देवी और दुर्गा को भी देते जाते थे, मैंने देखा कि उसी दिन से उनका विश्वास पूजापाठ से उठ गया था, और पीछे भी जब कभी उनसे देवी और दुर्गा की चर्चा हुई, तभी उन्होंने उनको बिना दस पाँच गालियाँ सुनाए न छोड़ा।

एक पण्डित जी ने बहुत कुछ पूजापाठ करके एक लड़का पाया, पर यह लड़का भी बहुत दिन जीता न रहा, कोई बीस पचीस दिन के बाद मर गया। पण्डित जी नित्य ठाकुर जी की पूजा करते थे, जब वे पूजा कर रहे थे, तभी उनको ज्ञात हुआ कि लड़का जाता रहा। फिर क्या था, आप इतने बिगड़े और बावले बन गये कि ठाकुर जी की सारी मूर्तियों को उठाकर इधर-उधर फेंक दिया, शालिग्राम की दो एक मूर्तियों को तोड़ डाला, और फिर फूट-फूटकर रोने लगे। एक दिन रात उनकी बुरी गत रही, पर दूसरे दिन उनका जी ठिकाने हुआ, जब उनका जी ठिकाने हुआ, तो वे इतने लज्जित हुए थे कि उनको अपना मुँह दिखलाना भी कठिन था। उन्होंने फेंकी हुई मुर्तियों को उठाकर फिर अपने स्थान पर रखा, और जिन मुर्तियों को तोड़ दिया था, उनको ले जाकर नदी में विसर्जन किया। जिस घड़ी वे टूटी हुई मुर्तियों को लेकर विसर्जन करने के लिए नदी जा रहे थे, उस घड़ी उनके जी पर लड़के के मरने से भी अधिक चोट थी, उनके चेहरे पर एक रंग आता था, और एक जाता था, और बार-बार वे यही कहते थे, कि हाय! मैं ऐसा बावला हो गया कि पवित्र गीता के इस वचन को भी भूल गया तुम काम कर सकते हो पर फल मिलना तुम्हारे हाथ नहीं है।

कर्मण्येवाधिकारस्ते , मा फलेषु कदाचन

आप लोग देखें कि दुख के वेग ने रागी और पण्डित दोनों के दुर्बल चित्त को बावला बना दिया था, पर दुख का वेग कम होने पर पण्डित जी को तो समझ आयी, पर रागी वैसा-का-वैसा ही रहा, वह अपनी बिगड़ी हुई प्रकृति को न सुधार सका। हम मामलों में वकील रखते हैं, और एक नहीं कई बार वकीलों के लाख सिर मारने पर भी मामलों को हार जाते हैं, फिर भी मामला आन पड़ने पर वकीलों को रखते हैं, मामला हार जाने से वकीलों का रखना नहीं छोड़ते। हम अच्छी-से-अच्छी औषधी एक-से-एक अच्छे वैद्यों से कराते हैं। पर मरनेवाला मर ही जाता है, लाख दौड़ धूप करने से भी नहीं बचता, पर दवा की तरफ से हम कभी बे-विश्वास नहीं होते। और जब आवश्यकता होती है, तभी करते हैं। फिर पूजापाठ की ओर से बे-विश्वास होने और उसे छोड़ बैठने का क्या कारण है? सच्ची बात यह है कि उसकी बातें इतनी सूक्ष्म और गूढ़ हैं, कि मोटी समझ वाले उसको कभी नहीं समझ सकते, इसलिए जब तक कि उनका काम निकलता रहता है, तब तक तो वे उसको करते हैं, और जहाँ कोई बात बिगड़ी, वहीं उसको छोड़ बैठे, और पिछली सारी बातें भूल गये। पर समझदार और दूर तक सोचनेवाले लोग कभी ऐसा नहीं करते, और वे यह समझते हैं कि बहुत-सी दशाएँ ऐसी हैं कि जिनमें बिना पूजापाठ के दवा बिल्कुल व्यर्थ हो जाती है। वह ऐसे कामों को अपना कर्त्वय समझकर करते हैं, उसके फल पर ऑंख नहीं डालते, क्योंकि फल का झगड़ा मनुष्य को बे-विश्वास बना देता है।

मैं ऊपर कह आया हूँ कि पूजापाठ रोग दूर करने के लिए, रोगी के जी को ढाढ़स बँधाने के लिए, उसके दुख के वेग को हलका करने के लिए, उसके घबराए हुए दिल को बहलाने और दृढ़ बनाने के लिए, उसके मन को ठिकाने रखने के लिए, किया कराया जाता है। न मृत्यु को न होने देना पूजा पाठ कराने का अभिप्राय है, और न ऐसा कभी हो सकता है। फिर मृत्यु हो जाने पर पूजापाठ से बे-विश्वास हो जाना, यदि नासमझी नहीं है तो क्या है?

मैं एक दिन एक साधु के पास बैठा था, इसी समय उनके यहाँ एक हलवाई आया और हाथ जोड़कर उसने उनसे कहा कि महाराज! जो भभूत आपने रात मुझको दी थी, उससे बीमार को कुछ लाभ नहीं हुआ। यह सुनकर वे हँसे और कहा कि, यदि तावा खूब जल रहा हो, तो क्या उस पर दो एक बूँद पानी डाल देने से वह ठण्डा हो जायेगा? उसने कहा-नहीं महाराज, उसके लिए दस पाँच घड़े पानी की आवश्यकता होगी। उन्होंने कहा-फिर समझ जाओ। रोग जैसा है, वैसा यत्न भी करो। भभूत क्यों न काम करेगी। साधु की यह सीख सब रोगों में याद रखने योग्य है। हमने देखा है कि बड़े-बड़े गाँवों में भी विसूचिका फैलने पर चार पैसे के घी और सेर दो सेर साकल से ही होम करके कभी-कभी काम निकाल लेने की बात सोची जाती है। पर यह तो जलते तवा के लिए दस-पाँच बूँद भी नहीं है, फिर काम कैसे होगा! इसी प्रकार बड़े-बड़े रोगों में भी यदि हम साधारण पूजापाठ से ही काम निकालना चाहते हैं, तो समझ लेना चाहिए कि यह वैसा ही है, जैसा कोई स्याही के धब्बे को एक चुल्लू पानी से धोना चाहे।

तन्त्र यन्त्र

मैं समझता हँ इस ग्रन्थ के पढ़नेवालों में कितने लोग ऐसे होंगे, जो तन्त्र का नाम पढ़ते ही मुँह बना लेंगे और ग्रन्थ को अपने हाथ से दूर फेंक दें, तो भी आश्चर्य नहीं। क्योंकि आजकल एक ऐसा दल पैदा हो गया है, कि उसको पुरानी सभी बातों की निन्दा अच्छी लगती है, जो आप उनके गुण उसको बतलाना चाहें, तो वह मुँह फेर लेता है। और कहने लगता है, कि जैसे-तैसे सभी बात का प्रतिपादन करना बहुत ही बुरी बात है। उसका एक विचार यह भी है कि हम लोगों में धर्म के नाम से बहुत ही बुराइयाँ घुस गयी हैं, जो इसी प्रकार अपने यहाँ की सभी पुरानी बातों को हम अच्छी बतलाने लगेंगे, तो न हम लोगों की बुराइयाँ दूर होंगी, और न हम लोग सुधारेंगे। झाड़ फूँक, पूजापाठ आजकल अच्छी ऑंखों से नहीं देखा जाता है, मैंने दो प्रसंगों में इन कामों का ठीक-ठीक भेद बतलाने की चेष्टा की है, और यह भी समझाया है कि इनके करने से क्या लाभ होता है, यह बात कितनों को बुरी लगेगी, और यही कारण है कि वे तन्त्र का नाम पढ़ते ही चौंकेंगे। पर कहना यह है कि वे लोग जिस कूचे में चक्कर लगाने वाले हैं, वहाँ का नियम यह है कि जैसे अपने विचारों का आदर करते हो वैसे ही तुमको दूसरों के विचारों का भी आदर करना चाहिए फिर घबराने और बुरा मानने की कौन बात है। सब के विचार एक से तो होते नहीं, आप एक बना भी नहीं सकते, फिर नाक भौं क्यों चढ़ाई जावे। जैसे आप अपने विचार लिखते हैं, वैसे ही दूसरा भी अपने विचार लिखने का स्वत्व रखता है। आप उसको रोक नहीं सकते, हाँ, मानना न मानना आपके हाथ है। मैं भी यह मानता हूँ कि हम लोगों में धर्म के नाम से बहुत ही बुराइयाँ घुस गयी हैं, जैसे हो उनका दूर हो जाना ही अच्छा है, ऐसा कौन हैं कि जो कहेगा कि बिना उनके दूर हुए हम लोग सुधार जावेंगे। पर यह तो न होना चाहिए कि बुराई की ओट में धर्म का भी लहू बहा दिया जावे, और वे अच्छी बातें भी रसातल को पहुँचा दी जावें कि जिनसे आज भी बूढ़े हिन्दू धर्म की रगों में गर्म लहू दौड़ रहा है। जो हमारे विचार का नहीं है, उसकी बातें सुनने में हम इधर-उधर क्यों करते हैं, इसलिए कि वह हमारे मन की बात नहीं कहता, या जो बात हमको रुचती नहीं, वही हमको चुपचाप सुननी पड़ती है। पर क्या यह हमारी दुर्बलता नहीं है? जो कुछ हमारा विचार है, उसके लिए हम दावा करके यह कभी नहीं कह सकते कि वह सर्वथा ठीक है, उसमें भूल-चूक का नाम भी नहीं है। फिर उसकी परख कैसे होगी? उसकी परख यों ही होगी कि हम दूसरे के विचारों को भी धर्य के साथ पढ़ें या सुनें, इसलिए नहीं कि हम उसे मान ही लें, वरन् इसलिए कि अपने विचारों को दूसरों के विचारों की कसौटी पर कसें, जिससे ज्ञात हो कि हमारा विचार खोटा है कि खरा। ऐसे अवसर पर लोग कह उठते हैं कि रद्दी बातों को पढ़ने और सुनने की सम्मति कौन देगा। पर पहले यह ठीक तो कर लीजिए कि ये बातें रद्दी हैं। इसके सिवा एक बात और है, वह यह कि जो समय हो तो एक साधारण दृष्टि उन पर डाल दी जावे, तो भी कोई चूक न होगी, क्यांकि कभी-कभी रद्दी में भी काम के परचे हाथ लग जाते हैं।

तन्त्र क्या है? हम लोगों ने समझ रखा है कि भलाई का जो कुछ ठीक उलटा है, वह तन्त्र है। पवित्र वेदों ने जो सच्चा और सीधा मार्ग दिखला रखा है, उसे सीधे और सच्चे मार्ग को छुड़ाकर हमको जो टेढ़े और बुरे पथ की ओर धोखा देकर ले जाता है, वही तन्त्र है। जो वेद कहते हैं कि सच बोलो व्यर्थ किसी जीव को मत सताओ। बुराई से बचो, भलाई से काम लो, न किसी की पत्नी पर ऑंख उठाओ, न किसी के धन पर हाथ डालो। तो तन्त्र कहते हैं कि खाओ, पीओ, आराम करो, न मांस खाने में कुछ दोष है, और न मदिरा पीने में कुछ पाप। जिससे सुख मिले, जो करने से आनन्द आवे, उसी से प्रयोजन है। काम यदि झूठ, बदी, बुराई से निकलता है, तो सच, नेकी और भलाई लेकर कोई क्या करेगा। और ये सब बातें ऐसी हैं कि जिससे तन्त्र का नाम सुनते ही लोग कान पर हाथ रखते हैं। पर सच्ची बात यह है, कि यह तन्त्र का मुख्य रूप नहीं है। यह उसके उस समय का चित्र है, जब वह बिगड़ गया था, और जब अच्छे लोग उससे किनारे हो गये थे। लोगों का यह भी विश्वास है कि तन्त्र वह है जिसमें भूत और चुड़ैलों को वश में करने के उपाय लिखे हों, जिसमें खोपड़ी, मुर्दे और मरघट को लेकर लम्बी चौड़ी बातें गढ़ी गयी हों, जिसमें पापी स्त्री पुरुष की चर्चा बड़ी बुरी तरह से की गयी हो और उनकी ऐसी करतूतें लिखी गयी हों, जिनको सुनकर निर्लज्जता को भी सिर नीचा करना पड़े। पर क्या यह तन्त्र का सच्चा रूप है? किसी-किसी ने तन्त्र उसको समझ रखा है, जिसमें कोई विचित्र बात हो। परन्तु सच्ची बात यह है कि विचित्र बात कोई नहीं है-बड़ी-बड़ी विचित्र बात, आज साधारण बात समझी जाती है। कोई चकित करनेवाली बात जब हमारी ऑंखों के सामने पहले पहल आती है, तो हम उसको विचित्र बात समझते हैं, किन्तु कुछ दिनों में जब वह बहुत फैल जाती है, तो फिर वह साधारण बात हो जाती है, फिर उसे कोई 'विचित्र बात' नहीं कहता।

हमने एक मिट्टी का दीया लिया, उसमें दो-चार बत्तियाँ डालीं। थोड़ा तेल डाला, फिर उसको जला दिया, तो यह जलता हुआ दीया क्या है? तन्त्र है? जिस दिन पहले पहल इस प्रकार दीया जला होगा, लोग आश्चर्य में आ गये होंगे, और इसको एक चमत्कार समझे होंगे। पर अब यह साधारण बात हो गयी है, शायद जो लोग विचित्र बात को तन्त्र मानते हैं, वे लोग अब इसे तन्त्र न मानेंगे। जब रेल का भद्दा इंजिन लेकर उसका बनानेवाला इंगलैण्ड की सड़कों पर निकला था, तो वहाँ के लोगों ने उसको जादूगर से कम नहीं समझा था, पर आज रेलगाड़ी को भारत का एक साधारण मनुष्य भी इस दृष्टि से नहीं देखता। कितने ही जंगली मनुष्यों ने पानी को बरतन में उबलते देखकर उसको चमत्कार समझा था और जब उसमें अन्न पकाया गया तो उनके आश्चर्य की सीमा न रही। पर कुछ दिनों बाद उन्होंने आप इस तरह खाना बनाना सीख लिया था और फिर उनकी ऑंखों में यह बात साधारण हो गयी थी। खाना बनाने से रेल तार तक की सारी बातें तन्त्र हैं, पर आज इनको तन्त्र मानने और समझनेवाले बहुत थोड़े लोग होंगे। एक तन्त्र जानने वाला पण्डित आकर यदि कोई फूल ऊपर उछाल दें, और वह फूल कुछ देर वहाँ ठहर जावे, तो सभी उसको बड़ा भारी तन्त्र मानने लगेंगे, पर यह है क्या? यह तन्त्र का एक बहुत ही छोटा लटका है। कहना यह है कि आजकल कुछ ऐसी दशा हो गयी है, कि जो वास्तव में तन्त्र है, उसको तो हम लोग तन्त्र मानते नहीं, तन्त्र उन बुराइयों को मानते हैं, जो उसमें किसी तरह घुस गयी हैं और भूल यही है।

तन्त्र कितना ही कलंकित क्यों न हो, पर आज भी हिन्दुओं का एक बहुत बड़ा समूह उसको वेद की बहुत सी शाखाओं में से एक शाखा मानता है। उस समूह में कितनी ही ऐसी बातें भले ही लिखी हों जिनको हम ठीक समझ न सकें, किन्तु फिर भी उसमें ऐसी-ऐसी काम की बातें लिखी हैं, कि जिनको हम सोने से लिखें तो भी शायद उनका ठीक-ठीक आदर न होगा। मौलाना रूम ने अपनी मसनवी में एक जगह लिखा है कि मैंने कुरान में से मग्जश् को ले लिया और हद्दियों को कुत्तों के सामने डाल दिया। क्या तन्त्र के विषय में आप हम इतना भी नहीं कर सकते। हम काँटों से भरे गुलाब के पौधों में से उसके सुन्दर फूल को तोड़ लेते हैं, कीचड़ में से सोना निकाल लेते हैं, फिर तन्त्र में जो अच्छी और काम की बातें हैं, यदि वह ले ली जावें तो इसमें क्या बुराई है।

आप लोग ऊब गये होंगे कि न जाने मुख्य विषय पर मैं कब आऊँगा। लीजिए अब मैं मुख्य विषय पर आता हूँ, और देखता हूँ कि रोगी को तन्त्र यन्त्र से कुछ लाभ पहुँचता है या नहीं। सारी औषधों और उनके प्रयोग तन्त्र हैं। इसके सिवा तन्त्र की सारी बातें मन्त्र या यन्त्र के आधार से होती हैं। इसलिए इसके विषय में मैं कुछ विशेष लिखना नहीं चाहता, यन्त्र के विषय में झाड़ फूँक के वर्णन में लिखा जा चुका है। यन्त्र के बारे में यहाँ कुछ लिखकर तन्त्र के विषय में भी आगे और कुछ लिखूँगा।

कोष में जहाँ यन्त्र के और और अर्थ लिखे हुए हैं, वहाँ यह भी लिखा है सावधनी से कार्य कर काम निकाल लेने के प्रयत्न का नाम यन्त्र है। हम लोग किसी रोगी या कार्यार्थी को जो यन्त्र देते हैं, मैं समझता हूँ वह इसी अर्थ वाला यन्त्र है। आप इस पन्द्रह यन्त्र को देखिए, इसमें नौ कोठों में नौ अंक इस तरह से बैठाले गये हैं, कि उनमें से तीन अंक को आड़े, तिरछे सीधे जैसे चाहिए गिनिये, वह गिनती में पन्द्रह ही होंगे। एक यह ऐसी बात है कि, जिसको जानने पर इस यन्त्र की कारीगरी के बारे में अपने आप जी में स्थान हो जाता है। यदि साथ ही यह भी ज्ञात हो जावे कि इसके बाँधने से रोग भी दूर हो जाते हैं, या काम पूरा होता है, या आपदायें टल जाती हैं, और यह ज्ञान भी किसी माननीय पुरुष या किसी साधु संत से हो, तो इन बातों के मान लिये जाने में कभी संशय न होगा। क्योंकि उसकी विचित्र कारीगरी इन विचारों को पुष्ट करने में पूरी सहायता देगी। और अब यह बात अपने आप समझ में आती है कि ऐसे यन्त्रों से रुग्ण, लड़कों, और स्त्रियों का बहुत कुछ भला हो सकता है क्योंकि किसी घबराए दिल को ढाढ़स बँधाने और धर्य देने में इन यन्त्रों से कम काम न निकलेगा।

एक बात और है, वह यह कि यन्त्र किसी वस्तु पर लिखकर दिया जाता है। यह वस्तु या तो किसी जड़ी बूटी की लकड़ी या पत्ता होती है, या ताँबे चाँदी या सोने का पत्र या बिल्लौर और यशब आदि पत्थर। जो लोग अनुभवी हैं वह जानते हैं कि इन वस्तुओं के गले में पहनने या कमर और भुजा पर बाँधने से शरीर की बिजली पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। जिसका फल यह होता है कि बहुत से साधारण रोग अपने आप दूर हो जाते हैं। या उनके दूर होने में सहायता मिलती है। इसलिए यदि यन्त्र का कुछ गुण न भी माना जावे तो भी यह मानना पड़ेगा, कि यन्त्र इन वस्तुओं के गले में, बाहु पर या कमर में बँधवाने का एक आधार है, और उसका इतना सहारा पहुँचाना ही क्या कम है? यहाँ पर यह कहा जा सकता है कि जड़ी बूटी को लोग यों भी बाँधते हैं, दिल के धड़कने पर यशब को यों भी पहनते हैं। विसूचिका के दिनों में प्राय: लोगों को डबल पहने देखा गया है। फिर यन्त्र का पचड़ा फैलाने का कौन काम था, परन्तु दृष्टि को एक ओर रखने से ही तो काम नहीं चलता, दृष्टि को सब ओर रखना ही ठीक है। बहुत से लोग इस प्रकृति के देखे गये हैं, कि जो उनसे जड़ी बूटी बाँधने के लिए कहा जावे, या यशब और ताँबा पहनने के लिए दिया जावे, तो वे कह बैठते हैं, कि लकड़ी पत्ते में क्या रखा है। या इस पत्थर ताँबे में ही कौन विभूति है। ऐसे लोगों का मुँह बन्द करने के लिए और उनके जी में विश्वास उपजाने के लिए यह प्रणाली निकाली हुई है, क्योंकि किसी तरह काम निकाल लेना ही समझदार का काम है। इसके अतिरिक्त जैसा बहुत से लोगों का विश्वास है, यदि यन्त्र में कुछ निज का गुण भी है, तो फिर पूछना ही क्या, दोनों का गुण एक होकर बहुत कुछ काम करेगा, और ऐसी दशा में किसी की भलाई होने में क्या सन्देह है।

मधुबन में मेरे पास एक दिन एक तन्त्र जानने वाले पण्डित आये, तन्त्र के बारे में मुझसे उनसे बहुत सी बातचीत हुई, बातचीत में ही उन्होंने मुझसे कहा कि मैं आपको अपने तन्त्र का चमत्कार दिखलाऊँगा। मधुबन से एक मील पर कठघरा शंकर नाम का एक गाँव है, इसी गाँव में अपने एक सम्बन्धी के यहाँ वे ठहरे हुए थे, दूसरे तीसरे मुझसे मिलने आते। एक दिन वे आये, और मुझी से एक छड़ी लेकर चले गये, पर मुझको यह बात बिल्कुल याद न रही। जहाँ बैठे हुए उस छड़ी को लेकर मैं जी बहला रहा था, जब मैं वहाँ से उठा तो मुझको छड़ी की याद आयी, मैंने उसको इधर-उधर बहुत खोजा, पर जब वह वहाँ होती, तब तो मिलती। निदान ढूँढ़ खोजकर मैं चुप हो रहा, पर छड़ी के खो जाने का बहुत अधिक आश्चर्य हुआ। दूसरे दिन पण्डित जी फिर आये, और मुझसे बहुत सी बातें कीं। जब उन्होंने देखा कि छड़ी के बारे में मैंने उनसे कुछ भी न पूछा, तब वे अपने आप खुले। कहा, कल्ह मैं आप के ऊपर तन्त्र कर गया, मैंने कहा कैसा? उन्होंने कहा-आप की छड़ी कहाँ है। मैं समझ गया, बोला, क्या आप ले गये, उन्होंने कहा, हाँ मैं ले गया, और आप से माँगकर ले गया। पर तन्त्र यह है कि आपको उसकी याद तक नहीं है। मैंने कहा-बात तो ठीक है, पर इसमें भेद क्या है। उन्होंने कहा, ऑंख की पुतलियों की पहचान भी एक तन्त्र है। ऑंख की काली पुतली को आप देखिए, वह मिनट-मिनट पर बदलती है, और लोगों के जी का भेद बतलाती रहती है। एक दशा उसके बदलने की यह भी है कि जिसमें मनुष्य बाहर की सुधि भूल जाता है, उस घड़ी उससे जो कुछ ले लिया जावे, तो कभी उसको उसकी याद न रहेगी। मैं इस भेद को जानता हूँ। जब मैंने आपकी ऑंख की पुतली को ऐसा पाया, आपसे छड़ी माँग ली, जिसका फल यह हुआ कि आपको उसकी याद तक न रही। आप कहेंगे यह एक बहुत ही छोटा लटका है, मैं कहूँगा लटका है न, छोटे बड़े से क्या। यह कहकर, उन्होंने एक पाँच चार हाथ लम्बी रस्सी निकाली, जो गोल लपेटी हुई थी। इस रस्सी को उन्होंने ऊपर उछाल दिया, कोई पाँच छ हाथ ऊपर जाकर रस्सी खुलने लगी, एक छोर उसका ऊपर ठहरा रहा, और दूसरा छोर आकर धरती पर लग गया, रस्सी सीधी खड़ी हो गयी। हम लोगों को यह देखकर आश्चर्य हुआ, पर उन्होंने कहा-कुछ नहीं, यह भी एक साधारण बात है। यह रस्सी बटी इस तरह से गयी है, कि उसमें इस प्रकार का बल आ गया है, नहीं तो यह कोई चमत्कार नहीं है। यह बात हो ही रही थी कि एक मल अपनी छह-सात बरस की एक बेहोश लड़की पण्डित जी के पास लाए, और कहने लगे कि अभी खेलते-खेलते यह लड़की अचेत हो गयी है। पण्डित जी ने चट अपने झोले में से थोड़ी सी धूप निकाली, थोड़ा सा फूल मँगाया। लड़की को सीधे सुला दिया, दो मनुष्यों से उसका तलवा सहलाने को कहा, थोड़ा-सा चन्दन रगड़वाकर उसके सिर और कलेजे पर रखा। धूप को जला दिया, फूल थोड़ा उसके पास रख दिया, थोड़ा आप हाथ में लेकर उसको सुँघाने लगे। दस पन्द्रह मिनट नहीं बीते थे कि लड़की होश में आ गयी, और अपने आप उठ बैठी। पण्डित जी ने कहा-देखा आपने कितना बड़ा तन्त्र हो गया, नहीं तो लड़की बेचारी की जान ही गयी थी। फिर कहा-ऐसी-ही-ऐसी बातों में तन्त्र हैं, न जाने क्यों तन्त्र को लोगों ने बदनाम कर रखा है।

पण्डित जी बैठे ही थे कि मैंने द्वारिकामल को बुलवाया, एक धूर्त साधु उसे बतला गया था कि तुम्हारे घर में बहुत सा धन गड़ा है। उसने उससे कहा था कि जो वह उसको दस रुपए देवे, तो वह स्थान भी बतला दे, पर न तो वह रुपए दे सका, और न उसने स्थान बतलाया। जब वह चला गया तो, उसको यह सनक सवार हुई कि हम कुल घर खोदकर देखेंगे, जहाँ रुपया होगा अपने आप मिल जावेगा। उसने अब तक कमर कमर भर तीन घर खोद डाले थे। और दूसरे घरों के खोदने का भी लग्गा लगा रखा था। उसके इस बेढंगेपन से घर के लोगों का नाक में दम था। उन लोगों ने सब कुछ किया, पर उसने एक न माना। दूसरे लोगों ने उसको बहुत समझाया कि यह क्या मूर्खता करते हो, मैंने भी कोई बात समझाने से न छोड़ी, पर वह अपनी ही धुन में मस्त था। मैंने पण्डित जी के पास उसको इसलिए बुलवाया, कि शायद पण्डित जी का कोई लटका काम कर जाए। पण्डित जी यह बात सुनकर हँसे, पहले उसके हाथ में थोड़ा सा फूल दिया। और कहा-ऑंखें बन्द करो। जब उसने ऑंख बन्द की, तो उन्होंने एक कागज पर एक यन्त्र लिखा, जब यन्त्र लिखा गया, तो उन्होंने उससे कहा-अच्छा अब ऑंखें खोल दो। जब उसने ऑंखें खोलीं, तो उन्होंने यन्त्र उसके हाथ में दिया, और कहा कि इस यन्त्र को लेकर अपने सब घरों में घूमो, और यदि तुम्हारे घर में धन गड़ा होगा, तो पत्र का कागज श्वेत ही रहेगा, और यदि न गड़ा होगा तो लाल हो जावेगा। वह यन्त्र लेकर चला गया, और बीस मिनट के बाद वापस आया, इस घड़ी यन्त्र का कागज़ लाल हो गया था। पण्डित जी ने कहा, सब बात तुम समझ गये, उसने कहा-हाँ महाराज, समझ गया। इस यन्त्र ने मुझको बतला दिया, कि मुझसे रुपया ऐंठने ही के लिए साधु ने यह चाल चली थी, नहीं तो सचमुच मेरे घर में रुपया नहीं गड़ा है। पण्डित जी ने कहा-हाँ, ठीक समझे। उस दिन से फिर उसने घर में एक छेव भी न लगाई। जब सब लोग चले गये, तो उन्होंने मुझसे कहा कि यन्त्र का कागज़ इस ढंग से बना है कि जब आप चन्दन से इस पर कुछ लिख देंगे तो पन्द्रह मिनट बाद वह लाल हो जावेगा। इस घड़ी कागज़ के इसी गुण से मैंने काम लिया है, नहीं तो और कोई चमत्कार इसमें नहीं है। चाहे इस प्रकार की बातें चालबाजी समझी जावें, पर नासमझी पर ऐसी बातों का बड़ा प्रभाव पड़ता है, और इस चाल से वह बहुत सी बुराइयों से बचाए जा सकते हैं। मैं यह मानूँगा कि इस तरह की बातों से धूर्तों की भी खूब बन आती है। पर इससे क्या? धूर्त यानी हवा और अन्न के आधार से भी बड़ी-बड़ी बुराइयाँ लोग कर लेते हैं, किन्तु, इससे कोई पानी हवा और अन्न को बुरा नहीं कह सकता।

दान पुण्य

मेरा विचार है कि न देने से देना अच्छा है। कोई आकर हम से कुछ माँगता है, तो हम उसको क्या देते हैं। एक दो पैसे। जो हमारे लिए कुछ नहीं है, पर उसके लिए वे एक दिन का सहारा है। हम उसको ये एक दो पैसे नहीं भी दे सकते हैं, और बार-बार माँगने पर उसको निकलवा भी सकते हैं। और उसको हट्ठा-कट्ठा या दो चार गठरियाँ बाँधे देखकर यह भी सोच सकते हैं, कि ऐसों को देना तो माँगतों की संख्या बढ़ाना है। पर याद रखना चाहिए कि जो उसको सचमुच आवश्यकता थी, (जिसको हम ठीक-ठीक कठिनता से जान सकते हैं) और हमने उसको एक दो पैसे भी नहीं दिए, तो समझ लेना चाहिए कि हमने एक ऐसे मनुष्य की सहायता नहीं की, जिसकी सहायता करना हमको उचित था, और एक भले मानस बनने का दावा करनेवाले के लिए यह बड़ी लज्जा की बात है। किसी ने बहुत अच्छा कहा है कि-जो किसी से कुछ माँगता है वह पहले मर जाता है। पर उससे पहले वह मर जाता है, जो पास होते हुए भी उसको कुछ नहीं देता, और इनकार करता है, रहीम ख़ानख़ाना बड़े बाप के बेटे थे, कवि थे, रसिक थे, और दिल भी ऐसा रखते थे कि एक-एक दोहे पर लाखों रुपए दे डालते थे। वे कहते हैं कि उसी समय तक जीना भला है जब तक कि देना न रुके, क्योंकि बिना देते रहने के जीना अच्छा नहीं लगता। कोई-कोई इसको पढ़कर कह सकते हैं कि यह बिल्कुल गढ़न्त है, भला ऐसा भी कभी हो सकता है। पर जिन्होंने लाखों रुपए दान करने वाले माघ कवि का हाल पढ़ा है, वे जानते होंगे कि यह विचार गढ़ा हुआ नहीं है। वरन् भारत में ऐसे लोग उत्पन्न हो चुके हैं, जो इस विचार के ठीक आदर्श कहे जा सकते हैं। जिस समय लक्षपति माघ के पास कुछ देने को न रहा, और उनके पास से मँगतों की भीड़ यह सोचकर धीरे-धीरे छँटने लगी, कि अब इनके पास रहना व्यर्थ है, इनके जी को चोट पहुंचाना है, तो उस समय माघ कवि से न रहा गया, वे अपने पास से लोगों को निराश लौटते देखकर बहुत खिन्न हुए, मँगतों के चेहरे पर गहरी उदासी देखकर उनका कलेजा फट गया, और उन्होंने सदा के लिए अपनी ऑंखें बन्द कर लीं।

महात्मा दधीच ने देह तक दे डाली, राजा हरिश्चन्द्र ने राजपाट तो दिया ही, दान का शेष भाग देने के लिए स्त्री पुत्र को कौन कहे अपने तक को बेंच डाला। इसी भारत में ऐसे लोग भी हो गये हैं, जिन्होंने देह का मांस तक काटकर दे डाला है, अपनी स्त्री और बच्चों को दे देने में भी पेशानी पर बल नहीं आने दिया। संस्कृत का एक कवि कहता है-कर्ण ने देह का चमड़ा, राजा शिवि ने देह का मांस, जीमूत वाहन ने जीव और दधीच ने देह की हद्दियां तक दे डालीं, क्योंकि जो बड़े लोग हैं, उनके लिए कोई ऐसी वस्तु नहीं है, कि जिसको वे न दे सकते हों। इन कई एक सतरों को पढ़कर कुछ लोग यह कह सकते हैं, कि इस विचार में यकबग्गेपन और झोंक की बू आती है। संस्कृत का श्लोक यह है-

कर्णस्त्वचा शिविर्मासं , जीवो जीमूत वाहन : ।

ददौ दधीचि चास्थीनि , किमदेय : महात्मनाम्।

कहा जा सकता है, कि यह विचार तुला हुआ और ठीक कभी नहीं है क्योंकि प्रत्येक काम को समझ बूझकर करना ही अच्छा है। बिना समझे बूझे और सोचे विचारे कोई काम करना कभी न अच्छा समझा जायेगा। मैं कहूँगा बहुत ठीक है, यह कौन कहता है कि बिना समझे बूझे ऑंख बन्द करके कोई काम किया जावे। पर क्या किसी भिखमंगे को एक दो पैसे देने में ही तमाम दुनिया की छानबीन कर डालनी चाहिए। क्या इस विचार में झोंक और यकबग्गेपन की बू नहीं आती। फिर यह कैसे सोच लिया गया कि हमारे बड़ों ने जो कुछ किया, नासमझी से किया, और जो कुछ हम सोचते हैं वह ठीक है। यदि तुम अपने मन के राजा हो, तो क्या वे लोग अपने मन के राजा नहीं थे? न जाने उस समय उन्होंने क्या समझ कर वैसा किया? क्या आज तुम उसकी ठीक-ठीक जाँच पड़ताल कर सकोगे। अभी थोड़े दिन की बात है कि रूस वालों के जहाज़ों का आना जाना रोकने के लिए कई जापानियों ने अपने जहाज़ के साथ अपने को समुद्र में डुबो दिया था, केवल इसलिए कि जिससे उनके देश की आन रहे। लेकिन जो लोग अपनी जान को ही सब कुछ समझते हैं, उनकी दृष्टि में तो इन लोगों से बढ़कर नयी समझ कोई दूसरी हो ही नहीं सकती। इसमें बात क्या है? बात यही है कि न एक विचार और एक रुचि कभी रही, और न कभी रहेगी फिर इन पचड़ों से क्या प्रयोजन? अपना-अपना काम करने के लिए ही संसार में सब आये हैं, तुम अपना काम करो, दूसरा अपना काम करता है इसमें झगड़ा क्या? वाद विवाद क्या? आप कहेंगे कि तब तो भलाई बुराई भी कुछ न ठहरी, मैं कहूँगा, आपने मेरी बातों को ही नहीं समझा। जब तक जगत है तब तक भलाई भलाई और बुराई बुराई रहेगी। पर यह बात अनुचित है कि हम भलाई को भी बुराई बतलाने का यत्न करें, और बातों की झड़ी लगाकर बुराई को भी भलाई बनाना चाहें। लोक में कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसमें अंधेरे और उँजेले दोनों पक्ष न हों; हमको यह चाहिए कि जिसमें जितना अंधेरा पहलू हो उसमें उतना अंधेरा पहलू और जितना उँजेला पहलू हो उतना उँजेला पहलू दिखलावें, ऐसा न करें कि अंधेरे पहलू को ही दिखला दिखलाकर कहने लगें कि इसमें उँजेला पहलू है ही नहीं। और मेरे कहने का जो अभिप्राय है, यही है। मैं मुख्य विषय को छोड़कर बहुत दूर निकल आया, मैं इस घड़ी इन बातों का विचार करने के लिए नहीं बैठा हूँ, इसलिए दान पुण्य क्या है? करना चाहिए या नहीं? न तो अब हम यही देखेंगे, और न इसी झगड़े को उठावेंगे कि दान किसे देना चाहिए किसे नहीं। हमें देखना यह है कि रोगियों से यह क्यों कहा जाता है कि कुछ दान पुण्य करो, क्या दान पुण्य करने से बीमारी हट जाती है? या कुछ और अभिप्राय है।

जब किसी बीमार से कोई दान पुण्य करने के लिए कहता है, तो इस कहने का भाव यह नहीं है, कि ऐसा करने से उसकी बीमारी जाती रहेगी, या बीमारी में उसको बहुत कुछ तसकीन होगी। बरन इसलिए भी ऐसा कहा जाता है, कि यदि वह कुछ भलाई करना चाहता है तो कर डाले। जो भले चंगे हैं, उनको मौत की याद रहे या न रहे, पर बीमार को मौत की याद बराबर रहती है, और वह हर घड़ी उसकी ऑंखों पर नाचा करती है, इसलिए यह बहुत सम्भव होता है, कि ऐसी बातों का प्रभाव उस घड़ी उस पर हो, और यही सोचकर लोग उससे इस तरह की बातें कहते हैं।

संस्कृत में एक कहावत है कि अच्छे कामों को तुरत कर डालो।

शुभस्य शीघ्रम्

इसलिए कि अपनी सोची हुई बात को तुम जैसे अच्छा कर या करा सकते हो, दूसरा वैसा न तो कर सकता है न करा सकता है, सिवा इसके यह भी हो सकता है, कि कुछ उलझनें पीछे ऐसी आन पड़ीं कि तुम उनमें फँस गये, और फिर तुमको उस काम के करने का अवसर हाथ न आया, और जी की बात जी ही में रह गयी। कोई बुरी बात हो और उसके लिए ऐसी नौबत आवे, तब तो कुछ हर्ज ही नहीं, उसके लिए ऐसी नौबत आयी, तो समझ लेना चाहिए कि यह एक ऐसी बात हो गयी, कि जिससे किसी का कुछ भला होते होते रह गया, और यह दुख कि बात है, इसीलिए अच्छे काम को उसी समय कर डालना अच्छा है। देखा गया है कि मरने के समय बहुत से लोग अपने लड़के बाले से बहुत सी बातें कह गये, पर उनके पीछे उनके लड़के बालों ने उनमें से एक बात को भी पूरा न किया। इसीलिए यह कहा जाता है कि जो कुछ हम करना चाहते हैं उसको हम आप कर जावें, दूसरों के भरोसे उसे कभी न छोड़ें अच्छा रास्ता यही है, कोई रुकावट आन पड़े, या काम बढ़ जावे, या कोई विवशता हो तो दूसरी बात है। यदि कोई किसी बीमार से दान पुण्य करने को कहता है, तो मानो थोड़े में उसको इन बातों की याद दिलाता है, और संकेत करता है, कि सम्हल जाओ, अब भी तुम्हारे हाथ में बहुत कुछ है।

बहुत से रुपए वाले या धन जमा करने वाले ऐसे हैं, जो यह सोचते हैं कि यह सारा रुपया या धन हमारे उड़ाने या चैन मनाने या पृथ्वी में गाड़ रखने के लिए है। पर उनको समझना चाहिए कि उनका यह विचारना ठीक नहीं है, उनके कमाने में, काम करने में धन को सम्हालने में बहुत कुछ जनता का हाथ है, इसलिए उनको चाहिए कि अपनी कमाई का बहुत कुछ हिस्सा वे लोक की भलाई में लगावें, क्योंकि ऐसा करके ही वे भले बन सकते हैं, और अपने उस कर्तव्य को पूरा कर सकते हैं कि जिसके लिए भगवान ने उनको इतने धन का स्वामी बनाया है। हम देखते हैं समुद्र से, नदियों से, तालाबों से, मेघ पानी का बहुत बड़ा हिस्सा लेते हैं, पर इस पानी को लेकर वे उनको भूल नहीं जाते, वे फिर उसी पानी को उन्हीं के ऊपर बरसाकर उनको भरते हैं, और ऐसी जगहों में उसको पहुँचाते हैं, जहाँ दूसरे रास्तों से उसका पहुँचना कठिन होता है, रुपए वाले को भी ठीक मेघ बन जाना चाहिए, नहीं तो जो न टलने वाली बातें हैं, वे होकर रहेंगी, उसके हाथ से अवसर अलबत्ता जाता रहेगा, और बदनामी गले पड़ेगी। देखा गया है कि सूम धन गाड़कर मर गये हैं, और वह धन फिर ऐसे हाथों में आया है, जिन्होंने सबसे पहले उसको धर्म के काम में ही लगाया। जो बड़े भारी सूम हैं, उनकी ऑंखें तो कभी नहीं खुलतीं, वे धन के साथ-साथ अपयश बटोरने के लिए ही संसार में आते हैं। पर बहुत से लोग ऐसे भी हैं, कि जिनकी ऑंखें विपत्ति पड़ने पर खुलती हैं, और उस समय उनसे जो करने के लिए कहा जाता है, उसको वे प्रसन्नता से करते हैं, ऐसे लोगों के लिए ही बीमारी के दिनों की दान पुण्य की सीख है। यह सीख व्यर्थ नहीं जाती। बहुत काम कर जाती है। इसकी बदौलत कितने मन्दिर, शिवालय, घाट, पोखरे, धर्मशाले बन जाते हैं, कितने सदर्वत्ता खुल जाते हैं, कितने बाग बगीचे लग जाते हैं, कि जिनसे बहुतों का भला होता है।

कितने लोग ऐसे हैं कि जो यह जानते हैं कि रुपया कैसे काम में लगाना चाहिए, वे एक नहीं सौ बहानों से दूसरों का भला करते हैं, जब-जब अवसर आता है, तब-तब उनका दया का हाथ ऊपर रहता है, जब वे इस संसार को छोड़ने लगते हैं, तब भी ऐसे-ऐसे काम कर जाते हैं, जिनकी सराहना नहीं हो सकती। यूरप अमेरिका में आप देखें मरने के दिनों में करोड़ों रुपये का दान होता है, बड़े-बडे दान पत्र लिखे जाते हैं, इन दानों की बदौलत उन देशों में आज दिन सैकड़ों कॉलेज चलते हैं, बहुत से अनाथालय बन गये हैं, कितनी बेवाओं की रक्षा होती है, बहुत से भूखे कंगालों का पेट पलता है, कितनी बड़ी-बड़ी ईजादें होती हैं, बहुत सी कलें चलती हैं, और इन्हीं सब कामों का फल यह है कि वे सब देश आज इतने फले-फूले हैं। अपने आप सोच समझकर दान करने वालों की कमी हमारे यहाँ भी नहीं है। हाँ, यूरप और अमेरिका के ढंग के दान हमारे यहाँ कम होते हैं, पर समय अब ऐसे लोगों को भी उत्पन्न करने लग गया है। जो लोग अपने देश और अपने समाज की आवश्यकताओं को अपने आप समझ सकते हैं, उन लोगों को दान पुण्य करने के लिए जगाने की आवश्यकता नहीं है। पर भूल-चूक किसमें नहीं होती? इसीलिए मरने के समय ऐसे लोगों से भी दान पुण्य की बात कही जाती है, और देखा गया है कि यह प्रयत्न भी कुछ-न-कुछ काम ही कर जाता है।

अब हम यह देखेंगे कि दान पुण्य करने से क्या रोग भी दूर हो सकते हैं? रोगी को कुछ शान्ति भी होती है? संसार में एक ही तरह के विचार के लोग नहीं होते, विचार भी बहुत लोगों का बहुत तरह का होता है। हमने ऐसे लोग भी देखे हैं, जो ग्रहों का फल पूरी तौर पर मानते हैं, और यह बात उनके जी में जमी रहती है, कि जो कुछ होता है, ग्रहों के भोग से ही होता है, इसलिए वे सदा ग्रहों को शान्त रखने की चिन्ता में रहते हैं। और जिन कामों से वे शान्त किए जा सकते हैं, उनको वे बड़े उत्साह से करते हैं। यदि उनको मालूम होता है कि मंगल आजकल अच्छा नहीं है, तो उसको प्रसन्न करने के लिए जब तक वह लाल कपड़ा, लाल गाय, गेहूँ और मूँगा दान नहीं करते, तब तक उनको चैन नहीं पड़ता, जी को न जाने कैसा एक खटका-सा बना रहता है, पर जब वह इन वस्तुओं का दान कर देते हैं, तो ऐसा ज्ञात होता है, कि उनके ऊपर का मानो एक बोझ उतर गया, और इस दशा में उनके जी को भी बहुत कुछ सन्तोष और ढाढ़स होती है, और अब आप लोग समझ सकते हैं कि इस तरह का दान ऐसे लोगों के कितने काम का है। पूजापाठ के प्रसंग में आप लोग पढ़ चुके हैं, कि जी का घबराना और बैठ जाना रोगी के लिए बहुत बुरा है, लेकिन उसका सम्हल जाना, बहल जाना, और दृढ़ हो जाना, संजीवन रस से भी बढ़कर काम देता है।

इसके सिवा साधारणतया भी यह बात देखी जाती है, कि जब किसी को कुछ छुलाकर किसी को दिया जाता है, और वह हाथ उठाकर उसको असीस देने लगता है, या जब उसके दिए हुए या संकल्प किए हुए सामानों को पाकर कुछ लोग उसका भला मनाते हुए उसके सामने से निकल जाते हैं। या भूखों कंगालों में बाँटा गया अन्न उनके कलपते हुए जी को ठण्डा करता है, और वे रोगी के भले चंगे होने के स्वर से आकाश को गुँजा देते हैं। तब रोगी के जी को बहुत कुछ भरोसा होता है, और उसके जी में एक ढाढ़स सी बँध जाती है, क्योंकि वह सोचता और समझता है कि इस तरह का किया हुआ दान कभी व्यर्थ नहीं जाता, और यह बात ऐसी है जो किसी रुग्ण का बहुत कुछ भला कर सकती है। जब हम यह मानते हैं कि रोने चिल्लाने का कॅलेजा कँपा देने वाला स्वर कितनों को उनकी सहायता के लिए तैयार कर देती है, कड़खा गाने वालों की कड़कती हुई वाणी घरों को भी तड़पा कर लड़ाई में जाने की उमंग उत्पन्न कर देती है, लेक्चर देने वालों की ओजमयी शब्दावली दो चार दस नहीं सैकड़ों को किसी मुख्य काम को कर देने के लिए कटिबद्ध कर सकती है, तो हमको यह भी मानना पड़ेगा कि सच्चे साधु महात्मा और योग्य पण्डितों की सच्चे जी से दी हुई असीस और भूखे कंगालों के मुँह की सच्ची भलाई से भरी हुई वाणी भी एक रोगी के जी को इतना बल दे सकती है कि जिससे वह अपने रोग की आपदाओं से पार पा सकता है। और ऐसी दशा में यह कोई नहीं कह सकता कि रुग्णता में किया गया दान पुण्य उसका कुछ भला नहीं कर सकता।

हम से जब कोई दान पुण्य करने के लिए कहता, तो हमको रोना आता, जी मसोस कर रह जाता, मैं सोचता, क्या भगवान ने मुझको इस योग्य बनाया है? जी में बहुत सी चाहें भरी हैं, पर क्या इस जन्म में वे पूरी होंगी? रुपए कहाँ हैं, और जब रुपए ही नहीं, तो फिर मन के लड्डू खाने से क्या होगा। लड़कपन से आज तक जी में कितने विचार उठे, पर क्या एक भी पूरे हुए? 'अधखिला फूल' में देव स्वरूप के हाथों मैंने अपने जी के बहुत से अरमान निकाले हैं, पर इस तरह क्या लेखनी की नोक से ही सारा काम करने के लिए हम इस धरती पर जनमे थे? रुपया सभी के पास थोड़े ही होता है, ऐसे भी कितने लोग हो गये हैं, जिन्होंने करोड़ों रुपए का काम अपनी बातों से करा लिया, पर हाय! क्या मैं इस योग्य भी हूँ, भगवान ऐसा बल क्या हमसे भुनगों को देता है। ऐसे लोग इस धरती पर कितने हुए, वह तो उँगलियों पर भी गिने जा सकते हैं, फिर इतनी ऊँची चाह क्यों? क्या वामन होकर कोई चाँद को छू सकता है? फिर रोवें, और तड़पें, और बस ही क्या है। पर न जाने क्यों लोग इस जी की बुझी आग को फिर धाधाका देते हैं। पर इसमें उन बेचारों की क्या चूक है, वे किसी के जी की क्या जानते हैं, हम रोने तड़पने के लिए जनमे हैं, रोते तड़पते रहें, पर वे बेचारे अच्छी बातें क्यों न कहें। तो क्या अपने मित्रों की बात मानकर हमने कुछ साधारण दान पुण्य भी नहीं किया? हम इस विषय में क्या लिखें, हमारे यहाँ दान पुण्य करके उसकी चर्चा बहुत बुरी समझी गयी है, इसलिए इस विषय में हम जीभ भी नहीं हिला सकते। हाँ, एक कवि की तरह हाथ जोड़कर हम भी भगवान से इतना कह सकते हैं कि-न तो हमारे पास विद्या है, न बल है, न गाँठ में दाम है, इसलिए हमारे ऐसे गये बीतों की पत, हे राम! तुम्हीं रख सकते हो-

नहिं विद्या नहिं बाहु बल , नहिं गाँठिन को दाम।

मोहिं अस पतित पतंग की , तू पति राखो राम।

मृत्यु क्या है

जब किसी की बीमारी बढ़ जाती है, और वह समझ लेता है कि अब बचने की आशा नहीं, तो सब ओर से हटकर उसका जी यह सोचने लगता है कि मृत्यु क्या है? मरने के पीछे क्या होगा? इसी देह तक क्या सब कुछ था, या आगे भी कुछ और है? एक दिन अचानक मेरे जी में भी ये बातें उठीं, और सबसे पहले मैं यह सोचने लगा कि मृत्यु क्या है, पर ज्यों यह बात जी में आयी, त्यों गीता के ये बचन याद आये-जैसे जीव के इस देह के लिए लड़कपन, जवानी और बुढ़ापा है, उसी तरह उसके लिए दूसरी देह को पाना (मरना) है, जो लोग धीरज वाले हैं, उनको इससे घबराहट नहीं होती-

यथा देही शरीरेऽस्मिन् , कौमारं यौवनं जरा।

तथा देहान्तर प्राप्तिधीरस्तत्र न मुह्यति।

जैसे पुराने कपड़े को उतार कर मनुष्य दूसरे नये कपड़े को पहनता है उसी तरह से पुरानी देह छोड़कर जीव दूसरी नयी देह में चला जाता है।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि र्गृीति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संजाति नवानि देही।

गीता के इन वचनों के साथ भागवत की बात भी याद पड़ी, उसमें वासुदेव जी ने कंस को समझाते हुए कहा है कि, जब मनुष्य मर जाता है तो जीव अपनी करनी के मुताबिक बेबसों की तरह दूसरी देह को पाकर अपनी पुरानी देह को छोड़ देता है-

देहे पंचत्वमापन्ने देही कर्मानुगोऽवश:।

देहान्तरमनुप्राप्य प्राक्तनं त्यज्यते वपु : ।

जैसे 'तृण जलौका' चलने के समय जब एक पाँव रख लेता है, तब दूसरा पाँव उठाता है, उसी प्रकार करनी के अनुसार जीव की भी गति है।

ब्रजस्तिष्ठ न्यदैकेन यथैवैकेन गच्छति।

यथा तृण जलौकैवं देही कर्म गतिं गत : ।

इन कई एक पंक्तियों के पढ़ने से यह बात समझ में आ गयी होगी, कि मृत्यु क्या है? जैसा गीता और भागवत ने हमको बतलाया है, उससे पाया जाता है कि मृत्यु और कुछ नहीं एक प्रकार का परिवर्तन है।

डॉक्टर लूइस फ्रान्स के एक बहुत बड़े और प्रसिद्ध विद्वान हैं, उन्होंने फ्रान्सीसी भाषा में मृत्यु के बारे में एक पुस्तक लिखी है। उसका अनुवाद फ्रान्सीसी से अंगरेजी और अंगरेजी से उर्दू में हुआ है। उर्दू किताब का नाम अल्हयात बाद लममात है। उसके चौथे बाब में मौत के बारे में जो कुछ लिखा है, वह यह बात है मौत जिन्दगी की सबसे पिछली मंजिल नहीं है, बल्कि एक तबदीली है, हम मरते नहीं, बल्कि सूरत बदलते हैं। मौत के परदे गिरना किसी बुरी हालत में पहुँचना या सदमा उठाना नहीं है, बल्कि आदमी के भाग्य का जो तमाशागाह है, यह उसका एक बहुत बड़ा असर डालने वाला सीन है। साँस चलने की तकलीफ बरबाद हो जाने या मिट जाने की अवस्था नहीं है, बल्कि एक ऐसी दर्दनाक हालत है, जो कभी नहीं टलती, न नेचर के कानून में हर तब्दीली के साथ मौजूद रहती है। सब लोग मानते हैं कि कीड़े मकोड़ों के सर्द और हिलने डुलने वाले बदामा को अपना बाहिरी लिबास चाक करना पड़ता है, जिसमें कि वह सुन्दर रंगवाली चमकीली तितली की सूरत में दिखलाई पड़े। जब तुम तितली को उसी घर देखो, जब वह अपने थोड़े दिन ठहरनेवाले ढकने से बाहर निकलती है, तो तुमको उस कैद करनेवाली जंजीर के तोड़ने से काँपती और हाँफती हुई दिखलाई पड़ेगी। उसको आराम की जरूरत है, जिसमें वह अपनी ताकत को आकाश में उड़ने के लिए इकट्ठा करे क्योंकि नेचर ने उसको इस हवा में उड़ने के लिए ही बनाया है। यही हमारी मौत की तकलीफ का नमूना है। हमको इस तरह की हर एक तकलीफ को सह लेना जरूरी है, जिसमें हम इस मिट्टी के घरौंदे छोड़कर उन अनजान लोकों में सैर के लिए तैयार हों, जो इस तरह देह छोड़ने के बाद हमारे सामने आते हैं।

कबीर साहब एक दोहे में कहते हैं कि मरने से सारी दुनिया डरती है पर मेरे मन में आनन्द है, क्योंकि पूरा और सच्चा आनन्द मरने से ही मिलता है-

मरने ते सब जग डरे , मेरे मन आनन्द।

मरने ही ते पाइये , पूरन परमानन्द।

कबीर साहब के स्वर में स्वर मिलाकर एक फारसी का कवि कहता है दौड़ना, चलना, खड़ा होना, बैठना, सोना, और मरना यह दर्जे हैं, और इनके इतना ही हर ठहरने में आनन्द होता है। कवि का भाव यह है कि जब वह दौड़ता रहता है, और थक जाता है, तो चलने लगता है, क्यों? इसलिए कि दौड़ने से चलने में आनन्द है। जब किसी को चलने में थकान होती है, तब खड़ा हो जाता है, क्योंकि चलने से खड़े होने में कम मिहनत पड़ती है। इस लिए चलने से खड़े होने में आनन्द मिलता है। जब हम खड़े नहीं रह सकते, पैर दुखने लगते हैं, या जी नहीं चाहता कि खड़े रहें, तब हम बैठ जाते हैं, क्यों कि खड़े रहने से बैठने में आनन्द होता है। यही बात बैठे न रह सकने पर सोने में है। और जब हमने देख लिया कि दौड़ने से चलने में, चलने से खड़े होने में, खड़े रहने से बैठने में, और बैठने से सोने में आनन्द है, तो हमको यह मानना पड़ेगा, कि सोने से मरने में भी आनन्द है। क्योंकि जो बात अनुभव और युग से सिद्ध है, उसमें फिर कोई तर्क-वितर्क करने का स्थान नहीं रह जाता।

गीता और भागवत में जो कुछ मौत के विषय में लिखा है, उसमें यद्यपि खुली तौर पर यह नहीं कहा गया है, कि मौत भी आनन्द का साधन है। परन्तु यदि उन वचनों पर विचार किया जावेगा तो ज्ञात हो जावेगा कि कबीर साहब और फारसी के कवि ने जो कुछ कहा है, वह सर्वथा उसी की छाया है, क्योंकि जब हम पुराना कपड़ा उतारकर नया पहनेंगे, या पुरानी न काम देने योग्य देह छोड़कर नयी और काम की देह पावेंगे, तो यह कभी सम्भव नहीं है, कि हमको आनन्द न होवे। डॉक्टर लूइस ने भी इस बात को पूरी तरह से मान लिया है। इसलिए मौत क्या ठहरी। एक ऐसी दशा जिसमें आनन्द का अनुभव होता है।

कुछ लोग ऐसे हैं, जो जीव नहीं मानते, उनका बिचार है कि जैसे पान, सोपारी, खैर और चूना जब एक परिमित परिमाण में मिलते हैं, तो लाली अपने आप पैदा हो जाती है, उसी प्रकार पाँच तत्तव जब परिमित परिमाण में मिलते हैं, तो जीवन अपने आप बन जाता है। लाली पान सोपारी खैर, चूना से अलग कोई वस्तु नहीं है। वह एक छिपी दशा में पान, सोपारी, खैर, चूना में पहले ही से मौजूद रहती है, जब यह सब इकट्ठे होते हैं, तो वह उन्हीं में से प्रकट हो जाती है, कहीं अलग से नहीं आती, यही दशा पाँच तत्तव और जीव की भी है। जो लोग इस विचार के हैं, वे यह नहीं मानते कि जीव ज्यों एक देह को छोड़ता है, त्यों दूसरी देह में चला जाता है, वे कहते हैं कि जीव जब कोई अलग है ही नहीं, तो उसका आना जाना कैसा? जब तक देह में पाँच तत्तव इस ढंग से मिले रहते हैं, कि यह चल फिर सकती है, खा पी सकती है, सोच विचार सकती है, तभी तक जीवन है, अर्थात् जीवन एक ऐसी अवस्था है, जो पाँच तत्तवों के ठीक-ठीक मिले रहने से होती है, जब पाँच तत्तवों का यह ढंग बिगड़ जाता है, और वह घट बढ़ जाते हैं, उस घड़ी उसकी वह पहली अवस्था नहीं रह जाती, जिसको हम जीवन कहते हैं, और इसी को हम लोग अपनी बोलचाल में मृत्यु कहकर पुकारते हैं। अर्थात् मौत एक ऐसी अवस्था है, जो कि जीवन का उलटा है, और ऐसी दशा में किसी जीव को मानने की आवश्यकता नहीं रहती।

आप एक घड़ी को लीजिए और उसके कल पुर्जों को देखिए, जब तक कल पुरजे अपनी जगह पर ठीक-ठीक काम देते हैं, तब तक घड़ी चलती रहती है, उसकी सुइयाँ घूमती रहती हैं और घड़ी का सारा काम होता रहता है। पर जो इन कल पुरजों में कुछ भी अन्तर हुआ, और अपनी जगह पर ठीक-ठीक काम देने से वे चूके, तो समझिए घड़ी बिगड़ी और उसका सारा काम मिट्टी हुआ। इससे यह न समझना चाहिए कि कल पुरजों के सिवा उसमें कोई शक्ति ऐसी और थी जो घड़ी को चलाती थी, और उसका सारा काम पूरा करती थी, और उस शक्ति के निकल जाने से घड़ी बिगड़ी, और उसका कुल काम रुक गया। वरन् उसके कल पुरजों का अपनी जगह पर रहना और उनका ठीक-ठीक काम देना ही उसकी शक्ति थी, सिवा इस शक्ति के उसमें और कोई शक्ति नहीं थी। यही दशा जीवन की है, इस तरह के विचार के लोग यही बतलाते हैं, वे कहते हैं कि ठीक घड़ी के कल पुरजों की दशा इस देह के कल पुरजों की भी है, जब तक पाँच तत्तव ठीक-ठीक अपनी जगह पर काम देते हैं, तब तक ये भी ठीक-ठीक चलते हैं, देह भी अपना सब काम ठीक-ठीक करती है, जहाँ पाँच तत्तव का सामंजस्य बिगड़ा, वहाँ देह के कल पुरजे भी बिगड़े और देह भी अपने समस्त कामों से रहित हुई। पर इसका यह अर्थ कभी नहीं हो सकता कि देह में जीव नाम की कोई दूसरी शक्ति मौजूद थी और वह निकलकर किसी दूसरी जगह चली गयी, और इसी से देह का सारा काम बन्द हो गया, और आदमी मर गया। कई एक दूसरे धर्म वालों का विचार भी मृत्यु के बारे में ठीक ऐसा ही, या इससे कुछ मिलता-जुलता हुआ है, इससे उनकी चर्चा यहाँ नहीं की गयी।

इस तरह के लोगों ने जैसा मृत्यु को बतलाया है, उससे भी मौत कोई डरावनी वस्तु नहीं ज्ञात होती। पाँच तत्तवों के किसी परिमित परिमाण से मिलने पर एक पुतला बना था, वह पुतला उन तत्तवों के उस अवस्था को छोड़ देने से बिगड़ गया, उसका सब सामान फिर अपने मुख्य रूप में हो गया, हवा हवा में, मिट्टी मिट्टी में, आकाश आकाश में, पानी पानी में, और तेज तेज में मिल गया। फिर अब और चाहिए क्या? बँद समुद्र बन गयी, तेज सूर्य हो गया, परमाणु पृथ्वी हुआ, अंश अखिल बना, इससे बढ़कर और कौन आनन्द की बात होगी?

मृत्यु का भय

>मृत्यु क्या है? यह आप लोगों ने समझ लिया। जैसा हमें बतलाया गया है, उससे पाया जाता है कि मृत्यु कोई ऐसी वस्तु नहीं है, कि जिससे कोई डरे। यह सच है कि मरते समय लोग घबराते हैं, जी का लोभ बेतरह सताता है, लोग यह समझकर कि संसार उन्हें छोड़ना पड़ता है, कैसा-कैसा नहीं झींखते, उनका जी कितना नहीं मलता। परन्तु कहा जाता है कि ये सब बातें थोड़ी देर के लिए हैं, जब तक जीव एक देह को छोड़कर दूसरी देह में पहुँच नहीं जाता, तभी तक के लिए हैं, पीछे ये सब बातें जाती रहती हैं, और जीव फिर अपनी वास्तविक अवस्था पर आ जाता है। जीव का यह ढंग है कि जब कुछ दिन वह कहीं रह जाता है, तो फिर उसको उसके छोड़ने के समय कुछ-न-कुछ कष्ट अवश्य होता है, कुछ-न-कुछ वह अवश्य घबराता है। जब कोई एक जगह से दूसरी जगह जाता है, या एक मकान छोड़कर दूसरे मकान में पहुँचता है, तो चाहे यह दूसरी जगह पहले से बहुत ही आराम की क्यों न हो, यह दूसरा मकान पहले मकान से बहुत ही अच्छा और बढ़ा-चढ़ा क्यों न निकले, फिर भी पहली जगह या पहला मकान छोड़ने में जी कुछ-न-कुछ अवश्य मलता है, कुछ-न-कुछ कष्ट उसको अवश्य होता है, क्योंकि उसका ढंग ही ऐसा है। फिर आप सोचें, जिस देह में वह बहुत दिनों तक रहा, उसको वह यों बिना किसी तरह की कसक के कैसे छोड़ देगा।

चाहे मौत की बातें ठीक ऐसी ही हों, जैसी की बतलाई गयी हैं। चाहे कुछ लोग ऐसे भी हों, जो मौत की बातों को ठीक ऐसा ही मानते भी हों। किन्तु साधारणतया संसार के सब लोगों के लिए मौत एक बड़ी डरावनी वस्तु है, इतनी बड़ी डरावनी कि जिससे बढ़कर कोई दूसरी डरावनी वस्तु हो ही नहीं सकती। क्या वे योगी यती जो निराले में बैठकर योग जुगुत साधते हैं और संसार की ओर फूटी ऑंख से भी देखना पसन्द नहीं करते, क्या वे साधु संत जो सब झंझटों से निर्लेप रहकर राम रस में सराबोर रहते हैं और भूलकर भी चाह की भूल-भुलैयाँ में पड़ना पसन्द नहीं करते, क्या वे पण्डित और ज्ञानी जो हरिनाम का अमृत पीते हैं और चारों ओर ज्ञान का दीया जलाते हैं, और क्या वे ज्योतिषी और गुणी जो दूरवीक्षणों से आकाश का समाचार लाते हैं और मृतक को भी जिलाने का दावा करते हैं, जिनको देखो, उन्हीं को मौत के लिए यत्न करते पावोगे। और वे इस विचार में डूबे हुए मिलेंगे, कि कैसे मौत के हाथों से छुटकारा मिले। और कैसे उसके तेज दाँत विफल कर दिए जावें। यदि वे राजे महाराजे जिनके डंके की गरज से स्वर्ग काँपता है, मौत के डर से रात में भर नींद नहीं सोते, तो वह भूखा भी जो एक टुकड़ा रोटी के लिए द्वार-द्वार घूमता फिरता है, मौत का नाम सुनकर थर्राता है, और कान पर बिना हाथ रखे नहीं रहता। गाँव की वे सीधी-सादी स्त्रियों जो माता माई का गीत गाती हुई दो बजते हुए छोटे नगारों के पीछे चलती हैं, और घर-घर भीख माँगती फिरती हैं, यदि मौत के डर से थर-थर काँपती हैं, तो घड़ी, घण्टा, शंख बजानेवाले उस पुजारी और भगत का कलेजा भी जो अपने पापों पर आठ-आठ ऑंसू रोते हैं, मौत के डर से बल्लियों उछलता है, और उसे बेचैन बनाए बिना नहीं छोड़ता। जब एक नासमझ गँवार काली के चौरे के पास बैठकर किसी बकरे की बलि देता है, और फिर उसके कटे हुए सिर को सामने रखकर उससे जय बुलाता है, और अपने बाल बच्चों की बढ़ती चाहता है, तो हम उसकी समझ पर हँसते हैं, पर मौत की लाल ऑंखों को देखकर जितना घबराया हुआ वह रहता है, उससे कम घबराया हुआ वह नहीं पाया जाता, जो नाना प्रकार के जप, होम यज्ञ करता है, और देवताओं को इसलिए मनाता है, जिससे वे उसकी सारी बलाओं को टाल दें, और उसके लड़के बालों और घरवालों को सुखी रखें।

हरिण छलांग भरता हुआ जा रहा है, इतने में उसको एक डरावनी गरज सुनायी पड़ी, उसने चौंककर सिर ऊपर किया, सामने दहाड़ता हुआ शेर दिखलाई पड़ा, यदि हरिण छलाँग भरता हुआ निकल जावे तो शेर में इतनी दौड़ नहीं जो वह उसको पकड़ सके। पर शेर सामने दिखलाई पड़ा नहीं और उसकी गरज कानों में पड़ी नहीं कि वह अपनी चौकड़ी भूला नहीं, शेर पास आता है और पास आकर उसको चीर फाड़ डालता है, पर चौकड़ी भरना दर किनार! हरिण इस घड़ी अपना पाँव तक नहीं उठा सकता, एक डग भी आगे नहीं बढ़ा सकता, इस घड़ी वह ऐसा हो जाता है, जैसे कोई किसी का हाथ-पाँव बाँध देवे। गौरैया पृथ्वी पर बैठी चारा चुग रही है, इतने में उसने अपना सिर ऊपर उठाया, सामने से एक साँप आता हुआ दिखलाई पड़ा, दोनों की ऑंखें चार हुईं, गौरैया वहीं की वहीं रही-साँप उसके पास आया, और उसको निगल गया, परन्तु उसने पर तक नहीं हिलाया, यदि वह साँप को देखते ही उड़ जाती, तो साँप भला उसको पा सकता था, किन्तु साँप को देखते ही उसकी उड़ने की शक्ति जाती रही, उसके पंख बिल्कुल व्यर्थ हो गये, ऐसा जान पड़ता था कि जैसे किसी ने उनको पकड़कर काट दिया है। पर बात क्या है जो हिरण और गौरैया की ऐसी बुरी गत हो जाती है, और शेर और साँप को देखते ही उनके औसान जाते रहते हैं। जो लोग पूरे अनुभवी हैं, वे जानते हैं कि इसमें कोई बारीक बात नहीं है, इसी को मौत का डर कहते हैं।

मरने के पहले के चिन्ह, मरने के बाद की बहुत सी दशाएँ इनसे लगाव रखने वाले बहुत से सामान, लोगों का रोना-पीटना, चीखना, चिल्लाना, सिर पटकना और छाती कूटना मौत को और डरावना बना देते हैं। एक खिले गुलाब सा लड़का जो अपनी मीठी और तुतली बोलियों से चिड़ियों सा चहकता है, जो एक उजड़े हुए घर को भी बाटिका बनाता है, जिसके भोले भाले मुखड़े पर दुख की छींट तक नहीं पड़ी हुई होती, जो हँसता खेलता रहकर रोतों को भी हँसाता है, ऊसर में भी रस का सोत बहाता है, जब अचानक फूल सा कुम्हिला जाता है, जब देखते-ही-देखते मौत की काली छाया उसके भोले भाले मुखड़े पर पड़ने लगती है, और वह पलक मारते किसी के सामने से बेबसों की तरह उठा लिया जाता है, किसी की गोद सूनी कर चला जाता है, एक दो दिन के लिए नहीं, दो चार दस बरस के लिए नहीं, जब सदा के लिए वह किसी से अलग हो जाता है, तो उस घड़ी उसके घरवालों के जी पर ही नहीं, दूसरों के जी पर भी कैसा डर छा जाता है। जब किसी कुनबे का सरदार अपने सारे कुनबे को विपन्न बना उठ जाता है, जब अपने छोटे-छोटे बच्चों को बिलखते छोड़कर कोई आशाओं से भरी स्त्री इस संसार से चल बसती है, जब चार दिन की सुहागिन का भाग्य फूटता है, जब किसी एकलौते बेटे की माँ के कर्म में आग लगती है, जब किसी अंधो या बूढ़े के हाथों की एक ही लकड़ी बरबस छिन जाती है, जब किसी दुखिया का कलेजा अचानक निकाल लिया जाता है, जब हँसते खेलते किसी पर बिजली एकबयक टूट पड़ती है, जब किसी के सिर का साया उठ जाता है, किसी की बाँह टूट जाती है, किसी की हरी-भरी फुलवारी लुट जाती है, और किसी का बसा हुआ घर उजड़ जाता है, उस घड़ी ऐसा कौन है जो कलेजा नहीं पकड़ लेता, और किसके रोएँ-रोएँ में मौत का डर समा नहीं जाता। जब किसी अरथी और जनाजे के साथ बहुत से लोग चीखते-चिल्लाते हाय-हाय मचाते, ऑंखों के सामने से निकल जाते हैं, जब उनका रोना कलपना बिसूरना और तड़पना पत्थर के कलेजे पर भी चोट करने लगता है, उस घड़ी क्या बड़े धीरज वाले का जी भी ठिकाने रहता है? क्या उसका दिल भी नहीं हिल जाता। जब मृतक को उठाते बेले या उसको पड़ा हुआ देखकर उसके घर की स्त्रियों छाती कूटती हैं, सिर लूटती हैं, बिसूर बिसूर कर अपना दुखड़ा सुनाने लगती हैं, पछाड़ खाती हैं, मुँह के बल गिरती हैं, हाथ-पाँव पटकती हैं, दीवारों पर सर दे मारती हैं, क्या उस घड़ी कलेजे का भी कलेजा नहीं दहल जाता? मेरा रघुनाथ नाम का एक भांजा था, बड़ा मनचला था, बड़ा तेज था, बड़ा होनहार था, पर बहुत दिन वह इस संसार में न रह सका, एक दिन वह अचानक बीमार हो गया, दूसरे दिन बातें करते ही करते चल बसा, और देखते-ही-देखते जानें कहाँ का सियापा आकर सारे घर में फैल गया। हमारी बहन की इस समय बुरी गत थी, उसके रोने कलपने का हाल हम क्या लिखें जिस घड़ी उसने टूटे हुए कलेजे और दर्द भरी आवाज़ से कहा कि हा! इतने देवी देवताओं को हमने मनाया, पर कोई काम नहीं आये, उस घड़ी यह मालूम होता था कि घर की हर दीवारों से भयंकरता निकली पड़ती है। पृथ्वी फोड़कर डर निकल आता है। उस घड़ी आकाश से करुणा बरस रही थी। और सारी दिशाओं में सन्नाटा छा गया था। ज्ञात होता था मौत मुँह फैलाए घूम रही है। और सारे प्राणियों को निगल जाना चाहती है।

जब देखा जाता है कि बुलबुल सा चहकने वाला, बात-बात में छेड़-छाड़कर हँसा देने वाला सदा के लिए ऐसा चुप हो जाता है कि लाख उपाय करने पर होठ तक नहीं हिला सकता। जब हम देखते हैं कि कमल की सी बड़ी-बड़ी ऑंखें पथरा जाती हैं। और उनमें कलौंस लग जाती है, जब साँसें चलने लगती हैं, दम घुटने लगता है, और रोगी हाथ पाँव पटकता है, तड़पता है, छटपटाता है। जब उसके गले में कफ आ जाता है, जीभ ऐंठ जाती है, बोलना बन्द हो जाता है, और ऑंखों से ऑंसू निकलने लगते हैं। जब कुन्दन से चमकते हुए चेहरे पर न जाने कहाँ से आकर एक बहुत ही बुरा पीलापन छा जाता है, और उसको देखते नहीं बनता, जब कल की तरह काम करने वाला हाथ रुक जाता है, कोसों घूमने वाला पाँव लकड़ी बन जाता है। जब फूल के सेज पर भी चैन न पाने वाली देह धरती पर डाल दी जाती है, चिता पर रखकर फूँक दी जाती है, या सैकड़ों मन मिट्टी के नीचे दबा दी जाती है। जब झेर को कुत्तो नोंच कर खा जाते हैं, हाथियों को चींटियाँ निगल जाती हैं, हीरे कौड़ियों के मोल बिकते हैं, और तीन लोक में न समाने वाले तीन हाथ धरती में मुँह लपेट कर पड़ रहते हैं, उस समय के सीन को देखकर ऐसा कौन वीर है जो मृत्यु के डर से काँप नहीं उठता।

प्रत्येक भाषा के कवियों ने मृत्यु के इस डरावनेपन को अपनी बोलचाल में एक विचित्र ढंग से दिखलाया है, उनमें से कुछ का रंग मैं आप लोगों को यहाँ दिखलाऊँगा। हिन्दी के एक प्रतापसिंह नामक कवि किसी की खोपड़ी को मरघट में पड़ी हुई देखकर कहते हैं-बटवे बँधो-के-बँधो रहे, गहने बनाए के बनाए रहे, अतर और फुलेल की शीशियाँ रखी की रखी रहीं। चाँदनी तनी-की-तनी रही, फूल की सेज सजाई-की-सजाई रही, मखमल के तकियों की कतारें पड़ी-की-पड़ी रहीं, माँ पुकारती रही, बाप पुकारते रहे और सुन्दरियाँ हा प्यारे! हा नाथ!! चिल्लाती हुई खड़ी की खड़ी रहीं, परन्तु मरने वाला मर गया। मरकर धूल में मिल गया, हाय! आज मरघट में चूर होकर उसकी खोपड़ी पड़ी हुई है। एक बार एक बहुत बड़े मनुष्य के शव के बचे हुए हिस्से को गीदड़ों को खाते देखकर मैं भी कह पड़ा था, प्राण निकल जाने पर-जिनको किन्नरी बरने के लिए तरसती थीं, उनको सदा साथ रहने वाली स्त्री भी साथ छोड़कर भाग जाती है-जिनकी चारपाई के पावे बहुत ही अच्छे सोने के बने हुए थे, उनकी सुन्दरी देह को लकड़ियों के ढेर पर रख कर फूँक देते हैं-आज मरघट की पृथ्वी पर वह पड़ा हुआ दिखलाई देता है, जिनकी धाक से पर्वतों का कलेजा भी दहलता था। हाय! जिनके ऊपर के मसे चौंर हिला हिला कर उड़ाए जाते थे, उनको देखते हैं कि आज गीदड़ नोच-नोच कर खा रहे हैं। बेनी कवि रथी पर शव को बिना हिले डुले पड़ा हुआ देखकर कहते हैं-राग रंग किया, युवती की संगतें कीं, उनकी चोलियों में इत्र मल मलकर हाथों को चिकना बनाया; बदन सँवारा घरबार बनाए, लोगों से प्यार बढ़ाया, चार दिन के लिए होलियों में तरह-तरह के स्वांग लाए, यों व्यर्थ हँसी दिल्लगी में दिन बिता दिये, परन्तु किसी तरह की भलाई करते न बना। हाय! आज (यह नौबत हुई) कि न तो बोलते हैं, न हिलते डुलते हैं, न ऑंख की पलकें खोलते हैं और काठ की खटोली में काठ की तरह पड़े हुए हैं। कविता यह है-

कवित्त

(1)

बाँधे रहे बटना बनाये रहे जेवरन

अतर फुलेलन की सीसियाँ धरी बरी रहीं।

तानी रही चाँदनी सोहानी रही फूले सेज

मखमल तकियन की पंगती परी रहीं।

प्रतापसिंह कहै तात मात कै पुकार रहे

नाह नाह कूकत वे सुन्दरी खरी रहीं।

खेल गयो योगी हाय मेल गयो धूल बीच

चूर ह्नै मसान खेत खोपरी परी रही।

(2)

प्रान बिन ताको त्यागि भाजत सदा की नारि

तरसत हुतीं जाको किन्नरी बरन को।

दाहते चिता पै राखि सुन्दर सरीर वाको

जाकी खाट पावा हुतो सुभ्र सोबरन को।

हरिऔध देखत मसान माहिंता को परयो

जाकी धाक काँपत करेजो भूधरन को।

चौंर होत हुती जिनैं मसक नेवारन को

तिनैं खात देख्यो नोचि नोचि गीदरन को।

(3)

राग कीने रंग कीने तरुनी प्रसंग कीने

हाथ कीने चीकने सुगन्ध लाइ चोली मैं।

देह कीने गेह कीने सुन्दर सनेह कीने

बासर बितीत कीने नाहक ठिठोली मैं।

बेनी कबि कहे परमारथ न कीने मूढ़

दिना चार स्वांग सो दिखाइ चल्यो होली मैं।

बोलत न डोलत न खोलत पलक हाय !

काठ से पड़े हैं आज काठ की खटोली मैं।

मीर अनीस कब्र की बातों पर निगाह दौड़ा कर कहते हैं, जब कब्र की गोद में सोना पड़ेगा, उस घड़ी सिवाय मिट्टी के न तो कोई बिछौना होगा, और न कोई तकिया होगी। आहा! उस तनहाई में कौन साथ देने वाला होगा, केवल कब्र का कोना होगा, और हम होंगे। नासिख कबरिस्तान का ढंग देखकर कहते हैं-अचानक एक दिन जो मैं कबरिस्तान में चला गया, तो वहाँ दुनिया में जो बड़े-बड़े बादशाह हो गये हैं, उनकी अजब हालत दिखलाई पड़ी। कहीं तो सिकन्दर का जानू फटा हुआ पड़ा था, और कहीं जमीन पर जमशेद की खोपड़ी पड़ी हुई लुढ़क रही थी। जिनके सर पर की मक्खियाँ हुमा आप उड़ाता था, देखते हैं कि आज उनकी कब्र में हद्दी तक नहीं है। अमीर मीनाई किसी बड़े आदमी की कब्र पर एक दीया भी जलता न देखकर कहते हैं सौ बत्तियों का झाड़ जिनके कोठों पर जलता था, आज वे अपनी कब्र पर एक दीपक से वास्ते भी मुहताज हैं।

मृत्यु की भयंकरता पर धार्मिक पुस्तकों ने भी खूब ही रंग चढ़ाया है। चाहे लोगों को बुराइयों से बचाने के लिए ऐसा किया गया हो, चाहे इस विचार से कि बहुत से रोग ऐसे हैं, जिनमें मरते बेले बड़ा कष्ट होता है। परन्तु यह बहुत सच है कि जितना डर मृत्यु का लोगों के जी में यों समाया नहीं रहता, उससे कहीं अधिक धार्मिक पुस्तकें लोगों के जी में मृत्यु का डर उत्पन्न कर देती हैं। जब उनमें लिखा मिलता है कि जब कभी हमारी एक उँगली यों ही दब जाती है तो उस घड़ी हमको कितनी पीड़ा होती है, हम कितना बेचैन होते हैं, इसलिए सोचो, जब ऐसी नौबत आवेगी कि हमारा कुल शरीर घुलने लगेगा, और प्राण निकलने लगेगा, उस घड़ी की पीड़ा और कष्ट कैसे होंगे। सच पूछो तो वे किसी तरह बतलाए नहीं जा सकते। साठ हजार बीछू के ढंक मारने में जो कष्ट नहीं होता, उससे भी कहीं बढ़कर कष्ट उस समय होगा। तो आप बतलावें वह कौन है जो मृत्यु का नाम सुनते ही न काँप जावेगा। जब एक पवित्र ग्रन्थ बतलाता है कि-जनमने और मरने के समय बहुत बड़ा दुख होता है-

जनमत मरत दुसह दुख भयऊ

जब एक बड़े महात्मा को भगवान से बिनती करते देखा जाता है कि मरने के समय की पीड़ा से हमको बचाना। तब आप बतलावें कि सीधे-सादे विश्वास का मनुष्य मृत्यु का नाम सुनते ही सन्न क्यों न हो जावेगा। एक संस्कृत का कवि इन्हीं विचारों से घबड़ा कर कहता है, हे भगवान! तुम्हारे कमल ऐसे पाँव रूपी पिंजड़े में हमारा मन रूपी राजहंस आज ही से बसे तो अच्छा, क्योंकि प्राण निकलने के समय कफ बात पित्त से कण्ठ के रुक जाने पर तुम्हारा स्मरण कैसे किया जा सकता है-

कृष्णस्त्वदीय पदपंकज पि अं चरान्ते अद्यैव मे वसतु मानस राजहंस : ।

प्राण प्रयाण समये कफ वात पित्तों कण्ठावरोधनविधौस्मरणं - कुतस्ते।

यद्यपि बहुत सी दशाएँ ऐसी हैं जिनमें मरने के समय काँटा चुभने के इतना भी कष्ट नहीं होता, क्योंकि प्राण देह के जिस भाग में रहता है, उसमें दु:खों के जान लेने की जैसी शक्ति चाहिए वैसी नहीं है।

संसार में कितने लोग ऐसे भी हो गये हैं, जिन्होंने मृत्यु के डरावनेपन की तनिक भी परवाह नहीं की, उनके जी में यह बात जमी ही नहीं कि मृत्यु भी कोई डरावनी क्रिया है। उन्होंने हँसते-हँसते मृत्यु का सामना किया, और बिना पेशानी पर जरा बल लाए हुए इस संसार से चल बसे। महात्मा दधीच से उनके शरीर की हद्दियों माँगी गयीं, उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, जो मेरी हद्दियों से देवतों का भला हो सकता है, तो फिर इससे बढ़कर कौन से अच्छे काम में ये लग सकती हैं। जीमूत वाहन से उसका प्राण माँगा गया, उसने उसको यों दे डाला, जैसे किसी को कोई एक बहुत ही साधारण पदार्थ दे डालता है। राणा हम्मीर ने कहा, सिंह के चलने का ढंग एक है, वीर की बात एक होती है, केला एक बार फलता है। क्या स्त्रियों का तैल और हम्मीर का हठ बार-बार चढ़ता है-

तिरिया तैल हमीर हठ चढ़ै न दूजी बार

और अपनी बात के आगे अपने प्राण का मोह कुछ न समझा। सोलह बरस के लड़के पुत्त ने कहा-चित्तौड़ के बचाने और राजपूतों के यश में धब्बा लगने देने के सामने मेरे प्राण का मूल्य कुछ नहीं है। गुरु गोविन्दसिंह के वीर हृदय वाले 'फतेह सिंह' और 'जोरावर सिंह' नाम के बालकों ने कहा, हम मरेंगे पर अपना धर्म न छोड़ेंगे। हकीकत राय ने कहा, क्या अपना धर्म छोड़ देने से बधा किए जाने में अधिक कष्ट है। राजा जयपाल की ग्लानि मृत्यु के डरावनेपन पर चढ़ बैठी, वह महमूद गज़नवी के कैद की ताब न ला सका और फूस की आग में जल मरा। कुमारिल भट्ट के खरापन का रंग मृत्यु से भी गाढ़ा हो गया, वे अपने एक अनुचित कार्य का बोझ न सम्हाल सके, और अपने हाथों चिता सजाकर जल मरे। राणा प्रताप के पुरोहित ने अपने तेज के सामने मृत्यु को खेल बना लिया, हाथ में छुरी लिए, लड़ते हुए दो भाइयों के बीच, आकर वे अड़ गये, उनको डाँटा, और जब देखा कि वे लोग फिर भी नहीं मानते, तो राज की भलाई के लिए अपने आप अपने पेट में छुरी भोंक ली, ऐसीरियन ने हँसी की, कहा-मैं समझता हूँ कि अब मैं देवता हो जाऊँगा। गलबा ने मरते समय अपनी गरदन उठाई और कहा-मारो, यदि इससे रूम में बसने वालों का कुछ भला हो सके। सिवरस ने अपना काम पूरा करने का ध्यान रखा। कहा, सावधान हो जाओ मेरे लिए दूसरा और कोई काम करने को नहीं रह गया है।

प्राणी के जी के वे भाव जो कि उसकी प्रकृति कहे जाते हैं, मरने की तनिक परवाह नहीं करते, मरने का डर इन भावों को कभी नहीं बदलता। क्या अपने को मरते देख सूम अपना सूमपन, चालाक अपनी चालाकी, भला अपनी भलमनसाहत, बेईमान अपनी बेईमानी, और वीर पुरुष अपनी वीरता कभी छोड़ सकता है। मैंने एक सूम को देखा कि वह मर रहा था, फिर भी दान करने के कुछ सामान को अपने पास लाया हुआ देखकर चट बोल उठा, क्या मैं इन वस्तुओं को दान करने से बच जाऊँगा, और ऐसा कहकर उसने कुछ सामान अपने पास से उठवा दिया। एक बूढ़े का गला कफ से घिरता जाता था, वह बोल भी कठिनता से सकता था, पर उसके जी की गाँठ न खुली, वह अपने घर वालों से यही कहता जाता था, कि हमारे शत्रुओं का पीछा कभी न छोड़ना। ऐसे भावों को छोड़कर जी के कोई-कोई भाव ऐसे भी हैं, जो बहुत साधारण समझे जाते हैं, पर जब वे जोर पकड़ जाते हैं, तो डरना तो दर किनार, मनुष्य मृत्यु को गले का हार बना लेते हैं। हम लोग देखते हैं कि कितनी स्त्रियों आन में आकर कुएँ में गिरकर मर जाती हैं, कितने लोग अपने आप अपने को गोली मार लेते हैं, ए सब ऐसे ही भावों के फल हैं। इसीलिए किसी-किसी की सम्मति है कि मृत्यु से डरना बिल्कुल बोदापन है, क्योंकि जब जी के कितने भाव ऐसे हैं, जो मृत्यु पर हावी हो जाते हैं तो फिर मृत्यु बहुत ही डरावनी कैसे मानी जा सकती है।

मृत्यु का प्रभाव

संसार में आज जो अमन दिखलाई पड़ रहा है, धुली हुई चाँदनी सी शान्ति जो चारों ओर छिटकी हुई है। जब आप यह जानेंगे कि इसमें सबसे अधिक श्रेय मृत्यु का है, तो आपको दाँतों तले उँगली दबानी पड़ेगी। आप सोचिए संसार में आज तक जितने जीव कीड़े-मकोड़े, साँप बिच्छू चिड़ियाँ और मनुष्य उत्पन्न हुए, यदि वे सबके सब जीते होते, जितने पेड़ उगे, लता बेलियाँ जनमीं, यदि वे सब मौजूद होतीं, तो आज इस पृथ्वी पर कैसी हलचल होती। न तो रहने को कहीं जगह होती, न खाने को अन्न मिलता, सब ओर जंगल खड़ा होता, और चारों ओर एक हंगामा सा बरपा रहता। किन्तु यह मृत्यु का ही कमाल है, कि आज संसार इस खलबली से बचा हुआ है। मृत्यु का प्रभाव मनुष्य के चाल चलन और विचारों पर भी कम जादू नहीं करता, उपनिषद कहते हैं, कि “बुराइयों से बचने की सबसे अच्छी औषधी मृत्यु की याद है, क्योंकि जिसको मृत्यु की स्मृति ठीक-ठीक होती है, उससे बुराई हो ही नहीं सकती और यही कारण है कि हमारे यहाँ मृत्यु की ओर दृष्टि अधिकता से फेरी गयी है। और बात-बात में उसकी याद दिलाई गयी है। हमारे यहाँ ही नहीं, संसार में जितने कवि, पण्डित, महात्मा और साधु संत हो गये हैं, उन सभी लोगों ने मृत्यु पर दृष्टि रखकर ऐसी-ऐसी बातें कही हैं, ऐसी जी में चुभ जाने वाली शिक्षाएँ दी हैं, जो अपना बहुत बड़ा प्रभाव रखती हैं। मृत्यु का मानव के हृदय पर क्या प्रभाव पड़ता है, उस घड़ी वह क्या विचारता है, उसकी स्मृति होने पर वह क्या सोचता समझता है, उसके जी में कैसे-कैसे भाव उठ खड़े होते हैं, इन बातों का निरूपण किस-किस तरह से किया गया है, यह मैं थोड़े में आप लोगों को यहाँ दिखलाता हूँ।

गोस्वामी तुलसीदासजी धन दौलत बरन् राज तक से लोगों का जी हटाते हुए कहते हैं, "धन अरब खरब तक जमा किया जा सकता है, राज की हद सूर्य के निकलने की जगह से डूबने की जगह तक हो सकती है, किन्तु जब मरना आवश्यक है, तो ये सब किस काम आवेंगे"-

अरब ख़रब लौं दरब है , उदय अस्त लौं राज।

तुलसी जो निज मरन है , तो आवै केहि काज।

वही अपने एक भजन में संसार के समस्त झंझटों से लोगों को यों चौकन्ना बनाते हैं-”मन! अवसर निकल जाने पर पछतायेगा, दुर्लभ देह पाकर तुझको चाहिए कि तू भगवान के चरणों से जी जान से लपट जा। रावण और सह्स्त्रबाहु ऐसे राजे भी कालबली से न बचे, हम-हम करके धन एकत्र किया, घर बसाए, पर अन्त में खाली हाथ उठकर चले गये। लड़के, बाले, स्त्रियों स्वार्थ में डूबी हुई हैं, तू इन सबों से प्यार मत बढ़ा, और जब ये सब अन्त में तुझको छोड़ ही देंगे, तो फिर अभी से तू ही इनको क्यों न छोड़ दे। मूर्ख! सावधान हो जा, झूठी आशाओं में मत फँस, और जो सबका स्वामी है उससे प्रेम कर क्योंकि चाह की आग भाँति-भाँति के भोगों से जो उसके लिए घी का काम देते हैं, कभी नहीं बुझती”-

मन पछितैहै अवसर बीते।

दुरलभ देह पाइ हरिपद भजु , करम बचन अरु ही तें।

सहसबाहु , दसबदन आदि नृप , बचे न काल बली तें।

हम - हम करि धन धाम सँवारे , अंत चले उठि रीते।

सुत बनितादि जानि स्वारथ रत , न करु नेह सबहीं ते।

अंतहु तोहि तजैंगे , पामर , तू न तजै अबही ते ?

अब नाथहिं अनुरागु जागु जड़ , त्यागु दुरासा जी तें।

बुझै न काम - अगिनि , तुलसी , कहुँ विषय भोग बहु घीतें।

कबीर साहब रावण की बहुत बड़ी शक्ति का वर्णन करते हुए संसार की असारता का राग यों अलपाते हैं-”मैं क्या माँगूँ, कुछ तो ठहरता ही नहीं, देखते-ही-देखते सारी सृष्टि उठती चली जाती है। जिसके पास लंका ऐसी कोट थी जिसके चारों ओर समुद्र सी खाई थी, आज उस रावण के घर का भी पता नहीं लगता। जिसके एक लाख बेटे, और सवा लाख पोते थे, उस रावण के नाम पर आज कोई दीया जलाने वाला नहीं है। चन्द्रमा और सूर्य जिसकी रसोई पकाते थे, आग जिसके कपड़ों को साफ करती थी, वह रावण अब कहाँ है? लोई सुन! रामनाम बिना (इन बखेड़ों से) छुटकारा नहीं होता।”

पद

क्या माँगों कछु थिर न रहाई।

देखत नैन चलो जग जाई।

लंका सा कोट समुद्र सी खाई , तेहि रावन घर खबरि न पाई।

इक लख पूत सवा लख नाती , तेहि रावन घर दिया न बाती।

चन्द सूरज जाके तपत रसोई , बैसन्तर जाके कपड़े धोई।

कहत कबीर सुनहु रे लोई , राम नाम बिनु मुकुत न होई।

बाबू हरिश्चन्द्र कहते हैं, उसे भी सुनिए-

“सुबह और शाम को ये चिड़ियाँ सब क्या कहती हैं, यही कि एक दिन हम सब उड़ जाएँगी। ये सब बसेरे चार दिन के लिए ही हैं, इसी प्रकार तेरा भी यहाँ कुछ नहीं है। आठ-आठ बार बज बजकर नौबतें भी तुझको यही याद दिलाती हैं कि, जाग! जाग!! देख!!! यह घड़ी कैसी दौड़ी जा रही है। इधर-उधर से ऑंधी चलती है, और वह भी तुझको यही बतलाती है, कि सावधान हो जा। तेरी जिन्दगी हवा की तरह उड़ी चली जा रही है। सामने खड़ा होकर दीया तेरी करनी पर सर धुनता है, और कहता है कि तू क्यों नहीं सुनता, एक दिन हमारी तरह तू भी बुझ जावेगा। तेरी ऑंखों के सामने से यह नदी जो बहती हुई जा रही है, वह तुझको यही समझा रही है कि एक दिन तुम्हारे जीवन प्रवाह की भी यही गति होगी। फूल बाटिकाओं में खिलखिल कर जो कुम्हला जाते हैं, वो तुझको यह बतलाते हैं कि ऐ अचेत! एक दिन तेरी भी यही दशा होगी। पर दु:ख की बात यह है कि इतने पर भी, सब कुछ देख और सुनकर भी, तू चेतता नहीं, भूला फिरता है, और जो सच्चा साहब हैं उसको बिल्कुल भूल गया है”-

साँझ सबेरे पंछी सब क्या कहते हैं कुछ तेरा है।

हम सब एक दिन उड़ जायेंगे यह दिन चार बसेरा है।

आठ बेर नौबत बज बज कर तुझको याद दिलाती है।

जाग जाग तू देख घड़ी यह कैसी दौड़ी जाती है।

ऑंधी चलकर इधर - उधर से तुझको यह समझाती है।

चेत चेत जिन्दगी हवा सी उड़ी तुम्हारी जाती है।

पत्ते सब हिल हिलकर पानी हर हर करके बहता है।

हर के सिवा कौन है तू बे यह परदे में कहता है।

दिया सामने खड़ा तुम्हारी करनी पर सिर धुनता है।

इक दिन मेरी तरह बुझोगे कहता , तू नहिं सुनता है।

रोकर गाकर हँसकर लड़कर जो मुँह से कह चलता है।

मौत मौत फिर मौत सच्च है ये ही शब्द निकलता है।

तेरी ऑंख के आगे से यह नदी बही जो जाती है।

यों ही जीवन बह जावेगा यह तुझको समझाती है।

खिल खिलकर सब फूल बाग में कुम्हला कुम्हला जाते हैं।

तेरी भी गत यही है ग़ाफिल यह तुझको दिखलाते हैं।

इतने पर भी देख औ सुनकर क्या गाफिल हो फूला है।

हरीचन्द हरि सच्चा साहब उसको बिल्कुल भूला है।

एक उर्दू का कवि कहता है “यह सुख चैन और आराम कब तक रहें, चाहें कब तक पूरी होती रहेंगी, और यदि ये सब बातें होती भी रहें तो जवानी कब तक रहेगी, धन दौलत की बात तो और टेढ़ी है, यह सदा पास नहीं रहा और यदि धन दौलत भी साथ देती रहे, तो जीवन का ही क्या, ठिकाना, कब तक रहेगा”-

यह इशरत व ऐश कामरानी कबतक।

इशरत भी हुई तो नौजवानी कबतक।

गर यह भी हुई तो दौलत है मोहाल।

दौलत भी हुई तो जिन्दगानी कबतक।

सुनिये-मेहर क्या कहते हैं, “संसार की सराय कूच की जगह है, यहाँ हर एक को हर घड़ी डर रहता है, देखो! न तो सिकन्दर रहा न दारा रहा, और न फर्रंदू है, न जमशेद है। यहाँ पथिक के समान टिके हुए हो, उठो कब तक सोते रहोगे, पथ बड़ा कठोर है परलोक की यात्रा बहुत बड़ी है, स्वर्ग में पहुँचना है, इसलिए जागो, कमर को बाँधे, बिस्तर उठाओ, रात थोड़ी अब और है। हँसी खुशी, नाच रंग, सुख चैन, और आराम-दुख दर्द रंज और मलाल, गम और मुसीबत, घमण्ड करना, ऐंठना, रोब गाँठना, और इतराना, जवानी, खूबसूरती, ठाट बाट, और धन दौलत, ये सब कुछ देर के लिए ही हैं, मृत्यु सामने हाथ बाँधे खड़ी है। और पल-पल चलने का सँदेसा सुना रही है। पत्थर की मूर्ति की तरह सब के सब बिला हिले डुले पड़े हैं, यह इन लोगों की नींद है? यह लोग पहले किस दिन जगे थे, जो इस तरह अचेत सो रहे हैं। हाय! ये लोग कैसे बेसुध से पड़े हुए हैं, इनकी नींद कैसी बला की है? यह कैसी अचेतनता की हवा चल रही है? क्या मृत्यु की नींद तो नहीं उमड़ रही है, न जाने वाले कुछ ऐसा सोये हैं कि प्रलय के दिन तक भी जागते नहीं जनाते। पर दिन का जीवन, जीवन के सुख चैन और आमोद, इस-नाश होनेवाली दृष्टि का रंग, यौवन के वैभव, कभी एक ढंग पर नहीं रहते, जो कुछ दिन हँसी खुशी और मजे के साथ बीतते हैं, तो उसके बाद ही दुख दर्द और रंज का सामना करना पड़ता है। वे सुख चैन और हँसी खुशी के दिन अब बीत गये, और दुख सामने आने लगे, जवानी बुढ़ापे के साथ बदल गयी। बढ़ती दूर हो गयी, घटती सूरत दिखलाने लगी, जब अपनी करनी की याद होती है, तो जी में क्या ख्याल आता है, कैसी लज्जा होती है, मैं फिर कहता हूँ, जागो, कमर बाँधे, बिस्तर उठाओ, थोड़ी रात और है।”

शान्ति शतक बनाने वाले शिल्हन मिश्र क्या कहते हैं, उनकी बातें भी सुनिये, “बिना जाने हुए ही फतिंगा जलते हुए दीये पर गिर पड़ता है, मछली भी बिना जाने ही मांस से ढकी हुई कटिये को पकड़ लेती है, पर हम तो जानते हुए भी विपत्ति के जाल में जकड़े हुए भोगों को नहीं छोड़ते, हाय! मोह की महिमा कैसी कठिनहै?”

“ अजानन्दाहातिं विशति शलभो दीप दहनं ,

न मीनोपि ज्ञात्वावृत वडिशमश्नाति पिशितं।

विजानन्तोप्येतान् वयमिह विपज्जाल जटिलान् ,

न मुअंचाम : कामानहह गहनो मोहमहिमा। “

कतिपय देश कालज्ञ विबुधवृन्द क्या कहते हैं, उसे भी सुनिए-

संसार के भोगों की चाह में हमने अपने जन्म को यों ही गँवा दिया हाय! हमने काँच के बदले में चिन्तामणि को बेंच डाला।” “थोड़े दिन ही इस संसार में ठहरने वाले हैं ऐसे प्राणियों के अलग हो जाने पर समझदार और धीरज वाले लोगों के लिए कष्ट की बात क्या है? क्योंकि वे थोड़े दिन के होते हैं और थोड़े दिन में ही बिला जाते हैं। फिर यह भी तो सोचने की बात है, कि इस संसार में देवते, समुद्र, और पहाड़ आदि कोई भी ऐसे नहीं हैं, जो सर्वदा रह सकें।” “देह सदा ठहरने वाली नहीं है, लाड़ प्यार के सुख भी चार दिन की चाँदनी हैं, बड़े-बड़े रोगों के घर हैं, स्त्रियों साँप की सी डरावनी हैं, घरबार एक जंजाल है, सम्पत्ति भी सदा एक ढंग पर नहीं रहती, अपने ही की करनेवाला यमराज ऐसा बैरी सिर पर सवार है, किन्तु दु:ख है कि फिर हम अच्छे कर्म नहीं करते।” “किसी पड़ोसी के घर से कुछ चोरी गया, यह सुन कर सब लोग अपने-अपने घर के बचाने में लग जाते हैं, पर यह देखने में आता है कि काल प्रतिदिन प्राणियों के देह ऐसे घर में से प्राण ऐसा प्यारा धन चुराता रहता है, किन्तु फिर भी हम लोग नहीं चौंकते, लोगो! जागो!!” “हे चित! संसार के तरह-तरह के भोगों के पास से-जो साँप के से डरावने हैं-दूर रहो। देखो न। जैसे साँप के दाँत बड़े विषाक्त होते हैं, वैसे ही इसके अवगुणों के दाँत कितने तीखे हैं, वे पल-पल विषम विष उगलने की घात में लगे रहते हैं, इसलिए उनसे मिलने वाले सुखों को मणि समझकर उनके पास जाने का साहस कभी न करो। “सूर्य निकलता है और फिर डूब जाता है, यों ही प्रतिदिन जीवन के दिन घटते रहते हैं, बहुत से कामों और तरह-तरह के झंझटों में उलझे रहने से बीतता हुआ समय जाना नहीं जाता। जनमना, मरना किसी तरह की आपदायें और बुढ़ापा को देखकर भी जी में डर नहीं समाता-ज्ञात होता है कि धोखे से अचेतना की मदिरा पीकर वसुंधरा बावली हो रही है”-

“ आदित्यस्य गतागतैरहरहै: संक्षीयते जीवनम ,

व्यापारो बहु कार्य भार वपुषा कालो न विज्ञायते।

दृष्टा जन्म जरा विपत्ति मरणम् त्रासश्च नोत्पद्यते ,

पीत्वा मोहमयी प्रमाद मदिरा उन्मत्तभूतं जगत्। “

मृत्यु बुराइयों से ही लोगों को नहीं बचाती, अच्छा काम करने और कराने में भी वह अपना बहुत कुछ प्रभाव रखती है। संसार में ऐसे लोग जो किसी काम को उचित समझकर करते हैं, बहुत थोड़े हैं। उनकी संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती है। साधारणतया ऐसे ही लोग मिलते हैं जो अपना कोई कार्य सामने रखकर काम की ओर झुकते हैं, क्योंकि मानव स्वार्थ का ही अनुचर है, वह कितना ही बेलगाव होकर चले, अपने को बिल्कुल अलग-थलग दिखलावे, पर जब किसी काम के लिए हाथ बढ़ाता है, पाँव उठाता है, सोचता विचारता है, उद्योग करता है, तभी उस काम में उसका कुछ-न-कुछ स्वार्थ पाया जाता है। माँ बाप का लड़के पर बहुत एहसान है, यदि यह कहा जावे कि लड़के का बाल-बाल उनके एहसानों के बदले में गिरों हैं, तो भी अन्यथा न होगा। मानवों के जी की यह बहुत प्यारी चाह है कि मरने के पीछे भी संसार में उनका नाम रहे, उसके बाद भी लोग उसको स्मरण करें, इसलिए माँ बाप के पीछे भी माँ बाप के नाम को संसार में अधिक नहीं तो अपने जीवन तक चलाना प्रत्येक पुत्र का बहुत बड़ा कर्तव्य है, क्योंकि माँ बाप की सारी कला और समुचित चाहों का पूरा करना संतान का बहुत बड़ा धर्म है। इन बातों को सोचकर और ऐसा करना उचित समझ कर अपने माँ बाप को या बड़ों को कम-से-कम साल भर में एक बार स्मरण करने वाले, उनके नाम पर दान देने वाले, ब्राह्मण भोजन कराने वाले, कंगाल और दीन दुखियों में धन बाँटने वाले, भाई बन्द खिलाने वाले कितने हैं? मैं समझता हूँ सैकड़ों मनुष्यों में कठिनता से दो चार निकलेंगे, पर ऐसे लोग अधिकतर मिलेंगे, जो यह सोच कर पितरों की आव भगत में कसर नहीं करते कि कहीं लापरवाह हो जाने से उनके बाल बच्चों पर न आ बने, या घर वाले आपदाओं में न फँस जावें। आप जब किसी देवी या देवते के मन्दिर में जा निकलते हैं, और धड़ल्ले से चुनरियाँ चढ़ते देखते हैं, या दूसरे चढ़ावों को चढ़ता हुआ पाते या यह देखते हैं कि धुमधाम से हवन हो रहा है, जगह-जगह ब्राह्मण बैठे पूजा-पाठ कर रहे हैं, कहीं बाजों के सहारे लोग देवी और देवतों का गुण गा रहे हैं। उनको हाथ जोड़कर मना रहे हैं, तो यह समझ लीजिए कि इन कामों की तह में मृत्यु का प्रभाव बहुत कुछ काम कर रहा है, नहीं तो इतनी तत्परता आवभगत और धुमधाम कभी देखने में न आती।

हम ठौर-ठौर सुन्दर-सुन्दर मन्दिर, अच्छे-अच्छे धर्मशाले, बहुत पोखरे, कितने ही कुएँ, सैकड़ों बाग, कई सौ पक्के घाट, कई एक कॉलिज, बना हुआ देखते हैं। कहीं सदावर्त बँटता हुआ पाते हैं, कहीं और दूसरे काम हमारी दृष्टि के सामने आते हैं, किन्तु क्या ये सब काम उचित समझ किए गये हैं, या केवल यह सोचकर बनाए गये हैं कि जिसमें दूसरे को लाभ पहुँचे, कभी नहीं। यदि आप सोचेंगे तो इन सब कामों पर आप को मृत्यु के हाथ की छाप लगी हुई दिखलाई पड़ेगी, और इन कामों के करने के जी का यही भाव पाया जावेगा कि जिसमें मरने के बाद भी संसार में कुछ दिन तक उनका नाम चले, और इन कामों के बहाने से ही लोग उसे स्मरण करते रहें।

सिक्खों के दस गुरुओं में पाँचवें गुरु अर्जुन जी थे। इनके पास रहने वालों में भाई बुङ्ढा गिने लोगों में थे, गुरु अर्जुन जी भी उनको मान्य समझते और उनका आदर करते थे। एक दिन कोई प्रसिद्ध पुरुष मर गया। उस शव के साथ जहाँ और लोग थे, वहाँ गुरु अर्जुन जी और भाई बुङ्ढा भी गये। रास्ते में भाई बुङ्ढा को यह ज्ञात हुआ कि जैसी एक कलँगी गुरु अर्जुन के सिर पर सदा रहती है, इस समय वैसी ही एक कलँगी सबके सिर पर है, यह कलँगी उनकी मरघट तक लोगों के सिर पर दिखलाई पड़ी, लेकिन जब शव को फूँककर लोग घर वापस आये, तो यह कलँगी केवल गुरु अर्जुन जी के सिर पर रह गयी थी, और किसी के सिर पर न थी। भाई बुङ्ढा ने इस भेद की बात पर विचार किया। इस बारे में गुरु अर्जुन जी से भी बातचीत की तो उनको ज्ञात हुआ कि मृतक के साथ मरघट जाते हुए उसकी गति और बेबसी देखकर मनुष्यों के जी पर जो प्रभाव पड़ता है, वैसा ही ज्ञान गुरु अर्जुन जी को सदा बना रहता है। इसलिए उनके सिर पर कलँगी सदा दिखलाई पड़ती है, पर और लोगों का ज्ञान केवल उतने ही देर के लिए था, जितनी देर तक वे मृतक के साथ रहे इसलिए उतनी ही देर तक कलँगी उनके सिर पर रही, और फिर दूर हो गयी। चाहे यह कहानी बिलकुल गढ़ी हुई हो, चाहे कलँगी की बात भी निरी रँगी और गढ़ी हो, पर इस कहानी से जो परिणाम निकलता है, वह बहुत ठीक है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मृतक का हृदय और उसका प्रभाव लोगों के जी में अच्छे विचार पैदा कर देने में जादू का काम देता है।

संसार में जितने लोग ऐसे ही हो गये हैं कि जिनसे एक दो नहीं करोड़ों प्राणियों का भला हुआ है, जिन्होंने देश का देश अपने अच्छे विचारों से सुधार दिया है, उन्हीं में बुद्धदेव भी हैं। पर क्या यह राज कुँवर यों ही अचानक संसार की भलाई के लिए कमर कस कर खड़ा हो गया। नहीं मृत्यु के दृश्य ही ने उसके जी पर वह प्रभाव डाला कि वह राजपाट तज कर किनारे हो गया, और जब तक जीता रहा संसार को यही सिखलाता रहा, कि कोई किस प्रकार मृत्यु के डरावने चंगुल से छुटकारा पा सकता है।

इतना ही नहीं, मृत्यु डाह और जलन का दरवाजा बन्द कर देती है, शत्रुता की आग बुझा देती है, प्यार की ज्योत को जगा देती है, और प्रसिध्दि के पेड़ में फल लगा देती है। मृत्यु के प्रभाव से बड़े-बड़े अत्याचारियों के हाथों से संसार को छुटकारा मिलता है, बड़ी-बड़ी जटिल बातें हल हो जाती हैं, और लोगों की ऑंखों के सामने ऐसे दृश्य आ जाते हैं, जो अपने ढंग के बहुत ही निराले और अनूठे कहे जा सकते हैं।

कोई-कोई कहते हैं कि मृत्यु से डरना या मृत्यु के सहारे लोगों पर ऐसा भाव डालना कि जिससे लोग घर बार छोड़ बैठें, बाल बच्चों को तज दें, संसार से किनारा करें, और बन बन मारे मारे फिरें, कभी अच्छा नहीं कहा जा सकता। उनका कहना है कि भारतवासी जो प्राय: सांसारिक विषयों में कच्चे निकलते हैं, अपने कामों को जैसी तत्परता से चाहिए वैसी तत्परता से नहीं कर सकते, इसका कारण क्या है। इसका कारण यही है कि जन्म से ही उनकी रग रग में संसार की असारता घुसी हुई है, फिर वह किसी काम में जी जान से लपटें तो कैसे लपटें। और यही बात है, जो उनकी सारी आपदाओं की जड़ है। वे लोग यह भी कहते हैं कि इस प्रकार के प्रभाव डालने वालों का जादू जैसा चाहिए वैसा नहीं चला, नहीं तो आज इस संसार का विचित्र रंग होता। न तो कहीं को नगर दिखलाई पड़ता, न गाँव आबाद होते, कोठे अटारियों में सन्नाटा होता, उजड़े हुए घर काटने दौड़ते, जनमने का क्रम मिट जाता, पृथ्वी मनुष्यों से शून्य होती, न कहीं बाग बगीचे होते, न हरे भरे खेत दिखलाई पड़ते, फिर किसलिए चढ़ा ऊपरी होती, क्यों बड़े-बड़े आविष्कार होते, किसलिए लोग तरह-तरह के काम करते, और क्यों रंग-रंग की कलें बनतीं। निदान जो कुछ संसार में आज मानवों की करतूतें और विभूतियाँ हैं, न तो उनमें से एक का पता होता, और न आज संसार की यह चहल पहल ही दिखाई पड़ती। किन्तु यहाँ देखना तो यह है कि ये बातें कहाँ तक ठीक हैं, जहाँ इन बातों को पढ़ कर हँसी आती है, वहाँ दुख भी होता है, कुछ-का-कुछ समझ लेना बड़ी भारी भूल है। जो लोग नाना व्यसनों में डूबे हुए हैं, धन दौलत पर मर मिटते हैं, रमणी जिनकी सर्वेसर्वा हैं, बाल बच्चे जिनके जीवन सर्वस्व हैं, अपना ही स्वार्थ जिनकी वृत्ति है। जो भलाई का नाम सुनकर चौंकते हैं, अपने काम धंधे के आगे जिनको धर्म की परवाह नहीं, जाति और देश का ध्यान नहीं, दुखी और दीन का सोच नहीं। जो सांसारिकता के कीड़े हैं, बुराइयों की मुर्ति हैं, वज्र हृदयता के पुतले हैं। दूसरों का गला काटकर जो रंगरलियाँ मनाते हैं लाखों का लहू बहाकर जो उत्सव करते हैं, देश के देश जिनके हाथों उजड़ गये, करोड़ों घर जिन्होंने फूँक दिए, उनको जगाने के लिए, उनकी ऑंखें खोलने के लिए, उनका भ्रम का परदा हटाने के लिए, उनको ठीक रास्ते पर लाने के लिए, क्या वैराग्य के विचारों से अच्छे कोई दूसरे विचार हो सकते हैं? क्या किया जाए, जो उनको सांसारिकता की दुर्बलताओं से जानकार न बनाया जाए, कामिनी कुल की पेंचीली प्रकृति का रंग न बताया जाए, घरवालों और संसार के दूसरे लोगों की शोषण परायणतायें न समझाई जाएँ, और सब से डरावनी मृत्यु का दृश्य उनको न दिखलाया जावे। परन्तु इन बातों का यह मर्म कदापि नहीं है, कि सब लोग घरबार छोड़ बैठें, और ऐसे रंग में रंग जाएँ, जिसमें एक सिरे से दूसरे सिरे तक सारा संसार उत्सन्न हो जाए।

जब कुछ घरों या किसी महल्ले में आग लगती है, और बड़े वेग से दहक उठती है, उस घड़ी जिधर से सुनो यही आवाज़ आती है, जिसको देखो यही कहता है कि-घर के बाहर निकल जाओ, मकान को छोड़ दो, घरों से असबाब बाहर निकाल दो, सब सामान सड़क पर फेंक दो, यदि लोगों की उस समय की इन बातों को सुनकर कोई यह कहने लगे कि देखो ये लोग कैसे बावले हैं, जो ऐसी बातें कहते हैं, जब लोग घर के बाहर निकल जावेंगे, मकान छोड़ देंगे तो रहेंगे कहाँ? असबाब यदि घर में न रखे जायेंगे तो कहाँ रखे जायेंगे? क्या अपने सारे सामान कोई सड़क पर डाल देता है? तो शायद कोई समझदार ऐसा न होगा, जो उसकी इन बातों को सुनकर उसे नासमझ न कहेगा। यही हाल उन लोगों का है जो जगत के जंजाल से छुटकारा दिलानेवालों को बिना समझे बूझे कोसते और भला बुरा कहते हैं। दूसरे मत वाले भूल सकते हैं, पर जिस मत में जीवन को चार भागों में बाँटा गया है, और इन चार भागों में दो बहुत बड़े-बड़े भाग पढ़ने लिखने और घरबार करने के लिए जिस मत ने रखे हैं, क्या उस मत के लोग भी संसार की असारता दिखलाने में भूले कहे जा सकते हैं? जिस मत में घर ही में उदास रहने की शिक्षा है, क्योंकि जो घर में रहकर भी बन में बसने वाले का कान काटते हैं, उनको घर बार तजने की क्या आवश्यकता है। जिस मत में उसी की बहुत बड़ाई की गयी है, जो संसार में रहकर संसार से किनारे रहे, क्योंकि त्याग की महत्ता इसी में है। क्या उस मत के लोग भी मृत्यु का डरावना चित्र खींचने में चूके माने जा सकते हैं? जब इस मत के लोग भूले नहीं कहे जा सकते, चूके नहीं माने जा सकते, और इस पर भी हम उनके मुख से वैराग्य उपजाने वाली बातें इस धुन के साथ निकलते हुए सुनते हैं, जिसकी बराबरी आज तक किसी दूसरे मत वाले से नहीं हो सकी, तो हमको यह मानना पड़ता है, कि इसमें कोई उपयोगिता है, और उपयोगिता वही है, जिसको अभी मैंने ऊपर बतलाया है।

मैं यह मानूँगा कि ठीक जिस विचार से वैराग्य उपजाने वाली बातें कही गयी हैं, अब हम लोगों में उनका वह रंग नहीं रह गया, उनके समझने बूझने में अब बड़ी भूलें की जाती हैं। इस भूल ने कितनों को काम चोर बना दिया, कितनों को आलसी कर दिया, कितनों को एक विचित्र जीव कर दिखलाया, और कितनों को कहीं का न रखा। पर ऐसा होने से क्या, अपनी नासमझी दूर करने के बदले विवेकमय विचारों के ही मिटा देने का प्रयत्न करना चाहिए। यह तो उससे भी बढ़ी हुई ना समझी होगी। जो लोग कुछ-का-कुछ समझाने के लिए ही कटिबद्ध रहते हैं, उनसे कोई सदाशा नहीं हो सकती। परन्तु जो लोग सचमुच हम लोगों की बिगड़ी हुई बातों को ठीक करना चाहते हैं, और हृदय में इन बातों का सच्चा अनुराग रखते हैं, उनको चाहिए कि बात-बात में झूठ-मूठ भारतवर्ष के दुख दर्द का गीत गाना छोड़ कर काम करें, और किसी अच्छी बात को बुरा बतलाने के बदले उसमें घुस गयी बुराइयों के दूर करने का उपाय सोचें, क्योंकि यदि किसी जाति की भलाई हो सकती है, तो यों हीं हो सकती है। एक हरे-भरे अच्छे फल लाने वाले आम को, उसमें रोग लग गया देखकर, जड़ से काट न डालना चाहिए, बरन ऐसी कृति करनी चाहिए कि जिससे उसका रोग दूर हो जावे और वह पहले ही की तरह फूलता और फलता रहे क्योंकि साहसिकता और महत्ता इसी में है।

स्वर्ग

जब किसी के जी में यह बात जम जाती है कि अब जीवन के दिन इने-गिने ही हैं, जब कूच का नगारा बजने लगता है, मौत सामने खड़ी दिखलाती है, उस समय यदि जी ठिकाने रहता है, तो बार-बार वह यह सोचता है, कि मरने के बाद क्या होगा। क्या इसी शरीर तक सब कुछ है, आगे कुछ नहीं है। प्राण क्या-क्या है, शरीर से निकलने पर कहीं जायेगा, या शरीर के साथ ही वह भी मिट्टी में मिल जायेगा। प्राय: मरने वाला ही नहीं इन बातों को सोचता, मरने वालों को देखकर बहुतों के जी में इस प्रकार के विचार उठते हैं। विचार होने पर खोज होती है, खोज से अनेक बुध्दिमानों ने यह निश्चित किया है, कि मरने के उपरान्त, धर्मशील, सत्कर्मरत, महज्जन की आत्मा जहाँ जाती है उस स्थान का नाम ही स्वर्ग है।

संसार में जितने धर्म हैं, उन सबों ने स्वर्ग के अस्तित्व को स्वीकार किया है। इस विषय में सब धर्म वाले एक राय हैं, इसमें मत भिन्नता नहीं है। परन्तु परिस्थिति और उसके आयोजनादि के विषय में एक मत नहीं है। मैं स्वर्ग के विषय में यथार्थ ज्ञान उत्पादन के लिए विशेष-विशेष धर्मों के स्वर्ग वर्णन का चित्रण यहाँ कर देता हूँ। आशा है इससे पाठकों का विशेष मनोरंजन होगा, और स्वर्ग के विषय में किस धर्म का क्या विचार है, इस पर भी प्रकाश पड़ेगा।

ऋग्वेद के निम्नलिखित मन्त्रों में स्वर्ग का वर्णन पाया जाता है-

“ ये नद्यौं रुग्रा पृथिवी च दृढ़ा ये नस्व: स्तंभित: येन नाक:।

यो अन्तरिक्षे रजसो विमान : कस्मै देवाय हविषा वि धेम। “

ऋग्वेद - 10 । 21 1-10

जिसने अन्तरिक्ष, दृढ़ पृथिवी, स्वर्लोक, आदित्य, तथा अन्तरिक्षस्थ महान जल राशि का निर्माण किया आओ उसी को भजें।

अथर्ववेद में भी उसका वर्णन है-

“ ईजानश्र्चित मारुक्षदिग्नं नाकस्य पृष्टाद् दिविमुत्पतिष्यन्।

तस्मै प्रभात नभसो ज्योतिमान् स्वर्ग : पन्था : सुकृते देवयान : । “

अथर्व . 18 । 4 । 14

जो मनुष्य सुख भोग के लोक से प्रकाशमय 'द्यौ' लोक के प्रति ऊपर उठना चाहता हुआ, और इस प्रयोजन से वास्तविक यजन करता हुआ चित् स्वरूप अग्नि का आश्रय ग्रहण करता है, उस ही शोभन कर्म वाले मनुष्य के लिए ज्योतिर्मय स्वर्ग, आत्म सुख को प्राप्त कराने वाला देव यान मार्ग, इस प्रकाश रहित संसार आकाश के बीच में प्रकाशित हो जाता है-

“ सह्स्त्रहण्यम् विपतौ अस्ययक्षौं हरेर्हं सस्य पतत : स्वर्गम्।

सदेवान्त्सर्वानुरस्यपदद्य संपश्यन् यातिभुववनानि वि श्र्वा । “

अथर्व . 18-8

स्वर्ग को जाते हुए इस ह्रियमाण या हरणशील जीवात्मा हंस के पंख सह्स्त्रो दिनों से खुले हुए हैं, वह हंस सब देवों को अपने हृदय में लिए हुए सब भुवनों को देखता हुआ जा रहा है।

मनु संहिता अध्याय 11 के श्लोक 238 और 241 में स्वर्ग का वर्णन इस प्रकार किया गया है-

“ औषधन्य गदो विद्धाद बीच विविधास्थिति:।

तपसैवप्रसिधयन्ति तपस्तेषां हि साधनम्। “

“औषध नीरोगता और विद्या बल तथा अनेक प्रकार से स्वर्ग में स्थिति तपस्या से ही प्राप्त होती है”-


“ कीटाश्र्चाहि पतंगाश्र्चपश्वश्र्च वयांसि च।

स्थावराणि च भूतानि दिवं यान्ति तपो बलात्। “

“कीट सर्प पतंग पशु पक्षी और स्थावर आदि तपो बल से ही स्वर्ग में जाते हैं।”

बौद्ध ग्रन्थों में भी स्वर्ग का निरूपण पाया जाता है-'धम्मपद' के निम्नलिखित श्लोक इसका प्रमाण है-

“ गब्भ मेके उपज्जन्तिनिरियं पाय कम्मिनो।

सगां सुगतिनोयन्ति परि निब्बन्ति अनासवा।। “

“कोई-कोई मनुष्य मृत्यु लोक में जन्म लेते हैं, पापात्मा लोग नरक में उत्पन्न होते हैं। पुण्यात्मा स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। आशातीत महात्मा गण निर्वाण में जातेहैं-

“ अन्धिभूतो अयं लोको तनु कैत्थ विपस्सति।

सकुन्तो जाल मुत्तोव अप्पो सग्गाय गच्छति।। “

“यह लोक बिल्कुल अंधकार मय है, इसमें बिरले ही कोई ज्ञानी होते हैं। जाल से मुक्त पक्षी के सामन थोड़े ही मनुष्य स्वर्ग में जाते हैं।”

संसार का प्रधान धर्म इसलाम भी है, उसका प्रधान ग्रन्थ कुरान है, उसमें भी स्वर्ग का वर्णन है। सूरा-बकर, पहला पारा की चौबीसवीं आयत यह है-

“ वोबश्शेरे अल्लजीना आमजीनं व अमेलू साहिलाते अन्नलहुम जन्नातिन , तजरी मिनत: तंहा अवहारो कुल्लमा रोज़ेक मिनहामिन समरतिन रिजकिन कालहाज़ा अल्लज़ी रोज़िकना मिनकबलो बहम तीहा ख़ालेदून। “

“जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने अच्छे काम किए, उनको यह मंगल समाचार सुना दो कि उनके लिए स्वर्ग के बाग है, जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी। जब उनमें का कोई फल (मेवा) खाने को दिया जायेगा, तो वे कहेंगे कि यह तो हमको पहले ही मिल चुका है। उनको एक ही तरह के फल मिला करेंगे। वहाँ उनके लिए पाकसाफ बीवियाँ होंगी, और उसमें सदैव रहेंगी।

सूरा सफर पहला पारा आयतन 81

“ व अल्लज़ीना कफरु व कज्ज़बू वे अयातेना ऊलाएका-असहाब नारहुम फीहा खालेदून। “

जो लोग ईमान लाए, और वे जिन्होंने नेक काम किए, वे ही स्वर्ग लोक निवासी हैं, वे हमेशा स्वर्ग में ही रहेंगे।

ईसाई धर्म का प्रधान ग्रन्थ बाइबिल है-इस ग्रन्थ में भी स्वर्ग का वर्णन पाया जाता है।

मत्ती नम्बर 13, संख्या 44

Again the kingdom of heaven is like unto treasure hid in a field; the which when a man hath found he hideth and for joy there of goeth and selleth all that he hath and buyeth that field.

“स्वर्ग का राज्य खेत में दिए हुए धन के समान है, जिसे किसी मनुष्य ने पाकर छिपा दिया और मारे आनन्द के जाकर और अपना सब कुछ बेंच कर उसे मोल ले लिया।”

हमारे पुराण ग्रन्थों में स्वर्ग का जैसा विस्तृत वर्णन है, वह अविदित नहीं है। सर्व साधारण भी उससे अभिज्ञ हैं, पुराणों का स्वर्ग वर्णन विलक्षण तो है ही, लोकोत्तर भी है। जो विशेषताएँ उसमें पाई जाती हैं, और उसकी जैसी विभूतियाँ हैं, वे सर्वथा उसकी महत्ता के अनुकूल हैं। किसी धर्म के स्वर्ग में उतना विशद, विमुग्धकर, उदात्ता, और अलौकिक महत्व नहीं पाया जाता, जितना पौराणिक स्वर्ग में। अन्य धर्मों के स्वर्ग में सांसारिक अथवा पार्थिव सुखों की प्राप्ति की ही कल्पना की गयी है, उससे आगे नहीं बढ़ा गया है। और न इस लोक के सुखों से परलोक के सुखों में विशेष आकर्षण दिखलाया गया है। परन्तु पौराणिक अथवा हिन्दू धर्म के स्वर्ग में उन लोकोत्तर विभूतियों की प्राप्ति का वर्णन है जो इस लोक में प्राप्त हो ही नहीं सकतीं। मैंने अपनी एक कविता में उनका वर्णन किया है, उसको नीचे लिखता हूँ। उसके पठन से स्वर्ग और उसकी विभूतियों का ज्ञान बहुत कुछ हो जाएगा। विस्तार भय से पुराणों की कुल रचनाओं को मैं यहाँ नहीं उठाता। कविता पुराणों के आधार से ही लिखी गयी है, अतएव उसका आशय पुराणों पर ही अवलम्बित है।

शार्दूल विक्रीड़ित

है ऐरावत सा गजेन्द्र न कहीं , है कौन देवेन्द्र सा।

है कान्ता न शची समान अपरा देवापगा है कहाँ।

श्री जैसी गिरिजा गिरा सम नहीं देखीं कहीं देवियाँ।

पाई कल्पलतोपमा न लतिका है स्वर्ग ही स्वर्ग सा। 1 ।


शोभा संकलिता नितान्त ललिता कान्ता कलालंकृता।

लीला लोल सदैव यौवन वती सद्वेशवस्त्राबृता।

नाना गौरव गर्विता गुणमयी उल्लासिता संस्कृता।

होती है दिव दिव्यता बिलसिता स्वर्गांगना सुन्दरी। 2 ।


शुध्दा सिध्दि विधायिनी अमरता आधारिता निर्जरा।

सारी आधि उपाधि व्याधि रहिता वाधादि से वर्जिता।

कान्ता कान्ति निकेतनाति सरसा दिव्या सुधा सिंचिता।

नाना भूति विभूति मुर्तिमहती है स्वर्ग स्वर्गीयता। 3 ।

जो होती न विराजमान उसमें दिव्यांग देवांगना।

जो देते न उसे प्रभूत विभुता देवेशया देवते।

नाना दिव्य गुणावली सदनजो होती नहीं स्वर्गभू।

तो पाती न महान भूति , महती होती महत्ता नहीं। 4 ।


होते म्लान नहीं प्रसून , रहते उत्फुल्ल हैं सर्वदा।

पाके दिव्यहरीतिमा बिलसती है कान्त वृक्षावली।

पत्ते हैं परिणामरम्य फल हैं होते सुधा से भरे।

है उद्यान न अन्य स्वर्ग अवनी के नन्दनोद्यानसा। 5 ।


होती है विकरालता जगत की जाते जहाँ कम्पिता।

आता काल नहीं समीप जिसके आरक्त ऑंखें किये।

होता है भय आय भीत जिसकी निर्भीकता भूति से।

जा पाते यम दूत हैं न जिसमें है स्वर्ग सा स्वर्ग ही। 6 ।


होता क्रन्दन है नहीं , न मिलता है आर्त कोई कहीं।

हाहाकार हुआ कभी न , उसने आहें सुनी भी नहीं।

देखा दृश्य न मृत्यु का , न दव से दग्धाविलोकी चिता।

है आनन्द निधनस्वर्ग विभुता उत्फुल्लता मुर्ति है। 7 ।


गाता है वह गीत पून जिससे होती मनोवृत्ति है।

लेती है वह तान रीझ जिससे है रीझ जाती स्वयं।

ऐसी है कल कंठता कलित जो है मोहती विश्व को।

है संगीत सजीव मूर्ति दिव की लोकोत्तरा अप्सरा। 8 ।


सारी मोहन मंत्र सिध्दि स्वर में , आलाप में मुग्धता।

तालों में लय में महा मधुरता , शब्दावली में सुधा।

भावों में वरभावना , सरसता उत्कण्ठता कण्ठ में।

देती है भर भूत प्रीति ध्वनि में गन्धर्व गन्धर्वता। 9 ।


जागे सात्तिवक भावभूति टलती हैं तामसी वृत्तियाँ।

देखे दिव्य दिवा विकास छिपती है भीत भूतातमा।

जाती है मिट भाव भानुकर से अज्ञान की कालिमा।

पाते हैं द्युतिलोक लोक दिव की आलोक माला मिले। 10 ।

पाते हैं बहु दीप्ति देव गण से दिव्यां गवा वृन्द से।

होते झंकृत हैं सदैव बजते वीणादि झंकार से।

हो आरंजितरत्न से बिलसते हैं मोहते लोक के।

ऑंखों में बसते सदा बिहँसते आवास हैं स्वर्ग के। 11 ।


हो हो नृत्य कला निमग्न दिखला अत्यन्त तल्लीनता।

पाँवों के वर नूपुरादि ध्वनि से संसार को मोहती।

ले ले तान महान , मंजुरव से धारा सुधा की बहा।

नाना भाव भरी परी सहित गा है नाचती किन्नरी। 12 ।


नाना रोग वियोग दु : ख दल से जो द्वंद्व से है बचा।

सारी ऋध्दि प्रसिद्ध सिध्दि निधि या जो भूति से है भरा।

जो है मृत्यु प्रपंच हीन , जिसमें हैं जीवनी ज्योतियाँ।

तो क्या है अपवर्ग , पुण्य - बल से , जो स्वर्ग ऐसा मिले। 13 ।

हिन्दी शब्द सागर संख्या 40 पृष्ठ 3749 में स्वर्ग के विषय में लिखा है-

“हिन्दुओं के सात लोकों में से तीसरा लोक जो ऊपर आकाश में द्युलोक से लेकर ध्रुव लोक तक माना जाता है, स्वर्ग कहलाता है। किसी पुराण अनुसार यह सुमेरु पर्वत पर है। देवताओं का निवास स्थान यही-स्वर्ग लोक माना गया है, और कहा गया है कि जो लोग अनेक प्रकार के पुण्य और सत्कर्म करके मरते हैं, उनकी आत्माएँ इसी लोक में जाकर निवास करती हैं। यज्ञ दान आदि जितने पुण्य कार्य किए जाते हैं, वे सब स्वर्ग की प्राप्ति के उद्देश्य से ही किए जाते हैं। कहते हैं कि इस लोक में केवल सुख ही सुख है, दु:ख, शोक, रोग मृत्यु आदि का नाम भी नहीं है। जो प्राणी जितने ही अधिक सत्कर्म करता है, वह उतने ही अधिक समय तक इस लोक में निवास करने का अधिकारी होता है। परन्तु पुण्यों का क्षय हो जाने अथवा अवधि पूरी हो जाने पर जीव को फिर कर्मानुसार शरीर धारण करना पड़ता है, और वह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक उसकी मुक्ति नहीं हो जाती। यहाँ अच्छे-अच्छे फलों वाले वृक्षों, मनोहर वाटिकाओं और अप्सराओं आदि का निवास माना जाता है।

प्राय: सभी धर्मों, देशों और जातियों में स्वर्ग और नरक की कल्पना की गयी है। ईसाइयों के विचारानुसार स्वर्ग ईश्वर का निवास स्थान है, और वहाँ फरिश्ते तथा धर्मात्मा लोग अनन्त सुख का भोग करते हैं। मुसलमानों का स्वर्ग बिहिश्त कहलाता है। मुसलमान लोग भी बिहिश्त को खुदा और फरिश्तों के रहने की जगह मानते हैं, और कहते हैं कि दीनदार लोग मरने पर वहीं जायेंगे उनका विहिश्त इन्द्रिय सुख की सब प्रकार की सामग्री से परिपूर्ण कहा जाता है। वहाँ दूध और शहद की नदियाँ तथा समुद्र हैं। अंगूरों के वृक्ष हैं, और कभी वृद्ध न होने वाली अप्सरायें हैं। यहूदियों के यहाँ तीन स्वर्ग की कल्पना की गयी है।”

स्वर्ग में देवताओं का निवास माना जाता है, हिन्दी शब्द सागर संख्या पृष्ठ 1620 में उनके विषय में यह लिखा गया है-

“वेदों में देवता शब्द से कई प्रकार के भाव लिए गये हैं। साधारणत: मंत्रो के जितने विषय हैं, वे सब देवता कहलाते हैं। सिल, लोढ़े, मूसल, खली, नदी, पहाड़ इत्यादि से लेकर घोड़े, मेढ़क, मनुष्य (नारशंस) इन्द्र, आदित्य इत्यादि तक वेद मन्त्रों के देवता हैं। कात्यायन ने अनुक्रमणिका में मंत्र के वाच्य विषय को देवता कहा है। निरुक्तकार यास्क ने देवता शब्द को दान, दीपन, और द्युस्थान गत होने से निकाला है। देवता के संबंधा में प्राचीनों के चार मत पाए जाते हैं, ऐतिहासिक, याज्ञिक, नैरुक्तिक, और आध्यात्मिक। ऐतिहासिकों के मत से प्रत्येक मंत्र भिन्न घटनाओं या पदार्थों को लेकर बना है। याज्ञिक लोग मंत्र ही को देवता मानते हैं, जैसा कि जैमिनि ने मीमांसा में स्पष्ट किया है। मीमांसा दर्शन के अनुसार देवताओं का कोई रूप, विग्रह आदि नहीं, वे मंत्रत्मक हैं। याज्ञिकों ने देवताओं को दो श्रेणियों में विभक्त किया है, सोमप और असोमप। अष्ट वसु, एकादश रुद्र, द्वादश आदित्य, प्रजापति और वषट्कार ये 33 सोमप देवता कहलाते हैं। एकादश प्रदाजा, एकादश अनुयाजा, और एकादश उपयाजा ए असोमप देवता कहलाते हैं। सोमपायी देवता सोम से सन्तुष्ट हो जाते हैं, और असोमपायी पशु से तुष्ट होते हैं। नैरुक्तिक लोग स्थान के अनुसार देवता लेते हैं, और तीन देवता मानते हैं, अर्थात् पृथिवी का अग्नि, अन्तरिक्ष का इन्द्र वा वायु और द्यु स्थान का सूर्य। बाकी देवता या तो इन्हीं तीनों के अन्तर्भूत हैं, अथवा होता, अध्वर्यु, ब्रह्मा, उद्गाता, आदि के कर्म भेद के लिए, इन्हीं तीनों के अलग-अलग नाम हैं, ऋग्वेद में कुछ ऐसे मन्त्र भी हैं, जिनमें भिन्न देवताओं में एक ही के अनेक नाम कहा है। जैसे, बुध्दिमान लोग, इन्द्र, मित्र, और अग्नि को एक होने पर भी इन्हें बहुत बतलाते हैं।” (ऋग्वेद 1।164।46)। ए ही मंत्र आध्यात्मिक पक्ष वा वेदान्त के मूल बीज हैं। उपनिषदों में इन्हीं के अनुसार एक ब्रह्म की भावना की गयी है।

प्रकृति के बीच जो वस्तुएँ प्रकाशमान, ध्यान देने योग्य और उपकारक देख पड़ीं, उनकी स्तुति या वर्णन ऋषियों ने मंत्रो द्वारा किया, जिन देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ आदि होते थे, उनकी कुछ विशेष स्थिति हुई, वे लोग धन, धन्य, युद्ध में जय, शत्रुओं का नाश आदि चाहते थे। देवता शक्ति से ऐसी ही, अगोचर सत्ताओं का भाव समझा जाने लगा, धीरे-धीरे पौराणिक काल में रुचि के अनुसार और भी अनेक देवताओं, की कल्पना की गयी। ऋग्वेद में जिन देवताओं के नाम आये हैं, उनमें से कुछ ए हैं-

अग्नि, वायु, इन्द्र, मित्र, वरुण, अश्र्चिद्वय, विश्वेदेवा, मरुद्गण, ऋतुगण, ब्रह्मणस्पति, सोम, त्वष्टा, सूर्य, विष्णु, पृश्नि; यम, पर्जन्य, अर्यमा, पूषा, रुद्रगण, वसुगण, आदित्य गण, उशना, त्रित, चैतन, अज, अहिर्बुध्न, एकयाक्त, ऋभुक्षा, गरुत्मान् इत्यादि। कुछ देवियों के नाम आये हैं, जैसे सरस्वती, सुनृता, इला, इन्द्राणी, होत्र, पृथिवी, उषा, आत्री, रोदसी, राका, सिनीवाली, इत्यादि।

ऋग्वेद में मुख्य देवता 33 माने गये हैं, जो शत्पथ ब्राह्मण में इस प्रकार गिनाये गये हैं, 8 वसु 11 रुद्र 12 आदित्य तथा इन्द्र और प्रजापति। ऋग्वेद में एक स्थान पर देवताओं की संख्या 3339 कही गयी है। 3।9।9 शतपथ ब्राह्मण और सांख्यायन श्रौत सूत्र में भी यह संख्या दी हुई है। इस पर सायण कहते हैं, कि देवता 33 ही हैं, 3339 नाम महिमा प्रकाशक है। देवता मनुष्यों से भिन्न अमर प्राणी माने जाते थे, इसका उल्लेख ऋग्वेद में स्पष्ट है। “हे असुर वरुण! देवता हों या मर्त्य (मनुष्य) हों, तुम सब के राजा हो।” (ऋक् 2।27।10)।

पीछे पौराणिक काल में जिसका थोड़ा बहुत सूत्रपात शुक और सूत के समय में हो चुका था, वेद के 33 देवताओं से 33 कोटि-देवों की कल्पना की गयी। इन्द्र, विष्णु, रुद्र, प्रजापति इत्यादि वैदिक देवताओं के रूप रंग कुटुम्ब आदि की कल्पना की गयी। द्युस्थान (आकाश) के वैदिक देवता विष्णु (जो 12 आदित्यों में थे) आगे चलकर चतुर्भुज, शंख चक्र गदा पद्म, लक्ष्मी के पति हो गये। वैदिक रुद्र जटी, त्रिशूलधारी, पर्वतों के पति, गणेश, और स्कंद के पिता हो गये। वैदिक प्रजापति वेद के वक्ता चार मुख वाले ब्रह्मा हो गये। देवताओं की भावना और उपासना में यह भेद महाभारत समय से ही कुछ-कुछ पड़ने लगा। कृष्ण के समय तक वैदिक इन्द्र की पूजा होती थी, जो पीछे बन्द हो गयी, यद्यपि इन्द्र देवताओं के राजा और स्वर्ग के स्वामी बने रहे। आजकल हिन्दुओं में उपासना के लिए, पाँच देवते मुख्य माने गये हैं, विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश, और दुर्गा। ये पंच देव कहे जाते हैं।

यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, और पुराणों के अनुसार इन्द्र चंद आदि देवते, कश्यप से उत्पन्न हुए। पुराणों में लिखा है, कि कश्यप की दिति नाम की स्त्री से दैत्य, और अदिति नाम की स्त्री से देवता उत्पन्न हुए।

बौद्ध और जैन लोग भी देवताओं को मानते हैं, और इसी पौराणिक रूप में, भेद केवल इतना है कि वे देवताओं को बुद्ध, बोधिसत्तव, वा तीर्थंकरों से निम्न श्रेणी का मानते हैं। बौद्ध लोग भी देवताओं के कई गण या वर्ग मानते हैं। चातुर, महारात्रिक, तुषिक आदि। जैन तीन चार प्रकार के देवता मानते हैं। वैमानिक या कल्पभव, कल्पातीत, ग्रैवेयक, और अनुत्तर। वैमानिक बारह हैं। सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, महेन्द्र, ब्रह्मा, अंतक शुक्र, सह्स्त्रर, नत, प्राणत, आरण, और अच्युत।”

जो अंश हिन्दी शब्द सागर से उद्धृत किये गये हैं, उनके पठन से स्वर्ग और देवताओं के विषय में पूरी अभिज्ञता प्राप्त होती है। यद्यपि विचारों में विभिन्नता और विविधाता भी अधिक है। फिर भी वेद जैसे प्रामाणिक, मान्य और अभ्रान्त ग्रन्थों को स्वर्ग और देवताओं का प्रतिपादन करते देखा जाता है। ऐसी अवस्था में स्वर्ग और देवताओं का अस्तित्व निर्विवाद, और युक्ति संगत हो जाता है। विशेष कर इस कारण से भी कि बौद्ध धर्म का भी यही सिद्धान्त है, और मुसलमान, ईसाई और यहूदी सम्प्रदाय भी इसी मत का प्रतिपादक है। आप पहले पढ़ चुके हैं, सूर्य और ध्रुव तारे के बीच में स्वर्ग का संस्थान है, यह भी कहा गया है कि स्वर्ग में देवताओं का निवास है। प्रसिद्ध देवताओं के नाम भी बतलाए गये हैं, और यह कहा गया है कि उनकी संख्या तैंतीस है। महाभारत और पुराणों में उनकी संख्या तैंतीस कोटि बताई गयी है। शास्त्रों और पुराणों में ही नहीं पवित्र वेदों में भी यह बात लिखी गयी है कि पुण्यात्मा अथच धर्मात्मा प्राणियों अर्थात् मनुष्यों का निवास मरणोपरान्त स्वर्ग में होता है। स्वर्ग में निवास देवत्व प्राप्त होने पर ही होगा। यदि यह सत्य है, तो स्वर्ग के देवताओं की संख्या तैंतीस ही क्यों होगी, तैंतीसकोटि या उससे भी अधिक क्यों न होगी, जैसा महाभारत और पुराणों में लिखा है। सूर्य यदि घड़े के समान है, तो पृथ्वी मटर के बराबर है। यदि इतनी छोटी पृथ्वी भाँति-भाँति के जीव जन्तु और मानवों से परिपूर्ण है, तो सूर्य जीवधरियों और प्राणियों से रहित होगा, इसे मतिमत्त नहीं मान सकती। सूर्य क्या, आकाश में जितने पिण्ड हैं, सब विचित्रतामय हैं, सबों में सृष्टि क्रम है, सबका आदि अन्त है, और सब अद्भुत प्राणियों और जीवों से भरे पड़े हैं। बहुत अधिक जाँच पड़ताल छानबीन और सोच-विचार के बाद बड़े-बड़े वैज्ञानिकों और विद्वानों ने यह बात बतलाई और स्वीकार की है। यदि उनका निर्णय सत्य है, तो स्वर्ग में केवल तैंतीस देवते नहीं माने जा सकते। धरातल के सब धर्म और मतवाले यह कहते और मानते हैं कि जितने पुण्यात्मा प्राणी हैं, शरीर त्याग के बाद स्वर्ग में उनका निवास होता है। यह संख्या कितनी अधिक हो सकती है, इसको प्रत्येक मतिमान समझ सकता है। अत: स्वर्ग में तैंतीस देवताओं का ही निवास मानना वास्तविक नहीं हो सकता। यह आदिम विचार हो सकता है। किन्तु वास्तविक विचार महाभारत और पुराणों का ही माना जा सकता है, जो चिर कालिक अन्वेषण का अन्तिम परिणाम है। तैंतीस करोड़ देवतों की संख्या उनके आधिक्य की अनुमानित कल्पना भी हो सकती है, क्योंकि इस विषय में इदमित्थं नहीं कहा जा सकता।

कुछ स्वतन्त्रता विचार के लोग स्वर्ग और नरक का अस्तित्व नहीं मानते। वे कहते हैं पुण्य में प्रवृत्ति उत्पन्न करने के लिए और पाप से दूर रखने के लिए स्वर्ग और नरक की कल्पना की गयी है। बंग भाषा में महापुरुष मुहम्मद और तत्प्रवर्तित इसलाम धर्म, नामक एक ग्रन्थ है। उस ग्रन्थ में नरक स्वर्ग के विषय में जो लिखा गया है, उसका अनुवाद नीचे दिये जाता है-

“वास्तविक स्वर्ग नरक बाहर नहीं है, उनका संबंध अन्तर से है। पुण्य कर्म करने से जो आत्म प्रसाद लाभ होता है, स्वर्ग सुख और पाप करने से जो अन्तर्दाह एवं आत्मग्लानि होती है वही है नरक दण्ड। केवल पाप मार्ग गामी अज्ञानी लोगों को भय प्रदर्शन पूर्वक धर्म पथ पर लाने के लिए सादृश्यात्मक रूप से इस प्रकार की उक्तियों का प्रयोग होता आया है। कहीं-कहीं इस प्रकार का वर्णन भी है कि पापात्मा अनन्त काल तक नरक दण्ड भोगता रहता है, यह कथन यत्परो नास्ति असम्भव और अस्वाभाविक है। इससे परमात्मा के मंगल स्वरूप और न्याय विचार पर दोषारोपण होता है। मनुष्य यदि अनन्त पाप निरत होता तो यह सम्भव होता कि परमेश्वर उसके लिए रोमांचकर अनन्त दण्डों का विधान करता। छुद्र मनुष्य पर परमित पापों के लिए वह अनन्त शक्ति विधान करता रहता है, यह सोचना या कहना, पूर्ण दयामय और न्यायपरायण जगदीश्वर की अलौकिक दया और महत् प्रेम पर प्रबल दोषारोपण करना होगा। पृथ्वी के माता पिता दुष्ट सन्तान का शासन करते हैं, उसको दण्ड देते हैं, उसके मंगल के लिए, उसके चरित्र के संशोधन के लिए, उसके विनाश के लिए नहीं। जिन्होंने जनक जननी के हृदय में स्नेह और प्रेम का संचार किया है। वही परम कारुणिक मंगलमय न्यायवान ईश्वर प्रेम और न्याय के अनुरोध से संशोधन और मंगल के लिए पापी को शास्ति प्रदान करते हैं पर किसी साधारण मनुष्य के समान निकृष्ट प्रवृत्ति क्रोध विद्वेषादि के अधीन होकर उसको शास्ति दान नहीं करते, न उनमें प्रतिशोध लेने की इच्छा होती है। उनसे किसी प्रकार का अन्याय और अप्रेम का कार्य भी नहीं होता। यदि वे ऐसा करते, ईश्वर न होते, भयंकर दैत्य माने जाते। समधिक दण्ड होने पर पापी का संशोधन कहाँ हुआ ? शास्ति नवजीवन प्रदान के लिए की जाती है, मार डालने के लिए नहीं। जैसे विशेष दु:ख और कष्ट होने पर लोग कहते हैं, हमारा कष्ट असीम है, और यातना अपरिमेय। तो उसका अर्थ दु:सह यातना और महान कष्ट होता है। उसी प्रकार अपार शास्ति का अर्थ विषम शास्ति और गुरु दण्ड होगा। ईश्वर में क्रोध और प्रतिहिंसा नहीं है, वे निर्विकार, पुण्यमय प्रेममय और न्यायवान हैं। निज सृष्ट और प्रतिपालित कोट तुल्य छुद्र मनुष्य को वह देव-देव विश्व-विधाता क्रोध करके न्याय से च्युत हो अपरिमेय शास्ति प्रदान करेगा, इसका अनुमान मात्र होने पर भी हृत्कम्प होने लगता है।”

देवात्मा ईसामसीह कहते हैं, “स्वर्ग लोक यहाँ या वहाँ नहीं है, स्वर्ग अन्तस्तल में है।” “वास्तविक स्वर्ग इन्द्रियातीत चिन्मय, इन्द्रिय गोचर बाह्य नहीं है, जड़ीय उपादान से स्वर्ग लोक नहीं निर्मित हुआ है।”

प्रकृतिवादी कहते हैं जैसे जब तक घड़ी के कल पुरजे ठीक रहते हैं, तब तक उसमें गति रहती है, वह ध्वनित होती है और ठीक-ठीक समय भी बतलाती है। कलपुरजों के बिगड़ते ही, उसकी समस्त क्रियायें समाप्त हो जाती हैं, वैसे ही मानव जीवन की व्यवस्था है। जब तक पाँच तत्तवों का समन्वय अनुकूल और जीवनोपयोगी, होता है, तब तक वह बना रहता है, और मानव शरीर अपना कार्य करता रहता है। उसमें विक्षेप और तारतम्य का अवांछित मात्र में ह्रास होते ही जीवन लीला समाप्त हो जाती है। और काल पाकर जिस पंच तत्तव से प्राणी बना था, उसी में वह समा जाता है। प्रकृति का यह प्रपंच है, ब्रह्म जीव की कल्पना, कल्पना मात्र है परोक्षवाद परोक्षवाद ही है। प्रामाणिक प्रत्यक्ष वाद ही है। जो गोचर है अगोचर नहीं। अपने इन विचारों पर आरूढ़ होकर प्रकृतिवादी भी स्वर्ग नरक को कल्पित मानते हैं।

मत भिन्नता स्वाभाविक है, कहा भी है, 'मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना' किसी सिद्धान्त का आधार संस्कार होता है, जैसे वायु मण्डल में प्राणी प्रतिपालित होता है, उसका आचार विचार भी वैसा ही होता है। चित्त की वृत्ति भी विभिन्न होती है, सब का ज्ञान भी समान नहीं होता। सबकी पहुँच भी एक सी नहीं पाई जाती। इसलिए तर्क वितर्क होने पर विशिष्ट सम्मति ही ग्राह्य होती है। यदि यह सम्मति एक देशी नहीं, बहु व्यापक हो, तो उसका समादर और अधिक हो जाता है और वह लोकमान्य हो जाती है। जितने धर्म भूतल के हैं, उन सबों ने स्वर्ग और नरक का अस्तित्व स्वीकार किया है। पवित्र ऋग्वेदादि और मुसलमान, ईसाई एवम् यहूदियों के धर्म ग्रन्थों की चर्चा पूर्णतया हो चुकी है। उपस्थित विषय में किसी की मत भिन्नता नहीं है, सब एक राय हैं। आजकल अध्यात्मविज्ञान (Mismerism) मेसमेरिज्म का प्रचार भूतल के प्रधान देशों में है। योरप और अमेरिका जैसे समुन्नत प्रदेश के अनेक महात्मा अध्यात्म विज्ञान के समर्थक और प्रचारक हैं। महाभारत हो जाने पर जैसे महर्षि वेद व्यास ने एक रात को गांधारी इत्यादि के दु:खमोचन और कष्ट निवारण के लिए परलोक से दुर्योधन आदि अनेक रण में निहत वीर पुंगवों का आह्वान किया था। उस प्रकार की क्रिया आजकल योरप और अमेरिका में अधिकतर हो रही है। मीडियम (प्रतिभू) द्वारा ही मुक्तामाओं का आह्वान नहीं किया जाता है, स्वयं मुक्तात्माओं का प्रत्यक्ष आह्वान होने लगा है। इसका समर्थन बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखकर योरप और अमेरिका के बड़े-बड़े विद्वानों ने किया है। अतएव अध्यात्म विज्ञान द्वारा भी स्वर्ग के अस्तित्व की सिध्दि होती है। यह सिध्दि साधारण नहीं बहुत बड़ी इष्टि सिध्दि है।

नरक

स्वर्ग के साथ नरक के विषय में तेरहवें सर्ग में बहुत सी बातें लिखी जा चुकी हैं। जैसे स्वर्ग के विषय में भूतल के समस्त ग्रन्थ एक राय हैं, और उसके अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, उसी प्रकार नरक के विषय में भी उन ग्रन्थों की वही सम्मति है, जो स्वर्ग के विषय में है। यदि पुण्यात्मा स्वर्ग का अधिकारी माना गया है, पापात्मा को नरक का अधिकारी क्यों न माना जावेगा। पुण्य का फल यदि सद्गति है, तो पाप का परिणाम दण्ड क्यों न होगा। संसार अथवा भूतल में यदि पुण्यात्मा हैं, तो पापात्मा भी क्यों न होंगे। पापात्मा तो अधिक पाए जाते हैं, क्योंकि स्वार्थांधता और पाप परायणता ही लोगों में अधिक देखी जाती है। अतएव नियामक नियमन होना स्वाभाविक है। पापात्माओं के नियमन का स्थान ही नरक है। नरक के अस्तित्व के विषय में तेरहवें प्रसंग में स्वर्ग के साथ बहुत से प्रमाण धर्मग्रन्थों से उठाए जा चुके हैं परन्तु उसके विषय में यही नहीं लिखा गया है कि वह कहाँ है, उसकी व्यवस्था क्या है, उसका नियामक कौन है, इसी प्रकार और कितनी बातें हैं, ऐसी ही नरक के विषय में जिन पर प्रकाश नहीं डाला गया है, अभिज्ञता के लिए उन सब विषयों और बातों का ज्ञान आवश्यक है, अतएव अब मैं क्रमश: उनका वर्णन करता हूँ।

हिन्दी शब्दसागर पृष्ठ 1760 में नरक के विषय में यह लिखा है-

“पुराणों और धर्म शास्त्रों आदि के अनुसार (नरक) वह स्थान है, जहाँ पापी मनुष्यों की आत्मा, पाप का फल भोगने के लिए भेजी जाती है। वह स्थान जहाँ दुष्कर्म करने वालों की आत्मा दण्ड देने के लिए रखी जाती है। अनेक पुराणों और धर्म शास्त्रों में नरक के संबंध में अनेक बातें मिलती हैं। परन्तु इनसे अधिक प्राचीन ग्रन्थों में नरक का उल्लेख नहीं है। जान पड़ता है कि वैदिक काल में लोगों में इस प्रकार की नरक की भावना नहीं थी। मनुस्मृति में नरकों की संख्या इक्कीस बतलाई गयी है। जिनके नाम ए हैं-

तामिस्र, अंधतामिस्र, रौरव, महा रौरव, नरक, महा नरक, काल सूत्र, संजीवन, महार्बाचि, तपन, प्रत्ययन, संहात, काकोल, कुड्मल, प्रतिमुर्तिक, लौहशंकु, ऋजीष, शाल्मली, वैतरणी, असिपत्रवन, और लोह दारक।

इसी प्रकार भागवत में भी नरकों का वर्णन है, जिनके नाम इस प्रकार हैं-

तामिश्र:, अंधतामिश्र, रौरव, महारौरव, कुंभी पाक, कालसूत्र, असिपत्रवन, शूकर मुख, अंधाकूप, कृमि भोजन, संदंश, तप्त शूर्मि, बज्र कण्टक, शाल्मली, वैतरणी, पूयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीची, और अय:पान।

इनके अतिरिक्त-क्षार मर्दन, रसोगणभोजन, शूलप्रोत, दंद शूक, अवट निरोधन, पर्यावर्त्तन, और सूची मुख, ए सात नरक और भी माने गये हैं-

इनके अतिरिक्त कुछ पुराणों में और भी अनेक नरक कुण्ड माने गये हैं-जैस वसा कुण्ड, तप्त कुण्ड, सर्त कुण्ड, चक्र कुण्ड।

कहते हैं कि भिन्न-भिन्न पाप करने के कारण मनुष्य की आत्मा को भिन्न-भिन्न नरकों में सह्स्त्रो वर्ष तक रहना पड़ता है, जहाँ उन्हें बहुत अधिक पीड़ा दी जाती है। मुसलमानों और ईसाइयों में भी नरक की कल्पना है, परन्तु उनमें नरक के इस प्रकार के भेद नहीं हैं। उनके विश्वास के अनुसार नरक में सदा भीषण आग जलती रहती है। वे स्वर्ग को ऊपर और नरक को नीचे (पाताल में) मानते हैं।”

देवी भागवत द्वादश स्कंध के दशम अध्याय में स्वर्ग के विषय में लिखकर नरक के विषय में यह लिखा है-

ऐरावत समारूढो वज्रहस्त : प्रतापवान्।

देव सेवा परिवृतो राजतेऽत्र शतक्रतु : ।

याभ्यां शाया यमपुरी तत्र दण्डधरो महान्।

स्वभटैर्वेष्टि तो राजन् चित्रगुप्त पुरो गमै : ।

निज शक्ति युतो भास्वत्तानयोस्तियमो महान्।

इन पद्यों का यह अर्थ है, “जिस स्वर्ग में ऐरावतारूढ़ वज्रहस्त प्रतापवान् देव सेवा से आद्रित इन्द्र शोभायमान हैं, उसी के दक्षिण यमपुरी है, जहाँ चित्रगुप्त अग्रणी, अपने भटों से वेष्टित शक्तिमान सूर्य तनय महान् यमराज का निवास है।”

यमपुरी को ही नरक स्थान माना जाता है, जो न तो पाताल में है ना और कहीं, देवी भागवत ने जैसा बतलाया है, वह स्वर्ग के पास ही उसके दक्षिण है। नरकों का नाम क्या है, और उनकी संख्या कितनी है, हिन्दी शब्दसागर के उद्धृत, ग्रन्थ द्वारा यह बतलाया जा चुका है। उसका रूप क्या है, और उनमें कैसी यातनायें होती हैं, पुराणों में उनका वर्णन भी है। कुछ अन्तर होने पर भी यातनाओं के वर्णन में अधिकतर साम्य है। उन पर दृष्टि रखकर मैंने जो कविता की है, उसको मैं उपस्थित करता हूँ। पुराणों के श्लोक उद्धृत किये जा सकते थे, परन्तु उनका अनुवाद भी लिखना पड़ता, जिससे व्यर्थ विस्तार होता। मेरे पद्यों में आपको यह विशेषता मिलेगी, कि जितनी कुत्सित वृत्तियाँ हैं, उनकी कुत्सा करते हुए मैंने नरकों का निरूपण इस प्रकार किया है, कि दोनों का लगभग साम्य हो जाता है, जो यह प्रतिपादित करता है कि जहाँ हो वहीं पर लोक में मनुष्य यदि पाता है तो अपने कर्म के अनुसार ही फल पाता है। अन्यथा कदापि नहीं होता। अब पद्यों को देखिए। एक-एक पद्य में एक-एक नरक का वर्णन है। भ्रान्ति निवारण के लिए नरकों के नाम के नीचे लकीर बना दी गयी है।

शार्दूल विक्रीड़ित

जो होते कुछ भी सशंक मति तो होती नहीं तामसी।

हो पाती तमसावृता न दृग की ज्योतिर्मयी दृष्टि भी।

तो ब्यापी रहती नहीं हृदय में दुर्वृत्ति की कालिमा।

हैं जो लोग मदांध वे न डरते हैं अंधतामिस्र से। 1 ।


पाई है उसने प्रभूत पशुता दुर्वृत्तता दानवी।

हिंसाहिंसक जन्तु सी कुटिलता सर्पाधिराजोपमा।

उत्पात - प्रियता प्रभंजन समा दुर्दग्धाता वन्हिसी।

कुंभीपाक विपाक बात सुन क्यों काँपे महा पातकी। 2 ।


देता है अलि डंक सा दुख उसे जो पंक निक्षेप हो।

होती है अहि दंशतुल्य परुषा पीड़ा अवज्ञा हुए।

देखे कीर्ति कलापलोप उसको होता महा ताप है।

पाता है रौरव वासदीर्घ दुख है खो गौरवों को सुधी। 3


होते हैं उसके विचार तरु के पत्ते छुरा धार से।

देते हैं कर जी विपन्न बहुधा रक्ताक्त उद्बोध को।

जो हो के विकलांग भाव उसके होते व्यथा ग्रस्त हैं।

तो क्या है , असि पत्र से नरक का वासी नहीं भ्रष्टधी। 4 ।


है दुर्गंध निकेतन कलुषितानिन्द्या जुगुप्सा भरी।

है उन्माद मयी सनी रुधिर से है लोक हिन्सारता।

होती है खर गृद्धदृष्टि उनकी मांसाशिनी निम्नगा।

भू में ही कितनी करालकृतियाँ हैं कालसूत्रोपमा। 5 ।


जोंकें हों उसमें प्रकम्पित करी दुर्दंशनों से भरी।

होवें भूरि विषाक्त व्याल उसके फूत्कार से फूँकते।

हो काला न नसा कराल वह या हो आस्य नागेन्द्र का।

थोड़ी भी कब अंधाकूप परवा पापांधता को हुई। 6 ।


लोहे से विरची विभावसुवनी आलिंगिता कामिनी।

दे अत्यंत व्यथा , नुचे नरक में सर्वांग की बोटियाँ।

सारे सुन्दर गात में कुलिश से काँटे सह्स्त्रो गड़ें।

क्यों कामी सुन वज्र कण्टक कथा कामांधता से बचे। 7 ।


जो खाते पर मांस हैं न उनका क्यों मांस खाते वही।

जैसा है नर पाप कर्म मिलता है दण्ड वैसा वहाँ।

चाहे हो अथवा न हो नरक , क्या आदर्श भी है नहीं।

तो है शोक विलोक शाल्मलि क्रिया जो हो न शालीनता। 8 ।


देखा जो दृग खोल के अवनि तो है वंचितों से भरी।

हैं रोते मिलते अनेक कितने पाते नहीं रोटियाँ।

लाखों को भर पेट अन्न मिलता है स्वप्न के दृश्य सा।

लाखों की कृमि भोजनादि नरकों की नारकी वृत्ति है। 9 ।


हो हो लोलुपता प्रपंच पतिता हो लोभ से लालिता।

ला ला के पड़ फेर में ललकती हो लालसा से भरी।

पाती हैं अति यातना निरय की हो लीन दुर्नीति में।

ले ले भक्ष निकेतना अललिता लालायिता वृत्तियाँ। 10 ।


चक्की में पिसते नहीं विवश हो , होते व्यथा ग्रस्त क्यों।

कैसे शूकर से कदर्य्य मुख बा - बा लीलना चाहते।

जो होते न कुकर्म में निरत तो जाता न रेता गला।

कैसे शूकर आननादि नरकों सी यातना भोगते। 11 ।


देखे दुर्गति पाप में निरत की , कामांध की दुर्दशा।

नाना शूल समूह से हृदय को पाके विधा प्रायश : ।

बारं बार विलोक मत्तमति को मोहादि से मर्दिता।

होती हैं सुख ज्ञात संडसन की सारी सुनी साँसतें। 12 ।


होती है सुखिता पिये रुधिर के , है सोचती बोटियाँ।

प्यारा है उसको निपात वह है उत्पात उत्पादिका।

लेती है प्रिय प्राण प्राणि चय का , है त्राण देती कहाँ।

क्रूरों की कटुतामयी कुटिलता है गृध्रभक्षोपमा। 13 ।


पक्षी को पशु वृन्द को पटक के हैं पीटती प्रायश : ।

बाणों से कर विद्धगृध्र बन हैं देती बड़ी यंत्रणा।

हैं कोंचा करती सदैव , बढ़ के हैं गोलियाँ मारती।

हैं विश्वासन सी निकृष्ट , नर की मांसाशिनी वृत्तियाँ। 14 ।


जो होवें बहु गृध्र क्षीण खग को चोचें चला चोथते।

जो हों निर्बल को विदीर्ण करते हो क्रुद्ध क्रूराग्रणी।

जो निर्जीव शरीर को लिपट हों कुत्तो कई नोचते।

तो श्वानोदन दृश्य दृष्टिगत क्यों होगा न भू में किसे। 15 ।

क्या हैं प्राणि समूह को न डसते नानामुखी सर्प हो।

होती है उनकी कशा कलुषिता क्या बिज्जुतुल्या नहीं।

क्या वे लेशित शेल हैं न कितने हृत्पिण्ड को बेधते।

शूलप्रोत समान क्या न महि में हैं शूल दाताग्रणी। 16 ।


है दुर्गंधमयी महा कलुषिता बीभत्सता से भरी।

नाना मुर्ति मती कराल वदना क्रोधन्विता सर्पिणी।

है उच्छृंखलता रता बहु मुखी आतंक आपूरिता।

पापी की पतिता प्रवृत्ति सदृशा वैश्वासिनी प्रक्रिया। 17 ।


है डाला करती विपन्न मुख में सीसा गला प्रायश : ।

भोगे भी यह भोग प्राण कढ़ते हैं पातकी के नहीं।

खाता मुद्गर है , प्रहार सहता है , छूटता जी नहीं।

कैसी है यह क्षार कर्दम कृता दु : खान्त दृश्यावली। 18 ।


रोता है पिट के कठोर कर से है यंत्रणा भोगता।

बोटी है कटती , समस्त तन को है नोचती दानवी।

है दुर्भाग्य , महा विपत्ति यह है , है मर्म्म वेधी व्यथा।

जो रक्षोगण भोजनावधि अघी है छूट पाता नहीं। 19 ।

महाभारत या पुराणों में नरकों का जैसा निरूपण है, मुसलमान, ईसाई या यहूदियों के किसी धर्म में वैसा वर्णन नहीं पाया जाता। पुराणों में एक यम पुरी का वर्णन है, जिसके स्वामी यमराज हैं, और जिसमें सब प्रकार के नरक हैं। मुसलमानों ने अलग-अलग सात नरक माने हैं, जिनके नाम ये हैं-

दोज़ख, जहन्नुम, नति, होतमा, सकर, सकष्र, ज्वहिम, हाविया-इनके स्वामी का नाम इजराईल बतलाया गया है। नरकों में दण्ड एक ही प्रकार का दिया जाता है, इनमें अन्तर नहीं होता। अग्नि में दग्ध किया जाना ही दण्ड की पराकाष्ठा है। 'महा पुरुष मुहम्मद और तत्प्रवर्त्तित इसलाम धर्म' के रचयिता 82 पृष्ठ में लिखते हैं-सूरा मोमिन 8-72,73, 74

“जो उस किताब को झूठा कहते हैं, जिसको हमने अपने पैगश्म्बरों की मारफत भेजी है, आख़ीर में उनको मालूम हो जायेगा, उस वक्त जब उनको गरदनों में तौक और ज़ंजीरें होंगी, जब घसीटते हुए उनको सुलगते पानी में ले जायेंगे और फिर उनको आग में झोंकेंगे, कि वे नरक दण्ड भोग रहे हैं।”

“8वां पारासूरा आराफ” 41, 42 कुरान

“जिन लोगों ने हमारी (कुरान की) आयतों को झूठा कहा, और उनसे अकड़ बैठे, न तो उनके लिए आसमान के दरवाजेश् खोले जायेंगे, न वे स्वर्ग में दाख़िल होने पावेंगे, उनके लिए (नरक में) आग का बिछौना होगा, और उनके ऊपर आग का ही ओढ़ना होगा।”

लगभग ऐसा ही एक प्रकार का वर्णन ईसाइयों और यहूदियों के ग्रंथों में भी पाया जाता है। क्योंकि इन तीनों धर्मों में बहुत सी बातों में अधिक साम्य है। पहले आप हिन्दी शब्द सागर के उद्धृत अंश में पढ़ आये हैं कि मुसलमान और ईसाई पाताल को ही नरक मानते हैं। पुराणों में भी पातालों की संख्या सात है। नाम उनके हैं, अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, महातल, पाताल, परन्तु उनको नरक नहीं माना गया है, जैसा आप को देवी भागवत का प्रमाण पढ़ने से ज्ञात हो चुका है। जैसे पुराणों में सात पातालों का निरूपण है, उसी प्रकार सात ऊपर के लोकों का वर्णन है, वे हैं-भू, भुव:, स्व:, मह:, जन:, तप: और सत्यलोक। मुसलमानों ने,-ऊपर के आठ लोक माने हैं, उनके नाम हैं, खुल्द, दारुस्सलाम, दारुलकरार, एदन, नईम, मावा, आलयिन, फिरदोस, इनको बिहिश्त कहते हैं।

'महा पुरुष मोहम्मद एवम् तत्प्रवर्तित इसलाम धर्म्म के प्रणेता लिखते हैं-'

“अष्टम स्वर्ग में परमेश्वर विचित्र सिंहासन पर विराजमान रहते हैं। स्वर्ग लोक नाना प्रकार के अलौकिक और अद्भुत वर्णनों द्वारा वर्णित हैं। स्वर्ग का साधारण नाम बिहिश्त है।”

ऊपर के सब लोकों में सबसे उच्चस्थान सत्यलोक का है, महा रामायण कार उसी को ईश्वर का स्थान बतलाते हैं-

“ वाङ्मनो गोचरातीत: सत्यलोकेश ईश्वर:। “

गुरु नानक देव भी निराकार का निवास सत्य लोक में ही बतलाते हैं, निज निर्मित जपजो नामक ग्रन्थ में लिखते हैं-

“ सच्च खंड बसे निरंकार। “

कबीर साहब अपने 'बीजक' में कहते हैं-

“ सत्ता लोक सत पुरुख विराजै अलख अगम दोउ भाया है।

कह कबीर सत लोक सार है पुरुख नियारा भाया है। “

“ कहैं कबीर पुकारि सुनो मन भावना।

हंसा चलु सत लोक बहुर नहिं आवना। “

मुसलमान लोग जैसे सब लोकों से ऊपर ईश्वर का निवास मानते हैं, वैसे ही आर्य धर्म ग्रन्थों में भी यही विचार प्रतिपादित है। अन्तर केवल इतना है कि एक निवास स्थान का आठवाँ लोक मानता है, और दूसरा सातवाँ। उद्देश्य दोनों का एक है, दोनों ही ईश्वरीय स्थान को सर्वोच्च प्रतिपादित करना चाहते हैं। अतएव दोनों के सिध्दान्तों में कोई अन्तर नहीं है। किन्तु नरक निर्णय से सिद्धान्त का कुछ अन्तर अवश्य पड़ गया है। तथापि दोनों के पाताल सम्बन्धी लोकों की संख्या समान है। अत: इन बातों पर दृष्टि रखकर कुछ भारतीय और यूरोपीय विद्वानों की यह सम्मतिे कि मुसलिम और ईसाई सम्प्रदाय ने नीचे और ऊपर के लोकों की कल्पना आर्य धर्मानुसार की है, अधिक प्रामाणिक बन जाती है। अब इस विषय में और अधिक लिखना व्यर्थ विस्तार मात्र होगा।

जन्मान्तर वाद

पुनर्जन्म का सिद्धान्त आर्य जाति की उच्च कोटि की मननशीलता का परिणाम है। इसीलिए चाहे सनातन धर्म हो, चाहे बौद्ध धर्म उनमें पुनर्जन्म वाद स्वीकृत है। अन्य धर्मों अर्थात् ईसवी, मुसल्मान, और यहूदी धर्मों में उसका विवेक तक नहीं है। मुसल्मानों में सूफी मज़हब वालों में से किसी किसी ने कभी कभी ऐसे विचार प्रकट किए हैं, जिससे जन्मांतर वाद की ओर उनकी दृष्टि पाई जाती है, मौलाना रूम कहते हैं-

“ हफत सदाहफताद कलिब दीदा अम।

हमचु सबज़ा बारहा रोईदा अम। “

“सात सौ सत्तर कलिब (शरीर) मैंने देखा है, दूब की तरह मैं बारहा जम चुका हँ।”

परन्तु इस प्रकार के विचार शून्य के बराबर ही हैं। दूसरे ऐसे पद्यों का अर्थ भी दूसरा ही किया जाता है। मौलाना रूम के सात सौ सत्तर कषलिब का अर्थ सात सौ सत्तर समाधि सम्बंधी अवस्था किया जाता है, यद्यपि इस अर्थ का बाधक-दूब की तरह जमना है, फिर भी अपना पक्ष प्रतिपादन में कसर नहीं की जाती है। बाइबिल को आद्योपान्त देख जाइये उसमें मृतक को ईसामसीह द्वारा जीवित करने के अनेक कथानक मिलेंगे। परन्तु पुनर्जन्म का प्रसंग कहीं नहीं पाया जाता। यहूदियों के धर्म ग्रन्थ तौरेत की भी यही अवस्था है। इसलिए इसी सिद्धान्त पर उपनीत होना पड़ता है कि भूतल में यदि जन्मान्तर वाद प्रतिपादक हैं तो वैदिक धर्म और बौद्ध धर्म ही, अन्य कोई धर्म नहीं।

आर्य जाति का सबसे प्राचीन, प्रामाणिक और मान्यग्रन्थ ऋग्वेद है। पाश्चात्य विद्वानों ने भी उसको ईसवी सन् से चार सह्स्त्र वर्ष पहले का माना है। भूतल की लाइव्रेरी (पुस्तकागार) में इतना प्राचीन कोई ग्रन्थ नहीं है, यहाँ के धर्म निर्णायक पवित्र ग्रन्थों में भी उसको प्राधन्य प्राप्त है, क्योंकि धर्म, सदाचार, एवम् सत्कर्म अथच सद्विवेक सम्बंधी जितने आचार विचार हैं, उन सबका आदि निरूपण कर्ता भी ऋग्वेद ही है, उसी की छाया समस्त धरातल के धर्म ग्रन्थों पर पड़ी दृष्टिगत होती है। जन्मान्तरवाद के विषय में उसकी निम्नलिखित पंक्तियाँ प्रबल प्रमाण स्वरूपा हैं-

“ असुनीते पुनरस्मासु चक्षु: पुन: प्राण मिहनो धोहि भोगम्।

ज्योक पश्येम सूर्य मुच्चरन्त मनुमते मृडयान : स्वस्ति। 1 ।

पुनर्नो असुं पृथिवी ददातु पुनद्र्यौ दैवी पुनरन्तरिक्षम्।

पुनर्न : सोमस्तन्वं ददातु पुन : पूषां पथ्यांया स्वस्ति : । 2 ।

ऋग , अ . 8 । अ . 1 । ब . 23 मन्त्र . 677 ।

“हे सुखदायक परमेश्वर आप कृपा करके पुनर्जन्म में हमारे गात्र में उत्तम नेत्र आदि सब इन्द्रियां स्थापन कीजिए, अर्थात् मन, बुध्दि, चित्त, अहंकार बल पराक्रम आदि युक्त पुनर्जन्म हमें दीजिए। इस संसार में अर्थात् इस जन्म और पर जन्म में हम लोग उत्तम उत्तम भोगों को प्राप्त हों, तथा हे भगवान् आपकी कृपा से सूर्य लोक, प्राण और आपको विज्ञान तथा प्रेम से सदा देखते रहें, हे अनुमते! सबको मान देने वाले सब जन्मों में हम लोगों को सुखी रखिये जिससे हम लोगों को स्वस्ति मिले।1। हे सर्व शक्तिमान! आपके अनुग्रह से हमारे लिए बारम्बार पृथ्वी प्राण को प्रकाश चक्षु को और अन्तरिक्ष नानादि अवकाशों को देते रहें। पुनर्जन्म में सोम अर्थात् औषधियों का रस हमको उत्तम शरीर देने में अनुकूल रहे। तथा पुष्टि देने वाला परमेश्वर कृपा करके सब जन्मों में हमको सब दु:ख निवारण करने वाली पथ्य स्वरूपा स्वस्ति देता रहे।”

ऋग्वेदादि भाषयम् भिक्षपृष्ट 212, 213

ऋग वेदालोचन ग्रन्थ देखने से ज्ञात होता है, कि पुनर्जन्म का निरूपण यजुर्वेद और अथर्ववेद में भी है, ग्रन्थकारों ने इस विषय की जो तालिका दी है वह नीचे उद्धृत की जाती है-

पुनर्मन: (यजु:-4-15)

द्वेस्टती (यजु:-19-47)

पुनर्मैत्विन्द्रियं (अथर्व का, 7 अनु. 6 व. 27)

आयोद्धार्माणि (अथर्व का. 5 अनु. 1.व. 1मं. 2)

ऋग्वेदालोचन, पृष्ठ 295

माननीय मनुस्मृतिकार पुनर्जन्म के विषय में यह लिखते हैं-द्वादश अध्याय श्लोक 57, 58।

लूताहि शरटा नाझतिश्र्चारन्बुचारिणाम्।

हिंस्त्राणाअंचपिशाचानांस्तेनो विप्र : सह्स्त्रश : । 57 ।

तृणगुल्मलतानाश्र्च क्रव्यादा द्रृंष्टिणामपि।

क्रूर कर्म्मकृताअचैव शतशोगुरु तल्पग : । 58 ।

“सोना चुराने वाले ब्राह्मण, उर्ण नाग, सर्प, कृकलास, जलचर मगर आदि जन्तु और हिंसाशील पिशाच आदि योनि में सह्स्त्र बार जन्म लेते हैं।57। गुरु स्त्री हरने वाले तृण गुल्मलता आम मांस भक्षक जन्तु सिंह आदि तथा क्रूर कर्म करने वाले व्याघ्र आदि योनि में सौ बार जन्म लेते हैं।58।

श्रीमद्भगवद्गीताकार पुनर्जन्म के विषय में क्या कहते हैं, यह लिखने के पहले मैं यह प्रमाणित कर देना चाहता हूँ कि वह कितना प्रामाणिक ग्रन्थ है। धरातल का कोई ऐसा धर्म नहीं है, जिसके प्रधान और मान्य पुरुषों में अनेकों ने जिसकी महत्ता खुले दिल से न स्वीकार की हो, और जिसको महाग्रन्थ न माना हो। मेरे पास सब सम्मतियों के उठाने का स्थान नहीं है, कतिपय सम्मतियाँ प्रमाण स्वरूप उपस्थित की जाती हैं। जर्मनी के प्रसिध्द विद्वान विलियमवानहम बाल्ड (Williamvanhum bold) कहते हैं-

"The geeta is the most beautiful, perhaps, the only true philosophical song existing in any known tongue."

“श्री गीता सब से सुन्दर गीत है संसार की सभी भाषाओं में यह अद्वितीय दार्शनिक गीत है।”

कल्याण का भगवद्गीतांक, पृष्ठ 244

अमरीकन ग्रन्थकार मिस्टर वू्रक्स कहते हैं-

Geeta is India's contribution to the future religion of the world.

“भावी विश्व धर्म के निर्माण में भारत की ओर से गीता के रूप में बहुत अधिक सहायता मिलेगी” कल्याण का भगवद्गीतांक, पृष्ठ 190

“गीता भारत के विभिन्न मतों को मिलाने वाली रज्जु तथा राष्ट्रीय जीवन की अमूल्य सम्पत्ति है। भारतवर्ष के राष्ट्रीय धर्म ग्रन्थ बनने के लिए जिन जिन नियमों की आवश्यकता है, वे सब गीता में मिलते हैं। इसमें केवल उपर्युक्त बातें ही नहीं हैं अपितु यह सबसे बढ़कर भावी विश्वधर्म का धर्मग्रन्थ है। भारतवर्ष के प्रकाशपूर्ण अतीत का यह महादान। मनुष्य जाति के और भी उज्ज्वल भविष्य का निर्माता है।

कल्याण का भगवद्गीतांक, पृष्ठ 93

श्रीमान् वारन हेस्ंटिग्स महोदय कहते हैं-

“किसी भी जाति को उन्नति शिखर पर चढ़ाने के लिए गीता का उपदेश अद्वितीय है।”

कल्याण का भगवद्गीतांक, पृष्ठ-108

श्रीमती डॉक्टर वीसेंट महोदया लिखती हैं-

“मानसिक विकास के निमित्त गीता का अधययन कर रुक जाना ठीक नहीं है, अपितु उसके सिध्दान्तों को कुछ अंश तक कार्य रूप में परिणत करना आवश्यक है। गीता कोई साधारण संगीत अथवा ग्रन्थ नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण ने इसका उपदेश उस समय किया था, जिस समय उनका आत्मा अत्यन्त प्रबुद्ध था।”

कल्याण का भगवद्गीतांक, पृष्ठ 145

श्रीमान् लार्डरोनाल्डशे कहते हैं-

“सत्य की कोई निर्दोष कसौटी निर्धारित करना कितना कठिन है, यह मैं भली भाँति जानता हूँ। सत् विश्वास, सत् संकल्प, सत्य भाषणादि आठ प्रकार के श्रेष्ठ कर्तव्यों में सत् क्या है, इसका निर्णय कौन करे? इस प्रश्न का उत्तर एक प्रकार से बौद्ध धर्म में मिलता है। परन्तु भगवद्गीता में इसका विवेचन बहुत सुन्दर ढंग से किया गया है। उसमें यह निश्चित रूप से बतलाया गया है कि मनुष्य स्वयं कर्मों को त्याग कर ही उनके बन्धन से मुक्त नहीं होता, और न केवल संन्यास से ही वह परम पद को प्राप्त कर सकता है। परमपद को वह पाता है, जिसके कर्म आकांक्षा रहित होते हैं। जिसने कर्मों के फल की आसक्ति को त्याग दिया है, जिसको किसी वस्तु की इच्छा अथवा लोभ नहीं है, जिसने अपने मन को वश में कर लिया है, और जो निरीह होकर शरीर मात्र से ही कर्म करता है।

कल्याण का भगवद्गीतांक, पृष्ठ 393

मुसल्मान् निद्वान् सय्यद मुहम्मद हाफिज साहब एम.ए.एल. टी लिखते हैं-

“भगवद्गीता योग का एक ऐसा ग्रन्थ है जो सर्व भूतों के लिए अर्थात् किसी जाति वर्ण अथवा धर्म विशेष के लिए नहीं, किन्तु सारी मानव जाति के लिए उपयोगी हो सकता है।”

कल्याण का भगवद्गीतांक, पृष्ठ 194

“जगत के सम्पूर्ण साहित्य में, चाहे सार्वजनिक लाभ की दृष्टि से देखा जाय, और चाहे व्यावहारिक प्रभाव की दृष्टि से देखा जाय, भगवद्गीता के जोड़ का अन्य कोई भी काव्य नहीं है। दर्शन शास्त्र होते हुए भी यह सर्वदा पद्य की भाँति नवीन और रस पूर्ण है। इसमें मुख्यत: तार्किक शैली होने पर भी यह एक भक्ति ग्रन्थ है। यह भारतवर्ष प्राचीन इतिहास के अत्यन्त घातक युद्ध का एक अभिनय पूर्ण दृश्य चित्र होने पर भी शान्ति तथा सूक्ष्मता से पूर्ण है। और सांख्यसिध्दान्तों पर प्रतिष्ठित होने पर भी यह उस सर्व स्वामी की अनन्य भक्ति का प्रचार करता है। अधययन के लिए इससे अधिक आकर्षक सामग्री कहाँ उपलब्ध हो सकती है।”

जे.एन.पूर व्यूहर एम.ए., पृष्ठ 18

“यह प्रत्यक्ष है कि ईसा तथा उनके धर्म प्रचारक ख़ास करके पाल (Paul) इन वैदिक शास्त्रों को अपने साथ रखते थे, और वे स्वयं श्री कृष्ण द्वारा उपदेश किये हुए इस (गीता संबंधी) धर्म ज्ञान के समझने में निपुण थे।”

हाल्डेन एडवर्ड सैम्पसन, पृष्ठ 207

“गीता में भगवान श्री कृष्ण के विचार भरे हैं। यह ग्रन्थ इतना अमूल्य और आध्यात्मिक भावों से पूर्ण है कि मैं समय-समय पर परमात्मा से सर्वदा यह प्रार्थना करता आया हूँ कि मुझ पर इतनी दया करें और शक्ति प्रदान करें जिससे मैं मृत्यु काल पर्यंत इस सन्देश को एक स्थान से दूसरे स्थान में पहुँचा सकूँ।

साधु टी.एल. बस्वानी, पृष्ठ 343

गीता के प्रामाणिक और सर्वमान्य ग्रन्थ होने के प्रमाण स्वरूप जितने विदेशी और विजातीय सज्जनों के लेख और नोटिस मैंने उद्धृत किये हैं, उनके अतिरिक्त भगवद्गीतांक में महात्मा थारो, डॉक्टर मेकनिकल, चार्लस जोन्सटन रेवरेंड, ई-डी. आइस, सर एडविन और नोल्ड, डॉक्टर एलजेल्यूडसे की पत्नी (जर्मनी) और न्यूयार्क (अमेरिका) निवासी ईष्ट ऐंड वेस्ट के एडीटर के भी नोट्स और लेख भगवद्गीतांक में हैं, पर मैंने उनको विस्तार भय से नहीं उठाया है। अंग्रेजी में दो ही लेख मिले, जो यथा तथ्य लिख लिए गये हैं। शेष लेख हिन्दी भाषा में ही लिखे गये। इसलिए उनको हिन्दी भाषा में लिखा गया है। भगवद्गीतांक के प्रकाशक ने लेखकों के अपनी भाषा में लिखे गये लेखों का अनुवाद कराकर उन्हें हिन्दी भाषा में छापा है। या लेखकों ने ही अपने-अपने लेखों और नोटों का अनुवाद कराकर उनके पास भेजा है। मुझको भगवद्गीता का महत्व प्रकट करने के लिए ही उन लेखों और नोटों को यथातथ्य उध्दृत करना पड़ा है। मैं समझता हूँ उन सबके पढ़ जाने पर यह ज्ञात हो जायेगा कि भगवद्गीता का कितना अधिक महत्व है और अन्य धर्म वालों में भी उसका कितना अधिक आदर है। मैं भगवद्गीता की जन्मान्तरवाद सम्बन्धी सम्मति को नीचे लिखता हूँ, वह कितनी उपपत्ति मूलक और अनुपम है, इसे वह स्वयं सूचित करेगी-

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय। नवानिर्गृीति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणिविहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानिदेही।

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।

तथा देहान्तरप्राप्तिधीरस्तत्र न मुह्यति।

जातस्य हि ध्रुववो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च।

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप।

जैसे पुराने कपड़े को उतार कर मनुष्य दूसरा नया कपड़ा धारण करता है, उसी प्रकार जीर्ण शरीर को छोड़कर वह मरने पर दूसरा नया शरीर प्राप्त कर जन्म लेता है। “जैसे देह धारी के इस देह में कौमार, यौवन और जरा है, उसी प्रकार मरने पर देहान्तर की प्राप्ति है, धीरे मनुष्य को इससे मोहग्रस्त न होना चाहिए” “जो उत्पन्न हुआ है वह अवश्य मरेगा और जो मरेगा फिर उसका जन्म अवश्य होगा” “बहुत जन्मों के अन्त में ज्ञानवान मुझको (ईश्वर को) पाता है” “हे अर्जुन हमारे और तुमारे बहुत जन्म व्यतीत हो चुके हैं, उन सबों का ज्ञान मुझको है, हे परन्तप! तुम्हें उसका ज्ञान नहीं है।”

उपनिषदों, दर्शन ग्रन्थों, महाभारत और पुराणों में जन्मान्तर वाद का वर्णन विशद रूप में उदाहरणों के साथ है, परन्तु लोक मान्य ऋग्वेद, पुनीत-मनु स्मृति और समादरणीय भगवद्गीता का प्रमाण उपस्थित करने के बाद अब मैं उन ग्रन्थों में से कुछ प्रमाण उपस्थित करने की आवश्यकता नहीं समझता। अब मैं योरप और अमेरिका आदि के कुछ विजातीय विद्वानों और बहुतों की सम्मति आप लोगों के सामने उपस्थित करूँगा, जिससे यह ज्ञात हो सके कि परधर्मी और विजातीय होने पर भी सत्यता अनुरोध और वास्तवता के आग्रह से जन्मान्तर वाद के विषय में उन लोगों ने क्या लिखा है। फ्रेंच भाषा में डॉक्टर लूइस साहब ने एक पुस्तक लिखी, उसका अनुवाद अंग्रेजी में हुआ, पश्चात् उसका अनुवाद मुंशी शिवबरन लाल वर्मा ने उर्दू में किया, उसका नाम 'अलहयात वादुल ममात है। उस ग्रंथ में से जन्मान्तरवाद विषयक कुछ अंश लेकर उपस्थित किये जाते हैं। ग्रन्थ की उर्दू भाषा जहाँ जहाँ गहन प्रतीत हुई, वहाँ उसे सरल बना दिया गया है। और प्राय: फारसी शब्दों के स्थान पर संस्कृत शब्द लिख दिये गये हैं।

“यदि पुनर्जन्म का सिद्धान्त ठीक नहीं है, तो मानना पड़ेगा कि जीव शरीर के साथ पैदा होता है, और प्रत्येक मनुष्य के शरीर की उत्पत्ति के साथ नया जीव भी जन्म लेता है। यहाँ यह प्रश्न होगा कि ऐसी दशा में सब जीव एक प्रकार के क्यों नहीं हैं? जब शरीर एक प्रकार के हैं तो जीव को भी वैसा ही होना चाहिए और उनकी बुध्दि और शक्ति इत्यादि में अधिक अन्तर न होना चाहिए। साथ ही यह भी पूछा जा सकता है कि किसी-किसी की प्रकृति की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ क्यों इतनी दृढ़ होती हैं, कि शिक्षा और सुधार का उद्योग व्यर्थ हो जाता है? क्या कारण है कि कोई लड़का जन्म से भला और कोई बुरा होता है। कोई अभिमानी और क्रूर प्रकृति होते हैं, और अपने वंश वालों से अधिक कुचरित्र पाए जाते हैं। कोई लड़के जानवरों को सताकर सुखी होते हैं। कोई-कोई उनको कष्टित और पीड़ित देखकर प्रभावित होते हैं और उन पर दया करते हैं। यदि सबकी आत्मा एक ढाँचे में ढली है, तो शिक्षा और संगति का प्रभाव प्रत्येक बच्चे पर एक-सा क्यों नहीं होता। दो भाई एक ही दर्जे में पढ़ते हैं, एक ही अध्यापक उनको पढ़ाता है, तो भी उनकी उन्नति में बुध्दिमत्त में अन्तर रहता है, एक नेक, सभ्य, परिश्रमी, और सुजन बनता है, दूसरे की प्रकृति बिल्कुल उसके प्रतिकूल होती है। यदि इन दोनों खेतों में एक ही बीज पड़कर इस विपरीत भाव से उगता और पनपता है, तो कल यह न कहा जायगा कि खेतों में अर्थात् दोनों भाइयों की आत्माओं में अन्तर है।

यदि आत्मायें एक प्रकार की होतीं, तो यह दशा कभी न होती। पशुओं के शरीर, वृक्षों के पत्ते, मनुष्यों के तन एक ढंग के होते हैं, उनमें बहुत कम अन्तर होता है। एक मनुष्य की हद्दी का ढाँचा दूसरे जैसा ही होता है। परन्तु आत्माओं में बहुत अन्तर होता है। हम प्रतिदिन सुनते हैं, किसी लड़के को गणित विद्या का अनुराग होता है, अन्य गान विद्या का प्रेमी होता है। तीसरा नक्शा बनाना पसन्द करता है, कोई कुचरित्रता का प्रेमिक होता है और जीवन के आरम्भ में ही बदचलन और विषयी बना दिखलाई देता है।

इतिहासों में भी मानव प्रकृति की स्वाभाविक प्रवृत्ति की विभिन्नता अंकित हुई है। पसकल ने बारह बरस की अवस्था में रेखागणित के एक बड़े विभाग की जाँच पड़ताल की थी, उसको किसी ने शिक्षा नहीं दी थी। न वह गणित विद्या का ही अभिज्ञ था। रेखागणित के चित्र उसके कमरे के दरवाजे पर खींचे हुए मिलते थे। मगीनामेलो नामक गड़रिये ने पाँच बरस की अवस्था में हिसाब लगाने वाली कल निर्माण की थी। मुजारत ने चार ही बरस में बाजा बजाना आरम्भ किया और आठ बरस की अवस्था में पद्य में नाटक रचना की। करासानाम की लड़की चार बरस की अवस्था में इस सुन्दरता से बीन बजाती थी कि मानो उसे माँ के पेट ही में उसने सीखा था। मबरंटे पढ़ने के पहले उस्ताद की तरह नक्शा और तसवीर खींच सकता था।

नये शरीर में नयी आत्मा की उत्पत्ति का सिद्धान्त इस प्रकार की योग्यताओं का विवेचन उपपत्ति के साथ नहीं कर सकता। किन्तु पुनर्जन्म का सिद्धान्त इसको तुरत सिद्ध कर देता है। मनुष्यों में प्राय: सदाचार से बँधी सत् सिध्दान्तों की दृढ़ता प्रत्युत्पन्नमतित्व और विभिन्न प्रकार की उल्लेखनीय योग्यता, पहले जन्म के परिश्रम और सदुद्योगशीलता का फल अथवा परिणाम होती है। दूसरी दृष्टि से पृथ्वी पर मानवी जीवन का सिद्धान्त उपपत्ति मूलक नहीं रह जाता, परन्तु पुनर्जन्म अथवा आवागमन के विचार से वह हल हो जाता है और इस निर्णय से ईश्वरीय न्याय पर कोई आक्षेप भी नहीं हो सकता।”

“मिस्र वाले मृतक शरीर को सुरक्षित रखते थे, इसलिए कि उसकी आत्मा और जगह न चली जावे, परन्तु रोम वाले उसको जला दिया करते थे, जिसमें आत्मा को स्वातन्त्रय प्राप्त हो, कि तत्काल वह प्रकृति नियमानुसार पुनर्जन्म लाभ करे।”

“फीसागोरस यूनानियों में सबसे बड़ा दार्शनिक था। उसने पुनर्जन्म सिद्धान्त रोम वालों से सीखा था, उसने इस विचार का प्रचार यूनान में किया, वहाँ यह विचार इतना मान्य हुआ कि सब लोग विश्वास करने लगे कि पापियों को पशुयोनि में जन्म लेना पड़ता है।”

“अफलातून ने आत्मा की अमरता का वर्णन करते हुए, इस विचार को अधिक व्यापक बनाया है। उसका विश्वास था, कि जो कुछ हमने पहले जन्म में किया है, संसार में उन घटनाओं का ज्ञान किसी-किसी रूप में अवश्य रहता है और इस जन्म में हमारा नयी-नयी बातें सीखना अपने आपको स्मरण रखने की दलील है।”

“उन तीन उपादानों में से जो मनुष्य को प्राप्त हैं, केवल आत्मा ही अमर है। शरीर के नाश और जीवन के समाप्त होने पर जब आत्मा परमाणु सम्बन्धी शृंखला को तोड़ डालती है, तब उसको अनुभव, प्यार और विचारों के लिए नया शरीर धारण करना पड़ता है, जो मानवी शरीर से विशेषता प्राप्त और अनुपम ज्ञान शक्ति से सम्पन्न होता है। इस शरीर की देहधारी आत्मा को पितर (पितृ) कहते हैं। प्रश्न यह होगा, पितर रहते कहाँ हैं। उत्तर यह है कि जब पानी में, हवा में, मिट्टी में जीव पाये जाते हैं तो अन्तरिक्ष (ईश्वर) उनसे रहित क्यों होगा। वास्तव बात यह है कि पितर लोगों का ही निवास अन्तरिक्ष में है, जिनको नये जन्म के महज्जन कहते हैं और जिनमें सब प्रकार का सदाचार सम्बन्धी कमाल होता है।”

जन्मान्तर वाद सम्बन्धी मैंने जितने प्रमाण 'अलहयात बादुलममात' से उठाए हैं, वे सब युक्ति संगत और पक्षपात रहित हैं और विवेकशील विदेशी विजातीय सत्पुरुषों द्वारा लिखे गये हैं। अतएव उक्त सिद्धान्त की व्यापकता और वास्तवता निर्विवाद है। कुछ तर्क पितृलोक के विषय में हो सकता है अतएव इस सिद्धान्त के प्रतिपादन के लिए भी मैं आप लोगों के सामने कुछ प्रमाण उपस्थित कर देना चाहता हूँ। उनसे उक्त सिद्धान्त का प्रतिपादन न होगा, एक लोकोत्तर विषय पर भी प्रकाश पड़ जावेगा।

हिन्दी शब्द सागर पृष्ठ 2119 में पितृलोक के विषय में यह लिखा गया है-

“छांदोग्योपनिषद् में पितृगण का वर्णन करते हुए पितृ लोक को चन्द्रमा से ऊपर कहा है। अथर्ववेद में जो उदन्वती, पीलुमती और प्रद्यौ-ए तीन कक्षायें द्युलोक की कही गयी हैं, उनमें चन्द्रमा प्रथम कक्षा में और पितृलोक या प्रद्यौ तीसरी कक्षा में कहा गया है।” एक स्थान पर 'अलहयात बादुलममात' के रचयिता यह लिखते हैं-

“हमने मानव जन्म के पश्चात् आने वाले व्यक्तित्व को पितर (पितृ) कहा है, पितर के उपरान्त आने वाले शरीर धारी को देवता बतलाया है, परन्तु इससे आगे हम नहीं बढ़ सकते। देवता के बाद उन्नत होकर आत्मा का जो स्वरूप होगा, और क्रमश: तीसरे चौथे ऊँचे-ऊँचे लोकों में उसका जो आकार प्रकार होगा, उसके विषय में यही कहा जा सकता है कि जो आत्मा आदि में मनुष्य के शरीर से निकली थी, वह क्रमश: उन सब उच्च पदों पर से उन्नत और मुकम्मल होती जायगी। राह में कितने उच्च पद और आयेंगे, हमको इसका पूरा पता नहीं है, हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि उनकी संख्या अवश्य अधिक होगी।

“प्रत्येक उच्च पद पर, आकाश सम्बन्धी शरीर की शक्ति, ज्ञान, विवेक,समझबूझ, और अभिज्ञता बढ़ती जावेगी, एवम् ईश्वरीय कार्य कलाप का ज्ञान अधिकाधिक होता जायेगा, और मृत्यु कष्ट के बदले में उसको परमानन्द लाभ होता रहेगा।”

“फिर भी चूंकि इस संसार में प्रत्येक कार्य की समाप्ति होती है, अतएव यही दशा इन उच्च पदों पर क्रमश: चढ़ने वालों की भी रहेगी। इन सब लोकों की यात्रा समाप्त करने और प्रतिष्ठित स्थानों का सुखभोग कर वे अपनी आकाश सम्बन्धी यात्रा को समाप्त करेंगे, और एक विशिष्ट स्थान पर पहुँचेंगे, वह स्थान कौन होगा, हमारा उत्तर है, वह स्थान सूर्य लोक होगा।”

अध्यात्म विज्ञान (Mismerism) द्वारा भी जन्मान्तर वाद की पुष्टि होती है। फ्रांसिस देश के मेसमर नाम के एक साहब ने यह रीति पहले पहल निकाली थी, इसीलिए इसका नाम मिसमेरिज्म है। अमेरिका इस समय का प्रधान समुन्नत और सभ्य देश है, इन दिनों उस देश में मिसमेरिज्म अर्थात् अध्यात्म विज्ञान का बहुत अधिक प्रचार है। इस विज्ञान द्वारा परलोक गत आत्मायें बुलाई जाती हैं, और उनसे कितनी ज्ञातव्य बातों का ज्ञान प्राप्त किया जाता है, इस क्रिया से उनके अस्तित्व का प्रमाण् भी मिलता है। परलोक ग्रन्थ के रचयिता लिखते हैं-

“अध्यात्म विज्ञान की जैसी चर्चा अमेरिका देश में है, वैसी और कहीं नहीं है। इसलिए इस शास्त्र के आधुनिक प्रमाणों की खोज करने से पहले अमेरिका देश में ही जाना पड़ता है। कर्नल प्रलकाट हिन्दुस्तान में आने के पहले अमेरिका देश के वासी थे। आजकल यह जैसे सुविख्यात, धार्मिक सज्जन और सत्य वक्ता कह के परिचित है, अमेरिका देश में भी वे वैसे ही परिचित थे। इस कारण जब उस देश में अध्यात्म विज्ञान सम्बन्धी खबरें बहुत जारी होने लगीं और उनके अद्भुत समझ का जैसे-जैसे आधुनिक वैज्ञानिक लोग उनमें अविश्वास प्रकट करने लगे, वैसे वैसे वे खबरें और भी बहुतायत और विचित्रता से प्रकट होने लगीं। तब अमेरिका देश के प्रधान नगर न्यूयार्क के दो प्रधान समाचार पत्रों ने उन ख़बरों की सत्यता की परीक्षा करने के लिए कर्नल साहब को ही मुकर्रर किया।”

उक्त ग्रन्थकार ने भूमिका में लिखा है कि कर्नल अलकाट ने अध्यात्म विज्ञान पर अंग्रेजी में एक ग्रन्थ भी लिखा है, उस ग्रन्थ का नाम है, 'पीपुल फ्रौमदी अदर वर्ल्ड', उसने यह भी लिखा है, कि परलोक ग्रन्थ का तीसरा भाग उन्हीं के ग्रन्थ के आधार पर लिखा गया है। उसके पढ़ने पर ज्ञात होता है कि अध्यात्म विज्ञान पर उनका अटल विश्वास है। और यह विश्वास उन्होंने उसकी कठोरतम परीक्षा करने के बाद लाभ किया है। परलोक ग्रन्थकार अन्त में लिखते हैं-

“कर्नल अलकाट साहब ने अपनी बड़ी पुस्तक में1 मुक्तत्माओं के संबंध में जितनी बातें लिखी हैं, उन सबका संक्षेप हाल भी देना इस छोटी-सी पुस्तक के लिए सम्भव नहीं। उन्होंने कैसी-कैसी परीक्षा की थी, धोखेबाजी रोकने के लिए कैसे-कैसे यत्न किए थे। किन-किन तदबीरों से2 चक्र के समय3 मीडिपम को उन्हांने बेबस किया था, उन सब बातों का उल्लेख करने से पुस्तक बहुत बड़ी हो जाती। उन्होंने अपने सामने जो कुछ देखा सुना ये सब बातें ऐसे आश्चर्य जनक और अलौकिक अथच अपूर्व मालूम होती हैं कि उन्हें पाठकों के सामने रखने का शौक होने पर भी हम स्थानाभाव से कुछ नहीं लिख सके।”

परलोकगत आत्माओं का धरातल में आह्वान आर्य जाति का चिरकालिक संस्कार है। महाभारत की वह कथा इसका प्रमाण है, जिसमें महर्षि वेदव्यास द्वारा एकरात्रि में परलोकगत दुर्योधानादि वीरों का आह्वान गांधारी आदि को शान्ति प्रदान के लिए हुआ था, जिसकी चर्चा तेरहवें प्रसंग में भी हो चुकी है। इस प्रसंग में जो इस विषय की चर्चा विशेषता से की गयी, उसका उद्देश्य यह है कि यह ज्ञात हो जाये कि योरप और अमेरिका आदि के बड़े-बड़े मान्य अनेक विद्वानों ने भी इस सिद्धान्त को माना है और उसकी पुष्टि यथा अवसर सबलता के साथ की है। जिसका मर्म यह है कि यथा काल जन्मान्तरवाद का समर्थन करते आर्येतर जातियाँ भी पाई जाती हैं, जो उसकी वास्तवता का स्वाभाविक सबल प्रमाण हैं।

बौद्ध धर्म आर्य धर्मान्तर गत है, अतएव उसको भी जन्मान्तरवाद का प्रतिपादन करते देखा जाता है। धर्म्मपद के निम्नलिखित श्लोक इसके प्रमाण है-

अनेक जाति संसार संधा बिस्सं अनिव्विस्सं।

गहकारकं गवेसन्तो दुक्खाजाति पुनप्पुनं।

हे तृष्णे! तुझको खोजते अनेक बार संसार में भ्रमण करना पड़ा, बार-बार जन्म लेना बड़े दु:ख की बात है-

पथय्य एक रज्जेनसग्गस्सगमनेन वा।

सब्ब लोकाधिपच्चेन सोतापत्तिा फलंवरं।

पृथ्वी का एक छत्र राज और स्वर्ग गमन तथा सम्पूर्ण लोकाधिकारी से श्रोतापत्ति

1. मुक्तात्मा-जो आत्मा शरीर को त्याग कर मुक्त हो गयी है।

2. चक्र-गोष्टी-अध्यात्म विज्ञानियों की मण्डली।

3. मिडिपम-आवाहन के समय जिस व्यक्ति पर मुक्तात्मा का आविर्भाव होता है।

नाममार्ग श्रेष्ठ है। स्थूल तृष्णा को विध्वंसकर शेष सूक्ष्म तृष्णा को भी सातवें जन्म तक शोध कर मुक्त हो जाना श्रोतापत्ति मार्ग कहलाता है।

पुनर्जन्म के विषय में इस्लाम धर्म का निम्नलिखित विचार है। 'महापुरुष मोहम्मद एवम् तत् प्रवर्तित इसलाम धर्म' के रचयिता लिखते हैं-

“इसलाम धर्म में पारलौकिक मत के अन्तर्गत पुनरुत्थान अन्यतर मत है। एक दिन जगत का प्रलय होगा, मरने पर जीवात्मा मृत देह का अवलम्बन कर प्रलय होने तक कब्र में स्थित रहेगा। प्रलय के समय जीव जीर्ण शीर्ण जर्जर देह के बदले नवल शरीर लाभ कर कब्र से निकलेगा, और ईश्वर के विचारासन के सामने जाकर खड़ा होगा। उस समय विचार होने पर ईश्वर पुण्यात्मा प्राणी नित्यस्वर्ग में प्रवेश करेगा। उस समय महापुरुष मुहम्मद स्वीय मण्डलीस्थ पापी लोगों के लिए पाप क्षमा की प्रार्थना करेंगे, अतएव उन लोगों को क्षमा मिलेगी और काफिर लोग अनन्त नरक में निवास करेंगे। जगत का प्रलय कब होगा, यह कोई बतला नहीं सकता। करोड़ों युग अथवा करोड़ों बत्सर के बाद भी वह हो सकता है। प्रलय को हशर या कयामत कहा गया है। इसी कयामत तक आत्मा कब्र में रहेगी। पर कब्रस्थित पुण्यात्मा यथा कथंचित स्वर्गसुख भोग करेंगे। पापी लोगों का कब्र संकीर्ण और अंधाकाराच्छन्न होगी और उसमें वे लोग अत्यन्त दु:ख और कष्ट पाते रहेंगे। प्रलय काल में अशराफील नामक फिरिश्ता सिंगा बजावेगा। कब्र सेस शरीर इस प्रकार आत्मा का उत्थान और विचारादि पारलौकिक मत इसलाम धर्म में नूतन नहीं है। यहूदी और ईसाई लोगों के शास्त्र और बाइबिल में भी इसी तरह का आभास मिलता है।”

यह लिखकर ग्रन्थकार पुनर्जन्म के विषय में अपनी यह सम्मति लिखते हैं-

“हम लोग आध्यात्मिक पुनरुत्थान और पुनर्जन्म स्वीकार करते हैं बाह्यिक और शारीरिक नहीं।” आत्मा जब ईश्वर सहवास और दर्शन श्रवण से विमुग्ध हो जाता है तब उसका उत्थान अर्थात् स्वर्गवास होता है और वह जब ईश्वर के सम्मुख और संसार में पाप परायण रहता है, तब इस लोक में उसका पुनर्जन्म होता है। प्रतिदिन इस प्रकार उत्थान पतन वा जन्म पुन: पुन: होता है। पुण्य से आत्मा से स्वर्ग में उत्थान और पाप से उसका नरक में पतन या संसार में जन्म होता है। नव विधानवादी विज्ञानविरुद्ध, अनैसर्गिक समझकर शारीरिक पुनरुत्थान और पुनर्जन्म पर विश्वास नहीं करते। वे लोग विज्ञान को अभ्रान्त, जीवनशास्त्र, ध्रुवसत्य, समझ कर सर्वदा उसको मान्य करते हैं।”

अन्तिम दोनों विचार जन्मान्तरवाद का प्रतिपादन नहीं करते। प्रथम विचार कितना युक्तिसंगत और विवेकपूर्ण है, उसको साधारण विद्या बुध्दि का मनुष्य भी समझ सकता है, इसलिए उसके विषय में मैं कुछ लिखना नहीं चाहता। रहा दूसरा विचार, उसके लेखक वैज्ञानिक अपने को मानते हैं और कहते हैं, “विज्ञान को अभ्रान्त, जीवन शास्त्र, धु्रव सत्य समझकर वे सर्व उसका मान्य करते हैं।” किन्तु जो विचार उन्होंने प्रकट किये हैं उसको धरातल का कोई धार्मिक सम्प्रदाय कदापि न स्वीकार करेगा। दूसरी बात यह कि श्रीमद्भगवद्गीता वैज्ञानिक ग्रन्थ माना जाता है, जीवन शास्त्र ही नहीं, उस सिद्धान्त को ध्रुव सत्य कहा जाता है, आर्य जाति ही ऐसा मानती और कहती है, यह बात ही नहीं यूरोप और अमेरिका के बहुत से बड़े-बड़े विद्वानों की वही धारणा है। यही बात अध्यात्म विज्ञानियों के विषय में भी कही जा सकती है। उन्होंने पुनर्जन्म के सिद्धान्त को माना है। अध्यात्म विज्ञान वाले परम्परागत आत्माओं का साक्षात्कार धरातल में आह्वान कर कराया करते हैं। इन बातों का उल्लेख पहले पर्याप्त मात्र में हो चुका है। फिर भी ऐसे विचार प्रकट किये जाते हैं, जैसे विचार दूसरे विचार वाले के हैं, तो क्या कहें। सब को धूल उड़ाकर छिपाना यही है। सत्यमेव जयते नानृतम्। सत्य की विजय होती है, झूठ की नहीं।

संसार

संसार क्या है? प्रकृति का क्रीड़ा स्थल, रहस्य निकेतन, अद्भुत व्यापार समूह का आलय, कलितकार्य कलाप का केतन, ललित का लीलामन्दिर, विविध विभूति अवलम्बन, विचित्र चित्र का चित्रपट, अलौकिक कला का कल आकर, भव्य-भाव भवन का वैभव, और है समस्त सौन्दर्य समूह सर्वस्व। ज्ञान-विज्ञान आलोक से यदि वह अलौकिक है, तो महान महिमामय मनस्वियों से अलंकृत। यदि मैं उसके विषय में लिखूँ तो क्या लिखूँ। मेरी विद्या बुध्दि ही क्या। अल्प विषयामति प्रतिभा विभूति वैभव वाणी वीणा अधीश्वरी के विषय में लिख ही क्या सकता है। फिर भी संसार के विषय में कुछ लिखने की इच्छा हुई है, मन मानता नहीं, उसे कैसे मनाऊँ, संसार असार है, यह सुनते-सुनते जी ऊब गया, इसी विषय में कुछ लिखना चाहता हूँ। लिखते बने या न बने, पर लिखूँगा। मन को मनाऊँगा।

एक हास्यरस रसिक महोदय लिखते हैं-

असारे खलु संसारे सारंश्वशुर मन्दिरम्।

हर : हिमालये शेते विष्णुश्शेते महोद धौ ।

इस असार संसार में श्वसुर मन्दिर ही सार है, भगवान शिव का वास हिमालय में है और भगवान विष्णु क्षीर निधि निवासी हैं। इस श्लोक में विरोधाभास है, कवि संसार को असार कहता है, परन्तु वह श्वशुर मन्दिर को सार बतलाता है, जो संसार में ही है, क्योंकि हिमालय और क्षीर सागर संसार में ही हैं, संसार के बाहर नहीं हैं, तब संसार असार कहाँ रहा।

एक भक्तिभाजन भक्त क्या कहते हैं उसे भी सुनिये-

असारे खलु संसारे सारमेतच्चतुष्टयम्।

काश्यां वास : सतां संग : गंगांभ : शंभु पूजनम्।

असार संसार में यह चार वस्तुएँ सार हैं। काशीपुरी का निवास, सन्तों का सत्संग, पवित्र गंगाजल और भगवान शिव का पूजन। जिस संसार में एक ही नहीं चार-चार वस्तुएँ सार हैं, उसको असार कहना उस मुख से जिससे उसको असार कहा था, अपने ही कथन को क्या अपने आप खंडन करना नहीं है। वास्तव बात यह है, सत्यमेव जयते नानृतम्। वास्तव बात यह है कि संसार को असार कहना भ्रम, प्रमाद, अथवा अज्ञानता को छोड़ और कुछ नहीं है। अब आइये एक दिव्य दृश्य अवलोकन कीजिए।

गीत-रोला

बिहँसी प्राची दिशा प्रफुल्ल प्रभात दिखाया।

नभतल नव अनुराग राग रंजित बन पाया।

उदयाचल का खुला द्वार ललिताभा छाई।

लाल रंग में रंगी रंगीली ऊषा आयी। 1 ।

चल वह मोहक चाल प्रकृति प्रिय अंक विकासी।

लोक नयन आलोक अलौकिक ओक निवासी।

आया दिन मणि अरुण बिम्ब में भरे उँजाला।

पहन कंठ में कनक वर्ण किरणों की माला। 2 ।

ज्योति पुंज का जलधि जगमगा के लहराया।

मंजुल हीरक जटित मुकुट हिम गिरि ने पाया।

मुक्ताओं से भरित हो गया उसका अंचल।

कनक पत्र से लसित हुआ गिरि प्रान्त धरातल। 3 ।

हरे भरे सब विपिन बन गये रविकर आकर।

पादप प्रभा निकेत हुए कनकाभा पाकर।

स्वर्ण तार के मिले सकल दिकदिव्य दिखाये।

विकसित हुए प्रसून प्रभूत बिकचता पाये। 4 ।

पहन सुनहला बसन ललित लतिकायें बिलसीं।

कुसुमावलि के ब्याज वह विनोदित हो बिकसीं।

जरतारी साड़ियाँ पैन्ह तितली से खेली।

बिहँस बिहँस कर बेलि बनी बाला अलबेली। 5 ।

लगे छलकने ज्योति पुंज के बहु विष प्याले।

मिले जलाशय ब्याज धारा को मुकुर निराले।

कर किरणों से केलि दिखा उनकी लीलायें।

लगीं नाचने लोल लहर मिस सित सरितायें। 6 ।

ज्योति जाल का स्तंभ बिरच कल्लोलों द्वारा।

मिला मिला नीलाभ सलिल में बिलसित पारा।

बना बना मणि सौध मरीचि मनोहर कर से।

लगा थिरकने सिंधु गान कर मधु मय स्वर से। 7 ।

नगर नगर के कलस चारुता मय बन चमके।

दमक मिले वे स्वयं अन्य दिन मणि से दमके।

आलोकित छत हुई विभा प्रांगण ने पाई।

सदन सदन में ज्योति जगमगाती दिखलाई। 8 ।

सकल दिव्यता सदन दिवस का वदन दिखाया।

तम के कर से छिना विलोचन भव ने पाया।

दिशा समुज्वल हुई मरीचिमयी बन पाई।

सकल कमल कुल कान्त बनों में कमला आयी। 9 ।

कलकल रव से लोक लोक में बजी बधाई।

कुसुमावलि ने विकस विजय माला पहनाई।

विहग वृन्द ने उमग दिवापति स्वागत गाया।

सकल जीव जग गये जगत उत्फुल्ल दिखाया। 10 ।

यह भुवन भास्कर का कार्तिकलाप हैं, उनके विषय में 'अलहयात बादुल ममात', यह लिखता है-

“हमारे पाठकों को यह सुनकर आश्चर्य न होगा, कि मुक्ति प्राप्त पवित्र आत्माओं का निवास स्थान सूर्य है। कतिपय वैज्ञानिकों ने इस सत्यता को स्वीकार कर लिया है। ज्योतिर्विद वूड साहब कहते हैं कि भाग्यमान प्राणियों को जो इन उच्च और श्रेष्ठतमपिण्डों में निवास करते हैं, रात दिन के यातायात की आवश्यकता बिल्कुल नहीं होती। सर्व कालिक और अविनश्वर प्रकाश उनको सदा प्रकाशित रखता है। सूर्यदेव के प्रकाश में रहकर वह अपार शक्तिमान परमेश्वर की कृपालुता की छाया में सर्वदा परम सुरक्षित और प्रसन्न रहते हैं।”

“सूर्यदेव का पद तारक निश्चय में सम्राट् का है, वे ग्रह मण्डल में अद्वितीय पिण्ड होने के अधिकारी हैं। चकितकर गुणों और अवर्णनीय शक्ति से जो पद उनको प्राप्त है, वह महत्तम है। प्रकृति के क्रमश: उच्च से उच्च पद पर आरूढ़ होने देने की क्षमता उनको प्राप्त है।”

“वायु का संचार, धरातल की सिक्तता, समुद्र की तरंगमालायें, सूर्य देव की उष्णता का परिणाम हैं। चुम्बक की शक्तिमत्त भी इम्पियर साहब का मत है कि उन्हीं की तेजस्विता का मूल है।”

“चूँकि सूर्यदेव प्राकृतिक शक्ति के प्रधान यन्त्र हैं, इसलिए रासायनिक क्रिया पर उनका सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है, संसार में प्रकाश और उष्णता का प्रभाव अधिकतर मूल प्रसू और प्राकृतिक उत्पादक शक्ति प्रसू तथा दिव्य दृश्य आधार है। इसलिए उन्हीं पर अधिकतर वनस्पति सम्बन्धी और पाशविक जीवन वृत्ति मूलक उपज का अवलम्ब है। यदि सूर्यदेव न होते तो जीवन पृथ्वीतल से लुप्त हो जाता, जीवन के जनक सूर्यदेव ही हैं।”

“प्रोफेसर टंडन साहब की यह सम्मति है-

जो शक्ति घड़ी की सूई को चलाती है, जिस प्रकार हाथ से प्राप्त हुई है उसी प्रकार कुल पार्थिव शक्ति के केन्द्र सूर्यदेव हैं। ज्वालामुखी पहाड़ों का दहकना, ज्वार भाटे का आना, पृथ्वी तल पर रासायनिक क्रिया का होना, उन्हीं की शक्ति का परिणाम है। उनकी गर्मी समुद्र के पानी को, द्रवित हवा को प्रवाहित और समस्त तूफानों को परिचालित करती है। दरियाओं और हिमाचल के तूदों को उठाकर पहाड़ों की चोटियों पर रखती है। झरने और फुहारों को बड़ी तेजी से बहाती रहती है। बिजली और गरज उसकी आतंकित करने वाली शक्ति है। अग्नि जो ज्योति सम्पन्न है, ज्वाला जो प्रज्वलित है, उनको दिवाकर की ही दिव्यता है। वह हम में विश्व में अग्नि स्वरूप में विद्यमान है यथा समय वह प्रच्छन्न होता रहता भी है। उसके आगमन और प्रयाण में संसार की सारी शक्तियाँ प्रकट होती रहती हैं। ये शक्तियाँ उनकी विभिन्न अवस्थायें हैं, जो यथाकाल प्रकट होती और अन्तर्हित होती रहती हैं, और अपने केन्द्र स्थान से सह्स्त्रों रूप धारण कर आवश्यक कार्य समूह उत्पन्न करती दिखलाती हैं।”

“सूर्यदेव के प्रकाश और गर्मी का प्रभाव पशु समुदाय पर भी पड़ता है, वनस्पति और दूब आदि के पौधे पशुओं के आहार हैं। इसलिए यह अनुमान होता है कि वनस्पति की उत्पत्ति संसार में पशुओं से पहले हुई होगी। यदि वनस्पति की उत्पत्ति न हो तो विश्वास है कि पशुओं के जीवन का निर्वाह न होगा, और उनको मरना पड़ेगा। इसलिए हमको यह स्वीकार करना पड़ेगा, कि जिस प्रकार वनस्पति सूर्यदेव की शक्ति से होती है, उसी प्रकार उन्हीं की शक्ति पशु वृन्द की उत्पत्ति का कारण भी है।”

सूर्य देव के विषय में अब तक जो लिखा गया है, उससे ज्ञात होगा, कि आकाश के एक पिण्ड की कितनी महत्ता है और वह कितना प्रभावशाली है। रात्रि में आकाश को देखिए तो उसमें असंख्य तारे जगमगाते दृष्टिगत होते हैं। हमारे सूर्य जैसे ही उसमें कितने सूर्य हैं, और हमारे सूर्य से भी अधिक प्रभावशाली और शक्तिमान अनेक सूर्य उसमें होने की भी सम्भावना है। अब सोचिये संसार में कितना अधिक सार है, क्या इसका अनुमान हो सकता है, कदापि नहीं। यदि कहा जाय संसार का अर्थ मृत्युलोक भी तो है, प्राय: असार उसी को कहा जाता है। तो प्रश्न यह है कि क्या मृत्युलोक में सार नहीं है? नहीं, मृत्युलोक में भी सार है। काशी के निवास को, पतित पावनी भगवती भागीरथी के जल को, सत्संग को, भगवान भूतनाथ के अर्चन को क्या सार नहीं बतलाया गया है। फिर क्यों कहा जाए कि मृत्युलोक में सार नहीं है। बात यह है कि तत्तव का ज्ञान होना चाहिए, तत्तवज्ञ होने पर अनेक शंकायें दूर होजाती हैं, आइये हम लोग भी मननशील बनें। और वास्तवता को विचार दृष्टि से देखें।

काशी में क्यों सार है, इसलिए कि वहाँ सत्संग का अवसर मिलता है, वहाँ पुण्य सलिला भागीरथी का प्रवाह है और है भगवान भूतभावन की आराधना की सुविधा। स्वयं प्रवृत्त होकर काशी वास करने वालों की कमी नहीं है, पर काशी वास का मर्म क्या है, इसका वास्तविक ज्ञान कितने लोगों को है। काशी में कई कॉलेज हैं, अनेक स्कूल और पाठशाला हैं, विद्यार्थियों की वहाँ भरमार है, किन्तु उनका उद्देश्य विद्यार्जन है, अधययन कार्य समाप्त हो जाने पर वे घर का मार्ग ग्रहण करते हैं, और अपनी इच्छा के अनुसार सांसारिक कार्य में प्रवृत्त होते हैं। इसी प्रकार अनेक कार्य सूत्र से बहुत से प्राणी कुछ काल तक अथवा अधिक समय पर्यन्त काशी में निवास करते हैं, और कार्य साधन उपरान्त वहाँ से बिदा हो जाते हैं। पर काशीवास का यह अर्थ नहीं है। उसका अर्थ है, सात्तिवक भाव से, मानव जीवन को चरितार्थ करने के लिए, वास्तविक ज्ञानार्जन निमित्त, काशी में निवास करना। किन्तु ऐसे विचार वाले कितने हैं। बहुत थोड़े। अधिकांश स्वार्थ साधन विचार वाले ही वहाँ मिलेंगे। अनेक प्राणी वहाँ धनमान बनने के इच्छुक हैं। धन लाभ के लिए कितनी प्रवंचना वे करते हैं, कितना झूठ बोलते हैं, कैसी-कैसी चालें चलते हैं, कैसे-कैसे पेचपाच से काम लेते हैं,उनकी अधिक चर्चा ही कर्म है, इन बातों को कौन नहीं जानता। कितने कूटनीतिक वहाँ ऐसे हैं, ऑंखों में धूल झोंकना ही जिनका काम है। कितने ऐसे कुचरित्र वहाँ हैं, जिनके लिए दाल की मंडी तो है ही, फिर भी उनके अत्याचारों से कुल बालाओं का जीवन भी संकटापन्न होता रहता है। कितने लम्पट हैं, कितने प्रवंचक हैं, कितने चोर ठग हैं। कितने प्राणी वहाँ ऐसे हैं, जिनके लिए यह कहना ठीक है, 'करतब वायस वेशमराला', एक समूह यहाँ ऐसा है, जो हिन्दू धर्म का शत्रु है, वैदिक विचारों पर आघात करने वाला है, शास्त्रों का निन्दक है, और है परमात्मा की प्रतिमूर्ति। कितने ही वहाँ ऐसे हैं, जो जन्म-भर पाप करते हैं, पर अन्तिम दिनों में यह विचार कर काशी में आते हैं, कि 'काश्यां मरणे मुक्ति:' काशी में मरने से मुक्ति मिल जाएगी। किन्तु वहाँ आकर प्रकृति के दास बने ही रहते हैं, और यह नहीं सोचते, कि अन्य स्थान का किया हुआ पाप तो तीर्थ में आकर शुध्दाचरण से रहने पर छूट जाता है। पर तीर्थ का किया हुआ पाप कहाँ छूटेगा। कितने पण्डे पुजारी वहाँ ऐसे हैं, जिनके कर्म उनको पतित बनाते रहते हैं, परन्तु उनकी ऑंखें नहीं खुलतीं, और कलंक का टीका वे लोग लगाते ही रहते हैं। कुछ ऐसे कामचोर, आलसी, साधु वेश बनाए, जटा रखे, गेरुआ कपड़े पहने वहाँ देखे जाते हैं, जो संसार की असारता का राग अलापते फिरते हैं, जगत को जंजाल बताते हैं, पर माया के फंदे में पड़े रहते हैं, बिराग की बातें कहते हैं, पर उनके ज्ञान और विवेक के नेत्र बन्द होते हैं। इस प्रकार के और बहुत से लोग बतलाये जा सकते हैं जिनका काशी निवास काशीवास नहीं कहा जा सकता। ऐसे लोगों का जीवन असार जीवन है, इन लोगों के जीवन में सार कहाँ। परन्तु काशी में ऐसे लोग भी हैं, जिनके जीवन को सार अथवा पवित्र जीवन कहा जा सकता है, वे लोग इने-गिने ही हैं, पर उन लोगों का वास ही काशीवास को सारता प्रदान करता है। यदि इन महात्माओं और संतजनों का सत्संग किया जाता है, एवं मान्य अथवा सदाचारी विद्वज्जनों की शिक्षा-दीक्षाग्रहण की जाती है, तो अनेक भ्रान्तजनों और अज्ञानियों की ऑंखें खुल जाती हैं, और वे विशेष कर असमय अथवा अयबा रीति से साधु वेशधारी जन तत्तव को समझ जाते हैं और उचित पथावलम्बी बनने की चेष्टा करते हैं-वह काशीवास और सत्संग की सारता का ही प्रमाण हैं।

सत्संग में विशेष सार माना गया है, इसलिए कि उसके द्वारा वह अज्ञान का परदा ऑंख पर से उठ जाता है, जिससे प्राणी किंकर्तव्यविमूढ़ होता रहता है, यदि किंकर्तव्यविमूढ़ के अत्याचारों का विचार करें, और उनके इतिहास के पृष्ठों पर ऑंख डालें तो वह ऐसा कौन हृदय है, जिसे मर्मान्तक कष्ट न होगा। धरातल काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का निकेतन है। स्वार्थांधता उसकी रगरग में भरी है, यदि यह सुनकर कि वीर भोग्या वसुंधरा है, राज्य अधयक्ष विक्षिप्त हो जाता है, और अवनी को रक्त रंजित बनाने से नहीं घबराता तो कितने ऐसे दर्प से दर्पित हो गये हैं, जिन्होंने धरातल को ही उलट देना चाहा। यदि चक्रवर्ती बनने के लिए कुछ लोगों ने लोक संहारक चक्र चलाया, तो सम्राट् होने की कामना से कई लोगों ने कतिपय प्रेदशों को ध्वंस विशेष करके छोड़ा। हूणों, तुरकों, रूम वालों और अरबों ने लोक संहार और अत्याचारों की यदि लोक कम्पितकर लीलायें दिखलाईं, तो चंगेज़ ख़ां, महमूद गज़नवी, शहाबुद्दीन गोरी, और नादिरशाह ने विकरालकाल की मूर्ति धारणकर लोहू की नदियाँ बहाईं। भारत का महाभारत भी कम चित्त प्रकम्पितकर नहीं है। आजकल भी कालिका का कराल करवाल कम नहीं चमक रहा है, यूरोप, एशिया, अफरीका सब जगह प्रलयकर कलाएँ दृष्टिगोचर हो रही हैं-इस समय की रक्तपात लीलायें मैंने व्यथित होकर निम्नलिखित शब्दों में लिखी हैं।

विकराल काल

चौपदे

आज है किलक रही काली। सबल है लेलिहान रसना।

दिखाकर लाल लाल ऑंखें। काल है बहु विकराल बना। 1 ।

है बड़े वेग सहित बहती। धरा पर लोहू की धारा।

करारा जिसका बनता है। कटे लाखों कपाल द्वारा। 2 ।

बहुत से निरपराधियों पर। वृथा है वह विपत्ति आती।

यातनायें जिनकी देखे। दहलती है वसुधा छाती। 3 ।

फुँक रहे हैं सुरपुर से पुर। ध्वंस होते हैं ऐसे नगर।

जो रहे अमरावती सदृश। अलौकिक बहु विभूति आकर। 4 ।

गगन है हाहाकार भरा। दिशा है दहली दिखलाती।

काँपती है जनता सारी। छिल गयी मानवता छाती। 5 ।

दिखाती हैं सड़कें पटती। मृतक मनु जातों के तन से।

इन दिनों समय बन गया है। भयंकर विषधर फन से। 6 ।

कुसुम कोमल बालक कितने। कहीं भू पर हैं मरे पड़े।

छिन्न अवयव देखे जिनके। न होंगे किसके रोम खड़े। 7 ।

कहीं पर कितनी सुन्दरियाँ। सिसिक कर हैं आहें भरती।

छातियाँ छिदने से कितनी। साँसतें सह सह हैं मरती। 8 ।

तड़प मरते दिखलाते हैं। कहीं ऐसे हट्टे कट्टे।

नहीं यमराज छुड़ा पाते। पकड़ पाते यदि वे गट्टे। 9 ।

किन्तु है मदांधता मचली। विजय लालसा लहू प्यासी।

गले में सब सुनीतियों के। लगी है कूट नीति फाँसी। 10 ।

प्रपंची के प्रपंच में पड़। पिस रही है प्रति दिवस प्रजा।

दनुजता है अनर्थ करती। सबलता की दुंदुभी बजा। 11 ।

बिना जाने अपराध बिना। बिना समझे बूझे बे सबब।

बिना कुछ किये बिना बँहके। पास सुख साधन होते सब। 12 ।

गले लाखों ही कटते हैं। जान जन यों ही देता है।

वही करता मदांध नर है। ठान जो जी में लेता है। 13 ।

फूल बरसाने का सुख वह। बमों को बरसा पाता है।

ज्वाल माला मय नगर उसे। स्वर्ग का समा दिखाता है। 14 ।

प्रबल अत्याचारी का कर। लहू में है बेतरह सना।

निपातन के निमित्त अब तो। बम पतन है पविपात बना। 15 ।

यह तो आज कल के उद्दण्ड शक्तिशाली लोगों का पराक्रम प्रदर्शन है, साधारण लोगों का कदाचार और उच्छृंखलता भी कम निन्दनीय नहीं है। बाहर न जाइये यूरप और अमेरीका आदि की कुत्सित प्रवृत्तियों पर दृष्टि न डाल कर भारत के ही असंयत कृत्यों की विवेचना कीजिए, तो चित्त व्यथित हो जाता है। हमने जटा बढ़ाकर, भगवा अथवा गेरुआ कपड़े पहनकर साधु बनने की चर्चा पहले की है। कितने ढोंगिये हैं जो ढोंग रच कर पेट पालते फिरते हैं, और साधु बन कर पैसे कमाने के लिए वे काम करते हैं, जिनको नीच से नीच आदमी नहीं कर सकता। तेरह चौदह बरस के लड़के भभूत रमाकर चार कौड़ियों के लिए हाथ फैलाये फिरते हैं, और साधु बनने का दम-भरते हैं। क्या यह प्रणाली ठीक है। क्या इन कृत्यों से हिन्दू धर्म की अवहेलना नहीं हो रही है। हिन्दू शास्त्रों में चार आश्रम का उल्लेख है। ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य वानप्रस्थ, और संन्यास। पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य रहता है, पढ़ने लिखने और गार्हस्थ्य धर्म की योग्यता प्राप्त करने के लिए। इसके बाद गार्हस्थ्य धर्म आरम्भ होता है। गार्हस्थ की योग्यता से निर्वाह हो जाने पर देश जाति और लोक सेवा अथवा भगवदाराधना स्वच्छंद भाव से करने की प्रवृत्ति यदि हृदय में उदय हो तो, वानप्रस्थ बनकर संन्यास ग्रहण किया जाता है। यह एक व्यापक नियम है, और संसार यात्रा के लिए यह ऐसा नियम है जिसमें सार है। विशेष अवस्थाओं में इन आश्रमों का पालन यथारीति न हो सके, तो उस अवस्था में वह मार्ग ग्रहण करना उचित है, जो आक्षेप योग्य न हो। बाणप्रस्थ और संन्यास सर्व सुलभ नहीं है। ब्रह्मचर्य आदि आश्रम है, इस आश्रम में जिस प्रकार की शिक्षा-दीक्षा हो, उसे माता-पिता अथवा किसी गुरु से बालक को ग्रहण करना ही पड़ता है। गार्हस्थ आश्रम ही प्राय: जीवनव्यापी सर्व साधारण के लिए होता है। इसलिए यह आश्रम अधिक व्यापक और परमोपयोगी है। और अनेक अवस्थाओं में सर्व सुलभ है। सांसारिक कर्तव्य परायणता की डोरी गृहस्थ के हाथ में है। वह सांसारिक प्रपंचों के पेच में न पड़कर सत्कर्मों को करते हुए मोक्षलाभ का भी अधिकारी है। एक मर्मज्ञ की उक्ति सुनिये-

वनेषुदोषाप्रभवन्तिरागिणम्। गृहेषुपंचेन्द्रिय निग्रहस्तप : ।

अकुत्सितेकर्मणि य : प्र्रवत्तात े। निवृत्ता रागस्य गृहं तपोवनम्।

“जो वास्तविक विरक्त नहीं, वह वन में भी दोष लिप्त हो सकता है। और घर में ही रहे पर पंचेन्द्रिय का निग्रह करता रहे तो तप का फल उसे प्राप्त हो सकता है। जो अकुत्सित कर्म करता रहता है, उसके लिए घर ही तपोवन है।

यह कितना बड़ा तथ्य कथन है, और इस कथन में कितना सार है, किन्तु कितने ऐसे अविवेकी हैं, जो यह समझते हैं, कि बिना गृह त्याग किये, बिना गृहस्थी से छुटकारा पाये, भगवद्भजन हो ही नहीं सकता। क्योंकि कर्म करते रह कर, सांसारिक कर्तव्यों में लिपटे रहकर, भगवदाराधना कैसे हो सकती है। आराधाना के लिए एकान्त स्थान चाहिए, सबसे अलग रहना चाहिए, हाथ में माला चाहिए, कपड़े लत्तो की परवा न होनी चाहिए, खान पान की चिन्ता न करनी चाहिए, इत्यादि, किन्तु यह अज्ञान है। यह भगवदाज्ञा है-

नियतं कुरु कर्मत्वम् कर्म ज्यायोह्यकर्मण : ।

शरीर यात्रापि च तेन प्रसिध्देत्यकर्मण : ।

“ सदा कर्म करो , निष्कर्मा बनने से कर्म करते रहना अच्छा है , शरीर यात्रा का निर्वाह भी बिना कर्म किये नहीं होता। “

कुटुम्ब का पालन करना, परोपकार करते रहना, कष्ट में पड़े लोगों का उध्दार करना, पीड़ितों को त्राण देना, देश और जाति की सेवा में संलग्न रहना पतितों को उठाना, आर्तों को उबारना, इसको समझना कि 'परोपकाराय सतां विभूतय:' ऐसे उद्देश्य हैं, जिनसे च्युत होना, मानव जन्म को नष्ट करना है। गार्हस्थ्य धर्म ही ऐसा है, जिसमें रहकर इन कर्तव्यों का पालन हो सकता है। सार इन्हीं सब कर्मों में है, अन्यथा जीवन असार हो जाता है। सत्संग के बिना इन बातों का यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकता इसीलिए उसमें सार बतलाया गया है।

पतित पावनी भगवती भागीरथी में भी सारता कही गयी है। इसमें वास्तवता है-नीचे लिखे पद्य इस बात को सरलता से साबित करते हैं-

तिलोकी

सुर सरिता को पाकर भारत की धरा।

धन्य हो गयी और स्वर्ण प्रसवा बनी।

हुई शस्य श्यामला सुधा से सिंचिता।

उसे मिले धर्मज्ञ धनद जैसे धनीं। 1 ।

वह काशी जो है प्रकाश से पूरिता।

जहाँ भारती की होती है आरती।

जो सुर सरिता पूत सलिल पाती नहीं।

पतित प्राणियों को तो कैसे तारती। 2 ।

सुन्दर सुन्दर भूति भरे नाना नगर।

किसके अति कमनीय कूल पर हैं लसे।

तीर्थराज को तीर्थं राजता मिल गयी।

किस तटिनी के पावनतम तट पर बसे। 3 ।

हृदय शुद्धता की है परम सहायिका।

सुरसरिता स्वच्छता सरसता मूल है।

उसका जीवन जीवन है बहु जीव का।

उसका कूलतपादिक के अनुकूल है। 4 ।

साधक की साधना सिध्दि उन्मुख हुई।

खुले ज्ञान के नयन अज्ञता से ढके।

किसके जल सेवन से संयम सहित रह।

योग्य योग्यता बहु योगीजन पा सके। 5 ।

जनक प्रकृति प्रतिकूल तरलताग्रहण कर।

भीति रहित हो तप ऋतु के आतंक से।

हरती है तपती धरती के ताप को।

किसकी धारा निकल धराधर अंक से। 6 ।

किससे सिंचते लाखों बीघे खेते हैं।

कौन करोड़ों मन उपजाती अन्न है।

कौन हरित रखती है अगणित वृक्ष को।

सदा सरस रह करती कौन प्रसन्न है। 7 ।

कौन दूर करती घासों की प्यास है।

कौन खिलाती बहु भूखों को अन्न है।

कौन बसन हीनों को देती है बसन।

निर्धन जन को करती धन सम्पन्न है। 8 ।

है उपकार परायणा सुकृति पूरिता।

इसीलिए है ब्रह्म कमण्डल वासिनी।

है कल्याण स्वरूपाभवहित कारिणी।

इसीलिए है शिव शीश बिलासिनी। 9 ।

है सित वसना सरसा परमा सुन्दरी।

देवी बनती है उससे मिल मानवी।

उसे बनाती है रवि कान्ति सुहासिनी।

है जीवन दायिनी लोक की जाद्दवी। 10 ।

अवगाहन कर उसके निर्मल सलिल में।

मल बिहीन बन जाती है यदि मलिन मति।

तो विचित्र क्या है जो नियतन पथ रुके।

सुर सरिता से पा जाते हैं पतित गति। 11 ।

महज्जनों के पद जल में है पूतता।

होती है उसमें जन हित गरिमा भरी।

अतिशयता है उसमें ऐसी भूति की।

इसीलिए है हरिपादोदक सुरसरी। 12 ।

रही बात शंभु पूजन की, जितना सार उसमें है, संसार में उतना सार किसी में नहीं है। प्रकृतिवाद अभिधन, नामक कोष में शंभु का अर्थ लिखा गया है-कल्याण मय होना। यही अर्थ शंकर का है। शिव शब्द भी कल्याण् वाचक है। जिस शक्ति ने दानवता निवारण के लिए दुर्दान्त अनेक दानवों का संहार किया, संसार में शान्ति विस्तार के लिए कभी कालिका बन कराल करवाल धारण किया, कभी देव दुर्गति दूर करने के लिए दुर्गा बनी। कभी प्रचण्ड पामरों का मर्दन कर चंडिका कहलाई। कभी भवन के कल्याण के लिए भवानी कही गयी, यदि उसका प्रेरक अथवा पति कल्याण सर्वस्व शंभु हो तभी तो संसार सत्य सर्वस्व होगा। भगवान भूतभावन की महिमा अकथनीय है। जिस विष से संसार के विध्वंस होने की आशंका थी उसके पान करने वाले ये ही हैं। जो सुरसरी पतित पावनी है, वह उनके जटा जूट की कुछ बूँदें हैं। तारा पति उनके आकाशोपम शीश का एक तारक मात्र है, और कलंकी होकर भी सुधा वर्षण करता रहता है। दैहिक, दैविक, भौतिक तापों का निवारण करने वाला उनके हाथ का अस्त्र त्रिशूल कहलाता है। उनका वाहन वरद है, जो वास्तव में भारत वसुंधरा के लिए वरद है, साल में करोड़ों मन अन्न की उत्पत्ति का आधार वही है, जिससे धरातल के अन्य प्रदेश भी उपकृत होते रहते हैं उनकी नग्नता अनंगता विध्वंसिनी है। तन की विभूति विश्वविभूति है। उनकी समाधि आधि व्याधि विनाशिनी है। उनका ज्ञान ब्रह्मज्ञान है। उनका ध्यान विश्व मूर्ति का ध्यान है। उनकी भक्ति मुक्ति प्रदायिनी ही नहीं है, वह देश जाति और भव भक्ति की जननी भी है, जो कि मानव जीवन सफलता का सर्वस्व है। भारत के लिए तो उनकी मूर्ति प्राणाधार है। क्योंकि वह उन्हीं के आकृति की प्रतिमूर्ति है। मानो वह उसकी तन्मयता का फल है।

निम्नलिखित पद्य को देखिए-

पद

भव्यभारत है भव की मूर्ति।

होती है विभूति से उसकी भक्ति भावनाओं की पूर्ति।

त्रिभुवन के समान ही उसके सिर पर है सुर सरित प्रवाह।

पातक पुंजनिपातन का भी उसको रहता है उत्साह।

सिंह वाहना की सी है उसकी भी सिंह वाहना शक्ति।

शिर पर शशि के धारण करने की भी उसकी है अनुरक्ति।

वह भी नाग वंशधर है यदि हैं भुजंग भूषण सित कंठ।

सकल भूत का हित करने को वह भी रहता है उत्कंठ।

यदि हैं शंभु वृषभ वाहन तो उसे शंभुता का है प्यार।

उसके विपुल , अन्न उत्पादन का है वृषभवंश आधार।

वे त्रिलोक पति हैं वे विभु हैं ; लोकलोक के हैं आलोक।

समझ मर्म यह साध्य और साधक जनका सिद्धान्त विलोक।

जिस दिन सिध्दि लाभ कर बन जायेंगे भव के भक्तअनन्य।

उसी दिवस भारत भूतल वासी वसुधा में होंगे धन्य। 1 ।

भव भक्ति के आधार पर ही शास्त्रों का यह सिद्धान्त वाक्य है-

सत्यं हि तत भृतहितम् यदेव।

परोप काराय सतां विभूतय : ।

सर्व भूत हितेरता :

महिंस्यात् सर्व भूतानि।

अहिंसा परमो धर्म : ।

मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्।

आत्मवत् सर्व भूतेषु य : पश्यति स : पण्डित : ।

यद् यदात्मनि चेच्छेत तत् परस्यायिचिन्तयेत्।

आत्मन : प्रतिकूलानि नयरेषां समाचरेत्।

अयं निज : परो वेति गणना लघु चेतसाम्।

उदार चरितानान्तु वसुधैव कुटुम्बकम्।

“सत्य वही है, जिसमें प्राणि मात्र का हित हो। सज्जनों की विभूति परोकार के लिए है। सर्व प्राणियों का हित करते रहना चाहिए। प्राणियों की हिंसा न होनी चाहिए। अहिंसा परम धर्म है। माता के सम्मान पराई स्त्री को, पर द्रव्य को लोहेसदृश, सर्वभूत अर्थात् सब प्राणियों की आत्मा को अपनी आत्मा के तुल्य जो समझता है, वही विज्ञ अर्थात् पण्डित है। अपनी आत्मा के लिए जो हम चाहते हैं वही दूसरोंकी आत्मा के लिए भी चाहें। अपनी आत्मा के लिए जिसे प्रतिकूल हम समझते हैं, उसको दूसरों की आत्मा के लिए भी प्रतिकूल समझें। यह अपना है, और यह पराया है, यह विचार छोटी तबीयत वालों का होता है। उदार चरित के लिए वसुधा ही कुटुम्ब है।”

शंभु पूजा का अर्थ ही भव पूजा है। भव यदि भगवान भवानी पति की संज्ञा है, तो भव संसार को भी कहते हैं। संसार भव का ही स्वरूप है, 'सर्वम् खल्विदम् ब्रह्म, नेह नानास्ति किंचन, सर्व संसार ब्रह्म है, यहाँ नाना कुछ नहीं है। ऐसी अवस्था में कर्तव्य क्या है? देश की, जाति की, प्राणिमात्र की, कुल संसार की सच्ची सेवा करना, यदि कहा जाय संसार में बड़ी विडम्बना है, वह कदाचार, अत्याचार, पापाचार, आदि से भरा है, पहले इसके विषय में जितनी बातें लिखी गयी हैं, वे अक्षरश: सत्य हैं, तो कैसे सत्यपथ के पथिक होकर किसी का निर्वाह हो सकता है। देश, काल, पात्र का विचार सर्वदा होता आया है, इसलिए उसका विचार न रखना अविवेक होगा। मैं कहूँगा अविवेकी बनने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु मानव में मानवता होनी चाहिए, पशुता नहीं। दूसरी बात यह कि जहाँ संकट का सामना हो, जहाँ प्रपंच मुँह खोले खड़ा हो, जहाँ भयंकर मूर्तियाँ खड़ी दाँत पीसती हों, उलझनें जाल फैलाये हों, तरह-तरह के बखेड़े अड़े हों, उन्हीं स्थानों पर ही तो धर्मधुरंधरता की आवश्यकता होती है। जहाँ बज्र पतन की आशंका है, वहीं धीरज धर्य का सेहरा धारण करता है। प्राण से प्यारा कोई पदार्थ नहीं परन्तु सत्य और सत्यपथ पर धर्मवीर उसको भी उत्सर्ग कर देता है। एक धर्म मर्मज्ञ लिखते हैं-

कर्णस्त्वचा शिविर्मांसम् जीवो जीमूतवाहन : ।

ददौ दधीचि चास्थीनि किमदेय : महात्मनाम्।

कर्ण ने त्वचा, शिवि ने मांस, जीमूतवाहन ने जीव और दधीचि ने शरीर कीकुल अस्थि दे दी। महात्माओं को धर्म के लिए कोई वस्तु अदेय नहीं है। महात्मा ईसा ने धर्म के लिए प्राण देने में सी तक नहीं की, मंसूर वेदान्त वादी (सूफी) था, उसको इसलिए फाँसी दी गयी कि वह अहं ब्रह्म (अनलहक) कहा करता था, परन्तु उसको इसकी तनिक परवाह नहीं हुई, वह समझता था प्रेम एव परोधर्म:। एक कवि कहता है-

चढ़ा मंसूर सूली पर पुकारा इश्कबाज़ों को।

यह उसके बाम का ज़ीना है आये जिसका जी चाहे।

बाद मरने के हुआ मंसूर को भी जोशे इश्क।

खून कहता था अनलहकदार के साया तले।

गुरु अर्जुन देव और गुरु तेगबहादुर ने धर्म पर इस तेजस्विता से प्राण उत्सर्ग किया कि उनका एक रोम भी कम्पित नहीं हुआ। गुरु गोविन्द सिंह के दो लड़के फतेह सिंह और जोरावर सिंह दीवार में चुन दिए गये किन्तु धर्म की ही धाक जमाते गये, मरने की तनिक भी परवाह नहीं की। थोड़े दिन हुए पं. लेखराम और हकीकत राय ने डंके की चोट प्राण दिए, पर चेहरे पर शिकन तक न आयी।

शंभु पूजन के ए सब आदर्श उच्चकोटि के हैं। भवभक्ति में कितना धर्म भाव है, उसमें कितनी व्यापकता है, कितनी लोकोपकार प्रवृत्ति है, कितना त्याग है और है कितनी अलौकिकता, वह अकथनीय है। फिर भी वे इस भाव के प्रकट करने में पूर्ण सफल हुए हैं, उनके पूजन में जितना सार है, उनके लिखने में लेखनी कदापि समर्थ नहीं हो सकती।

संसार की असारता का राग गाकर हिन्दू जाति अब तक जितनी क्षतिग्रस्त हुई है और अब भी जिस अवनति गर्त की ओर जा रही है, उसे देखकर किसका हृदय व्यथित न होगा। इस अनर्थ कुबिचार के प्रपंच में पड़कर कितने कर्मठ निष्कर्म बन गये और बन रहे हैं, कितने कार्य कुशल कर्त्वयमूढ़ हो गये, कितने योग्य अयोग्य कहला रहे हैं, कितने परिश्रमी आलस के फंदे में पड़ गये हैं, कितने साहसी साहस नहीं दिखलाना चाहते। कितने त्यागी हैं कितने विरागी। धन धूल में मिल रहे हैं, घर उजड़ रहा है, और लड़के तबाह हो रहे हैं। पर असारता का रंग अब तक जमा हुआ है, न ऑंखें ठीक-ठीक खुलीं, न कान खडे हुए। मुझको इसकी कथा है, इसलिए सार और असार कहने अपने कुछ विचार प्रकट किए हैं। जिन साधनों से मैंने काम लिया और मेरे लेख के जो आधार हैं, वे ऐसे हैं, जिनकी प्रतिष्ठा हिन्दुओं की चर्चा में अधिक है। इसके अतिरिक्त वे संस्कृत की प्राचीन उक्तियाँ हैं, जो प्रतिष्ठित एवं विश्वास योग्य प्राय: समझी जाती हैं। उदाहरण का स्थान काशी है, वह भारत वर्ष का एक पूज्य नगर है, हिन्दुओं की दृष्टि में उसकी बड़ी प्रतिष्ठा है।

इसका यह अर्थ नहीं है कि मैंने भारत के अन्य नगरों की ऐसा करके अप्रतिष्ठा की है। कदापि नहीं। मेरा यह विचार है कि भारतवर्ष ही नहीं धरातल पर योरप, अमेरिका, एशिया, अफ्रीका आदि में जितने पूज्य और मान्य नगर हैं, जितने मान्य स्थान हैं, जिनमें उसी के समान धर्मशील, विद्वान् ज्ञानमान, परोपकार निरत, लोकहित परायण, उदार देश, जाति हितैषी, भवविभूति सर्वस्व निवास करते हैं, उन सबको काशी के समान ही सारता प्राप्त है, चाहे वे किसी भी स्थान के हों। ऐसे ही भूतल की उन सब सरिताओं को भी वही सारता प्राप्त है, जो भगवती भागीरथी समान पुण्य सलिला और गौरविता हैं। रही बात सत्संग की, उसकी सुविधा कहाँ, या किस देश में नहीं है, सत्संग ही संसार की वह ऐसी विभूति है, समरता स्वयं जिसकी सहचरी है। वह कल्पतरु है, उसकी छाया में मानवता पलती है, वह पारस है जिसको छूकर अवगुण लोहा सोना बनता है। वह प्रकाश है जिसको लाभ कर अज्ञान अन्धाकार दूर होता है, वह पूतसलिल है जो मानस मल को दूर कर उसे निर्मल बनाता है, उसमें संजीवनी का वह गुण है जो निर्जीव को भी सजीव करता है। यही कारण है कि भूतल भर में उसकी प्रतिष्ठा है। रहा शंभुपूजा अथवा ईश्वर उपासना का प्रश्न, इसका उत्तर यह है, कि क्रिया भूतलव्यापिनी ही नहीं विश्वव्यापिनी है। कौन धर्म ऐसा है, जिसका सिर परम प्रभु के सामने नहीं है। इनेगिने नास्तिकों की बात छोड़ दीजिए, वे मुख से जो कहें, पर हृदय प्रभु प्रेमपथ का पथिक ही होता है। वे अपने गुरु को गुरु ही मानते हैं। गुरु नाम परमात्मा का है। भगवद्गीता का यह वचनहै- यद्यद् विभूतिमत्सत्तवम् श्रीमदूर्जितमेववा। तद्तद्देवावत्वगच्छ नम् मम तेजोऽशं संभवम्।

“जो जो विभूतिमान् महापुरुष हैं, अलौकिक श्रीमान् हैं, समस्त द्वारा समुन्नत हैं, उन सबको मेरे तेज और अंश द्वारा संभूत समझो।”

प्रयोजन यह कि ईश्वर उपासना सब सद्भावों की जननी है, अत: त्रिलोक व्यापिनी है। सत्संग भी उसी का एक अंग है। मैंने केवल उनके लिए काशी के चार सार पदार्थों का उल्लेख कर वास्तविक तत्तव का प्रतिपादन किया है। यह निरूपण एक देशी नहीं है, सर्वदेशी है, उसकी प्रतिपादित शैली ही यह बतलाती है। आर्य जाति का धर्म सिद्धान्त सदा सर्वदेश व्यापक रहा है, क्योंकि वह 'वसुधैव कुटुम्बकम् है। मैं उसी सिद्धान्त का अनुमोदक एक साधारण प्राणी हूँ, अन्य पथ का पथिक कैसे हो सकता हूँ। वह पथ ही सत्य और लोकोपकारक है।

।।इति।।

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