इतिहास के अनन्यतम जीवन-शिल्पी (निबंध) : जानकीशरण वर्मा

Itihas Ke Anyatam Jivan-Shilpi (Hindi Article) : Janaki Sharan Verma

अप्रतिम व्यक्तित्व के धनी, महान् विचारक, साहित्य मनीषी डॉ. वृंदावनलाल वर्मा हिंदी-जगत् के अनूठे ऐतिहासिक उपन्यासकार व जीवनगाथा के अनमोल रत्न थे। उनमें कला का लालित्य, जीवन का पराक्रम, संस्कृति का मान और साहित्य का महान् गौरव था। वे अत्यंत संवेदनशील और जागरूक साहित्यकार थे। ऊपर से अत्यंत शांत दिखनेवाले वर्माजी के हृदय में सदैव ज्वालामुखी धधकता था। वे संपूर्ण समाज की पीड़ा को अपने में सँजोए हुए जन-जीवन से अत्यंत घुले-मिले थे। परशोषण और उत्पीड़न उन्हें असह्य था। समाज में अत्याचार और अन्याय देखकर मौन व तटस्थ नहीं रह सकते थे। जैसा कि उन्होंने लिखा है—‘‘जब किसी पर अत्याचार देखता हूँ, चाहे पीडि़त बड़ा हो या छोटा, तब कलम उठाता हूँ।’’ और उनकी लेखनी बिना किसी भय के अत्याचारों और अन्यायों के विरुद्ध चल पड़ती। वर्माजी एक आस्थावान कलाकार थे। जनसाधारण में उनका अटूट विश्वास और आस्था थी। उन्हीं के अनुसार—‘‘जनता को ज्ञान-मार्ग पर लाते-लाते हमारा शरीर भी क्षय हो जाए तो हमारी सुगति हो जाएगी।’’ ऐसी उच्च और पुनीत भाव को लेकर ही वर्माजी साहित्य-जगत् में प्रविष्ट हुए।

वर्माजी ने अपने साहित्य के माध्यम से चेतना व नव-जागृति उत्पन्न कर समाज को स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरित किया। उनका विश्वास था कि स्वतंत्रता अहिंसा मार्ग से नहीं, वरन् सशस्त्र क्रांति द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। इसी से प्रेरित होकर उन्होंने सन् १९०८ में ‘सेनापति ऊदल’ नाटक का सृजन किया, जिसमें अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीयों को सशस्त्र क्रांति के लिए आह्वान किया गया था। इस नाटक के प्रकाशित होते ही तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत ने इसे जप्त कर लिया और वर्माजी पर भी कड़ी निगरानी रखी जाने लगी। किंतु वर्माजी इससे लेशमात्र भी विचलित नहीं हुए और निरंतर देशभक्ति की भावना से प्रेरित होकर स्वाधीनता प्राप्ति के लिए प्रेरणादायक साहित्य का सृजन करते रहे। हाँ, अब वर्माजी छद्म नाम ‘गड़बड़ानंद’ के नाम से लिखने लगे। साथ ही राष्ट्रकवि दादा माखनलाल चतुर्वेदी, श्री बद्रीनाथ भट्ट और श्री श्रीमन्नन द्विवेदी गजपुरी के साथ ‘गोलमालकारिणी सभा’ के सदस्य बन गए, जिसका कार्य क्रांतिकारियों को आर्थिक सहायता पहुँचाना तथा उनके पास हथियार पहुँचाना था। इस प्रकार वर्माजी देशप्रेम, देशभक्ति से ओतप्रोत साहित्य का सृजन करते हुए विज्ञापन से दूर रहकर सक्रिय रूप से देश स्वातंत्र्य के लिए कार्य करते रहे।

वर्माजी बडे़-से-बडे़ संकटों में भी चाहे वे आर्थिक हों अथवा सरकार की ओर से ढाए गए हों, कभी भी अपने धैर्य से डिगे नहीं, न विचलित हुए। वे जीवन में यह आस्था और विश्वास लेकर ही आगे बढे़ हैं—‘‘जीवन निरंतर संघर्ष का ही दूसरा नाम है, धैर्य इसकी साधना का प्रधान अंग है, सहिष्णुता इसकी नाड़ी है, प्रयत्न इसका हृदय तथा प्रसन्नता इसकी देन है। चपेट खा जाने पर भी मन और प्रयत्न को छीजने न दे, वही आगे चलेगा, वही आगे बढे़गा।’’ इसी विश्वास के साथ वर्माजी ने अपने साहित्य का सृजन किया है। वे मानवतावादी थे। बुंदेलखंड में उत्पन्न होने के कारण उन्हें इससे असीम प्रेम, लगाव व ममत्व था। यहाँ का जन-जीवन संस्कृति और वीर गाथाएँ, यहाँ की मिट्टी, नदी, झरने, पठार, पर्वतमाला एवं प्रकृति उन्हें प्रेरणा देतीं, इसी से इनके उपन्यासों में सजीव चित्रण अंकित हुआ है। वर्माजी की प्रकृति आशा, संघर्ष और मानवता का संदेश देती हुई प्रतीत होती है। उन्होंने अपने अधिकांश उपन्यासों के लिए बुंदेलखंड से ही कथानकों का चयन किया है। इसे देश कुछ समीक्षक वर्माजी को एक आंचलिक उपन्यासकार मात्र मानकर उन्हें हिंदी का सर वाल्टर स्कॉट मानते हैं। किंतु वर्माजी को आंचलिकता की लघु सीमा और संकीर्णताओं में नहीं बाँधा जा सकता है। बुंदेली पात्र होते हुए भी उनके उपन्यासों में कहीं भी संकीर्णता व संकुचितता दृष्टिगोचर नहीं होती। उनके संपूर्ण साहित्य में समाज का जन-जीवन झाँकता है, उनमें व्याप्त समस्याएँ संपूर्ण समाज की समस्याएँ हैं, जिन्हें उनमें दरशाया गया है और उनका समाधान अवधूत कर देश को आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया है। वर्माजी ने अतीत से सामग्री लेकर उसमें वर्तमान को ही प्रस्तुत किया है। सच यह है कि उनके उपन्यास भले ही सामंत कथानक के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं, किंतु उनका साहित्य प्राचीन सामंतों का गुणगान करनेवाला साहित्य नहीं, वरन् जीवन का साहित्य है, संघर्ष का साहित्य है तथा आगे बढ़ने की शक्ति एवं सत्प्रेरणा देनेवाला साहित्य है। वर्माजी ने भारत के भूले-बिसरे और बिखरे हुए इतिहास तथा भारतीय संस्कृति को अपने साहित्य में समेटकर उसे नए रूप एवं नए ढंग में प्रस्तुत किया है, जो इनके उच्च चातुर्य व कला का परिचायक है।

वर्माजी श्रेष्ठ उपन्यासकार के साथ ही महान् चिंतक और साहित्य-मनीषी थे। वे साहित्य व कला को केवल मनोरंजन का साधनमात्र नहीं मानते थे। वे साहित्य में ‘सत्यं-शिवं-सुंदरम्’ के उपासक हैं। कला के संबंध में उनके विचार अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। ‘हंस-मयूर’ में वे लिखते हैं—‘‘कला पाशविकता को गलानेवाली, संस्कृति की नाड़ी, विकारों की मुखमर्दिनी अध्यात्म की सहयोगिनी, जीवन का रस, सभ्यता का प्राण और नीति की सहचरी है।’’

उन्होंने इतिहास के चौखटे पर वर्तमान की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न किया है। समाज में फैली हुई संकीर्ण जातिगत भावना, धार्मिक अंधविश्वास और रूढि़गत रीति-रिवाजों पर कड़ी चोट की है। उन्होंने ‘झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई’ में नारायण शास्त्री और छोटी मेहतरानी की प्रेम कहानी, गुलाम गौस खाँ तोपची द्वारा अंग्रेजों के छक्के छुड़ा देना, ‘विराटा की पद्मिनी’ में कुंजर सिंह तथा कुमुद का प्रेम वर्णन, ‘मृगनयनी’ में मान सिंह व निन्नी तथा अटल व लाखी का प्रेम वर्णन कर सांप्रदायिक भावना तथा ऊँच-नीच पर प्रहार कर देशप्रेम एवं समता की ज्योति जाग्रत् की है।

देश के नव-निर्माण के लिए भी वर्माजी सदैव जागरूक व सक्रिय रहे। उनके विचार से जब समाज में श्रम का महत्त्व कम हो जाता है और उससे आस्था डिग जाती है तो उसका पतन होने लगता है। भारतीय समाज की गिरी हुई स्थिति का मूल कारण श्रम के प्रति अनास्था की भावना ही है। ‘भुवन विक्रम’ में वर्माजी कहते हैं, ‘‘श्रम जीवन का गौरव, शौर्य का जनक, संपत्ति का दाता, स्वाभिमान का बीज, चमत्कार का पुरोहित और समाज का प्राण होता है।’’ संपत्ति समाज का अस्थि-पंजर है और श्रम उसका रक्त, मांस, प्राण, धर्म और संस्कृति। वर्माजी समाज में बढ़ती हुई विश्वशृंखला, दरिद्रता, क्षेत्रीय और अलगाव की भावना को वर्तमान सामाजिक व्यवस्था एवं शासकों के अनुत्तरदायी कार्यों को ही मानते थे। ‘भुवन विक्रम’ में वे लिखते हैं—‘‘समाज में जब विभ्रम और भय का घुन लग जाता है, आस्था निर्बल हो जाती है, संकल्प चंचल हो उठता है, पर शोषण बढ़ जाता है; अहंकार, दंभ और अनृत के हठ की बाढ़ आ जाती है, तब विकास-क्रम की कड़ी गलत दिखाई पड़ने लगती है।’’

देश में भावनात्मक एकता के लिए देश की भाषा का ही राष्ट्रभाषा होना नितांत आवश्यक है। वर्माजी की स्पष्ट मान्यता थी कि देश की कोई राष्ट्रभाषा हो सकती है, तो वह हिंदी है। इसी को प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए। राष्ट्र की स्वतंत्रता, इसकी सुरक्षा, अखंडता एवं समृद्धि राष्ट्रीय एकता पर ही निर्भर है, और देश को राष्ट्रीय एकता में बद्ध करने की क्षमता राष्ट्रभाषा हिंदी में ही निहित है। इन्होंने ऐतिहासिक व सामाजिक उपन्यास, नाटक और कहानी-संग्रह मिलाकर लगभग ८२ अनमोल ग्रंथ, जिनमें ‘झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई’, ‘अहिल्याबाई’, ‘दुर्गावती’, ‘गढ़कुडार’, ‘भुवन विक्रम’, ‘मृगनयनी’, ‘अचल मेरा कोई’, ‘देवगढ़ की मुसकान’, ‘कचनार’, ‘विराटा की पद्मिनी’, नाटकों में ‘राखी की लाज’, ‘हंस मयूर’, ‘जहादारशाह’, ‘पीले हाथ’ तथा कहानियों में ‘शरणागत’ आदि लिखकर हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि की है, जिस पर हिंदी साहित्य को गौरव है और जिनका स्थान अंग्रेजी के उपन्यासकार सर वाल्टर स्कॉट से कहीं अधिक ऊँचा है।

वर्माजी का साहित्य अमर साहित्य है, जिसमें वर्तमान समाज के संव्यूहन को बदलने, देश को उन्नत करने और मानवीयता की प्रेरणा देने की अद्भुत क्षमता है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व भारतीय समाज में जो समस्याएँ व्याप्त थीं, वे आज भी किसी-न-किसी रूप में विद्यमान हैं, जिनका समाधान डॉ. वृंदावनलाल वर्मा के साहित्य में उपलब्ध होने से उसकी आधुनिकता और उपयोगिता निरंतर बनी हुई है। वर्माजी ने अपने जीवनकाल में लगभग ८०-८२ ऐतिहासिक, सामाजिक उपन्यास, नाटक और कहानी-संग्रहों का सृजन कर हिंदी साहित्य को अमूल्य रत्न भेंट किए। उनका सामाजिक उपन्यास ‘अमरबेल’ अपने ढंग का अनूठा, प्रेरणात्मक और विचारोत्तेजक है। इसमें विद्वान् उपन्यासकार ने न केवल ग्रामीण समस्याओं और कठिनाइयों को ही उभारा है, बल्कि उनका निराकरण एवं समाधान प्रस्तुत कर समाज को नई दिशा, नई जागृति तथा नए आयाम भी प्रदान किए हैं।

देश की स्वतंत्रता और उसके नव निर्माण के लिए वर्माजी सदैव जागरूक एवं सक्रिय रहे हैं। देशानुराग और देशभक्ति उनके रोम-रोम में समाई हुई थी। देश को पराधीनता और अंग्रेजों द्वारा भारतीयों का शोषण उन्हें असह्य था; यही कारण है कि उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से देशवासियों को देशभक्ति, राष्ट्रीय भावना और स्वातंत्र्य संग्राम के लिए प्रेरित किया। ‘अमरबेल’ में उन्होंने लिखा है—‘‘गुलामी की बेडि़याँ काटने के लिए राष्ट्रीयता अनिवार्य है, परंतु बेडि़याँ हट जाने के बाद वह भावना मानव प्रेम में बदल दी जानी चाहिए, अन्यथा वह प्रचंड वासना बनकर दूसरों को गुलाम बनाने के लिए बेडि़याँ तैयार करेगी।’’

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् देश में जो स्वस्थ वातावरण होना चाहिए था, वह आज देखने को नहीं मिलता। कठिन समस्याओं के धुंध से आच्छादित होने से उसकी प्रगति और विकास में अनेक अवरोध उपस्थित हैं। इस ओर संकेत करते हुए ‘अमरबेल’ में वर्माजी कहते हैं कि ‘‘समाज-वृक्ष को तरह-तरह की अमरबेलें डसे जा रही हैं। वृक्षों की अमरबेलें दिखलाई पड़ती हैं। उनको काट फेंकना सहज है, पर समाज और व्यक्ति की अमरबेलें दिखाई ही नहीं पड़तीं।

‘‘वृक्ष अपने नए जीवन के लिए इन अमरबेलों के मारे कानून बना कहाँ पाता है! अमरबेल तो शोषण के अपने मतलब का कानून बनाती है। अमरबेलों को नष्ट करने के साथ ही कहीं ऐसा न हो कि व्यक्ति और समाज भी काटकर गिरा दिए जाएँ। ये अमरबेलें समाज में फैली हुई कुप्रथाएँ, कागजी स्कीमें, रिश्वत, अनीति, दुराचार और शोषण हैं, जो समाज-वृक्ष को ग्रसित कर उसका रस चूस रही हैं। यदि समय रहते समाज में व्याप्त इन अमरबेलों का सफाया नहीं किया गया तो ये सारे समाज को नष्ट कर डालेंगी।’’

जमींदारी उन्मूलन के पश्चात् भी ग्रामवासी कुंठाग्रस्त हैं। ग्रामीण समस्याएँ भी पूर्ववत् मुहँ फैलाए हुए ग्रामवासियों को निगले जा रही हैं। इस कुप्रथा के समाप्त हो जाने पर भी ग्रामों में जमींदारों का डंडा पुजता है, सेठ और साहूकारों के चंगुल से अब भी निर्धन किसानों को मुक्ति नहीं मिल सकी, खेती के बीज पाने के लिए अब भी उन्हें कथित जमींदारों का मुँह जोहना पड़ता है। पुराने रीति-रिवाज, अधिकारी और लेखपालों की मनमानी के शिकार होना पड़ता है। ‘अमरबेल’ में वर्माजी ने देशराज जमींदार, बाघराज, काली सिंह डाकू अज्जना, डॉ. सनेही राजदुलारी, धरनीधर साहूकार, विक्रम किसान, टहलराम साम्यवादी आदि पात्रों के चरित्र-चित्रण द्वारा उक्त समस्याओं को उभारकर उनका समाधान बताया है।

‘अमरबेल’ के पात्रों के चरित्रों से स्पष्ट है कि वर्तमान पूँजीवादी सड़ी-गली व्यवस्था में जहाँ केवल अर्थ का ही वर्चस्व है, जनता के सच्चे रहनुमाओं का चुना जाना संभव नहीं, जो उसके लिए ऐसे कानूनों की रचना करें, जो शोषण से मुक्ति दिलाकर सच्चे समाजवादी समाज स्थापना में सहायक सिद्ध हों। वर्माजी के मतानुसार, ‘‘जिस प्रकार मात्र अहिंसा से अंग्रेज यहाँ से नहीं हटाए गए। खूनी क्रांति का लाल हाथ जरूर राष्ट्रीय आंदोलन के पीछे था। राष्ट्रीयता उसी के चेताने पर जागकर खड़ी हुई। उसी ने विदेशी शासन को निकाला और उसी की आज जरूरत है।’’ जब तक कानून निर्माता उन्हें क्रियान्वित करनेवाले अधिकारी, कर्मचारियों तथा जनता में सशक्त राष्ट्रीयता की भावना न होगी, तब तक समाज में सुधार की गुंजाइश कैसे हो सकती है?

इतिहास का निर्माण भौतिक तत्त्वों से होता है, व्यक्ति इतिहास नहीं बनाते। यदि समाज का नए सिरे से इतिहास बनाना चाहते हैं तो देश में भौतिक तत्त्वों का निर्माण होगा। केवल भगवान् अथवा भाग्य के भरोसे रहकर हम समाज के विकास को आगे नहीं बढ़ा सकते। इसके लिए हमें कड़ा श्रम करना होगा। ‘पूर्व की ओर’ में वर्माजी के शब्दों में श्रम से पूर्व जन्म के पापों का क्षय होता है और इस जन्म के पुण्य का उदय होता है। श्रम जीवन का गौरव, शौर्य का जनक, संपत्ति का दाता, स्वाभिमान का बीज, चमत्कार का पुरोहित और समाज का बल होता है। संपत्ति समाज का अस्थि-पंजर है और श्रम उसका रक्त-मांस, प्राण-धर्म एवं संस्कृति।

आज प्रायः देखा जाता है कि समाज में आलोचना करना एक फैशन और प्रगतिशीलता का द्योतक बन गया है। डॉ. वर्मा का ऐसा विश्वास है कि कार्य ही मनुष्य को ऊँचा उठाता है और जिस समाज में जितने अधिक इस प्रकार के व्यक्ति होंगे, उतना ही समाज समुन्नत होगा। उन्होंने ‘अमर बेल’ में स्पष्ट कहा है कि काम करनेवाले सिद्धांतों की बहस नहीं करते और सिद्धांतों की बहस करनेवाले काम नहीं करते।

‘अमरबेल’ के डॉ. सनेही के शब्दों में समाज की आर्थिक प्रगति का शासन वैज्ञानिक योजनाएँ करें और दोनों को प्राणशक्ति अध्यात्म दे तो समाज का निरंतर कल्याण होता रहेगा। स्वतंत्रता और अनुशासन का साथ तभी बन सकता है। समाज में सुगंध और दुर्गंध सभी तत्त्व मिश्रित होकर चलते हैं। यदि सुगंधित प्रबलतर हो तो दुर्गंध छिप जाती है। यदि जागृति व्यक्ति में वह प्रार्थना बनी रहे, मन की खोई हुई शक्ति, शुचिता, उसकी तेजस्विता और प्रेरणा हमारे पास फिर लौटे तो वह सुगंध सदा व्यक्ति एवं समाज में प्रबलता के साथ बसी रहेगी।

वर्माजी का सहकारिता में अमिट विश्वास था। वे समाज की सुगंध व देश के चौमुखी विकास के लिए सहकारी प्रयत्न को अचूक साधन मानते थे। उनका ‘अमरबेल’ सहकारिता पर आधारित उत्कृष्ट उपन्यास है, जिसमें वर्तमान समस्याएँ और उनके समाधान पूर्ण रूप से लक्षित होते हैं। सहकारिता के संबंध में वर्माजी का कथन है—‘‘अध्यात्म और भौतिकवाद को जोड़नेवाली एक मजबूत कड़ी सहकारिता ही है—यथार्थ के सिंहासन पर आदर्श की मूर्ति का स्थापन। समाज के वृक्ष को तरह-तरह की अमरबेलें उसे डसे जा रही हैं, उनके काटने का एकमात्र हथियार है—सहकारिता।’’

वर्माजी का चाहे ‘अमरबेल’ उपन्यास हो या ‘भुवन-विक्रम’, चाहे ‘पूर्व की ओर’ नाटक हो या ‘हंस-मयूर’, सभी में आधुनिकता के दर्शन होते हैं और मिलता हैं—वर्तमान समस्याओं से जूझने के लिए मार्गदर्शन। सचमुच उनका जीवंत साहित्य सत्यप्रेरणा और नए समाज-निर्माण के लिए सदैव संबल एवं स्फूर्ति प्रदान करता रहेगा।

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